Sunday, March 11, 2018

स्वाधीनता सग्राम में मुस्लिम भागीदारी --- भाग पाँच 12-3-18

स्वाधीनता सग्राम में मुस्लिम भागीदारी --- भाग पाँच

वहाबी आन्दोलन : अंग्रेजो के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह




अंग्रेजो ने क्रूर कदम उठाये और1863 - 1865 के बीच के दौर में बड़ी संख्या में मुकदमे चलाए गये , जिनमे वहाबी आन्दोलन के सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया | 1864 का अम्बाला मुकदमा और 1865 का पटना मुकदमा आपस में गहराई से जुड़े हुए थे | बिहार के पटना में 1808 को जन्मे एक प्रमुख सामाजिक व्यक्ति अहमद उल्ला , जिन्होंने कुछ समय तक डी.कलेक्टर और आयकर निर्धारक मंडल के सदस्य के रूप में काम किया था , उनको वहाबी आन्दोलन का सदस्य होने के चलते 1857 में गिरफ्तार कर लिया गया | 1864 में रिहा होने के तीन महीने बाद उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया | उन्हें 27 फरवरी 1865 को मौत की सजा सुनाई गयी | बाद में उनकी सजा - ए - मौत को आजीवन निर्वासन में बदल दिया गया और उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गयी | आगे चलकर जून 1865 में उन्हें अंडमान द्दीप भेज दिया गया , जहां पर 21 नवम्बर 1881 को उनकी मौत हो गयी | 19 वी सदी के साम्राज्यवाद विरोधी श्रेष्ठ क्रांतिकारी अहमदउल्ला के छोटे भाई याहया अली को राजद्रोह के अपराध का दोषी करार कर दिया गया | अम्बाला फैसले के अनुसार याहया अली ''राजद्रोह के पीछे की मुख्य प्रेरणा था ' जिसे इस मुकदमे ने सामने ला दिया | उसने अपने हजारो - लाखो देशवासियों को राजद्रोह - विद्रोह के लिए उकसाया | अमानवीय यातना सहते सहते याहया अली कैद में शहीद हो गए | मोहम्मद जफर और मोहम्मद शफत को अम्बाला मुकदमे में मौत की सजा सुनाई गयी और दूसरो को जीवन - भर के लिए देश निकाला दे दिया गया | सजा - ए - मौत को बाद में उम्रकैद में बदल दिया गया | इस्लामपुर के सर्वाधिक सम्मानित सदस्य इब्राहिम मंडल को राजमहल मुकदमे 1870 में दोषी करार दिया गया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गयी लेकिन बाद में 1878 में उसे लार्ड लिटन ने रिहा कर दिया | कलकत्ता के चमड़े के दो व्यापारी आमिर खान और हशमत खान को उम्रकैद की सजा सुनाई गयी और 1869 में अंडमान भेज दिया गया | चीफ जस्टिस नार्मन की कलकत्ता में हत्या करने वाले शहीद मोहम्मद अब्दुल्ला को कलकत्ता के टाउन हाल के सामने फाँसी पर लटका दिया गया | इसी प्रकार , अंग्रेजो द्वारा उत्तर - पश्चिमी प्रांत से निर्वासित किये गये क्रांतिकारी शेर अली खान ने भारत के वायसराय लार्ड मेयो की 8 फरवरी 1872 को हत्या कर दी | लार्ड मेयो की हत्या से समूचे ब्रिटिश साम्राज्य में खौफ की लहर दौड़ गयी | 11 मार्च 1873 को जब उसे फाँसी के फंदे पर लाया गया तो उसकी आँखों में संतोष की चमक थी | उसने उस रस्सी को चूमा जिससे उसे लटकाया जाने वाला था और चिल्लाकर कहा ''जब मैंने यह फैसला ( वायसराय की हत्या करने का ) किया तो मैंने पहले ही अपने यहाँ होने की उम्मीद कर ली थी | उसे फाँसी चढ़ते देखने के लिए आये जनसमूह को उसने सम्बोधित किया ''भाइयो , मैंने तुम्हारे दुश्मन का खात्मा कर दिया है |'' इस देशभक्त को इतिहास में जगह पाने के लिए लम्बे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी |ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए लोगो का सफलतापूर्वक नेत्रित्व करने वाले कुछ अन्य प्रमुख जेहादियों धार्मिक योद्धाओं में शामिल थे पटना के मोहम्मद हसन , विलायत अली के बेटे ; फल व्यापारी अब्दुल्ला ; सुर्ज्ग्ध के नाजिर हुसैन ; भोपाल के मुंशी जलालुद्दीन ; सादिक हुसैन ; अब्दुल जफर ' अब्दुल रहमान ; ढाका के अली करीम बद्रसमन ; भोपाल की बेगम अब्दुल हकीम | सभी मुकदमो ( पटना मुकदमा 1865 , मालदाह मुकदमा सितम्बर 1870, राजमहल मुकदमा अक्तूबर 1870 , वहाबी मुकदमा 1870 - 71 ) में उनके खिलाफ मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाड़ साजिश रची थी | लेखक और साम्प्रदायिक सौहार्द के अथक योद्धा सान्तीमोय रे ने ठीक ही लिखा है -- '' समूचे उत्तरी भारत में फैले अपने सुद्रढ़ सगठन , भारतीय सैन्यइकाइयों के अपने गुप्त आव्हान और हैदराबाद के टोना की तरह की रियासतों से अपने सम्पर्को के साथ वहाबियो ने ठोस सागठनिक आधार मुहैया कराया , जिसे1857 - 58 के जन उभार के कुछ गैर वहाबी नेताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से उपयोग में लाया गया |'' पूरे भारत में अपने नेटवर्क के साथ वहाबियो ने अंग्रेजो के बढ़ते कदमो को रोका और उनके खिलाफ बहादुरी से लड़े | इसी अर्थ में उन्हें भारत की आजादी के शुरूआती सेनानियों के रूप में जाना जाता है | इस आन्दोलन ने भारत में अपने विस्तार की ब्रिटिश योजना के शुरूआती चरणों में उन्हें रोका और उन्हें माकूल जबाब दिया तथा उन्हें यकीन दिलाया कि भारत में वे ज्यादा दिन नही टिक सकते | इस संघर्ष के साहसी और जोशीले चरित्रों ने अपने पीछे अंग्रेजो के खिलाफ बहादुराना और टिकाऊ संघर्ष की प्रेरक विरासत छोड़ी और अच्छी तरह से गुंथे -बुने अखिल भारतीय राजनीतिक सगठन के निर्माण के लिए आदर्श बने | निसंदेह ''वहाबी आन्दोलन का जनाधार अपने सुगठित और एकीकृत सगठन के द्वारा दोषमुक्त बना रहा और इसमें ढाका से लेकर पेशावर तक की मुख्य भूमि के लोग शामिल हुए | इसके अलावा यह बात भी स्वीकार की जानी चाहिए कि भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जुड़ में आये समस्त आंदोलनों में वहाबी आन्दोलन सर्वाधिक ब्रिटश विरोधी था और इस सिलसिले को उसकी समस्त गतिविधियों में बनाये रखा गया |

2 comments:

  1. राधा तिवारी जी आपका बहुत बहुत आभार कि आपने मेरे आलेख को स्थान दिया

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