Thursday, August 25, 2016

मुरदन के साथे व्यापार – मगरुवा ---- 25-8-16

अपना शहर मगरुवा –

कल घूमते घूमते राजघाट पहुच गया और चुपचाप एकांत में बैठकर वहा का तमाशा देखने लगा , बहुत से लोग उस दिन आये थे दुनिया से आखरी विदाई लेने अलग अलग परिवारों से उनकी बाते भी बड़ी अजीब लगी |
एक मुर्दा फूंकने आया युवक बोला सरवा जियत रहे त गांड में पैना कइले रहे सारा मरले के बाद भी छ: घंटा लेई जरे में
वही दूसरी तरफ दुसरे मुर्दे के साथ आये घर के लोग उसके बेटे को समझा रहे थे अब त काटा निकल गएल ना अब जल्दी से जल्दी कागज पे आपन नाम चढा ला अउर जमीनिया फलाने के बेचके खूब पइसा बना ला फिर दुकान कर ला –
वही एक तीसरी लाश रखी थी उस लाश के साथ मात्र पांच लोग थे | यह था देश का आम आदमी शायद घर परिवार के रहे होंगे वो आपस में बतिया रहे थे इहा ले त आ गयनी अब लाश कैसे फूक्ल जाई इसी उधेड़ बुन में उलझा था उस परिवार के लोग , तभी मगरुवा बोल पडा राजघाट के मलकिन से कहा उ कउनो प्रबंध कर दीहें , उन लोगो ने उससे जाकर बात किया उसने प्रबंध करा दिया उस आदमी को भी चिता नसीब हो गयी | मगरू मन ही मन सोचने लगा जब वो अपने चाचा को मणिकर्णिका ले गया था वहा उसे देखा और सूना यहाँ अंतिम संस्कार में भी हर जगह कमीशन तय है जिस टिकटि पर आदमी अंतिम यात्रा करता है वह से लेकर अंतिम क्रिया तक में कमिशन ही कमिशन है लाश जलाने वाले को पाँच रुपया टिकटी के बाँस दस रुपया जरले के बाद बचल लकड़ी के बोटा के डोम के घर लेगयेले के पन्द्रह रुपया और जउन पंडित आवे ने उ दुकानदार से पांच रुपया कमिशन लेवेला | गजब होग्येल दुनिया जहा मरले के बाद भी अदमी बेचल जात बा |
अब सूना आजमगढ़ में राजघाट के कहानी इहा के डॉम के पास दुई गो लक्जरियस चार चक्का बा दुई गो एम्बुलेंस है यार सोचन तू बतावा इतना पैसा त एकरे ह और आम आदमी के पास उहके फुक्ले के पैसा ना बा का यही खातिर भगत सिंह , अशफाक उल्ला , चन्द्रशेखर राजगुरु क्रांतिवीर शहादत देहले रहने |

मुरदन के साथे व्यापार – मगरुवा

Saturday, August 20, 2016

भूमि - अधिग्रहण कानून के संशोधन में आखिर अडचन कंहा हैं ? 20-8-16

भूमि - अधिग्रहण कानून के संशोधन में आखिर अडचन कंहा हैं ?
अधिग्रहीत जमीनों का मालिकाना ले रही कम्पनियों के मुँह से ही उनकी अडचन सुन लीजिए
कृषि भूमि अधिग्रहण को लेकर उठते विवादों ,संघर्षो का एक प्रमुख कारण ,मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून में बताया जाता रहा है |इस कानून को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा 1894 में बनाया व लागू किया गया था| भूमि अधिग्रहण के झगड़ो -विवादों को हल करने के लिए इसी कानून को सुधार कर नया कानून बनाने की बात की जा रही है| इस सन्दर्भ में पहली बात तो यह है कि 1894 के कानून में सुधार का कई वर्षो से शोर मच रहा है ,इसके बावजूद सुधार नही हो पा रहा है तो क्यों ? आखिर अडचन कंहा हैं ? 2007 से ही इस कानून को सुधारने ,बदलने का मसौदा बनता रहा है| उसके बारे में चर्चाये भी होती रही है|
उदाहरण स्वरूप .............................

इस सुधार की यह चर्चा आती रही हैं कि, सेज ,टाउनशिप आदि के लिए आवश्यक जमीनों के 70 % से लेकर 90 % तक के हिस्सों को कम्पनियों को किसानो से सीधे खरीद लेना चाहिए| उसमे सरकार भूमिका नही निभायेगी| बाकी 30 % या 10 % को सरकार अधिग्रहण के जरिये उन्हें मुहैया करा देगी| हालांकि अरबपति-खरबपति कम्पनियों को ,किसानो की जमीन खरीदकर उसका मालिकाना अधिकार लेना या पाना कंही से उचित नही हैं| क्योंकि कृषि भूमि का मामला किसानो व अन्य ग्रामवासियों की जीविका से जीवन से जुड़ा मामला है राष्ट्र की खाद्यान्न सुरक्षा से जुदा मामला हैं |इस सन्दर्भ में यह दिलचस्प बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि सरकारों ने हरिजनों कि जमीन को बड़ी व मध्यम जातियों द्वारा खरीदने पर रोक लगाई हुई हैं| वह भी इस लिए कि बड़ी जातिया उन्हें खरीद कर हरिजनों को पुन: साधनहीन बना देंगी| जो बात हरिजनों के अधिकार क़ी सुरक्षा के रूप में सरकार स्वयं कहती हैं ,उसे वह सभी किसानो क़ी जीविका क़ी सुरक्षा के रूप में कैसे नकार सकती है ? उसे खरीदने क़ी छूट विशालकाय कम्पनियों को कैसे दे सकती हैं ? दूसरी बात जब सरकार ने ऐसे सुधार का मन बना लिया था तो ,उसमे अडचन कंहा से आ गयी ? क्या उसमे किसानो ने या राजनितिक पार्टियों ने अडचन डाल दी ? नही| उसमे प्रमुख अडचन अधिग्रहण के लिए लालायित कम्पनियों ने डाली है |इसकी पुष्टि आप उन्ही के ब्यान से कर लीजिये |18 मई के दैनिक जागरण में देश के सबसे बड़े उद्योगों के संगठन सी0 आई0 आई0 ने कहा कि" कारपोरेट जगत अपने बूते भूमि अधिग्रहण नही कर सकता | यह उन पर अतिरिक्त दबाव डाल देगा |... कम्पनियों द्वारा 90 % अधिग्रहण न हो पाने पर पूरी योजना पर सवालिया निशान लग जाएगा |इससे न सिर्फ औधोगिक कारण ही बल्कि आर्थिक विकास दरप्रभावित होगा | सुन लीजिये ! ए वही कारपोरेट घराने है ,जो सार्वजनिक कार्यो के प्रति ,खेती -किसानी के प्रति ,सरकारी शिक्षा ,सिचाई के इंतजाम के प्रति ,सरकारी चिकित्सा आदि के प्रति सरकार कि भूमिकाओं को काटने ,घटाने कि हिदायत देते रहे है और सरकार उन्हें मानती भी रही है |जनसाधारण के हितो के लिए आवश्यक कामो से अपना हाथ भी खिचती रही है |लेकिन अब वही कारपोरेट घराने स्वयं आगे बढ़ कर जमीन का सौदा करने को भी तौयार नही है |वे चाहते है कि सरकार अपने शासकीय व कानूनी अधिकार से किसानो को दबाकर जमीन अधिग्रहण कर दे ताकि वह उसे कम से कम रेट पर प्राप्त कर उसका स्वछ्न्दता पूर्वक उपयोग , उपभोग करे |सरकारे और राजनितिक पार्टिया ,राष्ट्र के आर्थिक विकास के नाम पर कारपोरेट घराने के इस व एनी सुझाव को आडा- तिरछा करके मान भी लेंगे |कानून में सुधार भी हो जाएगा और कम्पनी हित में अधिग्रहण चलता भी रहेगा |
कयोंकि यह मामला कानून का है ही नही |बल्कि उन नीतियों सुधारों का है ,जिसके अंतर्गत पुराने भूमि अधिग्रहण के कानून को हटाकर या संशोधित कर नया कानून लागू किया जाना है |सभी जानते है की पिछले २० सालो से लागू की जा रही उदारीकरण विश्विक्र्ण तथा निजीकरण नीतियों सुधारों के तहत देश दुनिया की धनाड्य औधिगिक वणिज्य एवं वित्तीय कम्पनियों को खुली छुट दी जा रही है |
इन नीतियों ,सुधारों के अंतर्गत देश की केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारे देश -प्रदेश के संसाधनों को , सावर्जनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को इन विशालकाय कम्पनियों को सौपती जा रही है |कृषि भूमि का भी अधिकाधिक अधिग्रहण कर वे उसे कम्पनियों को सेज टाउनशिप आदि के निर्माण के नाम पर सौपती आ रही हैं | उन्ही के हिदायतों सुझाव के अनुसार 6 से 8 लेन की सडको के निर्माण के लिए भी सरकारे भूमि का अधिग्रहण बढाती जा रही है | यह सब राष्ट्र के आधुनिक एवं तीव्र विकास के नाम पर किया जा रहा है | सरकारों द्वारा भूमि अधिग्रहण पहले भी किया जाता रहा है |पर वह अंधाधुंध अधिग्रहण से भिन्न था | वह मुख्यत: सावर्जनिक उद्देश्यों कार्यो के लिए किया जाने वाला अधिग्रहण था |जबकि वर्मान दौर का अधिग्रहण धनाड्य कम्पनियों , डेवलपरो , बिल्डरों आदि के निजी लाभ की आवश्यकताओ के अनुसार किया जा रहा है |उसके लिए गावो को ग्रामवासियों को उजाड़ा जा रहा है |कृषि उत्पादन के क्षेत्र को तेज़ी से घटाया जा रहा है |थोड़े से धनाड्य हिस्से के निजी स्वार्थ के लिए व्यापक ग्रामवासियों की , किसानो का तथा अधिकाधिक खाद्यान्न उत्पादन की सार्वजनिक हित की उपेक्षा की जा रही है |उसे काटा घटाया जा रहा है| कोई समझ सकता है की , निजी वादी , वैश्वीकरण नीतियों सुधारो को लागू करते हुए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया रुकने या कम होने वाली नही है |इसलिए कानूनों में सुधारों बदलाव का हो हल्ला मचाकर किसानो ग्रामवासियों और अन्य जनसाधरण लोगो को फंसाया व भरमाया जा सकता है , पर उनकी भूमि का अधिग्रहण रुकने वाला नही है| अत: अब निजी हितो स्वार्थो में किये जा रहे कृषि भूमि अधिग्रहण के विरोध के साथ -साथ देश में लागू होते रहे , वैश्वीकरण नीतियों ,सुधारों के विरोध में किसानो एवं अन्य ग्राम वासियों को ही खड़ा हो ना होगा| इसके लिए उनको संगठित रूप में आना होगा |
सुनील दत्ता

Monday, August 15, 2016

नकली आजादी ;सत्ता शक्ति का हस्तान्तरण 15 - 8 2016


नकली आजादी ;सत्ता शक्ति का हस्तान्तरण

भारत की स्वतंत्रता कैसी?
विषय पर शिब्ली पी जी कालेज आजमगढ़ में भारत की स्वतंत्रता कैसी ? विषय पर विचार गोष्ठी हुई
अध्यक्षी सम्बोधन में सवाल उठा अगर हम इन बातो पे गौर करे तो हम स्वंय ही समझ सकते है आजादी है या नही ?
पहले तो हमे कुछ बातो को जानना जरूरी है |
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में ए. ओ ह्यूम ने कहा था , चूँकि जयकारा लगाने का काम मुझे सौपा गया है , इसलिए मैं सोचता हूँ कि , देर आये दुरुस्त आये के सिद्दांत को मानते हुए हम सभी तीन बार ही नही , तीन गुना अर्थात , नौ बार और हो सके तो नौ गुना तीन अर्थात सत्ताईस बार उस महान विभूति की जय बोले , जिसके जूतों के फीते खोलने लायक भी मैं नही हूँ ; जिसके लिए आप सभी प्यारे है और जो आप सभी को अपने बच्चो के समान समझती है अर्थात सब मिलकर बोलिए , महामहिम महारानी विक्टोरिया की जय !....
कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य --- ह्यूम के जीवनी लेख विलियम वैडरबर्न के अनुसार काग्रेस की स्थापना से पहले उसे ( ह्युम ) को तीस हजार से ज्यादा जगहों से जो जानकारी मिली थी , उसके अनुसार ब्रिटिश राज एक सम्भावित खतरे का शिकार हो सकता था | उसे डर था कि गरीब वर्ग के लोग , असहाय व निराश होकर '' कुछ '' कर सकते थे और उस '' कुछ '' का मतलब था हिंसा | कुछ पढ़े लिखे लोग उस आन्दोलन में कूदकर उसका नेतृत्व कर सकते थे और उसे राष्ट्रीय स्तर के विद्रोह में बदल सकते थे |
1916 में बालगंगाधर तिलक ने बेलगाँव में अपने होमरूल के भाषण में कहा था कि उस कथन में कोई दो राय नही है कि अंग्रेजो के शासन में , अंग्रेजो की देख - रेख में अंग्रेजो की मदद और सहानुभूति से , उनकी उच्चस्तरीय भावनाओं के साथ हमे अपना उद्देष्ट प्राप्त करना है | '' ( तिलक राइटिंग एंड स्पीच पृष्ठ 108 )
दिसम्बर 1921 में अहमदाबाद अधिवेशन में गांधी ने हसरत मोहानी के उस प्रस्ताव की सखत आलोचना की थी , जिसमे तमाम सम्भव साधनों द्वारा सभी विदेशी नियंत्रणों से मुक्त स्वराज या पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति को कांग्रेस का उद्देश्य बताया गया था | ' गांधी का मानना था कि मोहानी ने एक गलत मुद्दा उठाया है --- ( गांधी वांग्मय ( पृष्ठ 100 - 113 )
1927 में कांग्रेस में मद्रास अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरु द्वारा एक प्रस्ताव में घोषणा की गयी कि भारत की जनता का उद्देश्य पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता है | ' गांधी इस प्रस्ताव से सहमत नही थे |
24 मार्च 1947 को वायसराय माउन्टबेटेंन के साथ पहली मुलाक़ात में नेहरु ने कहा था की वह मित्रता के धागे को नही तोड़ना चाहते | माउन्टबेटन ने लिखा है , '' मुझे लगता है की नेहरु राष्ट्रकुल में रहना चाहता है परन्तु वह ऐसा कहने का साहस नही कर सका ( transfer of power 10 - pqge -13 )
10 मई 1947 को वायसराय व उनके कार्यालय के सदस्यों के साथ बातचीत में नेहरु ने कहा था की भावनात्मक कारणों के अलावा भी अन्य कारणों से वह ब्रिटिश राष्ट्रकुल के साथ नजदीकी से नजदीकी रिश्ता कायम रखना चाहता है | बहुत से कारणों की वजह से वह खुले तौर पर औपनिवेशिक स्वराज्य की बात नही कर सकता , परन्तु उसके लिए आधार अवश्य तैयार करना चाहता है | (transfer of power -- 10 ,. p-735 )
23 मई 1947 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने औनिवेशिक प्रधानमन्त्री को एक तार भेजा था जो बेहद चौकाने वाला है -
उसके अनुसार
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कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि अपनी पार्टी से स्वीकारोक्ति लेने के लिए उन्हें आम जनता से यह कहना ही होगा कि औनिवेशिक स्वराज्य के नियमानुसार औनिवेशिक स्वराज्य जब भी चाहे राष्ट्रकुल से अलग हो सकता है , लेकिन उनके अपने अनुसार अगर एक बार औनिवेशिक स्वराज्य की मांग स्वीकार कर ली जाती है , तो हिन्दुस्तान राष्ट्रकुल को नही छोड़ेगा |...
इसलिए मैं जोर देकर कह रहा हूँ कि उस मामले में अत्यनत गोपनीयता की आवश्यकता है | क्योकि अगर यह बात बाहर खुल जाती है कि स्वंय कांग्रेसी नेताओं ने ही गुप्त रूप से इस विचार को प्रोत्साहित किया है तो उस मुद्दे पर पार्टी को स्वीकारोक्ति लेने की उनकी योजनाये मिटटी में मिल जायेगी (transfer of power-- 10 पेज - 974--75 )
वक्ताओं ने कहा सत्तर साल की आजादी बेमानी है आजादी तो तब होती जब मानव का मानव द्वारा शोषण बंद होता , समाज में हिंसा नही होती पर आज क्या हो रहा है जाति - धर्म का उन्माद चारो तरफ नजर आ रहा है |
वक्ताओं ने इसे नकली आजादी ;सत्ता शक्ति का हस्तान्तरण माना। शहीदे आजम भगत सिंह के सपनों का भारत बनना अभी बाकी है। आजा़दी का मूल्यांकन
जब तक मानव द्वारा मानव का लहू पीना जारी है,
जब तक बदनाम कलण्डर में शोषण का महीना जारी है,
जब तक हत्यारे राजमहल सुख के सपनों में डूबे हैं
जब तक जनता का अधनंगे-अधभूखे जीना जारी है
हम इन्क़लाब के नारे से धरती आकाश गुँजाएँगे !
हर ऑंधी से, हर बिजली से, हर आफ़त से टकराएँगे !! ----- कांतिमोहन 'सोज़'

Wednesday, August 10, 2016

देवल रानी- 11-8-16

देवल रानी---------- युवराज ने भरे कंठ से कहा '' प्यारी देवल , तुम सचमुच वफा की देवी हो ,
दिल्ली के सुलतानो की राजनेति खून , हत्या षड्यंत्र विश्वासघात से दूध पानी की तरह घुली मिमिली थी | जिसके प्रमाण इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित है , उनके महलो के भीतर भी इसी तरह के घृणित षड्यंत्र राग द्वेष और हत्याओं का बोलबाला था | देवल रानी की दर्दभरी कहानी , महलो के भीतर चलने वाले ऐसे ही जाल फरेबो का एक जीता जागता प्रमाण है | इसी भोली -- भाली राजकुमारी ने इन निष्ठुर हत्यारों के हाथो क्या कुछ नही सहा ? अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा एवं ससुर जलालुद्दीन की हत्या करके दिल्ली के तख्त पर कदम रखे थे | इस महत्वाकाक्षी युवा सुलतान ने शीघ्र ही एक एक करके भारत के भीतरी प्रदेशो को जीता और अपने राज्य में मिला लिया , उसकी सेनाओं ने 1927 ई में गुजरात पर आक्रमण किया | विजय के पश्चात उसके सेनापति उलगुखान व नुसरतखान ने राजमहलो और खजानों को जी भर के लुटा , इसी लूट में उनके हाथ गुजरात की रानी कमला देवी लगी | राजा कर्णदेव तो अपनी नन्ही सी बिटिया देवल के साथ मुसलमानों से बच निकले भागे | लेकिन आक्रमणकारियों के हाथ रानी पड़ गयी | राजा ने देवगिरी के शासक रामचन्द्र के यहाँ शरण ली | गुजरात पर सुलतान का अधिकार हो गया , उसने रानी कमला देवी के रूपसौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसके साथ विवाह कर लिया , इसी लूट में शाही सेना के हाथ एक हिजड़ा भी लगा जिसके हाथो स्वंय अलाउद्दीन खिलजी , उसके परिवार का नाश हुआ इतिहास में यह हिजड़ा मलिक काफूर के नाम से प्रसिद्ध है , जन्म से यह हिन्दू था , पर सुलतान से अनैतिक सम्बन्ध जुड़ जाने पर मुसलमान बन गया था | गुजरात विजय के कुछ वर्षो बाद अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरी पर भी हमला कर दिया और वहा के राजा रामचन्द्र को परास्त करके कमला देवी की पुत्री देवल को अधिकार में ले लिया और दिल्ली मंगवा लिया | कई वर्षो बाद माँ बेटी का मिलन हुआ | यह क्रूर व्यग्य तो उन्होंने कलेजे पर पत्थर रखकर सह लिया , लेकिन उन्हें क्या पता था कि षड्यन्त्रो की भूमि सीरी ( दिल्ली ) में उन्हें अभी न जाने और कितने दुःख उठाने थे | इस समय देवल दस वर्ष की परम सुन्दरी रूपवती बालिका थी | वह अलाउद्दीन के महलो के भीतर चलने वाली कुटिल और भयंकर राजनीति और सर्वनाशी हथकंडॉ से अनजान बनी हुई सुंदरी तितली की तरह खेलती रहती थी | उसका सौन्दर्य महकते गुलाब की रह था | जो बरबस दुसरो की नजर अपनी ओर खीच लेता था | सुलतान की एक अन्य बेगम से खिज्रखान नाम का एक पुत्र था , वह उम्र में दो साल बड़ा था | शुरू से ही देवल और खिज्रखान एक दूसरे से प्रेम करने लगे दोनों सारा दिन साथ साथ खेलते रहते थे खिज्रखान परम सुन्दर बालक था उसकी शक्ल देवल के भाई से बहुत मिलती जुलती थी इसीलिए कमला देवी उससे बहुत स्नेह करती थी |
सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को इन दोनों बच्चो की बढती प्रीति को देखकर बड़ी प्रसन्नता होती थी | और उसने मन ही मन यह निश्चय कर लिया था कि वह अपने पुत्र खिज्रखान का विवाह गुजरात की राजकुमारी देवल के साथ कर देगा | ज्यो -- ज्यो दिन बीतते गये देवल और खिज्रखान का प्रेम प्र्गाद होता गया | यह प्रगाढ़ता यौवन के आगमन के साथ दृढतर होती चली गयी अब स्थिति ऐसी आ गयी थी कि वे दोनों एक दुसरे को देखने के लिए विकल रहने लगे सीरी के कुटिल राजमहलो से इन दोनों के प्रगाढ़ प्रेम की कहानी छिपी न रह सकी , सुलतान ने रजा कर्ण को संदेश भेजकर उनकी पुत्री देवल का विवाह अपने शहजादे खिज्रखान के साथ करने की सहमती भी प्राप्त कर ली |
एक दिन मौका देखकर सुलतान ने मलिका ए जहा से खिज्रखान और देवल के विवाह की चर्चा की उस समय शहजादा वहा बैठा था , वह लज्जावश वहा से उठ कर चला गया , अब उसे इस बात का पक्का भरोसा हो गया कि एक दिन देवल दुलहिन बनकर उसकी दुनिया आबाद करेगी , इस घटना के बाद दोनों का प्रणय और सुदृढ़ हो गया | अब संसार में उन्हें और किसी वस्तु की कामना न थी | लेकिन महल में कुछ ऐसी बेगमे भी मौजूद थी जिन्हें देवल और खिज्रखान का प्रेम फूटी आँखों नही सुहाता था | उन्हें देवल में एक सबसे बड़ा दोष दिखाई देता था कि वह काफिर हिन्दू राजा की बेटी है इतना ही नही ये दोनों माँ बेटी खास अलाउद्दीन के रंगमहलो तक में हिन्दू धर्म से चिपकी हुई थी | इसी धर्म के अनुसार पूजा उपासना करती थी यह बात मलिका ए जहा तथा दूसरी बेगमो को बहुत चुभती थी उन्होंने कई बार इस ओर सुलतान का ध्यान दिलाया पर उसने इस ओर कोई ध्यान ही नही दिया | जब सुलतान ने देवल के साथ खिज्रखान के विवाह की चर्चा मलिका ए जहा से की तो वह भड़क उठी क्योकि सबसे बड़ा शहजादा होने के कारण खिज्रखान हिंदुस्तान के विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी था उसके साथ देवल का विवाह होने से दोनों काफिर माँ बेटियों का महत्व बाद जाने का खतरा था | यही सोच कर मलिका ए जहा ने इस चर्चा को वही रोक दिया और अपने भाई अलपखान की बेटी के साथ खिज्रखान का विवाह करने पर जोर दिया , सुलतान को इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नही थी क्योकि अलपखान एक सुयोग्य सेनापति और उसके साम्राज्य का सुदृढ़ स्तम्भ था | ऐसा प्रतीत होता है कि इर्ष्या मध्ययुगीन स्त्रियों का प्रिय गहना था जिसे वे हर समय अपने दिल से लगाये रखती संभवत: बहुविवाह प्रथा के कारण सुतो की उपस्थिति से ही ऐसा रहा हो उनकी ईर्ष्या ने तत्कालीन समाज और राजनीती का कितना अहित किया इसका अनुमान अभी तक कोई इतिहासकार नही लगा पाया है |
सुलतान , अमीर , सूबेदार , राजा , रईस -- सब के हरमो में भेढ़ -- बकरियों की तरह भरी हुई ईर्ष्यालु स्त्रियों को बढिया वस्त्र आभूषण पहनने , अच्छा शाही भोजन करने के बाद और कोई काम होता नही था , अपनी सारी जिन्दगी वे इन्ही घात प्रतिघात और षडयत्रो में बिता देती थी | उनकी अपेक्षा समाज के अन्य वर्गो की महिलाये कही अधिक उदार दयालु , सभ्य और सहृदय थी | यद्दपि उनके उपर भी कई तरह के सामाजिक बंधन थे | मलिका ए जहा ने देवल और खिज्रखान के बढ़ते हुए प्रेम को खत्म करने के लिए उन दोनों को अलग -- अलग कर दिया | उनके मिलने जुलने पर रोक लगा दी | मलिका का विचार था कि उन्हें इस प्रकार दूर -- दूर कर देने से प्रेम टूट जाएगा | लेकिन इस दूरी ने उनके प्रेम को और अधिक प्रगाढ़ व पुष्ट बना दिया | दोनों प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को देखने के लिए व्याकुल रहने लगे और मलिका की नजर बचा कर एक दूसरे से मिलने की युक्ति करने लगे | जब मलिका को उनके छिप -- छिप कर मिलने का पता लगा तो वह बहुत नाराज हुई और उसने दोनों को इतनी दूर -- दूर रखने का निश्चय किया जहा वे एक दूसरे की परछाई तक न पा सके | यही सोच कर मलिका ए जहा ने ईर्ष्यावश देवल को कुश्क ए लाल ( लाल महल ) भिजवा दिया जिससे खिज्रखान उसे कभी भी न देख सके | जब राजकुमारी की सवारी लाल महल की ओर जा रही थी तो शहजादा अपने गुरु निजामुद्दीन ओलिया के पास बैठा कुछ लिख रहा था | देवल देवी के स्थान परिवर्तन का समाचार उसके लिय वज्र के समान था | समाचार पाते ही शहजादा तुरंत घोड़े पर सवार होकर लाल महल की ओर दौड़ पडा --- उसे राजकुमारी की पालकी रास्ते में मिल गयी | दोनों प्रेमी मिले वे देर तक आँसू बहाते रहे और अपने प्रेम को मृत्यु पर्यंत स्थायी बनाये रखने की सौगंध खाते रहे |
शहजादे ने प्रेम की चिर स्मृति बनाये रखने के लिए देवल को अपने सुन्दर बालो की एक लट दी जब कि राजकुमारी ने उसे प्रणय स्मृति के रूप में अपनी अगुठी पहना दी कुछ देर बाद दोनों प्रेमी विरह के आँसू बहाते हुए पुन: मिलने की आशा से एक दूसरे से विदा हुए | लाल महल में इतनी दूर रहकर भी देवल का शहजादा खिज्रखान के प्रति प्रेम किसी भी तरह कम नही हुआ | इसी प्रकार शहजादा भी अपनी प्रयेसी के वियोग में व्याकुल रहने लगा | उसके दुःख को दूर और मन को स्थिर करने के लिए मलिका ए जहा ने अपने भाई अलपखान की लड़की से उसके विवाह की तैयारिया शुरू कर दी | शाही महल के चारो ओर ऊँचे -- ऊँचे कुब्बे बनाये गये उन्हें बहुमूल्य रेशमी पर्दों से सजाया गया गलियों और बाजारों की सजावट की गयी दीवारों पर अनेक तरह के सुन्दर चित्र बनाये गये | जहा तहा खेमे और शामियाने गाड़े गये जगह जगह सुन्दर फर्श बिछाए गये कही भी खाली जगह नही दिखाई देती थी ढोल और बाजे बजने लगे नट और बाजीगर अपने तमाशे दिखाने लगे | कुछ तलवार चलाने वाले नट ऐसे थे जो बाल को बीच से चीर कर दो फाको में बाट देते थे | कुछ नट तलवार को पानी की तरह निगल जाते थे नाक में चाक़ू चढा लेते थे | तुर्की इरानी और हिन्दुस्तानी संगीत की बहार थी | दिल्ली के दूर दूर से कलावन्त इकठ्ठे होते जा रहे थे मदिरा पानी की तरह बह रहा था | इस प्रकार महीनों तक राग रंग का उत्सव चलता रहा विवाह की तैयारिया होती रही ज्योतिषियों ने शुभ मुहूर्त निकला और बुधवार 6 फरवरी 1312 ई को विवाह निश्चित हुआ | शहजादा एक कुम्मैत घोड़े पर सवार हुआ बिस्मिल्लाह की आवाज चाँद तक पहुची समस्त अमीर सवारी के साथ पैदल चल रहे थे हाथियों पर सुनहरे हौदे कसे थे तलवार और खंजरो द्वारा बुरी निगाहों के दरवाजे बंद थे | इस प्रकार यह जलूस अलपखान के दरवाजे तक पहुचा शहजादा गद्दी पर विराजमान हुआ अमीर अपने अपने पद गौरव के अनुसार दी बाई ओर बैठ गये | सद्रेजहा ने खुतबा पढ़ा जवाहरात और मोती लुटाये गये लोगो को बहुमूल्य वस्तुए प्रदान की गयी | निकाह के बाद लोग विदा हो गये चारो ओर खुशिया की मानो बौछार हो रही थी लेकिन शहजादा खिज्रखान के सुन्दर मुख पर उदासी की घटा छाई थी वह अत्यधिक व्याकुल था और बलि होते हुए बकरे की तरह उसका मन छटपटा रहा था वह अपनी प्रेमिका देवल की याद में बहुत व्याकुल था इस विवाह की धूमधाम से अलपखान की सुन्दर कन्या के सौन्दर्य से भी उसकी विरह ज्वाला किसी प्रकार कम न हो पाई | शहजादे के इस विवाह की धूमधाम को कुश्क ए लाल से राजकुमारी देवल ने भी देखा था उसके दिल पर क्या न बीती होगी , फिर भी उस ने शहजादे के पास इस शादी की मुबारकबाद भेजी |
देवल देवी से मुबारकबाद का संदेश पाकर शहजादे का दिल टुकड़े -- टुकड़े हो गया | वह पागल सा रहने लगा मानो उसका सब कुछ लुट गया हो | हिन्दुस्तान के शक्तिशाली सुलतान का पुत्र एक विशाल साम्राज्य का युवराज होते हुए भी देवल की एक झलक पाने के लिए व्याकुल रहने लगा उसकी वेदना इतनी बढ़ गयी कि उसका स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरने लगा उसकी स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो गयी अंत में उसने एक विश्वस्त और चतुर दासी के हाथो मलिका ए जहा के पास यह करुणाजनक संदेश भेजा , '' माँ अपनी भतीजी के लिए पुत्र की हत्या करना उचित नही है , इस्लाम पुरुष को चार विवाह करने की आज्ञा देता है और बादशाहों को तो राजनीतिवश बहुत से विवाह करने पड़ जाते है | मेरे महल में यदि एक देवल आ जाती है तो इससे आप कि भतीजी का तो कुछ भी अहित नही होगा बल्कि मेरी बुझती हुई जिन्दगी को नई रौशनी मिल जायेगी | यदि मैं इसी तरह घुट घुट कर मर गया तो आप इस खून का जबाब खुदा के सामने देना होगा '' | शहजादे कि इस दर्द भरी पुकार और गिरती हुई सेहत से मलिका ए जहा का पत्थर दिल भी पिघल गया उसने शहजादे को देवल देवी से विवाह कि अनुमति दे दी | लेकिन यह शर्त लगा दी कि ' यह विवाह अत्यंत गुप्त रीति से होगा , इसमें जरा भी धूमधाम नही की जायेगी विवाह में वर वधु के माता पिता के अतिरिक्त केवल एक काजी और एक पंडित को ही आने की अनुमति होगी | शहजादे ने ये सब शर्ते मान ली | इसके कुछ दिन बाद ही महलो में चुपचाप शहजादा खिज्रखान का गुजरात की राजकुमारी देवल से विवाह हो गया , कन्यादान देवल देवी की माँ कमला देवी ने किया , सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और मलिका ए जहा वर पक्ष की ओर से उपस्थित थे वर की ओर काजी और वधु की ओर से एक पंडित ने मुस्लिम और हिन्दू विधि विधान द्वारा इस विवाह को सम्पन्न कराया | अपनी बिछुड़ी हुई प्रियतमा देवल रानी को पाकर शहजादे को मानो दुनिया भर की सल्तनत मिल गयी | अब उसका मन हर प्रकार से संतुष्ट और प्रसन्न था उसके मन में किसी प्रकार की कामना न थी | वह अपनी देवल के एक बाल पर एक हजार दिल्ली की सल्तनते न्योछावर करने के लिए तैयार था उसके लिए इस धरती पर चारो ओर खुशिया ही खुशिया बिखरी हुई थी उसने जो चाहा उसे वही मिल गया था |
लेकिन शीघ्र ही शहजादे के सुख को काली घटा ने घेर लिया यह काली घटा कोई और नही बल्कि मलिक काफूर नामक एक गुलाम हिजड़ा था जिसे गुजरात विजय के समय एक हजार दिनारो में खरीदा गया था | सुलतान की कामुक नजर इस सुन्दर हिजड़े छोकरे पर पड़ी वह इसके रूप रंग पर मुग्ध हो गया और इसे अपनी अप्राकृतिक वासना का साधन बना लिया | यह हिजड़ा उपर से जितना सुंदर था भीतर से उतना ही नीच कुटिल और महत्वाकाक्षी था | उसने कामी सुलतान को पूरी तरह अपने चगुल में फंसा लिया था वह दिन रात उसकी कामाग्नि को भडका कर मनचाहे काम करा लेता था इस गुलाम ने सुलतान की इस कमजोरी का पूरा पूरा लाभ उठाया जब कभी सुलतान उससे खुश होता तो यह गुलाम उससे इनाम मागने के स्थान पर अपने उपर मेहरबानी बनाये रखने के लिए कहता रहता |
कामांध सुलतान ने उसके उपर दिल खोल कर मेहरबानी की उसे गुलाम से आमिर और फिर मलिक बना दिया एक विशाल सेना उसके अधीन कर दी | उसे जहा तहा युद्द क्षेत्रो में भेजा अंत में उसे दक्षिण भारत पर विजय पाने और लूटमार करने के लिए भेजा | सुलतान के प्रेमपात्र इस हिजड़े ने सारे दक्षिण भारत को रौद डाला इन विजयो से उसकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गये | सुलतान के बाद वही साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था वही सुलतान का प्रधान सेनापति अन्तरंग मित्र और शय्या सुख देने वाला था सारे साम्राज्य में इस हिजड़े के नाम का डंका बजता था , सुल्तान ने उसे मलिक नायब की उपाधि से विभूषित किया था | मध्यकालीन मुस्लिम समाज में हिजड़ो को अद्दितीय महत्व प्राप्त था इसमें आश्चर्य की कोई बात नही क्योकि लम्बे चौड़े हरम रखने वाले ऐयाश सुलतान और उन के अमीरों को अपनी सैकड़ो हजारो बेगमो पर निगरानी के लिए इन हिजड़ो की आवश्यकता पड़ती थी | उनकी इस आवश्यकता को प्रकृति तो पूरा नही कर पाती थी क्योकि हजारो लाखो बच्चो के पीछे कोई एक बच्चा नपुंसक होता ; इसीलिए ये लोग गरीबो के बच्चो का पुरुष चिन्ह काटकर उन्हें ही नपुंसक बना लेते और बड़ा होने पर अपने हरम का पहरेदार नियुक्त कर लेते क्योकि पुरुष चिन्ह काट लिए जाने से वे उनकी बेगमो के तथाकथित सतीत्व के लिए खतरा नही बन पाते थे | अपने कुठाग्र्स्त नीरस और दुर्भाग्य पूर्ण जीवन का बदला मौक़ा पड़ने पर ये व्याज समेत चुकाते थे , रिश्वत लेकर हरम में नये छोकरों को बुर्का उधाकर ले आते और दोनों ओर से भारी इनाम पाते , मलिक काफूर ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के साम्राज्य और परिवार का नाश कर के बड़े बड़े अमीरों की जड़ खोद कर अपने प्रति किये गये व्यवहार का अच्छी तरह बदला चुकाया | सुलतान इस हिजड़े के द्वारा मारा गया उसके उत्तराधिकारी की हत्या भी एक दूसरे मुंह लगे हिजड़े ने की | मध्यकालीन समाज में ये अजीब प्राणी खूब महत्व रखते थे , एक विद्वान् से ज्यादा अमीर समाज में इनकी पूछ होती थी | मलिक काफूर या मलिक नायब अकारण ही शहजादा खिज्रखान से जलता कुढ़ता रहता था | सुलतान ने खिज्रखान को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और सभी अमीरों से यह लिखित प्रतिज्ञा करा ली थी | कि वे उसके बाद खिज्रखान को सुलतान मानकर उसकी सेवा करते रहेगे | इन प्रतिज्ञाबद्द अमीरों में मलिक काफूर भी था लेकिन उसने कभी मन से इस निर्णय को नही माना अब वह स्वंय दिल्ली का सुलतान बनने के सपने देखने लगा था |
ये सपने खिज्रखान के होते हुए कैसे पूरे हो सकते थे ? अत: उसे गिराना बहुत जरूरी था . मलिक काफूर ने शहजादे तथा उसके मामा व श्वसुर अमीर अलपखान के विरुद्द सुलतान के कान भरने शुरू किये , वासना से अंधे बने सुलतान ने उसकी बाते सच मान ली | इससे उत्साहित होकर मलिक काफूर ने उस स्वामिभक्त अमीर अलपखान की दिन दहाड़े हत्या कर दी किसी की भी हिम्मत न हुई कि इतने बड़े अमीर की हत्या के विरुद्द कोई आवाज तक उठाये | अलपखान को ठिकाने लगाने के बाद अब शहजादा ख्जिरखान की बारी थी , उसने झूठी -- झूठी बाते कहकर सुलतान के मन में शहजादे के प्रति इतनी नफरत भर दी कि सुलतान ने उसे शाही अधिकारों के सूचक सारे चंह वापस ले लिए | इस अपमान से शहजादे के मन में कोई विशेष वेदना नही हुई वह मलिक काफूर की कुटिल प्रकृति और अपने पिता की कामुकता को जानता था | इसी बीच सुलतान बीमार पड़ गया ज्यो ज्यो सुलतान की बीमारी बढती गयी त्यों त्यों मलिक काफूर के आतंक में भी वृद्दि होती गयी षड्यत्रो में तेजी आने लगी |
शहजादा राजधानी से दूर था , वह सच्चे पितृभक्त पुत्र की तरह अपने बीमार पिता के स्वास्थ्य की कामना से पैदल ही हतनापुर जियारत करने गया , एक दिन पैर में ठोकर लगी कोमल अंगुलियों से खून बहने लगा , घाव बड़ा था |
मरहम पट्टी के बाद शहजादा लडखडाते हुए चलने लगा फिर अपने साथी अमीरों के बार बार आग्रह करने पर वह घोड़े पर सवार होकर आगे बड़ा यह कोई बड़ा अपराध न था , पर मलिक काफूर ने इस बात को खूब नमक मिर्च लगा कर सुलतान से कहा इस पर कुपित होकर सुलतान ने शहजादे के पास सन्देश भेजा कि वह किसी भी सूरत में दिल्ली में कदम न रखे और तुरंत अमरोहा चला जाए |
शहजादे को जब यह शाही फरमान मिला तो वह मेरठ तक आ चुका था फरमान पाने के बाद उसने सोचा , '' मैं ने कोई अपराध नही किया है मेरे पिता रोग शैय्या पर पड़े हुए है और चुगलखोरो के प्रभाव में है , देश निकले जाने से पूर्व एक बार उनके दर्शन करना और आशीर्वाद पाना उचित होगा |
सरल हृदय शहजादा अपने चुने मित्रो के साथ दिल्ली पहुच गया और अपने मरणासन्न पिता के चरणों में सिर रख दिया और उससे अमरोहा जाने की आज्ञा मांगी अपने शुशील और आज्ञाकारी पुत्र को अचानक आया हुआ देखकर वह वृद्द और जर्जर सुल्तान पाश्च्ताप के मारे रो पड़ा और देर तक अपने बेटे को छाती से लगाये रोता रहा |
अपनी चाल को व्यर्थ होते देख कर मलिक काफूर दांत पीस कर रह गया , सुलतान ने शहजादे को आशीर्वाद दिया और आँसुओ के साथ साथ उसके दिल का सारा मैल बह गया उसने सबके सामने अपने पुत्र के सारे अपराध क्षमा करके उसे युवराज घोषित किया और उसे वही अपने पास राजधानी में रहने का आदेश दिया |
मलिक काफूर इस तरह हार मानने वाला नही था उसने कमरे में से शहजादे के निकल जाने के बाद सुलतान के कक्ष के आसपास अपना पहरा मजबूत कर दिया और उस मरणासन्न सुलतान की गर्दन पर अपनी तलवार की नोक गडा कर एक फरमान उसकी ओर बढा दिया जिसमे शहजादा खिज्रखान तथा दूसरे शहजादों को ग्वालियर के किले में बंदी बनाने का हुकम था |
अपने पराक्रम से समस्त भारत को कपाने वाले प्रतापी सुलतान अलाउद्दीन ने इस विश्वासघाती गुलाम की आँखों में हिंसा की लपटे देखी वह इस बुझते हुए जीवन दीप का मोह अब भी नही छोड़ना चाहता था अत: उसने कापते हाथो से उस फरमान पर हस्ताक्षर कर दिए और इस तरह अपने ही हाथो अपने परिवार और साम्राज्य की बर्बादी पर मोहर लगा दी वक्त ने उस से वृद्द सुलतान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या का बदला व्याज समेत ले लिया |
उसी सांयकाल मलिक काफूर ने खिज्रखान और शादीखान -- इन दोनों शहजादों को कैद कर लिया और अपने विश्वस्त सेनानायको की देख रेख में ग्वालियर भेज दिया शहजादों के इस दुर्भाग्य ने दिल्ली वासियों को राम के वन गमन की याद दिला दी अंतर केवल इतना ही था कि इस बार मंथरा और कैकेयी का मिला जुला नाटक एक हिजड़े ने किया था |
देवल रानी भी दिल्ली के ऐश्वर्यपूर्ण राजमहलो को छोड़ कर अपने पति के साथ स्वेच्छा से कैद हो गयी और इस दुर्भाग्य में अपने अभागे पति की सेवा करने वाले ग्वालियर के दुर्ग में पहुच गयी | यह दुर्ग मध्यकाल में शहजादों का बंदीगृह अथवा वधशाला का काम देता था कहा तो इन दोनों को हिन्दुस्तान के सुलतान और मलिका बनना था कहा इस भयंकर किले की अँधेरी कोठरी में मौत की घडिया गिनने के लिए मिली | जब कभी युवराज खिज्रखान कैद खाने के कष्टों से व्याकुल हो जाता था तो देवल रानी उसे महापुरुषों के संकटपूर्ण जीवन की कथाये सुनाकर धैर्य बधाती देवल रानी को अपने पास देखकर शहजादा कैद खाने की यातनाओं को भी भूल जाता |
अंत में 4 जनवरी , 1316 ई को सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु हो गयी | लोगो का विश्वास था कि मलिक काफूर ने सुलतान को विष देकर मार डाला है उस के विरुद्द अगुली तक उठाने वाला कोई नही था अभी सुलतान की लाश को दफनाया भी नही गया था कि उस ने अपने विश्वस्त साथी सुबुल को यह आदेश देकर भेजा कि वह शहजादा खिज्रखान की आँखे निकाल ले |
सुबुल पूरे दलबल के साथ ग्वालियर पहुच गया जब ये जालिम युवराज के पास पहुचे तो वह समझ गया कि उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है और वह अपने दुर्भाग्य का सामना करने के लिए तैयार हो गया | आगे बढ़ने से पूर्व उसने बड़ी लालसा के साथ अपनी प्रियतमा देवल रानी को आंसू भरी आँखों से देखा मानो वह उसे पी जाना चाहता हो |
युवराज ने भरे कंठ से कहा '' प्यारी देवल , तुम सचमुच वफा की देवी हो , मुझे अपनी आँखे जाने का अफ़सोस नही है बस यही अफ़सोस है कि तुम्हारी वफा का मैं कोई बदला न चुका पाया तुम्हे हिन्दुस्तान की मलिका न बना सका , मैं बड़ा बदनसीब हूँ मुझे माफ़ कर देना |
शहजादे ने आगे बढने के लिए कदम उठाये ही थे कि देवल उसके पैरो में लेट गयी वह अत्यंत करुण स्वर में विलाप कर रही थी उसने दुष्ट सुबुल के पैरो में अपना सिर रख दिया कि शहजादे की सुन्दर आँखों को बख्श दे बदले में उसकी आँखे निकल ले | लेकिन मलिक काफूर और उसके साथी किसी और ही धातु के बने थे उसने देवल रानी को ठोकर मार कर एक ओर लुढका दिया और अपने कठोर व दृढ हाथो से कापते हुए युवराज को जमीन पर पटका पांच जल्लादों ने शहजादे के हाथ पैर सिर अच्छी तरह दबोच लिए सुबुल ने उस्तरे की धार देखि और उसे चमड़े के पत्ते पर आठ -- दस बार फिरा कर पैना किया हाथ में उस चमकते उस्तरे को लेकर वह दुष्ट युवराज की छाती पर बैठ गया |
शहजादा खिज्रखान अपने समय में अति सुन्दर और सुकुमार युवक था वह जिबह होते हुए बकरे की तरह तडप रहा था पर इन कसाइयो ने उसे बुरी तरह जकड़ रखा था इस बीभत्स द्रश्य को देखकर देवल
दृश्य देखकर देवल रानी खम्भे का सहारा लिए बुरी तरह चीख रही थी |
सुबुल के उस्तरे ने अपना चमत्कार दिखाया और उस सुन्दर राजकुमार की आँखों को खरबूजे की फाको की तरह काट कर बाहर निकाल लिया | वे आँखे जिनमे सुरमा भी बड़ी सावधानी से डाला जाता था , वे आँखे जिनमे सबके लिए प्यार का सागर लहराता था जालिमो ने देखते देखते निकाल ली | युवराज दर्द के मरे तड़प उठा वह बुरी तरह चीख रहा था , खून बहने तथा अत्यंत पीड़ा के कारण वह बेहोश हो गया जालिम अपना काम पूरा करके चले गये |
युवराज अनाथ की तरह धरती पर बेहोश पड़ा था आसपास की धरती उसके खून से लाल हो गयी थी देवल उसकी छाती पर सिर रखे हुए उसके शरीर से लिपट कर बुरी तरह रो रही थी हिन्दुस्तान के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र और पुत्र वधु धुल में खून से लथपथ होकर अपने ही राज्य के दुर्ग में ऐसी दुर्गति भोग रहे थे | पर क्या इतने से ही उनके कष्टों का अंत आ गया था ? नही , अभी बड़ी परीक्षा बाकी थी |
मलिक काफूर ने दिल्ली में शहजादा शादीखान की आँखे निकलवा ली , मलिका ए जहा की सारी दौलत लूटकर उसे दर दर की भिखारिन बना दिया उसने मरहूम सुलतान के पांच वर्षीय पुत्र को नाम मात्र के लिए राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वंय मनमानी करने लगा | उसने चुन चुन कर सुलतान के परिवार मित्र रिश्तेदार और शुभचिंतको का वध किया साम्राज्य में उसके अत्याचारों के कारण हाहाकार मच गया एक रात जब वह सो रहा था तो सुल्तानों के सेवको ने उस पर हमला कर दिया और उसे मार डाला वह दुष्ट केवल 35 दिन ही शासन करने पाया था कि उसे जल्दी ही अपनी करनी का फल मिल गया |
मलिक काफूर के वध के बाद अलाउद्दीन खिलजी के अमीरों ने ग्वालियर के किले में कैदी बने शहजादे मुबारक खान को दिल्ली बुलाया वह उस समय 17या 18 वर्ष साल का नवयुवक था पता नही किस तरह मलिक काफूर के हाथो इसकी आँखे और जिन्दगी बच गयी |
मुबारक खान ने दिल्ली पहुच कर कुछ दिन शिहाबुद्दीन का सहायक बन कर शासन किया पर बाद में इस पांच साल के बालक को एक ओर हटा दिया और कुतुबुद्दीन नाम रखकर स्वंय सुलतान बन बैठा पहले तो कुछ समय तक उसने भली भाती शासन कार्य चलाया फिर वह भी विषय लोलुप होकर अत्याचार करने लगा जिस तरह उसका पिता अलाउद्दीन खिलजी मलिक काफूर पर आसक्त था उसी तरह नवयुवक सुलतान भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलकर खुसरू खान नामक एक सुन्दर हिजड़े पर मुग्ध हो गया और उसे राज्य का सर्वेसर्वा बना दिया | आश्चर्य है मलिक काफूर के कुकृत्य और अलाउद्दीन खिलजी एवं शाही परिवार की दुर्गति को शहजादा सुलतान बनते ही इतनी जल्दी भूल गया सुलतान कुतुबुद्दीन कामांध हो गया था उसने ग्वालियर के दुर्ग में बंदी अपने बड़े भाई खिज्रखान के पास फरमान भेजा कि अब मैं हिन्दुस्तान का सुलतान हूँ तुम मेरे कैदी हो अत: देवल देवी को मेरे महल में भेज दो |
इस शाही हुक्म से अँधा शहजादा खिज्रखान मर्माहत हो गया उसका रोम रोम काप उठा देवल तो उसकी जिन्दगी थी उससे बिछड़ने की तो वह कल्पना भी नही कर सकता था उसने बड़े साहस से काम लेकर सुलतान के हुकम को मानने से इनकार कर दिया और विनम्र शब्दों में यह संदेश भेजा '' जिस तरह आत्मा के निकल जाने पर शरीर मिटटी के समान व्यर्थ हो जाता है उसी तरह देवल रानी के बिना मैं भी निष्प्राण हो जाउंगा आपको हिन्दुस्तान का साम्राज्य प्राप्त हो चुका है वह आप के पास रहे मुझे उसकी जरा भी कामना नही है लेकिन देवल रानी को मेरे पास ही रहने दीजिये यद्दपि राज्य से निकाले जाने , नेत्रों की ज्योति छीन लेने से और आपके दुर्ग में कैदी बने होने से मैं एक निर्धन भिखारी से भी गया बीता हो गया हूँ पर देवल को मैंने सदैव अपनी सम्पत्ति माना है वह मेरी सम्पत्ति ही नही बल्कि जिन्दगी भी है यदि आप ने मुझ अंधे से लकड़ी की तरह यह आखरी सहारा भी छीन लिया तो मैं पूरी तरह मर जाउगा मेरे प्राण किसी भी तरह नही बचेगे मेरी हत्या करने के बाद ही आप इस वफा की देवी को मुझसे छीन सकते है |
खिज्रखान के इस उत्तर से सुलतान कुतुबुद्दीन मुबारक शाह भडक उठा उसने अपनी सिपहसालार शादीकत्ता को ग्वालियर भेजा कि वह दुर्ग में बंदी खिज्रखान , शादीखान और सिहाबुद्दीन -- इन तीनो शहजादों के सिर काट कर लाये | इनमे से पहले दो शहजादों की आँखे मलिक काफूर ने और तीसरे की खुद सुलतान से निकलवा ली थी | ये तीनो अभागे शहजादे अब सिर्फ रुखी सुखी रोटी और फटे पुराने कपड़ो के सहारे किले के कैद खाने में अपनी बोझिल जिन्दगी के दिन पूरे कर रहे थे |
शादीकत्ता ग्वालियर पहुच गया और तीनो शहजादों का सर कलम करने की तैयारी करने लगा उसके हत्यारे शादीखान और सिहाबुद्दीन के सिर काटने के बाद जब खिज्रखान के पास पहुचे तो देवल रानी चीखकर उसकी छाती से लिपट गयी और अपनी फूलो जैसी सुकुमार बाहे शहजादे के गले में डाल दी वह बुरी तरह रो रही थी हत्यारों से उसके प्राणों की भीख मांग रही थी | देवल के करुण विलाप पर कोई ध्यान न देकर हत्यारों ने अंधे युवराज पर तलवार से वार किया लेकिन देवल रानी ने उसके शरीर को अपनी सुकुमार देह से ढक रखा था इसीलिए चोट उसके सिर पर आई तलवार के करारे वार से उसका सिर बीच से फट गया खून का फौव्वारा फुट पडा लेकिन उसने शहजादे को फिर भी नही छोड़ा उसकी सुकुमार बाहे अपने पति के गले से कस गयी | वह स्वंय को होम कर हत्यारों से अपने पति के प्राण बचाना चाहती थी निर्दयी शादीकत्ता ने शहजादे के गर्दन को लक्ष्य करके करारी चोट की जिससे उसमे लिपटा हुआ उस अभागिन राजकुमारी का सुन्दर हाथ कट गया और वह मूर्क्षित होकर धरती पर गिर पड़ी |
हत्यारों ने तीसरा वार किया अब किसी की सुकुमार बाहे लिपटकर युवराज की गर्दन को नही बचा रही थी | अत: उसका सिर कट कर धरती पर आ गिरा खून का गरम स्रोत फुट पडा जिसने युवराज की अपनी देह के साथ साथ उसके पैरो में निस्पंदन पड़ी राजकुमारी देवल का भी अभिषेक कर दिया |
अगले ही क्षण वह कटा हुआ शरीर भी अपनी प्रियतमा के बगल में गिर पडा दोनों एक दूसरे को अपने गरम् रक्त से नहला कर सच्चे प्रेम और बलिदान का परिचय दे दिया था | दिल्ली के वैभवशाली तख्त पर वे भले ही न बैठ सके पर इस नगी धरती पर उनके कते हुए शरीर लेकिन जुडी हुई आत्माए मिलकर एक हो गयी थी |
सुनील दत्ता ---- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक --- आभार स विश्वनाथ

Tuesday, August 9, 2016

चे ग्वेरा ----- दुनिया का शानदार दोस्त 10-8-16


चे ग्वेरा ----- दुनिया का शानदार दोस्त
अमेरिकी महाद्दीपो में ही एक विलक्ष्ण हत्या का जिक्र करना जरूरी है | लैटिन अमेरिका के देश यूरोप के राजनितिक प्रभुत्व से उन्नीसवी शताब्दी में मुक्त हो चले थे , पर पूरे महाद्दीपो पर आर्थिक प्रभुत्व संयुक्त राज्य अमेरिका का ही कायम था | इसके विरुद्द छिट - पुट संघर्ष चलते ही रहते | बीसवी शदाब्दी में अर्जेटीना में एक मस्त मौला युवक '' चे ग्वेरा '' दमे का मरीज हो गया था , पर डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा था | विद्यार्थी जीवन में ही उसने दोस्तों के साथ लैटिन अमेरिका भ्रमण किया और उस दौरान लिखी डायरी ' मोटर साइकिल डायरीज ' के नाम से पुस्तक और फिल्म के रूप में बेहद लोकप्रिय हो चुकी थी |
इस यात्रा के दौरान उसने पूरे महाद्दीपो की दुर्दशा देखी और उसे दूर करने का संकल्प लिया |
उसने अपनी पढ़ाई दर किनार कर पहले पेरू और फिर क्यूबा के क्रान्तिकारियो के साथ मिलकर साम्राज्यवादी अत्याचार के विरुद्द लड़ना शुरू कर दिया |
बतिस्ता नामक तानाशाह के शासन को अमेरिका का पूरा संरक्ष्ण प्राप्त था और क्यूबा की जनता के शोषण और उत्पीडन का कोई अंत नही था | तानाशाह की जडं इतनी कठोर थी की कोई विद्रोह आसान नही था | फिर भी सेना के एक अधिकारी फिदेल क्रास्तो ने विद्रोह की ठानी | चे - क्रास्तो का दाहिना हाथ बन गया और अंतत: कुबा में क्रान्ति सम्भव हुई | क्रान्ति के बाद चे ने एक कुशल मंत्री के रूप में क्यूबा के निर्माण में योगदान दिया |
उसी दौरान चे भारत भी आये थे और भारत के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु से मुलाक़ात की थी | क्रांतिकारी मानस के इस विश्व नागरिक को तब तक चैन नही था , जब तक सारी दुनिया में क्रान्ति नही हो जाती | उसने एक बार फिर क्रान्ति का झंडा उठा लिया और मंत्री पद छोड़ पहले कांगो और फिर बोलिबिया में क्रान्तिकारियो की मदद करने में जुट गया | सारे लैटिन अमेरिका को जागृत कर देने वाले चे के पीछे सी. आई . ए पड़ गयी और बोलिविया में ही उसकी हत्या कर दी गयी |
पर तब तक चे सारी दुनिया के युवाओं का लाडला बन चुका था | होठो में सिगार दबाए उसकी तस्वीर दुनिया की सबसे लोकप्रिय तस्वीरो में से एक है |
उसकी तस्वीर पर उसका एक कथन प्राय: छपा हुआ मिलता है , ' भले ही मेरी कही बाते हास्यास्पद माना जाए , मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि क्रान्ति का सबसे बड़ा स्रोत प्रेम है ' | प्रेम और क्रान्ति का सुन्दर समन्वय करने वाला यह विश्व नागरिक अमेरिकी युवाओं के बीच लोकप्रिय था और है | कहा जा सकता है कि उसकी लोकप्रियता बढती जा रही है | सारे मानव समाज को रूपांतरित कर देने की लालसा रखने वाले , इस क्रांतिकारी की हत्या क्या मानव समाज के लिए आत्महत्या जैसी नही है |

Saturday, August 6, 2016

गजब का खेल ---- 6-8-2016

आयात निर्यात का एक दिलचस्प उदाहरण देश के कुल निर्यात में पिछले 17 महीनों से कमोवेश लगातार कमी आ रही है | यह गिरावट और ज्यादा होती अगर भेड़ , बकरी , भैस , मुर्गी तथा बैल आदि के निर्यात ( जीवित प्राणियों के रूप में निर्यात ) में 400% की वृद्दि नही होती मवेशिवो के निर्यात में सबसे ज्यादा वृद्दि भेड़ो के निर्यात में हुई है | 2014- 15 में 10 हजार डालर की भेड़ो का निर्यात 2015 - 16 में बढ़कर 205 करोड़ डालर पहुच गया | भेड़ो और फिर बकरियों का सबसे ज्यादा निर्यात खाड़ी देशो को और उससे भी सर्वाधिक निर्यात संयुक्त अमीरात को हुआ | मवेशियों के इस निर्यात से भी अधिक वृद्दि भारतीय छतरियो के निर्यात में हुई | पिछले एक साल में छतरियो के निर्यात में 900% की वृद्दि हुई है |  मूल्य  के रूप में 2.3 करोड़ डालर ( 150 करोड़ रूपये ) से अधिक मूल्य की छतरियो का निर्यात हुआ | छतरियो के इस निर्यात के साथ दिलचस्प विरोधाभास तथ्य है कि इस देश में छतरियो का घरेलू बाजार लगभग 5000 करोड़ रूपये का है और इस देशी बाजार में चीन की आयातित छतरियो का बोलबाला है | यह स्थिति देश की छतरी उद्योग के देशी बाजार को घटाकर उसे महज अंतरराष्ट्रीय एवं अपेक्षाकृत छोटे बाजार पर निर्भर बना देने का द्योतक है | देश के टिकाऊ भरोसेमंद एवं आत्मनिर्भर बाजार को छोड़कर विदेश के अस्थायी एवं परनिर्भर बाजार को अपनाते जाने का द्योतक है | साथ ही यह देश में छतरी उद्योग के उत्पादन को मुख्यत: निर्यात के लिए उत्पादन के रूप में उसके विकास विस्तार को सीमित कर देने की  साजिश है | चीन से सालो साल से उपभोक्ता सामानों के बढ़ते आयात ने इस देश में वहा के मालो सामानों के बाजार को तो बढ़ा दिया है |

देश में खिलौनों से लेकर छतरियो आदि के देशी उत्पादन व बाजार को घटा दिया है | देश के आम उपभोक्ताओं को भी चीनी सामानों पर निर्भर बना दिया है | चीन भी इस देश की बड़ी कम्पनियों के पूजी निवेश को छुट तभी देता है या कोई कूटनीतिक समझौता तभी करता है जब उसे मालो , सामानों के बाजार  को इस देश में बढाने की छुट मिलती है |
भारत और चीन की कुटनीतिक दोस्ती के पीछे भारतीय कम्पनियों का चीन से सुविधापूर्ण निवेश के लिए तथा चीन में उत्पादित मालो सामानों के इस देश में बढ़ते बाजार के लिए होता रहा आर्थिक समझौता ही प्रमुख रहा है | हालाकि उसके परिणाम स्वरूप देश के अपने लघु उत्पादक संकटग्रस्त होते रहे है | इन क्षेत्रो के उत्पादक अपना रोजी रोजगार छोड़ने के लिए विवश है | विदेशीपूजी तकनीक के अंधाधुंध आयात के साथ विदेशी मालो मशीनों और अब आम उपभोक्ता सामानों का भी अंधाधुंध आयात बढ़ता रहा है बढ़ते आयात के चलते ( और निर्यात के घटते के चलते ) विदेशी देनदारी का बोझ भी कमोवेश निरंतर बढ़ रहा है | इसके वावजूद अंतर्रराष्ट्रीय पूजी तकनीक व  निवेश का लाभ उठाती देश की धनाढ्य कम्पनिया सरकारों के जरिये विदेशी आयात को अंधाधुंध बढ़ावा दे रही है | देशी उत्पादन व बाजार को हतोत्साहित करती है |
दरअसल देश की जरुरतो के अनुसार उत्पादन व बाजार को किसी हद तक नियंत्रित व संचालित करने का काम भी पिछले 20 सालो से लगातार और नीतिगत रूप से छोड़ा जाता रहा है | विदेशी मालो सामानों के देश में आयात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबन्ध को 1997 से घोषित रूप से हटाया जाता रहा है | इन्ही नीतियों की घोषणाओं और उनके बढ़ते क्रियान्वयन के फलस्वरूप आम उपभोक्ता सामानों से देश का घरेलू उत्पादन प्रभावित होता रहा है इसके साथ ही घरेलू उत्पाद संकट में है | इस काम को देश की सभी सरकारों आयातकों निर्यातको द्वारा संचालित किया जाता रहा है |
देश में छतरियो का उत्पादन और उसका घटता देशी बाजार तो मात्र एक उदाहरण है | हाँ देश के निर्यात में महीनों से चल रही गिरावट के साथ मवेशियों एवं छतरियो के निर्यात में भरी वृद्दि इस बात का सबूत पेश करती है की यहाँ के बड़े औद्योगिक कम्पनियो के उत्पादों का विदेशी बाजार में मांग नही है या है तो बहुत कम है | यही कारण है की विदेशो को किये जाने वाले निर्यात में सूती ऊनी कपड़ो छतरियो तथा चावल चीनी चाय गोश्त मसाले सब्जी फल एवं जानवरों को खिलाने वाली खली आदि ही प्रमुख है | तेज आधुनिक विकास से पहले यानी 25 30 साल पहले भी इस देश के निर्यात में यही वस्तुए प्रमुखता से शामिल थी | जाहिर सी बात है वैश्वीकरणवादी निजीकरणवादी एवं उदारीकरणवादी नीतियों को लागू किये जाने के प्रचारित तीव्र विकास ने देश के निर्यात में किसी अन्य प्रमुख आधुनिक उत्पादन की मान और उसके देशी उत्पादन में बढ़ोतरी तो नही की पर देश के उस उत्पादन को क्षति जरुर पहुचाई जिस पर देश के घरेलू उत्पादक खासकर लघु एवं कुटीर उद्योगों के उत्पादक टिके हुए थे |

Wednesday, August 3, 2016

धनाढ्यो की उलटबासी ---- 3-8-2016

धनाढ्यो की उलटबासी

कबीर की उलटबासिया जनमानस में प्रचलित रही है और लोकोत्तियो का हिस्सा रही है | लोग अपने अपने हिसाब से उसका गूढ़ अर्थ निकालते व समझते है | लेकिन विडम्बना यह है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी ऐसी उलटबासिया का दौर बढ़ता जा रहा है | उस उलटबासी के रूप में नही बल्कि सच के रूप में प्रचारित किये जाने का काम किया जा रहा है | विडम्बना यह भी है कि यह उलटबासी कहने वाले लोग कागज कलम को हाथ तक न लगाने वाले कबीर की तरह अनपढ़ नही है बल्कि आधुनिक युग की उच्च शिक्षा से लैस है | इनमे उच्च शिक्षित राजनीतिग्य , समाजशास्त्रियो अर्थशास्त्रियो प्रचार माध्यमि विद्वानों की पूरी जमात शामिल है|
यहाँ उच्चस्तरीय हिस्सों द्वारा कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित एक बहुप्रचारित उलटबासी आपको सुना रहे है | पिछले दस सालो से कृषि क्षेत्र को दी जाती रही सब्सिडी को न केवल अर्थव्यवस्था पर बोझ बताया जा रहा है , बल्कि कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक या सरकारी निवेश के घटने का सबसे बड़ा कारण भी बताया जा रहा है | पिछले 10 15 सालो से कृषि क्षेत्र में सब्सिडी की बढ़ती रकम के साथ इस क्षेत्र में घटते सरकारी निवेश को इसके साक्ष्य के रूप में पेश किया जाता रहा है | उदाहरण रासायनिक खादों तथा कृषि क्षेत्र की बिजली - सिंचाई आदि पर दी जाती रही सब्सिडी की रकम इस समय लगभग 1 लाख करोड़ पहुच चुकी है | इसके अलावा खाध्य सुरक्षा योजना के तहत सस्ते दर पर खाद्यान्न सप्लाई करने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी की रकम भी 1 लाख करोड़ से उपर है | इन दोनों को मिलाकर कृषि क्षेत्र को 2 लाख करोड़ से अधिक सब्सिडी दिए जाने का प्रचार किया जाता रहा है , हालाकि खाद्यान्न सुरक्षा के मद में दी जाने वाली 1 लाख करोड़ से अधिक की सब्सिडी दरअसल कृषि क्षेत्र  को  मिलने वाली सब्सिडी कदापि नही है | उसका लाभ न तो किसानो को कृषि उअत्पादन में मिलता है और न ही कृषि उत्पादों के बिक्री बाजार में |
इसीलिए इसे कृषि सब्सिडी में शामिल करके कृषि क्षेत्र को भारी  सब्सिडी वाला क्षेत्र बताने के कुप्रचार के साथ साथ यह कृषि सब्सिडी की वास्तविकता को छिपाने वाला हथकंडा भी बन गया है |
अब जहा तक कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सार्वजनिक व सरकारी सहायता का मामला है तो उसकी मात्रा में बहुत कुछ वृद्दि तो होती रही है , लेकिन यह सहायता निजी क्षेत्र की यानी किसानो की निजी हिस्सेदारी के मुकाबले घटती रही है |
उदाहरण 1990 91 में कृषि क्षेत्र में सरकारी व निजी क्षेत्र का कुल निवेश 14 हजार 83 करोड़ था जिसमे सरकारी निवेश का हिस्सा 4 हजार 395 करोड़ या कुल निवेश के एक तिहाई से कुछ कम था बाद के सालो में किसानो द्वारा किये जाने वाले निवेश का हिस्सा लगातार बढ़ता और  सरकारी और सार्वजनिक निवेश का हिस्सा लगातार घटता रहा | 2012– 13 में 1 लाख 62 हजार करोड़ के कुल निवेश में सरकारी निवेश लगभग 24 हजार करोड़ का हिस्सा घाट कर कुल निवेश के छठे हिस्से तक पहुच गया |
फिर यह सरकारी निवेश रूपये के बढ़ते अवमूल्यन और आधुनिक कृषि विकास की जरूरतों को देखते हुए ज्यादा घटता रहा | कई बार तो पिछले सालो की तुलना में इसके कुल आवटन में ही कमी कर दी गयी |
उदाहरण 2007 8 में सरकारी निवेश की 23 हजार 257 करोड़ की कुल रकम को 2008 9 में घटाकर 20 हजार 572 करोड़ कर दिया गया | उसी तरह 2009 10 में 22 हजार 693 करोड़ के निवेश को 2010 2011 में घटाकर 19 हजार 854 करोड़ कर दिया गया |

कुल मिलाकर देखे तो 90 के दशक से पहले कृषि क्षेत्र में कुल निवेश में सरकारी निवेश के 30 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा , 1990 के दशक में और फिर सन 2000 से लेकर अब तक लगातार घटता हुआ 15 प्रतिशत तक पहुच गया है | कृषि में निवेश की जिम्मेदारी किसानो पर खासकर धन पूंजीहीन किसानो पर ही डालते जाने का काम निरंतर बढाया जा रहा है |


ऐसी स्थिति में यह कहना कि सरकारों द्वारा पिछले 15 20 सालो से कृषि सब्सिडी बढाने की नीतियों एवं कार्यवाही के चलते ही सरकारी निवेश कम किया जाता रहा है , झूठ के अलावा कुछ नही है | यह आधुनिक युग की एक उलटबासी ही है | जिसे एक सच का जमा पहनकर प्रचारित किया जाता रहा है |यह प्रचारित उलटबासी इसीलिए भी है की 1990 के दशक से पहले खासकर 1965 66 से लेकर 1986 तक कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश को बढ़ावा देते हुए खाद , बीज , सिंचाई , बिजली में सब्सिडी देने का कम होता रहा है | पर 1991 में उदारीकरणवादी , वैश्वीकरणवादी व निजीकरणवादी नीतियों को लागू किये जाने के बाद से ही सर्वाधिक साधन सम्पन्न उद्योग वाणिज्य व्यापार के बड़े मालिको के लिए अधिकाधिक छुट दिए के साथ देश के व्यापक अशक्त एवं साधनहीन किसानो को अपने बूते खेती करने के छोड़ा जाता रहा है |
फिर जहा तक कृषि में सब्सिडी बढाये जाने की बात है तो यह प्रचार भी सच नही बल्कि कोरा झूठ है | उसका सबसे बड़ा सबूत तो यह है की 1990 से पहले  किसानो को खाद , बिजली , बीज , सिचाई को सरकारों द्वारा नियंत्रित मुले से कम मुले पर दिया जाता था | लेकिन 1990 के बाद से इस मूल्य नियंत्रण को घटते हुए कृषि लागत के साधनों सामानों को उसके बाजार मूल्य के हवाले कर दिया गया है | 90 के दशक से खासकर 1995 -96 से बीजो खादों के तेजी से बढ़ते मुले इसी प्रक्रिया के परिलक्षण है |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक