Saturday, November 10, 2018

काकोरी - क्रान्तितीर्थ भाग - दो

काकोरी - क्रान्तितीर्थ भाग - दो


भारत के क्रांतिकारी आन्दोलन की पृष्ठभूमि
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भारत में अंग्रेजी राज का इतिहास उनके छल और बल की कथा है तो वह हमारी यानी भारत के लोगो की कमजोरी , चरित्र की गिरावट के साथ उनके त्याग , तपस्या और बहादुरी की दास्ताँ भी है | 1600 ई. में इंग्लैण्ड में स्थापित ईस्ट इंडिया कम्पनी नाम की संस्था व्यापार करने भारत आई परन्तु हमारे आपसी द्देष तथा अन्य कमजोरियों का लाभ उठाकर भारत की शासक बन बैठी | 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतकर कम्पनी ने बंगाल की नबावी को अपनी मुठ्ठी में कर लिया और 1764 में बक्सर ( बिहार ) की लड़ाई में बंगाल के नवाब मीर कासिम और उनके सहायक मुग़ल सम्राट शाह आलम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला को हराकर बंगाल की दीवानी तो ले ही ली , उत्तर भारत की राजनीति में अपना सिक्का जमा लिया | धीरे धीरे साम -दाम - दंड और भेद से अंग्रेजो ने भारत के बहुत बड़े भूभाग को अपने अधिकार में ले लिया | 1856 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटाकर उनके राज्य पर कब्जा करके अंग्रेजो ने जोर - जबरदस्ती की सारी हदे पार कर दी| तब तक उनके व्यवहार , आचरण , नीतियों और कानूनों ने भारतीय समाज के लगभग सभी वर्गो को इतना नाराज कर दिया था कि उनका गुस्सा 1857 की क्रान्ति में फूट पडा | बड़ी कठिनाई से अंग्रेज उसे दबा पाए और 1858 में ईस्ट इंडिया कम्पनी को हटाकर ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया | ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज में प्रशासन की नीति कम्पनी के आर्थिक लाभ को ध्यान में रखकर तैयार की जाती थी , अब महारानी विक्टोरिया के राज्य में इंग्लैण्ड की पार्लियामेंट में बहुतमत पाने वाली पार्टी भारत सम्बन्धी नीति तय करती थी | जब इंग्लैण्ड की सत्ता पर लिबरल पार्टी ( उदारवादी पार्टी ) का अधिकार होता था तो भारत का प्रशासन नरम हो जाता था और जब कंजर्वेटिव पार्टी ( अनुदार दल ) का बहुमत होता था तो प्रशासन कठोर रुख अपनाता था और साम्राज्यवादी रवैया प्रबल हो उठता था | यह नीति महारानी विक्टोरिया के 1856 के घोषणा पत्र के विपरीत थी | 1857 की क्रान्ति के बाद जब सत्ता ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथ में ली तो ईंग्लैंड की महारानी ने एक घोषणा कि जिसमे बड़े स्नेहपूर्ण शब्दों में भारत के निवासियों को आशाजनक आश्वासन दिए गये थे | इस घोषणा का अंग्रेजी पढ़े - लिखे लोगो ने स्वागत किया | इसी वर्ग के लोगो का सहयोग लेकर ए.ओ . ह्युम ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी | ये वर्ग महारानी की घोषणा से कितना प्रभावित था , इसका अनुमान 1886 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी के भाषण से लगाया जा सकता है जिसमे उन्होंने कहा , ''मुझे यह दोहराने की आवश्यकता नही है कि वह यशस्वी घोषणा - पत्र हमारे हृदयों पर गहरे अक्षरों में अंकित है | किन्तु मैं समझता हूँ कि वह हमारी स्वाधीनता का ऐसा शानदार और यशस्वी चार्टर है कि प्रत्येक भारतवासी बच्चे को जो समझदार होकर अपनी मातृ- भाषा में तुतलाकर बोलना आरम्भ करे , उसे याद कर लेना चाहिए |''
1857 के बाद क्रान्ति का प्रथम विस्फोट
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यह तो रही घोषणा के 28 वर्ष बाद अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगो के एक वर्ग की प्रतिक्रिया | इसके विपरीत भारतवासियों का एक बड़ा वर्ग व्यवहार में अंग्रेज अधिकारियो की कार्यपद्धति , उनके दृष्टिकोण और नीतियों को घोषणा पत्र के पूर्णत: विरुद्ध पाता था | व्यापार , सरकारी नौकरियों न्याय व्यवस्था , इसाई धर्म के विषय में नीति , सभी क्षेत्रो में भारतीयों की अवमानना - घोषणा - पत्र के विपरीत उनका तिरस्कार , अंग्रेज सरकार के इरादों पे संदेह पैदा करता था | ऐसे असंतोष के वातावरण में 1896 में संयुकत प्रांत वर्तमान उत्तर प्रदेश , मध्य प्रांत बंगाल , मद्रास बिहार राजस्थान तथा वर्मा के उत्तरी भाग जो उस समय भारत का अंग था में अकाल पडा तो सरकार की लापरवाही से लगभग साढ़े सात लाख व्यक्ति काल के गाल में समा गये | इसी समय भारत में प्लेग से फैलने वाली एक जानलेवा बीमारी का प्रकोप हुआ | सरकार ने लोगो को कैम्प में रखने , घरो की सफाई कराने और टीका लगाने की योजना बनाई | परन्तु जनता को विशवास में न लेने के कारण लोगो के मन में यह बात बैठ गयी कि सारा जीवन आयोजन धर्म - परिवर्तन के लिए किया जा रहा है | दूसरी तरफ महाराष्ट्र के महान राष्ट्रवादी नेता लोकमान्य तिलक और उनके समाचार पत्र ''केसरी ' ने लोगो को इस बीमारी का बहादुरी और बुद्धिमानी से सामना करने को प्रेरित किया और रोग से बचने के उपाय बताये | इसी समय कुछ बाते ऐसी हो गयी जिनके कम से कम पश्चिम भारत का राजनीतिक वातावरण बहुत गरम हो गया | एक रात पूना के प्लेग कमिश्नर रैंड और लेफिटनेंट आयसट की हत्या हो गयी | उसकी जो रिपोर्ट आदि 'केसरी ' में प्रकाशित हुई , उस पर राजद्रोह के अपराध में मुकदमा चला और तिलक को 18 मॉस के कठोर कारावास की सजा दी गयी | अंग्रेज अधिकारियो की हत्या के आरोप में 1998 - 99 में एक ही माँ के तीन बेटो -- दामोदर हरि चापेकर , बालकृष्ण हरि चापेकर एवं वासुदेव हरि चापेकर तथा महादेव विनायक रानाडे को पूना में फाँसी पर चढा दिया गया | सौ वर्षो से अधिक समय बीत जाने के कारण हम इस घटना की महत्ता आज भी नही समझ पायेंगे परन्तु 1917 में 'उग्रवादी ( क्रांतिकारी ) आन्दोलन की जांच - पड़ताल के लिए नियुक्त ''रोलेट कमिशन '' ने इस घटना को '' भारतीय उग्रवाद '' का पहला विस्फोट बताया था |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
आभार - हमारा लखनऊ पुस्तक से

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-11-2018) को "छठ पूजा का महत्व" (चर्चा अंक-3152) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सादर प्रणाम आपको आपने मेरे लेख को स्थान दिया

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