Saturday, March 24, 2018

भारत विभाजन के गुनहगार -- डा लोहिया 24-3-18

जन्मदिन पर विशेष --

भारत विभाजन के गुनहगार - डा राम मनोहर लोहिया ----- भाग एक


मौलाना आजाद कृत 'इंडिया विन्स फ्रीडम ' के परीक्षण की जो बात मेरे मन में उठी , उसे जब मैंने लिखना शुरू किया तो वह देश के विभाजन का एक नया वृत्तांत बन गया | यह वृत्तांत हो सकता है वाह्य रूप में , संगतवार व कालक्रमवार न हो , जैसा कि दूसरे लोग इसे चाहते , लेकिन कदाचित यह अधिक सजीव व वस्तुनिष्ट बन पड़ा है | इसको लिखते वक्त इसमें स्पष्ट हुए दो लक्ष्यों के प्रति मैं सतर्क हुआ | एक , गलतियों और झूठे तथ्यों को जड़ से धोना और कुछ विशेष घटनाओं और सत्य के कुछ पहलुओ को उजागर करना और दूसरा उन मूल कारणों को रेखांकित करना जिनके कारण विभाजन हुआ | इन कारणों में मैंने आठ मुख्य - कारण गिनाये है | एक - ब्रितानी कपट ,दो- , कांग्रेस नेतृत्व का उतारवय तीन -, हिन्दू - मुस्लिम दंगो की प्रत्यक्ष परिस्थिति चार - जनता में दृढ़ता और सामर्थ्य का अभाव , पांच - , गांधी जी की अहिंसा छ : - मुस्लिम लीग की फूटनीति , सात - आये हुए अवसरों से लाभ उठा सकने की असमर्थता और आठ - , हिन्दू अंहकार |
श्री राजगोपालाचारी अथवा कम्यूनिस्टो की विभाजन समर्थक नीति और विभाजन के विरोध के कट्टर हिंदूवादी या दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नीति को विशेष महत्व देने की आवश्यकता नही | ये सभी मौलिक महत्व के नही थे | ये सभी गंभीर शक्तियों के निर्थक और महत्वहीन अभिव्यक्ति के प्रतीक थे | उदाहरण विभाजन के लिए कट्टर हिन्दुवाद का विरोध असल में अर्थहीन था , क्योकि देश को विभाजित करने वाली प्रमुख शक्तियों में निश्चित रूप से कट्टर हिन्दुवाद भी एक शक्ति थी | यह उसी तरह थी जैसे हत्यारा , हत्या करने के बाद अपने गुनाह मानने से भागे |
इस सम्बन्ध में कोई भूल या गलती न हो | अखण्ड भारत के लिए सबसे अधिक व उच्च स्वर में नारा लगाने वाले , वर्तमान जनसंघ और उसके पूर्व पक्षपाती जो हिन्दुवाद की भावना के अहिंदू तत्व के थे , उन्होंने ब्रिटिश और मुस्लिम लीग की देश के विभाजन में सहायता की , यदि उनकी नियत को नही बल्कि उनके कामो के नतीजो को देखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा | एक राष्ट्र के अंतर्गत मुसलमानों को हिन्दुओ के नजदीक लाने के सम्बन्ध में उन्होंने कुछ नही किया | उन्हें एक दूसरे से पृथक रखने के लिए लगभग सब कुछ किया | ऐसी पृथकता ही विभाजन का मूल - कारण है | पृथकता की नीति को अंगीकार करना साथ ही अखण्ड भारत की भी कल्पना करना अपने आप में घोर आत्मवंचना है , यदि हम यह भी मन ले कि ऐसा करने वाले ईमानदार लोग है | उनके कृत्यों को युद्ध के सन्दर्भ में अर्थ और अभिप्राय माना जाएगा जब कि वे उन्हें दबाने की शक्ति रखते है जिन्हें पृथक करते है | ऐसा युद्ध असम्भव है , कम से कम हमारी शताब्दी के लिए और यदि कभी यह सम्भव भी हुआ तो इसका कारण घोषणा न होगी | युद्ध के बिना , अखंड भारत और हिन्दू मुसलमान पृथकता की दो कल्पनाओं का एकीकरण विभाजन की नीति को समर्थन और पाकिस्तान को संकट कालीन सहायता देने जैसा है | भारत के मुसलमानों के विरोधी पकिस्तान के मित्र है | जनसंघी और हिन्दू नीति के सभी अखण्ड भारतवादी वस्तुत पाकिस्तान के सहायक है | मैं एक असली अखंड भारतीय हूँ | मुझे विभाजन मान्य नही है | विभाजन की सीमा रेखा के दोनों और ऐसे लाखो लोग होंगे , लेकिन उन्हें केवल हिन्दू या केवल मुसलमान रहने से अपने को मुक्त करना होगा , तभी अखण्ड भारत की आकाक्षा के प्रति वे सच्चे रह सकेंगे | दक्षिण राष्ट्रवादिता की दो धाराए है , एक धारा ने विभाजन के विचार को समर्थन दिया , जबकि दूसरी ने इसका विरोध किया | जब ये घटनाए घटी तब उनकी नाराज व खुश करने की शक्ति कम न थी , लेकिन वे घटनाए फलहीन थी | महत्वहीन | दक्षिण राष्ट्रवादिता केवल शाब्दिक या शब्दहीन विरोध कर सकती थी , इसमें सक्रिय विरोध करने की ताकत न थी | अत: इसका विरोध समर्पण अथवा राष्ट्रवादी विचार जिसने विभाजन में मदद की , उसने थोड़ी भिन्न भूमिका भी अदा की , इस सत्य के वावजूद कि इसके भाषणों में असली राष्ट्रवादी बुरी तरह उब चुके थे | इस भाषण बाजी में प्रभाव की शक्ति न थी | दोष उसमे इसी का न था भारतीय जनता व भारतीय राष्ट्रवाद की पलायन वृत्ति , पंगुत्व , भग्नता और आत्मशक्ति की कमी का भी दोष था | दक्षिण राष्ट्रवादिता ने विभाजन का समर्थन और विरोध दोनों किया , यह उनके मूल - वृक्ष की निष्पर्ण शाखाए थी | मुझे कभी - कभी आश्चर्य होता है कि क्या देशद्रोही लोग भी कभी इतिहास बनाने में कोई मौलिक भूमिका अदा करते है | ऐसे लोग
तिरस्करणीय होते है , इसमें कोई संशय नही , लेकिन वे क्या महत्वपूर्ण लोग हैं , मुझमे इसमें शक है | ऐसे देशद्रोहियों के काम अर्थहीन होंगे , यदि उन्हें पूरे समाज के गुप्त विश्वासघात का सहयोग न मिले|- तर्क के रूप में | मैं तो कम्युनिस्ट - विश्वासघात के इस कपटी पहलू को क्षणिक मानता हूँ जिसका लोगो पर कोई प्रभाव नही है लेकिन दूसरे देशद्रोही ऐसे भाग्यशाली नही है | अच्छा तो यह होगा की कम्यूनिस्टो की अन्दुरुनी जांच कर के पता लगाया जाए कि जब उन्होंने विभाजन का समर्थन किया तब उसके मन में क्या था | सम्भवत भारतीय कम्यूनिस्टो ने विभाजन का समर्थन इस आशा से किया था की नवजात राज्य पकिस्तान पर उनका प्रभाव रहेगा , भारतीय मुसलमानों में असर रहेगा और हिन्दू मन दुर्बलता के कारण उनसे मन फटने का की भारी खतरा न होगा , लेकिन उनकी योजना गलत सिद्ध हुई सिवा थोड़े क्षेत्र को छोड़कर जहाँ की उन्होंने भारतीय मुसलमानों में कुछ छिटपुट प्रभाव स्थल बनाये और हिन्दुओ में अपने लिए क्रोध न उबरने दिया | इस तरह उन्होंने अपने साथ अधिक धूर्तता नही की और साथ ही देश के लिए भी कोई लाभदायक काम नही किया | अपने स्वभाव से कम्यूनिस्टो दावपेंच का स्वरूप ऐसा है कि यह तभी जनता में शक्ति ला सकता है जब उनकी सफलता हो अन्यत्र लाजिमी तौर पर यदि सफलता न मिले तो जनता को कमजोर करने में ही वे सहयाक होते है | राष्ट्रीयता में आत्मविश्वास रूस के लिए निर्थक है , इसका प्रचार - महत्व तो जारकालीन रूस में ही समाप्त हो गया था | साम्यवाद तो पृथकवाद है जब यह शक्तिहीन रहता है अपने शत्रु को कमजोर करने के लिए सशक्त राष्ट्रीयता का सहारा लेता रहता है जब यह राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है तब वह पृथकवादी नही रहता साम्यवाद कोरिया और वियतनाम में एकतावादी है और जर्मनी में पृथकवादी अधिकतर लोग प्रत्यक्ष उदाहरण देखते है अनुमान पर राय नही बनाते | जब साम्यवाद के एकतावादी शक्तिदायक उदाहरण दिखाने की आवश्यकता होती है तब सोवियत रूस और वियतनाम के उदाहरण रखे जाते है और जब स्वतंत्रता की भावना का उदाहरण रखना होता है तब भारत और जर्मनी का उदाहरण रखा जाता है | इस बात का पेंच कही और है | साम्यवाद के लिए कामगार राज्य के सिद्धांत के अलावा कोई अन्य सिद्धांत माने नही रखता , ऐसा सिद्धांत लाजिमी तौर पर किसी भी राष्ट्र को कमजोर करता है कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर | इसी सिद्धांत ने भारतीय राष्ट्र को सदैव कमजोर बनाया है | लेकिन आशामय भविष्य की आशा में इनके अनुचर इस तथ्य के प्रति अंधे बने रहे , साथ ही भारतीय जनता भी अंधी बनी रही हैं , जिसका कारण साम्यवादी कपट नही , बल्कि राष्ट्रवादी या लोकसत्तवादी शक्तियों की मूल भूत कमजोरी रही है | मैं नही समझता कि जो कराण मैंने गिनाये है इनके अलावा भी देश विभाजन के अन्य कोई मौलिक कारण रहे है | हिन्दू - मुस्लिम प्रश्न को लेकर देश की जिस परिस्थिति का निर्माण हुआ है उससे दो महत्व के तथ्य सामने आये है | हिन्दू - मुस्लिम रिश्तो के पिछले आठ सौ वर्षो में हिन्दू और मुसलमान दोनों लगातार पृथक भाव और समीपता के लुका - छिपी खेल के शिकार हो रहे है जिससे एक राष्ट्र के प्रति उनकी भावनात्मक एकाग्रता खंडित रही है , साथ ही भारतीय जन का यह स्वभाव भी परिस्थिति के साथ घुलने - मिलने और सहनशीलता तथा समर्पण की कला को इस हद तक सीख गया है कि दुनिया में कहीं भी परतंत्रता को विश्व - भाईचारे या राजनीतिक कपट का इस प्रकार पर्याय नही माना गया | मूलरूप से इन्ही दो तथ्यों द्वारा हिन्दू - मुस्लिम समस्या को प्रेरित किया गया है | इनके बिना , ब्रिटिश कुटिल नीति अथवा कांग्रेस नेतृत्व के उतारवय का कारण इतिहास की दृष्टि से महत्वहीन होता और उसका जो कडुवा फल मिला वह कदापि नही मिलता | स्वतंत्र भारत में भी हिन्दू - मुसलमानों में पृथक - भावना बनी रही है | मुझे शक है कि विभाजन - पूर्व के मुकाबले आज यह पृथक - भाव अधिक है | पृथक - भावना ने ही विभाजन को जन्म दिया और इसलिए अपने आप यह भावना पूरी तरह नही मिट सके | परिणाम में ही कारण भी घुल मिल गया | आजादी के इन वर्षो में मुसलमानों को हिन्दुओ के निकट लाने का कोई न कोई प्रयत्न किया गया न उनकी आत्मा से पृथकता का बीज समाप्त करने का ही प्रयत्न किया गया | कांग्रेसी सरकार के अक्षम्य अपराधो में विशेष उल्लेखनीय अपराध यही है -- पृथक - भावना वाली आत्माओं को निकट लाने में असफलता - बल्कि इस काम के प्रति बेमन से किया गया असफल प्रयास | इस अपराध के पीछे भावना रही - वोट - प्राप्ति की इच्छा और बहुरंगी समाज ( कास्मोपालिटन ) का तत्वज्ञान | देश के लगभग सभी राजनितिक तत्व विशेषकर वे जो धर्म - निरपेक्ष का दंभ भरते है , इसके शिकार रहे | वोट प्राप्ति का यह धंधा दीर्घकाल तक चल सकता है | जो भी इस दिशा में सफलता के लालची है वे पतन की प्रतियोगिता से बच नही सकते | एक समय के बाद सुबुद्धि आ सकती है , लेकिन अभी न तो वह समय आया है न वह सुमार्ग ही स्पष्ट है | अभी तक धर्म निरपेक्ष पार्टियों ने भी हिन्दू व मुसलमान का अलग - अलग आव्हान करने की हिम्मत नही दिखाई जो उन्हें कुविचारो व बुरी आदतों से मुक्त कर सके | ऐसी स्वार्थी लालच के लिए बहुरंगी समाज - ज्ञान सहारा बनता है | ऐसे लोग समस्या के अलग समाधान व प्रयत्न की कभी आवश्यकता नही समझे | उन्होंने समझ रखा है कि औद्योगीकरण और आधुनिक अर्थ - नीति , हिन्दू - मुस्लिम पृथक भावना को समाप्त कर देगी , यह मूर्खतापूर्ण विश्वास उद्योगीकरण और वोट - प्राप्ति की लालच का मिला जुला परिणाम है जिसने विभाजन व आजादी के इतने वर्षो के बाद यह स्थिति बनाई है कि तथाकथित राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक पार्टिया भी मुस्लिम लीग से गठबंधन कर बैठी और समस्त देश में मुस्लिम लीगी तथा पृथकवादी रोग से मुक्त होकर फिर रोगी होने की दशा बन गयी है | देश विभाजन के बारह वर्ष बाद भी कांग्रेसवाद और प्रजा - समाजवाद ने फिर एक दुसरे पृथक वादी दुष्करम को अंगीकार करने की विवशता का अनुभव किया |
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

साभार भारत विभाजन के गुनहगार - लेख डा राम मनोहर लोहिया
अनुवादक --- ओंकार शरद

1 comment:

  1. आदरणीय चर्चा मंच पे स्थान देने के लिए आभार व्यक्त करता हूँ आपका आपका आशीर्वाद बना रहे यही कामना है मेरी

    ReplyDelete