Sunday, November 30, 2014

कूका विद्रोह और उसके नायक रामसिंह .............................. ..भगत सिंह

कूका विद्रोह और उसके नायक रामसिंह ..............................
..भगत सिंह

 {   शहीद भगत सिंह ने राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन के नायको के जीवन और उनके क्रांतिकारी  क्रिया कलाप , त्याग व बलदान पर श्रृखलाबद्ध लेख लिखा था | कूका विद्रोह और उसके महानायक राम सिंह पर उन्होंने दो लेख लिखे थे | पहला लेख फरवरी 1928 में उन्होंने बी . ए. सिधु के नाम से दिल्ली से प्रकाशित '' महारथी '' और दूसरा लेख अक्तूबर 1928 में विद्रोही के नाम से किरति '' नामक पत्रिका में लिखा था | एक और बात -- कूका विद्रोह के महानायक राम सिंह से देश के धर्मज्ञो और धर्म गुरुओं से लेकर नए पुराने धर्म के अनुयायियों को भी सीख  लेनी चाहिए और वह भी वर्तमान राष्ट्रीय व सामाजिक संदर्भो में | आज विदेशी शक्तिया पुन: देश के हर क्षेत्र में अधिकाधिक व आधिकारिक रूप से घुसपैठ करती जा रही है | इसके फलस्वरूप देश के बहुसंख्यक जनसाधारण का जीवन निरंतर तबाही व बर्बादी की दिशा में बढ़ता जा रहा है | इस दिशा में उसे विदेशी साम्राज्यी शक्तियों के अलावा देश के हर धर्म सम्प्रदाय के धनाढ्य व उच्च हिस्सों द्वारा ढकेला जा रहा है | इसीलिए वर्तमान दौर में कूका विद्रोह और गुरु राम सिंह के बारे में भगत सिंह का लेख  पढने के लिए ही नही पढ़ा जाना चाहिए , बल्कि उसे अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसे देशो और उनकी पूंजी तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चंगुल से राष्ट्र व समाज की मुक्ति संघर्ष के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए ............................





आज हम पंजाब के तख्ता पलटने के आन्दोलन और राजनितिक जागृति का इतिहास पाठको के सामने रख रहे है | पंजाब में सबसे पहली राजनितिक हलचल कूका आन्दोलन से शुरू होती है | वैसे तो वह आन्दोलन साम्प्रदायिक -- सा नजर आता है , लेकिन जरा गौर  से देखे तो वह बढा भारी राजनैतिक आन्दोलन था , जिसमे धर्म भी मिला था जिस तरह कि सिक्ख आन्दोलन में पहले धरम और राजनीति मिली -- जुली थी | खैर हम देखते है कि हमारी आपस की साम्प्रदायिक और तंगदिली का यही परिणाम निकलता है कि हम अपने बड़े -- बड़े महापुरुषों को इस तरह भूल जाते है जैसे कि वे हुए ही न हो | यही स्थिति हम हम अपने बड़े भारी महापुरुष '' गुरु राम सिंह के सम्बन्ध में देखते है | हम '' गुरु नही कह सकते और वे गुरु कहते है , इसीलिए हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नही -- आदि बाते कहकर हमने उन्हें दूर फेंक रखा है | यही पंजाब का सबसे बड़ा घाटा है | बंगाल के जितने भी बड़े -- बड़े आदमी हुए है , उनकी हर साल बरसिया मनाई जाती  है , सभी अखबारों में उन पर लेख दिए जाते है , यह समझा जाता है कि मौक़ा मिला तो इस पर विचार करेंगे |
पंजाब को सोए थोड़े ही दिन हुए थे , लेकिन नीद बड़ी गहरी आई | हालाकि अब फिर होश आने लगा है | बड़ा भारी आन्दोलन  उठा | उसे दबाने की कोशिश की गयी | कुछ ईश्वर ने स्थिति भी ऐसी ही पैदा कर दी --- वह आन्दोलन भी कुचल दिया गया | उस आन्दोलन का नाम था'' कूका आन्दोलन'' | कुछ ध्रामिक , कुछ सामाजिक रंग -- रूप रखते हुए भी वह आन्दोलन एक तख्ता पलटने का नही , युग पलटने का था | चूकी अब इन सभी आंदोलनों का इतिहास यह बताता है कि आजादी के लिए लड़ने वाले लोगो का एक अलग ही वर्ग बन जाता है , जिनमे न दुनिया का मोह होता है और न पाखंडी साधुओ -- जैसा दुनिया का त्याग ही | जो सिपाही तो होते थे लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नही , बल्कि सिर्फ अपने फर्ज के लिए या किसी काम के लिए कहे , वे निष्काम भाव से लड़ते और मरते थे | सिक्ख इतिहास यही कुछ था | मराठो का आन्दोलन भी यही कुछ बताता है | राणा प्रताप के साथी राजपूत भी इसी तरह के योद्धा थे | बुन्देलखंड के वीर छत्रसाल के साथी भी ऐसे थे |
ऐसे ही लोगो का वर्ग पैदा करने वाले बाबा रामसिंह ने प्रचार और संगठन शुरू किया | बाबा रामसिंह का जन्म 1824 में लुधियाना जिले के भैणी गाँव में हुआ | आपका जन्म बढ़ई घराने में हुआ था | जवानी में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की | ईश्वर  -- भक्ति अधिक होने से नौकरी -- चाकरी छोड़कर गाँव जा रहे | नाम का प्रचार शुरू  कर दिया |
1857 के गदर में जो जुल्म हुए वे सब देखकर और पंजाब की गद्दारी देखकर कुछ असर जरुर हुआ होगा | किस्सा यह है कि बाबा रामसिंह जी ने उपदेश शुरू करवा दिया | साथ -- साथ बताते गये कि फिरंगियों से पंजाब की मुक्ति जरूरी है | उन्होंने तब उस असहयोग का  प्रचार किया , जैसे वर्षो बाद 1920 में महात्मा गांधी ने किया | उनके कार्यक्रम में अंग्रेजी राज की शिक्षा , नौकरी अदालतों आदि का और विदेशी चीजो का बहिष्कार तो था ही , साथ में रेल और तार का भी बहिष्कार किया गया |


पहले -- पहले सिर्फ नाम का ही उपदेश होता था | हां यह जरुर कहा जाता था कि शराब -- मांस का प्रयोग बिलकुल बंद कर दिया जाए | लडकिया आदि बेचने जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी प्रचार होता था , लेकिन बाद में उनका प्रचार राजनितिक रंग में रंगता गया |

पंजाब सरकार के पुराने कागजो में एक स्वामी रामदास का जिक्र आता है , जिसे कि अंग्रेजी सरकार एक राजनितिक आदमी समझती थी और जिस पर निगाह रखी जाती थी |  1857 के
बाद जल्द ही उसके रूस की ओर जाने का पता चला है | बाद में कोई खबर नही मिलती | उसी आदमी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसने एक दिन बाबा रामसिंह से कहा कि अब पंजाब में राजनितिक कार्यक्रम और प्रचार की जरूरत है | इस समय देश को आजाद करवाना बहुत जरूरी है | तब से आपने स्पष्ट रूप से अपने उपदेश में इस असहयोग को शामिल कर लिया

1863 में पंजाब सरकार के मुख्य सचिव रहे टी .डी. फार्सिथ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 1863 में ही मैं समझ गया था कि यह धार्मिक -- सा आन्दोलन किसी दिन बड़ा गदर मचा देगा | इसीलिए मैंने भैणी के उस गुरुद्वारे में ज्यादा आदमियों का आना -- जाना और इकठ्ठे होना बन्द कर दिया | इस पर बाबा जी ने भी अपना काम का ढंग बदल लिया | पंजाब प्रांत को 22 जिलो में बाट लिया | प्रत्येक जिले में एक -- एक व्यक्ति प्रमुख नियुक्त किया गया , जिसे '' सूबा  '' कहा जाता था | अब उन्होंने '' सूबों '' में प्रचार और संगठन का काम शुरू किया | गुप्त तरीको से आजादी का भी प्रचार जारी रखा | संगठन बढ़ता गया , प्रत्येक नामधारी सिक्ख अपनी आय का दसवा हिस्सा अपने धर्म के लिए देने लगा | बाहर का हंगामा बंद हो जाने से सरकार का शक दूर हो गया और 1869 में सभी बंदिशे हटा ली गयी | बंदिशे हटते ही खूब जोश बढ़ा |
एक दिन कुछ कूके अमृतसर में से जा रहे थे | पता चला कि कुछ कसाई हिन्दुओं को तंग करने के लिए उनकी आँखों के सामने गोहत्या करते है | गाय के तो वे बड़े भक्त थे | रातो -- रात सभी कसाइयो को मार डाला गया और रास्ता पकड़ा | बहुत से हिन्दू पकडे गये | गुरु जी ने पूरी कहानी सुनी | सबको लौटा दिया कि निर्दोष व्यक्तियों को छुडाये और अपना अपराध स्वीकार करे | यही हुआ और वे लोग फांसी चढ़ गये | ऐसी ही कोई घटना फिरोजपुर जिले में भी हो गयी थी | फांसियो से जोश बढ़ गया | उस समय उन लोगो के सामने आदर्श था पंजाब में सिख -- राज स्थापित करना और गोरक्षा को वे अपना सबसे बढ़ा धर्म मानते थे | \इसी आदर्श की पूर्ति के लिए वे प्रत्यन करते रहे |
13 जनवरी  1872 को भैणी में माघी को मेला लगने वाला था | दूर -- दूर से लोग आ रहे थे | एक कूका मलेर कोटला से गुजर रहा था | एक मुसलमान से झगड़ा हो जाने से वे उसे पकड़कर कोतवाली में ले गये और उसे बहुत मारा पिटा व एक बैल की हत्या उसके सामने की गयी | वह बेचारा दुखी हुआ भैणी पंहुचा | वह जाकर उसने अपनी व्यथा सुनाई | लोगो को बहुत जोश आ गया | बदला लेने का विचार जोर पकड गया | जिस विद्रोह का भीतर -- भीतर प्रचार किया गया था , उसे कर देने का विचार जोर पकड़ने लगा , लेकिन अभी मनचाही तैयारी भी नही हुई थी | बाबा रामसिंह ऐसी स्थिति में क्या करते ? यदि उन्हें मना करते है तो वे मानते नही और यदि  उनका साथ देते है तो सारा किया -- धरा तबाह होता है | क्या करे ? आखिर जब 150 आदमी चल ही पड़े तो आपने पुलिस को खबर भेज दी कि यह व्यक्ति हंगामा कर रहे है और शायद कुछ खराबी करे मैं जिम्मेदार नही हूँ | ख्याल था कि हजारो आदमियों के संगठन में से सौ---- डेढ़ सौ आदमी मारे गये और बाकी संगठन बचा रहे तो यह कभी तो पूरी हो जायेगी और जल्द ही फिर पूरी तैयारी होने से विद्रोह हो सकेगा | लेकिन हम यह देखते है कि परिणाम से तय होता है कि तरीके जायज थे या नाजायज का सिद्धांत राजनीति के मैदान में प्राय: लागू होता है | अर्थात यदि सफलता मिल जाए तब तो चाल नेकनीयती से भरी और सोच -- समझकर चली गयी कहलाती है और यदि असफलता मिले तो बस फिर कुछ भी नही | नेताओं को बेवकूफ , बदनीयत आदि खिताब मिलते है | यही बात यहाँ हम देखते है | जो चाल बाबा रामसिंह ने अपने आन्दोलन से बचने के लिए चली , वह कयोंकि सफल नही हुई , इसीलिए अब कोई उन्हें कायर और बुजदिल कहता है और कोई बदनीयत व कमजोर बताता है | खैर

हम तो समझते है कि वह राजनीति के एक चाल थी | उन्होंने पुलिस को खबर कर दी ताकि वे कोई ऐसा इलाज कर ले जिससे कोई बड़ी खराबी पैदा न हो , लेकिन सरकार उनके इस भारी आन्दोलन से डरती थी और उसे पीस देने का अवसर खोज रही थी | उसने कोई ख़ास कार्यवाही न की और उन्हें मर्जी अनुसार जाने दिया |
लेकिन 11 जनवरी के पात्र में डिप्टी  कमिश्नर लुधियाना मि कावन कमिशनर को लिख भेजी कि रामसिंह ने उन लोगो से अपने सम्बन्ध न होने की बात जाहिर की है और उनके सम्बन्ध में हमे सावधान भी कर दिया है | खैर वे 150 नामधारी सिंह बड़े जोश -- खरोश में चल पड़े |
जब वे 150 व्यक्ति वह से बदला लेने के विचार से चल पड़े तो पुलिस को पहले से बताया जा चुका था , लेकिन सरकार ने कोई इंतजाम नही किया | क्यों ? कयोकी वे चाहते थे कि कोई छोटी -- मोटी गड़बड़ हो जाए , जिससे कि वे उस आन्दोलन को पीस दे | सो वह अब मिल गया | वे कूके वीर उस दिन तो पटियाला राज्य की सीमा पर एक गाँव रब्बो में पड़े रहे | अगले दिन भी वही टिके रहे | 14 जनवरी 1872 की शाम को उन्होंने मलोध के किले पर धावा बोल दिया | यह किला कुछ सिक्ख सरदारों का था , लेकिन इस पर हमला क्यों किया ? इस सम्बन्ध में डिस्ट्रिक गजेटियर में लिखा है कि उन्हें उम्मीद थी कि मलोध सरकार उनके विरोध की नेता बनेगी , लेकिन उन्होंने मना कर दिया और इन्होने हमला कर दिया | बहुत संभव है कि बाबा रामसिंह की बड़ी भारी तयारी में मलोध सरकार ने मदद देने का वादा किया हो , लेकिन जब उन्होंने देखा कि विद्रोह तो पहले से ही हो गया है और बाबा रामसिंह भी साथ नही है और पूरी संगत भी नही बुलाई गयी है तो उन्होंने मना कर दिया होगा | खैर! जो भो वह लड़ाई हुई | कुछ घोड़े हथियार और तोपे ले वे वह से चले गये | दोनों ओर के दो -- दो आदमी मारे गये और कुछ घायल हुए |
अगले दिन सवेरे 7 बजे वे मलेर कोटला  पंहुचे गये |
अंग्रेजी सरकार ने मलेर कोटला सरकार को पहले सूचित कर रखा था | उपर बड़ी तैयारिया की गयी थी | सेना हथियार लिए कड़ी थी लेकिन इन लोगो ने इतने बहादुरी से हमला किया कि सेना और पुलिस में कुछ वश न रहा | हमला कर वे शहर में घुस गये और जाकर महल पर हमला कर दिया | वह भी सेना उन्हें नही रोक पायी | वे जाकर खजाना लूटने की कोशिश करने लगे | लूट ही लिया जाता , लेकिन दुर्भाग्य से वे एक और दरवाजा तोड़ते रहे जिससे कि उनका बहुत -- सा समय नष्ट हो गया और भीतर से कुछ भी न मिला | उधर से सेना ने बड़े जोर से धावा बोल दिया | आखिर लड़ते -- लड़ते वहा  से लौटना पडा | उस लड़ाई में उन्होंने 8 सिपाही मारे और 15 को घायल हो गये | उनके सात आदमी मारे गये | वहा  से भी कुछ हथियार और घोड़े लेकर भाग निकले | आगे -- आगे वे और पीछे -- पीछे मलेर कोटला की सेना |
वे भागते जा रहे थे | और लड़ते जा रहे थे | उनके और कई आदमी घायल हो गये और वे उन्हें भी साथ ही उठा ले जाते थे | आखिर कार पटियाला राज्य के रुड गाँव में ये पहुंचे और जंगल में छिप गये | कुछ घंटो के बाद शिवपुर के नाजिम ने फिर हमला बोल दिया | लड़ाई छिड़ गयी पर बेचारे कूके थके -- हारे थे | आखिर 68 व्यक्ति पकड लिए गये | उनमे  से दो औरते थी , वे पटियाला राज को दे दी गयी |
अगले दिन मलेर कोटला लाकर तोप  गाड दी गयी और एक -- एक कर 50 कूके वीर तोप के आगे बाँध -- बंद कर उड़ा दिए गये | हरेक बहादूरी से अपनी -- अपनी बारी पर  तोप के आगे झुक जाता और सतत श्री अकाल कहता हुआ तोप से  उड जाता | फिर कुछ पता नही चलता कि वह किस संसार में चला गया | इस तरह 49 व्यक्ति उड़ा दिए गये | पचासवा एक तेरह साल का लड़का था | उसके पास झुकर डीपटी   कमिशनर ने कहा कि बेवकूफ रामसिंह का साथ छोड़ दे , तुम्हे माफ़ कर दिया जाएगा | लेकिन वह बालक यह बात सहन  नही कर सका और उछलकर उसने कावन की दाढ़ी पकड ली और तब तक नही छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ न काट दिए गये | बाकी 16 आदमी अगले दिन मलोध जाकर फांसी पर लटका दिए गये | उधर बाबा रामसिंह को उनके चार सूबों के साथ गिरफ्तार करके पहले इलाहाबाद और बाद में रंगून भेज दिया गया | यह गिरफ्तारी ( रेगुलेशन  ) 1818 के अनुसार हुई |
जब यह खबर देश में फैली तो और लोग बहुत हैरान हुए कि यह क्या बना | विद्रोह शुरू करके बाबा जी  ने हमे भी क्यों न बुलाया और सैकड़ो  लोग  घर -- बार छोड़कर भैणी की ओर चल पड़े | एक गिरोह जिसमे १७२ आदमी थी , कर्नल वायली से मिला | वह अधीक्षक था | उसने झट उन्हें भी गिरफ्तार करवा लिया | उनमे से 120 को तो घरो को लौटा दिया , लेकिन 50 ऐसे थे कि कोई घरबार नही था | वे सब सम्पत्ति आदि बेचकर लड़ने -- मरने के लिए तैयार थे | उन्हें जेल में डाल  दिया | इस तरह वह आन्दोलन दबा दिया गया और बाबा रामसिंह का पूरा यत्न निष्फल हो गया | बाद में देश में जितने कूके थे वे सभी एक तरह से नजरबंद कर दिए गये | उनकी हाजरी ली जाती थी | भैणी साहिब में आम लोग का आना -- जाना बंद कर दिया गया | ये बंदिशे 1920 में आकर हटाई गयी | यही पंजाब की आजादी  के लिए दी गयी सबसे  पहली कोशिश  का संक्षित इतिहास है |...................................



प्रस्तुती .......सुनील दत्ता ...पत्रकार

आविष्कार ---------

आविष्कार ---------

जोड़ने - घटाने का करतब



फ्रेंच गणितज्ञ , भौतिकविद व धार्मिक दार्शनिक ब्लेज पास्कल का जन्म 19 जून 1623 को हुआ था | बचपन से ही पास्कल शारीरिक रूप से कमजोर थे | वे अक्सर बीमार रहते थे | उनकी सेहत को देखते हुए पिता उन्हें गणित से दूर रखना चाहते थे , लेकिन उनकी रूचि देखकर उन्होंने उन्हें गणित पढने की इजाजत दे दी | उनके पिता सरकार की और से टैक्स इकठ्ठा करने के कार्य पर नियुक्त थे | इसके लिए उन्हें कठिन गणनाए करनी होती थी | अपने पिता को अंको से जूझते देखकर पास्कल को कैलकुलेटर बनाने का ख्याल आया | उन्होंने पास्कलिन नामक पहला यांत्रिक कैलकुलेटर बनाया | यह कैलकुलेटर घिर्नियो और लीबरो द्वारा काम करता था और सामान्य जोड़ व घटाने की प्रक्रिया कर सकता था | गणित में उन्होंने द्दीप्द गुणांक  की गणना के लिए पास्कल त्रिभुज की रचना की तथा उन गुणाको के बीच एक गणितीय सबंध स्थापित किया | पास्कल ने ज्यामिति की हेलन कहे जाने वाले वक्र सायक्लोइड पर काफी काम किया | उन्होंने द्रव दाब से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण नियम की खोज भी की जिसके अनुसार द्रव सभी दिशाओ में समान दाब लगाता है | पास्कल प्रायिकता सिद्दांत के भी संस्थापक है | गणित की यह शाखा संभावनाओं के विज्ञान नाम से जानी जाती है | आज यह आधुनिक विज्ञान की कई शाखाओं का आधार है जिनमे क्वाटम भौतिकी , साख्यिकी , अर्थशास्त्र , बीमारियों की गणितीय माडलिंग आदि प्रमुख है | वैज्ञानिक विधि पर उन्होंने प्रसिद्द नियम दिया '' किसी वैज्ञानिक परिकल्पना को सत्यापित करने के लिए यह पर्याप्त नही है कि सभी घटनाओं की उसके द्वारा व्याख्या हो रही है | दूसरी तरफ यदि कोई एक घटना उस परिकल्पना के खिलाफ है तो वह परिकल्पना निस्संदेह असत्य है | '' 19 अगस्त 1662 को 39 वर्ष की उम्र में ब्लेज पास्कल की मौत हो गयी जाते - जाते इस दुनिया को पास्कल ने जोड़ने - घटाने का करतब सिखा गये

ब्रिटिश हुकूमत से समय का '' जब्त शुदा साहित्य ''

ब्रिटिश हुकूमत से समय का '' जब्त शुदा साहित्य ''
वे दीवाने ---
अनुत्तरदायी ? जल्दबाज ? अधीर आदर्शवादी ? डाकू " हत्यारे ? अरे , ओ दुनियादार तू उन्हें किस नाम से , किस गाली से विभूषित करना चाहता है ? वे मस्त है , वे दीवाने है , वे इस दुनिया के नही | वे स्वपनलोक की विधियों में विचरण करते है | उनकी दुनिया में , शासन की कटुता से , माँ धरित्री का दूध अपेय नही बनता | उनके कल्पना लोक में उंच - नीच का , धनी - निर्धन का , हिन्दू - मुसलमान का भेद नही है | इसी सम्भावना का प्रचार करने के लिए वे जीते है | इसी दुनिया में उसी आदर्श को स्थापित करने के लिए वे मरते है | दुनिया के पंठित मूर्खो की मण्डली उनको गालिया देती है | लेकिन यदि सत्य के प्रचारक गालियों की परवाह करते तो शायद दुनिया में आज सत्य , न्याय , स्वतंत्र और आदर्श के उपासको के वंश में कोई नामलेवा और पानिदेवा भी न रह जाता | लोकरुचि अथवा लोक्कोतियो के अनुसार जो अपना जेवण -- यापन करते है , वे अपने पड़ोसियों की प्रंशसा के पात्र भले ही बन जाए , पर उनका जीवन औरो के लिए नही होता | संसार को जिन्होंने ठोकर मारकर आगे बढाया वे सभी अपने - अपने समय में लांछित हो चुके है | दुनिया खाने , पीने , पहनने , ओढने तथा उपभोग करने की वस्तुओ का व्यापार करती है |
पर कुछ दीवाने चिल्लाते फिरते है ---- हो जाए
'' सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ! ''
ऐसे कुशल किन्तु औधट व्यापारी भी कभी देखे है ? अगर एक बार आप - हम ले तो कृत्कृत्य हो जाए
( गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा सम्पादित '' प्रताप ' के एक अग्रलेख से साभार )

बेखबर जिन्दगी

बेखबर जिन्दगी
शब्दों में भी जी लेता था वो ----



कुंची की तरह कलम से रिश्ता निभाने वाले वांन गाग के लिए किताबे जिन्दगी जीने और बात करने का एक जरिया थी | वांन अक्सर विलेमिना से कहता था कि ' मैं एक किताब ये जानने के लिए पढता हूँ कि उन्हें लिखने वाला कलमकार कैसा होगा | ' इसी जानने के जूनून ने वांन को आट्रान , सेटेव्युबे , लामाट्रिन , हेइने, गोथे , हेनरी वर्ड्सवर्थ लागफैलो , डिकिस, शेक्सपियर , जैसे रचनाकारों से मिलाया | और यही जूनून एक दिन वांन को किताबो के ऐसे संसार में ले गया जहा शब्द ही साँस बन गये | विक्टर हयूगो शेक्सपियर और डिकिस वांन के सर्वकालिक प्रिय कलमकारों की सूची में थे | नये लेखको में वांन ने बी , स्टोव और एमिले जोला को दीवानगी की हद तक पढ़ना पसंद किया | एमिले की कलम से खीचे पेरिस की बस्तियों , अँधेरी खदानों , गरीबी , निराशा और रिश्तो के खीचतान के जीवंत चित्रों ने वांन को इतना द्रवित किया कि वांन ताजिंदगी एमिले की कलम के जादू में कैद हो गये | यूँ रंगों की तरह शब्दों की दुनिया में भी वांन ने अपने आपको किसी ख़ास व्यक्ति या विधा से नही बांधा था | एक ओर जहा उसने नैतिक और धार्मिक साहित्य को पढ़ना पसंद किया वही दूसरी ओर यथार्थवादी साहित्य से भी उतना लगाव रखा | यही नही अवसाद और तनाव के दिनों में हास्य - व्यंग की किताबो से भी नजदीकी रिश्ता जोड़ लिया , लेकिन शब्दों से वांन का रिश्ता केवल पढने तक सीमित नही था | बल्कि वांन को लिखने का भी उतना ही शौक था | हालाकि वांन ने कभी कोई कहानी नही लिखी मगर थियो , कार विलेमिना गागुइन , जो अन्ना कार्नेलिया अंकल सेंट आदि को लिखे अनगिनत खतो में से उसे पढ़ना एक अलग एहसास है | जान एच के मुताबिक़ , विसेंट खुद को अभिव्यक्त करने में असाधारण थे और यह उनकी लेखन प्रतिभा का प्रमाण है कि आज उनके ख़त न केवल दुनियाभर में उनकी जिन्दगी को जान्ने के सबसे विश्वसनीय दस्तावेज है वरन साहित्यिक दृष्टि से भी इनका मूल्य कुछ कम नही | भावनाओं , विश्वासों से भरे इन खतो का हर शब्द वन के भीतर छिपे कलमकार से मिलवाता है |

ऐसी मान्यता है कि इस शहीद राष्ट्र गीत की रचना 1857 के क्रांतिवीर अजिमुला खान ने की थी ||

ऐसी मान्यता है कि इस शहीद राष्ट्र गीत की रचना 1857 के क्रांतिवीर अजिमुला खान ने की थी ||



1857 के क्रांतिकारी सिपाहियों का झंडा गीत


हम है इसके मालिक , हिन्दुस्तान हमारा |
पाक वतन है कौम का , जन्नत से  भी प्यारा ||
ये है हमारी मिलकियत , हिन्दुस्तान  हमारा |
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा ||
कितना कदीम , कितना नईम , सब दुनिया से न्यारा |
करती है जरखेज जिसे गंगो - जमुन की धारा ||

उपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा |
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा ||
इसकी खाने उगल रही है सोना हीरा  पारा |
इसकी शानो - शौकत का दुनिया में जयकारा ||
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा
लुटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा ||
आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा |
तोड़ो गुलामी की जंजीरे बरसाओ अंगारा ||
हिन्दू मुस्लिम सिख हमारा भाई - भाई प्यारा |
यह है आजादी का झण्डा इसे सलाम हमारा |

Friday, November 28, 2014

बेखबर जिन्दगी
शब्दों में भी जी लेता था वो ----



कुंची की तरह कलम से रिश्ता निभाने वाले वांन गाग के लिए किताबे जिन्दगी जीने और बात करने का एक जरिया थी | वांन अक्सर विलेमिना से कहता था कि ' मैं एक किताब ये जानने के लिए पढता हूँ कि उन्हें लिखने वाला कलमकार कैसा होगा | ' इसी जानने के जूनून ने वांन को आट्रान , सेटेव्युबे , लामाट्रिन , हेइने, गोथे , हेनरी वर्ड्सवर्थ लागफैलो , डिकिस, शेक्सपियर , जैसे रचनाकारों से मिलाया | और यही जूनून एक दिन वांन को किताबो के ऐसे संसार में ले गया जहा शब्द ही साँस बन गये | विक्टर हयूगो शेक्सपियर और डिकिस वांन के सर्वकालिक प्रिय कलमकारों की सूची में थे | नये लेखको में वांन ने बी , स्टोव और एमिले जोला को दीवानगी की हद तक पढ़ना पसंद किया | एमिले की कलम से खीचे पेरिस की बस्तियों , अँधेरी खदानों , गरीबी , निराशा और रिश्तो के खीचतान के जीवंत चित्रों ने वांन को इतना द्रवित किया कि वांन ताजिंदगी एमिले की कलम के जादू में कैद हो गये | यूँ रंगों की तरह शब्दों की दुनिया में भी वांन ने अपने आपको किसी ख़ास व्यक्ति या विधा से नही बांधा था | एक ओर जहा उसने नैतिक और धार्मिक साहित्य को पढ़ना पसंद किया वही दूसरी ओर यथार्थवादी साहित्य से भी उतना लगाव रखा | यही नही अवसाद और तनाव के दिनों में हास्य - व्यंग की किताबो से भी नजदीकी रिश्ता जोड़ लिया , लेकिन शब्दों से वांन का रिश्ता केवल पढने तक सीमित नही था | बल्कि वांन को लिखने का भी उतना ही शौक था | हालाकि वांन ने कभी कोई कहानी नही लिखी मगर थियो , कार विलेमिना गागुइन , जो अन्ना कार्नेलिया अंकल सेंट आदि को लिखे अनगिनत खतो में से उसे पढ़ना एक अलग एहसास है | जान एच के मुताबिक़ , विसेंट खुद को अभिव्यक्त करने में असाधारण थे और यह उनकी लेखन प्रतिभा का प्रमाण है कि आज उनके ख़त न केवल दुनियाभर में उनकी जिन्दगी को जान्ने के सबसे विश्वसनीय दस्तावेज है वरन साहित्यिक दृष्टि से भी इनका मूल्य कुछ कम नही | भावनाओं , विश्वासों से भरे इन खतो का हर शब्द वन के भीतर छिपे कलमकार से मिलवाता है |

Thursday, November 27, 2014

28-11- 2014



आविष्कार ---------

जोड़ने - घटाने का करतब



फ्रेंच गणितज्ञ , भौतिकविद व धार्मिक दार्शनिक ब्लेज पास्कल का जन्म 19 जून 1623 को हुआ था | बचपन से ही पास्कल शारीरिक रूप से कमजोर थे | वे अक्सर बीमार रहते थे | उनकी सेहत को देखते हुए पिता उन्हें गणित से दूर रखना चाहते थे , लेकिन उनकी रूचि देखकर उन्होंने उन्हें गणित पढने की इजाजत दे दी | उनके पिता सरकार की और से टैक्स इकठ्ठा करने के कार्य पर नियुक्त थे | इसके लिए उन्हें कठिन गणनाए करनी होती थी | अपने पिता को अंको से जूझते देखकर पास्कल को कैलकुलेटर बनाने का ख्याल आया | उन्होंने पास्कलिन नामक पहला यांत्रिक कैलकुलेटर बनाया | यह कैलकुलेटर घिर्नियो और लीबरो द्वारा काम करता था और सामान्य जोड़ व घटाने की प्रक्रिया कर सकता था | गणित में उन्होंने द्दीप्द गुणांक  की गणना के लिए पास्कल त्रिभुज की रचना की तथा उन गुणाको के बीच एक गणितीय सबंध स्थापित किया | पास्कल ने ज्यामिति की हेलन कहे जाने वाले वक्र सायक्लोइड पर काफी काम किया | उन्होंने द्रव दाब से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण नियम की खोज भी की जिसके अनुसार द्रव सभी दिशाओ में समान दाब लगाता है | पास्कल प्रायिकता सिद्दांत के भी संस्थापक है | गणित की यह शाखा संभावनाओं के विज्ञान नाम से जानी जाती है | आज यह आधुनिक विज्ञान की कई शाखाओं का आधार है जिनमे क्वाटम भौतिकी , साख्यिकी , अर्थशास्त्र , बीमारियों की गणितीय माडलिंग आदि प्रमुख है | वैज्ञानिक विधि पर उन्होंने प्रसिद्द नियम दिया '' किसी वैज्ञानिक परिकल्पना को सत्यापित करने के लिए यह पर्याप्त नही है कि सभी घटनाओं की उसके द्वारा व्याख्या हो रही है | दूसरी तरफ यदि कोई एक घटना उस परिकल्पना के खिलाफ है तो वह परिकल्पना निस्संदेह असत्य है | '' 19 अगस्त 1662 को 39 वर्ष की उम्र में ब्लेज पास्कल की मौत हो गयी जाते - जाते इस दुनिया को पास्कल ने जोड़ने - घटाने का करतब सिखा गये

Wednesday, November 26, 2014

चित्रों में झलकता वात्सल्य

चित्रों में झलकता वात्सल्य


विख्यात अमेरिकी चित्रकार और प्रिंटमेकर मेरी स्टीवेनसन कसात का जन्म 22 मई , 1844 को पेसिलवेनिया के एलेघेनी शहर में हुआ , जो अब पीटर्सबर्ग का हिस्सा है | उन्होंने पांच वर्ष यूरोप में बिठाये और लन्दन , पेरिस बर्लिन सहित कई राजधानियों का दौरा किया | उनके परिवार वालो ने उनके पेशेवर कलाकार बनने का विरोध किया , लेकिन कसाट ने पन्द्रह साल की उम्र एन पेसिल्वेनिया के फिलाडेलिफिया में  पेसिल्वेनिया अकादमी आफ फाइन आर्ट्स में चित्रकला का अध्ययन शुरू किया | 1866 के अंत में चार्ल्स चैपलिन जो अपनी एक जानी -- मानी शैली के कारण मशहूर थे  क्लास में वह शामिल हो गयी | 1868 में उनके एक चित्र अ मदोलिन प्लयेर को पहली बार जूरी ने पेरिस सेलोन के लिए स्वीकार किया | 1877 का दौर उनके लिए काफी बुरा साबित हुआ | ऐसे समय में एडगर देगास ने उन्हें अपने साथ काम करने का मौका दिया | संस्कार्वादियो के साथ काम करने से उनकी कला को और निखार मिला | देगास का कसाट उनकी पर गहरा प्रभाव था अब वो पेस्टल के प्रयोग में काफी प्रवीण हो गयी थी | देगास ने नक्काशी से भी उनका परिचय कराया जिसमे वे काफी दक्ष थे 1890 का दशक उनका सबसे रचनात्मक और व्यस्त समय था | वह अमेरिकी युवा कलाकारों के लिए एक आदर्श बन गयी थी |  कसाट ने अक्सर माताओं और बच्चो के बीच के घनिष्ठ रिश्तो पर विशेष जोर देने वाली महिलाओं के समाजिक और निजी जीवन के चित्र बनाये , जो बेहद पसंद किये गये | 14 जून , 1926 को इस महान कलाकार का निधन हो गया

Tuesday, November 25, 2014

ब्रिटिश हुकूमत से समय का '' जब्त शुदा साहित्य ''
वे दीवाने ---
अनुत्तरदायी ? जल्दबाज ? अधीर आदर्शवादी ? डाकू " हत्यारे ? अरे , ओ दुनियादार तू उन्हें किस नाम से , किस गाली से विभूषित करना चाहता है ? वे मस्त है , वे दीवाने है , वे इस दुनिया के नही | वे स्वपनलोक की विधियों में विचरण करते है | उनकी दुनिया में , शासन की कटुता से , माँ धरित्री का दूध अपेय नही बनता | उनके कल्पना लोक में उंच - नीच का , धनी - निर्धन का , हिन्दू - मुसलमान का भेद नही है | इसी सम्भावना का प्रचार करने के लिए वे जीते है | इसी दुनिया में उसी आदर्श को स्थापित करने के लिए वे मरते है | दुनिया के पंठित मूर्खो की मण्डली उनको गालिया देती है | लेकिन यदि सत्य के प्रचारक गालियों की परवाह करते तो शायद दुनिया में आज सत्य , न्याय , स्वतंत्र और आदर्श के उपासको के वंश में कोई नामलेवा और पानिदेवा भी न रह जाता | लोकरुचि अथवा लोक्कोतियो के अनुसार जो अपना जेवण -- यापन करते है , वे अपने पड़ोसियों की प्रंशसा के पात्र भले ही बन जाए , पर उनका जीवन औरो के लिए नही होता | संसार को जिन्होंने ठोकर मारकर आगे बढाया वे सभी अपने - अपने समय में लांछित हो चुके है | दुनिया खाने , पीने , पहनने , ओढने तथा उपभोग करने की वस्तुओ का व्यापार करती है |
पर कुछ दीवाने चिल्लाते फिरते है ---- हो जाए
'' सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ! ''
ऐसे कुशल किन्तु औधट व्यापारी भी कभी देखे है ? अगर एक बार आप - हम ले तो कृत्कृत्य हो जाए
( गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा सम्पादित '' प्रताप ' के एक अग्रलेख से साभार )
ब्रिटिश हुकूमत से समय का '' जब्त शुदा साहित्य ""
नब्बे समाचार पत्रों का बलिदान
सन ' 42 की क्रान्ति के समय देश के नब्बे समाचार पत्रो ने अपना प्रकाशन स्थगित कर दिया था | इनका एक सम्मलेन बम्बई में आयोजित हुआ | इसमें पराड़कर जी विशेष रूप से आमंत्रित किये गये थे किन्तु वे न जा सके | सम्मलेन को पराड़कर जी ने जो संदेश भेजा उससे तत्कालीन राष्ट्रीय पत्रों की नीति का परिचय मिल जाता है -------- ''' मेरा मत है कि अभी वह उपयुक्त अवसर नही आया जबकि राष्ट्रीय पत्रों का प्रकाशन शुरू किया जा सके | वर्तमान स्थिति में इतने प्रतिबन्ध है कि समाचार पत्र केवल बुलेटिन मात्र ही रहेगे | टीका -- टिप्पणी की जा नही सकती | हम जनता की राय व्यक्त करने के माध्यम बनकर जीवित नही रह सकते | इसीलिए अच्छा है कि हमारा प्रकाशन स्थगित ही रहे | मातृभूमि के हित के लिए आवश्यक हो तो हमारा बलिदान भी श्रेयकर है | '' राष्ट्र भाषा हिन्दी के इन पत्रों के अतिरिक्त देश के अन्य भाषा के पत्रों का इतिहास देखा जाये तो विदित होगा कि''सन 1857 से स्वाधीनता के लिए जिस क्रान्ति का श्री गणेश हुआ उसमे समग्र देश में पत्रों तथा उसके महाप्राण संपादको ने असाधारण त्याग ववन बलिदान कर अनुपम आदर्श उपस्थित किया है | ( ज्ञान भारती , अगस्त - सितम्बर 62 से साभार

Monday, November 24, 2014

दिल्ली सल्तनत की अहंकारी शहजादी

दिल्ली सल्तनत की एक ऐसी अंहकारी  शहजादी जिसके कारण उसके बाप का कत्ल हुआ |

सिकन्दर सानी
13 जनवरी सन 1290
को शाही फ़ौज का एक बड़ा अफसर 70 वर्ष का बुढा जलालुद्दीन फिरोज किलोखड़ी के
महल में बिना किसी के विरोध के दिल्ली का सुलतान बन गया | उस समय दिल्ली के
अमीरों में दो दल थे : एक खिलजी दल और दूसरा तुर्क दल , खिलजी दल का नेता
जलालुद्दीन था , रुपया और जागीर देकर उसने अपने शत्रुओ को अपना हिमायती
बना रखा था |
बलबन वंश का एक मात्र दावेदार मलिक छज्जू कड़े का सूबेदार
बना कर दूर हटा दिया गया था | सन 1291 में उसने विद्रोह करके अपने आप को
स्वतंत्र घोषित कर दिया | मलिक छज्जू पराजित हुआ और अपने साथियो के साथ
पकड़ा गया | जलालुद्दीन की उदारता ने उसे बचा लिया |
बादशाह ने अपने दामाद और भतीजे गैरशास्प को कड़े का सूबेदार बनाकर भेज दिया |
गैरशास्प साहसी , वीर और जिद्दी युवक था , वह बादशाह की दुलारी बेटी यानी
अपनी बेगम को अपने साथ कड़े ले जाना चाहता था | लेकिन शहजादी पर सल्तनत का
नशा सवार था | वह एक साधारण सूबेदार की सूबेदारनी बनकर कड़े जाना अपनी तौहीन
समझती थी | बादशाह सलामत भी उस के उपर दबाव नही डाल सकते थे | कयोकी वह
उनकी दुलारी बेटी थी |
शहजादी  ने गैरशास्प को टका सा जबाव दे दिया , ''
मेरे साथ घरबार बसाना चाहते हो तो यहाँ यही रहो , दिल्ली के सुलतान की शहजादी  एक भिखमंगे के घर नही जायेगी |
इस अपमान से गैरशास्प  का चेहरा
स्याह हो गया , किसी तरह स्वंय को सयत करके उसने कहा , '' शहजादी  , मैं
आपको हीरे मोतियों से लाद देंगे |
शहजादी  खिलखिला करहँसतीहुई बोली , '' तुम क्या सोचते हो , दिल्ली के सुलतान की शहजादी ककंड -- पत्थरों से खेलती है ! ''
गैरशास्प रोष में बोला , '' शहजादी  , तुम पर सल्तनत का नशा सवार है , मैं सल्तनत पर फतह करके तुम पर निछावर कर दूंगा , ''
'' तो तुम सिकन्दर बनने का ख़्वाब देख रहे हो ! '' शहजादी  ने व्यंग किया ,
गैरशास्प
ने अपने आप को अपमानित महसूस किया , उसका शरीर गुस्से से कापने लगा | उसने
उसके नेत्र शहजादी  से मिले और शहजादी  काप उठी , उसके नेत्रों में संकल्प
था | जैसा वह कह रहा हो कि ' मैं तुम्हे सिकन्दर बनकर भी दिखा सकता हूँ '' |
रात भर गैरशास्प को नीद नही आई वह अपने कमरे में चहल-- कदमी करता हुआ कुछ
सोच रहा था , सत्ता का इतना अभिमान ! कहती क्या है , दिल्ली के सुलतान को शहजादी  एक भिखमंगे के घर जायेगी ! गैरशास्प घर जमाई बनकर रहेगा ! थू है उस
घर पर , गैरशास्प को भिखारी कहकर अपमानित करने वाली उस अभिमानी को वह एक
दिन दिखा देगा किउसकी बाजुओ में सल्तनते जीतने की कितनी ताकत है |
दुसरे दिन उसने बादशाह से कहा '' जहापनाह , मैं दिल्ली सल्तनत को खुशहाल और विशाल देखना चाहता हूँ , आप यदि हुकम दे तो मैं दक्षिण

फतह कर दिल्ली सल्तनत का रूतबा बड़ा कर दूंगा , '' |
बादशाह चहक उठा , '' जरुर , जरुर ! हम खुश हुए , हम दुआ करते है कि जंग में तुम्हारी फतह  जरुर हो |
और दूसरे दिन उसने 8.000 सवारों के साथ कूच कर दिया |
यादव
राजा रामचन्द्र की राजधानी देवगिरी अपनी अतुल संपदा और वैभव से गैरशास्प को
अपनी ओर आकर्षित कर रही थी | यादव राजा रामचन्द्र वीर और प्रतिभाशाली राजा
था | उसने अपनी सारी सेना लेकर कर्नाटक पर चढाई कर दी थी |
रामचन्द्र
को कर्नाटक में उलझा पाकर चतुर गैरशास्प ने तुरंत निर्णय ले लिया उसके लिए
यह सुनहरा मौका था | जिसमे उसका सम्पूर्ण भविष्य निहित था | वह चला था
मालवा पर हमला करने दक्षिण फतह का हुक्मनामा लेकर , पर उसने अवसर को हाथ से
जाने नही  दिया और देवगिरी पर हमला कर दिया |
राजा और
सेना रहित देवगिरी बहुत शीघ्र ही उसके हाथो में आ गया | उसके सैनिको के
घोड़ो की टापों से देवगिरी का ऐश्वर्य कुचला जा रहा था उसने अपने सैनिको को
लूटपाट करने की छूट दे दी थी |
अपनी ही बेगम द्वारा अपमानित और
दुत्कारा गया गैरशास्प हीरे--  मोती  -- मणि  -- माणिक के ढेरो के बीच अपने भविष्य का
तानाबाना बन रहा था | एक भिखारी लूट से प्राप्त करोड़ो की संपदा का मालिक हो
गया था ! लेकिन दिल्ली के सुलतान की शहजादी  के लिए तो ये सब ककड पत्थर है |
उसके लिए इस अपार संपदा का कोई मूल्य नही , उस पर तो सल्तनत का नशा सवार
है , गैरशास्प को अपनी बाजुओ पर भरोसा था , वह सल्तनत फतह कर उसका घमण्ड
चूर कर देगा |
गैरशास्प  बहुत देर तक सोचता रहा , अचानक उसे कुछ सुझा और उसके चेहरे पर एक
कुटिल मुस्कान खेल गयी | उसने तुरंत एक दूत एक पत्र के साथ दिल्ली रवाना
कर दिया | दूत दिल्ली पहुंचकर बादशाह की खिदमत में पेश हुआ , पत्र का मजमून
जानते ही बादशाह चहक उठा , '' शाही खजाने के लिए अपार दौलत '' ! हीरे मोती
, माणिक , ढेरो  मन सोना चाँदी पलके बिछाए है और हाथी घोड़े हर्जाने में .
गैरशास्प
ने देवगिरी को नेस्तनाबूद कर दिया है उसने एलिचपुर दिल्ली सल्तनत में मिला
दिया है , वाह कमाल कर दिया गैरशास्प ने ! हम जरुर गैरशास्प का स्वागत
करने कड़े जायेंगे , जाओ दूत गैरशास्प को कह दो कि हम खुद उसकी बहादुरी और
जिन्दादिली की दाद देने कड़े आ रहे है , '' दूत तुरंत रवाना हो गया |
अहमदचप
बादशाह का वफादार नौकर था , उसको गैरशास्प  के निमत्रण में खतर की बू आ रही
थी | वह अपने आप को रोक नही पाया उसने अपने शंका बादशाह पर जाहिर कर दी |
बादशाह
तुरंत नाराज होकर बोले , '' क्या बकते हो अहमद ! मेरे लिए खतरा है और अपने
भतीजे से ? जानते हो वह मेरा दामाद भी है , तुम्हे गैरशास्प से जलन हो रही
है हम अपने अजीज भतीजे के हौसले बुलंद करने कड़े जरुर जायेगे |
और
गैरशास्प का स्वागत करने वह अपने साथियो के साथ चल दिया | कड़े में गंगा
किनारे एक नौका में गैरशास्प अपने साथियो के साथ बादशाह का इन्तजार कर रहा
था , कुछ ही दूरी पर उसका लश्कर था |
उसने अपनी व्यवस्था पर नजर डाली , सभी इंतजाम ठीक थे , उसने संतोष की सांस ली उसका निश्चय अटल था |
उसके
स्वागत के लिए आने वाली बादशाह की नौका दिखाई देने लगी , नौका हर क्षण
करीब आती जा रही थी कुछ समय बाद बादशाह की नौका किनारे खड़े गैरशास्प की
नौका के सामने बिलकुल पास आ गयी |
बादशाह जलालुद्दीन दोनों हाथ उठाये
गैरशास्प को अपनी बाजुओ में लेने के लिए उसकी नौका में उतरे , गैरशास्प ने
तुरंत इशारा किया और बादशाह जलालुद्दीन का सिर धड से अलग हो गया बादशाह के
साथ आये सभी व्यक्तिओ को घेर लिया गया और उनका कत्ल कर दिया गया |
दिल्ली का तख्त अब उसका है , सिर्फ उसका सल्तनत के नशे में डूबी उसकी बेगम
भी नीद से अब जागेगी और पाएगी कि दिल्ली के तख्त पर उसके अब्बाजान नही उसका
शौहर बैठा है | विजय के उन्माद में उसने यह दिखाने के लिए कि वह खुद अब
बादशाह हो गया है , जलालुद्दीन का सिर भाले से छेदकर पूरे लश्कर में
घुमवाया |

अब वह अपनी ही बेगम द्वारा भिखारी कहकर दुत्कारा गया गैरशास्प नही है | उस ने कितने ही गुलाम खरीद लिए है और अपनी फ़ौज में वृद्दि कर ली है | उसने दिल्ली जाने की तैयारी शुरू कर दी , तभी उसके जासूसों ने खबर दी कि जलाली सरदार जलालुद्दीन के एक बेटे को रुकुनुद्दीन के नाम से गद्दी पर बैठा दिया गया है |
बादशाही की इस दौड़ में गैरशास्प  ने दिल्ली में खबर उडवा दी कि उसने देवगिरी की लूट में अपार दौलत हासिल की है | वह एक बड़ी फ़ौज के साथ दिल्ली आ रहा है | अपने समर्थको और सहायको को वह खुश कर देगा और अपने विरोधियो को वह कत्ल करा देगा तथा उनकी जागीरे और सम्पत्ति जब्त कर लेगा |
इस खबर ने अपना माकूल असर दिखाया , गैरशास्प के एक बड़ी फ़ौज के साथ दिल्ली आने की खबर हर रोज जोर पकडती रही थी , वह जितना दिल्ली का फासला कम करता जाता था , उसके विरोधियो में घबराहट उतनी ही बढती जाती थी |
फलस्वरूप उसके शत्रुओ की सख्या कम होने लगी उसके विरोधी उससे जा मिले रुकनुद्दीन को मुलतान की तरफ भागना पडा और गैरशास्प ने बड़ी धूमधाम के साथ दिल्ली में प्रवेश किया | अपनी ही बेगम द्वारा भिखारी कहकर अपमानित हुआ गैरशास्प सरदारों तथा अमीरों पर रॉब व दबदबा कायम कर 19 जुलाई 1296 को दिल्ली की गद्दी पे अलाउद्दीन खिलजी के नाम से बैठा |
उस रात अलाउद्दीन खिलजी अपनी बेगम के हरम  में पहुंचा , उसने कुछ चुने हुए बहुमूल्य  हीरे साथ रख लिए थे | उसने नाटकीय अंदाज में शहजादीको तीन बार कोर्निश की और कहा , '' शहजादी की खिदमत  में यह भिखमंगा कुछ पत्थर पेश कर रहा है , शहजादी कबूल फरमाए '' |
शहजादी ने घृणा से उसकी तरफ देखा , वह खामोश रही |
बादशाह ने आगे कहा , '' शहजादी , इस भिखमंगे को देर से बुद्दी आई है , शहजादी जान बख्शे ! दिल्ली की सल्तनत की शहजादी एक भिखमंगे के घर कैसे जा सकती है !
यह भिखारी शहजादी के पास उनकी नेक सलाह मानकर घरबार बसाने आया है |
बादशाह की नाटकीय मुद्रा और उपहास भरी बातो से शहजादी को विषैले तीर की जैसी जलन महसूस हो रही थी , उसने लाल अंगारा आँखों से बादशाह की तरफ देखा |
शहजादी के गुस्से में बादशाह लुफ्त पा रहा था , उसने व्यंग किया , लेकिन बेगम अब आप किसी सल्तनत के सुलतान की शहजादी नही है अब आप दिल्ली के बादशाह की बेगम है और आपका यह नाचीज गुलाम सिकन्दर बनने जा रहा है | और वह ठहाके मार कर हँस पडा |
शहजादी को अपना गुस्सा रोकना असम्भव हो गया , उसके स्वर में दुःख था और बेहद घृणा भी थी , उसने कहा , तुमने मेरे अब्बाजान को धोखे  से कत्ल करके यह सल्तनत पाई है , तुम्हारी तकदीर थोड़ी देर के लिए भले ही साथ दे दे पर तुम कभी सिकन्दर नही बन सकते , '' |
बादशाह शहजादी से झगड़ कर उस शुभ रात्री का मजा नष्ट नही करना चाहता था उसने बात को समाप्त करते हुए कहा , बेगम मुझे तुम पर गर्व है तुम्हारी एक फटकार ने मुझे एक भिखारी से दिल्ली का बादशाह बना दिया , खुदा करे तुम्हारी यह दूसरी फटकार मुझको दूसरा सिकन्दर बना दे ' और उसने जबरदस्ती शहजादी को अपने आगोश में भर लिया | बादशाह की वह रात बेगम के साथ बीती |
देवगिरी के पतन ने अलाउद्दीन के हौसले बुलन्द किये थे वह अपने सपने को साकार करने में लग गया |
चतुर अलाउद्दीन ने देख लिया था कि हिन्दू कभी भी संगठित होकर नही रह सकते आपसी कलह और फुट से ये डालिया एक दुसरे से जुदा अपने अस्तित्व को ही भूल गयी थी |
देश खंड -- खंड हो गया था और खंडित देश के खंड -- खंड किये जा रहे थे , सभी में परस्पर शत्रुता थी | सभी एक दूसरे को मिटाने पर तुले हुए थे | चतुर अलाउद्दीन ने इस फूट से फायदा उठाने का संकल्प कर लिया | सिकन्दर बनने के सपने को चरितार्थ करने का सुनहरा मौक़ा सामने था और उस के घोड़ो की टापों से रणथम्भौर , महान चितौड़ , जैसलमेर , देवगिरी , वारगल , सभी रौदे गये | उत्तर में दीपालपुर व लाहौर से लेकर दक्षिण स्थित मदुरे व द्वारसमुद्र तक पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम स्थित सिंध व गुजरात तक सभी जगह हरा झंडा और चाँद फहराने लगा | उसने अपना नाम सिकन्दर सानी रखा और इस नाम से सिक्के भी  ढलवाये |


सुनील दत्ता     -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

Sunday, November 23, 2014

हम जिनके ऋणी है -----------------------


एक्स रेज के अविष्कारक --------  विल्हेलम कानराड रौटजन


एक्स रेज ( यानी एक्स किरणों ) का नाम जनसाधारण भी जानता है | इसका उपयोग चिकित्सा शास्त्र से लेकर अन्य दुसरे क्षेत्रो में भी बढ़ता जा रहा है | इसका आविष्कार प्रोफ़ेसर विल्हेलम कानराड रौटजन  अपनी प्रयोगशाला में वैकुअम ट्यूब ( हवा निकालकर पूरी तरह से खाली कर दिए ट्यूब ) में बिजली दौड़ाकर उसके वाहय प्रभावों को देखने के लिए प्रयोग कर रहे थे | खासकर वे इस ट्यूब से निकलने वाले कैथोड किरणों का अध्ययन करनी चाहते थे | इसके लिए उन्होंने ट्यूब को काले गत्ते से ढक रखा था | जिससे उसकी रौशनी बाहर न जाए | प्रयोग के पूरे कमरे में अन्धेरा कर रखा था , ताकि प्रयोग के परिणामो को स्पष्ट देखा जा सके | ट्यूब में बिजली पास करने के बाद उन्होंने  यह देखा कि मेज पर ट्यूब से कुछ दुरी पर रखा प्रतिदीप्तीशील  पर्दा चमकने लगा |
 रौटजन के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा | उन्होंने ट्यूब को अच्छी तरह से देखा | वह काले गत्ते से ढका हुआ था | साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि ट्यूब के पास दूसरी तरफ पड़े बेरियम प्लेटिनोसाइनाइड के कुछ टुकड़े भी ट्यूब में विद्युत् प्रवाह के साथ चमकने लग गये है | रौटजन ने अपना प्रयोग  कई बार दोहराया | हर बार नलिका में विद्युत् प्रवाह के साथ उन्हें पास रखे वे टुकड़े और प्रतिदीप्ती  पर्दे पर झिलमिलाहट नजर आई | वे इस नतीजे पर पहुचे कि ट्यूब में से कोई ऐसी अज्ञात किरण निकल रही है , जो गत्ते की मोटाई को पार कर जा रही है | उन्होंने इस अज्ञात किरणों को गणितीय चलन के अनुसार एक्स रेज  का नाम दे दिया | बाद में इसे रौटजन की अविष्कृत किरने रौटजन   रेज का नया नाम दिया गया | लेकिन तब से आज तक रौटजन  द्वारा दिया गया ' एक्स रेज ' नाम ही प्रचलन में है | बाद में रौटजन ने एक्स रेज पर अपना प्रयोग जारी रखते हुए फोटो वाले  खीचने वाले फिल्म पर अपनी पत्नी अन्ना बर्था -- का हाथ रखकर एक्स रेज को पास किया | फोटो धुलने पर हाथ की हड्डियों का एकदम साफ़ अक्स फोटो फिल्म पर उभर आया | साथ में अन्ना बर्था के उंगलियों की अगुठी का भी अक्स आ गया | मांसपेशियों  का अक्स बहुत धुधला था | फोटो देखकर हैरान रह गयी अन्ना ने खा कि मैंने अपनी मौत देख ली ( अर्थात मौत के बाद बच रहे हड्डियों के ढाचे को देख लिया |
एक्स रेज के इस खोज के लिए रौटजन को 1901में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के लिए निर्धारित पहला नोबेल पुरूस्कार मिला | रौटजन ने वह पुरूस्कार उस विश्व विद्यालय को दान कर दिया | साथ ही उन्होंने अपनी खोज का पेटेन्ट कराने से भी स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि वे चाहते है कि इस आविष्कार के उपयोग से पूरी मानवता लाभान्वित हो | रौटजन का जन्म 27 मार्च 1845 में जर्मनी के रैन प्रांत के लिनेप नामक स्थान पर हुआ था | उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हालैण्ड में हुई तथा उच्च शिक्षा स्विट्जरलैंड के ज्युरिच विद्यालय में हुई थी | यही पर उन्होंने 24 वर्ष की आयु में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की | वह से निकलकर उन्होंने कई विश्व विद्यालय में अध्ययन का कार्य किया | 1888 में वे बुर्जवुर्ग विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफ़ेसर नियुक्त किये गये | यही पर 1895 में उन्होंने एक्स रेज का आविष्कार किया | 1900 में वह म्यूनिख विश्वविद्यालय चले गये |
वह से सेवा निवृत्त  होने के बाद म्यूनिख में 77वर्ष की उम्र में इस महान वैज्ञानिक की मृत्यु हो गयी | जीवन के अंतिम समय में उन्हें ऑटो का कैंसर हो गया था | आशका जताई जाती है कि उन्हें यह बीमारी एक्स रेज के साथ सालो साल प्रयोग के चलते हुई थी |


 सुनील दत्ता ------ स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

Saturday, November 22, 2014

23= 11 = 2014


स्वतंत्रता के अजेय  '' सेनापति '' पांडुरंग महादेव बापट

   (   अब गप्प मारने के दिन खत्म हो गये है  क्रान्ति  के दिन आ गये है | )

बहुमुखी आन्दोलन के सेनापति , पांडुरंग महादेव बापट शिक्षक थे , सामाजिक कार्यकर्ता थे और सबसे बढ़कर वे ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवाद -- स्वतंत्रता के सेनापति थे | वे राष्ट्र स्वतंत्रता हेतु सशस्त्र संघर्ष से लेकर अहिंसक आन्दोलन में लगातार सेनानी और सेनापति थे | साथ ही सामाजिक सुधार से लेकर समाज के विभिन्न हिस्सों के न्यायोचित मांगो के साथ खड़े होकर उनका नेतृत्व करने वालो नेता व कार्यकर्ता भी थे | वस्तुत: उनके इन्ही गुणों के कारण उन्हें समाज से सेनापति की उपाधि मिली थी | वैसे उन्हें यह उपाधि 1922 में जनहित में मोलसी में निर्माणाधीन बाँध परियोजना के विरोध और उसके नेतृत्व के लिए मिला था | बहुमुखी प्रतिभा बहुमुखी नेतृत्व क्षमता और असीमित ऊर्जा से भरपूर पांडुरंग बापट 1947 की स्वतंत्रता के बाद भी जीवित रहे | लेकिन वे स्वतंत्रता आन्दोलन के अन्य तमाम लीडरो की तरह 1947 के बाद भी पद -- प्रतिष्ठा के पीछे एकदम नही गये | उनकी जगह राष्ट्र सेवा जन सेवा तथा राष्ट्र की सामाजिक एकता के लक्ष्य को लेकर आजीवन संघर्ष करते रहे | सेनापति पांडुरंग महादेव बापट ने राष्ट्र व समाज को दिया बहुत कुछ और लिया कुछ भी नही | अपना समस्त जीवन राष्ट्र के लिए होम कर दिया | इसीलिए वे हमारे लिए आदरणीय व स्मरणीय है |   सेनापति पांडुरंग के बारे में प्रचलित है कि एक तरफ वे अगर वे शिवाजी , रामदास और तुकाराम के प्रतिनिधि थे तो दूसरी तरफ वे लोकमान्य तिलक सावरकर गांधी और सुभाष के भी प्रतिनिधि थे | बहुमुखी प्रतिभा के धनी सेनापति पांडुरंग का जन्म महाराष्ट्र में नगर जिले के पारनेर ताल्लुके में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में 12 नवम्बर 1880 को हुआ था | पिता का नाम महादेव और माँ का नाम गंगा बाई था | पारनेर में प्राथमिक शिक्षा के बाद 12 वर्ष के उम्र में वे पूना के न्यू इंग्लिश हहाई स्कुल में दाखिल हुए | वह योग्य शिक्षको के सानिध्य में इनकी बौद्धिक प्रतिभा का निखार हुआ | पढाई के दौरान ही पूना में प्लेग का प्रकोप फ़ैल गया | पांडुरंग को स्कुल छोड़कर पारनेर वापस आना पडा | बाद में अहमदाबाद रहकर हाईस्कूल की परीक्षा दी | परीक्षा में उच्च अंको से पास होने के कारण उन्हें छात्रवृति भी मिली | 1900 में उन्हें पुणे डेक्कन कालेज में दाखिला मिल गया | शिक्षा के साथ वे नौकायन टेनिस कविता नाटक के क्षेत्र में भी बढचढ कर हिस्सा लेते | बी ए करके वे बम्बई आ गये | एक स्कुल में अंशकालिक नौकरी करते हुए आगे की पढाई में जुट गये | इसी वक्त उन्हें विदेश जाने के लिए मंगलदास नाथुभाई की छात्रवृति मिल गयी | वे स्काटलैंड पहुचकर एडिनबरा शहर में मेकेनिकल इंजीनियरिग पढने लगे | साथ ही क्वीन्स रायफल क्लब में निशाने बाजी भी सिखने लगे | यही उन्हें '' ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत की परिस्थिति पर बोलने का एक अवसर मिला | प्रवासी क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा की सहायता से उन्होंने इसके लिए पूरी तैयारी की | उन्होंने शेफर्ड सभागार में '' ब्रिटिश रुल इन इंडिया '' विषय पर लिखे अपने निबन्ध को गंम्भीर एवं ओजस्वी ढंग से प्रस्तुत किया | बाद में वह निबन्ध के रूप में प्रकाशित भी किया गया | लेकिन उसके प्रकाशन के तुरंत बाद निबन्ध में पांडुरंग द्वारा ब्रिटिश सत्ता के कड़ी आलोचना व विरोध को लेकर उनकी छात्रवृति समाप्त कर दी गयी | फलस्वरूप उन्हें लन्दन के ' इंडिया हाउस ' में आना पडा | यहाँ उनकी भेट विनायक दामोदर सावरकर से हुई | आपसी सलाह से वे बम बनाने का हुनर सिखने के लिए पेरिस चले गये | इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी | 1906 में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में होने वाले काग्रेस अधिवेशन के लिए उन्होंने ' कांग्रेस को क्या करना चाहिए " शीर्षक से एक गंम्भीर और सुझावपूर्ण लेख अधिवेशन के अध्यक्ष के पास प्रेषित किया था | इसमें उन्होंने मुख्यत: कांग्रेस को राष्ट्र -- स्वतंत्रता को उद्देश्य बनाकर रणनीतिया  तय करने का सुझाव रखा था |   
1908 में वे श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरकर की सलाह पर हिन्दुस्तान  लौट आये | पहले वे कलकत्ता गये | कलकता से उनके लिए बुलावा भी आया था | खासकर बम बनाने के लिए सलाह व मशविरे देने के लिए उन्हें वहा  बुलाया गया था | यह काम वहा  के क्रान्तिकारियो की फौजी शाखा कर रही थी | क्रान्तिकारियो की दूसरी शाखा प्रचार कार्य में जुटी हुई थी | उसका काम समाचार पत्र निकालना और क्रान्तिकारियो के कतार में नई भर्तिया करना था | पांडुरंग अपना कार्य करके शीघ्र ही पारनेर वापस लौट आये | लेकिन दो महीने के अन्दर ही कलकता के क्रांतिकारी दल का सदस्य नरेंद्र गोस्वामी पकड़ा गया और वह पुलिस का मुखबिर बन गया | उसने सभी का नाम बता दिया | उसमे बापट का नाम भी था | सुचना मिलते ही बापट भूमिगत हो गये | और लगभग साढ़े चार वर्ष तक अज्ञात वास  में रहे | इस बीच वे पुणे मगर भुसावल औरंगाबाद , बडवानी धार देवास इंदौर उज्जैन मथुरा वृन्दावन काशी घूमते हुए पुलिस को चकमा देते रहे | लेकिन काशी से पुन: इंदौर आते ही वे पुलिस के गिरफ्त में आ गये | लेकिन तब तक उनके व अन्य क्रान्तिकारियो के विरुद्ध मुखबिर बने नरेंद्र गोस्वामी को क्रान्तिकारियो ने मार दिया था | अत: साक्ष्य के आभाव में बापट को भी मुक्त कर दिया गया | इस बीच बीमार पड़ जाने के कारण वे अपने गृह क्षेत्र पारनेर वापस लौट आये |  
पारनेर में उन्होंने समाज सुधार का काम शुरू किया | वह नालिया साफ़ करने महारो ( दलित जाति ) के बच्चो को पढाने तथा लोगो में गीता व ज्ञानेश्वरी पर प्रवचन देने का काम करने लगे | 1914 में पुत्र की प्राप्ति पर उन्होंने लोगो को भोज दिया | भोज में दलितों की पंगत पहले बैठाई और ब्राह्मणों की पंगत बाद में | समाज सुधार के इन कामो का विरोध भी उन्हें लगभग हमेशा ही झेलना पडा | अप्रैल 1915 में वे पूना आगये | पहले उम्होने ' चित्रमय जगत ' नाम से समाचार पत्र में काम किया | 5 - 6 माह बाद तिलक के पत्र ' मराठा ' में काम करने लगे | पुणे में भी नालियों की सफाई और सामाजिक सुधार का काम जारी रखे | 1916 में बीजापुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में बापट प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा नागरिक अधिकारों की कटौतियो के विरोध में काउन्सिल व् नगर पालिका के सदस्यों को अपने पदों से इस्तीफा दे देने का प्रस्ताव किया | साथ ही सरकार को युद्ध का खर्चा न देने तथा सैनिको की भर्ती में ब्रिटिश हुकूमत की सहायता न करने का भी प्रस्ताव किया | उनके इस प्रस्ताव का वह की आम जनता में भारी समर्थन मिला | हालाकि उनका प्रस्ताव संचालक कमेटी द्वारा नामंजूर कर दिया गया | बाद में बापट ने ' मराठा ' पत्र छोड़कर ' लोक संग्रह ' नाम के दैनिक समाचार पत्र में विदेशी राजनीति पर लेख लिखने का कार्य आरम्भ किया | साथ ही वे ज्ञान कोष कार्यालय में काम करते रहे तथा महाविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए ट्यूशन कक्षाए  भी चलाने लगे | इसी के साथ वे 1920 में बाम्बे में चल रही मेहतरो की हडताल में सक्रिय रूप से भागीदारी भी निभाते रहे | उनका मार्ग दर्शन करते रहे | समाचार पत्रों ने इस हडताल को कोई महत्व नही दिया | बापट ने ' सन्देश ' समाचार पत्र द्वारा इसे प्रमुखता देकर झाड़ू -- कामगार मित्र मंडल  की स्थापना की | हडताल के लिए धन इकठ्ठा किया | हडतालियों और उनके परिवार वालो के लिए घर -- घर जाकर रोटिया एकत्रित करने का काम भी करते रहे | अंतत: यह हड़ताल सफल हुई | श्रमिको के सफल नेतृत्व का यह उनके जीवन का प्रथम अनुभव था |   
तत्पश्चात बापट ने गोखले की अध्यक्षता में पुणे राजबंदी मुक्ता मंडल स्थापित किया और उसके कार्यवाहक बने | इस मंडल का मुख कार्य अंडमान में काले पानी की नारकीय सजा भोग रहे कैदियों को छुडवाने का प्रयास करना था | विनायक दामोदर सावरकर इस प्रयास में पहले से ही लगे थे | राज बन्दियो को छुडवाने के लिए बापट ने अथक प्रयास किये | घर - घर घूमकर गले में पट्टी लगाकर और समाचार पत्रों के जरिये आह्वान कर लोगो को जागृत करने का काम शुरू किया | समर्थन में लोगो का हस्ताक्षर लेने की मुहीम शुरू की | इसी के साथ वे मुलसी के सत्याग्रह आन्दोलन से भी जुड़ गये और उनके अगुवा लीडर बन गये | महाराष्ट्र के सहयात्री पर्वत की विभिन्न चोटियों पर टाटा कम्पनी ने 20  से 22 की संख्या में बाँध बनाने की योजना तैयार की थी | इसमें से एक बाँध मुलसी के निकट मुला व नीला नदियों के संगम पर बाधा जाना था | मुलसी बाँध के काम में 54  गाँव को वह से उजड़ जाना था | बाँध परियोजना का यह काम ब्रिटिश सरकार के सहमती व समर्थन से देश की टाटा कम्पनी द्वारा किया जा रहा था | उसके विरुद्ध आन्दोलन पहले से ही चल रहा था लेकिन उसके सारे नेताओं को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था | अब बापट के नेतृत्व में 1 मई 1922 को सत्याग्रह आन्दोलन पुन: शुरू किया गया | कुछ ही दिनों बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और 6 माह के लिए यरवदा जेल भेज दिया गया |जब वे छूटे तो आन्दोलन ठंठा पड़ चुका था | इन विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने आन्दोलन को पुन: शुरू किया | इसके लिए उन्होंने पूरे क्षेत्र में दौरा किया | वे जगह -- जगह लोगो को जागृत करने मुलसी बाँध के विरोध में अत्यंत प्रभावपूर्ण ढंग से बताते हुए अपनी कविताओं का पाठ भी करते | अपने भाषणों में वे यह बात भी जरुर कहते कि अब गप्प मारने के दिन खत्म हो गये है बम मारने के दिन आ गये है | पुलिस फिर उनके पीछे लगी और उन्हें एक वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया | जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने व्यक्तिगत  प्रयास से आन्दोलन तेज करने का निर्णय लिया |  
उन्हें इसके लिए सहयोगी भी मिल गये | बाँध के विरोध में उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ रेल रोकने के लिए लाइन पर पत्थर डालकर और स्वंय हथियार से लैस होकर रेलवे लाइन पर एक अडिग सेनापति के रूप में खड़े हो गये | संभवत: तभी से उन्हें आम जनता सेनापति कहने लगी | लेकिन इस विरोध के बाद उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया , और इस बार 7  वर्ष के लिए सिंध प्रांत के हैदराबाद जेल में डाल दिया गया | जेल से रिहा होने के बाद 28 जून 1931 को वे महाराष्ट्र प्रांतीय काग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गये | विदेशी बहिष्कार आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भागीदारी निभाया | ब्रिटिश राज्य के विरोध में जनता को आंदोलित करने में लगे रहे | उनके भाषणों को राज्य विरोधी तथा भडकाऊ मानकर उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया | इस बार उन्हें 10 वर्ष की सजा सुने गयी 7 वर्ष काले पानी और 3 वर्ष तक दूसरे जेल में कैद रहने की सजा दी गयी | पहले उन्हें रत्नागिरी के केन्द्रीय जेल भेजा गया | जेल में बी वे साफ़ सफाई के काम में लग गये | साथ ही संस्कृत हिंदी मराठी में कविताओं की रचना में लगे रहते | गांधी जी के अनशन के समर्थन में उन्होंने जेल में अनशन शुरू कर दिया | तबियत बहुत खराब हो जाने के बाद उन्हें 23 जुलाई 1937 को रिहाकर दिया गया |   
ठीक होने के बाद वे गांधी जी से मिलने सेवाग्राम गये वहा से लौटकर उन्होंने भारतीय प्राणयज्ञ दल बनाने में जुट गये | इस दल ने यह तय किया हुआ था कि स्वतंत्रत भारत का सविधान बनाकर उसे ब्रिटिश शासको को भेजने के साथ एक साथ लोग सार्वजनिक स्थल पर मृत्यु का आलिगन करे | ताकि ब्रिटिश हुकूमत पर उस सविधान को स्वीकारते हुए देश को स्वतंत्रत करने का दबाव पड़े | इसके लिए उन्होंने प्रतिज्ञा पत्र तैयार किया | उस प्रतिज्ञा पत्र पर 21  आदमियों ने हस्ताक्षर भी किया | प्राणयज्ञ के लिए निश्चित समय से पूर्व ही पुलिस को इसकी खबर लग गयी और उसने बापट को गिरफ्तार कर लिया | हालाकि इस बार उन्हें जल्दी ही छोड़ दिया गया | इसी बीच गांधी जी के असहयोग के चलते काग्रेस के चुने हुए अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पडा | बापट ने सुभाष बोस को सही माना और उनकी पार्टी फारवर्ड ब्लाक के साथ हो गये | उन्हें फारवर्ड ब्लाक की महाराष्ट्र शाखा का अध्यक्ष बनाया | अध्यक्ष पद से उन्होंने जगह -- जगह द्दितीय विश्व युद्ध में भारत को शामिल किये जाने का विरोध किया | फारवर्ड ब्लाक के मंच से उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरोध में अपने बयानों भाषणों का क्रम जारी रखा | कोल्हापुर रियासत में उन्हें धारा 144 के विरुद्ध बंदी बना लिया गया | लेकिन उन्हें ब्राड लाकर छोड़ भी दिया गया | इसी तरह उन्हें कई जगहों से बंदी बनाकर दूसरी जगहों पर छोड़ा जाता रहा | सबसे बाद में बाम्बे चौपाटी में भाषण देते हुए उन्हें गिरफ्तार करके नासिक जेल में राजद्रोह के आरोप में बंद कर दिया गया | जेल से छूटने के बाद नागपुर में सेनापति बापट की अध्यक्षता में ब्रिटिश राज विरोधी विद्यार्थी परिषद की सभा हुई | वहा  उन्होंने पुन: इस युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य और भारत में उसके राज्य का विरोध किया | अमरावती की ऐसी एक सभा में भाषण से पहले ही पुन: गिरफ्तार कर लिया गया | एक वर्ष की सजा सुने गयी | 1946 में जेल से छूटने के बाद अपने जन्म स्थान पारनेर पहुचे | उस समय वहा दुर्भिक्ष की घनघोर छाया पसरी हुई थी बापट लोगो की सहायता में जुट गये स्वंय मजदूरी करने के साथ -- साथ अशक्त लोगो के लिए रोटिया जमा करने तथा सहायक निधि एकत्रित करने में कम में जुट गये | 15 अगस्त 1947 के दिन पुणे शहर में तिरंगा फहराने का गौरव सेनापति बापट को मिला | लेकिन उसके  बाद बापट कोई पद -- प्रतिष्ठा को लेने की जगह राष्ट्र सेवा -- जनसेवा के कार्य में पुन: लग गये | बाद के दौर में उन्होंने गोवा मुक्ति आन्दोलन में हिस्सा लिया | अतत: शरीर कमजोर होते गये अथक सेनानी व सेनापति बापट का 28 नवम्बर 1967के दिन देहांत हो गया |

सुनील दत्ता ----- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

Friday, November 21, 2014

22- 11 - 2014


घुड़सवार ने दिया स्वावलबन का सबक --------------
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एक घुड़सवार कही जा रहा था | रास्ते में उसे पैदल यात्रियों का एक काफिला मिला | घुड़सवार भी धीरे - धीरे उन्ही लोगो के साथ चलने लगा | उनके बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर चर्चा चल पड़ी | वे बातचीत करते हुए चले जा रहे थे कि तभी घुड़सवार के हाथ से चाबुक छूटकर जमीन पर गिर पडा | लेकिन घुड़सवार ने किसी से भी चाबुक उठाकर देने के लिए नही कहा | वह घोड़े से उतरा और चाबुक स्वंय उठाकर पुन: सवार हो गया | यह देखकर साथ चल रहे लोगो ने कहा ' अरे भाई साहब आपने इतना क्यों कष्ट किया ? चाबुक तो हम लोग ही उठाकर दे देते | इतने से काम के लिए आप स्वंय  क्यों घोड़े से उतरे ? यह सुनकर घुड़सवार बोला भाइयो आपका यह कहना आपकी सज्जनता का प्रमाण है | लेकिन मैं आपसे सहायता क्यों लेता ? ईश्वर यही कहते है कि जिसका उपकार प्राप्त हो , बदले में जहा तक हो सके हमे भी उसका उपकार करना चाहिए | उपकार के बदले प्रत्युपकार करने की स्थिति हो , तभी उपकार का भार सिर उठाना चाहिए | मैं आपको पहचानता नही , न  न ,तो आप ही मुझे जानते है | राह में अचानक हम लोगो का साथ हो गया है | फिर कब मिलना होगा कुछ पता नही | ऐसी हालत में मैं भला आपके उपकार का भार कैसे उठा सकता था ? इस पर साथ चल रहे लोग बोले -- अरे इसमें उपकार की क्या बात है ? आप जैसे भले आदमी के हाथ से चाबुक नीचे गिर पडा , उसे उठाकर हम दे देते | हमे मेहनत ही क्या होती ? तब घुड़सवार ने कहा -- चाहे  यह छोटी - सी बात या छोटा सा काम ही क्यों न हो पर मैं लेता तो आपकी सहायता ही न! मेरा यह मानना है कि छोटे - छोटे कामो में भी दुसरो की मदद लेने की आदत पड़ जाती जाती है | इससे आगे चलकर मनुष्य अपने स्वावलबी स्वभाव को खोकर पराधीन बन जाता है | जब तक कोई विपत्ति न आये या आत्मा की उन्नति के लिए आवश्यक न हो , तब तक केवल आराम के लिए किसी से भी किसी तरह की सहायता नही लेना चाहिए |

Sunday, November 16, 2014

17- 11 - 2014 दिन सोमवार, बीकानेर -------

17- 11 - 2014 दिन सोमवार

बीकानेर ------- 

कुछ सुखद पल ----

प्यारे  मेरे नन्हे - मुन्ने दोस्तों ---

सेठ मांडासाव जैन मन्दिर में जैन समुदाय के पांचवे तीर्थंकर सुमति नाथ विराजमान है | इस मन्दिरके भीतर बहुत ही सुन्दर मूर्तियों का रचना संसार है ख़ास तौर पर इन मूर्तियों पे सोने के असली रंग चढ़े हुए है जो आज भी वैसे बनी हुई है इन मूर्तियों को जसलमेर के पत्थरों से बनाया गया है | जसलमेर के पत्थरों से रचा यह संसार अदभुत है असली सोने के रंगों से सजा यह मन्दिरइसकी मूर्ति शिल्प अपने पांच सौ पैतालीस सालो के पुराने इतिहास के दस्तावेजो के साथ हमे बता रही है कि हमारा शिल्प उस समय कितना  समृद्द था  हमारा शिल्प मूर्त -- अमूर्त में ----------
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आज  तुम्हे बीकानेर का एक किस्सा सुना रहा हूँ ------ आज से करीब पांच सौ पैतालीस वर्ष पूर्व बीकानेर शहर से बाढ़ मील दूर माल गाँव में मांडा साव नाम के एक व्यापारी रहा करते थे . उनका बहुत बड़ा घी और तेल का व्यापार था . बड़े खुशमिजाज और हमदर्द थे सेठ मांडासाव एक दिन उनके पास एक महात्मा  आये सेठ माडासाव ने उनका सत्कार किया महात्मा ने जाते - जाते सेठ जी को एक पत्थर दिया और बोले कि मैं कही और जा रहा हूँ मेरी अमानत को संभल कर रखना वापस आ  कर ले जाऊँगा , उसके बाद वो महात्मा आगे प्रस्तान कर गये | उस पत्थर को पाने के बाद सेठ मांडा साव का व्यापार दिन दूना रात चौगुना बढने लगा , बहुत सालो के बाद वो महात्मा लौटकर उसी गाँव में माडासाव के पास आये और अपनी अमानत वो पत्थर मांगने लगा पर मांडासाव के मन में लालच आ गया उन्होंने महात्मा से कहा कि वो पत्थर कही खो गया है पर महात्मा को सब पता था कि सेठ की नियत में खोट आ गया है --- उन्होंने सेठ को श्राप दिया '' तेरे तेरे बाद कोई वंश नही चलेगा इतना सुनते ही सेठ उस महात्मा के पैरो पर अपना माथा रखकर क्षमा - याचना की तब
महात्मा बोले मैं श्राप तो वापस नही लूंगा जा तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तेरे न रहने पर भी इस पृथ्वी पर तेरा नाम हमेशा जीवित रहेगा और उन्होंने सेठ मांडासाव को एक गाय दिया और कहा यह गाय जहा पर अपने थान से दूध गिराएगी वही पर एक मंदिर बनवाना और महात्मा वह से चले गये |
सेठ मांडासाव उस गाय की सेवा करने लगे वर्तमान में जहा मंदिर स्थित है एक दिन उस गाय ने वही पर अपने धन से दूध  गिराया उसके बाद सेठ जी ने यह निर्णय लिया कि मन्दिर अब यही बनेगा उन्होंने अपने यहाँ मूर्ति शिल्पकार को आमंत्रित किया . सेठ मांडासाव उस शिल्पकार से जिस स्थान पर बैठकर बाते कर रहे थे वही पास में घी रखा हुआ था , सेठ की नजर उस मक्खी पर पड़ गयी उन्होंने उस मक्खी को निकालकर अपनी जूती के तलवे में रगड दिया सेठ की इस हरकत को देखकर वो शिल्पकार अपने मन में सोचने लगा की लगता है सेठ बहुत बड़ा मक्खीचूस है उसने सेठ मांडासाव से बोला कि मन्दिर बनाने में उसकी नीव में एक हजार कूपी घी लगेगा . उस समय एक कुपी में चालीस सेर घी आता था ) सेठ मांडासाव ने शिल्पकार से बोला ठीक है जो आप चाहते है वो सब मैं दूंगा और सेठ ने घी मंगवा दिया . शिल्पकार ने पांच सौ कुपी घी नीव में डलवा दिया उसके बाद उसने सेठ से बोला जानते है मैंने ऐसा क्यों किया ! सेठ मांडासाव ने पूछा क्यों ? शिल्पकार ने उन्हें अपनी जूती में मक्खी रगड़ने की बात बताई तब मांडासाव ने हँसकर बोला मैंने एक मक्खी अपनी जूती में रगड़कर एक हजार जीव हत्या होने से रोका | अगर मैं मक्खी को कही और फेंकता तो उसपे चीटी लगती खुद सोचो उस वक्त कितनी चीटिया उस पे लगती उनको मारना होता कितनी जीव हत्या होती इसीलिए मैंने उस मक्खी को अपनी जूती में रगडा था सेठ मांडासाव की बाते सुनकर शिल्पकार निरुतर हो गया।

Tuesday, November 11, 2014

आज पूंजी के हाथ में शिक्षा है ---







कहा से मिलेगा नैतिक मूल्य या सामजिकता ?
भारत जब गुलाम था तब एक आदमी आया लार्ड मैकाले उसने यहाँ के लिए शिक्षा नीति बनाई उसने कहा था चंद लोग लिखे पढ़े बाकि सब मजदुर पर आज के नेता तो पुरे समाज को भ्रष्ट और निकम्मा बना रहे है


( भारतीय जनमानस देख रहा है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों को बढ़ाने में असफल साबित होती जा रही है | लेकिन इस तथ्यगत सच्चाई से वर्तमान दौर की शिक्षा को अपने उद्देश्य में असफल होना नही कहा जा सकता है | क्योकि वर्तमान दौर की शिक्षा ने लोगो को सामाजिक व नैतिक रूप से बनाने को अपना उद्देश्य बनाया ही नही है | )
दैनिक जागरण में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने एक फैसले में शिक्षा की असफलता को लेकर की गयी टिप्पणी को प्रकाशित किया गया है | माननीय कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि '' शिक्षा अपने उद्देश्यों को नही पा स्की है | शिक्षा से लोगो के व्यवहार में सुधार होने के बजाए समाज में परेशानी का वातावरण बधा है | शिक्षित लोगो की संख्या बढने के वावजूद समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट आ रही है | यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है | पहले की तुलना में साक्षरता के स्तर में खासी बढ़ोत्तरी हुई है , लेकिन इससे मानवीय मूल्यों में कोई बढ़ोत्तरी नही हुई है | आज भी हम शिक्षित व्यवहार के प्रारम्भिक स्तर पर ही है | पुराने समय में शिक्षा का स्तर जितना उंचा नही था , लेकिन सामाजिक मूल्यों की अहमियत थी | यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि शिक्षा अपने उद्देश्य को पाने में असफल रही है | इसमें तत्काल सुधार लाने की जरूरत है | यह जरूरी हो गया है कि शिक्षा सस्थाए , शिक्षक , सरक्षक छात्र और सम्पूर्ण समाज मिलकर बदलाव लाये | न्यायालय की यह टिप्पणी तो बिलकुल ठीक है कि शिक्षित लोगो की संख्या बढने के साथ नैतिक मूल्यों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है लेकिन इसमें सुधार से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या यह वर्तमान शिक्ष प्रणाली की असफलता का द्योतक है ? पूरा समाज देख रहा है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों को बढाने में असफल साबित होती जा रही है | लेकिन इस तथ्यगत सच्चाई से वर्तमान दौर की शिक्षा को अपने उद्देश्य में असफल होना नही कहा जा सकता | क्योकि वर्तमान दौर की शिक्षा ने लोगो को सामाजिक व नैतिक रूप से बेहतर बनाने को अपना उद्देश्य बनाया ही नही है और न ही उसके लिए कोई गम्भीरकार्यक्रम हो घोषित किया है | इसके विपरीत आधुनिक बाजार वादी फैलाव के साथ शिक्षा को भी बाजार के उद्देश्य के अनुसार चालाया व बढाया जा रहा है | वर्तमान दौर की शिक्षा प्राप्ति में वाणिज्य व्यापार के चलन के अनुसार उससे होने वाले लाभ का आकलन पहले ही कर लिया जा रहा है | उसमे मिलने वाले ज्ञान या फिर सामाजिकता नैतिकता को किसी आकलन की कोई गुंजाइश नही रह गयी है | शिक्षा देने लेने के लिए व्यापार बाजार की तरह धन पैसा लगाने और फिर उससे निजी कमाई -- धमाई सुख - सुविधा , पद -- प्रतिष्ठा का अवसर पाकर समाज में उपर चढने आदि ही वर्तमान दौर की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बना हुआ है | शिक्ष्ण संस्थाए इसी उद्देश्य व योजना को अपनाकर लोकोपकारी -- जनहित के संस्थान की जगह निजी लाभकारी उद्यम का दर्जा लेती जा रही है | ओद्योगिक व्यापारिक संस्थानों की तरह आपसी होड़ और दौड़ में लगी है | प्रचार माध्यमो के जरिये बाजार में अपनी साख मजबूत करने में लगी है |
शिक्षा और उसके उद्देश्य के बाजारीकरण का एक ठोस सबूत यह भी है कि केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय वर्षो पहले ही खत्म कर दिया है | उसकी जगह मानव संसाधान एवं विकास मंत्रालय ने ले ली है | जिसका स्पष्ट अर्थ निकलता है कि अब देश की सत्ता सरकारे शिक्षा प्रणाली को मानव संसाधन के विकास के उद्देश्य से संचालित कर रही है | वर्तमान शिक्षा प्रणाली के जरिये विधार्थियों को एक मानव संसाधन के रूप में खड़ा करने व विकसित करने का लक्ष्य बनाई हुई है | राष्ट्र व समाज में अन्य स्रोतों संसाधनों की तरह शिक्षा प्राप्त कर रहे लोगो को शिक्षित दीक्षित करके वे उन्हें एक संसाधन में बदल देने का काम करने लगी है ताकि उनका उपयोग अन्य संसाधनों की तरह कारोबारी लाभ के लिए किया जा सके | सरकार के नियत साफ़ -- साफ़ दिख रही है कि अब देश की सरकार का लक्ष्य शिक्षा के जरिये सामाजिक एवं नैतिक रूप से जिम्मेदार नागरिक का विकास करना नही रह गया है | इसीलिए अगर आधुनिक शिक्षा के जरिये मानवोचित सामाजिक नैतिक व्यवहार करने वाले मनुष्य न निकल रहे हो अथवा उनके सामाजिक नैतिक आचरण में भारी गिरावट आ रही हो तो इसमें कोई आश्चर्य कैसा !वे तो शिक्षित मानव संसाधन मात्र है न कि सामाजिक व नैतिक रूप से शिक्षित व जिम्मेवार मानव | अब चुकी देश के व्यापक संसाधनों का मालिकाना थोड़े से अति धनाढ्य लोगो के ही हाथ में है इसीलिए उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक तकनिकी के युग में कारोबारी ढंग से शिक्षित अतिशिक्षित संसाधनों की ही आवश्यकता रह गयी है | बाकी के काम आधुनिक यंत्र व मशीने कर दे रही है | इसीलिए शिक्षित मानवो की बड़ी संख्या का संसाधन बन पाने में असफल रह जाने अर्थात बेरोजगार ओ जाने के प्रक्रिया भी लगातार बढती जा रही है | एकदम व्यापार बाजार में न खप पाने वाले या फिर आउट डेटेड माल सामन की तरह |

  • जहा तक शिक्षित लोगो की संख्या बढने के वावजूद सामाजिक नैतिक मूल्यों में गिरावट की बात है , तो इसका प्रमुख कारण भी यही है | व्यक्तियों को विधार्थी की जगह मानव संसाधन बनाने हेतु दी जा रही वह शिक्षा है जिसे ग्रहण कर व्यक्ति उसे अपनी निजी फायदे के लिए सीधी के रूप में इस्तेमाल करने के रूप में ग्रहण किया हुआ है या ग्रहण कर रहा है | वह उसी सीधी के सहारे समाज को उपेक्षित करके उपर चढने में लगा हुआ है | राष्ट्र के संसाधनों के मालिक धनाढ्य वर्ग व कम्पनिया तथा सरकारे उसे अपनी सेवा में लगाकर समाज से उसकी समस्याओं से आँख मुड़कर तथा अलग रहकर मानव संसाधन के रूप में किसी सेवा तक ही सीमित रहने की सिख व हिदायत देती है | इसलिए मानव संसाधन के रूप में खपकर उच्च व औसत दर्जे का शिक्षित व्यक्ति ससाधन के मालिको की तरह ही भ्रष्ट भी होता जा रहा है | सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से हिन् भ्रष्टाचारी व महा भ्रष्टाचारी मानव बनता जा रहा है | इसलिए अनपढ़ अशिक्षित या कम शिक्षित तथा बेहतर कमाई करने में विफल लोग सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से कही ज्यादा बेहतर नजर आते है | इसलिए वर्तमान दौर की शिक्षा के फैलाव के वावजूद शिक्षित व्यक्तियों में तथा समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट पर आश्चर्य करने की कही कोई गुंजाइश नही है | कम से कम किसी प्रोढ़ अनुभवी शिक्षित या उच्च शिक्षित व्यक्ति के लिए तो कदापि नही है | क्योकि वह स्वंय अपने अनुभव से ज्ञान से खुद की मिली और मिलती रही शिक्षा तथा उससे अपने भीतर आते रहे बदलावों को बखूबी समझ सकता है | अत: यह समझना कत्तई मुश्किल नही है कि भूमण्डलीकरण की वर्तमान दौर के शिक्षा का न कोई सामाजिक नैतिक उद्देश्य है और न ही हो सकता है | न ही वह समाज के ज्यादातर लोगो की जिविकोपार्जन  का जरिया बन सकता है | और न ही वह समाज राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार और सामाजिक नैतिक रूप से बेहतर मानव का निर्माण कर सकता है | यह तभी संभव हो पायेगा जब संसाधनों के मालिको का सेवक बनने की 
    शिक्षा की जगह उसे समाज के स्वतंत्र चिन्तक सेवक के रूप में उसको शिक्षित दीक्षित किया जाय | लेकिन यह काम देश दुनिया के संसाधनों के धनाढ्य मालिको और उच्च स्तरीय राजनितिक व गैर राजनितिक वर्गो पर अंकुश लगाये बिना तथा उनके स्वार्थी हितो के अनुसार लायी जा रही कारोबारी शिक्षा प्रणाली पर अंकुश लगाये बिना नही हो पायेगा |

सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

Thursday, November 6, 2014


8   नवम्बर 2014


प्यारे --- साथियो --


             तारीख 27 अक्टूबर  आज़मगढ़ से निकयहाँला हूँ | पहले झासी पहुचा वहा से बीकानेर ''कला एवं साहित्य उत्सव ''में हिस्सेदारी करने यहाँ आ गया . बहुत से लोगो से मिलना हुआ .उनसे बाल साहित्य पे चर्चा किया कुछ लोगो के इंटरव्यू लिए साथ ही कार्यक्रम समाप्ति के बाद दो दिन रूककर  बीकानेर को समझने की कोशिश की  और फिर वहा  से अपनी सबसे प्यारी -- छोटी बहन- आशा पाण्डे से मिलने पिण्डवाड़ा आ गया | इन सबकी वृस्त्रित जानकारी यहाँ से लौटने पर दूंगा | एक सुखद संयोग ही रहा मेरे लिए बीकानेर कला व साहित्य उत्सव -- राजस्थान -----


आज सुबह  जब मैं सो कर उठा सामने किताबो के रैक पर नजर गयी  . अचानक उसपे नजर ठहर गयी |


'' कात रे मन ......... कात इस पुस्तक को मायामृग ने लिखा है |


आओ बताये यह मायामृग कौन है ?

मायामृग की जुबानी ----------  ' मायामृग नाम मैंने खुद रखा | परिजनों ने नाम दिया ठा संदीप कुमार , जो अब सिर्फ सरकारी रिकार्ड में रह ग्या है | जन्म 26 अगस्त १९६५ को फाजिल्का ( पंजाब ) में हुआ | जन्म के दस दिन बाद ही परिवार को पंजाब छोड़ हनुमानगढ़ ( राजस्थान ) आना पडा , मेरे जीवन के शुरूआती 25 साल यहाँ बीते |इसके बाद का सफर जयपुर आ ग्या | शुरूआती सरकारी नौकरी फिर पत्रकारिता | इसके बाद मुद्रण और प्रकाशन को व्यवसाय के रूप में चुन लिया ||




अब ले चलता हूँ उनके लिखे दुनिया में -------



1 -- रात की सियाही को छुआ तुमने तो सबेरा हो ग्या ...... तुम्हारी छुअन सियाही में घुली सी  कयू है ......




2 कविता अपने गुनाहों की सफाई नही है .........................


 3 गरीबी प्रयोगशाल है ..|


4--  जो लिखा वो  पानी था ... जिससे लिखा वो पानी था .... हाथ में नमी थी .. आँखे गीली .. जाने क्या सूझी
               
                पिघले बादलो पर लिख रहा था ..... तुम्हारा नाम ..........