Sunday, October 29, 2017

आजादी या मौत 30-10-17

गदर पार्टी --- पृष्ठभूमि
आजादी या मौत

तीस जून सत्रह सौ सत्तावन – हिन्दुस्तान के इतिहास में एक काला दिन भागीरथी नदी के तट पर बसा एक गाँव | पलाश – आम्र – कुंजो से घिरा | कोलकाता से डेढ़ सौ किलोमीटर उत्तर में बंगाल राज्य की राजधानी मुर्शिदाबाद से पच्चीस किलोमीटर दूर | पलाश पुष्पों से सुगन्धित पलाशी या प्लासी | इस गाँव में जुटती है दो सेनाये – बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब सिराजुद्द्दौला की सेना , अपने पचास हजार सैनिको और फ्रांसीसी तोपों के साथ | दूसरी और ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में इक्कीस सौ भारतीय और साधे नौ सौ ब्रिटिश सैनिको और एक सौ पचास तोपों के साथ || इस एक दिन के युद्द में जिसमे वर्षा के कारण फ्रांसीसी टोपे भीगकर नाकाम हो गयी थी , विजय क्लाइव और उसकी सेना की होती है – केवल सात यूरोपियन और सोलह भारतीयों की मृत्यु तथा तरेह यूरोपियन और छत्तीस भारतीयों के आहत होने के बाद | वास्तव में यह विजय ईस्ट इंडिया कम्पनी की उतनी नही थी जितनी भारतीयों की पराजय थी --- अपनी नीतियों के कारण सिराजुद्द्दौला को उसकी सेना के पदोंवनत सेनापति मीरजाफर ने एन वक्त पर धोखा दिया | यह सोलह हजार सैनिको का नेतृत्त्व कर रहा था | अंग्रेजो के लालच दिए जाने के कारण वह युद्द से बाहर रहा | आफी और सैनिक भी लालच दिए जाने के कारण वह लोग भी युद्द सी बाहर रहे | साथ ही अन्य लोग यार लतीफ , जगत सेठ अमीरचंद महाराजा कृष्णनाथ रावदुर्लभ आदि अंग्रेजो के प्रलोभन से निष्क्रिय हो गये |
भारतीय सैनिको में राष्ट्रीयता जैसी कोई भावना तो थी नही | जो भी उन्हें खरीद सकता था , खरीद लेता वास्तविकता तो यह है कि इस युद्द में ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक पैसा भी खर्च न हुआ | साढ़े नौ सौ यूरोपियन सैनिको को छोड़कर सारा खून दोनों और से भारतीयों का बहा | इस प्रकार पारम्परिक इर्ष्या शत्रुता विद्देश और नितांत स्वार्थपरता के कारण भारतीयों ने अपने गले में गुलामी की जंजीरे डालने में अंग्रेजो का साथ दिया |
फिर उस साम्राज्य का विस्तार देने तथा उसके सुद्रढ़ रहने में भी भारतीय सैनिको ने अपना खून बहाया | एक दिन के इस युद्द ने भारत को दुर्भाग्य के द्वार पर खड़ा किया और पश्चिम को भाग्योदय के पथ पर |
इस युद्द ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत का एक समृद्द प्रदेश दे दिया , शासन करने को | बंगाल उस समय भारत का सबसे धनी प्रदेश था | क्षेत्रफल में भी बड़ा | तीन करोड़ की आबादी का प्रदेश , उन्नत उद्योग – धंधे फलता – फूलता व्यापार , राज्यकोष को भरपूर मुद्रा देने वाला | बंगाल पर आधिपत्य होने के बाद अंग्रेजो ने जितनी भी नीतिया अपनाई – कृषि , उद्योग व्यापार सम्बन्धी , वे सब अपना घर भरने के लिए बेशर्मी से की गयी लूट की , इंग्लैण्ड के लिए धन बटोरने की जन – विरोधी थी | स्वंय क्लाइव ने बंगाल के खजाने को जी भर कर लुटा | कम्पनी के कर्मचारियों और अधिकारियों में नैतिकता नाम की कोई चीज न थी | नीच से नीच काम करने में उन्हें कोई हिचक नही थी | वचन देकर तोड़ना उनके लिए गिरगिट के रंग बदलने जैसा था | मीरजाफर को उन्होंने वचन दिया था , नया नवाब बनाने का | बनाया तो मात्र कोई बहाना बनाकर हटाने के लिए | उसके माध्यम से लुट को वैध बनाना ही उनका ध्येय था |
विश्व के और विशेत: भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था , जब विजयी शासक की कोई निष्ठा विजित प्रजा के हित – साधन में नही थी | अब तक जितने भी शासक आये थे , वे भारत में भारतीय बनकर रहे | उन्होंने जो भी निर्माण किया इस देश में किया | प्रशासन में अधिकाँश अधिकारी भारतीय रहे | किन्तु ब्रिटिश लोगो में भारत में भारतवासी बनकर रहने की कोई इच्छा न थी , भारत उनके लिए व्यापार की एक मंदी था , अपना कैरियर बनाने का एक सुनहरा अवसर था | यहाँ वे कुछ ही समय में मालामाल होकर वापिस इंग्लैण्ड में जाकर एशो आराम की जिन्दगी बसर करने के लिए आते थे | भारत उनके जीवन का अस्थायी पडाव था | पहली बार भारत वास्तव में एक दुसरे देश का गुलाम बना | जहा उसके भाग्य का निर्णय उसकी धरती पर न होकर सात समन्दर पार ब्रिटेन की संसद में होता था | उन लोगो द्वारा जिनकी निष्ठा अपने देश को स्वंय को उन्नत करने में थी | भारत में की गयी लुट उसका साधन थी |
अंग्रेजो के आगमन से पूर्व भारत के गाँव अपने आप में एक स्वायत्त इकाई थे |
उनकी आर्थिक – सामाजिक – सांस्कृतिक सरचना पर शासको के बदलने का कोई विशेष प्रभाव नही होता था | वे केन्द्रीय शासन – परिवर्तन के प्रति उदासीन थे | उनका मूलमंत्र था , ‘’ को नृप होय हमे का हानि ‘ |
अंग्रेजी शासन ने उनकी वह तंद्रा तोड़ दी |
कम्पनी की अनेक नीतियों में जो दूरगामी परिणामो की जनक थी , शायद सबसे क्रूर नीति थी – व्यापार पर अपना सम्पूर्ण प्रभुत्व जमाना | कम्पनी ने अपने शासित प्रदेश में और शासित प्रदेश से किये जाने वाले व्यापार करने के लिए स्वंय को आयात – निर्यात शुल्क में पूर्णत: मुक्त कर लिया | साथ ही अनेक वस्तुओ के उत्पादकों को धमकी दी कि यदि वे कम्पनी के साथ व्यापार सम्बन्ध रखते है तो और किसी को अपनी उत्पादित वस्तु नही बेचेगे | अनेक बार कम्पनी की आवश्यकताओ से अधिक पैदा हुई वस्तु की फसल को खेतो में ही जला दिया जाता | करी – मूल्य का निर्धारण भी उसी के हाथ में था | बाहर से ( विशेषत: ब्रिटेन से ) आयातित वस्तुओ का विक्रय मूल्य भी वही तय करते | इस प्रकार व्यापार भी एक वृहद् लूट का साधन बन गया उस लुट से समर्थित ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप जब इंग्लैण्ड में मिल स्थापित होने लगा , तो बंगाल के वस्त्र उद्योग की भारी हानि हुई | बंगाल के कारीगरों द्वारा बुना गया कपड़ा विषभर में श्रेष्ठ माना जाता था | ब्रिटेन के घर – घर में उसकी खपत थी | मिलो को सहयोग देने का अर्थ था उस उन्नत गृह – उद्योग को योजनाबद्द तरीके से बर्बाद करना | वही हुआ भी | कम्पनी की नीति के कारण कुछ ही वर्षो में प्रदेश श्रेष्ठ वस्त्रो के निर्यात करने वाले प्रांत के स्थान पर कच्चे माल को पैदा करने वाला स्थान बनकर रह गया | कम्पनी का लाभ दुगना हो गया | कच्चा माल वह मनमानी कम कीमत पर खरीदती और ब्रिटेन में बुने मिल के कपड़ो को स्वंय निर्धारित मूल्य पर बेचती | भारतीय उद्योगों को किस प्रकार योज्नाब्द्द्द नष्ट किया गया गया इसका हृदय विदारक विवरण पंडित सुन्दरलाल की पुस्तक ‘ भारत में अंग्रेजी राज ‘ में विस्तार से दिया गया |
अगर व्यापार नीति भारत के लिए इतनी घातक थी , तो कृषि – नीति ने तो परम्परागत ग्रामीण समाज की कमर तोड़ दी | अंग्रेजो के आगमन से पहले राजाओं द्वारा जो कर के रूप में धन उगाहा जाता था , वह उपज का एक निश्चित अंश होता था | अकाल या पैदावार कम होने पर किसान पर आयकर का बोझ नही पड़ता था या कम हो जाता था | किन्तु 1793 में तत्कालीन गवर्नर जनरल कार्नवलिस ने स्थायी रूप से भूमिकर निश्चित कर दिया | खेती में हुई लाभ – हानि का उस कर की राशि से कोई सम्बन्ध न था | फसल की हानि से अंग्रेजो को कुछ लेना – देना न था | अगर कोई किसान कृषि कर देने में सक्षम नही होता , तो उसकी जमीन नीलाम कर दी जाती | प्राय: वह जमीन नगर में रहने वाले अमीर लोग खरीद लेते | इस प्रकार अनुपस्थित जमीदारो का एक नया वर्ग पैदा हो गया | अपने नियुक्त किये प्रतिनिधियों से वे उनके द्वारा खरीदी गयी जमीनों पर खेती करने वाले काश्तकारों से मन – मना लगान वसूल करवाते | कभी – कभी भूमि स्वामियों को लगान देने के लिए महाजनों से ऊँची व्याजो पर ऋण लेना पड़ता | इस प्रक्रिया में सूदखोरों की एक नयी जमात पैदा हो गयी | सूद इतना अधिक हो जाता कि अंत में किसानो को अपनी गिरवी रखी भूमि को छुडाना असम्भव हो जाता | इस प्रकार बहुत से किसान भूमिहीन श्रमिक हो गये – भयंकर शोषण के शिकार हो गये |
जो जमीन इस व्यवस्था में यूरोपियन गोरो के कब्जे में आ गयी उसको उन्होंने खाद्यान के स्थान पर जूट , नील कपास या चाय – काफी के विशाल बागो में बदल दिया | इससे उन्हें विपुल आर्थिक लाभ होने लगा | कमाया धन इंग्लैण्ड भेजा जाने लगा | आवश्यक खाध्यान्न की कमी होती गयी | खाद्यान्न की कमी होने का एक और कारन यह था कि फसल काटने पर गोर व्यापारी सस्ते दामो में उसे खरीदकर वर्मा आदि अन्य देशो में भेज देते और फिर जरूरत होने पर मंगाकर ऊँचे दामो में बेच देते | किसान को लगान देने के लिए बेचनी पड़ती | गोरो को खरीदने – बेचने में दुगना लाभ होता | इन नीतियों का दुष्परिणाम था लगभग हर दस वर्ष में एक बार अकाल पढ़ना | ब्रिटिश साम्राज्य का 1757 से आरम्भ हुआ विस्तार 1849 में अपनी पराकाष्ठा पर पहुचा , जब पंजाब पर गोरो का आधिपत्य हो गया |
उन्नीसवी शताब्दी के उतराद्ध में जबसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की पूर्ण स्थापना हुई भारत में साथ बार भयकर अकाल पडा | 1853 – 54 , 1865 – 66 1876 – 78 , 1888 – 89 , 1891 ,92, 1896 – 97 और 1899 – 1900 में | सबसे भयकर अकाल 1876 – 78 में पडा | बैस महीनों की अकाल की अवधि में साढ़े तीन लाख लोगो की मृत्यु हुई | मद्रास प्रेसिडेंसी में ही उसके जनपदों में साढे तीन लाख लोगो की मृत्यु हुई | अकालो की यह श्रृखला भारत के 1947 में स्वतंत्र होने के पांच वर्ष पूर्व तक रही , जब 1942 -43 में बंगाल के दुर्भिक्ष में 90 लाख लोगो की मौत हुई जबकि जमाखोरों के गोदामों में अनाज भरा पडा सड़ रहा था |
अगर एक और इन सब नीतियों के कारण भारत निरंतर दरिद्र हो रहा था | तो दूसरी और साम्राज्य विस्तार के लिए और उसको सुदृढ़ करने को सेना का विस्तार तेजी से किया जा रहा था | जिस सेना के बूते पर क्लाइव ने प्लासी का युद्द जीता था , उसमे 2100 भारतीय और 950 ब्रिटिश सैनिक थे | पर 1790 के दशक में आते – आते कार्नवलिस के समय में सेना में 13 .500 ब्रिटिश सैनिको को मिलाकर सत्तर हजार सिपाही हो गये थे | रुसी सेना के बाद उस समय यह विश्व की सबसे बड़ी सेना थी | 1826 में इसी सेना में सिपाहियों की संख्या दो लाख इक्यासी हजार हो गयी थी जिनमे दस हजार पांच सौ इकतालीस ब्रिटिश थे | 1857 में सैनिक विद्रोह के समय इसी सेना में तीन लाख ग्यारह हजार तीन सौ चौहत्तर सैनिक थे , जिनमे मात्र पैतालीस हजार पांच सौ बैस ब्रिटिश थे | 1914 में प्रथम महायुद्द के समय ब्रिटिश भारतीय सेना में तेरह लाख भारतीय सिपाही थे | उनमे से एक लाख चालीस हजार पश्चिमी मोर्चे में युद्दरत थे और सात लाख मध्यपूर्व में लड़ रहे थे | प्रथम महायुद्द में सैतालिस हजार सात सौ छियालीस भारतीयों ने अपनी जाने गंवाई और पैसठ हजार एक सौ छबीस भारतीय घायल हुए |
इसी प्रकार द्दितीय विश्वयुद्द में 25 लाख 80 हजार भारतीय सिपाहियों को झोक दिया गया जिसमे 87 हजार ने अपने प्राण गवाए और इससे अधिक घायल हुए और सबका भार वहन करती रही दींन – दुखी भारतीय जनमानस | और साम्राज्य की रक्षा में अपनी जान देने वाले इन भारतीयों में कोई अफसर नही होता था | उनका वेतन भी अंग्रेज सिपाहियों के अनुपात में बहुत कम होता था | इसी प्रकार भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ , जब असैन्य प्रशासन में भी कोई भारतीय ऊँचे पद पर नियुक्त नही हुई | किसी भी नीति को निर्धारित करने में भारतीयों की भागीदारी नही रही |
अकाल ही नही , प्लेग / महामारी . मलेरिया आदि रोगों भी भारत में प्रचुर मात्रा में होने लगे | 1907 में में प्लेग से ही हर सप्ताह साथ हजार लोग मर रहे थे | महामारी / प्लेग में उस वर्ष 20 लाख लोग मारे गये | 1901 – 11 के दशक में स्थिति इतनी खराब थी की पंजाब की आबादी बढने की जगह 2.2 प्रतिशत घाट गयी थी | एक अंग्रेजी लोक कथन में भारत की उस समय की अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया गया था –
Land of shit and filth and wogs
Gonorrea , syphilis , clap and pex
Memsahibs’ paradise, sodiers’ hell
India , for thee , fuking well
इस प्रकार भारतीय दुर्भाग्य , जो 1757 में प्लासी के युद्द से आरम्भ होकर 1849 में पंजाब के गोरो के शासन का भाग बनने पर स्थायित्व पा गया था , शेष ब्रिटिश शासन काल में गुलामी , गरीबी और शोषण का प्रतीक बन गया था | बेकारी युवको के जीवन का पर्याय बन गयी थी | यह अकारण नही था कि पंजाबी युवक सेना की सेवा की और आकर्षित हुए | 1857 के सैनिक विद्रोह को जो भातीय स्वतंत्रता के लिए किया गया प्रथम देशव्यापी युद्द था , ब्रिटिश साम्राज्य ने कुचला था तो उसमे सिख सैनिको का विशेष योगदान था | तभी से अपनी कूटनीति से इनको को मार्शल रेस कहकर अन्य वर्गो से उन्हें पृथक और विशिष्ठ बनाने की झूठी कोशिश की थी | ‘’ फुट डालो और राज करो ‘’ की कूटनीति का अंग था यह बढावा देना | इसी नीति का परिणाम था कि एक समय ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा में रत लाखो सैनिको में चालीस पैतालीस प्रतिशत पंजाबी / सिख थे | वे न केवल अंग्रेजी साम्राज्य के भारत में सुदृढ़ स्तम्भ थे वर्ण दक्षिण पूर्व एशिया के देशो में भी ब्रिटिश हितो की रक्षा में सहायक थे | देश से बाहर जाकर सिपाही के रूप में काम करना पंजाब की घुटन से निकलने जैसा था | अशिक्षित या अल्पशिक्षित युवको को वह बेहतर जीवन जीने का अवसर लगता था | उन्नीसवी शताब्दी के अंतिम दशक में 1897 में महारानी विक्टोरिया के शासन की हीरक जयंती मनाई गयी थी |उसमे भाग लेने के लिए कुछ पंजाबी / सिख सैनिको को भी चुना गया था | समारोह में भाग लेने के बाद उन सिपाहियों को ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य देश कनाडा की भी सैर कराई गयी थी | कनाडा का क्षेत्रफल भारत के क्षेत्रफल से बहुत बड़ा था और जनसंख्या अत्यंत कम | पंजाब के इन सैनिको को वहा की धरती , जहा खेती के लिए विशाल खेत उपलब्ध थे आकर्षक लगी | वहा साधारण श्रमिक का दैनिक वेतन भी भारत में मिलने वाले वेतन से कई गुना था | चूँकि कनाडा भी उस समय ब्रिटिश उपनिवेश था और भारतीय सैनिक भी ब्रिटिश साम्राज्य की सेना के अंग थे , उन सैनिको पर्यटकों को लगा की कनाडा में बसने का उन्हें पूरा अधिकार है | उसमे से कुछ्ह सैनिको ने सेवा – निवृत्ति के बाद कनाडा में जाकर अपने भाग्य आजमाने का निर्णय लिया | इन सैनको के अतिरिक्त यही समय था जब भारत से विवेकानन्द रामतीर्थ ने विश्व धर्म संसद में 1896 में व्याख्यान देकर तहलका मचा दिया था | इन धर्म गुरुओ ने अमेरिका की समृद्दी का जो गुणगान किया , उससे भी भारतीय युवक बहुत प्रभावित हुए | इन घटनाओं के परिणाम स्वरूप उन्नीसवी शताब्दी में अंतिम वर्षो में भारत से पंजाबी युवको का कनाडा – अमरीका गमन शुरू हुआ |


 प्रस्तुती -- सुनील दत्ता  --- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक



आभार ----------- लेखक --- वेद प्रकाश ' वटुक '

Saturday, October 28, 2017

अतीत को खगालता - लीडराबाद

अपना शहर मगरुवा

अतीत को खगालता - लीडराबाद
माले मुफ्त दिले बेरहम - बड़े गजब के लोग बैठते थे लीडराबाद में
लीडराबाद के शिरोमणि --
स्व तहसीलदार पाण्डेय स्व कृष्ण पाल सिंह स्व कपिलदेव सिंह स्व राकेश उपाध्याय और अब है कैलाश पाण्डेय ..........
आजमगढ़ का वैभव बड़ा ही अच्छा रहा है और यह धरती ऋषि मुनियों की ताप स्थली के साथ ही सामाजिक और राजनितिक इतिहास से भी प्रबल है | इसी कड़ी में आज आपको ले चलते है कलेक्ट्री कचहरी के पास सिविल लाइन पुलिस चौकी के पीछे श्रीराम काफी हाउस ( लीडराबाद ) इसको स्थापित करवाया कुम्भन दास जी ने कुम्भन दास जी गिरधर दास अग्रवाल के बेटे थे और मऊ के रहने वाले थे | उन्ही के द्वारा यह जगह 1953 में श्रीराम हलवाई को होटल खोलने के लिए दिया गया | श्रीराम हलुवाई ने अपने मेहनत और ईमानदारी से लोगो के दिल में जगह बनाई | जब मैं काफी हाउस आज का लीडराबाद पहुचा तो देखा रोज की तरह मगरुवा बैठा है मैंने उससे हालचाल पूछा उसने जबाब दिया सब ठीक है तब मैंने बड़े प्यार से कहा कि भाई मगरू जी कुछ इसके बारे में बताये मगरू अतीत की यादो में खो गया ------- और उसकी वाणी से निकल पडा काफी हाउस से बना लीडराबाद का संस्मरण -- सन 53 के बाद से ही यह काफी हॉउस प्रदेश और देश की राजनीत का चर्चा का केंद्र बन गया | इस जगह पर आजमगढ़ के बड़े दिग्गज राजनेता अपना अखाड़ा जमाते सुबह 9 बजे के बाद से ही यहाँ पर अपना अखाड़ा जमाते थे और यह बहस शाम ढलने तक चलती थी | जिले में जितने बड़े नेता हुए यह अपनी जवानी के दिनों में यही से राजनीत करते थे इस जगह पर वामपंथी धारा के कामरेड जय बहादुर सिंह , कामरेड तेज बहादुर सिंह , कामरेड झारखडे राय कामरेड चन्द्रजीत यादव जो बाद में कांग्रेसी हो गये , बाबू त्रिवेणी राय व् तमाम कम्युनिस्ट नेता बैठते थे ,वही पर युवा तुर्क के अजीज साथी आदरणीय रामधन जी ,कांग्रेसी नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व कल्पनाथ राय , पूर्व सांसद स्व राजकुमार राय , शिक्षक विधायक स्व पंचानन राय , पूर्व मंत्री शम्भु सिंह , स्व छागुर राम , पूर्व मंत्री स्व रामप्यारे सिंह , स्व बाबू बृज भूषण लाल श्रीवास्तव , स्व त्रिपुरारी पूजन प्रताप सिंह उर्फ़ बच्चा बाबू पूर्व ब्लाक प्रमुख गोरख़ सिंह , बाबू राम कुवर सिंह संन 1948 से ही ठीकेदारी करने वाले स्व लालता सिंह , मझगावा के स्व रज्जू सिंह हीरापट्टी के बाबू स्व अक्षयबर सिंह और कोयलसा के स्व बाबु भृगुराज सिंह सहकारिता आन्दोलन के सजग प्रहरी बाबु रामकुवर सिंह जैसे जिले के मानिद लोगो की यहाँ पर राजनीत की महफिल सजती थी | अलग - अलग टेबल पर अलग धाराओं की जबर्दस्त चर्चा होती थी कभी - कभी यह चर्चा इतना उग्र रूप धारण करती थी लगता था कि अब नही तब झगड़ा हो जाएगा | यह भी कहा जा सकता है श्रीराम काफी हाउस राजनितिक अडी के लिए जाना जाता था और आज भी है | इन नेताओं की पसंदीदा डिश '' कलेजी - कबाब - मखन्न ब्रेड और ख़ास नीबू की काली चाय तब का जमाना सस्ती का था उस समय वह पर 40 पैसे में गरम् छोला , आठ आने में गुलाब जामुन पेडा , शाही टुकडा , मीठी बुनिया 40 पैसे में दहीबड़ा इसके साथ ही उस समय पाँच रूपये प्लेट कलेजी -- मटन और पचास पैसे में कबाब मिला करता था इन सबके शौक़ीन यहाँ बैठने वाले सारे लोग थे | मगरू ने कहा एक बार तहसीलदार पाण्डेय अपने साथियों के साथ यहाँ बैठे थे एक अखबार लेकर परम मित्र सुनील राय जी वहाँ पहुच कर पाण्डेय जी को कैलाश पाण्डेय समझकर उनसे कहा क्या पाण्डेय जी मेरे खिलाफ आपने समाचार दिया है तब तहसीलदार पाण्डेय ने कहा ऐसी कोई बात नही तभी सुनील राय जी उनको अखबार दिखाने लगे पूरा समाचार पढने के बाद उन्होंने कहा राय साहब मैं कैलाश पाण्डेय नही हूँ यह समाचार तो कैलाश पाण्डेय ने दिया है | तभीवहाँ पर बैठे एक नेता ने कहा कि यह क्या नेतागिरी करेंगे जब आदमी पहचान नही सकते ?
यहाँ पर बैठने वाले दो नेता शशी राय और यादवेन्द्र ऐसे नेता है जिन्होंने सारा जीवन खाने की राजनीत की एक संस्मरण इनका -- संसद का सेन्ट्रल हाल लंच के समय खचाखच भरा हुआ था और यह दो फक्कड और घुमक्कड़ अवैध रूप से घुसकर वहाँ सूप पी रहे थे , थोड़ी देर बाद पूर्व सांसद डा संतोष सिंह भी वहाँ लंच करने के इरादे से गये थे | वहाँ पर एक भी कुर्सी खाली नही थी , उन्होंने चारो तरफ नजर दौड़ाई तो देखा आजमगढ़ के दो फटीचर नेता शशी प्रकाश राय और यादवेन्द्र सिंह बैठकर सूप पी रहे है उन्होंने वेटर से पूछा यहाँ अनाधिकृत लोग कैसे बैठे हुए है , तो वेटर ने जबाब दिया सभी माननीय सांसद सदस्य जी है , तब डा सन्तोष सिंह जी ने शशी प्रकाश राय और यादवेन्द्र सिंह की तरफ इशारा करके कहा कि यह आजमगढ़ के दो फटीचर सांसद है क्या ? यह दोनों डर के मारे सूप छोडकर भगे कि कही प्राथमिकी दर्ज न हो जाए और संसद के बाहर आकर चिल्ला चिल्ला कर कहने लगे सांसद होने का मतलब यह नही की कार्यकर्ताओं को सूप भी न पीने दे | इन दोनों महानुभावो ने पूरा जीवन किसी व्यक्ति की समीक्षा में इस बात पर तौला की उसने इन दोनों को कितना खिलाया | जिले के एक ऐसे काग्रेसी नेता बीरभद्र प्रताप सिंह जी भी अनोखे थे इनकी एक घटना बकौल यादवेन्द्र सिंह वो अक्सर चर्चा करते थे भारतवर्ष के किसी पूर्व सांसद के रूप में संसद की सुविधाओं का माले - मुफ्त - दिले बेरहम को जैसा चरितार्थ किया उसकी आजाद भारत में दूसरा कोई मिशाल नही है | समूचे संसद सत्र के दौरान वह सोमवार से शुक्रवार तक यूपी भवन में मुफ्त में रुकते और संसद भवन के कैंटीन में मुफ्त का भोजन करते | दार्शनिको की तरह यादवेन्द्र सिंह बोलते है कि शुक्रवार को कैंटीन से चावल ब्रेड मखन्न , अंडे इत्यादि जो की संसद की कैंटीन में न्यूनतम दामो में प्राप्त होता था , उसको ले आकर सूटकेस में भरते थे और वो भरी सूटकेस को ढोने के लिए मुझे या शशी प्रकाश राय को दिल्ली ले जाते थे , एक बार सूटकेस ज्यादा भारी होने पर मैंने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उनके सूटकेस को पटक दिया और सूटकेस खुल गया मैंने देखा की इसमें चावल ब्रेड अंडे इत्यादि बिखरे है | इन्होने रेलवे पुलिस को गुहार लगाई मुझे पकड़ने के लिए और मैं पतली गली से सरक लिया | वैसे बीरभद्र जी के बहस का मुख्य विषय छिनारपंन होता था , और खूटी पर टंगी साडी दिख जाए तो वे उधर दौड़ लगा देते थे | इसी चर्चा में एक और अनोखी चर्चा एक बार भाजपा नेता श्याम नरायन सिंह के साथ बाबू शिवनाथ सिंह लखनऊ की रेल यात्रा कर रहे थे |, शिवनाथ भाई को यह मालूम नही था कि नेता श्याम नरायन सिंह कभी टिकट लेकर नही चलते उस यात्रा में बाराबंकी - बादशाह नगर के बीच में रेलवे के विजिलेंस जाँच के दौरान श्याम नरायन सिंह बाथरूम में घुस गये विजलेंस के अधिकारी ने उनको बाथरूम से निकला व उनसे टिकट माँगा टिकट ना होने पर उसने इन्हें दो तमाचा मारा और सौ बार कान पकडकर उठक -- बैठक करवाया हर्जाना भरने के बाद यह बीजेपी कार्यालय गये और वहाँ पर बोकरादी पेल रहे थे कि मैं तो शिवनाथ सिंह के चक्कर में फंस गया उन्हें नही मालुम था कि शिवनाथ सिंह उनके पीछे खड़े है उन्होंने श्याम नरायण सिंह के कंधे पर थपकी मरकर कहा की श्याम नरायण तुमने टिकट ही कब लिया था तुम तो बिना टिकट यात्रा करने में माहिर हो | श्रीराम काफी हॉउस के तीन शिरोमणि थे , बैठोली के कपिलदेव सिंह , तहसीलदार पाण्डेय और कांग्रेसी नेता कपिलदेव सिंह बकौल कांग्रेसी मगरू ने चर्चा करते हुए कहा कि शिक्षक नेता मुन्नू यादव जी बहुत बार चर्चा करते है हीरापट्टी के नाते सुरेन्द्र सिंह के साथ वो तालकटोरा के राष्ट्रीय अधिवेशन में में पुराने अधिवेशन का पास लेकर घुस गये सुरक्षा गर्दो ने कोई ध्यान नही दिया अन्दर घुस कर उन्होंने गर्दो से कहा की मैं पूर्व मंत्री हूँ और वही अन्दर से ही उन्होंने नाते सुरेन्द्र सिंह को बुलाया और कहा ये भी मेरे साथ है | अधिवेशन के बाद बकौल मुन्नू यादव् ने बोला उस अधिवेशन में सोनिया जी रात्र का भोजन अपने यहाँ दस जनपथ में आयोजित किया था उक्पिल्देव सिंह ने मुन्नू यादव से बोला चलो मेरे साथ तुम सोनिया जी के यहाँ रत्रिभोजन में मुन्नू ने कहा की वहाँ अन्दर कैसे जायेंगे उन्होंने कहा चलो अंदर चले जायेंगे वहाना पहुचकर वो कुछ देर इन्तजार किये तभी वह पर केन्द्रीय मंत्री राजेश पायलेट आ गये वो तुरंत आगे बढ़े उन्होंने पायलेट जी से बोला आपने कृषि नीति पर जबर्दस्त बोला है इसकी चर्चा पुरे देश में हो रही है और उनका हाथ पकडकर अन्दर चले गये अंदर पहुच कर मुन्नू से बोले मुन्नू देशी घी से बोला रोटी मत खाना बस देशी घी से तला देशी मुर्गा और तली मछली खाना ऐसे वीर थे कपिलदेव सिंह में एक बात और थी वो जब भी किसी की पैरवी करते तो वो हमेशा अपनी गाडी में दस लीटर पेट्रोल भरवाते उससे जिसकी पैरवी करने जाना होता था और उसी से पाँचगिलास मोसम्मी का जूस भी पीते -- इस लीडराबाद के शिरोमणियो में कृष्ण पाल सिंह और राकेश उपाध्याय यह दोनों ही अदभुत प्राणियों में से एक थे राकेश उपाध्याय की बात करते हुए मगरू ने कहा एक बार शिबली कालेज के अध्यक्ष बीरेंद्र सिंह बुलडाग के यहाँ एक समारोह में राकेश नेता गये रात्रि विश्राम के बाद सुबह तडके ही मनौती के लिए एक बकरा बंधा था उनके दरवाजे पर राकेश ने उसकी रस्सी खोल ली और फुर्र हो गये | करतारपुर से लेकर पहाडपुर तक आ गये अचानक बुलडाग की नीद खुली उन्होंने देखा खूटी से बकरा गायब है वो तुरंत समझ गये की यह काम राकेश उपाध्याय का है वो तुरंत अपनी मोटर साइकिल से उनको खोजते हुए पहाडपुर तक आये उन्होंने देखा की राकेश उपाध्याय के हाथो में बकरे की रस्सी है उन्होंने उस रस्सी को प्राप्त करने के लिए राकेश को सौ रूपये दिए तब उन्हें बकरे की रस्सी मिली | १९८५ में डा सांसद संतोष सिंह जब उनका जलवा था उनके आवास पर राकेश उपाध्याय गये उसी समय डा सन्तोष सिंह अपनी रिवाल्वर निकल क्र बिस्तर पर रखकर बाथरूम गये उसी दरमियाँ राकेश उपाध्याय उनका रिवाल्वर लेकर वहा से फुर्र हो गये जब डा सन्तोष सिंह बाथरूम से वापस ए उन्होंने देखा उनका रिवाल्वर गायब है उनके होश उड़ गये वो तुरंत अपनी गाडी से राकेश उपाध्याय को खोजते हुए रैदोपुर औए अपने प्र्चितो से उन्होंने पूछा की राकेश नेता को देखा है तब वही पर खड़े सामजवादी विचारक संजय श्रीवास्तव ने कहा चले जाइए पुराने पुल के पास आपको राकेश नेता गाँजा पीते हुए मिल जायेगे डा संतोष सिंह हाफ्ते पुराने पुल स्थित मंदिर पर पहुचे तो वह पर राकेश उपाध्याय मौजूद थे उन्होंने बिना किसी डर भय के डा सन्तोष सिंह से अपनी चिर परचित तोतली आवाज में कहा का हो जान गईला रिवाल्वर गायब हो गईल तो डा सन्तोष सिंह ने क़तर भाव से कहा मुझे डर था कि वह रिवाल्वर तुम पैसा लेकर किसी को बेच ना दो और वह अपराधी कृतकर मुझे फँसा न दे | तब राकेश ने कहा पहिले पाँच सौ रुपया डा तब तोहर रिवाल्वर मिली उनके पांच सौ रुपया देने के पश्चात उन्होंने खुरपी उठाई और जमीन खोदने लगे लगभग एक फीट जमीन खोदने के बाद रिवाल्वर दिखाई दिया तब उन्होंने डा सन्तोष सिंह ने रहत की सांस लिया ऐसे विलक्ष्ण थे राकेश उपाध्याय एक खास बात वरिष्ठ पत्रकार सिर्फ लीडराबाद राकेश उपाध्याय और रोहित यादव को पैसा देने के लिए यहाँ आते थे | एक बार विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेता हुकुमदेव नारायण यादव लीडराबाद में भाषण करने आये उनके भाषण में संस्कृत का पुट था जिससे वरिष्ठ पत्रकार बनवारी लाल जालान जी अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने राकेश उपाध्याय के दुसरे जोड़ीदार वरिष्ठ नेता कृष्ण पाल सिंह ( के पी सिंह ) से श्री यादव के भाषण की तारीफ की तो बेलौस ढंग से के पी सिंह ने जबाब दिया की जब अहीर संस्कृति बोले लगे औरत पिंगला बांचे लगे तब समझ लिहा घोर कलयुग अ गएल हवे इस पर वहां उपस्थित लीडर\बाद ठहाको से गूंज उठा |
वक्त बदला पर श्रीराम काफी हाउस ( लीडराबाद ) का क्रेज जस का तस बना रहा | बदलते जमाने की रफ़्तार के साथ ही इसका नया नामकरण हुआ | वरिष्ठ पत्रकार बनवारी जालान ने एक नाम दिया लीडराबादउसके बाद यहाँ पर राजनीति की अडी जमाने खाटी समाजवादी चिन्तक व नेता बड़े भाई विनोद कुमार श्रीवास्तव प्रखर समाजवादी व वरिष्ठ पत्रकार बड़े भाई विजय नरायन , असलाई के किसान नेता स्व श्याम बहादुर सिंह कामरेड अतुल अनजान , पूर्व सांसद डा संतोष सिंह , चुन्न राय पूर्व विधायक समई राम पूर्व मंत्री फागु चौहान , पूर्व मंत्री सुखदेव राजभर , विधायक आलमबदी, पूर्व कांग्रेसी नेता बाबु लालसा राय , कामरेड अरुण सिंह एडवोकेट , पूर्व मंत्री बलराम यादव , कांग्रेसी नेता हवलदार सिंह , काग्रेसी नेता ज्ञान राम , काग्रेसी नेता सूरज राय , काग्रेसी नेता कृष्ण कान्त, पाण्डेय हीरापट्टी के बाबु सुरेन्द्र सिंह , कवलधारी राम , जुलेफेकार बेग , इम्तेयाज बेग ज्ञान प्रकाश दुबे समाजवादी नेता तहसीलदार पाण्डेय , कैलाश पाण्डेय जैसे लोगो का जमावड़ा होता रहा | इस जगह पहले जो राजनितिक बहसे हुआ करती थी एक साफ़ सुधरा माहौल में पक्ष - विपक्ष की राजनीत करने वाले एक दुसरे का सम्मान और ख्याल रखते थे , पहले आम आदमी के कष्टों पर यही से आन्दोलन खड़े होते थे वो परम्परा अब यहाँ से समाप्त हो गयी अब नई परम्पराओं ने जन्म ले लिया है पहले जो राजनीति बहस हुआ करती थी इन लोगो के समय में अब उसमे बदलाव आ गया उसकी कड़ी में मंत्री दारा चौहान , डा बलिराम , , बलिहारी बाबु डा राम दुलारे , हीरालाल गौतम , पूर्व विधायक विद्या चौधरी , आफताब आलम कुरैशी , तेज बहादुर यादव हवलदार सिंह पूर्व अध्यक्ष जिला पंचायत हवलदार यादव यहाँ के आकर्षण से यहाँ का व्यापार करने वाला तबका भी सन्तु अग्रवाल गोकुल दस अग्रवाल मिठ्ठू अग्रवाल राजेन्द्र अग्रवाल उर्फ़ राजे बाबू यहाँ तक की दिलीप अग्रवाल इस जगह पर आके लुफ्त उठाते रहते है | यह काफी हाउस यहाँ के अधिवक्ताओं का भी आकर्षण केंद्र बना रहा कभी यहाँ पर वरिष्ठ अधिवक्ता स्व कमलाकर सिंह , स्व जगदीश सिंह लालता सिंह वरिष्ठ अधिवक्ता और कांग्रसी नेता स्व कपिलदेव सिंह अधिवक्ता अनिल गौड़ , अधिवक्ता शिवकरन, अधिवक्ता शत्रुघन सिंह , अधिवक्ता इन्द्रासन सिंह अधिवक्ता और पत्रकार महेंद्र सिंह जैसे लोगो की यहाँ पर बैठकी लगती थी | अब तो समय की रफ़्तार ने यह की हर चीज को बदल दिया है |