गदर पार्टी --- पृष्ठभूमि
आजादी या मौत
तीस जून सत्रह सौ सत्तावन – हिन्दुस्तान के इतिहास में एक काला दिन
भागीरथी नदी के तट पर बसा एक गाँव | पलाश – आम्र – कुंजो से घिरा | कोलकाता
से डेढ़ सौ किलोमीटर उत्तर में बंगाल राज्य की राजधानी मुर्शिदाबाद से
पच्चीस किलोमीटर दूर | पलाश पुष्पों से सुगन्धित पलाशी या प्लासी | इस गाँव
में जुटती है दो सेनाये – बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब सिराजुद्द्दौला की
सेना , अपने पचास हजार सैनिको और फ्रांसीसी तोपों के साथ | दूसरी और ईस्ट
इंडिया कम्पनी की सेना राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में इक्कीस सौ भारतीय और
साधे नौ सौ ब्रिटिश सैनिको और एक सौ पचास तोपों के साथ || इस एक दिन के
युद्द में जिसमे वर्षा के कारण फ्रांसीसी टोपे भीगकर नाकाम हो गयी थी ,
विजय क्लाइव और उसकी सेना की होती है – केवल सात यूरोपियन और सोलह भारतीयों
की मृत्यु तथा तरेह यूरोपियन और छत्तीस भारतीयों के आहत होने के बाद |
वास्तव में यह विजय ईस्ट इंडिया कम्पनी की उतनी नही थी जितनी भारतीयों की
पराजय थी --- अपनी नीतियों के कारण सिराजुद्द्दौला को उसकी सेना के पदोंवनत
सेनापति मीरजाफर ने एन वक्त पर धोखा दिया | यह सोलह हजार सैनिको का
नेतृत्त्व कर रहा था | अंग्रेजो के लालच दिए जाने के कारण वह युद्द से बाहर
रहा | आफी और सैनिक भी लालच दिए जाने के कारण वह लोग भी युद्द सी बाहर रहे
| साथ ही अन्य लोग यार लतीफ , जगत सेठ अमीरचंद महाराजा कृष्णनाथ
रावदुर्लभ आदि अंग्रेजो के प्रलोभन से निष्क्रिय हो गये |
भारतीय
सैनिको में राष्ट्रीयता जैसी कोई भावना तो थी नही | जो भी उन्हें खरीद सकता
था , खरीद लेता वास्तविकता तो यह है कि इस युद्द में ईस्ट इंडिया कम्पनी
का एक पैसा भी खर्च न हुआ | साढ़े नौ सौ यूरोपियन सैनिको को छोड़कर सारा खून
दोनों और से भारतीयों का बहा | इस प्रकार पारम्परिक इर्ष्या शत्रुता
विद्देश और नितांत स्वार्थपरता के कारण भारतीयों ने अपने गले में गुलामी की
जंजीरे डालने में अंग्रेजो का साथ दिया |
फिर उस साम्राज्य का विस्तार
देने तथा उसके सुद्रढ़ रहने में भी भारतीय सैनिको ने अपना खून बहाया | एक
दिन के इस युद्द ने भारत को दुर्भाग्य के द्वार पर खड़ा किया और पश्चिम को
भाग्योदय के पथ पर |
इस युद्द ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत का एक
समृद्द प्रदेश दे दिया , शासन करने को | बंगाल उस समय भारत का सबसे धनी
प्रदेश था | क्षेत्रफल में भी बड़ा | तीन करोड़ की आबादी का प्रदेश , उन्नत
उद्योग – धंधे फलता – फूलता व्यापार , राज्यकोष को भरपूर मुद्रा देने वाला |
बंगाल पर आधिपत्य होने के बाद अंग्रेजो ने जितनी भी नीतिया अपनाई – कृषि ,
उद्योग व्यापार सम्बन्धी , वे सब अपना घर भरने के लिए बेशर्मी से की गयी
लूट की , इंग्लैण्ड के लिए धन बटोरने की जन – विरोधी थी | स्वंय क्लाइव ने
बंगाल के खजाने को जी भर कर लुटा | कम्पनी के कर्मचारियों और अधिकारियों
में नैतिकता नाम की कोई चीज न थी | नीच से नीच काम करने में उन्हें कोई
हिचक नही थी | वचन देकर तोड़ना उनके लिए गिरगिट के रंग बदलने जैसा था |
मीरजाफर को उन्होंने वचन दिया था , नया नवाब बनाने का | बनाया तो मात्र कोई
बहाना बनाकर हटाने के लिए | उसके माध्यम से लुट को वैध बनाना ही उनका
ध्येय था |
विश्व के और विशेत: भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था ,
जब विजयी शासक की कोई निष्ठा विजित प्रजा के हित – साधन में नही थी | अब
तक जितने भी शासक आये थे , वे भारत में भारतीय बनकर रहे | उन्होंने जो भी
निर्माण किया इस देश में किया | प्रशासन में अधिकाँश अधिकारी भारतीय रहे |
किन्तु ब्रिटिश लोगो में भारत में भारतवासी बनकर रहने की कोई इच्छा न थी ,
भारत उनके लिए व्यापार की एक मंदी था , अपना कैरियर बनाने का एक सुनहरा
अवसर था | यहाँ वे कुछ ही समय में मालामाल होकर वापिस इंग्लैण्ड में जाकर
एशो आराम की जिन्दगी बसर करने के लिए आते थे | भारत उनके जीवन का अस्थायी
पडाव था | पहली बार भारत वास्तव में एक दुसरे देश का गुलाम बना | जहा उसके
भाग्य का निर्णय उसकी धरती पर न होकर सात समन्दर पार ब्रिटेन की संसद में
होता था | उन लोगो द्वारा जिनकी निष्ठा अपने देश को स्वंय को उन्नत करने
में थी | भारत में की गयी लुट उसका साधन थी |
अंग्रेजो के आगमन से पूर्व भारत के गाँव अपने आप में एक स्वायत्त इकाई थे |
उनकी आर्थिक – सामाजिक – सांस्कृतिक सरचना पर शासको के बदलने का कोई विशेष
प्रभाव नही होता था | वे केन्द्रीय शासन – परिवर्तन के प्रति उदासीन थे |
उनका मूलमंत्र था , ‘’ को नृप होय हमे का हानि ‘ |
अंग्रेजी शासन ने उनकी वह तंद्रा तोड़ दी |
कम्पनी की अनेक नीतियों में जो दूरगामी परिणामो की जनक थी , शायद सबसे
क्रूर नीति थी – व्यापार पर अपना सम्पूर्ण प्रभुत्व जमाना | कम्पनी ने अपने
शासित प्रदेश में और शासित प्रदेश से किये जाने वाले व्यापार करने के लिए
स्वंय को आयात – निर्यात शुल्क में पूर्णत: मुक्त कर लिया | साथ ही अनेक
वस्तुओ के उत्पादकों को धमकी दी कि यदि वे कम्पनी के साथ व्यापार सम्बन्ध
रखते है तो और किसी को अपनी उत्पादित वस्तु नही बेचेगे | अनेक बार कम्पनी
की आवश्यकताओ से अधिक पैदा हुई वस्तु की फसल को खेतो में ही जला दिया जाता |
करी – मूल्य का निर्धारण भी उसी के हाथ में था | बाहर से ( विशेषत:
ब्रिटेन से ) आयातित वस्तुओ का विक्रय मूल्य भी वही तय करते | इस प्रकार
व्यापार भी एक वृहद् लूट का साधन बन गया उस लुट से समर्थित ब्रिटेन की
औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप जब इंग्लैण्ड में मिल स्थापित होने लगा , तो
बंगाल के वस्त्र उद्योग की भारी हानि हुई | बंगाल के कारीगरों द्वारा बुना
गया कपड़ा विषभर में श्रेष्ठ माना जाता था | ब्रिटेन के घर – घर में उसकी
खपत थी | मिलो को सहयोग देने का अर्थ था उस उन्नत गृह – उद्योग को
योजनाबद्द तरीके से बर्बाद करना | वही हुआ भी | कम्पनी की नीति के कारण कुछ
ही वर्षो में प्रदेश श्रेष्ठ वस्त्रो के निर्यात करने वाले प्रांत के
स्थान पर कच्चे माल को पैदा करने वाला स्थान बनकर रह गया | कम्पनी का लाभ
दुगना हो गया | कच्चा माल वह मनमानी कम कीमत पर खरीदती और ब्रिटेन में बुने
मिल के कपड़ो को स्वंय निर्धारित मूल्य पर बेचती | भारतीय उद्योगों को किस
प्रकार योज्नाब्द्द्द नष्ट किया गया गया इसका हृदय विदारक विवरण पंडित
सुन्दरलाल की पुस्तक ‘ भारत में अंग्रेजी राज ‘ में विस्तार से दिया गया |
अगर व्यापार नीति भारत के लिए इतनी घातक थी , तो कृषि – नीति ने तो
परम्परागत ग्रामीण समाज की कमर तोड़ दी | अंग्रेजो के आगमन से पहले राजाओं
द्वारा जो कर के रूप में धन उगाहा जाता था , वह उपज का एक निश्चित अंश होता
था | अकाल या पैदावार कम होने पर किसान पर आयकर का बोझ नही पड़ता था या कम
हो जाता था | किन्तु 1793 में तत्कालीन गवर्नर जनरल कार्नवलिस ने स्थायी
रूप से भूमिकर निश्चित कर दिया | खेती में हुई लाभ – हानि का उस कर की राशि
से कोई सम्बन्ध न था | फसल की हानि से अंग्रेजो को कुछ लेना – देना न था |
अगर कोई किसान कृषि कर देने में सक्षम नही होता , तो उसकी जमीन नीलाम कर
दी जाती | प्राय: वह जमीन नगर में रहने वाले अमीर लोग खरीद लेते | इस
प्रकार अनुपस्थित जमीदारो का एक नया वर्ग पैदा हो गया | अपने नियुक्त किये
प्रतिनिधियों से वे उनके द्वारा खरीदी गयी जमीनों पर खेती करने वाले
काश्तकारों से मन – मना लगान वसूल करवाते | कभी – कभी भूमि स्वामियों को
लगान देने के लिए महाजनों से ऊँची व्याजो पर ऋण लेना पड़ता | इस प्रक्रिया
में सूदखोरों की एक नयी जमात पैदा हो गयी | सूद इतना अधिक हो जाता कि अंत
में किसानो को अपनी गिरवी रखी भूमि को छुडाना असम्भव हो जाता | इस प्रकार
बहुत से किसान भूमिहीन श्रमिक हो गये – भयंकर शोषण के शिकार हो गये |
जो जमीन इस व्यवस्था में यूरोपियन गोरो के कब्जे में आ गयी उसको उन्होंने
खाद्यान के स्थान पर जूट , नील कपास या चाय – काफी के विशाल बागो में बदल
दिया | इससे उन्हें विपुल आर्थिक लाभ होने लगा | कमाया धन इंग्लैण्ड भेजा
जाने लगा | आवश्यक खाध्यान्न की कमी होती गयी | खाद्यान्न की कमी होने का
एक और कारन यह था कि फसल काटने पर गोर व्यापारी सस्ते दामो में उसे खरीदकर
वर्मा आदि अन्य देशो में भेज देते और फिर जरूरत होने पर मंगाकर ऊँचे दामो
में बेच देते | किसान को लगान देने के लिए बेचनी पड़ती | गोरो को खरीदने –
बेचने में दुगना लाभ होता | इन नीतियों का दुष्परिणाम था लगभग हर दस वर्ष
में एक बार अकाल पढ़ना | ब्रिटिश साम्राज्य का 1757 से आरम्भ हुआ विस्तार
1849 में अपनी पराकाष्ठा पर पहुचा , जब पंजाब पर गोरो का आधिपत्य हो गया |
उन्नीसवी शताब्दी के उतराद्ध में जबसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की
पूर्ण स्थापना हुई भारत में साथ बार भयकर अकाल पडा | 1853 – 54 , 1865 – 66
1876 – 78 , 1888 – 89 , 1891 ,92, 1896 – 97 और 1899 – 1900 में | सबसे
भयकर अकाल 1876 – 78 में पडा | बैस महीनों की अकाल की अवधि में साढ़े तीन
लाख लोगो की मृत्यु हुई | मद्रास प्रेसिडेंसी में ही उसके जनपदों में साढे
तीन लाख लोगो की मृत्यु हुई | अकालो की यह श्रृखला भारत के 1947 में
स्वतंत्र होने के पांच वर्ष पूर्व तक रही , जब 1942 -43 में बंगाल के
दुर्भिक्ष में 90 लाख लोगो की मौत हुई जबकि जमाखोरों के गोदामों में अनाज
भरा पडा सड़ रहा था |
अगर एक और इन सब नीतियों के कारण भारत
निरंतर दरिद्र हो रहा था | तो दूसरी और साम्राज्य विस्तार के लिए और उसको
सुदृढ़ करने को सेना का विस्तार तेजी से किया जा रहा था | जिस सेना के बूते
पर क्लाइव ने प्लासी का युद्द जीता था , उसमे 2100 भारतीय और 950 ब्रिटिश
सैनिक थे | पर 1790 के दशक में आते – आते कार्नवलिस के समय में सेना में
13 .500 ब्रिटिश सैनिको को मिलाकर सत्तर हजार सिपाही हो गये थे | रुसी
सेना के बाद उस समय यह विश्व की सबसे बड़ी सेना थी | 1826 में इसी सेना में
सिपाहियों की संख्या दो लाख इक्यासी हजार हो गयी थी जिनमे दस हजार पांच सौ
इकतालीस ब्रिटिश थे | 1857 में सैनिक विद्रोह के समय इसी सेना में तीन लाख
ग्यारह हजार तीन सौ चौहत्तर सैनिक थे , जिनमे मात्र पैतालीस हजार पांच सौ
बैस ब्रिटिश थे | 1914 में प्रथम महायुद्द के समय ब्रिटिश भारतीय सेना में
तेरह लाख भारतीय सिपाही थे | उनमे से एक लाख चालीस हजार पश्चिमी मोर्चे
में युद्दरत थे और सात लाख मध्यपूर्व में लड़ रहे थे | प्रथम महायुद्द में
सैतालिस हजार सात सौ छियालीस भारतीयों ने अपनी जाने गंवाई और पैसठ हजार एक
सौ छबीस भारतीय घायल हुए |
इसी प्रकार द्दितीय विश्वयुद्द में 25
लाख 80 हजार भारतीय सिपाहियों को झोक दिया गया जिसमे 87 हजार ने अपने प्राण
गवाए और इससे अधिक घायल हुए और सबका भार वहन करती रही दींन – दुखी भारतीय
जनमानस | और साम्राज्य की रक्षा में अपनी जान देने वाले इन भारतीयों में
कोई अफसर नही होता था | उनका वेतन भी अंग्रेज सिपाहियों के अनुपात में बहुत
कम होता था | इसी प्रकार भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ , जब असैन्य
प्रशासन में भी कोई भारतीय ऊँचे पद पर नियुक्त नही हुई | किसी भी नीति को
निर्धारित करने में भारतीयों की भागीदारी नही रही |
अकाल ही नही ,
प्लेग / महामारी . मलेरिया आदि रोगों भी भारत में प्रचुर मात्रा में होने
लगे | 1907 में में प्लेग से ही हर सप्ताह साथ हजार लोग मर रहे थे |
महामारी / प्लेग में उस वर्ष 20 लाख लोग मारे गये | 1901 – 11 के दशक में
स्थिति इतनी खराब थी की पंजाब की आबादी बढने की जगह 2.2 प्रतिशत घाट गयी
थी | एक अंग्रेजी लोक कथन में भारत की उस समय की अवस्था का वर्णन इस
प्रकार किया गया था –
Land of shit and filth and wogs
Gonorrea , syphilis , clap and pex
Memsahibs’ paradise, sodiers’ hell
India , for thee , fuking well
इस प्रकार भारतीय दुर्भाग्य , जो 1757 में प्लासी के युद्द से आरम्भ होकर
1849 में पंजाब के गोरो के शासन का भाग बनने पर स्थायित्व पा गया था , शेष
ब्रिटिश शासन काल में गुलामी , गरीबी और शोषण का प्रतीक बन गया था | बेकारी
युवको के जीवन का पर्याय बन गयी थी | यह अकारण नही था कि पंजाबी युवक सेना
की सेवा की और आकर्षित हुए | 1857 के सैनिक विद्रोह को जो भातीय
स्वतंत्रता के लिए किया गया प्रथम देशव्यापी युद्द था , ब्रिटिश साम्राज्य
ने कुचला था तो उसमे सिख सैनिको का विशेष योगदान था | तभी से अपनी कूटनीति
से इनको को मार्शल रेस कहकर अन्य वर्गो से उन्हें पृथक और विशिष्ठ बनाने
की झूठी कोशिश की थी | ‘’ फुट डालो और राज करो ‘’ की कूटनीति का अंग था यह
बढावा देना | इसी नीति का परिणाम था कि एक समय ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा
में रत लाखो सैनिको में चालीस पैतालीस प्रतिशत पंजाबी / सिख थे | वे न केवल
अंग्रेजी साम्राज्य के भारत में सुदृढ़ स्तम्भ थे वर्ण दक्षिण पूर्व एशिया
के देशो में भी ब्रिटिश हितो की रक्षा में सहायक थे | देश से बाहर जाकर
सिपाही के रूप में काम करना पंजाब की घुटन से निकलने जैसा था | अशिक्षित या
अल्पशिक्षित युवको को वह बेहतर जीवन जीने का अवसर लगता था | उन्नीसवी
शताब्दी के अंतिम दशक में 1897 में महारानी विक्टोरिया के शासन की हीरक
जयंती मनाई गयी थी |उसमे भाग लेने के लिए कुछ पंजाबी / सिख सैनिको को भी
चुना गया था | समारोह में भाग लेने के बाद उन सिपाहियों को ब्रिटिश
साम्राज्य के अन्य देश कनाडा की भी सैर कराई गयी थी | कनाडा का क्षेत्रफल
भारत के क्षेत्रफल से बहुत बड़ा था और जनसंख्या अत्यंत कम | पंजाब के इन
सैनिको को वहा की धरती , जहा खेती के लिए विशाल खेत उपलब्ध थे आकर्षक लगी |
वहा साधारण श्रमिक का दैनिक वेतन भी भारत में मिलने वाले वेतन से कई
गुना था | चूँकि कनाडा भी उस समय ब्रिटिश उपनिवेश था और भारतीय सैनिक भी
ब्रिटिश साम्राज्य की सेना के अंग थे , उन सैनिको पर्यटकों को लगा की कनाडा
में बसने का उन्हें पूरा अधिकार है | उसमे से कुछ्ह सैनिको ने सेवा –
निवृत्ति के बाद कनाडा में जाकर अपने भाग्य आजमाने का निर्णय लिया | इन
सैनको के अतिरिक्त यही समय था जब भारत से विवेकानन्द रामतीर्थ ने विश्व
धर्म संसद में 1896 में व्याख्यान देकर तहलका मचा दिया था | इन धर्म गुरुओ
ने अमेरिका की समृद्दी का जो गुणगान किया , उससे भी भारतीय युवक बहुत
प्रभावित हुए | इन घटनाओं के परिणाम स्वरूप उन्नीसवी शताब्दी में अंतिम
वर्षो में भारत से पंजाबी युवको का कनाडा – अमरीका गमन शुरू हुआ | आभार -- लेखक ----
वेद प्रकाश "वटुक '