Monday, October 14, 2019

लहू बोलता भी है

लहू बोलता भी है

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन भाग

उलेमाओं की राय थी की अब जो हालात है , उसके मुताबिक़ सिर्फ मुसलमानों के आन्दोलन से अंग्रेज को मुल्क से बाहर कर पाना मुश्किल ही नही बल्कि नामुमकिन है | इसी दौरान जालियाँवाला बाग़ के हादसे ने खुद - ब खुद हिन्दू मुसलमान को अंग्रेजो के खिलाफ एक जुट होकर लड़ने की जमीन तैयार कर दी | खिलाफत आन्दोलन के समय महात्मा गांधी के साथ ने भी दोनों कौमो के बीच की दुरी को बहुत हद तक कम कर दिया था | जमीअतुल - उलमा -ए - हिन्द ने भी अपने इजलास में साफ़ तौर पर कहा कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद दिन - पर दिन अपनी जड़े मजबूत करता जा रहा है | भारत के हिन्दू और मुसलमान ने अगर मिलकर आन्दोलन नही चलाया , तो अंग्रेजो को मुल्क से बाहर कर पाना नामुमकिन हो जाएगा | महात्मा गांधी ने हकीम अजमल खान को साथ लेकर जमीअतुल -उलमा -ए - हिन्द को आन्दोलन में साथ देने के लिए दावत दी , जिस पर जमात के लोगो ने हामी भर दिया | अब जमीअतुल - उलमा - ए - हिन्द और कांग्रेस ने कंधे - से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता - आन्दोलन में नई जान फूंक दी , लेकिन जब कभी इस्लामिक कानून का कोई पेचीदा मामला सामने आ जाता तब माहौल कुछ असहज हो जाता था | बाद में उसका भी रास्ता निकल जाता - जैसे कि नेहरु की रिपोर्ट , साइमन कमीशन , शुद्दी सगठन और शारदा एक्ट के सवाल पर जमात - ए - उलमा -ए - हिन्द ने मुखालिफत की थी | इस पर कांग्रेस रहनुमाओं ने कोई प्रतिक्रिया नही दी | जमीअतुल - उलमा -ए - हिन्द ने मुस्लिम इशु ( जैसे शरियत बिल , खुला बिल , काजी बिल ) पर कांग्रेस की हिमायत पाने में कामयाबी हासिल कर ली थी | सन 1908 - 1910 के बीच अलीगढ़ कालेज और देवबंद से आलमियत की शिक्षा हासिल किये छात्रो ने एक जमातुल - अंसार - एसोशियेशन बनाकर दोनों ख्यालो के लोगो को एक प्लेटफ़ार्म दिया ताकि ख्यालाती एख्तलाफ दूर करके सभी लोग जंगे - आजादी में पुरे जी जान से जुट सके | दारुल उलूम ( देवबंद ) में 1910 में एक बहुत बड़े जलसा -ए - दस्तारबंदी का एहेतामाम हुआ जिसमे तक़रीबन 30 हजार लोग शामिल हुए | इसकी खासियत एक वजह से और बढ़ गयी थी जब इस जलसे में आफताब अहमद खान की कयादत में अलीगढ़ कालेज के टीचरों और लडको का एक डेलिगेशन शामिल हुआ और हर मामले पर आपस में खुलकर बात हुई | जमातुल अंसार के बाद सन 1913 में एक तंजीम नजरतुल मारिफ के नाम से देहली में बनी | इसमें शेख - उल - हिन्द , मौलाना हुसैन अहमद मदनी , डा मोखतार अहमद अंसारी , नवाब वकारुल मुल्क , हकीम अजमल खान वगैरह शामिल हुए | इस तंजीम को सियासत से दूर खासतौर कुरआन की तालीम की तरक्की के लिए बनाया गया था | मुसलमानों में अब तक़रीबन हर तबका जंगे - आजादी में अपने नजरयाति एख्तलाफ को दूर करने के साथ चलने लगा था | इसी मुहीम में जामिया मिलिल्या इस्लामिया के लोग भी शामिल हुए | अंग्रेजो से लगातार किसी - न किसी महाज पर मुसलमानों की जंग जारी थी |मुजाहिदीन ने यंगिस्तान के दफ्तर को खबर कर दी की हथियारों के साथ खाने - पीने का सामान अब खत्म होने की कगार पर है | इसलिए फौरी तौर पर किसी जंग की गुंजाइश नही बन पा रही है | तब उलेमाओं ने मुस्लिम मुल्को से मदद के लिए कहा | इसके बाद मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी को काबुल भेजा गया और खुद शेख - उल - हिन्द इस्ताम्बुल गये |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
लहू बोलता भी है --- सैय्यद शाहनवाज कादरी

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-10-2019) को     "सूखे कलम-दवात"  (चर्चा अंक- 3489)   पर भी होगी। 
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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