Sunday, October 26, 2014

आज आप सब को एक नई जानकारी देता हूँ मेरे शरारती बच्च १८५७ को अंग्रेज गदर मानते है पर हम लोग उसे स्वतंत्रता का प्रथम युद्द मानते है -- उस युद्द में जहा देश के सारे लोगो ने अपने प्राणों की आहुति दी वही पर महारानी लक्ष्मी बाई की बुआ महारानी तपस्वनी  और देवी चौधरानी ये दो महान बलिदान को भुलाया नही जा सकता है -----------------



देवी चौधरानी और महारानी तपस्वनी .......

इन दो महिलाओं ने देश की आजादी के लिए वो अलख जगाई जिसे आज 

हम सब भूल गये है ................



नर--- नारी सृष्टि चक्र में दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू है | शक्ति का स्रोत उसी समय फूटता है , जब उसके खनन में इन दोनों का सहयोग होता है |
श्रम शक्ति का आधार ही नारी का वह अनोखा योगदान है , जिसे पुरुष ने कभी स्वीकारा नही है | आज हम जिस आजादी की जिस हवा में सांस ले रहे है , उस बयार को प्रवाहित करने में भारतीय नारी किसी भी पुरुष से किसी कदर पीछे नही रही है | ब्रिटिश हुकूमत के आरम्भिक काल में ही देश की नारी ने ही उसकी दासता को चुनौती दी है और भारत के पौरुष को जगाया है | सन 1763 में बंगाल के भयंकर अकाल के समय अग्रेजो ने निर्धन जनता पर जो जुल्म ढाए , उनका प्रतिकार करने के लिए नारी को ही आगे आना पडा और सन 1763 से 1850 ई . तक की लम्बी लड़ाई में सन्यासियों को ब्रिटिश शासन के मुकाबले के लिए मैदान में उतरना पडा | सन्यासियों की आजादी की ललक के संघर्ष को अंग्रेज इतिहासकारों ने सन्यासी विद्रोह कहकर कमतर बनाने का प्रयास जरुर किया |
सन्यासियों का यह संघर्ष इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि विद्रोह सन्यासी मंडलियो का नेतृत्व करने वाली मुख्यत: दो महिलाये थी -- देवी  चौधरानी  और महारानी तपस्वनी  | देवी चौधरानी मजनू शाह और भवानी पाठक की समकालीन थी | महारानी तपस्वनी ने भी आगे चलकर '' लालकमल '' वाले साधुओं के दल को संगठित किये , पर उनकी सक्रियता सन 1857 की क्रान्ति आरम्भ होने के ठीक पहले तथा उसके बाद बढ़ी थी | सन 1757 में प्लासी के मैदान में सिराजुद्दौला की हार के बाद मीर जाफर गद्दी पर बैठा तो उसने अंग्रेज सेना की सहायता के बदले ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारी मासिक भत्ता देना तय किया | यह धनराशी इतनी अधिक थी कि राजकोष खाली होता गया , किन्तु अंग्रेजो का कर्जा न चुका | मीर जाफर के बाद मीर कासिम गद्दी पर आया , तो कर्ज चुकाने के लिए उसे अंग्रेजो को बर्दमान , मिदनापुर , चटगाँव की जमीदारी देनी पड़ी | पूर्वी भारत में ब्रिटिश शासन का यह पहला चरण था | किन्तु भारतीय जनता ने इसे स्वीकार नही किया और यहाँ -- वहा  जन -- विद्रोह भड़क उठे | इन्ही जनविद्रोहियों में सन्यासी विद्रोह प्रमुख था | 1763 से 1800 ई. तक की लम्बी अवधि में जगह -- जगह पर इन सन्यासियों के छापामार हमलो ने अंग्रेजो की नीद हराम किये रखी | कई स्थानों पर तो अंग्रेजो को नाको चने चबाने पड़े , हालाकि बाद में ये विद्रोह अंग्रेजो द्वारा निर्ममता पूर्वक कुचल दिया गया , किन्तु फिर भी भारत की आजादी की लड़ाई में इसका महत्व इसलिए बहुत बढ़ जाता है कि यह लड़ाई दो महिलाओं के नेतृत्व में लड़ी गयी  थी |
सन्यासी विद्रोह के प्रथम चरण का नेतृत्व मुख्यत: देवी चौधरानी ने किया | उनके साथ इस विद्रोह के अन्य प्रमुख नेता मजनू शाह , मुसा शाह , चिराग  अली , भवानी  पाठक आदि भी थे | आजादी के इस संघर्ष के दूसरे चरण में महारानी तपस्वनी का नाम उभर कर आया , जिन्होंने  '' लाल कमल '' वाले साधुओ के दल को संगठित किये , जिनकी सक्रियता सन 1857 की क्रान्ति आरम्भ होने के ठीक पहले और बाद में बढ़ी थी |
सन्यासी विद्रोह से जुड़े लोग मुल्त: लुटेरे नही स्वतंत्रता सेनानी थे , जो स्थानीय जमीदारो और अंग्रेज अधिकारियों के गठबंधन के शिकार गरीब किसानो , और कारीगरों की मदद करने और अंग्रेजो को भारत भूमि से खदेड़ने के लिए छापामार युद्ध लड़ रहे थे | इस विद्रोह की नायिका देवी चौधरानी को अंग्रेज इतिहासकारों ने '' दस्यु रानी '' कहा है , जब कि वह अंग्रेजी शासन के विरुद्ध प्रबल क्रांतिकारी की भूमिका अदा कर रही थी | सन्यासी विद्रोह के पुलिस योद्धा  फकीर मजनू शाह ने सन 1774 -- 75 में एक विराट विद्रोही संगठन बनाया था |सन 1776 में उन्होंने तत्कालीन कम्पनी सरकार से कई बड़ी टक्कर ली | 29 दिसम्बर 1786 को अंग्रेजी सेना से मुटभेड में वह गम्भीर रूप से घायल हुए और अगले दिन अर्थात 30 दिसम्बर को उनकी मृत्यु हो गयी | बाद में उनके शिष्य भावानी पाठक ने बार -- बार धन -- दौलत और हथियार लूटे | 1788 में  वह भी एक बजरे में अपने साथ बहादुरों के साथ पकडे गए और मौत के घाट उतार दिए गये | सन्यासी विद्रोह की सूत्रधार देवी चौधरानी इसी विद्रोह टोली की मुखिया था | ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के तत्कालीन लेफ्टिनेन्ट ब्रेनन की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि भावानी पाठक की विद्रोही गतिविधियों के पीछे देवी चौधरानी का प्रमुख हाथ था | उनके अधीन अनेक वेतन भोगी बरकन्दाज थे , इनके रख रखाव के लिए देवी चौधरानी भवानी पाठक से लूटपाट के धन का हिस्सा लेती थी | अंत तक वह अंग्रेजो के हाथ नही आई |प्राप्त  रिकार्डो में , आधुनिक इतिहासकारों के लिए , गिरफ्तार करने के लिए अधिकारियों द्वारा उपर से आदेश लेने के उल्लेख के अलावा देवी चौधरानी के बारे में अन्य विवरण नही मिलता है | बकिमचन्द्र  के सुप्रसिद्ध उपन्यास '' आनन्द मठ '' में इसी सन्यासी विद्रोह की गतिविधियों का अच्छा दिग्द्ददर्शन इतिहास खोजी के लिए विस्तृत विवरण सहित उपलब्ध है | उपलब्ध विवरण में लेफ्टिनेन्ट ब्रेनन की उस समय की रिपोर्ट में उन्हें भवानी पाठक दल की '' क्रूर '' नेता मानने और उनकी गिरफ्तारी के लिए उपर से आदेश होने का भी उल्लेख है |
एक बड़े सन्यासी योद्धा  दल, जो अपने नाविक बेड़े में राज रानियों  की तरह रहती थी | उनके पास बहादुर लड़ाकुओ की एक बड़ी सेना थी | कई सन्यासी योद्धा  उसकी वीरता का लोहा मानते थे |
पकड़ी जाती तो उन्हें गिरफ्तार करने या मार डालने का शेखी भरा उल्लेख अंग्रेजो के छोड़े रिकार्ड में कही तो मिलता | मजनू शाह फकीर , भवानी पाठक , आदि सन्यासी योद्धाओं  को फला -- फला मुटभेड में मारे जाने का उल्लेख मिलते है , तो देवी चौधरानी के बारे में क्यों नही  ? लगता है , वह कभी अंग्रेजो के हाथ नही आई और दमन चक्र के समय रहस्मय ढंग से गायब हो गई |
लगभग बीस वर्षो तक चलते रहे आजादी के इस प्राथमिक संघर्ष में सन्यासी विद्रोह की एक मात्र सशक्त महिला नेता के रूप में उनका नाम अमर है | आने वाली हर पीढ़ी के लिए वह एक प्रेरणा है | यह भी संभव है कि इतिहास के नए शोधकर्ता उनकी अभी तक उपलब्ध अधूरी कहानी को नए सिरे से मूल्याकन कर पाए और इतिहास के मौन तो तोड़ सके |
सन्यासी विद्रोह से भारत वासियों के मन में आजादी की जो ललक जगी थी , उसे परवान चढाने के लिए संतो , फकीरों , सन्यासियों को एक बार मैदान में उतरना पडा | सन 1857 के आसपास सश्त्र सेनानियों और फकीरों के विद्रोह का दूसरा चरण आरम्भ हुआ | पहले चरण की भाँती इस दूसरे चरण का नेतृत्व करने वाली महारानी तपस्वनी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की भतीजी थी और उनके एक सरदार पेशवा , नारायण राव की पुत्री थी | क्रान्ति में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई , विशेष रूप से जनक्रांति के लिए पूर्व , उत्तर भारत के सन्यासियों ने गाँव -- गाँव शहर -- शहर घूमकर '' लालकमल '' की पहचान छावनियो में सैनिको  तक पहुंचाकर उन्हें भावी क्रान्ति के लिए प्रेरित किया | इन सबके पीछे महारानी तपस्वनी की प्रेरणा थी | महारानी का वास्तविक नाम सुनन्दा था | वह बाल विधवा थी | उस समय की हिन्दू विधवाओं की तरह सुनन्दा किशोर अवस्था से ही तप -- संयम का जीवन व्यतीत कर रही थी | शक्ति की उपासिका होने से वह योगासन के साथ शस्त्र -- चालन और घुड़सवारी का परिक्षण लेती थी | उनकी रूचि देख पिता ने भी उनके लिए यह सब व्यवस्था कर दी थी कि बाल विधवा बेटी उदास न हो और उसका मन लगा रहे | किन्तु उनके मन की बात शायद पूरी तरह पिता भी नही जान पाए थे |
वह क्षत्रिय पुत्री थी | देशप्रेम और पेशवा खानदान का प्रभाव उन्हें विरासत में मिला था | अंग्रेजो को भारत भूमि से खदेड़ने की इच्छा उन्हें -- दिन प्रतिदिन शस्त्र विद्या में निपुण बनाती गयी | पिता की मृत्यु के बाद जागीर की देखभाल का काम भी उनके कंधो पर आ गया | उन्होंने किले की मरम्मत कराने , सिपाहियों की नई भर्ती करने के लिए तैयारिया शुरू कर दी | अंग्रेजो को उनकी इन गतिविधियों की गंध मिल गयी | उन्होंने रानी को पकड़कर त्रिचनापल्ली के किले में नजरबंद कर दिया | वह से छूटते ही रानी सीतापुर के पास  निमिषारण्य में रहने चली गयी और संत गौरीशंकर की शिष्य बन गई | अंग्रेजो ने समझ लिया कि रानी ने वैराग्य धारण कर लिया है , अब उससे कोई खतरा नही | पर रानी ने ऐसा जान-- बुझकर किया था | आस -- पास  के गाँवों से लोग बड़ी श्रद्धा  के साथ उनके दर्शनों के लिए आते थे | उन्हें रानी तपस्वनी के नाम से जाना जाने लगा | उसे बदलकर कुछ समय बाद उन्हें माता तपस्वनी कहा जाने लगा | दर्शनों के लिए आने वाले भक्तो को वह आध्यात्मिक ज्ञान देने के साथ देश -- भक्ति का उपदेश भी दिया करती थी कि भारत माँ की आजादी के लिए वे तैयार हो सके | इसी तरह उन्होंने विद्रोह का प्रतीक '' लाल कमल '' लेकर जगह -- जगह घूमकर लोगो को क्रान्ति का सन्देश सुनाया और लोग भी क्रान्ति के समय देश -- भक्तो का साथ देने के लिए शपथ लेते | माता तपस्वनी स्वंय भी क्रान्ति आरम्भ होते ही गाँव -- गाँव घूमकर अपने भक्तो को इस ओर प्रेरित करने लगी | धनी लोग व जागीरदार उन्हें जो धन भेट करते थे , उससे गाँव -- गाँव में हथियार बाटे जाने लगे | उनके भक्त व सामान्य लोग भी अपने तन -- मन की आहूति डालने की शपथ लेते | छावनियो तक उनके साधू दूत कैसे पहुंचते थे  ? यह रहस्य अभी भी पूरी तरह खुल नही पाया है | यह सच है कि माता तपस्वनी के भक्त ये साधू व फकीर जन -- क्रान्ति का सन्देश इधर से उधर पहुँचाने की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे , अन्यथा संचार -- साधनों के अभाव के उस युग में उत्तर तथा मध्य भारत में जो क्रान्ति संगठन बन पाया , वह संभव न होता | क्रान्ति आरम्भ होने पर सन्देश भिजवाने की माता तपस्वनी की बड़ी सुनियोजित व्यवस्था थी , जैसे '' लालकमल '' केवल सैनिको में वितरित किया जाता और जनसाधारण में सन्देश की प्रतीक चपाती एक दुसर के हाथ में घुमती रहती थी |
युद्ध के समय माता तपस्वनी स्वंय भी घोड़े पर सवार , हो मुठभेड़ो से जूझते हुए सारी व्यवस्था का निरिक्षण करती थी |
अपने छापामार दस्तो के साथ अंग्रेजो के फौजी -- ठिकानों पर हमला भी करती थी | उनके दल में केवल  भजन -- पूजन कर आत्मबल जुटाने वाले साधू न थे , बल्कि वे पूरी तरह अस्त्र -- शस्त्र से लैस हो , प्राण हथेली पर लिए घुमने वाले देशभक्त साधू के रूप में सैनिक थे | लेकिन अंग्रेजो की सुसंगठित शक्ति के आगे इन छापामार साधुओ  का विद्रोह असफल रहा | विद्रोही  पकड -- पकड़कर पेड़ो से लटकाए तथा तोपों से उडाये जाने लगे | माता तपस्वनी के पीछे अंग्रेजो ने जासूस लगा दिए , लेकिन वह गाँव वालो की श्रद्धा के कारण बच  पा रही थी | लोग उन्हें समय पर छिपाकर बचा लेते थे | विद्रोह असफल हो जाने के बाद वह नाना साहेब के साथ नेपाल चली गयी थी |
नेपाल पहुंचकर वह शांत नही रही | नेपाल में उन्होंने कई स्थानों पर देवालय बनवाये , जो धीरे -- धीरे धरम -- चर्चा के साथ क्रान्ति सन्देश के अड्डे बन गये | उन्होंने नेपालियों में भी अंग्रेजो के खिलाफ राष्ट्रीयता भरना शुरू कर दिया था | लेकिन वह अधिक समय तक वहा  न रह स्की और छिपते -- छिपाते दरभंगा होते हुए कलकत्ता पहुँच गयी |
कलकत्ता में उन्होंने जाहिरा तौर पर महाकाली पाठशाला खोल रही थी | पुराने संपर्को का लाभ उठाकर वह फिर से स्वतंत्रता -- यज्ञ आरम्भ  करने के लिए सक्रिय हो गई थी | 1901में वह बाल गंगाधर तिलक से मिली और उन्होंने नेपाल में शस्त्र -- कारखाना खोल वही से क्रान्ति का शंख फूकने की अपनी गुप्त योजना उनके सामने रखी | स्वामी विवेकानन्द को भी उन्होंने नेपाल -- राणा को अपना शिष्य बनाने और उनकी सहायता से भारत को आजाद करने की प्रेरणा दी | इनके इस ओर ध्यान न देने पर भी वह निराश नही हुई | उन्होंने तिलक से फिर सम्पर्क साधा और उनकी ओर से भेजे गये एक मराठी युवक खाडिलकर   को इसके लिए तैयार कर नेपाल भेजा | खाडिलकर ने नेपाल के सेनापति चन्द्र शमशेर जंग से मिलकर एक जर्मन फर्म कुप्स की सहायता से एक कारखाना लगाया , जहा टाइल  की आड़ में हथियार बनाने का काम होता था | वे बंदूके नेपाल सीमा पर लाकर बंगाल के क्रान्तिकारियो  में वितरित की जाती थी | खाडिलकर वहा  कृष्णराव के गुप्त नाम से रहते थे | अपनी सूझबूझ से उन्होंने नेपाली उच्चधिकारियो से अच्छे सम्बन्ध बना रखे थे किन्तु एक दिन उनके एक सहयोगी ने धन की लालच में अंग्रेजो को इसकी सूचना दे दी | नेपाली सेना ने टाइल कारखाना घेर लिया | हथियार बरामद हो गये | खाडिलकर को अंग्रेजो को सौप दिया गया | बहुत यातनाये मिलने पर भी उसने माता तपस्वनी का हाथ होने का संकेत नही दिया | अत: कलकत्ता में रहने वाली पाठशाला संचालिका माता तपस्वनी पर उनका ध्यान नही गया | इस तरह माता तपस्वनी ने पहले महाराष्ट्र और बंगाल के बीच सम्पर्क -- सूत्र जोड़ा था फिर बंगाल और नेपाल के बीच | माता तपस्वनी बहुत वृद्ध हो चली थी | उनकी अंतिम क्रान्ति -- योजना के असफल हो जाने से अब वह बहुत टूट चुकी थी | यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि 1905 के बंग -- भंग आन्दोलन के समय विदेशी वस्तुओ के बहिष्कार आन्दोलन में माता तपस्वनी की प्रेरणा से साधू सन्यासियों  ने एक बार फिर भाग लिया | यह सन्यासी -- विद्रोह का तीसरा दौर था | इसी तरह अपने अंतिम समय तक क्रान्ति का सन्देश फैलाते हुए सन 1907 में कलकत्ता में ही उनका निधन हो गया | पर उनका अधूरा सपना खोया नही , वह बंगाल के क्रान्तिकारियो की अगली गतिविधियों में जगता रहा , जो बाद में देशव्यापी हुआ और 1947 में देश की आजादी के रूप में हम सबके सामने आया |  इन बलिदानियों के चलते हम आज इस देश में आजादी की साँसे तो ले रहे है पर आज फिर अपना भारत उस मोड़ पे आ चुका है की हमे  देवी चौधरानी और म्हारिणी तपस्वनी जैसी वीर नारी की इस सड़े -- गले समाज को जरूरत है जो फिर से इस देश में पौरुष जगा दे एक नई क्रान्ति के लिए .........


 -सुनील दत्ता ''कबीर ''

Saturday, October 25, 2014

मेरे प्यारे -----


             शरारती साथियो ---


बचपन अपने आप में बहुत ही अदभुत होता है . ना जाने यह बचपन हम लोगो से कौन - कौन से खेल दिखता है शायद  बचपन में पढ़ी कोई बात हमारे जीवन के चरित्र को बनाने में बड़ा सहायक सिद्द हो हम बदमाशिया करे हम अपने बचपन को को भरपुर जिए मगर साथ में हमको क्या बनना है बड़े होकर इसको भी तय करे ? 

आओ आज विश्व के महान  वैज्ञानिक  ----



जिनके हम ऋणी है ---- अलेक्जेंडर ग्राहम बेल


आज की दुनिया बड़ी तेजी से चल रही है और बदल भी रही है --- आज हम  जिस ग्लोबल दुनिया में जी रहे  है उसमे एक ऐसे यंत्र का योगदान है जिसके बिना अब हम जी भी नही सकते है वो है टेलीफोन -- आज हम ले चलते है टेलीफोन के उस अविष्कारक अलेक्जेंडर ग्राहम बेल के पास अगर उन्होंने इस यंत्र को ईजाद न किया होता तो शायद हम इस ग्लोबल दुनिया में नही जीते -----

तीसरे पहर का समय था बोर्डिंग -- हाउस के एक पुराने कमरे में बिजली के तार  बिखरे हुए थे | तारो के जाल में उलझा हुआ एक आदमी उपर के मंजिल में और दूसरे निचली मंजिल के एक कमरे में बैठा था | उपर कमरे में बैठा हुआ आदमी एक भद्दा सा यंत्र मुख से लगाये  बार - बार एक वाक्य बोल रहा था और नीचे बैठा हुआ आदमी उस वाक्य को सुनने का प्रयतन कर रहा था | अकस्मात नीचे बैठा हुआ आदमी अपना यंत्र फेंककर उठा और तेजी से उपरी मंजिल की और भभागा | उपर पहुचते ही वह ख़ुशी से चिल्लाया -- मैंने बात सुन ली | ईश्वर की सौगंध साफ़ सुनाई देती है | आपने कहा था --- '' यहाँ आइये मुझे आपकी जरूरत है '' | तारो में उलझा हुआ आदमी हँसने लगा -- '' ईश्वर का धन्यवाद है मुझे अपनी कई वर्ष की मेहनत का फल मिल गया '' |


यह महान वैज्ञानिक कोई और नही अलेक्जेंडर ग्ग्राहम  बेल थे | उन्होंने अपने साथी वाटसन से ( जो निचले कमरे में थे ) बाते की थी और जिस यंत्र पर ग्राहम बेल ने बात की थी , उसे आज हम टेलीफोन कहते है |

ग्राहम  बेल स्काटलैंड के एक नगर एडनबरा में जन्मे थे | उनके पिता प्रसिद्द आदमी थे | बेल के पिता ने गुंगो और बहरो को पढाने के लिए नये ढंग का आविष्कार किया था | ग्राहम बेल शुरू  में अपने नगर में पढ़ते रहे | फिर उन्हें उच्च शिक्षा के लिए लन्दन भेजा गया | बाद में उन्होंने जर्मनी से पी . एच . डी की डिग्री प्राप्त की | शिक्षा के बाद घर वापस आये तो उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ चूका था | डाक्टरों ने कहा कि बेल को क्षयरोग होने की आशका है | उनके पिता को बहुत चिंता हुई | वह तत्काल बेटे को अपने साथ लेकर कनाडा चले गये | कनाडा में बेल का स्वास्थ्य सुधर गया |
ग्राहम बेल को बचपन से ही नई चीजे मालूम करने का शौक था | जब वह स्कूल में पढ़ते थे . तो एक दिन मित्रो के साथ एक पहाड़ी पर गये | वहा आटा पिसने का एक कारखाना था और बहुत सी गेहू की बालिया पड़ी थी | कारखाने के स्वामी ने सब लडको को एक -- एक बाली दी | बाकी लडको ने तो बालिया फेंक दी . लेकिन बेल बाली घर ले आये | उन्हें एक नई बात सूझी | झट जेब से नाख़ून तराश निकला और  उससे गेंहू के दानो को अलग -- अलग करने लगे | उन्होंने देखा कि इस ढंग से दाने बहुत जल्दी और  सफाई से निकल आते है | बेल ने अपना यह प्रयोग कारखाने के स्वामी को लिख भेजा | स्वामी ने उनको धन्यवाद किया और बालियों से गेंहू निकालने के लिए नाख़ून तराश से मिलती -- जुलती कई मशीन बनवा ली |
जब बेल का स्वास्थ्य ठीक हो गया तो उन्होंने अमरीका के पुराने नगर बोस्टन में एक स्कुल खोल लिया | इस स्कुल में बेल उन अध्यापको को प्रशिक्ष्ण  देते जो बहरो को पढाते थे | बेल को विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर बना दिया गया | उन्ही दिनों बेल की मुलाक़ात एक भरी लडकी से हुई | यह लड़की बेल के काम    में बहुत मदद करती थी | बाद में दोनों ने विवाह कर लिया | बहरो को पढ़ाते -- पढ़ाते बेल ने सोचा कि किसी ऐसे यंत्र का आविष्कार करना चाहिए जिससे कई मील दूर बैठे हुए आदमी से बात की जा सके | उन्होंने सोचा कि बिजली की शक्ति के जरिये मनुष्य की आवाज एक जगह से दूसरी जगह पहुच सकती है |
मनुष्य के कान की बनावट का पता चला , तो बेल ने बोस्टन के एक बोर्डिंग -- हॉउस में दो कमरे किराए पर लिए और प्रयोगों में व्यस्त हो गये | कई दिन की लगातार मेहनत के बाद आखिर उन्होंने एक भद्दा यंत्र तैयार कर लिया | इस यंत्र से बेल ने अपने सहायक से यह बात कही , मिस्टर वाटसन , यहाँ आइये , मुझे आपकी जरूरत है |

ग्राहम बेल अपने आविष्कार पर बहुत परसन्न हुए | उन दिनों नगर में एक प्रदर्शनी लगी हुई थी | बेल ने लोगो को दिखाने के लिए अपना यंत्र प्रदर्शनी में रख दिया < लेकिन किसी ने उस यंत्र में रूचि नही ली | इस बात से बेल को बड़ा दुःख हुआ | सयोगवश ब्राजील के सम्राट को , जो प्रदर्शनी देख रहे थे , इस आविष्कार का पता चला | उन्होंने टेलीफोन का चोगा कान पर रखकर ग्राहम बेल से कहा -- '' आप मुझसे कोई बात करे "

बेल ने अपने यंत्र से शेक्सपियर के प्रसिद्द नाटक से एक वाक्य बोला | दूसरी और खड़े ब्राजील के सम्राट उछल पड़े  '' बिलकुल साफ़ आवाज आती है ''  सम्राट इस आविष्कार से खुश हुए , तो सब लोग रूचि लेने लगे और बेल प्रख्यात हो गये |
इधर बेल का आविष्कार सफल हुआ , उधर कई अन्य लोग भी टेलीफोन के अविष्कारक बन बैठे | बेल के लिए बड़ी कठिनाई पैदा हो गयी | कई दावेदारों ने बेल पर मुकदमे कर दिए | बेल एक अवधि तक अदालतों में फंसे रहे | आखिर वह मुकदमा जीत गये और सबने मान लिया कि असल आविष्कार ग्राहम  बेल का है | अब बेल लोगो के लिए टेलीफोन तैयार करना चाहते थे लेकिन उनके पास रुपया नही था | उन्होंने कई लोगो से मदद मांगी | जब रुपयों का प्रबंध हो गया , तो टेलीफोन तैयार होने लगा | इससे बेल के पास धन का पर्याप्त संचय होने लगा |
ग्राहम  बेल ने अपने नाम से एक कम्पनी तैयार की | उसमे तीन भागीदार थे | कम्पनी ने व्यसाय शुरू कर दिया , लेकिन बेल को व्यवसाय से कोई दिलचस्पी नही थी | उन्होंने सोचा कि अब दूसरी चीज का आविष्कार होना चाहिए | बेल ने फोटोफोंन और ग्रामाफोन का आविष्कार किया | उन्होंने एक ऐसी पतंग तैयार की , जिसमे बैठकर एक आदमी उड़ सकता था | यह पतंग कुछ ऊँची उड़कर नीचे गिर पड़ी | अब बेल भेड़ो पर प्रयोग करने लगे | उनका विचार था कि वह ऐसी भेड़ पैदा करने में सफल हो जाए , जो सदा जुडवा बच्चे दिया करेगी | बेल का यह प्रयोग सफल नही हुआ | बेल ने एक कुत्ते को मानवीय बोली सिखानी शुरू की थी | यह कुत्ता थोड़ा बहुत बोलने भी लगा | लोगो को पता चला , तो दूर -- दूर से उस कुत्ते को देखने के लिए आए |


ग्राहम बेल बहुत समय के बाद अपने नगर एडनबरा लौटे | अब वह प्रख्यात आदमी थे | बेल के नगर के लोगो ने उनका बड़ा सम्मान किया | आखिर 1922 में अगस्त की दो तारीख को ग्राहम बेल का देहान्त हो गया |

आज हम टेलीफोन के द्वारा घर बैठे दूर से दूर बैठे अपने परिचितों से बाते कर लेते है जब भी टेलीफोन की गनती बजती है ग्राहम बेल के याद ताजा हो जाती है | वर्तमान दौर की सुचना -- क्रान्ति और उसका लाभ उठा रहा मानव समाज इस सुचना -- क्रान्ति के प्रारम्भिक पर महान अविष्कारक ग्राहम बेल के ऋणी है और ता उम्र ऋणी रहेगे |


-सुनील दत्ता
  स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
                             
   आभार सुरजीत की पुस्तक '' प्रसिद्द वैज्ञानिक और उनके आविष्कार '' से

ड्रीमलैंड की भूमिका ---- भगत सिंह

Thursday, October 23, 2014


आजमगढ़ -------- वैभवशाली इतिहास बेबसी भरा वर्तमान

भारत वर्ष अपनी विविधताओं के साथ अपना गौरव शाली इतिहास को समेटे रखे हुए है जब भी आप इसके किसी भी पन्ने को खोलेंगे तो ----------

दरकते हुए पांडूलिपियों के पन्ने अपने आप फडफडा कर अपने इतिहासों के हर पन्ने को आपके सामने खोलता चला जाएगा | ऐसा ही है हमारे आजमगढ़ के इतिहासों में यहाँ बहुत कुछ हुआ है जहा एक ओर हमारे इतिहास का उज्जवल पन्ना है वही पे कुछ ऐसे भी पन्ने शामिल है जिनका वर्णन करना उचित न होगा | आजमगढ़ अपने उन इतिहास के पन्नो पर अपनी वीरता कर्मठता देश भक्ति और राजसी आनबान शानो शौकत को भोगा है वही आज अपनी त्रासदी को चुपचाप मौन देख रहा है | दत्तात्रेय , दुर्वास , चन्द्रमा जैसे देव -- महर्षि ने आखिर तमसा के तट पर ही अपनी तपस्थली कयू बनाई और आजमगढ़ के ऐतिहासिक और पौराणिकता में इसे स्थापित किया | वही हमारा इतिहास बताता है कि कभी बक्सर तक फैली थी मेहनगर राज्य की सीमा मेहनगर और इसके सटे तहसील लालगंज की जमीन अपने में ऐतिहासिकता और वीरता पूर्ण कहानियों को जन्म देती आई है | मुख्यालय से 30 किलोमीटर पर स्थित मेहनगर आजमगढ़ का नाभि -- नाल से जुडा हुआ है 16 वी शदाब्दी के उत्तरार्ध दिल्ली पर मुग़ल बादशाह जहागीर का शासन था 1594 ई में युसूफ खा जौनपुर के सूबेदार नियुक्त हुआ | तब यह इलाका जौनपुर सूबे में ही आता था | फतेहपुर के समीप के राजपूत चन्द्रसेन सिंह के पुत्र अभिमान सिंह उर्फ़ अभिमन्यु सिंह जहागीर की सेना में सिपहसालार थे | उन दिनों जौनपुर सूबे के पूर्वी हिस्से में काफी असंतोष फैला हुआ था | जहागीर ने यह जिम्मेदारी अभिमन्यु सिंह को सौपा वहा की देख रेख करने को अभिमन्यु सिंह ने एक बार नही तीन बार वहा के विद्रोह को समाप्त कर दिया | इस कार्य से प्रसन्न होकर जहागीर ने 1500 घुड़सवार और 92.5000 रुपयों के साथ ही जौनपुर राज्य के पूर्वी इलाको के बाईस परगनों को अभिमन्यु सिंह को सौप दिया | इस जागीर को पाकर अभिमन्यु सिंह ने अपना स्वतंत्र जागीर स्थापित किया और मेहनगर को अपना राजधानी बनाया | बाद में अभिमन्यु सिंह ने परिस्थिति वश इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और उनका नाम दौलत इब्राहिम खा पडा | नि: संतान होने के कारण उन्होंने अपने भतीजे हरिवंश सिंह को अपना राज्याधिकारी बनाया हरिवंश सिंह ने ही मेहनगर का किला बनवाया तथा 20 वर्षो तक राज किया हरिवंश सिंह ने ही हरी बाँध पोखरा , लखराव पोखरा तथा रानी सागर पोखरा बनवाया था | राजा हरिवंश सिंह ने ही अपने चाचा दौलत इब्राहिम खा की याद में 36 दरवाजो वाला मकबरा बनवाया | जो आज भी मेहनगर कस्बे में अपने इतिहास को पुख्ता करते हुए अपने अस्तित्व को बया करती है | यह मकबरा अपने तत्कालीन वास्तु एवं स्थापत्य कला की बेमिशाल कलाकारी का नमूना है | उन दिनों मेहनगर राज्य की सीमा पूरब में बक्सर , पश्चिम में माहुल , दक्षिण में देवगांव , उत्तर में सरजू नदी फैली हुई थी | बाद में हरिबंश सिंह ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया | उनके इस्लाम धर्म को स्वीकारने के कारण इनकी पत्नी रानी ज्योति कुवर सिंह अपने छोटे बेटे धरणीधर सिंह को लेकर चली गयी |जिस स्थान पर वे रहने आई | उसी स्थान को आज रानी की सराय के रूप में हम सब जानते है | बाद के दिनों में रानी के बेटे धरणीधर सिंह ने भी मुस्लिम लड़की से विवाह कर के इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया | उन्ही के के दो पुत्रो ने आजम खा और अजमत खा ने राज्य की बागडोर संभाली \ बार बार विशें राजपूतो के विद्रोह को दबाने के लिए आजम खा ने 1665 ई में आजमगढ़ शहर की स्थापना की और यही पर अपना किला बनवाया |इसके साथ ही उनके भाई अजमत खा ने अजमतगढ़ को बसाया | उक्त शाही वंश के द्वारा बनवाये गये मकबरे , पोखरे , मंदिर और किला का अस्तित्व खतरे में है | मेहनगर के किले का नामो निशाँन कुछ ही दिनों में मिट जाएगा क्योकि उस किले की जमीन पर अधिकतर लोगो ने कब्जा करके मकान और जमीन को अपना बना लिया है और ऐतिहासिक पोखरा लखराव आज वो अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहा है | लगभग बावन बीखे में स्थित लखराव पोखरा मेहनगर ही नही वर्ण पूर्वांचल का एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जो अपने आप में सदियों की परम्परा , संस्कृति , संस्कार का इतिहास छिपाए बैठा है लखराव पोखरा अपने आप में अदभुत है | आज से करीब चालीस वर्ष पहले तक इसके पानी से मेहनगर में रहने वाले लोगो के घरो में इसके पानी से भोजन बनता था वही पर वह के मिठाई के दुकानदार उस पानी से छेना फाड़ते थे और मिठाई बनाते रहे है | भयंकर सुखा पड़ने के बाद भी यह पोखरा आज तक कभी सुखा नही है | लोगो का कहना है कि इस पोखरे में पानी पातळ पूरी से आता है अगर इस पोखरे में पानी की अधिकता हो जाती है तो यह पोखरा वीरभानपुर , तिसडा , ह्ठौता, आदि गाँव से होता हुआ मगई नदी में समा कर गंगा में विलीन हो जाता है | लोगो का कहना है की जब तक मेहनगर की टाउन एरिया नही बनी थी तब तक यह ऐतिहासिक पोखरा अपने अस्तित्व के साथ सारे मेहनगर के वासियों को अमृत प्रदान करता था | टाउन एरिया बनने के बाद से ही यहाँ के एक वर्ग द्वारा दबगई से उन भीतो पर कब्जा करता चला आ रहा है और तों एरिया मूक दर्शक बनकर देखता रहा है | इस पोखरे में वहा का सारा प्रदूषित पानी इस पोखरे में आकर मिल जाता है जिससे इस पोखरे का पानी प्रदूषित हो गया है | कभी इस पोखरे के आमने सामने से मंदिर के घंटियों के आवाज और अजान एक साथ हुआ करते थे पर आज वो आवाजे कही गम हो गयी है | अब इस पोखरे के पानी से वजू नही होता है हां महादेव को इस प्रदूषित पानी से उनका पूजा अर्चना आज भी होती है पोखरे में अब स्नान करने के लिए भीड़ नही आती है | नब्बे वर्षीय सुरसती देवी अपने अतीत को याद करते हुए कहती है मैं इस पोखरे में आज सत्तर साल से बिना रोक टोक के बारहों मॉस स्नान करने आती हूँ | पहले कभी यहाँ हर पूर्णमासी को मेला लगता था पर अब सिर्फ विजया दशमी को ही मेला का आयोजन किया जाता है | मनोज कुमार कहते है कि अगर परदेश सरकार द्वारा डा राम मनोहर लोहिया योजना के अंतर्गत इस लखराव पोखरे का सुन्दरीकरण करा दिया जाए तो इस ऐतिहासिक स्थल को अभी भी बचाया जा सकता है उसकी परम्परा और संस्कृति को कायम रखा जा सकता है | इस पोखरे के भीट पर कई प्रकार के जड़ी बतिया पायी जाती है जो गंम्भीर बीमारियों में औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है | आज जरूरत है अपने इस गौरवशाली परम्परा और संस्कृति को बचाने की मेहनगर के सामजिक कार्यकर्ता श्री महेन्द्र मौर्या उर्फ़ बबलू मौर्या कहते है आज हमारे मेहनगर में रहने वाले हर सम्प्रदाय के लोगो का नैतिक कर्तव्य बनता है कि हम अपने ऐतिहासिक लखराव पोखरे को बचाने के लिए संघर्ष करे ताकि हम अपनी ऐतिहासिक धरोहर को बचा सके |

सुनील दता --- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक1Inline image 2Inline image 3Inline image 4Inline image 5Inline image 6Inline image 1

Sunday, October 19, 2014

"शरारती बचपन" ब्लॉग का शुभारम्भ (सुनील कुमार दत्ता 'कबीर')

                मित्रों!
सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना (पाश)।
बचपन के संघर्षों में जीवन की मरुभूमि में
एक विचारों का योद्धा बना दिया।
विचारों की धार बहनी चहिए,
बचपन की लहर में।
आभासी दुनिया से निकलकर
समाज के वास्तविक धरातल पर
आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
(बाबू जी)
का अन्तर्राष्ट्रीय बाल साहित्य चर्चा के लिए
आमन्त्रण शायद मेरे एक नये चरित्र को गढ़ने की
शुरूआत बनने जा रही है। 
हृदय के सागर में ज्वारभाटे की तरह
शब्द उद्वेलित होते चले गये।
और यही कारण है कि ब्लॉग 
"शरारती बचपन"
से एक नयी शुरूआत के नेपथ्य में 
बाल साहित्य पुरातन व अद्यतन
के परिवेश में
बालकों को परिचित कराना।
अतीत के महत्वपूर्ण दस्तावेज
संस्कृति-सभ्यता के गौरव से जुड़ा
विस्तृत कलासंस्कृति, पुरातन लोक कला
सिनेमा, क्रान्तिकारियों के उस यथार्थ से
साक्षात्कार कराना व भारतीय गौरवशाली इतिहास से 
परिचित कराने के लिए मैंने
आदरणीय बाबू जी से
विनम्र आग्रह किया
और उन्होंने देवभूमि खटीमा (उत्तराखण्ड)
की सरजमीं पर
मेरे नये चरित्र की शुरूआत कर दी और
आशीर्वादस्वरूप
"शरारती बचपन"
ब्लॉग बनाकर अपना स्नेह प्रदान किया।
इसके साथ ही अद्वतीय अनमोल व्यक्तित्व
डॉ.सिद्धेश्वर सिंह (गाजीपुर) 
से सम्बन्ध रखने वाले
छोटे भाई से मुलाकात भी मेरे लिए गौरव की बात है।