Saturday, October 13, 2018

''नोटा'' पर मतदान : बौद्धिक विलासिता या आक्रोश विरोध का हथियार !!

''नोटा'' पर मतदान : बौद्धिक विलासिता या आक्रोश विरोध का हथियार !!



बिहार विधान सभा अध्यक्ष श्री विजय कुमार चौधरी का ''नोटा'' के विरोध में लिखा लेख 29 अगस्त के हिंदी दैनिक 'हिन्दुस्तान ' में प्रकाशित हुआ था | लेखक ने सभी पार्टियों प्रत्याशियों को नकार कर 'नोटा' के चुनावी बटन पर मतदान को बौद्धिक बिलासिता की उपज बताते हुए लेख की शीर्षक टिपण्णी में कहा है कि 'चुनाव किसी व्यक्ति के चयन के लिए होता है | किसी एक या सभी उम्मीद्व्वारो को खारिज कर देना तो चुनाव का उदेश्य नही हो सकता |' लेखक ने 27 सितम्बर 2013 को उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव में ''नोटा'' का विकल्प देने के निर्णय के बारे में बताने के साथ इसके विरोध में अपने तर्क प्रस्तुत किये है |
लेखक के अनुसार नो'नोटा के प्राविधान को लागू हुए लगभग पाँच वर्ष हो चुके है और इस बीच हुए लोकसभा व राज्यसभा चुनावों में 'नोटा' का इस्तेमाल अधिक से अधिक दो प्रतिशत लोगो ने किया है | साफ़ है कि 'नोटा' का विकल्प किसी समस्या अथवा परिस्थिति का समाधान नही हो सकता | यह केवल विरोध या आक्रोश प्रदर्शित करने का हथियार बन सकता है | उपर से चुनाव आयोग द्वारा इसे रद्द मतो की श्रेणी में रख देने से इसका कोई अर्थ नही रह जाता है | लेखक ने चर्चा के साथ कई प्रश्न खड़े किये है | उनका कहना है कि 'अगर नोटा विकल्प ही अधिकाश लोगो की पसंद बन जाए तो फिर चुनाव के नतीजे क्या होंगे ? आखिरकार इन्ही उम्मीदवारों में कोई अल्प मत के आधार पर जीतेगा , चाहे उसकी जमानत क्यों न जप्त हो जाए | चुनावों में अगर मतदाता उम्मीद्वाओ को चुनने के बजाए खारिज करते चले जायेंगे , तो यह प्रजातांत्रिक व्यवस्था चलेगी कैसे ?
बिहार विधान सभा के अध्यक्ष पद पर बैठे विजय कुमार चौधरी जी का यह सवाल उनके लिए सभी सत्ताधारियो एवं सत्तावादियो के लिए सौ फीसदी उचित है | यह सवाल सत्ता सरकारों से सर्वाधिक लाभ पाते उठाते धनाढ्य एवं सुविधा प्राप्त माध्यम वर्गीय के लिए भी उचित है | क्योकि इन सभी के लिए ही तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था भली भाँती चल रही है लेकिन यह सवाल बहुसंख्यक जनसाधारण के लिए कैसे सही या उचित हो सकता है . जिनके हितो के लिए वर्तमान चुनावी एवं जनतांत्रिक प्रणाली नकारा या लगभग नकारा बना दी गयी है |
इसके सबसे बड़ा परिलक्षण यह है कि अब इस चुनावी प्रणाली के अंतर्गत विभिन्न पार्टियों के जन प्रतिनिधि और उनकी केन्द्रीय व प्रांतीय सत्ता सरकारे व्यापक एवं बुनियादी जन समस्याओं को अर्थात बेरोजगारी , महगाई तथा शिक्षा स्वास्थ्य जैसी गंभीर समस्याओं को उपेक्षित करने में जुटी हुई है | वे तो अब इन्हें अपना प्रमुख मुद्दा ही नही मानती | उसकी जगह वे जन विरोधी आर्थिक नीतियों प्रस्तावों को चरणबद्ध रूप से लागू करते हुए विदेश तथा देश प्रदेश के धनाढ्य एवं उच्च वर्गो के स्वार्थी हितो की ही अधिकाधिक पूर्ति में लगी हुई है | इसके लिए तथा अपने सत्ता स्वार्थ की पूर्ति के लिए भी वे जनसाधारण को धर्म ,सम्प्रदाय ,जाति ,उपजाति तथा क्षेत्र , भाषा व लिंग के आधार पर विखंडित करती जा रही है | मुख्यत: इन्ही सामुदायिक पहचानो आधारों पर उनका चुनावी समर्थन तथा वोट लेने का प्रयास करती है |
इसके फलस्वरूप किसानो , मजदूरो , एवं अन्य शारीरिक , मानसिक श्रमजीवी जनसाधारण में इन सत्ताधारियों एवं सत्तावादियो द्वारा संचालित चुनाव प्रणाली और उसके जरिये चुने जाते रहे प्रतिनिधियों के प्रति बैठा विशवास एवं आशा लगातार टूटता रहा है | भले ही वह धर्म , जाति, क्षेत्र , भाषा आदि के आधारों पर विभिन्न पार्टियों , प्रतिनिधियों को चुनावी मत देता रहा है , किन्तु उसे अब किसी भी सत्ताधारी पार्टी के प्रति जनहित में काम करने का विशवास नही रह गया है |
जनसाधारण का यह टूटता विशवास स्वभावत: उसमे सत्ताधारी पार्टियों , दलों एवं जनप्रतिनिधियों के प्रति आक्रोश व विरोध को खड़ा कर देगा | उन्हें देर सबेर चुनावी मतदान में सभी पार्टियों के विरुद्ध मतदान करने के लिए भी तैयार कर देगा | साथ ही वह समस्याग्रस्त श्रमजीवी हिस्सों को देर सबेर धर्म , जाति, आदि के आधारों पर विखंडित करने की कूटनीतियों के विरोध में तथा शिक्षा स्वास्थ्य के कटते छटते जनतांत्रिक छुटो , अधिकारों के भी विरोध में मतदान के लिए जरुर प्रेरित करेगा | आम समाज के प्रबुद्ध एवं ईमानदार राजनीतिक सामजिक हिस्से इस विरोध को संगठित करने और उसे व्यक्त करने का भी प्रयास जरुर करेंगे और कर भी रहे है |
इसका थोड़ा सा आभास तो चौधरी साहब को भी है | उन्होंने अपने लेख में यह स्वीकार किया है कि ''नोटा'' का इस्तेमाल केवल विरोध व आक्रोश प्रदर्शित करने का हथियार बन सकता है ''| हालाकि उन्होंने इस बात पर कोई चिंता चर्चा नही की है कि आखिर लोग ''नोटा '' को अपने विरोध आक्रोश का हथियार क्योकर बनायेंगे ? और दो प्रतिशत लोग चुनावी प्रणाली के प्रति अपना विरोध क्यो जता रहे है ? हालाकि यही सवाल खुद उनके समझने और बताने लायक सवाल था | वे इस बात को सोचे या न सोचे , लेकिन सभी पार्टियों प्रत्याशियों को नकार कर ''नोटा'' पर मतदान के समर्थक , प्रचारक उसे जरुर सोचेंगे और बतायेंगे भी कि वर्तमान दौर की जनविरोधी अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय आर्थिक कुटनीतिक शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक नीतियों के विरुद्ध तथा उनको लागू करती रही सभी पार्टियों , प्रतिनिधियों के विरुद्ध सभी धर्म , जाति, क्षेत्र भाषा के बहुसंख्यक श्रमजीवी जनसाधारण के लिए ''नोटा'' एक कारगर हथियार बनाया जा सकता है प्रमुख नीतियों के विरोध में नोटा का इस्तेमाल स्वभावत: अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय धनाढ्य पुजीवान वर्गो के विरोध में भी जरुर जाएगा | क्योकि ये नीतिया उन्ही के स्वार्थी हितो को अधिकाधिक बढावा देने और जनसाधारण के हितो को काटने घटाने की नीतिया है | लेखक ने सवाल खड़ा किया है कि अगर ''नोटा '' का विकल्प अधिकाश लोगो की पसंद बन जाए तो ही चुनावी नतीजे में अल्पमत पाने वाला उम्मीदवार जीत जाएगा | उनकी यह बात एकदम ठीक है | लेकिन चौधरी जी इस बात को समझ सकते है कि अल्पमत पाकर जीते हुए प्रत्याशी आम जनता का प्रतिनिधि कहलाने और उसका समर्थन पाने का दावा एवं अधिकार भी गँवा बैठेगे | फलस्वरूप उनका प्रतिनिधित्व न केवल मूल्यहीन साबित हो जाएगा , बल्कि उसे जनविरोध का सामना भी करना पडेगा | इसके अलावा चुनावी मतदान पर इस चर्चा के साथ उन्हें ब्रिटिश काल के इतिहास भी जरुर देखना चाहिए | 1907 से पहले या सही मायनों में कहे तो 1919 से पहले जो भारतीय प्रतिनिधियों को सीमित मताधिकार के जरिये भी वायसराय एवं गवर्नर कौंसिल में चुने जाने का आधिकार नही था | उनके पास ब्रिटिश राज एवं उसकी नीतियों के प्रति आक्रोश विरोध एवं आन्दोलन ही एक मात्र हथियार था | उसी हथियार के बल पर उन्हें अन्य सवैधानिक अधिकारों के साथ वायसराय एवं गवर्नर काउन्सिल में जाने का अधिकार तथा 1937 में प्रांतीय सरकार बनाने का भी अधिकार हासिल था | अगर आज देश की सभी पार्टिया और उनकी सरकारे उन्ही साम्राज्यी देशो की पूंजियो तकनीको के साथ उनकी वैश्वीकरणवादी नीतियों के जरिये जनसाधारण की व्यापक एवं बुनियादी समस्याओं को तेजी से बढाती जा रही है , तो जनसाधारण अपना चुनावी मत उन पार्टियों , प्रत्याशियों को क्यो दें ? उन नीतियों के विरुद्ध अपने आन्दोलन की एक नयी शुरुआत क्यो न करें ? ? नीतियों के विरुद्ध ''नोटा'' पर मतदान के नारे के साथ सभी पार्टियों प्रत्याशियों को नकारने का आव्हान क्यों न करे ?
बहुत सम्भव है कि यह चुनावी विरोध एक आम जन विरोध की शक्ल अख्तियार कर लें | लोगो में जाति- धर्म , क्षेत्र की पहचानो से उपर उनके श्रमजीवी वर्ग की पहचान को अर्थात मजदुर , किसान एवं अन्य शारीरिक - मानसिक श्रमजीवी वर्ग की पहचानो को प्रमुखता से खड़ा कर दें | उनमे अपने सामुदायिक अंतरविरोधो के बावजूद वर्गीय आधार पर एकजुट होने की सजगता खड़ी कर दें | उन्हें जनविरोधी नीतियों एवं धनाढ्य व उच्च वर्गो के विरोध के साथ अपने व्यापक एवं बुनियादी हितो की माँगो को लेकर संगठित और आंदोलित होने की आवश्यकता व आधार खड़ा कर दें |
बताने की जरूरत नही है कि ऐसे किसी जनविरोध की स्थितियों - परिस्थितयो में ही जनहित की पार्टी एवं प्रतिनिधियों का उदय हो सकता है | ऐसे सच्चे एवं ईमानदार तथा संघर्षशील प्रतिनिधि खड़े हो सकते है जिन्हें आज की संघर्षविहीन स्थितियों में ढूढ़ कर उन्हें ''नोटा'' की जगह वोट देने और जनप्रतिनिधि बनाने की वकालत चौधरी जी द्वारा अपने लेख में किया गया है | फिलहाल आज की ऐसी स्थिति में जनहित में ऐसे विश्वनीय लोगो को ढूढना और उनको प्रतिनिधि बनाया जाना लगभग असम्भव है | लेकिन सभी पार्टियों नेताओं को उनके द्वारा लागू की जा रही जनविरोधी नीतियों के विरोध में ''नोटा'' पर मतदान के जरिये उन सभी को नकारा जाना एकदम सम्भव है | इस विरोध के लिए बहुसंख्यक जनसाधारण को खड़ा करना उनमे सीमित राजनीतिक एकजुटता बढ़ाना एकदम सम्भव है | जहाँ तक ''नोटा '' के वोटो को रद्द किये जाने की बात है , तो चौधरी जी को इस बात पर तो खुश ही होना चाहिए | उन्हें चिंता करने की जरूरत करने की जरूरत ही नही पड़नी चाहिए | इसके बावजूद वे चिंता - चर्चा कर रहे है , तो इसलिए की अगर ''नोटा'' पर बहुसंख्यक वोट धनाढ्य वर्गीय नीतियों के विरुद्ध पड़ गया तो किसी पार्टी के जनप्रतिनिधि के पास जनसाधारण में जाने तथा अपने आपको उनका प्रतिनिधि कहने का मुंह नही रह जाएगा | जनसाधारण को अपना प्रतिनिधि अपनी पार्टी बनाने का आधार व प्रोत्साहन मिल जाएगा | वस्तुत: इसी कारण सभी प्रमुख पार्टिया द्वारा ''नोटा '' को नकारत्मक कहकर इसका विरोध किया जा रहा है |

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-10-2018) को "कृपा करो अब मात" (चर्चा अंक-3125) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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