Thursday, November 24, 2016

हद हो गईल नोट बंदी के सबकर इज्जत दांव पर -- मगरू

अपना शहर मगरुवा

हद हो गईल नोट बंदी के सबकर इज्जत दांव पर -- मगरू
आखिर कल मगरुवा संजय जी के बगल में आकर बैठ गया दुआ सलाम किया और लगा पूछने संजय बाबू से कि नोट बंदी पे राय का ह आपके ? संजय बाबू लगे कहने यार का बताई गयनी हम आपन पइसा निकाले जब हमार नम्बर आइल तब खिड़की बंद हो गएल सरवा अब का करी न्योता कैसे होई लगली सोचे तबले उ बैंक वाला कहलस रेजगारी हवे पांच हजार दू रुपया वाला लेबा त बोला
का करती उहे लेहनी संजय राय से बात कईनि उ कहने भइया खुदे हमारे खचिया भर के सिक्का ह कौउनो तरीके से हमार मित्र लोगन सम्मान बचा लेहने | अब का बताई नोट बंदी पर इ कौन सम्विधान में लिखल बा की तोहार जमा पइसा बस इतने निकली एतना जरा कही लिखल ह त बतावा तबले रंजन बोल देहने की हम त अपने दुकान में इ कह देहनी की जेकरे पइसा न हवे उ दवाई ले जाये ओकरे जब होई तब दे देइ मगरू ने मुस्कुरा के कहा बहुत बड़ा काम कईला भाई लेकिन आज तक भूमिहारन के एक्को पइसा केहू पचा न पईलस -- बगले एक एगो लोकनिर्माण के बाबू सुधीर श्रीवास्तव जी चाय पियत रहने फट्टे बोलने भइया तोके किस्स्वा मालुम हवे की ना बनारस में एक जगह सब बिरादरी के खोपड़ी टंगल रहे एकगो खोपड़ी में ताला बंद रहे ए गो विदेशी आयेल उ लगल खोपड़ी देखे सब बिरादरी के खोपड़ी जब देख लेहलस आख़री में पुछ्लस कि इसमें ताला क्यों बंद है ? जे देखावत रहे उ कहलस यह खोपड़ी भूमिहार की है |मगरू ने कहा वैसे रंजन राय जहा झूठन गिरा देवेने उ नेता एम् एल ए एम् पी मंत्री बन जालाल कुछ दिन पहिले एक जगह जूठन गिरउने उहो बड़ा नेता हो गयिने | जय हो - जय हो

Sunday, November 13, 2016

आजादी या मौत --- vol - 2 13-11-16



विदेशो में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन



‘’ अप्रवास की परिधि से बाहर , राजनितिक कार्यो के कारण मुकदमो के शिकार , निष्कासन की धमकियों से त्रस्त , नागरिकता से वंचित , भूमि के स्वामित्व से विहीन , यहाँ तक कि उन राज्यों द्वारा , जहा अधिकांशत: वे रहते थे , जीवन साथी के चयन में भी बंधित भारतीय अब उस लघु समुदाय के अंग रह गये थे , जो अमेरिकनों से एक विशाल श्वेत दीवार से अलग कर दिए गये थे ‘’| - जोंन  जैसन
पैसेज फ्राम इंडिया

दिन रात बढती रही भारतीयों अप्रवासियो की त्रासदी | संचार यंत्रो का विष वमन , संस्थाओं का उनके विरोध में धुँआधार प्रचार , उनके तथा जन प्रतिनिधियों के द्वारा निरंतर भारतीयों के निष्कासन की माँग , कानूनों द्वारा नये भारतीय अप्रवासियो के कनाडा और अमेरिका में प्रवेश करने पर प्रतिबन्ध |  देश से दस हजार मील दूर संख्या में इतने कम , जहा उनको सुनने वाला न अपना देश , न उनके देश पर शासन करने वाली फिरंगी सरकार और न वह इंग्लैण्ड , जिसके साम्राज्यों की आधी संख्या ने सैनिको के रूप में किया निष्ठा भरा समर्पित बलिदान |
उन्हें यह समझते देर न लगी कि गोर साम्राज्य को अपनी सेवाए अर्पित कर यह समझना कि उन्हें उस साम्राज्य के हर उपनिवेश को अपना घर बनाने का अधिकार मिल गया था , मात्र एक भ्रम था वे कनाडा , आस्ट्रेलिया आदि की रक्षा में अपने प्राण तो गंवा सकते थे , पर उन गोरो के प्रदेशो में बसकर उनकी शुद्दता को नष्ट करने की कल्पना भी साम्राज्य को स्वीकार न थी | पग पग पर अपमानित करके यह अहसास उन्हें दिन रात दिलाया जाता था | अपनी सुरक्षा और अल्पमत अधिकारों की माँग को रखने के लिए उन्होंने कनाडा और अमेरिका में अलग अलग नीतिया अपनाई |

जहा तक कनाडा में आये भारतीयों का प्रश्न है , उन्होंने प्रतिवेदनो और कानूनों का सहारा लेने का प्रयास किया | उन्होंने कनाडा की सरकार द्वारा प्रस्तावित इस योजना पर भी गंभीर विचार किया कि भारतीय लोग कनाडा न आकर अंग्रेजो के अधीन टापू हाण्डूरस में जाकर बसे |
इसकी सम्भावना को अमली जामा पहनाने से पहले उन्होंने मिस्टर हारकिन नाम के अंग्रेज की छत्रछाया में सरदार नागर सिंह कोटली और सरदार शामसिंह डोगरा नामक दो व्यकियो का प्रतिनिधि मंडल हाण्डूरस भेजा | 1908 में गये इस प्रतिनिधि मंडल ने हाण्डूरस  को नारकीय पाया , जहा बसे कुछ भारतीय गुलामो से भी बत्तर जीवन जी रहे थे | कनाडा में आये भारतीयों को वहा जाकर नर्क का जीवन बिताना किसी भी अवस्था मे स्वीकार न था |

अपने उपर लगे पाबन्दिया के विरोध में 16 अप्रैल 1911 में वैनकुअर गुरुद्वारे में हुई एक विशाल सभा में उन्होंने कई प्रस्ताव पास किये , जिनकी प्रतिलिपिया कनाडा और भारत की सरकारों को भेजी गयी | इसी सभा में भी यह तय किया गया कि दो व्यक्ति भारत जाकर अपने परिवार को लाने का प्रयतन करे | उनके प्रवेश न पाने के आधार पर मुकदमा दायर किया जाए |
खालसा दीवान सोसायटी के प्रधान भाई भागसिंह और गुरुद्वारे के मुख्य ग्रन्थि बलवंत सिंह पंजाब गये | परिवार के साथ वापस वैनकुअर आने पर अधिकारियों ने उन्हें उतरने न दिया | इस पर सारे कनाडा में भारतीयों में रोष फ़ैल गया | प्रस्तावों , पत्रों तारो का अम्बार लग गया | प्रेस ने भी साथ दिया | भारत में और कनाडा में अनेक संस्थाओं ने इस अमानवीय व्यवहार कि निंदा की |
अंत में परिवारों को जमानत देकर प्रवेश मिला और अदालत की शरण ली गयी |
उसी वर्ष 25 नवम्बर को खालसा दीवान सोसायटी और युनैतेद इंडिया लीग ने कनाडा की केन्द्रीय सरकार के पास अपना प्रतिनिधि मंडल ओटावा भेज दिया |
डाक्टर सुन्दर सिंह , संत तेजासिंह , राजासिंह एवं पादरी एल डब्ल्यू हाल का यह मंडल प्रधानमन्त्री से मिला | न्याय का भरोसा दिलाने पर भी मई 1912 में इन परिवारों को देश छोड़ने का आदेश मिला | हाईकोर्ट के हस्तक्षेप से सरकार ने विशेष रियात कर परिवारों को रहने दिया | कानून नही बदला |
1911 में ही समस्त ब्रिटिश उपनिवेशों का सम्मेलन लन्दन में हुआ | वहा   भारतीयों ने सब देशो के प्रधानमन्त्रियो से न्याय की असफल अपील की | इससे अंग्रेजो की नियत और नीतियाओ का भंडाफोड़ तो हुआ ही |
22 फरवरी 1913 में आयोजित कनाडा और अमरीका में रहने वाले भारतीयों की विशाल सभा ने निर्णय लिया कि भाई नन्दसिंह बलवंत सिंह और नारायण सिंह का एक प्रतिनिधि मंडल लन्दन और भारत भेजा जाए | उन्होंने लन्दन में और भारत के अनेक नगरो में अधिकारियो से भेट की और जनसभाओ को सम्बोधित किया | भारतीयों की त्रासदी पर लेख लिखे समाचार पत्रों को साक्षात्कार दिया | सब धर्मो और राजनितिक दलों के नेताओं से मिले | सब और से जनसमर्थन पर भी परिणाम शून्य ही रहा | यहाँ तक की 24 नवम्बर 1913 को ब्रिटिश कोलम्बिया राज्य की हाई कोर्ट द्वारा भारतीयों के पक्ष में निर्णय दिए जाने पर कनाडियन सरकार की नीतियों में जरा भी अंतर नही पडा |
 यही नही , धीरे धीरे भारतीयों की समझ में यह आने लगा कि ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा / सेवा में चाहे वे अपना तन मन धन सब कुछ न्यौछावर कर दे , तो भी कभी भी किसी गोरो के उपनिवेश में आदर नही पा सकते |
इसी चिंतन ने इन ब्रिटिश सरकार परसत लोगो के मन में राष्ट्रीयता और एकता की भावना को जन्म दिया | विदेशो की धरती पर |
1909 में हिन्दुस्तान एसोसिएशन की स्थापना हुई | बदलती परिस्थितियों में यह संस्था न केवल भारतीयों के हितो की रक्षा के लिए कटिबद्द थी , वरन  अंग्रेजो के विरुद्द भारतीय स्वतंत्रता की पक्षधर भी होती गयी |
इस प्रकार जो लोग राजनीति के प्रति पूर्णत: उदासीन थे , ब्रिटिश साम्राज्य को अपना हितैषी समझते थे , रोजी रोटी कमाना मात्र ही जिनका ध्येय था , जीवन की पाठशाला में शिक्षा पाकर राजनितिक चेतना के अग्रदूत बन गये | बस उन्हें दिशा देने वाले किसी ज्योति स्तम्भ की तलाश थी | अपमानित और आहात होकर एक दिन उन्होंने ब्रिटिश सेना में किये कामो के लिए पाए अलंकरण और वीरता के प्रशस्ति पत्र / तमंचे जिन्हें वे अपने जीवन की अमूल्य उपलब्धि/ निधि मानते थे अग्नि को भेट कर दिए |

और रही सही कसर पूरी कर दी क्रांतिकारी ग्रंथी भाई भगवानसिंह के निष्कासन ने | ज्ञानी भगवान सिंह अमृतसर जिले के वाडिग ग्राम के रहने  वाले थे | उपदेशक कालिज , गुजरांवाला में शिक्षा प्राप्त कर वे वहा अध्यापक भी रहे | वे किसानो के हितो के आंदोलनों से जुड़े | पगड़ी सम्भाल जट्टा ‘’ आन्दोलन के प्रसिद्द नायक अमर शहीद भगतसिंह के चाचा अजित सिंह की गिरफ्तारी और देश निकाले के बाद वे भी हांगकांग चले गये | वहा गुरुद्वारे में तीन साल ग्रंथी रहे | वे एक सफल वक्ता थे लोकप्रिय थे | उनके प्रवचन में भीड़ रहती थी | सिख धर्म और दर्शन के विशेषज्ञ  होने के साथ साथ वे देशभक्ति से ओत प्रोत थे | उनके क्रांतिकारी भाषण के कारण उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया | अंत में अप्रैल 1913 में वे कनाडा आ गये और वैनकुअर गुरुद्वारे के ग्रंथी बन गये |

ज्ञानी  भगवान सिंह ने अपने क्रांतिकारी भाषणों से गुरुद्वारे को राष्ट्रीय आन्दोलन का मजबूत गढ़ बना दिया | लोगो के आक्रोश को और बल मिला | क्नादिओयन सरकार ने उनके कनाडा प्रवेश को अवैध घोषित करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया | जमानत पर छूटकर वे मुकदमा लड़ रहे थे | किन्तु मुकदमे के फैसला होने से पहले ही 18नवम्बर 1913 की रात को उन्हें सोते हुए गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी मुश्क बांधकर एक जापानी जहाज में चढा दिया | जापान जाकर वे टोकियो में हिंदी / उर्दू और इस्लाम धर्म / दर्शन के प्रोफ़ेसर बरकत उल्लाह के पास रहे |
इस प्रकार जहा न्यूयार्क में आयरिश राष्ट्रवादियो से प्रभावित भारतीयों ने अपनी संस्था बनाकर स्वदेशी लोगो में राष्ट्रीयता की भावनाए जगानी शुरू की थी , वही न्यूयार्क से वैनकुअर गये संत तेजासिंह ने यह घोषणा  की उनका मिशन गुरु नानक ने स्वपन में दर्शन देकर निर्धारित किया है , सिख सिपाहियों को आवाहन किया कि वे ब्रिटिश सम्राट को धरती पर प्रभु का प्रतिनिधि न माने और उनकी वफादारी उसके प्रति नही देश के प्रति होनी चाहिए | भारत से आये छात्रो में तो देशभक्ति की भावना भारत में ही पैदा हुई थी |
1907 में भारत से निष्काषित रामनाथ पूरी  ने उर्दू भाषा में सर्कुलर आजादी निकालना शुरू कर दिया | उसके माध्यम से राष्ट्रचेतना को जगाने के साथ भारतीयों को बन्दुक आदि शस्त्रों में प्रशिक्ष्ण देने , जापानी जुडो आदि का अभ्यास कराने और भारत के प्रति अमरीका में हमदर्दी पैदा करने की प्रेरणा दी |
बंगाल में चल रही स्वदेशी की लहर को समर्थन दिया | सियेटल में विश्व विद्यालय के छात्र तारकनाथ दास , जिसे अपने विचारों के कारण ब्रिटिश सरकार के दबाव में अप्रवास विभाग में दुभाषिये की नौकरी से हटाया गया था ने पहले वैनकुअर( कनाडा ) से फिर सियेटन ( वाशिगटन राज्य , अमरीका ) से फ्री हिनुस्तान नाम का मासिक पत्र निकला क्रान्ति के लिए राजनितिक चेतना जगाने के लिए | उसके प्रथम पृष्ठ पर सबसे उपर छपा था --- हरबर्ट स्पैन्सर का वाक्य ,’’ ‘’ अन्याय का विरोध करना प्रभु के आदेश का पालन करना है |’’ उधर भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश से आये गुरुदित्त कुमार जो कलकत्ता में उर्दू पढ़ाने के समय बंगाली क्रान्तिकारियो के सम्पर्क में आये थे , स्वदेश सेवक नाम से पंजाबी पत्र निकालने लगे | उसमे भारत के लिए पूर्ण स्वराज की आवाज उठाई गयी थी | विदेशियों द्वारा लूटमार को समाप्त करके स्वदेशी भावना , व्यापार का विकास करने की प्रेरणा दी | ब्रिटेन में राष्ट्रीय भावनाओं को बढाने के लिए श्याम जी कृष्ण वर्मा के द्वारा इंडिया हाउस की स्थापना से प्रेरणा लेकर जी डी कुमार ने स्वदेश सेवक होम बनाया | श्याम जी कृष्ण वर्मा के पत्र इन्डियन सोशियोलोजिस्ट की तरह था तारकनाथ दास का फ्री हिन्दोस्तान | 1909 में हिन्दुस्तान एसोसियेशन भी बनाई गयी थी , जी डी कुमार उसका मंत्री था जी डी कुमार हरनाम सिंह साहरी भारतीय श्रमिको के साथ छोटी छोटी टोलियों में यहा वहा जाते जहा श्रमिक काम करते थे |
स्वदेश सेवक द्वारा भारतीय विशेषत: सिख सैनिको को क्रान्ति का संदेश दिया जाता था | भारत में बड़ी संख्या में भेजे जाने से अंग्रेजी सरकार की आँखों में काटा बन गया यह पत्र और 1911 में इसके भारत प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया | सिएटल आने पर कुमार और दास ने यूनाइटेड इंडिया हाउस कि स्थापना की | इस प्रकार धीरे धीरे वैनकुअर और अमरीका के प्रशांत महासागरीय राज्यों में भारतीयों ने सगठन बनाने शुरू किये एकता और भारत की स्वतंत्रता को समर्पित | १९१२ में पोर्टलैंड ( ओरोगन राज्य ) में  हिन्दुस्तान एसोसियशन आफ दी पैसेफिक कोस्ट बनाई गयी | बाबा सोहन सिंह भकना प्रधान , जी डी कुमार मंत्री और पंडित काशीराम इसके कोषाध्यक्ष चुने गये |साथ ही यह तय किया गया इस संस्था का दी इंडिया नाम का एक पत्र साप्ताहिक उर्दू में निकलेगा , जिसका सम्पादन जी डी कुमार करेंगे |
इस संस्था का उद्देश्य भारत में स्वदेशी भाषाओं के पत्र मंगाकर प्रसारित करना , भारत से छात्रो को बुलाकर उन्हें शिक्षा दिलाकर देश सेवा में जीवन समर्पित करने की प्रेरणा देना , राष्ट्रीय हितो पर विचार करने के लिए साप्ताहिक बैठके करना था | सर्दियों में इस संस्था की एक शाखा एस्टोरिया में स्थापित की गयी | इसके अधिकारी थे भाई केसर सिंह प्रधान , मुंशी करीम बख्श मंत्री और मुंशीराम कोषाध्यक्ष |

असोसिएशन की चार मीटिंग ही हुई थी कि जी डी कुमार बीमार हो गये , उन्हें अस्पताल में भरती कराना पडा | साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ होने से पहले रुक  गया | इसी बीच लाला ठाकुरदास , जो देश निकाला की सजा काट रहे क्रांतिकारी थे , पोर्टलैंड आ गये | उससे पहले वे पेरिस में मैडम कामा तथा एस आर राणा के साथ काम कर रहे थे | जब उन्हें बताया गया कि संस्था 1907 के पंजाब किसान आन्दोलन के नेता भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह का विचार कर रही थी , तो उन्होंने सुझाव दिया कि लाला हरदयाल को बुलाया जाए , जो उस समय अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में ही थे | 1912 की शरद ऋतू में लाला हरदयाल को सेन्टजान ( पोर्टलैंड के निकट ) आने का निमंत्रण दिया गया | उन्होंने यह स्वीकार भी कर लिया |

प्रस्तुती --- सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक
      क्रमश:
आभार आजादी या मौत --- वेद प्रकाश वटुक

Friday, November 11, 2016

मोदी जी मजूरन के घरे चूल्हा न जल्ल -- मगरुवा 12-11-16

अपना शहर मगरुवा


मोदी जी मजूरन के घरे चूल्हा न जल्ल -- मगरुवा
कैफ़ी के इस नज्म के साथ ----
'' कोई तो सूद चुकाए , कोई तो जिम्मा ले
उस इन्कलाब का , जो आज तक उधार सा है '

आज जब सुबह मगरू अपने ठीहा से निकला तो देखा उसके साथी लोग भीड़ में एक व्यक्ति से बात कर रहे थे , भीड़ होने के कारण वो कुछ देख नही पा रहा था सो वो भी भीड़ के अन्दर घुसा - देखा और मुस्कुराकर कर कहा दत्ता बाबू राम - राम मैंने भी उसे देखा और पूछा का हाल बा मगरू भाई क्या हाल है मगरू ने तपाक से जबाब दिया हाल तो बुरा है दादा हर तरफ से ग्र्रेब ही मारा जाता है , एक तो प्रदेश सरकार ने तिहादी माजुरो के लिए कोई ऐसी योजना नही बनाई की उ तीसो दिन काम करके अपने परिवार के भेट भर सके अगर योजना बनल भी ह त एमन्न लेबर आफिस के चक्कर काटत रहा महीना - महिना अउर कोनौवो नेता प्रेत के पकड़ा तब कुछ काम बनी ऐसे कौवनों काम न होके बा जेकर सरकार ओकरे मनई के कम हो जाई बाकी सब भरसाई में जाए तभी वह खड़ा एक मजूर बोला बाबू हम जात के तेली हई का बताई महिना में पाँच या दस दिन तिहाड़ी मिल जात बा आप बताई दूई दू लड़की इकठे लड़का बाबू बतावा आपे सबकर पेट कैसे भर जाए कब्बो चाउर बा त दाल ना कब्बो सब्जी बा त मसाला तेल ना आखिर बाबू प्रदेश सरकार ह्म्हन से वोट त ले लेवे ला सरकार भी बना लेला ओकरे बाद पांच साल बाद फिर पुछेला वही खड़ा मगरू का एक साथी पप्पू यादव जो सठियाव क्षेत्र का रहने वाला है मगरू भाई हमउ बाबू से कुछ कहल चाट हई हमने उससे बोला बताओ
पप्पू यादव ने कहा कि साहब सपा के सरकार बा अखिलेश यादव अउर मुलायम यादव आके चीनी मिल फिर से चालु करने हमन्ने सोचनी चला इही में तिहाड़ी कए के अपने परिवार के पेट पालल जाई पर साहब उहो सर्वा उहा भी तिहाडी मजूर के रूप में काम न ह कब्बो – काम मिलत बा कब्बो ना अब बतावा बाबू हमन्ने का कइल जाए साहब इ सरकार चोर बा अहीरे के नाम पर हमन्न जेसन लोगन से वोट लियेहे ओकरे बाद बडकवा अहीरन के भला करिये ह्म्हं जैसन अदमी का कउन भला ह्म्हन जैसन क कउनो सरकार आवे कउनो भला न बा तभी उसी में से मगरू का एक साथी और चिल्लाया साहब हमरो सुन ला कुछ इन्द्रपत यादव ने कहा साहब कउनो तरीके से हम सब काम क जोगाड़ करके कुछ कमात भी हई टी बड़े साहब लोगन पांच सौ हजार थमा देत बाने साहब बतावल जाए ह्म्ह्ने कहा जाई साहब रोटी के अकाल पड़ गएल बा अउर मोदी जापान भाग गयेने हम सब मजूर भुखमरी के शिकार बनी साहब केहू हमन्ने के बारे में कुछ न सोचत बा हे भगवान कब तक ह्म्हने ऐसे लुटात रहब एकेर कउनो उपाय न बा
तभी उनमे से एक नौजवान ने कहा बा बस इन्कलाब कईले के जरूरत बा ---
तब मंगरू ने एक शेर पढ़ा कैफ़ी का --
'' कोई तो सूद चुकाए , कोई तो जिम्मा ले
उस इन्कलाब का , जो आज तक उधार सा है ''

Monday, October 31, 2016

लियो टालस्टाय ------ 31-10-16

लियो टालस्टाय




टालस्टाय ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं एक दिन जा रहा था एक राह के किनारे से , एक भिखमंगे ने हाथ फैला दिया | सुबह थी , अभी सूरज उगा था और टालस्टाय बड़ी प्रसन्न मुद्रा में था , इनकार न कर सका | अभी - अभी चर्च से प्रार्थना करके भी लौट रहा था , तो वह हाथ उसे परमात्मा का ही हाथ मालुम पडा | उसने अपने खीसे टटोले , कुछ भी नही था | दुसरे खीसे में देखा , वह भी कुछ नही था | वह जरा बेचैन होने लगा | उस भिखारी ने कहा कि नही बेचैन न हो : अपने देना चाहा , इतना ही क्या कम है ! टालस्टाय ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया | और टालस्टाय कहता है , मेरी आँखे आँसुओ से भर गयी | मैंने उसे कुछ भी न दिया , उसने मुझे इतना दे दिया | उसने कहा कि आप बेचैन न हो ! आपने टटोला , देना चाहा - इतना क्या कम है ? बहुत दे दिया !

न देकर भी देना हो सकता है | और कभी - कभी दे कर भी देना नही होता | अगर बेमन से दिया तो देना नही हो पाता | अगर मन से देना चाहा , न भी दे पाया , तो भी देना घाट जाता है --- ऐसा जीवन का रहस्य है |
बाटते चलो ! धीरे - धीरे तुम पाओगे , जैसे - जैसे तुम बाटने लगे ऊर्जा , वैसे - वैसे तुम्हारे भीतर से कही परमात्मा का सागर तुम्हे भरता जाता | नई - नई ऊर्जा आटी , नई तरंगे आती | और एक दफा यह तुम्हे गणित समझ में आ जाए ... यह जीवन का अर्थशास्त्र नही है . यह परमात्मा का अर्थशास्त्र है , यह बिलकुल अलग है | जीवन का अर्थशास्त्र तो यह है की जो है , अगर नही बचाया तो लुटे | इसको तो बचाना , नही तो भीख मागोगे !


कबीर ने कहा : दोनों हाथ उलीचिय ! उलीचते रहो तो नया आता रहेगा | बाटते रहो तो मिलता रहेगा | जो बचाया वह गया ; जो दिया वह बचा | जो तुमने बात दिया और दे दिया , वही तुम्हारा है अंतर के जगत में |

Saturday, October 29, 2016

गदर पार्टी --- पृष्ठभूमि

गदर पार्टी --- पृष्ठभूमि
आजादी या मौत
तीस जून सत्रह सौ सत्तावन – हिन्दुस्तान के इतिहास में एक काला दिन भागीरथी नदी के तट पर बसा एक गाँव | पलाश – आम्र – कुंजो से घिरा | कोलकाता से डेढ़ सौ किलोमीटर उत्तर में बंगाल राज्य की राजधानी मुर्शिदाबाद से पच्चीस किलोमीटर दूर | पलाश पुष्पों से सुगन्धित पलाशी या प्लासी | इस गाँव में जुटती है दो सेनाये – बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब सिराजुद्द्दौला की सेना , अपने पचास हजार सैनिको और फ्रांसीसी तोपों के साथ | दूसरी और ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में इक्कीस सौ भारतीय और साधे नौ सौ ब्रिटिश सैनिको और एक सौ पचास तोपों के साथ || इस एक दिन के युद्द में जिसमे वर्षा के कारण फ्रांसीसी टोपे भीगकर नाकाम हो गयी थी , विजय क्लाइव और उसकी सेना की होती है – केवल सात यूरोपियन और सोलह भारतीयों की मृत्यु तथा तरेह यूरोपियन और छत्तीस भारतीयों के आहत होने के बाद | वास्तव में यह विजय ईस्ट इंडिया कम्पनी की उतनी नही थी जितनी भारतीयों की पराजय थी --- अपनी नीतियों के कारण सिराजुद्द्दौला को उसकी सेना के पदोंवनत सेनापति मीरजाफर ने एन वक्त पर धोखा दिया | यह सोलह हजार सैनिको का नेतृत्त्व कर रहा था | अंग्रेजो के लालच दिए जाने के कारण वह युद्द से बाहर रहा | आफी और सैनिक भी लालच दिए जाने के कारण वह लोग भी युद्द सी बाहर रहे | साथ ही अन्य लोग यार लतीफ , जगत सेठ अमीरचंद महाराजा कृष्णनाथ रावदुर्लभ आदि अंग्रेजो के प्रलोभन से निष्क्रिय हो गये |
भारतीय सैनिको में राष्ट्रीयता जैसी कोई भावना तो थी नही | जो भी उन्हें खरीद सकता था , खरीद लेता वास्तविकता तो यह है कि इस युद्द में ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक पैसा भी खर्च न हुआ | साढ़े नौ सौ यूरोपियन सैनिको को छोड़कर सारा खून दोनों और से भारतीयों का बहा | इस प्रकार पारम्परिक इर्ष्या शत्रुता विद्देश और नितांत स्वार्थपरता के कारण भारतीयों ने अपने गले में गुलामी की जंजीरे डालने में अंग्रेजो का साथ दिया |
फिर उस साम्राज्य का विस्तार देने तथा उसके सुद्रढ़ रहने में भी भारतीय सैनिको ने अपना खून बहाया | एक दिन के इस युद्द ने भारत को दुर्भाग्य के द्वार पर खड़ा किया और पश्चिम को भाग्योदय के पथ पर |
इस युद्द ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत का एक समृद्द प्रदेश दे दिया , शासन करने को | बंगाल उस समय भारत का सबसे धनी प्रदेश था | क्षेत्रफल में भी बड़ा | तीन करोड़ की आबादी का प्रदेश , उन्नत उद्योग – धंधे फलता – फूलता व्यापार , राज्यकोष को भरपूर मुद्रा देने वाला | बंगाल पर आधिपत्य होने के बाद अंग्रेजो ने जितनी भी नीतिया अपनाई – कृषि , उद्योग व्यापार सम्बन्धी , वे सब अपना घर भरने के लिए बेशर्मी से की गयी लूट की , इंग्लैण्ड के लिए धन बटोरने की जन – विरोधी थी | स्वंय क्लाइव ने बंगाल के खजाने को जी भर कर लुटा | कम्पनी के कर्मचारियों और अधिकारियों में नैतिकता नाम की कोई चीज न थी | नीच से नीच काम करने में उन्हें कोई हिचक नही थी | वचन देकर तोड़ना उनके लिए गिरगिट के रंग बदलने जैसा था | मीरजाफर को उन्होंने वचन दिया था , नया नवाब बनाने का | बनाया तो मात्र कोई बहाना बनाकर हटाने के लिए | उसके माध्यम से लुट को वैध बनाना ही उनका ध्येय था |
विश्व के और विशेत: भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था , जब विजयी शासक की कोई निष्ठा विजित प्रजा के हित – साधन में नही थी | अब तक जितने भी शासक आये थे , वे भारत में भारतीय बनकर रहे | उन्होंने जो भी निर्माण किया इस देश में किया | प्रशासन में अधिकाँश अधिकारी भारतीय रहे | किन्तु ब्रिटिश लोगो में भारत में भारतवासी बनकर रहने की कोई इच्छा न थी , भारत उनके लिए व्यापार की एक मंदी था , अपना कैरियर बनाने का एक सुनहरा अवसर था | यहाँ वे कुछ ही समय में मालामाल होकर वापिस इंग्लैण्ड में जाकर एशो आराम की जिन्दगी बसर करने के लिए आते थे | भारत उनके जीवन का अस्थायी पडाव था | पहली बार भारत वास्तव में एक दुसरे देश का गुलाम बना | जहा उसके भाग्य का निर्णय उसकी धरती पर न होकर सात समन्दर पार ब्रिटेन की संसद में होता था | उन लोगो द्वारा जिनकी निष्ठा अपने देश को स्वंय को उन्नत करने में थी | भारत में की गयी लुट उसका साधन थी |
अंग्रेजो के आगमन से पूर्व भारत के गाँव अपने आप में एक स्वायत्त इकाई थे |
उनकी आर्थिक – सामाजिक – सांस्कृतिक सरचना पर शासको के बदलने का कोई विशेष प्रभाव नही होता था | वे केन्द्रीय शासन – परिवर्तन के प्रति उदासीन थे | उनका मूलमंत्र था , ‘’ को नृप होय हमे का हानि ‘ |
अंग्रेजी शासन ने उनकी वह तंद्रा तोड़ दी |
कम्पनी की अनेक नीतियों में जो दूरगामी परिणामो की जनक थी , शायद सबसे क्रूर नीति थी – व्यापार पर अपना सम्पूर्ण प्रभुत्व जमाना | कम्पनी ने अपने शासित प्रदेश में और शासित प्रदेश से किये जाने वाले व्यापार करने के लिए स्वंय को आयात – निर्यात शुल्क में पूर्णत: मुक्त कर लिया | साथ ही अनेक वस्तुओ के उत्पादकों को धमकी दी कि यदि वे कम्पनी के साथ व्यापार सम्बन्ध रखते है तो और किसी को अपनी उत्पादित वस्तु नही बेचेगे | अनेक बार कम्पनी की आवश्यकताओ से अधिक पैदा हुई वस्तु की फसल को खेतो में ही जला दिया जाता | करी – मूल्य का निर्धारण भी उसी के हाथ में था | बाहर से ( विशेषत: ब्रिटेन से ) आयातित वस्तुओ का विक्रय मूल्य भी वही तय करते | इस प्रकार व्यापार भी एक वृहद् लूट का साधन बन गया उस लुट से समर्थित ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप जब इंग्लैण्ड में मिल स्थापित होने लगा , तो बंगाल के वस्त्र उद्योग की भारी हानि हुई | बंगाल के कारीगरों द्वारा बुना गया कपड़ा विषभर में श्रेष्ठ माना जाता था | ब्रिटेन के घर – घर में उसकी खपत थी | मिलो को सहयोग देने का अर्थ था उस उन्नत गृह – उद्योग को योजनाबद्द तरीके से बर्बाद करना | वही हुआ भी | कम्पनी की नीति के कारण कुछ ही वर्षो में प्रदेश श्रेष्ठ वस्त्रो के निर्यात करने वाले प्रांत के स्थान पर कच्चे माल को पैदा करने वाला स्थान बनकर रह गया | कम्पनी का लाभ दुगना हो गया | कच्चा माल वह मनमानी कम कीमत पर खरीदती और ब्रिटेन में बुने मिल के कपड़ो को स्वंय निर्धारित मूल्य पर बेचती | भारतीय उद्योगों को किस प्रकार योज्नाब्द्द्द नष्ट किया गया गया इसका हृदय विदारक विवरण पंडित सुन्दरलाल की पुस्तक ‘ भारत में अंग्रेजी राज ‘ में विस्तार से दिया गया |
अगर व्यापार नीति भारत के लिए इतनी घातक थी , तो कृषि – नीति ने तो परम्परागत ग्रामीण समाज की कमर तोड़ दी | अंग्रेजो के आगमन से पहले राजाओं द्वारा जो कर के रूप में धन उगाहा जाता था , वह उपज का एक निश्चित अंश होता था | अकाल या पैदावार कम होने पर किसान पर आयकर का बोझ नही पड़ता था या कम हो जाता था | किन्तु 1793 में तत्कालीन गवर्नर जनरल कार्नवलिस ने स्थायी रूप से भूमिकर निश्चित कर दिया | खेती में हुई लाभ – हानि का उस कर की राशि से कोई सम्बन्ध न था | फसल की हानि से अंग्रेजो को कुछ लेना – देना न था | अगर कोई किसान कृषि कर देने में सक्षम नही होता , तो उसकी जमीन नीलाम कर दी जाती | प्राय: वह जमीन नगर में रहने वाले अमीर लोग खरीद लेते | इस प्रकार अनुपस्थित जमीदारो का एक नया वर्ग पैदा हो गया | अपने नियुक्त किये प्रतिनिधियों से वे उनके द्वारा खरीदी गयी जमीनों पर खेती करने वाले काश्तकारों से मन – मना लगान वसूल करवाते | कभी – कभी भूमि स्वामियों को लगान देने के लिए महाजनों से ऊँची व्याजो पर ऋण लेना पड़ता | इस प्रक्रिया में सूदखोरों की एक नयी जमात पैदा हो गयी | सूद इतना अधिक हो जाता कि अंत में किसानो को अपनी गिरवी रखी भूमि को छुडाना असम्भव हो जाता | इस प्रकार बहुत से किसान भूमिहीन श्रमिक हो गये – भयंकर शोषण के शिकार हो गये |
जो जमीन इस व्यवस्था में यूरोपियन गोरो के कब्जे में आ गयी उसको उन्होंने खाद्यान के स्थान पर जूट , नील कपास या चाय – काफी के विशाल बागो में बदल दिया | इससे उन्हें विपुल आर्थिक लाभ होने लगा | कमाया धन इंग्लैण्ड भेजा जाने लगा | आवश्यक खाध्यान्न की कमी होती गयी | खाद्यान्न की कमी होने का एक और कारन यह था कि फसल काटने पर गोर व्यापारी सस्ते दामो में उसे खरीदकर वर्मा आदि अन्य देशो में भेज देते और फिर जरूरत होने पर मंगाकर ऊँचे दामो में बेच देते | किसान को लगान देने के लिए बेचनी पड़ती | गोरो को खरीदने – बेचने में दुगना लाभ होता | इन नीतियों का दुष्परिणाम था लगभग हर दस वर्ष में एक बार अकाल पढ़ना | ब्रिटिश साम्राज्य का 1757 से आरम्भ हुआ विस्तार 1849 में अपनी पराकाष्ठा पर पहुचा , जब पंजाब पर गोरो का आधिपत्य हो गया |
उन्नीसवी शताब्दी के उतराद्ध में जबसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की पूर्ण स्थापना हुई भारत में साथ बार भयकर अकाल पडा | 1853 – 54 , 1865 – 66 1876 – 78 , 1888 – 89 , 1891 ,92, 1896 – 97 और 1899 – 1900 में | सबसे भयकर अकाल 1876 – 78 में पडा | बैस महीनों की अकाल की अवधि में साढ़े तीन लाख लोगो की मृत्यु हुई | मद्रास प्रेसिडेंसी में ही उसके जनपदों में साढे तीन लाख लोगो की मृत्यु हुई | अकालो की यह श्रृखला भारत के 1947 में स्वतंत्र होने के पांच वर्ष पूर्व तक रही , जब 1942 -43 में बंगाल के दुर्भिक्ष में 90 लाख लोगो की मौत हुई जबकि जमाखोरों के गोदामों में अनाज भरा पडा सड़ रहा था |
अगर एक और इन सब नीतियों के कारण भारत निरंतर दरिद्र हो रहा था | तो दूसरी और साम्राज्य विस्तार के लिए और उसको सुदृढ़ करने को सेना का विस्तार तेजी से किया जा रहा था | जिस सेना के बूते पर क्लाइव ने प्लासी का युद्द जीता था , उसमे 2100 भारतीय और 950 ब्रिटिश सैनिक थे | पर 1790 के दशक में आते – आते कार्नवलिस के समय में सेना में 13 .500 ब्रिटिश सैनिको को मिलाकर सत्तर हजार सिपाही हो गये थे | रुसी सेना के बाद उस समय यह विश्व की सबसे बड़ी सेना थी | 1826 में इसी सेना में सिपाहियों की संख्या दो लाख इक्यासी हजार हो गयी थी जिनमे दस हजार पांच सौ इकतालीस ब्रिटिश थे | 1857 में सैनिक विद्रोह के समय इसी सेना में तीन लाख ग्यारह हजार तीन सौ चौहत्तर सैनिक थे , जिनमे मात्र पैतालीस हजार पांच सौ बैस ब्रिटिश थे | 1914 में प्रथम महायुद्द के समय ब्रिटिश भारतीय सेना में तेरह लाख भारतीय सिपाही थे | उनमे से एक लाख चालीस हजार पश्चिमी मोर्चे में युद्दरत थे और सात लाख मध्यपूर्व में लड़ रहे थे | प्रथम महायुद्द में सैतालिस हजार सात सौ छियालीस भारतीयों ने अपनी जाने गंवाई और पैसठ हजार एक सौ छबीस भारतीय घायल हुए |
इसी प्रकार द्दितीय विश्वयुद्द में 25 लाख 80 हजार भारतीय सिपाहियों को झोक दिया गया जिसमे 87 हजार ने अपने प्राण गवाए और इससे अधिक घायल हुए और सबका भार वहन करती रही दींन – दुखी भारतीय जनमानस | और साम्राज्य की रक्षा में अपनी जान देने वाले इन भारतीयों में कोई अफसर नही होता था | उनका वेतन भी अंग्रेज सिपाहियों के अनुपात में बहुत कम होता था | इसी प्रकार भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ , जब असैन्य प्रशासन में भी कोई भारतीय ऊँचे पद पर नियुक्त नही हुई | किसी भी नीति को निर्धारित करने में भारतीयों की भागीदारी नही रही |
अकाल ही नही , प्लेग / महामारी . मलेरिया आदि रोगों भी भारत में प्रचुर मात्रा में होने लगे | 1907 में में प्लेग से ही हर सप्ताह साथ हजार लोग मर रहे थे | महामारी / प्लेग में उस वर्ष 20 लाख लोग मारे गये | 1901 – 11 के दशक में स्थिति इतनी खराब थी की पंजाब की आबादी बढने की जगह 2.2 प्रतिशत घाट गयी थी | एक अंग्रेजी लोक कथन में भारत की उस समय की अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया गया था –
Land of shit and filth and wogs
Gonorrea , syphilis , clap and pex
Memsahibs’ paradise, sodiers’ hell
India , for thee , fuking well
इस प्रकार भारतीय दुर्भाग्य , जो 1757 में प्लासी के युद्द से आरम्भ होकर 1849 में पंजाब के गोरो के शासन का भाग बनने पर स्थायित्व पा गया था , शेष ब्रिटिश शासन काल में गुलामी , गरीबी और शोषण का प्रतीक बन गया था | बेकारी युवको के जीवन का पर्याय बन गयी थी | यह अकारण नही था कि पंजाबी युवक सेना की सेवा की और आकर्षित हुए | 1857 के सैनिक विद्रोह को जो भातीय स्वतंत्रता के लिए किया गया प्रथम देशव्यापी युद्द था , ब्रिटिश साम्राज्य ने कुचला था तो उसमे सिख सैनिको का विशेष योगदान था | तभी से अपनी कूटनीति से इनको को मार्शल रेस कहकर अन्य वर्गो से उन्हें पृथक और विशिष्ठ बनाने की झूठी कोशिश की थी | ‘’ फुट डालो और राज करो ‘’ की कूटनीति का अंग था यह बढावा देना | इसी नीति का परिणाम था कि एक समय ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा में रत लाखो सैनिको में चालीस पैतालीस प्रतिशत पंजाबी / सिख थे | वे न केवल अंग्रेजी साम्राज्य के भारत में सुदृढ़ स्तम्भ थे वर्ण दक्षिण पूर्व एशिया के देशो में भी ब्रिटिश हितो की रक्षा में सहायक थे | देश से बाहर जाकर सिपाही के रूप में काम करना पंजाब की घुटन से निकलने जैसा था | अशिक्षित या अल्पशिक्षित युवको को वह बेहतर जीवन जीने का अवसर लगता था | उन्नीसवी शताब्दी के अंतिम दशक में 1897 में महारानी विक्टोरिया के शासन की हीरक जयंती मनाई गयी थी |उसमे भाग लेने के लिए कुछ पंजाबी / सिख सैनिको को भी चुना गया था | समारोह में भाग लेने के बाद उन सिपाहियों को ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य देश कनाडा की भी सैर कराई गयी थी | कनाडा का क्षेत्रफल भारत के क्षेत्रफल से बहुत बड़ा था और जनसंख्या अत्यंत कम | पंजाब के इन सैनिको को वहा की धरती , जहा खेती के लिए विशाल खेत उपलब्ध थे आकर्षक लगी | वहा साधारण श्रमिक का दैनिक वेतन भी भारत में मिलने वाले वेतन से कई गुना था | चूँकि कनाडा भी उस समय ब्रिटिश उपनिवेश था और भारतीय सैनिक भी ब्रिटिश साम्राज्य की सेना के अंग थे , उन सैनिको पर्यटकों को लगा की कनाडा में बसने का उन्हें पूरा अधिकार है | उसमे से कुछ्ह सैनिको ने सेवा – निवृत्ति के बाद कनाडा में जाकर अपने भाग्य आजमाने का निर्णय लिया | इन सैनको के अतिरिक्त यही समय था जब भारत से विवेकानन्द रामतीर्थ ने विश्व धर्म संसद में 1896 में व्याख्यान देकर तहलका मचा दिया था | इन धर्म गुरुओ ने अमेरिका की समृद्दी का जो गुणगान किया , उससे भी भारतीय युवक बहुत प्रभावित हुए | इन घटनाओं के परिणाम स्वरूप उन्नीसवी शताब्दी में अंतिम वर्षो में भारत से पंजाबी युवको का कनाडा – अमरीका गमन शुरू हुआ |       आभार --    लेखक ---- 
वेद प्रकाश "वटुक '

Wednesday, October 26, 2016

----- आजादी या मौत ------ 25-10-16

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----- आजादी या मौत ------
( गदर पार्टी का संक्षिप्त इतिहास )
तीस जून सत्रह सौ सत्तावन – हिन्दुस्तान के इतिहास में एक काला दिन भागीरथी नदी के तट पर बसा एक गाँव | पलाश – आम्र – कुंजो से घिरा | कोलकाता से डेढ़ सौ किलोमीटर उत्तर में बंगाल राज्य की राजधानी मुर्शिदाबाद से पच्चीस किलोमीटर दूर | पलाश पुष्पों से सुगन्धित पलाशी या प्लासी | इस गाँव में जुटती है दो सेनाये – बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब सिराजुद्द्दौला की सेना , अपने पचास हजार सैनिको और फ्रांसीसी तोपों के साथ | दूसरी और ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में इक्कीस सौ भारतीय और साधे नौ सौ ब्रिटिश सैनिको और एक सौ पचास तोपों के साथ || इस एक दिन के युद्द में जिसमे वर्षा के कारण फ्रांसीसी तोपे भीगकर नाकाम हो गयी थी , विजय क्लाइव और उसकी सेना की होती है – केवल सात यूरोपियन और सोलह भारतीयों की मृत्यु तथा तरेह यूरोपियन और छत्तीस भारतीयों के आहत होने के बाद | वास्तव में यह विजय ईस्ट इंडिया कम्पनी की उतनी नही थी जितनी भारतीयों की पराजय थी --- अपनी नीतियों के कारण सिराजुद्द्दौला को उसकी सेना के पदोंवनत सेनापति मीरजाफर ने एन वक्त पर धोखा दिया | यह सोलह हजार सैनिको का नेतृत्त्व कर रहा था | अंग्रेजो के लालच दिए जाने के कारण वह युद्द से बाहर रहा | आफी और सैनिक भी लालच दिए जाने के कारण वह लोग भी युद्द सी बाहर रहे | साथ ही अन्य लोग यार लतीफ , जगत सेठ अमीरचंद महाराजा कृष्णनाथ रावदुर्लभ आदि अंग्रेजो के प्रलोभन से निष्क्रिय हो गये |
भारतीय सैनिको में राष्ट्रीयता जैसी कोई भावना तो थी नही | जो भी उन्हें खरीद सकता था , खरीद लेता वास्तविकता तो यह है कि इस युद्द में ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक पैसा भी खर्च न हुआ | साधे नौ सौ यूरोपियन सैनिको को छोड़कर सारा खून दोनों और से भारतीयों का बहा | इस प्रकार पारम्परिक इर्ष्या शत्रुता विद्देश और नितांत स्वार्थपरता के कारण भारतीयों ने अपने गले में गुलामी की जंजीरे डालने में अंग्रेजो का साथ दिया |
फिर उस साम्राज्य का विस्तार देने तथा उसके सुद्रढ़ रहने में भी भारतीय सैनिको ने अपना खून बहाया | एक दिन के इस युद्द ने भारत को दुर्भाग्य के द्वार पर खड़ा किया और पश्चिम को भाग्योदय के पथ पर |
इस युद्द ने ईस्ट इंडिया क्प्म्नी को भारत का एक समृद्द प्रदेश दे दिया , शासन करने को | बंगाल उस समय भारत का सबसे धनी प्रदेश था | क्षेत्रफल में भी बड़ा | तीन करोड़ की आबादी का प्रदेश , उन्नत उद्योग – धंधे फलता – फूलता व्यापार , राज्यकोष को भरपूर मुद्रा देने वाला | बंगाल पर आधिपत्य होने के बाद अंग्रेजो ने जितनी भी नीतिया अपनाई – कृषि , उद्योग व्यापार सम्बन्धी , वे सब अपना घर भरने के लिए बेशर्मी से की गयी लूट की , इंग्लैण्ड के लिए धन बटोरने की जन – विरोधी थी | स्वंय क्लाइव ने बंगाल के खजाने को जी भर कर लुटा | कम्पनी के क्रमचारियो और अधिकारियों में नैतिकता नाम की कोई चीज न थी | नीच से ईच काम करने में उन्हें कोई हिचक नही थी | वचन देकर तोड़ना उनके लिए गिरगिट के रंग बदलने जैसा था | मीरजाफर को उन्होंने वचन दिया था , नया नवाब बनाने का | बनाया तो मात्र कोई बहाना बनाकर हटाने के लिए | उसके माध्यम से लुट को वैध बनाना ही उनका ध्येय था |
विश्व के और विशेत: भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था , जब विजयी शासक की कोई निष्ठा विजित प्रजा के हित – साधन में नही थी | अब तक जितने भी शासक आये थे , वे भारत में भारतीय बनकर रहे | उन्होंने जो भी निर्माण किया इस देश में किया | प्रशासन में अधिकाँश अधिकारी भारतीय रहे | किन्तु ब्रिटिश लोगो में भारत में भारतवासी बनकर रहने की कोई इच्छा न थी , भारत उनके लिए व्यापार की एक मंदी था , अपना कैरियर बनाने का एक सुनहरा अवसर था | यहाँ वे कुछ ही समय में मालामाल होकर वापिस इंग्लैण्ड में जाकर एशोआराम की जिन्दगी बसर करने के लिए आते थे | भारत उनके जीवन का अस्थायी पडाव था | पहली बार भारत वास्तव में एक दुसरे देश का गुलाम बना | जहा उसके भाग्य का निर्णय उसकी धरती पर न होकर सात समन्दर पार ब्रिटेन की संसद में होता था | उन लोगो द्वारा जिनकी निष्ठा अपने देश को स्वंय को उन्नत करने में थी | भारत में की गयी लुट उसका साधन थी |
अंग्रेजो के आगमन से पूर्व भारत के गाँव अपने आप में एक स्वायत्त इकाई थे |
उनकी आर्थिक – सामाजिक – सांस्कृतिक सरचना पर शासको के बदलने का कोई विशेष प्रभाव नही होता था | वे केन्द्रीय शासन – परिवर्तन के प्रति उदासीन थे | उनका मूलमंत्र था , ‘’ को नृप होय हमे का हानि ‘ |
अंग्रेजी शासन ने उनकी वह तंद्रा तोड़ दी |
कम्पनी की अनेक नीतियों में जो दूरगामी परिणामो की जंक थी , शायद सबसे क्रूर नीति थी – व्यापार पर अपना सम्पूर्ण प्रभुत्व जमाना | कम्पनी ने अपने शासित प्रदेश में और शासित प्रदेश से किये जाने वाले व्यापार करने के लिए स्वंय को आयात – निर्यात शुल्क में पूर्णत: मुक्त कर लिया | साथ ही अनेक वस्तुओ के उत्पादकों को धमकी दी कि यदि वे कम्पनी के साथ व्यापार सम्बन्ध रखते है तो और किसी को अपनी उत्पादित वस्तु नही बेचेगे | अनेक बार कम्पनी की आवश्यकताओ से अधिक पैदा हुई वस्तु की फसल को खेतो में ही जला दिया जाता | करी – मूल्य का निर्धारण भी उसी के हाथ में था | बाहर से ( विशेषत: ब्रिटेन से ) आयातित वस्तुओ का विक्रय मूल्य भी वही तय करते | इस प्रकार व्यापार भी एक वृहद् लुट का साधन बन गया उस लुट से समर्थित ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप जब इंग्लैण्ड में मिल स्थापित होने लगा , तो बंगाल के वस्त्र उद्योग की भारी हानि हुई | बंगाल के कारीगरों द्वारा बुना गया कपड़ा विषभर में श्रेष्ठ माना जाता था | ब्रिटेन के घर – घर में उसकी खपत थी | मिलो को सहयोग देने का अर्थ था उस उन्नत गृह – उद्योग को योजनाबद्द तरीके से बर्बाद करना | वही हुआ भी | कम्पनी की नीति के कारण कुछ ही वर्षो में प्रदेश श्रेष्ठ वस्त्रो के निर्यात करने वाले प्रांत के स्थान पर कच्चे माल को पैदा करने वाला स्थान बनकर रह गया | कम्पनी का लाभ दुगना हो गया | कच्चा माल वह मनमानी कम कीमत पर खरीदती और ब्रिटेन में बुने मिल के कपड़ो को स्वंय निर्धारित मूल्य पर बेचती | भारतीय उद्योगों को किस प्रकार योज्नाब्द्द्द नष्ट किया गया गया इसका हृदय विदारक विवरण पंडित सुन्दरलाल की पुस्तक ‘ भारत में अंग्रेजी राज ‘ में विस्तार से दिया गया है |
क्रमश: साभार आजादी या मौत ( गदर पार्टी का संक्षिप्त इतिहास )
लेखक --- वेद प्रकाश ‘’बटुक ‘’

Tuesday, October 25, 2016

छोटी बहन अजना सक्सेना से वार्ता - 25-10-16

छोटी बहन अजना सक्सेना से वार्ता -
अंजना कबीर सुर साधिका है कबीर को लगातार पढ़ रही है समझ रही है , मैंने उनसे पूछा ' प्रकृति के साथ सवाद की सम्भावनाये उन्होंने उत्तर दिया मानव और प्रकृति का सम्बन्ध सनातन समय से रहा है | प्रकृति ने मानव जीवन को बेहतरी की दिशा में ले जाने में हमेशा मदद की ... मानव ने भी हर कदम पर इससे तालमेल बैठाते हुए जीवन को सुमधुर बनाया .... हमने अपने को इसका हिस्सा माना और समय - समय पर इससे स्वाद साधा .. आज विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करने लगा है की प्रकृति और इंसान में स्वाद सम्भव है |
''कृ ति' का अर्थ होता है --- रचना , निर्माण |
इस शब्द के पहले 'प्र' उपसर्ग लगा देने से यह शब्द बन जाता है --- 'प्रकृति ' |
'प्र' उपसर्ग का अर्थ होता है -- प्रथम , पहले | इस प्रकार प्र+कृति = प्रकृति का अर्थ हुआ -- वह , जो कृति से भी पहले थी |
'कृति ' यानी कि यह सम्पूर्ण संसार और प्रकृति यानी कि वह , जो इससे भी पहले था | बारीकी के साथ देखने और सोचने पर लगता है कियह प्रकृति ही '' स्वंयभू '' है , जो स्वंय जन्मी है | और फिर इसने क्रमश: इस संसार को बनाया है | प्रकृति को किसी ने भी नही बनाया है | वह तो बनी हुई ही थी | बाद में उसने इस जग को बनाया है | यदि आप इस बात से सहमत है , तो आपको इससे सहमत होने में कोई परेशानी नही होगी कि हमे भी प्रकृति ने ही बनाया है , जैसा कि भारतीय दर्शन में निहित है '' पृथ्वी मेरी माता है , और मैं इसका पुत्र हूँ |
इस प्रकार प्रकृति और मनुष्य के बीच सीधे - सीधे एक जैविक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है |

Wednesday, September 28, 2016

भारतीय शिक्षा की वास्तविक समस्याए 28-9-16

भारतीय शिक्षा की वास्तविक समस्याए
इन दिनों शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की बाते काफी जोरो से की जा रही है | इस बात की जरूरत भी लम्बे समय से महसूस की जा रही थी | सुधार की इन बातो के दो सिरे है --- पहला सिरा शिक्षा के इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के बारे में है और दूसरा विचारधारात्म्क | इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की ज्यादातर बाते ऑनलाइन और सुचना क्रान्ति से जुडी सुविधाओं को स्कूलों को मुहैया कराने तक सीमित है | दूसरा गंभीर पहलु विचारधारात्मक है | इसका सम्बन्ध पाठ्यक्रमो के नवीनीकरण , परिवर्तन आदि से है |
यहनवीनीकरण या परिवर्तन मोटे तौर पर राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के विचारधारात्मक लक्ष्यों से सम्बन्धित है |
अब देखते है कि भारतीय शिक्षा की मूल समस्याए क्या है ---
1 --- भारतीय शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह दो हिस्सों में बटी है | गरीबो के लिए शिक्षा और अमीरों के लिए शिक्षा | इसके अनुसार ही स्कूलों की सारी व्यवस्था , शिक्षा का माध्यम आदि सभी बातो का निर्धारण होता है |
2 - शिक्षा का अल्पमत सरकारी बजट , जिसका अधिकाश हिस्सा शिक्षा पर खर्च न होकर बहुत तरह के निहित स्वार्थो की सेवा में खर्च होता है |
3 - उच्च शिक्षा की सारी व्यवस्था अमीर तबके के लिए है , जिसे अंतिम रूप से सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजी माध्यम के रूप में अप्रश्नेय इस्तेमाल है | यह प्रत्यक्ष तौर पर एक वर्ग की शिक्षा पर और शिक्षा के जरिये उच्चस्तरीय नौकरियों पर सम्पूर्ण और अभेद्य आरक्षण है | इस लक्ष्य के लिए एक विदेशी और औपनिवेशिक भाषा का दुरपयोग है | जिसका परिणाम राष्ट्रव्यापी हीनभावना का संचार है , प्रतिभा का हनन है और शिक्षा का सम्पूर्ण और एकमात्र लक्ष्य अर्थव्यवस्था और सुविधाओं में एक बहुत छोटे से वर्ग का एकाधिकार है |
4 - सुचना क्रांति का इस्तेमाल देशी हितो के लिए न होकर वैश्विक रूप से ताकतवर देशो के लिए इस प्रकार किया जा रहा है ताकि शिक्षा के जरिये अन्य देशो को अर्धशिक्षित वर्कपावर उनकी जरूरत के मुताबिक़ उपलब्ध हो सके |
5 - आधुनिक भारत ने राजा राममोहन राय से लेकर महात्मा गांधी तक विचारों की दो सौ साल लम्बी जद्दोजहद के बाद स्वरूप लेना आरम्भ किया था | स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ये मूल्य सशक्त हुए और उन सामाजिक मूल्यों में बदले जिन पर हमारी शिक्षा का ढाचा खड़ा होना था | इन मूल्यों को हमारी शिक्षा - प्रणाली उसके पाठ्यक्रम गुजरे वर्षो में सशक्त और प्रभावी ढंग से लागू करने में विफल रहे है और अब तो इन मूल्यों को अनावश्यक करार दिए जाने की योजनाबद्द कोशिश की जा रही है |
6 - भारत एक बहुसांस्कृतिक देश है | यह बहुलता , क्षेत्रीय भी है और सांस्कृतिक भी है | हमारी शिक्षा में उत्तर भारत की धार्मिक संस्कृतिक से इतर परम्पराओं की शिनाख्त भी नही है |
7 - शिक्षा के य्द्देश्य के रूप में लगातार आजीविका पर गैरजरूरी बल दिया जा रहा है , इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा से मूल्य और मनुष्यता का विलोप हुआ है , जबकि यह बहुत बड़ा सच है की शिक्षा का रोजगार से वैसा प्रत्यक्ष सम्बन्ध हो ही नही सकता , कयोकी जब अर्थव्यवस्था रोजगार न उत्पन्न कर सके तो आजीविका के लिए शिक्षित होने मात्र से रोजगार कैसे मिल जाएगा ? यानी यह मामला ऐसा है की समस्या की जड़ कही है , इलाज कही किया जा रहा है |
ये कुछ मुख्य बिंदु थे | संक्षेप में भारत को आधुनिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण बहुलतावादी संस्कृति , 19 वी सदी के भारतीय पुनर्जागरण और स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों पर आधारित शिक्षा - व्यवस्था , शिक्षा के इन्फ्रास्टक्चर पाठ्यक्रमो की आवश्यका है , जो देश के करोड़ो बच्चो युवाओं को शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल कर सके | यह शिक्षा वर्ग - भेद को खत्म करने का माध्यम बने , न कि उसे और सुदृढ़ करने और संरक्षित करने का उपकरण मात्र बनकर रह जाए , जैसी कि वह आज है | यह शिक्षा बच्चे के मष्तिष्क को धार्मिक , जातीय क्षेत्रीय , सामजिक पूर्वाग्रहों से मुक्त करे और उसके अस्तित्व को बेहतर ढंग से निर्मित करे | शिक्षा राष्ट्रवाद की राजनीति की प्रयोगशाला न बने , बल्कि ऐसी हो जिसके भीतर से यह राष्ट्र अपनी भावी पीढी के रूप में भाषा और सामाजिक स्तर की हीन भावना से मुक्त हो सके |
अहा ! जिन्दगी ---- सम्पादक आलोक श्रीवास्तव

Monday, September 26, 2016

भारतीय नारी दशा और दिशा 27- 9 - 19

​सिंह की तरह गर्जना है --
स्वरागिनी जन विकास समिति द्वारा सेवा सदन में दिनाक 10 सितम्बर दिन शनिवार को सेवा सदन में भारतीय नारी दशा और दिशा पर राष्ट्रीय संगोष्टी आयोजित की गयी |
स्वरागिनी संगीत संस्था व स्वरागिनी जन विकास समिति के अध्यक्षा श्रीमती अंजना सक्सेना ने कहा कि हमारा देश विविधताओ में एक है देश में अराजकता बढती जा रही है आज समाज किस दिशा की और मुड रहा है समाज में रहने वालो को खुद ही पता नही ऐसे में कबीर साहब प्रासंगिक हो जाते है और हम व हमारे साथियो ने अपनी संस्था के माध्यम से जनचेतना लाने के लिए स्लम एरिया के साथ गाँव - गिरांव में - - शिक्षा स्वास्थ्य , सूफी संगीत संगीत के साथ ही हमारे भविष्य के लिए हमारे क्रांतिवीरो ने अपने वर्तमान की चिंता किये बिना अपना वर्तमान हमारे लिए आहूत कर दी थी यही स्वरागिनी सामाजिक जन विकास समिति का मुख्य उद्देश्य है कि हम इन सारे विषयों पर जनजागरण करे | स्वागत के क्रम में संस्था के संरक्षक श्री सचिन सक्सेना ने कहा कि आज वर्तमान में देश अस्त - व्यस्त है धर्मांध का जोर है ऐसे में जो संवेदी प्रबुद्द जन है उन्हें समाज के इन विषमताओ के खिलाफ सामने आना चाहिए इस समस्याओं पर हमारी संस्था ने एक छोटी सी पहल कि है हम आप उपस्थित जनों से आशीर्वाद कि आशा रखते है
संगोष्टी का आरम्भ बनारस से आये अवाम का सिनेमा के प्रवक्ता व नेशनल लोकरंग एकेडमी उत्तर प्रदेश के महासचिव कबीर द्वारा विषय प्रवर्तन करते हुए उन्होंने कहा कि मैं भारतीय नारी हूँ -- भारतीय नारी मेरी कहानी अभिशप्त कि है , इस कहानी के प्रसार पर वेदना का विस्तार है , रक्त का रंग उस पर चढा है दुर्भाग्य के कीचड़ में वह सनी है | मैं नारी हूँ |
पितृसत्ताक - युग से पूर्व मातृसत्ताक युग कि भारतीय नारी , जिसने वनों का शासन किया , जनों का निग्रह | तब मैं नितांत नग्नावस्था में गिरी शिखरों पर कुलाँच भर्ती थी गुफा - कंदराओ में शयन करती थी वन - वृक्षों को आपाद मस्तक नाप लेती थी तीव्र्गतिका नदियों का अवगाहन करती थी शक्ति परिचायक मेरे अंगो में तब स्फूर्ति थी | शशक कि गति का मैं मैं परिहास , मृग कि कुलाच का तिरस्कार | सूअर को मैं अपने पत्थर के भाले पर तौल लेती थी और सिंह कि लटो से मैं बच्चो के झूले बांधती थी |सिंघ्वाहिनी थी तब मैं काल्पनिक दुर्गा नही प्रयोग सिद्द चण्डी थी मैं | व् गोष्ठी के क्रम को आगे बढाते हुए प्रो लक्ष्मण शिंदे ने कहा कि आज वर्तमान में नारी शकतीशाली हुई है पर आज भी नारी का तिरस्कार जारी है उन्होंने कहा कि आज जरूरत है कि नारी स्वंय पहल करे आज नारी पुरुषो से कन्धा मिलाकर काम कर रही है |
गोष्ठी कि विशिष्ठ वक्ता सामाजिक कार्यकत्री सुश्री पुष्पा सिन्हा ने इस विषय पर बोलते हुए कहा कि आज कि
औरतो ने विकास किया है पर आज भी भारत कि महिलाए आधे से ज्यादा आबादी में उनकी जिन्दगी कि कथा त्रासदी की है इसके साथ ही उन्होंने कही कि ऐसा नही है कि सिर्फ आम आदमी कि नारिया पीड़ित है जो समाज के उच्च तबका है उनके यहाँ कि नारीअपने पर होने वाले अत्याचारों को व्यक्त नही कर पाती है न ही वो अपने आसुओ को निकाल नही पाती है इनसे अच्छा तोआम आदमी की औरते है जो कम से कम खुलकर रो लेती है | पुष्पा दीदी ने कहा कि आज भी गाँव - गिरांव में नब्बे प्रतिशत औरते ही काम करती है और उनके पति दिन भर ताश खेलते रहते वही बाई काम से लौटकर फिर अपने घर का काम समेटती है और इसके बाद भी पुरुष प्रताड़ित करता है | औरत कि सारी कमाई मर्द के जेब में चला जाता है इसके साथ ही पुष्पा दीदी ने आगे कहा कि ऐसा नही कि यह नीचले तबके में ही है यह समाज के हर तबके में स्त्री प्रताड़ित है हां प्रताड़ना का स्वरूप अलग होता है और इन सब बातो के लिए नारी स्वय जिम्मेवार है |भारतीय नारी को अपने स्वंय के मनोबल को दृढ करना होगा यह सोचना होगा कि सामने वाला कुछ नही कर सकता अगर हमारा संकल्प मजबूत है हमारी आँखों में '' संघर्ष सामने है सही पर जोर लगाकर बंधन तोड़ दूंगी | आगे कि मंजिल सर करुँगी जिन्होंने लाल सूरज को छिपाकर रखा है || गुरुग्राम, संगोष्ठी कि अध्यक्षता करते हुए हरियाणा से पधारे स्वनामधन्य श्री श्याम "स्नेही" जी ने सेमीनार के केंद्र बिंदु "भारतीय नारी की दशा-दिशा" के संदर्भ में बोलते हुए जहाँ एक ओर पुरुष प्रताड़ित महिला की शब्दों में समुचित व्याख्या की श्रोता स्वत: उस बहती गंगा में अवगाहन करने लगे।वहीं दूसरी ओर महिला के कर्तव्य और अधिकार के साथ सनातन संस्कृति के रक्षिका के रुप में भी चिन्हित किया। देश और मानवता की जन्मदात्री जननी बताया वहीं, अवांछित और अराजक तत्वों के हाथों तब्दील होते समाज विरोधी ताकतों से अवगत कराया। जिसमें बोतल पर पलते बच्चों के अन्धकार पूर्ण भविष्य की ओर इशारा किया। कबीर को उद्धृत करते हुए राष्ट्र एकता के निमित्त कालोचित प्रासंगिक बताया, वहीं उनके अन्तरभावों को प्रचार-प्रसार करने पर बल दिया। गुरुग्राम, हरियाणा से पधारे स्वनामधन्य श्री श्याम "स्नेही" जी ने सेमीनार के केंद्र बिंदु "भारतीय नारी की दशा-दिशा" के संदर्भ में बोलते हुए जहाँ एक ओर पुरुष प्रताड़ित महिला की शब्दों में समुचित व्याख्या की श्रोता स्वत: उस बहती गंगा में अवगाहन करने लगे।वहीं दूसरी ओर महिला के कर्तव्य और अधिकार के साथ सनातन संस्कृति के रक्षिका के रुप में भी चिन्हित किया। देश और मानवता की जन्मदात्री जननी बताया वहीं, अवांछित और अराजक तत्वों के हाथों तब्दील होते समाज विरोधी ताकतों से अवगत कराया। जिसमें बोतल पर पलते बच्चों के अन्धकार पूर्ण भविष्य की ओर इशारा किया। कबीर को उद्धृत करते हुए राष्ट्र एकता के निमित्त कालोचित प्रासंगिक बताया, वहीं उनके अन्तरभावों को प्रचार-प्रसार करने पर बल दिया। स्वरागिनी संगीत संस्था व स्वरागिनी जन विकास समिति के अध्यक्षा श्रीमती अंजना सक्सेना ने कहा कि आह्मारा देश विविधताओ में एक है देश में अराजकता बढ़ी हुयी है आज समाज किस दिशा कि और मुद रहा है समाज में रहने वालो को खुद ही पता नही ऐसे में कबीर साहब पार्स्न्गिक हो जाते है और हम व हमारे साथियो ने अपनी संता के माध्यम से जनचेतना लाने के लिए स्लम एरिया के साथ गाँव - गिरांव में \शिक्षा स्वास्थ्य , सुफु स्नागीत संगीत के साथ ही हमारे भविष्य के लिए हमारे कारनिवीरो ने अपने भविष्य कि चिंता किये बिना अपना वर्तमान हमारे लिए आहूत कर दी थी यही स्वरागिनी सामाजिक जन विकास समिति का मुख्य उद्देश्य है |इस गोष्ठी में श्रीमती सीमा मोटे , श्रीमती निर्मला सिंह .,श्री हरे राम वाजपेयी श्री नयन राठी श्रीमती सुभद्रा खापर्डे डा सुरेश पटेल शुशीला सेन ओमप्रकाश सोमानी समाजसेवी व साहित्यकारों का अंगवस्त्रम द्वारा उनका अभिनन्दन किया गया कार्यक्रम की शुरुआत स्वरागिनी संगीत संस्था के उदिता आशय कशिश , कुशल , ईशान उदित द्वारा कबीर के दोहे से किया गया उसके बाद श्रीमती अलका कपूर द्वारा कबीर भजन गया गया | धन्यवाद ज्ञापन कबीर गायक डा दशरथ यादव जी ने किया इस कार्यक्रम में उपस्थित लोगो में श्री सचिन सक्सेना . नरेंद्र बागौरा . ओम विजय वर्गीय , संजय श्रीवास्तव , महेश यादव श्रीमती अर्चना वर्गीय , श्रीमती अमिता , मीरा राजदान , श्रीमती रेखा यादव श्रीमती हंजा बाई श्री तेजू लाल यादव आदि लोग उपस्थित रहे |

Thursday, August 25, 2016

मुरदन के साथे व्यापार – मगरुवा ---- 25-8-16

अपना शहर मगरुवा –

कल घूमते घूमते राजघाट पहुच गया और चुपचाप एकांत में बैठकर वहा का तमाशा देखने लगा , बहुत से लोग उस दिन आये थे दुनिया से आखरी विदाई लेने अलग अलग परिवारों से उनकी बाते भी बड़ी अजीब लगी |
एक मुर्दा फूंकने आया युवक बोला सरवा जियत रहे त गांड में पैना कइले रहे सारा मरले के बाद भी छ: घंटा लेई जरे में
वही दूसरी तरफ दुसरे मुर्दे के साथ आये घर के लोग उसके बेटे को समझा रहे थे अब त काटा निकल गएल ना अब जल्दी से जल्दी कागज पे आपन नाम चढा ला अउर जमीनिया फलाने के बेचके खूब पइसा बना ला फिर दुकान कर ला –
वही एक तीसरी लाश रखी थी उस लाश के साथ मात्र पांच लोग थे | यह था देश का आम आदमी शायद घर परिवार के रहे होंगे वो आपस में बतिया रहे थे इहा ले त आ गयनी अब लाश कैसे फूक्ल जाई इसी उधेड़ बुन में उलझा था उस परिवार के लोग , तभी मगरुवा बोल पडा राजघाट के मलकिन से कहा उ कउनो प्रबंध कर दीहें , उन लोगो ने उससे जाकर बात किया उसने प्रबंध करा दिया उस आदमी को भी चिता नसीब हो गयी | मगरू मन ही मन सोचने लगा जब वो अपने चाचा को मणिकर्णिका ले गया था वहा उसे देखा और सूना यहाँ अंतिम संस्कार में भी हर जगह कमीशन तय है जिस टिकटि पर आदमी अंतिम यात्रा करता है वह से लेकर अंतिम क्रिया तक में कमिशन ही कमिशन है लाश जलाने वाले को पाँच रुपया टिकटी के बाँस दस रुपया जरले के बाद बचल लकड़ी के बोटा के डोम के घर लेगयेले के पन्द्रह रुपया और जउन पंडित आवे ने उ दुकानदार से पांच रुपया कमिशन लेवेला | गजब होग्येल दुनिया जहा मरले के बाद भी अदमी बेचल जात बा |
अब सूना आजमगढ़ में राजघाट के कहानी इहा के डॉम के पास दुई गो लक्जरियस चार चक्का बा दुई गो एम्बुलेंस है यार सोचन तू बतावा इतना पैसा त एकरे ह और आम आदमी के पास उहके फुक्ले के पैसा ना बा का यही खातिर भगत सिंह , अशफाक उल्ला , चन्द्रशेखर राजगुरु क्रांतिवीर शहादत देहले रहने |

मुरदन के साथे व्यापार – मगरुवा

Saturday, August 20, 2016

भूमि - अधिग्रहण कानून के संशोधन में आखिर अडचन कंहा हैं ? 20-8-16

भूमि - अधिग्रहण कानून के संशोधन में आखिर अडचन कंहा हैं ?
अधिग्रहीत जमीनों का मालिकाना ले रही कम्पनियों के मुँह से ही उनकी अडचन सुन लीजिए
कृषि भूमि अधिग्रहण को लेकर उठते विवादों ,संघर्षो का एक प्रमुख कारण ,मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून में बताया जाता रहा है |इस कानून को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा 1894 में बनाया व लागू किया गया था| भूमि अधिग्रहण के झगड़ो -विवादों को हल करने के लिए इसी कानून को सुधार कर नया कानून बनाने की बात की जा रही है| इस सन्दर्भ में पहली बात तो यह है कि 1894 के कानून में सुधार का कई वर्षो से शोर मच रहा है ,इसके बावजूद सुधार नही हो पा रहा है तो क्यों ? आखिर अडचन कंहा हैं ? 2007 से ही इस कानून को सुधारने ,बदलने का मसौदा बनता रहा है| उसके बारे में चर्चाये भी होती रही है|
उदाहरण स्वरूप .............................

इस सुधार की यह चर्चा आती रही हैं कि, सेज ,टाउनशिप आदि के लिए आवश्यक जमीनों के 70 % से लेकर 90 % तक के हिस्सों को कम्पनियों को किसानो से सीधे खरीद लेना चाहिए| उसमे सरकार भूमिका नही निभायेगी| बाकी 30 % या 10 % को सरकार अधिग्रहण के जरिये उन्हें मुहैया करा देगी| हालांकि अरबपति-खरबपति कम्पनियों को ,किसानो की जमीन खरीदकर उसका मालिकाना अधिकार लेना या पाना कंही से उचित नही हैं| क्योंकि कृषि भूमि का मामला किसानो व अन्य ग्रामवासियों की जीविका से जीवन से जुड़ा मामला है राष्ट्र की खाद्यान्न सुरक्षा से जुदा मामला हैं |इस सन्दर्भ में यह दिलचस्प बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि सरकारों ने हरिजनों कि जमीन को बड़ी व मध्यम जातियों द्वारा खरीदने पर रोक लगाई हुई हैं| वह भी इस लिए कि बड़ी जातिया उन्हें खरीद कर हरिजनों को पुन: साधनहीन बना देंगी| जो बात हरिजनों के अधिकार क़ी सुरक्षा के रूप में सरकार स्वयं कहती हैं ,उसे वह सभी किसानो क़ी जीविका क़ी सुरक्षा के रूप में कैसे नकार सकती है ? उसे खरीदने क़ी छूट विशालकाय कम्पनियों को कैसे दे सकती हैं ? दूसरी बात जब सरकार ने ऐसे सुधार का मन बना लिया था तो ,उसमे अडचन कंहा से आ गयी ? क्या उसमे किसानो ने या राजनितिक पार्टियों ने अडचन डाल दी ? नही| उसमे प्रमुख अडचन अधिग्रहण के लिए लालायित कम्पनियों ने डाली है |इसकी पुष्टि आप उन्ही के ब्यान से कर लीजिये |18 मई के दैनिक जागरण में देश के सबसे बड़े उद्योगों के संगठन सी0 आई0 आई0 ने कहा कि" कारपोरेट जगत अपने बूते भूमि अधिग्रहण नही कर सकता | यह उन पर अतिरिक्त दबाव डाल देगा |... कम्पनियों द्वारा 90 % अधिग्रहण न हो पाने पर पूरी योजना पर सवालिया निशान लग जाएगा |इससे न सिर्फ औधोगिक कारण ही बल्कि आर्थिक विकास दरप्रभावित होगा | सुन लीजिये ! ए वही कारपोरेट घराने है ,जो सार्वजनिक कार्यो के प्रति ,खेती -किसानी के प्रति ,सरकारी शिक्षा ,सिचाई के इंतजाम के प्रति ,सरकारी चिकित्सा आदि के प्रति सरकार कि भूमिकाओं को काटने ,घटाने कि हिदायत देते रहे है और सरकार उन्हें मानती भी रही है |जनसाधारण के हितो के लिए आवश्यक कामो से अपना हाथ भी खिचती रही है |लेकिन अब वही कारपोरेट घराने स्वयं आगे बढ़ कर जमीन का सौदा करने को भी तौयार नही है |वे चाहते है कि सरकार अपने शासकीय व कानूनी अधिकार से किसानो को दबाकर जमीन अधिग्रहण कर दे ताकि वह उसे कम से कम रेट पर प्राप्त कर उसका स्वछ्न्दता पूर्वक उपयोग , उपभोग करे |सरकारे और राजनितिक पार्टिया ,राष्ट्र के आर्थिक विकास के नाम पर कारपोरेट घराने के इस व एनी सुझाव को आडा- तिरछा करके मान भी लेंगे |कानून में सुधार भी हो जाएगा और कम्पनी हित में अधिग्रहण चलता भी रहेगा |
कयोंकि यह मामला कानून का है ही नही |बल्कि उन नीतियों सुधारों का है ,जिसके अंतर्गत पुराने भूमि अधिग्रहण के कानून को हटाकर या संशोधित कर नया कानून लागू किया जाना है |सभी जानते है की पिछले २० सालो से लागू की जा रही उदारीकरण विश्विक्र्ण तथा निजीकरण नीतियों सुधारों के तहत देश दुनिया की धनाड्य औधिगिक वणिज्य एवं वित्तीय कम्पनियों को खुली छुट दी जा रही है |
इन नीतियों ,सुधारों के अंतर्गत देश की केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारे देश -प्रदेश के संसाधनों को , सावर्जनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को इन विशालकाय कम्पनियों को सौपती जा रही है |कृषि भूमि का भी अधिकाधिक अधिग्रहण कर वे उसे कम्पनियों को सेज टाउनशिप आदि के निर्माण के नाम पर सौपती आ रही हैं | उन्ही के हिदायतों सुझाव के अनुसार 6 से 8 लेन की सडको के निर्माण के लिए भी सरकारे भूमि का अधिग्रहण बढाती जा रही है | यह सब राष्ट्र के आधुनिक एवं तीव्र विकास के नाम पर किया जा रहा है | सरकारों द्वारा भूमि अधिग्रहण पहले भी किया जाता रहा है |पर वह अंधाधुंध अधिग्रहण से भिन्न था | वह मुख्यत: सावर्जनिक उद्देश्यों कार्यो के लिए किया जाने वाला अधिग्रहण था |जबकि वर्मान दौर का अधिग्रहण धनाड्य कम्पनियों , डेवलपरो , बिल्डरों आदि के निजी लाभ की आवश्यकताओ के अनुसार किया जा रहा है |उसके लिए गावो को ग्रामवासियों को उजाड़ा जा रहा है |कृषि उत्पादन के क्षेत्र को तेज़ी से घटाया जा रहा है |थोड़े से धनाड्य हिस्से के निजी स्वार्थ के लिए व्यापक ग्रामवासियों की , किसानो का तथा अधिकाधिक खाद्यान्न उत्पादन की सार्वजनिक हित की उपेक्षा की जा रही है |उसे काटा घटाया जा रहा है| कोई समझ सकता है की , निजी वादी , वैश्वीकरण नीतियों सुधारो को लागू करते हुए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया रुकने या कम होने वाली नही है |इसलिए कानूनों में सुधारों बदलाव का हो हल्ला मचाकर किसानो ग्रामवासियों और अन्य जनसाधरण लोगो को फंसाया व भरमाया जा सकता है , पर उनकी भूमि का अधिग्रहण रुकने वाला नही है| अत: अब निजी हितो स्वार्थो में किये जा रहे कृषि भूमि अधिग्रहण के विरोध के साथ -साथ देश में लागू होते रहे , वैश्वीकरण नीतियों ,सुधारों के विरोध में किसानो एवं अन्य ग्राम वासियों को ही खड़ा हो ना होगा| इसके लिए उनको संगठित रूप में आना होगा |
सुनील दत्ता

Monday, August 15, 2016

नकली आजादी ;सत्ता शक्ति का हस्तान्तरण 15 - 8 2016


नकली आजादी ;सत्ता शक्ति का हस्तान्तरण

भारत की स्वतंत्रता कैसी?
विषय पर शिब्ली पी जी कालेज आजमगढ़ में भारत की स्वतंत्रता कैसी ? विषय पर विचार गोष्ठी हुई
अध्यक्षी सम्बोधन में सवाल उठा अगर हम इन बातो पे गौर करे तो हम स्वंय ही समझ सकते है आजादी है या नही ?
पहले तो हमे कुछ बातो को जानना जरूरी है |
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में ए. ओ ह्यूम ने कहा था , चूँकि जयकारा लगाने का काम मुझे सौपा गया है , इसलिए मैं सोचता हूँ कि , देर आये दुरुस्त आये के सिद्दांत को मानते हुए हम सभी तीन बार ही नही , तीन गुना अर्थात , नौ बार और हो सके तो नौ गुना तीन अर्थात सत्ताईस बार उस महान विभूति की जय बोले , जिसके जूतों के फीते खोलने लायक भी मैं नही हूँ ; जिसके लिए आप सभी प्यारे है और जो आप सभी को अपने बच्चो के समान समझती है अर्थात सब मिलकर बोलिए , महामहिम महारानी विक्टोरिया की जय !....
कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य --- ह्यूम के जीवनी लेख विलियम वैडरबर्न के अनुसार काग्रेस की स्थापना से पहले उसे ( ह्युम ) को तीस हजार से ज्यादा जगहों से जो जानकारी मिली थी , उसके अनुसार ब्रिटिश राज एक सम्भावित खतरे का शिकार हो सकता था | उसे डर था कि गरीब वर्ग के लोग , असहाय व निराश होकर '' कुछ '' कर सकते थे और उस '' कुछ '' का मतलब था हिंसा | कुछ पढ़े लिखे लोग उस आन्दोलन में कूदकर उसका नेतृत्व कर सकते थे और उसे राष्ट्रीय स्तर के विद्रोह में बदल सकते थे |
1916 में बालगंगाधर तिलक ने बेलगाँव में अपने होमरूल के भाषण में कहा था कि उस कथन में कोई दो राय नही है कि अंग्रेजो के शासन में , अंग्रेजो की देख - रेख में अंग्रेजो की मदद और सहानुभूति से , उनकी उच्चस्तरीय भावनाओं के साथ हमे अपना उद्देष्ट प्राप्त करना है | '' ( तिलक राइटिंग एंड स्पीच पृष्ठ 108 )
दिसम्बर 1921 में अहमदाबाद अधिवेशन में गांधी ने हसरत मोहानी के उस प्रस्ताव की सखत आलोचना की थी , जिसमे तमाम सम्भव साधनों द्वारा सभी विदेशी नियंत्रणों से मुक्त स्वराज या पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति को कांग्रेस का उद्देश्य बताया गया था | ' गांधी का मानना था कि मोहानी ने एक गलत मुद्दा उठाया है --- ( गांधी वांग्मय ( पृष्ठ 100 - 113 )
1927 में कांग्रेस में मद्रास अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरु द्वारा एक प्रस्ताव में घोषणा की गयी कि भारत की जनता का उद्देश्य पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता है | ' गांधी इस प्रस्ताव से सहमत नही थे |
24 मार्च 1947 को वायसराय माउन्टबेटेंन के साथ पहली मुलाक़ात में नेहरु ने कहा था की वह मित्रता के धागे को नही तोड़ना चाहते | माउन्टबेटन ने लिखा है , '' मुझे लगता है की नेहरु राष्ट्रकुल में रहना चाहता है परन्तु वह ऐसा कहने का साहस नही कर सका ( transfer of power 10 - pqge -13 )
10 मई 1947 को वायसराय व उनके कार्यालय के सदस्यों के साथ बातचीत में नेहरु ने कहा था की भावनात्मक कारणों के अलावा भी अन्य कारणों से वह ब्रिटिश राष्ट्रकुल के साथ नजदीकी से नजदीकी रिश्ता कायम रखना चाहता है | बहुत से कारणों की वजह से वह खुले तौर पर औपनिवेशिक स्वराज्य की बात नही कर सकता , परन्तु उसके लिए आधार अवश्य तैयार करना चाहता है | (transfer of power -- 10 ,. p-735 )
23 मई 1947 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने औनिवेशिक प्रधानमन्त्री को एक तार भेजा था जो बेहद चौकाने वाला है -
उसके अनुसार
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कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि अपनी पार्टी से स्वीकारोक्ति लेने के लिए उन्हें आम जनता से यह कहना ही होगा कि औनिवेशिक स्वराज्य के नियमानुसार औनिवेशिक स्वराज्य जब भी चाहे राष्ट्रकुल से अलग हो सकता है , लेकिन उनके अपने अनुसार अगर एक बार औनिवेशिक स्वराज्य की मांग स्वीकार कर ली जाती है , तो हिन्दुस्तान राष्ट्रकुल को नही छोड़ेगा |...
इसलिए मैं जोर देकर कह रहा हूँ कि उस मामले में अत्यनत गोपनीयता की आवश्यकता है | क्योकि अगर यह बात बाहर खुल जाती है कि स्वंय कांग्रेसी नेताओं ने ही गुप्त रूप से इस विचार को प्रोत्साहित किया है तो उस मुद्दे पर पार्टी को स्वीकारोक्ति लेने की उनकी योजनाये मिटटी में मिल जायेगी (transfer of power-- 10 पेज - 974--75 )
वक्ताओं ने कहा सत्तर साल की आजादी बेमानी है आजादी तो तब होती जब मानव का मानव द्वारा शोषण बंद होता , समाज में हिंसा नही होती पर आज क्या हो रहा है जाति - धर्म का उन्माद चारो तरफ नजर आ रहा है |
वक्ताओं ने इसे नकली आजादी ;सत्ता शक्ति का हस्तान्तरण माना। शहीदे आजम भगत सिंह के सपनों का भारत बनना अभी बाकी है। आजा़दी का मूल्यांकन
जब तक मानव द्वारा मानव का लहू पीना जारी है,
जब तक बदनाम कलण्डर में शोषण का महीना जारी है,
जब तक हत्यारे राजमहल सुख के सपनों में डूबे हैं
जब तक जनता का अधनंगे-अधभूखे जीना जारी है
हम इन्क़लाब के नारे से धरती आकाश गुँजाएँगे !
हर ऑंधी से, हर बिजली से, हर आफ़त से टकराएँगे !! ----- कांतिमोहन 'सोज़'

Wednesday, August 10, 2016

देवल रानी- 11-8-16

देवल रानी---------- युवराज ने भरे कंठ से कहा '' प्यारी देवल , तुम सचमुच वफा की देवी हो ,
दिल्ली के सुलतानो की राजनेति खून , हत्या षड्यंत्र विश्वासघात से दूध पानी की तरह घुली मिमिली थी | जिसके प्रमाण इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित है , उनके महलो के भीतर भी इसी तरह के घृणित षड्यंत्र राग द्वेष और हत्याओं का बोलबाला था | देवल रानी की दर्दभरी कहानी , महलो के भीतर चलने वाले ऐसे ही जाल फरेबो का एक जीता जागता प्रमाण है | इसी भोली -- भाली राजकुमारी ने इन निष्ठुर हत्यारों के हाथो क्या कुछ नही सहा ? अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा एवं ससुर जलालुद्दीन की हत्या करके दिल्ली के तख्त पर कदम रखे थे | इस महत्वाकाक्षी युवा सुलतान ने शीघ्र ही एक एक करके भारत के भीतरी प्रदेशो को जीता और अपने राज्य में मिला लिया , उसकी सेनाओं ने 1927 ई में गुजरात पर आक्रमण किया | विजय के पश्चात उसके सेनापति उलगुखान व नुसरतखान ने राजमहलो और खजानों को जी भर के लुटा , इसी लूट में उनके हाथ गुजरात की रानी कमला देवी लगी | राजा कर्णदेव तो अपनी नन्ही सी बिटिया देवल के साथ मुसलमानों से बच निकले भागे | लेकिन आक्रमणकारियों के हाथ रानी पड़ गयी | राजा ने देवगिरी के शासक रामचन्द्र के यहाँ शरण ली | गुजरात पर सुलतान का अधिकार हो गया , उसने रानी कमला देवी के रूपसौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसके साथ विवाह कर लिया , इसी लूट में शाही सेना के हाथ एक हिजड़ा भी लगा जिसके हाथो स्वंय अलाउद्दीन खिलजी , उसके परिवार का नाश हुआ इतिहास में यह हिजड़ा मलिक काफूर के नाम से प्रसिद्ध है , जन्म से यह हिन्दू था , पर सुलतान से अनैतिक सम्बन्ध जुड़ जाने पर मुसलमान बन गया था | गुजरात विजय के कुछ वर्षो बाद अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरी पर भी हमला कर दिया और वहा के राजा रामचन्द्र को परास्त करके कमला देवी की पुत्री देवल को अधिकार में ले लिया और दिल्ली मंगवा लिया | कई वर्षो बाद माँ बेटी का मिलन हुआ | यह क्रूर व्यग्य तो उन्होंने कलेजे पर पत्थर रखकर सह लिया , लेकिन उन्हें क्या पता था कि षड्यन्त्रो की भूमि सीरी ( दिल्ली ) में उन्हें अभी न जाने और कितने दुःख उठाने थे | इस समय देवल दस वर्ष की परम सुन्दरी रूपवती बालिका थी | वह अलाउद्दीन के महलो के भीतर चलने वाली कुटिल और भयंकर राजनीति और सर्वनाशी हथकंडॉ से अनजान बनी हुई सुंदरी तितली की तरह खेलती रहती थी | उसका सौन्दर्य महकते गुलाब की रह था | जो बरबस दुसरो की नजर अपनी ओर खीच लेता था | सुलतान की एक अन्य बेगम से खिज्रखान नाम का एक पुत्र था , वह उम्र में दो साल बड़ा था | शुरू से ही देवल और खिज्रखान एक दूसरे से प्रेम करने लगे दोनों सारा दिन साथ साथ खेलते रहते थे खिज्रखान परम सुन्दर बालक था उसकी शक्ल देवल के भाई से बहुत मिलती जुलती थी इसीलिए कमला देवी उससे बहुत स्नेह करती थी |
सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को इन दोनों बच्चो की बढती प्रीति को देखकर बड़ी प्रसन्नता होती थी | और उसने मन ही मन यह निश्चय कर लिया था कि वह अपने पुत्र खिज्रखान का विवाह गुजरात की राजकुमारी देवल के साथ कर देगा | ज्यो -- ज्यो दिन बीतते गये देवल और खिज्रखान का प्रेम प्र्गाद होता गया | यह प्रगाढ़ता यौवन के आगमन के साथ दृढतर होती चली गयी अब स्थिति ऐसी आ गयी थी कि वे दोनों एक दुसरे को देखने के लिए विकल रहने लगे सीरी के कुटिल राजमहलो से इन दोनों के प्रगाढ़ प्रेम की कहानी छिपी न रह सकी , सुलतान ने रजा कर्ण को संदेश भेजकर उनकी पुत्री देवल का विवाह अपने शहजादे खिज्रखान के साथ करने की सहमती भी प्राप्त कर ली |
एक दिन मौका देखकर सुलतान ने मलिका ए जहा से खिज्रखान और देवल के विवाह की चर्चा की उस समय शहजादा वहा बैठा था , वह लज्जावश वहा से उठ कर चला गया , अब उसे इस बात का पक्का भरोसा हो गया कि एक दिन देवल दुलहिन बनकर उसकी दुनिया आबाद करेगी , इस घटना के बाद दोनों का प्रणय और सुदृढ़ हो गया | अब संसार में उन्हें और किसी वस्तु की कामना न थी | लेकिन महल में कुछ ऐसी बेगमे भी मौजूद थी जिन्हें देवल और खिज्रखान का प्रेम फूटी आँखों नही सुहाता था | उन्हें देवल में एक सबसे बड़ा दोष दिखाई देता था कि वह काफिर हिन्दू राजा की बेटी है इतना ही नही ये दोनों माँ बेटी खास अलाउद्दीन के रंगमहलो तक में हिन्दू धर्म से चिपकी हुई थी | इसी धर्म के अनुसार पूजा उपासना करती थी यह बात मलिका ए जहा तथा दूसरी बेगमो को बहुत चुभती थी उन्होंने कई बार इस ओर सुलतान का ध्यान दिलाया पर उसने इस ओर कोई ध्यान ही नही दिया | जब सुलतान ने देवल के साथ खिज्रखान के विवाह की चर्चा मलिका ए जहा से की तो वह भड़क उठी क्योकि सबसे बड़ा शहजादा होने के कारण खिज्रखान हिंदुस्तान के विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी था उसके साथ देवल का विवाह होने से दोनों काफिर माँ बेटियों का महत्व बाद जाने का खतरा था | यही सोच कर मलिका ए जहा ने इस चर्चा को वही रोक दिया और अपने भाई अलपखान की बेटी के साथ खिज्रखान का विवाह करने पर जोर दिया , सुलतान को इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नही थी क्योकि अलपखान एक सुयोग्य सेनापति और उसके साम्राज्य का सुदृढ़ स्तम्भ था | ऐसा प्रतीत होता है कि इर्ष्या मध्ययुगीन स्त्रियों का प्रिय गहना था जिसे वे हर समय अपने दिल से लगाये रखती संभवत: बहुविवाह प्रथा के कारण सुतो की उपस्थिति से ही ऐसा रहा हो उनकी ईर्ष्या ने तत्कालीन समाज और राजनीती का कितना अहित किया इसका अनुमान अभी तक कोई इतिहासकार नही लगा पाया है |
सुलतान , अमीर , सूबेदार , राजा , रईस -- सब के हरमो में भेढ़ -- बकरियों की तरह भरी हुई ईर्ष्यालु स्त्रियों को बढिया वस्त्र आभूषण पहनने , अच्छा शाही भोजन करने के बाद और कोई काम होता नही था , अपनी सारी जिन्दगी वे इन्ही घात प्रतिघात और षडयत्रो में बिता देती थी | उनकी अपेक्षा समाज के अन्य वर्गो की महिलाये कही अधिक उदार दयालु , सभ्य और सहृदय थी | यद्दपि उनके उपर भी कई तरह के सामाजिक बंधन थे | मलिका ए जहा ने देवल और खिज्रखान के बढ़ते हुए प्रेम को खत्म करने के लिए उन दोनों को अलग -- अलग कर दिया | उनके मिलने जुलने पर रोक लगा दी | मलिका का विचार था कि उन्हें इस प्रकार दूर -- दूर कर देने से प्रेम टूट जाएगा | लेकिन इस दूरी ने उनके प्रेम को और अधिक प्रगाढ़ व पुष्ट बना दिया | दोनों प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को देखने के लिए व्याकुल रहने लगे और मलिका की नजर बचा कर एक दूसरे से मिलने की युक्ति करने लगे | जब मलिका को उनके छिप -- छिप कर मिलने का पता लगा तो वह बहुत नाराज हुई और उसने दोनों को इतनी दूर -- दूर रखने का निश्चय किया जहा वे एक दूसरे की परछाई तक न पा सके | यही सोच कर मलिका ए जहा ने ईर्ष्यावश देवल को कुश्क ए लाल ( लाल महल ) भिजवा दिया जिससे खिज्रखान उसे कभी भी न देख सके | जब राजकुमारी की सवारी लाल महल की ओर जा रही थी तो शहजादा अपने गुरु निजामुद्दीन ओलिया के पास बैठा कुछ लिख रहा था | देवल देवी के स्थान परिवर्तन का समाचार उसके लिय वज्र के समान था | समाचार पाते ही शहजादा तुरंत घोड़े पर सवार होकर लाल महल की ओर दौड़ पडा --- उसे राजकुमारी की पालकी रास्ते में मिल गयी | दोनों प्रेमी मिले वे देर तक आँसू बहाते रहे और अपने प्रेम को मृत्यु पर्यंत स्थायी बनाये रखने की सौगंध खाते रहे |
शहजादे ने प्रेम की चिर स्मृति बनाये रखने के लिए देवल को अपने सुन्दर बालो की एक लट दी जब कि राजकुमारी ने उसे प्रणय स्मृति के रूप में अपनी अगुठी पहना दी कुछ देर बाद दोनों प्रेमी विरह के आँसू बहाते हुए पुन: मिलने की आशा से एक दूसरे से विदा हुए | लाल महल में इतनी दूर रहकर भी देवल का शहजादा खिज्रखान के प्रति प्रेम किसी भी तरह कम नही हुआ | इसी प्रकार शहजादा भी अपनी प्रयेसी के वियोग में व्याकुल रहने लगा | उसके दुःख को दूर और मन को स्थिर करने के लिए मलिका ए जहा ने अपने भाई अलपखान की लड़की से उसके विवाह की तैयारिया शुरू कर दी | शाही महल के चारो ओर ऊँचे -- ऊँचे कुब्बे बनाये गये उन्हें बहुमूल्य रेशमी पर्दों से सजाया गया गलियों और बाजारों की सजावट की गयी दीवारों पर अनेक तरह के सुन्दर चित्र बनाये गये | जहा तहा खेमे और शामियाने गाड़े गये जगह जगह सुन्दर फर्श बिछाए गये कही भी खाली जगह नही दिखाई देती थी ढोल और बाजे बजने लगे नट और बाजीगर अपने तमाशे दिखाने लगे | कुछ तलवार चलाने वाले नट ऐसे थे जो बाल को बीच से चीर कर दो फाको में बाट देते थे | कुछ नट तलवार को पानी की तरह निगल जाते थे नाक में चाक़ू चढा लेते थे | तुर्की इरानी और हिन्दुस्तानी संगीत की बहार थी | दिल्ली के दूर दूर से कलावन्त इकठ्ठे होते जा रहे थे मदिरा पानी की तरह बह रहा था | इस प्रकार महीनों तक राग रंग का उत्सव चलता रहा विवाह की तैयारिया होती रही ज्योतिषियों ने शुभ मुहूर्त निकला और बुधवार 6 फरवरी 1312 ई को विवाह निश्चित हुआ | शहजादा एक कुम्मैत घोड़े पर सवार हुआ बिस्मिल्लाह की आवाज चाँद तक पहुची समस्त अमीर सवारी के साथ पैदल चल रहे थे हाथियों पर सुनहरे हौदे कसे थे तलवार और खंजरो द्वारा बुरी निगाहों के दरवाजे बंद थे | इस प्रकार यह जलूस अलपखान के दरवाजे तक पहुचा शहजादा गद्दी पर विराजमान हुआ अमीर अपने अपने पद गौरव के अनुसार दी बाई ओर बैठ गये | सद्रेजहा ने खुतबा पढ़ा जवाहरात और मोती लुटाये गये लोगो को बहुमूल्य वस्तुए प्रदान की गयी | निकाह के बाद लोग विदा हो गये चारो ओर खुशिया की मानो बौछार हो रही थी लेकिन शहजादा खिज्रखान के सुन्दर मुख पर उदासी की घटा छाई थी वह अत्यधिक व्याकुल था और बलि होते हुए बकरे की तरह उसका मन छटपटा रहा था वह अपनी प्रेमिका देवल की याद में बहुत व्याकुल था इस विवाह की धूमधाम से अलपखान की सुन्दर कन्या के सौन्दर्य से भी उसकी विरह ज्वाला किसी प्रकार कम न हो पाई | शहजादे के इस विवाह की धूमधाम को कुश्क ए लाल से राजकुमारी देवल ने भी देखा था उसके दिल पर क्या न बीती होगी , फिर भी उस ने शहजादे के पास इस शादी की मुबारकबाद भेजी |
देवल देवी से मुबारकबाद का संदेश पाकर शहजादे का दिल टुकड़े -- टुकड़े हो गया | वह पागल सा रहने लगा मानो उसका सब कुछ लुट गया हो | हिन्दुस्तान के शक्तिशाली सुलतान का पुत्र एक विशाल साम्राज्य का युवराज होते हुए भी देवल की एक झलक पाने के लिए व्याकुल रहने लगा उसकी वेदना इतनी बढ़ गयी कि उसका स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरने लगा उसकी स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो गयी अंत में उसने एक विश्वस्त और चतुर दासी के हाथो मलिका ए जहा के पास यह करुणाजनक संदेश भेजा , '' माँ अपनी भतीजी के लिए पुत्र की हत्या करना उचित नही है , इस्लाम पुरुष को चार विवाह करने की आज्ञा देता है और बादशाहों को तो राजनीतिवश बहुत से विवाह करने पड़ जाते है | मेरे महल में यदि एक देवल आ जाती है तो इससे आप कि भतीजी का तो कुछ भी अहित नही होगा बल्कि मेरी बुझती हुई जिन्दगी को नई रौशनी मिल जायेगी | यदि मैं इसी तरह घुट घुट कर मर गया तो आप इस खून का जबाब खुदा के सामने देना होगा '' | शहजादे कि इस दर्द भरी पुकार और गिरती हुई सेहत से मलिका ए जहा का पत्थर दिल भी पिघल गया उसने शहजादे को देवल देवी से विवाह कि अनुमति दे दी | लेकिन यह शर्त लगा दी कि ' यह विवाह अत्यंत गुप्त रीति से होगा , इसमें जरा भी धूमधाम नही की जायेगी विवाह में वर वधु के माता पिता के अतिरिक्त केवल एक काजी और एक पंडित को ही आने की अनुमति होगी | शहजादे ने ये सब शर्ते मान ली | इसके कुछ दिन बाद ही महलो में चुपचाप शहजादा खिज्रखान का गुजरात की राजकुमारी देवल से विवाह हो गया , कन्यादान देवल देवी की माँ कमला देवी ने किया , सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और मलिका ए जहा वर पक्ष की ओर से उपस्थित थे वर की ओर काजी और वधु की ओर से एक पंडित ने मुस्लिम और हिन्दू विधि विधान द्वारा इस विवाह को सम्पन्न कराया | अपनी बिछुड़ी हुई प्रियतमा देवल रानी को पाकर शहजादे को मानो दुनिया भर की सल्तनत मिल गयी | अब उसका मन हर प्रकार से संतुष्ट और प्रसन्न था उसके मन में किसी प्रकार की कामना न थी | वह अपनी देवल के एक बाल पर एक हजार दिल्ली की सल्तनते न्योछावर करने के लिए तैयार था उसके लिए इस धरती पर चारो ओर खुशिया ही खुशिया बिखरी हुई थी उसने जो चाहा उसे वही मिल गया था |
लेकिन शीघ्र ही शहजादे के सुख को काली घटा ने घेर लिया यह काली घटा कोई और नही बल्कि मलिक काफूर नामक एक गुलाम हिजड़ा था जिसे गुजरात विजय के समय एक हजार दिनारो में खरीदा गया था | सुलतान की कामुक नजर इस सुन्दर हिजड़े छोकरे पर पड़ी वह इसके रूप रंग पर मुग्ध हो गया और इसे अपनी अप्राकृतिक वासना का साधन बना लिया | यह हिजड़ा उपर से जितना सुंदर था भीतर से उतना ही नीच कुटिल और महत्वाकाक्षी था | उसने कामी सुलतान को पूरी तरह अपने चगुल में फंसा लिया था वह दिन रात उसकी कामाग्नि को भडका कर मनचाहे काम करा लेता था इस गुलाम ने सुलतान की इस कमजोरी का पूरा पूरा लाभ उठाया जब कभी सुलतान उससे खुश होता तो यह गुलाम उससे इनाम मागने के स्थान पर अपने उपर मेहरबानी बनाये रखने के लिए कहता रहता |
कामांध सुलतान ने उसके उपर दिल खोल कर मेहरबानी की उसे गुलाम से आमिर और फिर मलिक बना दिया एक विशाल सेना उसके अधीन कर दी | उसे जहा तहा युद्द क्षेत्रो में भेजा अंत में उसे दक्षिण भारत पर विजय पाने और लूटमार करने के लिए भेजा | सुलतान के प्रेमपात्र इस हिजड़े ने सारे दक्षिण भारत को रौद डाला इन विजयो से उसकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गये | सुलतान के बाद वही साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था वही सुलतान का प्रधान सेनापति अन्तरंग मित्र और शय्या सुख देने वाला था सारे साम्राज्य में इस हिजड़े के नाम का डंका बजता था , सुल्तान ने उसे मलिक नायब की उपाधि से विभूषित किया था | मध्यकालीन मुस्लिम समाज में हिजड़ो को अद्दितीय महत्व प्राप्त था इसमें आश्चर्य की कोई बात नही क्योकि लम्बे चौड़े हरम रखने वाले ऐयाश सुलतान और उन के अमीरों को अपनी सैकड़ो हजारो बेगमो पर निगरानी के लिए इन हिजड़ो की आवश्यकता पड़ती थी | उनकी इस आवश्यकता को प्रकृति तो पूरा नही कर पाती थी क्योकि हजारो लाखो बच्चो के पीछे कोई एक बच्चा नपुंसक होता ; इसीलिए ये लोग गरीबो के बच्चो का पुरुष चिन्ह काटकर उन्हें ही नपुंसक बना लेते और बड़ा होने पर अपने हरम का पहरेदार नियुक्त कर लेते क्योकि पुरुष चिन्ह काट लिए जाने से वे उनकी बेगमो के तथाकथित सतीत्व के लिए खतरा नही बन पाते थे | अपने कुठाग्र्स्त नीरस और दुर्भाग्य पूर्ण जीवन का बदला मौक़ा पड़ने पर ये व्याज समेत चुकाते थे , रिश्वत लेकर हरम में नये छोकरों को बुर्का उधाकर ले आते और दोनों ओर से भारी इनाम पाते , मलिक काफूर ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के साम्राज्य और परिवार का नाश कर के बड़े बड़े अमीरों की जड़ खोद कर अपने प्रति किये गये व्यवहार का अच्छी तरह बदला चुकाया | सुलतान इस हिजड़े के द्वारा मारा गया उसके उत्तराधिकारी की हत्या भी एक दूसरे मुंह लगे हिजड़े ने की | मध्यकालीन समाज में ये अजीब प्राणी खूब महत्व रखते थे , एक विद्वान् से ज्यादा अमीर समाज में इनकी पूछ होती थी | मलिक काफूर या मलिक नायब अकारण ही शहजादा खिज्रखान से जलता कुढ़ता रहता था | सुलतान ने खिज्रखान को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और सभी अमीरों से यह लिखित प्रतिज्ञा करा ली थी | कि वे उसके बाद खिज्रखान को सुलतान मानकर उसकी सेवा करते रहेगे | इन प्रतिज्ञाबद्द अमीरों में मलिक काफूर भी था लेकिन उसने कभी मन से इस निर्णय को नही माना अब वह स्वंय दिल्ली का सुलतान बनने के सपने देखने लगा था |
ये सपने खिज्रखान के होते हुए कैसे पूरे हो सकते थे ? अत: उसे गिराना बहुत जरूरी था . मलिक काफूर ने शहजादे तथा उसके मामा व श्वसुर अमीर अलपखान के विरुद्द सुलतान के कान भरने शुरू किये , वासना से अंधे बने सुलतान ने उसकी बाते सच मान ली | इससे उत्साहित होकर मलिक काफूर ने उस स्वामिभक्त अमीर अलपखान की दिन दहाड़े हत्या कर दी किसी की भी हिम्मत न हुई कि इतने बड़े अमीर की हत्या के विरुद्द कोई आवाज तक उठाये | अलपखान को ठिकाने लगाने के बाद अब शहजादा ख्जिरखान की बारी थी , उसने झूठी -- झूठी बाते कहकर सुलतान के मन में शहजादे के प्रति इतनी नफरत भर दी कि सुलतान ने उसे शाही अधिकारों के सूचक सारे चंह वापस ले लिए | इस अपमान से शहजादे के मन में कोई विशेष वेदना नही हुई वह मलिक काफूर की कुटिल प्रकृति और अपने पिता की कामुकता को जानता था | इसी बीच सुलतान बीमार पड़ गया ज्यो ज्यो सुलतान की बीमारी बढती गयी त्यों त्यों मलिक काफूर के आतंक में भी वृद्दि होती गयी षड्यत्रो में तेजी आने लगी |
शहजादा राजधानी से दूर था , वह सच्चे पितृभक्त पुत्र की तरह अपने बीमार पिता के स्वास्थ्य की कामना से पैदल ही हतनापुर जियारत करने गया , एक दिन पैर में ठोकर लगी कोमल अंगुलियों से खून बहने लगा , घाव बड़ा था |
मरहम पट्टी के बाद शहजादा लडखडाते हुए चलने लगा फिर अपने साथी अमीरों के बार बार आग्रह करने पर वह घोड़े पर सवार होकर आगे बड़ा यह कोई बड़ा अपराध न था , पर मलिक काफूर ने इस बात को खूब नमक मिर्च लगा कर सुलतान से कहा इस पर कुपित होकर सुलतान ने शहजादे के पास सन्देश भेजा कि वह किसी भी सूरत में दिल्ली में कदम न रखे और तुरंत अमरोहा चला जाए |
शहजादे को जब यह शाही फरमान मिला तो वह मेरठ तक आ चुका था फरमान पाने के बाद उसने सोचा , '' मैं ने कोई अपराध नही किया है मेरे पिता रोग शैय्या पर पड़े हुए है और चुगलखोरो के प्रभाव में है , देश निकले जाने से पूर्व एक बार उनके दर्शन करना और आशीर्वाद पाना उचित होगा |
सरल हृदय शहजादा अपने चुने मित्रो के साथ दिल्ली पहुच गया और अपने मरणासन्न पिता के चरणों में सिर रख दिया और उससे अमरोहा जाने की आज्ञा मांगी अपने शुशील और आज्ञाकारी पुत्र को अचानक आया हुआ देखकर वह वृद्द और जर्जर सुल्तान पाश्च्ताप के मारे रो पड़ा और देर तक अपने बेटे को छाती से लगाये रोता रहा |
अपनी चाल को व्यर्थ होते देख कर मलिक काफूर दांत पीस कर रह गया , सुलतान ने शहजादे को आशीर्वाद दिया और आँसुओ के साथ साथ उसके दिल का सारा मैल बह गया उसने सबके सामने अपने पुत्र के सारे अपराध क्षमा करके उसे युवराज घोषित किया और उसे वही अपने पास राजधानी में रहने का आदेश दिया |
मलिक काफूर इस तरह हार मानने वाला नही था उसने कमरे में से शहजादे के निकल जाने के बाद सुलतान के कक्ष के आसपास अपना पहरा मजबूत कर दिया और उस मरणासन्न सुलतान की गर्दन पर अपनी तलवार की नोक गडा कर एक फरमान उसकी ओर बढा दिया जिसमे शहजादा खिज्रखान तथा दूसरे शहजादों को ग्वालियर के किले में बंदी बनाने का हुकम था |
अपने पराक्रम से समस्त भारत को कपाने वाले प्रतापी सुलतान अलाउद्दीन ने इस विश्वासघाती गुलाम की आँखों में हिंसा की लपटे देखी वह इस बुझते हुए जीवन दीप का मोह अब भी नही छोड़ना चाहता था अत: उसने कापते हाथो से उस फरमान पर हस्ताक्षर कर दिए और इस तरह अपने ही हाथो अपने परिवार और साम्राज्य की बर्बादी पर मोहर लगा दी वक्त ने उस से वृद्द सुलतान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या का बदला व्याज समेत ले लिया |
उसी सांयकाल मलिक काफूर ने खिज्रखान और शादीखान -- इन दोनों शहजादों को कैद कर लिया और अपने विश्वस्त सेनानायको की देख रेख में ग्वालियर भेज दिया शहजादों के इस दुर्भाग्य ने दिल्ली वासियों को राम के वन गमन की याद दिला दी अंतर केवल इतना ही था कि इस बार मंथरा और कैकेयी का मिला जुला नाटक एक हिजड़े ने किया था |
देवल रानी भी दिल्ली के ऐश्वर्यपूर्ण राजमहलो को छोड़ कर अपने पति के साथ स्वेच्छा से कैद हो गयी और इस दुर्भाग्य में अपने अभागे पति की सेवा करने वाले ग्वालियर के दुर्ग में पहुच गयी | यह दुर्ग मध्यकाल में शहजादों का बंदीगृह अथवा वधशाला का काम देता था कहा तो इन दोनों को हिन्दुस्तान के सुलतान और मलिका बनना था कहा इस भयंकर किले की अँधेरी कोठरी में मौत की घडिया गिनने के लिए मिली | जब कभी युवराज खिज्रखान कैद खाने के कष्टों से व्याकुल हो जाता था तो देवल रानी उसे महापुरुषों के संकटपूर्ण जीवन की कथाये सुनाकर धैर्य बधाती देवल रानी को अपने पास देखकर शहजादा कैद खाने की यातनाओं को भी भूल जाता |
अंत में 4 जनवरी , 1316 ई को सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु हो गयी | लोगो का विश्वास था कि मलिक काफूर ने सुलतान को विष देकर मार डाला है उस के विरुद्द अगुली तक उठाने वाला कोई नही था अभी सुलतान की लाश को दफनाया भी नही गया था कि उस ने अपने विश्वस्त साथी सुबुल को यह आदेश देकर भेजा कि वह शहजादा खिज्रखान की आँखे निकाल ले |
सुबुल पूरे दलबल के साथ ग्वालियर पहुच गया जब ये जालिम युवराज के पास पहुचे तो वह समझ गया कि उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है और वह अपने दुर्भाग्य का सामना करने के लिए तैयार हो गया | आगे बढ़ने से पूर्व उसने बड़ी लालसा के साथ अपनी प्रियतमा देवल रानी को आंसू भरी आँखों से देखा मानो वह उसे पी जाना चाहता हो |
युवराज ने भरे कंठ से कहा '' प्यारी देवल , तुम सचमुच वफा की देवी हो , मुझे अपनी आँखे जाने का अफ़सोस नही है बस यही अफ़सोस है कि तुम्हारी वफा का मैं कोई बदला न चुका पाया तुम्हे हिन्दुस्तान की मलिका न बना सका , मैं बड़ा बदनसीब हूँ मुझे माफ़ कर देना |
शहजादे ने आगे बढने के लिए कदम उठाये ही थे कि देवल उसके पैरो में लेट गयी वह अत्यंत करुण स्वर में विलाप कर रही थी उसने दुष्ट सुबुल के पैरो में अपना सिर रख दिया कि शहजादे की सुन्दर आँखों को बख्श दे बदले में उसकी आँखे निकल ले | लेकिन मलिक काफूर और उसके साथी किसी और ही धातु के बने थे उसने देवल रानी को ठोकर मार कर एक ओर लुढका दिया और अपने कठोर व दृढ हाथो से कापते हुए युवराज को जमीन पर पटका पांच जल्लादों ने शहजादे के हाथ पैर सिर अच्छी तरह दबोच लिए सुबुल ने उस्तरे की धार देखि और उसे चमड़े के पत्ते पर आठ -- दस बार फिरा कर पैना किया हाथ में उस चमकते उस्तरे को लेकर वह दुष्ट युवराज की छाती पर बैठ गया |
शहजादा खिज्रखान अपने समय में अति सुन्दर और सुकुमार युवक था वह जिबह होते हुए बकरे की तरह तडप रहा था पर इन कसाइयो ने उसे बुरी तरह जकड़ रखा था इस बीभत्स द्रश्य को देखकर देवल
दृश्य देखकर देवल रानी खम्भे का सहारा लिए बुरी तरह चीख रही थी |
सुबुल के उस्तरे ने अपना चमत्कार दिखाया और उस सुन्दर राजकुमार की आँखों को खरबूजे की फाको की तरह काट कर बाहर निकाल लिया | वे आँखे जिनमे सुरमा भी बड़ी सावधानी से डाला जाता था , वे आँखे जिनमे सबके लिए प्यार का सागर लहराता था जालिमो ने देखते देखते निकाल ली | युवराज दर्द के मरे तड़प उठा वह बुरी तरह चीख रहा था , खून बहने तथा अत्यंत पीड़ा के कारण वह बेहोश हो गया जालिम अपना काम पूरा करके चले गये |
युवराज अनाथ की तरह धरती पर बेहोश पड़ा था आसपास की धरती उसके खून से लाल हो गयी थी देवल उसकी छाती पर सिर रखे हुए उसके शरीर से लिपट कर बुरी तरह रो रही थी हिन्दुस्तान के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र और पुत्र वधु धुल में खून से लथपथ होकर अपने ही राज्य के दुर्ग में ऐसी दुर्गति भोग रहे थे | पर क्या इतने से ही उनके कष्टों का अंत आ गया था ? नही , अभी बड़ी परीक्षा बाकी थी |
मलिक काफूर ने दिल्ली में शहजादा शादीखान की आँखे निकलवा ली , मलिका ए जहा की सारी दौलत लूटकर उसे दर दर की भिखारिन बना दिया उसने मरहूम सुलतान के पांच वर्षीय पुत्र को नाम मात्र के लिए राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वंय मनमानी करने लगा | उसने चुन चुन कर सुलतान के परिवार मित्र रिश्तेदार और शुभचिंतको का वध किया साम्राज्य में उसके अत्याचारों के कारण हाहाकार मच गया एक रात जब वह सो रहा था तो सुल्तानों के सेवको ने उस पर हमला कर दिया और उसे मार डाला वह दुष्ट केवल 35 दिन ही शासन करने पाया था कि उसे जल्दी ही अपनी करनी का फल मिल गया |
मलिक काफूर के वध के बाद अलाउद्दीन खिलजी के अमीरों ने ग्वालियर के किले में कैदी बने शहजादे मुबारक खान को दिल्ली बुलाया वह उस समय 17या 18 वर्ष साल का नवयुवक था पता नही किस तरह मलिक काफूर के हाथो इसकी आँखे और जिन्दगी बच गयी |
मुबारक खान ने दिल्ली पहुच कर कुछ दिन शिहाबुद्दीन का सहायक बन कर शासन किया पर बाद में इस पांच साल के बालक को एक ओर हटा दिया और कुतुबुद्दीन नाम रखकर स्वंय सुलतान बन बैठा पहले तो कुछ समय तक उसने भली भाती शासन कार्य चलाया फिर वह भी विषय लोलुप होकर अत्याचार करने लगा जिस तरह उसका पिता अलाउद्दीन खिलजी मलिक काफूर पर आसक्त था उसी तरह नवयुवक सुलतान भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलकर खुसरू खान नामक एक सुन्दर हिजड़े पर मुग्ध हो गया और उसे राज्य का सर्वेसर्वा बना दिया | आश्चर्य है मलिक काफूर के कुकृत्य और अलाउद्दीन खिलजी एवं शाही परिवार की दुर्गति को शहजादा सुलतान बनते ही इतनी जल्दी भूल गया सुलतान कुतुबुद्दीन कामांध हो गया था उसने ग्वालियर के दुर्ग में बंदी अपने बड़े भाई खिज्रखान के पास फरमान भेजा कि अब मैं हिन्दुस्तान का सुलतान हूँ तुम मेरे कैदी हो अत: देवल देवी को मेरे महल में भेज दो |
इस शाही हुक्म से अँधा शहजादा खिज्रखान मर्माहत हो गया उसका रोम रोम काप उठा देवल तो उसकी जिन्दगी थी उससे बिछड़ने की तो वह कल्पना भी नही कर सकता था उसने बड़े साहस से काम लेकर सुलतान के हुकम को मानने से इनकार कर दिया और विनम्र शब्दों में यह संदेश भेजा '' जिस तरह आत्मा के निकल जाने पर शरीर मिटटी के समान व्यर्थ हो जाता है उसी तरह देवल रानी के बिना मैं भी निष्प्राण हो जाउंगा आपको हिन्दुस्तान का साम्राज्य प्राप्त हो चुका है वह आप के पास रहे मुझे उसकी जरा भी कामना नही है लेकिन देवल रानी को मेरे पास ही रहने दीजिये यद्दपि राज्य से निकाले जाने , नेत्रों की ज्योति छीन लेने से और आपके दुर्ग में कैदी बने होने से मैं एक निर्धन भिखारी से भी गया बीता हो गया हूँ पर देवल को मैंने सदैव अपनी सम्पत्ति माना है वह मेरी सम्पत्ति ही नही बल्कि जिन्दगी भी है यदि आप ने मुझ अंधे से लकड़ी की तरह यह आखरी सहारा भी छीन लिया तो मैं पूरी तरह मर जाउगा मेरे प्राण किसी भी तरह नही बचेगे मेरी हत्या करने के बाद ही आप इस वफा की देवी को मुझसे छीन सकते है |
खिज्रखान के इस उत्तर से सुलतान कुतुबुद्दीन मुबारक शाह भडक उठा उसने अपनी सिपहसालार शादीकत्ता को ग्वालियर भेजा कि वह दुर्ग में बंदी खिज्रखान , शादीखान और सिहाबुद्दीन -- इन तीनो शहजादों के सिर काट कर लाये | इनमे से पहले दो शहजादों की आँखे मलिक काफूर ने और तीसरे की खुद सुलतान से निकलवा ली थी | ये तीनो अभागे शहजादे अब सिर्फ रुखी सुखी रोटी और फटे पुराने कपड़ो के सहारे किले के कैद खाने में अपनी बोझिल जिन्दगी के दिन पूरे कर रहे थे |
शादीकत्ता ग्वालियर पहुच गया और तीनो शहजादों का सर कलम करने की तैयारी करने लगा उसके हत्यारे शादीखान और सिहाबुद्दीन के सिर काटने के बाद जब खिज्रखान के पास पहुचे तो देवल रानी चीखकर उसकी छाती से लिपट गयी और अपनी फूलो जैसी सुकुमार बाहे शहजादे के गले में डाल दी वह बुरी तरह रो रही थी हत्यारों से उसके प्राणों की भीख मांग रही थी | देवल के करुण विलाप पर कोई ध्यान न देकर हत्यारों ने अंधे युवराज पर तलवार से वार किया लेकिन देवल रानी ने उसके शरीर को अपनी सुकुमार देह से ढक रखा था इसीलिए चोट उसके सिर पर आई तलवार के करारे वार से उसका सिर बीच से फट गया खून का फौव्वारा फुट पडा लेकिन उसने शहजादे को फिर भी नही छोड़ा उसकी सुकुमार बाहे अपने पति के गले से कस गयी | वह स्वंय को होम कर हत्यारों से अपने पति के प्राण बचाना चाहती थी निर्दयी शादीकत्ता ने शहजादे के गर्दन को लक्ष्य करके करारी चोट की जिससे उसमे लिपटा हुआ उस अभागिन राजकुमारी का सुन्दर हाथ कट गया और वह मूर्क्षित होकर धरती पर गिर पड़ी |
हत्यारों ने तीसरा वार किया अब किसी की सुकुमार बाहे लिपटकर युवराज की गर्दन को नही बचा रही थी | अत: उसका सिर कट कर धरती पर आ गिरा खून का गरम स्रोत फुट पडा जिसने युवराज की अपनी देह के साथ साथ उसके पैरो में निस्पंदन पड़ी राजकुमारी देवल का भी अभिषेक कर दिया |
अगले ही क्षण वह कटा हुआ शरीर भी अपनी प्रियतमा के बगल में गिर पडा दोनों एक दूसरे को अपने गरम् रक्त से नहला कर सच्चे प्रेम और बलिदान का परिचय दे दिया था | दिल्ली के वैभवशाली तख्त पर वे भले ही न बैठ सके पर इस नगी धरती पर उनके कते हुए शरीर लेकिन जुडी हुई आत्माए मिलकर एक हो गयी थी |
सुनील दत्ता ---- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक --- आभार स विश्वनाथ