मेहनतकशो का चहेता शायर :मख्दूम
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मेहनतकशो के चहेते इंकलाबी शायर मख्दूम मोहिउद्दीन का शुमार हिन्दुस्तान में उन शख्सियतो में होता है , जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी आवाम की लड़ाई में गुजार दी | उन्होंने सुर्ख परचम तले आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी की और आजादी के बाद भी उनकी ये लड़ाई असेम्बली व उसके बाहर लोकतांत्रिक लड़ाइयो से जुडी रही , आजादी की तहरीक के दौरान उन्होंने न सिर्फ साम्राजी अंग्रेजी हुकूमत से जमकर टक्कर ली बल्कि आवाम को सामंतशाही के खिलाफ भी बेदार किया | मख्दूम एक साथ कई मोर्चो पर काम कर सकते थे , गोया कि , किसान आन्दोलन ,
दरेड यूनियन , पार्टी और लेखक संघ के संगठनात्मक कार्य सभी में वे बढ़ --चढ़कर हिस्सा लेते और इन्ही मशरुफियतो के दौरान उनकी शायरी परवाज चढ़ी अदब और सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष रत नौजवानों में मखदूम की शायरी इन्ही जन संघर्षो के बीच पैदा हुई थी |
मख्दूम ने जागीरदार और किसान ,
सरमायेदार -- मजदूर , आका -- गुलाम और शोषक -- शोषित की कशमकश और संघर्ष को आपनी नज्मो में ढाला | ये वह दौर था जब किसान और मजदूर मुल्क में इकठ्ठे होकर अपने हुकुक मनवाने के लिए एक साथ खड़े हुए थे | मख्दूम की कौमी नज्मो का कोई सानी नही है | जलसों में जब कोरस की शक्ल में उनकी नज्मे गई जाती तो एक शमा बंध जाता , हजारो लोग आंदोलित हो उठते | मख्दूम की एक नही कई नज्मे
ऐसी है जो आवाम में समान रूप से मकबूल है मसलन हिन्दुस्तान की जय | '' वो हिन्दी नौजवान यानी अलम्बरदार-- ए -- आजादी \ वतन का पासबा वो तेग -- ए -- जौहर दार -- ए आजादी | उनकी नज्म ये जंग है जंग -- ए -- आजादी के लिए ने तो उन्हें हिन्दुस्तानी आवाम का महबूब और मकबूल शायर बना दिया | आज भी कही मजदूरों का कोई जलसा हो और उसमे इसे न गाया जाए ऐसा शायद ही होता है | नज्म की वानगी देखे -- '' लो सुर्ख सबेरा आता है आजादी का , आजादी का \ गुलनार तराना गाता है आजादी का , आजादी का \ देखो परचम लहराता है आजादी का '' , इन नज्मो से जब हजारो आवाजे समवेत होती है तो सभा गूंज उठती है , प्रगतिशील
लेखक संघ के संस्थापक , लेखक , संगठनकर्ता सज्जाद जहीर मख्दूम की नज्मो और दिलकश आवाज पर जैसे फ़िदा ही थे , लो सुर्ख सबेरा आता है ' की तारीफ़ में सज्जाद जहीर ने लिखा है | यह तराना हर हर उस गिरोह और मजमे में आजादी चाहने वाले संगठित आवाम के बढ़ते हुए कदमो की आहात , , उनके दिलो की पुरजोश धडकन और उनके गुलनार भविष्य की रंगीनी पैदा करता था जहा ये तराना उस जमाने में गाया जाता था | ''
4 फरवरी साल 1908 में तेलगाना क्षेत्र के छोटे से गाँव अन्दोल में पैदा हुए अबू सईद मोहम्मद मख्दूम मोहिउद्दीन कुद्री उर्फ़ मख्दूम के सिर से महज चार साल की उम्र में ही पिता का साया उठ गया | चाचा ने उनको पला पोसा | बचपन से संघर्ष का जो पाठ उन्होंने पढ़ा वह जिन्दगी
भर उनके काम आया | पढ़ाई पूरी करने के बाद मख्दूम नौकरी के लिए काफी भटके , आखिरकार हैदराबाद के सिटी कालेज में उर्दू पढ़ाने के लिए उनकी नियुक्ति हुई लेकिन उनका मन आन्दोलन और शायरी में ही ज्यादा रमता , गुलाम वतन में उनका दिल आजादी के लिए तडपता , किसानो और मजदूरो के दुःख -- दर्द उनसे देखे नही जाते थे | गुलाम हिन्दुस्तान में सामन्तीय निजाम की बदतरीम विकृतिया हैदराबाद में मौजूद थी | जाहिर है कि मख्दूम के सामने हालात बड़े दुश्वार थे और इन्ही हालातो में से उन्हें अपना रास्ता बनाना था | मख्दूम के युवाकाल का दौर वह दौर था जब मुल्क में ही नही दुनियावी स्तर पर उथल -- पुथल मची हुई थी | दुनिया पर न सिर्फ साम्राज्यवाद का खतरा मडरा रहा था | बल्कि
फासिज्म का खतरा भी सिर उठाने लगा था | हिन्दुस्तान के पढ़े -- लिखे नौजवान आजादी के साथ -- साथ ऐसे रास्ते की तलाश में थे जो समाजवाद की ओर ले जाए |उस वक्त मुल्क और दुनिया में साम्राज्यवाद और फासिज्म के नापाक गठजोड़ के खिलाफ तरक्की पसंद हलको के मोर्चे की बहुत चर्चा थी | जाहिर है कि मख्दूम भी इस मोर्चे की तरह आकर्षित हुए | लखनऊ के ग्रुप यानी प्र्ह्तिशील लेखक संघ से उनका मेल -- जोल बधा प्रलेस में आने के बाद मख्दूम की सोच में और निखार आया | उनकी कलम से साम्राज्यवाद विरोधी नज्म आजादी -- ए -- वतन वसामन्तवाद विरोधी हवेली , मौत के गीत जैसी रचनाये निकली | बहरहाल ,
मख्दूमके बगावती जेहन ने आगे चलकर उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी और आन्दोलनों की राह पर ला खड़ा किया | 1930 के दशक में हैदराबाद में कामरेड एसोसिएशन का गठन हुआ | मख्दूम इससे शुरू से जुड़ गये , कामरेड एसोसिएशन के जरिये मख्दूम कम्यूनिस्टो के सम्पर्क में आये |
1936 नव वव बाकायदा पार्टी मेंबर बन गये | हामिद अली खादरी , इब्राहिम जलीस , नियाज हैदर , शाहिद सिद्दीकी ,श्रीनिवास लाहौरी , कामरेड राजेश्वर राव , सैय्यद आजम , गुलाम हैदर मिर्जा और राजबहादुर गौड़ आदि के साथ आगे चलकर उन्होंने काम किया | 1939 में दुसरी
आलमी जंग छिड़ने के बाद मुल्क में मजदुर वर्ग के आंदोलनों में बड़ी तेजी आई | मख्दूम भी ट्रेड यूनियन आंदोलनों में शामिल हो गये | मजदूरो के बीच काम करने के लिए तो उन्होंने सिटी कालेज की नौकरी से इस्तीफा तक दे दिया और पूरी तरह से ट्रेड यूनियन की तहरीक से जुड़ गये | हैदराबाद की दर्जनों मजदुर यूनियन की रहनुमाई मख्दूम एक साथ किया करते थे | आगे चलकर वे 100 से ज्यादा यूनियनों के संस्थापक अध्यक्ष बने |
आलमी जंग की जब शुरुआत हुई तो मुल्क की आवामी तःरीको पर भी हमला हुआ | लेकिन इन हमलो ने तहरीक को कमजोर करने की बजाए और भी मजबूत किया | साम्राजी त्बाह्कारी और हिंसा व
अत्याचार के माहौल को फैज और मख्दूम ने अपनी नज्मो में बड़े पुरअसर अंदाज में अक्कासी की | साम्राजी जंग के दौर में मुश्किल से आधी दर्जन ऐसी नज्मे कही गयी होंगी जिनसे जंग की असल हकीकत वाजेह होती है और उनमे भी आधी से ज्यादा मख्दूम की है | मसलन जुल्फ - ए - चलीपा , सिपाही , जंग और अन्धेरा |
'' जंग ' पर उनकी तकीद . सिपाही ' नज्म के अन्दर देखिये -----
'' कितने सहमे हुए है नजारे \
कैसे डर -- डर के चलते है तारे \
क्या जवानी का खू हो रहा है \
सूखे है आंचलो के किनारे \
जाने वाले सिपाही से पूछो \
वो कहा जा रहा है ? ......
वही अपनी '' जंग '' नज्म में मख्दूम ने कहा '' निकले धाने टॉप से बरबादियो के राग --बागे
जहा में फ़ैल गयी दोजखो की आग | '' '' जंग '' नज्म उनकी महली सियासी नज्म
थी और फासिज्म के खिलाफ तो ये उर्दू शायरी की पहली सदा -- ए -- एहतेजाज थी |
आजादी की तहरीक के दौरान अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने के जुर्म
में मख्दूम कई मर्तबा जेल भी गये पर उनके तेवर नही बदले | अंग्रेजी सरकार का जब ज्यादा दबाव बना तो उन्होंने अंडर -- ग्राउण्ड रहकर पार्टी और यूनियनों का काम किया | हिन्दुस्तान की आजादी के बाद भी मख्दूम का संघर्ष खतम नही हुआ | आन्ध्रा में जब तेलगाना के लिए किसान आन्दोलन शुरू हुआ तो मख्दूम फिर केन्द्रीय भूमिका में आ गये | तेलगाना के सशस्त्र संघर्ष में उन्होंने प्रत्यक्ष भागीदारी की | आन्ध्रा और तेलगाना में किसानो को जागृत करने के लिए मख्दूम ने जमकर काम किया | यही नही बाद वे चुनाव भी लादे और कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट से असेम्बली भी
पहुँचे | मख्दूम अपनी उम्र के आख़री तक पार्टी की नेतृत्वकारी इकाइयों में बने रहे , मेहनतकशो के लिए उनका दिल धडकता था | मजदुर यूनियन ऐटक के जरिये वे मजदूरो के अधिकारों के लिए हमेशा संघर्षरत रहे | कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व अध्यक्ष कामरेड डांगे ने मख्दूम की शायरी के बारे में कहा था | '' मख्दूम शायरे इन्कलाब है मगर वह रूमानी शायरी से भी दामन नही बचाता बल्कि उसने जिन्दगी की इन दोनों हकीकतो को इस तरह जमा कर दिया है की इंसानियत के लिए मोहब्बत को इन्कलाब के मोर्चे पर डट जानी का हौसला है | ''
कुल मिलाकर मख्दूम मोहिउद्दीन ने न सिर्फ आजादी की तहरीक में हिस्सेदारी की बल्कि अपने तई साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया को भी आबाद किया | आवामी थियेटर में मख्दूम के गीत जाए जाते | किसान मजदूरो के बीच जब इन्कलाबी मुशायरे होते तो मख्दूम उसमे पेश -- पेश होते | अली सरदार जाफरी , जोश मलीहाबादी , मजाज , मजरुह सुलतान पूरी , कैफ़ी आजमी के साथ मख्दूम अपनी नज्मो से लोगो में एक नया जोश फूंक देते | उनकी आवामी मशरूफियत ज्यादा थी लिहाजा पढ़ना -- लिखना कम हो पाटा था लेकिन उन्होंने जितना भी लिखा , वह अदबी शाहकार है | सुर्ख सबेरा , गुले तर और बिसाते रक्श मख्दूम के काव्य संकलन है जिसमे उनकी नज्म व गजल संकलित है | मख्दूम की मशहूर नज्मे फिल्मो में इस्तेमाल हुई | जिन्हें आज भी उनके चाहने वाले गुन -- गुनाते है , मसलन , आपकी याद आती रही रात भर ( गमन ) फिर छिड़ी रात्बत फूलो की ( बाजार ) एक चमेली के मडवे तले | मेहनतकशो के शोषण और पीड़ा को आवाज देने वाले आवामी शायर मख्दूम ने २५ अगस्त 1969 को इस दुनिया से रुखसती ली | मशहूर फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने मख्दूम के बारे में क्या खूब कहा है "" मख्दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंठी बुँदे भी , वे क्रान्ति के आवाहक थे और पायल की झंकार भी | वे कर्म थे , प्रज्ञा थे , वे क्रान्तिकारी छापामार की बन्दूक थे और संगीतकार का सितार भी वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी | ''
प्रस्तुती सुनील दत्ता .....साभार--------जाहिद खान अभिनव कदम