Saturday, June 29, 2019

बिहार -- नेता जी -- ये नियति का खेल नही

बिहार -- नेता जी -- ये नियति का खेल नही ,
आप जैसो की बदनीयती का दुष्परिणाम है !
इस प्रकरण में लीची बदनाम हुई - किसानो की कमर टूटी
मौजूदा वक्त में बिहार के करीबन 10-12 जिले के बच्चे 'चमकी ' बुखार यानी मस्तिष्क ज्वर के चलते हो रही आकस्मिक मौतों की वजह से एक बड़े संकट से जूझ रहे है | इस संकट से प्रभावित क्षेत्रो व जिलो में बचाव व बेहतर इलाज के नाम पर माने तो देश का समूचा मेडिकल सिस्टम अब तक अपने हाथ खड़े किये हुए था | बिहार में बच्चो के लिए इस जानलेवा बुखार के पीछे की असल वजह क्या है ? और यही नही , बड़ी तादात में रोज - ब- रोज होने वाली मौतों के सिलसिले को आखिर किन वजहों से आज के वक्त तक रोका नही जा सका | यह निश्चय ही देश के स्वास्थ्य विज्ञान के लिए एक बड़ा सवाल है ? गौरतलब है कि मुजफ्फरपुर , वैशाली , हाजीपुर व भागलपुर समेत करीब 12 जिलो में बीते दिनों तक 185 बच्चो की बुखार के चलते मौत हो चुकी हैं | सच तो यह हैं कि इन समूचे इलाको में पीड़ित बच्चो के परिवारों के बीच जहाँ इस त्रासदी से कोहराम मचा हुआ हैं , वही इस आफत के भुक्तभोगी के घरो पर मौत का सन्नाटा पसरा हुआ हैं | हैरत तो यह है कि इस बड़े संकट से जूझ रहे परिवारों को अपने मासूमो के बचाव का कोई आसरा नही सूझ रहा हैं वही इसके उलट बिहार की राजनीति से लगायत दिल्ली की केन्द्रीय राजनीति में इसे लेकर क्या सच है और क्या झूठ है कि बहस गरमाई हुई हैं इसके लिए न तो कोई जिम्मेदार दिख रहा हैं न ही कोई जबाबदेही के लिए तैयार है | यु तो इस संकट से बचाव के लिए बड़ी संख्या में अस्पतालों से मेडिकल कालेजो तक दिन - रात एक किये हुए है लोग , मगर प्रशासन - शासन की पूरी मुस्तैदी के बावजूद नेताओं के बयानों के चलते संकट की गम्भीरता सरकार की गैर जिम्मेदराना हरकतों के बीच कहीं न कहीं गुम दिखाई दे रही हैं | बीते वक्त इस तकलीफदेह हालत की जानकारी हासिल करने आये एक बड़े कद्दावर नेता ने ब्यान दिया इसे जरा बखूबी समझ लीजिये उनके मुताबिक़ इन मौतों के लिए न तो सरकार जिम्मेदार हैं ना ही प्रशासन , यह सब बस कुछ नियति का खेल हैं आखिर उनसे यह सवाल कौन करेगा कि इन बच्चो की लगातार होने वाली मौतों के सिलसिले को भाग्य के सहारे क्या छोड़ दिया जाना चाहिए ? फिर सरकारों का चुनाव करने की क्या जरूरत है ? इन जनप्रतिनिधियों इन स्वास्थ्यमंत्रियों और इन मुख्यमन्त्रियो की हमे क्या जरूरत है ? मगल पांडे ने तो बच्चो की बुखार से होने वाली मौतों के सिलसिले को पहली बार नही माना है स्वास्थ्य मंत्री के मुताबिक़ पिछले तीन - चार सालो से पहले भी बच्चो की मौत की इसी तरह की घटनाए हुयी है | देश में उपलब्ध डाक्टरों के अलावा विदेशी स्वास्थ्य विशेषज्ञो की भी इसे लेकर मदद ली गयी थी और इतना ही नही , मौतों के पीछे की असल वजह को अनुसन्धान के जरिये जाचने की कोशिश की गयी थी इस दौरान मिले - जुले कई तथ्य सामने आये , जिसमे कुपोषण व खाली पेट सोने जैसे कारण भी गंभीरता से लिए गये थे | इस बीच भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी ने बच्चो की मौत के पीछे लीची को लेकर होने वाले शोर - शराबे को एक सोची समझी साजिश करार दिया हैं | मुजफ्फरपुर लीची उत्पादन के लिए देश में एक सर्वाधिक बड़े केंद्र के रूप में मौजूदा समय में चर्चित है इसके आसपास के लीची उत्पादन वाले जिलो में चमकी बुखार का सर्वाधिक प्रकोप देखा जा रहा है नतीजन इन जिलो से ही इस तरह के बड़े सवाल सामने आये है कि बच्चो की मौत की वजह लीची खाने से शुरू हुई | हालाकिं स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बुखार में मौत के असल कारणों से पूरी तरह चुप्पी साथे हुए हैं और अगर कोई बोल रहा हैं तो भाजपा के छोटे बड़े मंत्री सांसद व नेता बोल रहे हैं बताते चले कि लोकसभा में राजीव रूडी ने लीची को लेकर बच्चो की बीमारी के मुद्दे को एक तरह से खारिज ही किया बल्कि इन समूचे सवालों के पीछे चीनी कनेक्शन की बू बता दिया | रूडी का मानना है की हजारो करोड़ लीची बंदरगाह पर पड़ी हुई हैं और बाजारों में भी बिहार के किसानो की ही लीची भरी पड़ी है मौजूदा समय में लीची के मुद्दे को बुखार की वजह बताकर कुछ लोगो ने जानबूझकर बिहार के इसानो को चोट पहुचाई है | रूडी संसद के जरिये देश को यह बताने का प्रयास किया है की चीन लीची काण्ड में कही न कही से साजिशकर्ता हैं | कारण यह है चीन भारत के मुकाबले में लीची निर्यात में दुनिया में दुसरे नम्बर पर हैं यही वजह है जिसके चलते चीन देश - दुनिया के बाजारों में भारतीय लीची को ही जानलेवा बीमारी पैदा करने वाला साबित करना चाहता हैं | खैर राजिव रूडी भाजपा के एक कद्दावर नेता है और वह इसके लिए सरकार से जांच कराने की भी मांग कर सकते हैं , लेकिन जिस बड़े संकट को लेकर देश के जाने - माने स्वास्थ्य विशेषज्ञ अब तक चुप्पी साधे हुए हैं और यहाँ तक की केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री से लगायत प्रधानमन्त्री तक सच बोलने से लगातार कतरा रहे हैं , ऐसे में राजीव रूडी को असल मुद्दों से ध्यान हटाकर चीन का चक्कर नही लगाना चाहिए | इस दौरान मुजफ्फरपुर के भाजपा सांसद जय निषाद इस मष्तिष्क ज्वर का कारन बढती गर्मी - गंदगी -गरीबी व प्राकृतिक संसाधनों के छेड़छाड़ को बता रहे इन सबसे अलग पीड़ित इलाको में जनता का गुस्सा इस कदर बढ़ा हुआ हैं आये दिन राज्य मंत्रियों सांसदों और नेताओं को राजनैतिक रस्म अदायगी के दौरान जनता के बीच से पुलिस सरक्षण में किसी तरह बाहर निकला जा रहा हैं | केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री अश्वनी चौबे जनता के गुस्से से बाल बाल बचे और वहाँ पर पुलिस बलप्रयोग करने की नौबत आ गयी थी लोजपा सांसद पारसनाथ पशुपति को वैशाली में लोगो ने बुरी तरह बेइज्जत कर दिया कुल मिलाकर हालात बेकाबू हैं लेकिन इस दर्दनाक दास्ताँन पर राजनैतिक दुःख ही हमारे प्रधानमन्त्री नही जता सके | बिहार में विपक्ष ज़िंदा हैं यह बताना मुश्किल हैं | मौजूदा वक्त में जरूरत इस बात की हैं नितीश कुमार नरेंद्र मोदी तक के काम - करतब को कसौटी पर जरुर आँकना चाहिए हमारा बड़ा दावा आ रहा की अन्तरिक्ष विज्ञान अभियानों में हम बड़े मुकाम हासिल कर लिए है अर्थ्व्यव्थ्सा में फ्रांस को पीछे छोड़ दिए हैं मगर सच्चाई का क्या होगा कि मासूम बच्चे बेमौत मर रहे हैं और हमारा स्वास्थ्य सामर्थ्य इलाज के नाम पर जबाब दे गया हैं |

Friday, June 28, 2019

वलीउल्लाही आन्दोलन

तहरीके - जिन्होंने जंगे - आजादी - ए- हिन्द को परवान चढाया

फकीर आन्दोलन -- भाग - तीन

वलीउल्लाही आन्दोलन
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ब्रिटिश हुकूमत को एक बड़ी चुनौती मुसलमानों की एक ऐसी तंजीम ने भी दी जिसके कायद रायबरेली ( उत्तर प्रदेश ) के बाहैसियत उलमा खानदान से ताल्लुक रखने वाले मौलाना सैय्यद अहमद थे | उन्होंने वलीउल्लाही के बताये रास्ते पर चलकर इस्लाम में फैली बुराइयों को दूर करने की मुहीम के साथ तबलीग व तहरीक शुरू की थी | वलीउल्लाही के इंतकाल के बाद आपके बेटे अब्दुल अजीज इस जमात के नेता बने , जिन्होंने सन 1803 में फतवा दिया कि भारत अब दारुल - इस्लाम नही रहा | सैय्यद अहमद सन 1808 तक अपनी तालीम पूरी करके टोंक चले गये और वहाँ अमीर खान की फ़ौज में भर्ती हो गये | लेकिन 1817 में जब अमीर खान ने अग्रेजो से समझौता किया तो उन्होंने फ़ौज की नौकरी छोड़ दी , लेकिन तब तक वह फौजी हुनर में माहिर हो गये थे || सन 1817 के बाद सन 1822 तक वह पुरे हिदुस्तान में मजहबी तबलीग और दर्स के साथ - साथ अंग्रेजो के खिलाफ आजादी का माहौल बनाते रहे | उनके माननेवालो की तादात दिन - पर - दिन बढती रही |

1822 में मदीना - मक्का के सफर पर आप अपने हजारो मुरीदो के साथ चले गये जहाँ से अप्रैल संन 1824 में वापस हिन्दुस्तान आये |
जनवरी 1826 को वह रायबरेली से तक़रीबन 600 लोगो को जिसमे औरते भी शामिल थी का काफिला लेकर निकले ग्वालियर , टोंक अजमेर होते हुए सिंध पहुचे सैय्यद का ख्याल था कि सिंध के अमीर उनका साथ देंगे लेकिन मायूस होकर वह शिकारपुर पहुचे यहाँ भी उनके ख्यालो को बहुत तरजीह नही मिली | वहां से वह बलूचिस्तान होते हुए बोलान दर्रे के जरिये क्वेटा और फिर कंधार - गजनी और काबुल होते हुए नवम्बर सन 1826 को पेशावर पहुचें |
3,000 मील लम्बे सफर और 17 महीने तक चले काफिला और उनकी कारगुजारियो पर ब्रिटिश - सरकार की अनदेखी अपने आप में ताज्जुब की बात हैं | ब्रिटिश हुकूमत अपने किसी मकसद के तहत सीधी कार्यवाही से बच रही थी | उस वक्त ब्रिटिश हुकूमत जो चाहती थी वही हुआ | जल्द ही क्रान्तिकारियो ने पेशावर पर हमला करके उसे अपने कब्जे में ले लिया और अपनी ताकत का अहसास कराया | उन लोगो ने अपना हेडक्वाटर चारसद्दा में बनाया और वहीँ से सिखों के खिलाफ युद्द बोल दिया | सैय्यद अहमद को मजहबी पेशवा के तौर पर लोग मनाने लगे थे | वहां उन्होंने कबीलों में मारपीट फसाद खून - खराबे की आदतों को छुडाने के लिए कोशिशे शुरू कर दी | कुछ हद तक वह कामयाब भी हुए , लेकिन कबीलों में उनके सरदारों की लालच और ऐशपरस्ती से रहने की उनकी आदतों की वजह से वह एका कायम नही करा सकें | गरीब कबाइली उनके हर हुक्म पर जंग करने को तैयार हो जाते थे | इसी ताकत पर युद्ध आन्दोलन लम्बे समय तक चल पाया | सैय्यद अहमद की सेना ने पंजाब के सिख राज्य पर पहला हमला बोला , लेकिन कामयाबी नही मिली | दोनों पक्षों में कई बार लडाइयां हुई सबसे अहम लड़ाई सन 1831 में बालकोट में हुई थी | वहां भी जेहादियों को भरी नुक्सान के बाद पीछे हटना पड़ा था | इस लड़ाई में सैय्यद अहमद और शाह मोहम्मद इस्माइल शहीद हुए | इमाम के मारे जाने के बाद उनके मानने वालो को बड़ा सदमा लगा
सरहद पर जाने से पहले सैय्यद अहमद ने हिन्दुस्तान के बाकी हिस्सों में एक तंजीम बनाई थी जिसकी जिम्मेदारी मौलवी कासिम पानीपती सरदार सैय्यद अकबर शाह और पटना मरकज पर मौलवी विलायत अली और इनायत अली को दी थी | इन लोगो ने तंजीम को काफी मजबूत बना दिया था |
रंजीत सिंह के मरने के बाद अंग्रेजो का असर पंजाब पर हो गया | और अंग्रेजो का निशाना सैय्यद अहमद के माननेवालो क्रांतिकारियों को खत्म करने का था जिसके लिए वे मौका तलाशते रहे | सन 1858 में सिधाना पे अंग्रेजो का कब्ज़ा होने के बाद क्रांतिकारी तंजीम ने मलका को अपना मरकज बनाया | मगर वहां भी वे ज्यादा दिन रुक नही सकें | अंग्रेजो के हमले ने क्रान्तिकारियो को कमजोर कर दिया इसी बीच यह आन्दोलन हिन्दुस्तान के दुसरे हिस्सों में भी होने लगा | पटना में मौलवी यहिया मौलवी फरहत अली और मौलवी मोहम्मद उल्लाह ने मोर्चा सम्भाला | ब्रिटिश सरकार ने इंकलाबियो को कुचलने के लिए अब पूरी ताकत झोंक दी | कई बड़े नेताओं और उल्माओ को कैद कर लिया गया | 1865-1871 तक इंकलाबियो ने जहाँ जहां पनाह ली जंग की और जिन लोगो ने भी उनका साथ दिया उन सभी को कालापानी या फांसी दे दी गयी | ब्रिटिश हुकूमत ने सैय्यद अहमद के ख्यालो पर चलने वालो के खिलाफ मुसलमानों के ही एक हिस्से को आगे करके इंकलाबियो के खिलाफ लामबंद कर लड़ाई के फतवे का असर कम या खत्म करने की पालिसी पर काम किया | अंग्रेजो ने कलकक्ता के उलमा अब्दुल लतीफ़ और जौनपुर उत्तर प्रदेश के मौलवी करामत अली के अलावा कुछ और लोगो को आगे करके इस युद्ध के फतवे को कम कर दिया | सीमांत इलाको में इंकलाबी तंजीम 1884 तक मजबूती से लड़ते रहे |
इस आन्दोलन के नाकाम होने के बाद यह साफ़ हो गया कि मजहबी जोश जूनून हिम्मत व कुर्बानी भी ब्रिटेन के ताकतवर हुकूमत को इतने लबे जद्दोजेहद के वावजूद उलटने में कामयाब नही साबित हुई | मगर अंग्रेजो से आजादी हासिल करने के लिए मुस्लमानो में इस आन्दोलन ने इतनी जमीन जरुर तैयार कर दी जो सन 1857 की जंगे - आजादी के वक्त काम आये |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता 'कबीर '' स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
साभार ''लहू बोलता भी हैं '' लेखक सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी

Thursday, June 27, 2019

तहरीके - जिन्होंने जंगे - आजादी - ए- हिन्द को परवान चढाया --- भाग - दो

तहरीके - जिन्होंने जंगे - आजादी - ए- हिन्द को परवान चढाया

फकीर आन्दोलन --
भाग - दो

पागल् पंथी आन्दोलन
पागलपंथी आन्दोलन के नेता करमशाह सुंसंग परगना में सन 1775 से बसे थे | उनके मानने वालो में हिन्दू , मुसलमान , गारो और हाजंग शामिल थे | शाह ने इन सबको साथ मिलाकर एक तंजीम बनाई थी , जो अंग्रेज - हमनवा जमींदारों पर हमला करते थे | सन 1813 में करमशाह के इंतकाल के बाद आपके बेटे टीपू शाह ने कमान संभाली | टीपू शाह ने सन 1825 में शेरपुर के जमींदार पर हमला बोलकर वहां कब्जा करके अपनी आजाद सरकार बनाई | हुकूमत चलाने के लिए जज ,कलेक्टर , मजिस्ट्रेट भी मोक्रर्रर कर दिए और सन 1831 तक आजाद सरकार का कार्य किये | सन 1831 में अंग्रेजी सेना ने इनका सफाया कर दिया | बाद में सन 1852 में जिन्द में टीपू शाह का इंतकाल हो गया उसके बाद तंजीम बिखर गयी और आन्दोलन अपने आप खत्म हो गया |

करबन्दी आन्दोलन
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पूर्वी बंगाल के हाजी शरीयतुल्लाह ने करबंदी आन्दोलन को शुरू किया था | पहले इन्होने इस्लाम में सुधार के लिए मुहीम चलाई | बाद में जमींदारों के जुल्मो ज्यादती के खिलाफ लड़ाई का आगाज किया | वह सियासी व समाजी बदलाव करने की बात करते थे | उनका मकसद अंग्रेजो से आजादी दिलाकर पूर्वी बंगाल में इस्लामी हुकूमत कायम करना था | उन्होंने काफी लोगो को अपने साथ मिला लिया था | इस बीच हाजी साहब का इंतकाल हो गया तो आपकी गद्दी आपके बेटे मोहम्मद मोहसिन को मिली जो बाद में दादू मियाँ के नाम से मशहूर हुए | दादू मिया ने आन्दोलन सम्भाला और जमींदारों के खिलाफ उसे जारी रखा | जबरदस्ती लगान - वसूली बंद करा के उन्होंने गाँव अदालते कायम की , जो मुकामी कामकाज देखती थी | इस लड़ाई में अंग्रेज सीधे तौर पर न लड़कर जमींदारों की मदद में खड़े होते थे | यह करबंदी आन्दोलन बीच - बीच में रुक रुक कर सन 1838 - 1857 तक चला | इस आन्दोलन को बंगाल के जंगे आजादी के नेता सैय्यद अहमद शहीद की तंजीम की मदद भी मिली और उससे ताकत भी मिलती रही | ये लोग जालिम जमींदारों के खिलाफ बहुत बहादुरी से लड़े और अवाम पर होने वाले जुल्म और जबरन वसूली को रुकवा दिया | यह आन्दोलन नील की खेती के आन्दोलन के शुरू होने के बाद खत्म हो गया | इस तंजीम के लोग नील -बागान के आन्दोलन में लग गये |

मुबारिजुद्दौला की बगावत
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सैय्यद अहमद रायबरेलवी के मुस्लिम तबलीग और जेहाद तहरीक के वक्त दक्खिन सूबे में मुबारिजुद्दौला उनके नुमाइंदे और शागिर्द बने | इन्होने पुरे साउथ - इंडिया में इस आन्दोलन को फैलाया और अंग्रेजो के खिलाफ छोटे राजाओं और जमींदारों को तैयार करके अंग्रेजी फौजों से टक्कर ली | काफी जंगी साजो सामान भी इकठ्ठा करके वह अंग्रेजो को कई मोर्चो पर चुनौती देते रहे | बाद में ब्रिटिश रेजिडेंट ने निजाम की रजामंदी से मुबारिजुद्दौला को गिरफ्तार करके गोलकुंडा के किले में नजरबंद कर दिया | मुकदमा चला , जिसमे इन्हें और इनके साथियो को ब्रिटिश हुकूमत खत्म करने असलहा इकठ्ठा करने और युद्ध का झंडा उठाने का मुजरिम बनाया | सजा के तौर पर आपको गोलकुंडा किले में आजन्म कैद की सजा हुई | इनके सभी साथियो को भी सजा मिली | सन 1854 के दौरान सजा ही ब्रिटिश हुकूमत को ललकारने वाला बहादुर शाहजदा हमेशा हमेशा के लिए दुनिया से विदा हो गया | मुबारिजुद्दुला को रईसुल मुसलमीन के खिताब से नवाजा गया था |

पंचम दा आज जन्मदिन है

पंचम दा आज जन्मदिन है


मुसाफिर हूँ यारो ना घर है ठिकाना मुझे चलते जाना है |

आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज है
आपसे भी खुबसूरत आपके अंदाज है |

याद है बारिशो के दिन थे वो पंचम और पहाड़ी के नीचे वादी में धुंध से झाककर निकलती हुई रेल की पटरिया गुजरती थी | धुंध में ऐसे लग रहे थे हम जैसे दो पौधे पास बैठे हो हम बहुत देर पटरियों बैठे हुए उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे जिसको आना था पिछली सब लेकिन उसकी आमद का वक्त ढलता रहा | हम बहुत देर पटरियों पर बैठे हुए ट्रेन का इन्तजार करते रहे ट्रेन आई उसका वक्त हुआ और हम यू ही दो कदम चलकर धुंध पर पाँव रखकर गुम हो गये | मैं अकेला हूँ अन्त में -------- |
मुसाफिर हूँ यारो ना घर है ठिकाना मुझे चलते जाना है |
याद है मेरा पहला गाना तुम्हारे साथ कहा था नीचे चलो तुम्हे गाना सुनाता हूँ और तुम सुबह तक तुम गाडी चलाते रहे और कैसेट पर तुम गाना सुनते रहे | पंचम में एक बहुत बड़ा मासूम सा बच्चा था | जो तुम्हारे अन्दर तुम्हारे मिजाज में जीता था उसको हमने कभी उदास नही देखा | पंचम तुम्हारे साथ सीरियसली गाना लिखना बहुत मुश्किल था तब तुमने कहा था की तुम बन्द बोतल की तरह क्यों सीरियस हो | क्या पता था पंचम तुम चुप हो जाओगे और मैं तुम्हारी आवाज को ढूढता फिरूंगा |


ऐसे गीतों के रचना शिल्पी राहुल देव बर्मन का आज जन्म दिन है |
राहुल अपने आप में एक विलक्ष्ण प्रतिभा थे | 27 जून 1939 में एक ऐसे प्रख्यात संगीतकार सचिन देव बर्मन और माँ मेरे देव के पुत्र के रूप में जन्म लिया | माँ मीरा देव खुद एक अच्छी संगीत साधिका थी | राहुल को बचपन से ही उनकी माँ ने विरासत में संगीत सृजन दिया |
राहुल के पिता सचिन देव बर्मन बहुत बड़े संगीतकार थे | एक दिन अशोक कुमार एस . डी . बर्मन से मिलने उनके घर गये | इस दौरान एस . डी . बर्मन ने अशोक कुमार को संगीत के पांच सुर "" सा रे गा माँ पा ' गाकर सुनाया , जिसके बाद अशोक कुमार ने उनका नाम पंचम रख दिया पंचम दा ने महज नौ वर्ष की उम्र में अपनी पहली धुन बनाई जिसको सुनकर सचिन देव ने उन्हें संगीत शिक्षा दी बर्मन पंचम दा की पूरी शिक्षा कलकत्ता में हुई और इनके पिता ने संगीत शिक्षा के लिए इनको उस्ताद अली अकबर खा से सरोद सिखाया इसके बाद इन्होने समता प्रसाद से तबला सिखा सचिन देव बर्मन चाहते थे की कि पंचम दा संगीत के सारे वाद्य यंत्रो को बजाना सीखे पंचम दा ने अनेको गुरुओ से वाद्य यंत्र बजाना सिखा | पंचम दा संगीत की दुनिया में अपना गुरु सलिल चौधरी को मानते थे | इनके बनाये धुनों को सचिन देव बर्मन ने कागज के फूल और चलती का नाम गाडी में इस्तेमाल किया | सन 1961 में महमूद साहब छोटे नबाब बना रहे थे उस वक्त वो सचिन देव बर्मन को अपने फिल्म में संगीतकार चाहते थे पर वो खाली नही थे उस वक्त राहुल देव बर्मन को उन्होंने अपनी फिल्म छोटे नबाब में लिया और राहुल के संगीत ने उस वक्त फ़िल्मी दुनिया में उस फिल्म से अपना अलग स्थान बना लिया | छोटे नबाब के गीतों ने "" इलाही को सुन ली '' आज हुआ दिल मेरा मतवाला '' की गीतों को जो संगीत दिया उससे पूरी फिल्म जगत में पंचम दा अपने को एक संगीतकार के रूप में स्थापित कर लिए उसके बाद निर्माता नासिर हुसैन की फिल्म '' तीसरी मंजिल '' के सुपरहिट गाने '' आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा '' और ओ हसीना जुल्फों वाली '' जैसी सदाबहार गीतों के जरिये पंचम दा बतौर संगीतकार शोहरत की बुलंदियों को छूने लगे | '' मैं शायर बदनाम मैं चला मैं चला पंचम दा ने भुत बंगला फिल्म में अभिनय भी किया है |राहुल देव बर्मन ने राजेश खन्ना के फिल्मो में जादू भरी संगीत और किशोर कुमार की आवाज का जो प्रयोग किया उससे राजेश खन्ना की फिल्मे हिट होने लगी और राजेश खन्ना सुपरस्टार हो गये |

यह कहना गलत होगा की पंचम दा ने सिर्फ किशोर कुमार के लिए ही सगीत दिया उन्होंने रफ़ी साहब के लिए भी बहुत ही शानदार संगीत से गीतों को सजाया है | पंचम दा एक प्रयोगधर्मी संगीतकार थे उन्होंने अपने संगीत में पूरब और पश्चिम के संगीत का मिश्रण करके नई धुनें बनाई | हालाकि इसके लिए उनकी आलोचना बहुत हुई | उनकी ऐसी धुनों के लिए एक आवाज की तलाश थी यह आवाज उन्हें पाशर्व गायिका आशा भोसले में मिली | लम्बी अवधि तक एक दुसरे का गीत संगीत में साथ निभाते रहे |
राहुल देव बर्मन की पहली शादी रीमा पटेल से हुई थी पर वो जल्दी ही तलाक में बदल गयी | इसके बाद पंचम दा ने आशा भोसले से जीवन भर का नाता जोड़ लिया | संगीत निर्देशन के अलावा पंचम दा कई फिल्मो के लिए अपनी आवाज दी है | आर डी बर्मन ने अपने चार धसक से भी ज्यादा लम्बे फ़िल्मी कैरियर में लगभग तीन सौ से ज्यादा फिल्मो में संगीत दिया है | हिंदी फिल्मो के साथ ही बँगला , तेलगु , तमिल , उडिया ,और मराठी फिल्मो में अपने संगीत के जादू से श्रोताओं को मदहोश किया | | पंचम दा ने गुलजार की शायरी और नज्मो पे भी कमाल का संगीत दिया है | राहुल देव बर्मन को अपने फ़िल्मी कैरियर में तीन बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरूस्कार से नवाजा गया है | इनमे सनम तेरी कसम , मासूम और १९४२ ए लवस्टोरी शामिल है | फिल्म संगीत के साथ -- साथ राहुल देव बर्मन गैर फ़िल्मी संगीत से भी श्रोताओं का दिल जीतने में कामयाब रहे | अमरीका के मशहूर संगीतकार जोस फ्लोरेंस के साथ उनकी निर्मित एलबम '' पटेरा '' काफी लोकप्रिय रही | चार दशक तक अपनी संगीत के स्वर लहरियों से पंचम दा श्रोताओं को आनन्द विभोर किया | आज उन्ही पंचम दा का जन्म दिन है \


सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार एवं समीक्षक

Wednesday, June 26, 2019

फकीर आन्दोलन

तहरीके - जिन्होंने जंगे - आजादी - ए- हिन्द को परवान चढाया

फकीर आन्दोलन
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बंगाल में नबावो का दौर खत्म होते ही अंग्रेजो ने मुस्लिम अफसरों को हटाकर अंग्रेज अफसरों की बहाली कर दी | मुस्लिम जमींदारों को बेदखल करके नबाव की सेना को खत्म कर दिया गया | नवाब के जमाने से चला आ रहा देहात पुलिस मोहकमा खत्म कर दिया गया | इसके अलावा आलिमो और मदरसों को दी गयी जमीनों पर भी कब्ज़ा कर लिया गया | इन वजहों से एक तरफ जहाँ बदउनवानी पैदा हुई , वही दूसरी तरफ बड़े पैमाने पर बेरोजगारी भी बढ़ गयी | नतीजन मिडिल और लोवर तबके के मुस्लिम , जो की दस्तकार थे , और जो कपडे की बुनाई करके अपना जीवन चलाते थे , वे कपडे का कारोबार बंद हो जाने से भुखमरी का शिकार होने लगे | इसके अलावा हिन्दू - महाजनों और नील बागानों के अंग्रेज मालिको के जुल्मो से मजदुर तबका भी परेशान हो गया | ऐसे वक्त में मुस्लिम फंकीरो ने आन्दोलन शुरू कर दिया | इसके नेता मजनूशाह थे , जिनकी कयादत में सन 1776-77 में बंगाल के सुदूर इलाको और नेपाल की तराइयो के इलाको में अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ | इन लोगो को जमींदारों और रैय्यातो से चंदा मिलता था , जिससे ये हथियार और गोला बारूद खरीदा करते थे | बंगाल के बाकुड़ा , मदारगंज और महास्थान ( जहाँ मजनूशाह ने अपना किला बनाया था ) मजबूती से आन्दोलन की शुरुआत की थी | इनके आन्दोलन का तरीका बड़ा अजीब था | ये लोग रात में इकठ्ठा होते और अंग्रेजो की चौकियो और ठिकानों पर हमला करके उन्हें नुक्सान पहुचातें और गाँव में छुप जाया करते थे | अंग्रेज अधिकारी इस फकीर आन्दोलन से बहुत परेशान हो गये थे | सन 1863 में फकीरों ने ढाका में अंग्रेजो की फैक्ट्री पर हमला करके कब्जा कर लिया था | सन 1868 में बिहार के सारण जिले में इन लोगो की अंग्रेजी फ़ौज से तीन बार लड़ाई हुई जिसमे दो बार अंग्रेजी फ़ौज को पीछे हटना पडा | फकीरों ने काफी दिनों तक सारण पर अपना कब्जा बनाये रखा लेकिन तीसरी बार अंग्रेजो ने पूरी तैयारी से हमला किया | अंग्रेजी फ़ौज की तैयारी का फकीरों को अंदाजा नही था और उन्हें हार का मुंह देखना पडा | इस लड़ाई में हजारो मुस्लिम फकीर शहीद हो गये | सन 1787 में जब मजनूशाह मार दिए गये , तो फकीरों ने उनके बेटे चिराग अली शाह को अपना नेता चुना | चिराग अली ने भवानी पाठक और देवी चौधरानी के साथ मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन जारी रखा | दोनों का मकसद एक ही था | दोनों मिलकर और मजबूत हो गये | फिर उन्होंने अंग्रेजो के कारखाने पर हमला कर दिया वहां से इन लोगो ने काफी रकम , हथियार और गोला बारूद इकठ्ठा कर लिया | बाद में अंग्रेजी फ़ौज से निकाले गये पठान और राजपूतो को भी अपने साथ मिला लिया | यह लोग 1793 से 1800 तक कम्पनी की सेनाओं से लड़ते रहे और सरकारी वसूली करने वाले अंग्रेज मुलाजिमो को मारकर भगा दिया इस फकीर आन्दोलन की कार्गुजारियो पर जब अंग्रेज अफसर काबू न पा सकें तो उन्होंने नेपाल के महाराजा के साथ एक समझौता करके सीमा पर उनके घुसने पर रोक लगा दिया और फिर अंग्रेजी फ़ौज ने पूरी ताकत से इस आन्दोलन को कुचल दिया | इस आन्दोलन के बारे में लार्ड मिंटो ने लिखा है कि इन फकीरों के सरदार की बहुत इज्जत थी | वे अपनी कौम के हाकिम कहे जाते थे और उनके हुकम पर फकीर कुछ भी करने की हिम्मत रखते थे | फकीर आन्दोलन से अंग्रेज सेना को काफी दिक्कतों का सामना करना पडा | इस आन्दोलन में बड़ी तादात में मुस्लिम फकीर और फ़ौज से निकाले गये दोनों कौमो के सिपाहीयो ने अपने प्राणों की आहुति दी |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता 'कबीर '' स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
साभार ''लहू बोलता भी हैं '' लेखक सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी

Saturday, June 22, 2019

राष्ट्र पुरुष -- चन्द्रशेखर

राष्ट्र पुरुष -- चन्द्रशेखर

बेखबर कुछ पडा आतिशे नमरूद में इशक ,
अक्ल हैं महवे तमाशाए लबे बाम अभी ||


एक नजर - चन्द्रशेखर
अंग्रेजो के जाने के बाद चन्द्रशेखर जी अकेले ऐसे व्यक्तित्व हुए जो न तो किसी राजा या नेता के घर पैदा हुए , न ही कभी बड़े पूंजीपतियों ने उन्हें अपने काम का आदमीसमझ कर उन पर अपनी दौलत लुटाई और न ही कभी वह जमाने के पीछे चले | उन्होंने अपने जमाने की आँख में आँख डालकर और उससे पंजा लड़ाकर अपनी राह खुद बनाई | मुझे याद है , जिस समय श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए आपातकाल लगा कर पूरे देश को एक बड़े जेल में बदल दिया था , उस वक्त चन्द्रशेखर जी कांग्रेस से ही राज्यसभा के सदस्य थे | कांग्रेस में ऐसे बहुत से लोग थे जो श्रीमती गांधी के इस फैसले के विरुद्ध थे लेकिन चुप थे | केवल चन्द्रशेखर जी में इतना साहस था कि उन्होंने श्रीमती गांधी की तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाने में एक मिनट की भी देर नही लगाई | उनके इस फैसले ने मेरे जेहन में अल्लाम के शेर को ताजा कर दिया --
बेखबर कुछ पडा आतिशे नमरूद में इशक ,
अक्ल हैं महवे तमाशाए लबे बाम अभी ||
मैं आजमगढ़ का रहने वाला हूँ और चन्द्रशेखर जी का गाँव इब्राहिम पट्टी बलिया जिले में जरुर था लेकिन हमारे जिले की सरहद के करीब था | उन्हें राज्यसभा में जाने की जमीन आजमगढ़ के ही वीर पुरुष बाबू विश्राम राय ने तैयार की थी , इसलिए आजमगढ़ वाले हमेशा चन्द्रशेखर को अपना और चन्द्रशेखर आजमगढ़ को अपना मानते थे | इस बात को लेकर हमे बारबार गर्व होता है कि चन्द्रशेखर जी और उनके साथी रामधन जी कांग्रेस के सांसद होते हुए भी आपातकाल का विरोध करते हुए 18 महीने जेल में रहें लेकिन हालात से समझौता नही किया | मैंने तक़रीबन 60 साल पहले सरायमीर कसबे के भीतर वाले चौराहे पर देखा था | वह सोशलिस्ट लीडर की हैसियत से वहां भाषण करने आये थे | इस सभा में उन्होंने कहा था कि धर्म एक दुधारी तलवार है जो केवल काटती है जोडती नही हैं | राम ने शम्बूक वध धर्म को बचाने के नाम पर तथा यजीद ने हुसैन की ह्त्या धर्म को बचाने के नाम पर की थी | उस समय मैं सोशलिस्ट पार्टी का एक कार्यकर्ता था | उनके वक्तव्य के बाद मैं उनसे मिलने गया तो उनसे कहा की चन्द्रशेखर जी , आपको यह भी कहना चाहिए था कि स्टालिन ने जब बेटियों की हत्या , की तो उन्होंने कहा कि समाजवाद को बचाने के लिए यह आवश्यक था | चन्द्रशेखर जी मेरे प्रश्न पर मुस्कुराए | उन्होंने कहा कि आजमगढ़ का आदमी ही मुझसे यह सवाल कर सकता है | उन्होंने पूछा कि तुम किस गाँव के रहने वाले हो ? मैंने बताया की फूलपुर के पास स्थित बरौली का | फिर पता चला कि वह मेरे गाँव से पहले से वाफिक थे | चन्द्रशेखर जी के दिमाग का रिश्ता उनके जुबान से जीवन भर रहा | जो वह सत्य समझते थे , बोलते थे | इसके लिए कभी राजनीतिक लाभ - हानि की परवाह नही की | मुझे याद है एक चुनाव में कुछ मुसलमान नेता उनसे मिलने गये और कहा कि वह इस बार मुसलमानों को अधिक टिकट देवे | चन्द्रशेखर जी ने तपाक से कहा ! अच्छा मुसलमानों की कुछ समस्याए भी हैं | मैं तो समझता था कि मुसलमानों की समस्या केवल भाजपा है | जो पार्टी भाजपा को हराने की पोजीशन में हो मुसलमान उसी को वोट देते हैं चाहे भाजपा को हराने वाली पार्टी भाजपा से बुरी हूँ | मुझे याद है जिस समय पंजाब में आतंकवाद का बोलबाला था उसी समय अयोध्या आन्दोलन प्रारम्भ हुआ था | हिन्दू युवा सोच उससे प्रभावित हो चुकी थी | एक बार इस सोच के कुछ युवा लखनऊ में चन्द्रशेखर जी से मिले | यह लोग अयोध्या पर उनसे अपने अंदाज पे बात करने लगे | उन्होंने तेज बात करने वाले युवक को अपने पास बुलाया | देश में सिक्खों की संख्या बहुत कम हैं | उनमे से भी थोड़े ही नवजवान आतंकवाद के रास्ते पर चल पड़े है जो सम्भले नही सम्भल रहे हैं जिससे पूरा देश परेशान हैं | मुसलमान तो देश के हर भाग में हैं | कुछ लोग चाहते कि मुसलमान भी बागी हो जाए | मुझे समझ में नही आता कि यह लोग चाहते क्या हैं ? यही वजह है कि चन्द्रशेखर जी जब चार -पांच महीने के लिए प्रधानमन्त्री बने तो सबसे अधिक समय अयोध्या समस्या को बातचीत से सुलझाने में लगाए | मुझे 11वी और 14 वी लोकसभा में चन्द्रशेखर जी के साथ काम करने का अवसर मिला | दोनों बार वह पार्टी के अकेले सदस्य रहे | वावजूद इसके वह लोकसभा के सबसे अधिक प्रभावशाली सदस्य रहे | संसद में कोई फैसला तर्क या सच्चाई के आधार पर नही होता | संख्या की गिनती के आधार पर होता हैं | फिर भी चन्द्रशेखर जी जैसे खड़े होते पूरी लोकसभा श्रोता हो जाती जब वह कांग्रेस पर हमला करते तो सारे कांग्रेसी मेज थपथपाते थे , जब वह भाजपा की तरफ मुड़ते थे सारे गैर भाजपाई मेज थपथपाने को तैयार मिलते थे | संसद के नियमो के अनुसार संसद में बोलने का अवसर पार्टी सदस्य संख्या के आधार पर तय होता है | परन्तु चन्द्रशेखर जी हर नियमो से उपर थे | उन्हें समय के आधार पर किसी ने कभी नही टोका | चन्द्रशेखर जी एचडी देवगौड़ा की सरकार से काफी खुश थे | जब कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के कारण देवेगौडा जी को लोकसभा में विश्वास मत लेना पडा तो वह काफी बेचैन थे | इस अवसर पर देवगौड़ा ने कहा कि मुझे मेरा कसूर बता दिया जाये , मैं तुरंत त्याग देने को तैयार हो जाऊँगा | कसूर कांग्रेस को बताना था | चन्द्रशेखर जी खड़े हुए और एक ऐतिहासिक भाषण देते हुए कहा कि सरकार का कसूर यही हैं कि|यह बहुत अच्छी सरकार अं इसका अपराध यह हैं कि पूरा देश इस सरकार से संतुष्ट है ? आज एक सौ वर्ष की पार्टी इस हाल में पहुच गई है कि समर्थन वापसी के पक्ष में उसके पास बोलने के लिए एक आदमी नही हैं | उन्होंने अटल जी की तरफ मुखातिब होते हुए कहा कि गुरु जी ! मैं आपसे कहूंगा कि आप प्रस्ताव का समर्थन करके कांग्रेस के के चेहरे से नकाब उतारे | इसके बाद कांग्रेस प्रियरंजन दास मुंशी सदन में आये | उन्होंने केवल इतना कहा कि समर्थन इसलिए वापस लिया जा रहा है कि सरकार हम चला रहे थे और हमी को समाप्त किया जा रहा हैं इतना कहकर वह सदन से निकल गये | चन्द्रशेखर जी फिर खड़े हुए उन्होंने अटल जी से गुरु जी !आप कांग्रेस का खेल देखिये | तब अटल जी ने कहा कि इस सरकार से हमें कोई शिकायत नही | सरकार अच्छी है , लेकिन हमें तो विपक्ष के धर्म निर्वाह करना हैं | चौदहवी लोकसभा चल रही थी | मैंने लोगो से पूछा चन्द्रशेखर जी नजर नही आ रहे तो लोगो ने बताया कि बीमार चल रहे हैं | दूसरे दिन ही उन्हें उठाए हुए चार आदमी आए मैं सदन में दौड़कर उनके पास गया तो मैं समझ गया कि वह सदन को अंतिम बार देखने आये हैं | फिर चंद दिनों बाद खबर मिली राष्ट्रनायक हमारे बीच नही रहे |
जानकार मिज्मुल , ख्साने मयखाना मुझे ,
मुद्दतो रोया अरेंगे जामो पैमाना मुझे |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

लेखक -इलियास आजमी -
पूर्व सांसद वर्तमान में आम आदमी पार्टी के नेता नेता

Friday, June 21, 2019

भारत - '' इस देश का अदभुत वामपंथ ''

भारत - '' इस देश का अदभुत वामपंथ ''

इस देश का वामपंथ सम्भवत विश्व का अदभुत वामपंथ हैं | वामपंथ से हमारा तात्पर्य इस देश की कम्युनिस्ट पार्टियों और कम्युनिस्ट सगठनों से हैं | कयोकी पुरानी सोशलिस्ट कांग्रेस पार्टी और बाद में सोशलिस्ट पार्टी और उसके विभिन्न धड़े , जो पूंजीवादी वामपंथ का प्रतिनिधित्व करते थे , अब वे बीते इतिहास का विषय बन चुके है | पूंजीवादी पार्टियों में जनहितैषी प्रगतिशील लोग अब विलुप्त होते जा रहे हैं | इस विलुप्तिकरण का एक आधारभुत कारण देश के कम्युनिस्ट - वामपंथ में आती रही टूटन ही हैं | कयोकी कम्युनिस्ट पार्टी की मजबूती के दौर में मुख्यत: उसी के विरोध में पूंजीवादी वामपंथ को अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर बढावा दिया गया | लेकिन अब कम्युनिस्ट वामपंथ में आती रही गिरावट के बाद पूंजीवादी वामपंथ की दरअसल वैसी जरुरत नही रह गयी है |

कम्युनिस्ट वामपंथ में यह गिरावट व टूटन तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहले से आती रही हैं | उसका बड़ा परिलक्षण 1956 - 60 के बाद रुसी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किये गये समाज के क्रांतिकारी सिद्धांतो में , सुधारों बदलावों के चलते हुआ था | उसके फलस्वरूप कम्युनिस्ट पार्टी अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर तीखा एवं परस्पर विरोधी विभाजन हो गया था | इस देश में भी वह पहले सी पी आई और सी पी एम् के विभाजन और बाद में सी पी आई - (एम् एल) और फिर उनमे विभिन्न गुटों के विभाजन के रूप में सामने आता रहा | लेकिन अभी भी समाज में कम्युनिस्ट वामपंथ के प्रति आशा , विश्वास का माहौल बना हुआ था | लेकिन 1989 के बाद वामपंथ के प्रति उस आशा और विश्वास में भारी कमी आती गयी |
1989 से पहले वामपंथी सगठनों में होता रहा टूटन विघटन के बाद और ज्यादा बढ़ गया | संभवत: ऐसा विघटन दुनिया के सभी या ज्यादातर देशो में हुआ | लेकिन भारत में उस विघटन का स्वरूप अदभुत एवं आश्चर्यजनक हैं | वर्तमान समय में देश में कुल वामपंथी सगठनों की संख्या ठीक - ठाक बताना तो आसान नही है लेकिन पिछले साल की प्रकाशित सूचना के अनुसार देश में इनकी कुल संख्या तीन सौ से अधिक बताई गयी थी | संगठनो की संख्या के अद्दितीय होने के साथ इस देश का वामपंथ इस माने में अदभुत है कि देश की बहुसंख्यक श्रमजीवी जनसाधारण आबादी इन सगठनों के नाम काम को नही जानती | जबकि कम्युनिस्ट पार्टी या संगठनो को श्रमजीवी जनसाधारण की ही पार्टी या संगठन माना जाता है | इसके वावजूद ज्यादातर सगठनों का दायरा सालो साल से कुछ जिलो क्षेत्रो के थोड़े से लोगो तक ही सिमटा रहा है | उसमे वृद्धि की जगह कमी आई है | सांगठनिक एकजुटता से ज्यादा सांगठनिक टूटन ही आई है | जिन सगठनों को लोग जानते हैं , उनमे सी पी आई एवं सी पी एम् प्रमुख हैं | देश के कुछ प्रान्तों क्षेत्रो में सी पी आई (एम् एल) को भी लोग जानते हैं | इन तीनो का , खासकर व्यापक जनाधार वाली सी पी आई , सी पी एम् नाम दोनों बड़ी वामपंथी पार्टियों का वह आधार तेजी से टूटता जा रहा हैं | फिर उनकी प्रमुख पहचान मुख्यत: चुनावी राजनीति में भागीदारी एवं पूंजीवादी पार्टियों से मोर्चा या गठजोड़ करने तथा सत्तावादी राजनीति करने वाली वामपंथी पार्टियों की बनती रही हैं | जन समस्याओं के कारणों एवं कारको के प्रति जनसाधारण को सचेत करने और फिर उन्हें आंदोलित करने की इनकी पहले की पहचान लगातार घटती रही है या कहिये विलुप्त होती जा रही हैं |
इसके अलावा सालो - साल से शस्त्र वामपंथी सगठनों एवं सैन्य बलों के बीच हिंसक कार्यवाइयो और उसके समाचारों प्रचारों की वजह से जनसाधारण इन अतिवादी वामपंथी सगठनों को पहले नक्सलाईटो और अब मुख्य रूप से माओवादियों के रूप में जानती हैं | खासकर माओवादी कहे जाने वाले ये सगठन मुख्यत: जंगली एवं आदिवासी क्षेत्रो को अपना आधार क्षेत्र बनाकर उन्ही क्षेत्रो से हथियारबंद संघर्ष से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन कर देने के लक्ष्य बनाये हुए हैं | इनका प्रभाव देश के मैदानी ग्रामीण एवं शहरी हिस्से में कम कहिये तो बहुत कम हैं | फिर उनमे अपने अतिवादी कार्यवाइयो से भी आती रही टूटन इन्हें सांगठनिक रूप में बाटती तोडती रही हैं | इनके अलावा बाकी तमाम सगठनों के जनाधार कम है , कमजोर है | अपने को मार्क्सवादी - लेलिनवादी कहने बताने का शौक ज्यादा है लेकिन वैसा बनने का शौक और प्रयास बहुत कमजोर है | अपने को सिद्धांतवादी कहने बताने का शौक ज्यादा है , लेकिन सिद्धांत को व्यवहार में उतारने श्रमजीवी जनसाधारण से अधिकाधिक जुड़ने सगठन का जनाधार खड़ा करने का शौक तो हैं मगर सामजिक बदलाव की रणनीति व कार्यनीति निधारित करने का शौक कम है | अपने अपने गुटों के प्रभाव को बनाये रखने का काम ही प्रमुख है , परन्तु संगठन को श्रमजीवी वर्ग से जोड़ने में इन सभी का काम व प्रयास बेहद कमजोर है , जहाँ तक इन वामपंथी सगठनों के बारे में सी पी एम् - सी पी आई के दृष्टिकोण का मामला है तो यह पार्टियों इन वामपंथी संगठनो को कोई महत्व नही देती हैं | उनकी सर्वथा उचित आलोचना पर भी कान नही देती |
उनका कम्युनिस्ट बिरादराना सम्बन्ध अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टियों सगठनों से कोई बिरादराना सम्बन्ध नही हैं | इसी तरह सत्ता पर चढ़ी हुई पूंजीवादी पार्टियों के साथ साठ-गाठं करने एवं स्वंय चढ़े हुए होने का गौरव दंभ उन्हें वामपंथी एक जुटता के लिए नीचे नही आने देता | सी पी आई एम् एल भी अब उसी लाइन में लगी हुई है | वह भी दोनों वामपंथी पार्टियों के अलावा राजद जैसी पूंजीवादी पार्टियों के साथ चुनावी साठ-गाठं करने के काम में लगी रहती हैं |
देश में 300 से अधिक वामपंथी सगठनों की ये स्थितिया और विभिन्न वामपंथी सगठनों का अलगाववादी रुझान उन्हें समाज के क्रांतिकारी बदलाव के प्रति वर्ग विरोध की राजनीति के लिए न्यूनतम कार्यक्रम तय करने और फिर आगे बढ़ने के प्रति अनिच्छा या अरुचि इस देश के वामपंथ को अदभुत बना देता हैं | इस देश के वामपंथ के अदभुत होने के कई महत्वपूर्ण कारण हैं | उनमे एक कारण इस देश के कम्युनिस्ट पार्टियों एवं सगठनों द्वारा मेहनतकश के लिए साम्राज्यवादी विरोधी राष्ट्रावाद को महत्व न देना भी हैं |
इस देश का कम्युनिस्ट - वामपंथ अंतर्राष्ट्रीयवाद के सिद्धांत व नारे को यांत्रिक ढंग से रटते , दुहराते हुए मेहनतकशो के राष्ट्रीय अधिकार एवं राष्ट्रवाद को महत्व नही देता | पहले से भी नही देता रहा हैं | यह भी बड़ा कारण है कि राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदारी निभाने के वावजूद यह व्यापक जनसमुदाय को अपने पक्ष में नही कर सका |
1942 के ''अंग्रेजो भारत छोडो '' आन्दोलन का समर्थन करने के बजाए उससे अलग पडा रहा | भारत - पाकिस्तान के रूप में धार्मिक आधार पर बटवारे का , राष्ट्र के आत्म निर्णय का अधिकार के नाम पर मनमाने ढंग से समर्थन कर दिया | इसके अलावा 1947 में देश में सत्ता हस्तांतरण के समझौते वाली आजादी को साम्राज्यी शोषण लूट के सम्बन्धो को बनाये रखने वाली नकली आजादी बताने के वावजूद उन सम्बन्धो से राष्ट्र को मुक्त करने का कार्यभार कभी नही उठाया | जबकि चीन - कोरिया - लाओस - कम्बोडिया - वियतनाम और क्यूबा जैसे राष्ट्रों ने राष्ट्र्मुक्ति को 1947-50 के पहले से लेकर 1970 के दशक तक जारी रखा | अपने राष्ट्र को साम्राज्यी शोषण के लुट व प्रभुत्व से मुक्त कराने के साथ सामन्ती एवं पूंजीवादी शोषण लुट से भी मुक्त कराने का प्रयास भी किया |
मेहनतकश वर्ग के हित में राष्ट्रीय प्रशनो को महत्व न देने , राष्ट्रवाद को पूंजीवादी अवधारणा कहकर साम्राज्यवाद विरोधी जनवादी राष्ट्रवाद की अवधारणा को उपेक्षित करते रहना भी , इस देश के अदभुत वामपंथ का ही उदाहरण हैं |
इसी तरह से सामन्तवाद का विरोध करते हुए जातीय भेदभाव का तो विरोध करना मगर जातीय व्यवस्था के उन्मूलन के वैचारिक एवं व्यवहारिक प्रयास को अपनी कार्यनीति का हिस्सा न बनाना भी वामपंथ को अदभुत वामपंथ बना देता है | धार्मिक सम्प्रदायवाद के समग्र रूप में उन्मुलित करने तथा उसके लिए सुनिश्चित कार्यनीतियो का निर्धारण न करना भी देश के वामपंथ को अदभुत वामपंथ बना देता हैं |
इन्हें जानना समझना और दुरुस्त करना भी वामपंथ का काम हैं | वामपंथी पार्टियों सगठनों के आमने अब ''करो या मरो '' का प्रश्न हैं | साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद एवं व्यापक श्रमजीवी वर्ग के हितो , अधिकारों को बढावा देने वाले जनवाद के लिए वामपंथी सगठनों द्वारा न्यूनतम कार्यक्रम के साथ एकजुटता बनाने का कार्यभार भी क्रांतिकारी वामपंथ का कार्य है | इस कार्यभार को महत्व न देकर तथा बढ़ते सांगठनिक टूटन व विखंडन के साथ देश का वामपंथ अदभुत वामपंथ ही बना रहेगा |

सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
साभार - 'चर्चा आज कल की '

Thursday, June 13, 2019

मेहँदी हसन शहंशाह --- ए--- गजल

अब सदाए मुझे न दो ..................
मेहँदी हसन शहंशाह --- ए--- गजल
आकाश की तरफ
अपनी चाबियों का गुच्छा उछाला
तो देखा
आकाश खुल गया है |
जरुर आकाश में
मेरी कोई चाबी लगती है !
शायद मेरी संदूक की चाबी !!
..........................विनोद शुक्ल की यह पक्तिया ना जाने क्या -- क्या कह दे रही है |
कविता .... शब्द -- दर-- शब्द रचती है ,दृश्य मानस में दृश्य लिख देता है एक कविता अंतस में | शब्दों की रेलम - पेल में कुछ शब्द चुने पिरो दी एक लड़ी , जो कहती है -- सुनो | जो चाहती है --- समझो | जो आँखे मूंद देती है और रच देती है संसार का एक दृश्य आँखों के पटल पे |
एक सूर गुंथे आते है दृश्य , एक के बाद एक यू --- मानो कविता ना हो वो आँखों के सामने वास्तविक धरातल पे उभरते हमारे जीवन से जुडी कहानी हो |
हवा से काप्न्ति छोटी -- छोटी पत्तिया नीचे सर्र से गुजर जाती है , सूरज डूब जाता है दूर किसी पर्वत के सीने में और ऐसे में मेहँदी हसन शाब की आवाज यह बोल पड़ती है ""रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ ...आखिर से फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ .............................और वो आवाज यह कहती हुई इस दुनिया से रुखसत हो गयी '' जिन्दगी में तो सभी प्यार किया करते है .....मैं तो मरकर मेरी जान तुझे चाहूँगा .......तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है ऐसी अजीम शक्सियत आज हमारे बीच नही रहे पर उनकी जादू भरी आवाज की अदायगी अपने बेमिशाल अल्फाजो के बीच हमारे बीच ताउम्र ज़िंदा रहेगी और हर पल उनके होने का एहसास दिलाती रहेगी की मेंहदी हसन साहब हम लोगो के दर्मिया कही आसपास मौजूद है ..................................लुणा को नाज है अपने "" मेह्दिया '' पर ...................मेहदी हसन भारत विभाजन से करीब एक साल पहले ही भारत से चले गये थे |उनके पिता व चाचा उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर गये | वहा पर राजा ने उन्हें यही पर रुकने के लिए कहा , लेकिन वे नही माने | यहा से वे सीधे पाकिस्तान चले गये , लेकिन अपनी जन्मस्थली लुणा गाँव से उनका नाता ताउम्र बना रहा | मेहदी हसन तीन बार यहा आये |
राजस्थान के शेखावटी अंचल के झुझुनू जिले के लुणा गाँव के बाशिंदों में आज अपने मेह्दिया ( गजल सम्राट मेहदी हसन ) के इतन्काल की खबर मिलते ही सन्नाटा छा गया और हर कोई उनके बचपन को याद कर रहा था | लुणा गाँव में ही अमर सूर साधक मेहदी हसन ने जन्म लिया था और यही की माती में खेलकर चलना सिखा | लुणा गाँव विकास की रफ़्तार में जरुर पिछड़ा हुआ है , मगर इस गाँव के लोगो को फख्र है की उनके गाँव के मेह्दिया को पूरी दुनिया गजल सम्राट मेहदी हसन के नाम से जानती है | लुणा गाँव में हसन के परिवार का कोई सदस्य अब नही रहता , लेकिन गाँव वाले आज भी मेहदी हसन को याद करते है | मेहदी हसन के गाँव के एक बुजुर्ग मेहदी हसन को याद करते हुए उनके बचपन की यादो में खो गये थे | मेंहदी हसन के बुजुर्ग साथी गजल का एक शेर सुनाते हुए कहते है की "" भूलो बिसरी चंद उम्मीदे , चंद अफ़साने , तुम याद आये और तुम्हारे साथ जमाना याद आये ......|"" उन्होंने कहा की जब भी मेंहदी हसन का नाम आटा है बचपन की यादे ताजा हो जाती है | उन्होंने कहा की वे हसन से छ साल बड़े है , लेकिन बचपन में उनके साथ खेलना , कुश्ती लड़ना और साज बजाने की यादे आज भी ताजा है दिवगत हो चुके अर्जुन जागीद के साथ मेहँदी हसन की गहरी दोस्ती थी | हसन शेखावत व जागीद के साथ पहलवानी करते और शेखावत के साथ गायकी का रियाज भी करते थे | मेहँदी हसन के दादा इमामुद्दीन ( इमाम जान ) ढढार ठिकाणे में गाने जाया करते थे | बाद में मेहँदी हसन उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर के राजा के पास चले गये | जानकार लोगो ने बताया की बस्ती नगर के राजा को गायकी का शौक था | राजा ने मेहँदी हसन को अपना गुरु बनाया | वही पर मेहँदी हसन के पिता अजीम जान चाचा जान , इस्माइल जान बुआ भूरी व रहीमा की तालीम हुई |बस्ती से हसन के पिता अजीम जान और चाचा हारमोनियम , सितार लेकर आये | जान की गायकी को देखते हुए उन्हें मडाया ठिकाणा में बुलाया गया | अजीम जान के पुत्र गुलाम कादर व मेहँदी हसन को कई बार बस्ती नगर ले जाया गया , जहा पर उन्होंने शास्त्रीय संगीत की तालीम ली |
यू तो गायकी की तालीम मेहँदी हसन ने अपने दादा से ली , लेकिन उन्होंने अपने चाचा इस्माइल जान से काफी कुछ सिखा | उन्होंने गजल गायकी को शास्त्रीय संगीत में ढालकर गजल गायकी को परवान चढाया अपनी बेजोड़ गजल गायकी से लोगो को मदहोश करके उनके दिलो पर राज करने वाले मेहँदी हसन शहंशाह -- ए-- गजल मेहँदी हसन अहमद फराज की लिखी एक गजल को गाते हुए कहते है की "' अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबो में मिले , जिस तरह सूखे हुए फूल किताबो में मिले ''...... इन अल्फाजो के साथ एक बेजोड़ सूर साधक के गजल की धडकन भी रुक्सत ले ली इस दुनिया से ऐसे सूर साधक को मेरा नमन ................................सुनील दत्ता पत्रकार....

Wednesday, June 12, 2019

देव बुद्ध , देवी बुद्ध

देव बुद्ध , देवी बुद्ध


बौद्ध धर्म की उत्पत्ति भारत में हुई और सदियों के कालखंड में वह निरंतर यहाँ फलता - फूलता रहा | फिर उसकी शाखाए तिब्बत - चीन और जापान तक विस्तृत हुई | इन्ही के साथ बोधिसत्व के विभिन्न रूप भी विकसे | उन्ही में से एक पर यह रोचक वृत्तांत है | बौद्ध धर्म में ईसा की प्रथम शताब्दी में जब महायान शाखा का उदय हुआ , तब महायान के बौद्धों ने ' बोधिसत्व ' पद की कल्पना की | उनकी धारणा थी कि बोधिसत्वता' प्राप्त होने पर इन बौद्धों में यह उदात्त भावना रहती है कि जब तक प्रत्येक प्राणी को हम सांसारिक कष्ट और जन्म - मरण के चक्र से मुक्त नही करा देंगे , तब तक हम स्वयं भी निर्वाण प्राप्ति को स्थगित कर देंगे | इस लोक - कल्याण की भावना से ओत - प्रोत बोधिचर्चा में जो पारंगत होते , उनको महायानी बोधिसत्व पद से अलंकृत कर देते है | इन बोधिसत्वो की श्रृखंला में ''अवलोकितेश्वर '' सर्वश्रेष्ठ माने , जाते हैं , क्योकि वे दुखार्द जनो के प्रति अति करुणामय है और हर प्राणी का उद्धार करने के लिए यत्नशील रहते हैं | वस्तुत: करुणा ही बोधिसत्व के आध्यात्मिक जीवन का प्रमुख लक्षण है और अवलोकितेश्वर इस करुणाभाव से परिपूर्ण हैं | वस्तुत: अवलोकितेश्वर शब्द दो पदों का संयुक्त है -- अवलोकित और ईश्वर , जिसका अर्थ है ' वह ईश्वर, जो दुखी प्राणियों द्वारा देखा जाता हैं |' ईसा की छठी शताब्दी के बाद जब बौद्ध धर्म में 'तंत्र ' का समावेश हो चूका था , तब इन तांत्रिक बौद्धों ने अवलोकितेश्वर को भी अपने तंत्र में सम्मिलित करके उन्हें एक उपास्य देव के रूप में प्रतिष्ठित किया और हिन्दू देवताओं की तरह इस बोधिसत्व की धूप - दीप से पूजा करने लगे | इन भक्तो ने तांत्रिक मन्त्र 'ओम मणि पद्द्मे हुम ' की रचना की , इस आस्था से कि इस मन्त्र के निरंतर जाप से उपासक सांसारिक कष्ट से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है | जिस प्रकार हिन्दू भक्तो ने अपने प्रमुख देवताओं की एकपत्नी स्वरूपा शक्ति मानी है , उसी प्रकार इन तांत्रिको ने अवलोकितेश्वर की शक्ति 'तारा देवी ' को माना है | यह देवी प्राणियों के उद्धार में सलग्न हैं | महायान के बौद्धों ने अवलोकितेश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में भी उद्घाटित किया है | बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ कारण्डि - ब्यूह सूत्र में इसका वृत्तांत हैं | ऐसा ही संदर्भ सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यजुर्वेद के पुरुषसूक्त में भी मिलता है | जिस प्रकार शिव का स्थायी निवास कैलाश पर्वत हैं , उसी प्रकार अवलोकितेश्वर का शाश्वत निवास 'पोतल पर्वत ' बताया गया है | बौद्ध साहित्य में 'पोतल पर्वत' की स्थिति के बारे में अनेक मत - मतांतर हैं | एक मत के अनुसार यह पर्वत दक्षिण भारत में धनुषकोटि के निकट मलय पर्वत पर स्थित हैं | किन्तु दलाई लामा का जो राजमहल ल्हासा ( तिब्बत ) में स्थित है , वह भी पोतल पर्वत हैं | जब बौद्ध धर्म तिब्बत , चीन , जापान जैसे सुदूर पूर्वी एशियाई देशो प्रसार हो गया , तब वहाँ के बौद्धों ने अपने धर्म में अलोकितेश्वर को भी सम्मिलित कर लिया | सातवी शताब्दी के मध्य में तिब्बत के लामाओं ने अवलोकितेश्वर को अमिताभ बुद्ध का आध्यात्मिक पुत्र मानते हुए सभी दलाई लामाओं को अवलोकितेश्वर का अवतार माना है | प्रो मोनियर विलियम्स का मत है कि तिब्बत के लामावाद में यह बोधिसत्व एक दैवी धर्मगुरु हैं , जो भूतल पर स्थित सभी बौद्धों को अपने - अपने कर्म में सलग्न करते है | इन लामाओं ने अपनी अतिश्र्द्धा व्यक्त करने के लिए अवलोकितेश्वर को 11 शीर्ष वाला बताया हैं , इसमें पहली पंक्ति में तीन , दूसरी व तीसरी पंक्ति में तीन - तीन , उसके उपर एक के और उपर एक शीर्ष | सबसे उपर का शीर्ष उनके आध्यात्मिक पिता अमिताभ का हैं | जब बौद्ध धर्म चीन देश में लोकप्रिय हो चुका , तब चीन के बौद्धों ने भी अलोकितेश्वर को अति करुणामय उपास्य देवता के रूप में अंगीकार किया | किन्तु इन चीनी बौद्धों की मान्यता है कि चूँकि अवलोकितेश्वर करुणा से ओत - प्रोत है और करुणा का तत्व पुरुषो की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक होता हैं ,
इस दृष्टि से चीनी बौद्धों ने अवलोकितेश्वर को स्त्री - रूप माना हैं | इन बौद्धों ने कहा कि यह संसार के आर्त प्राणियों का करुण स्वर प्रसारित करने वाली देवी हैं किन्तु तांग वंश के चित्रकारों ने अपने चित्र में हल्की मूछो वाले युवारूप में अवलोकितेश्वर का चित्राकन किया हैं | चीन के बौद्धों ने देवी तारा को भी अपने धर्म में सम्मिलित किया | इन्हें चीनी भाषा में 'तो -लो -पू-सा ' कहा गया हैं | चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने संस्मरण में तारा का उल्लेख्य किया है कि यहाँ बौद्ध वर्ष के प्रथम दिवस से ग्यारह दिनों का भव्य उत्सव मनाया जाता हैं , जिसमे राजा , मंत्री एवं सभी गणमान्य देवी तारा की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करते हैं | चीन के बौद्धों के अनुसरण में जापान के बौद्धों ने भी अवलोकितेश्वर को स्त्री रूप माना है | जापानी भाषा में उन्हें 'क्वा नाँन ' यह संज्ञा दी गयी हैं | जापानी बौद्धों की भी यही मान्यता है कि ''क्वा -नाँन'' करुणा की देवी है प्राणियों के कल्याण के लिए वे नाना रूप धारण करती हैं | जापान में इस देवी को मूर्त रूप में शिल्पकारो ने ग्यारह मुख वाली और सहस्त्र भुजाओं के साथ उतक्रींण किया है | संतान प्राप्ति हेतु इस मूर्ति पूजन किया जाता हैं | महायान बौद्धों के संस्कृत ग्रंथो , जैसे सद्धर्म , पुंडरिक सुखावती - व्यूह सूत्र गंव्यूह आदि में अवलोकितेश्वर का विशेष वर्णन किया हैं |
---- डा ० निखिलेश शास्त्री - साभार - अहा ! जिन्दगी
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र -पत्रकार - समीक्षक

Tuesday, June 11, 2019

जंगे -आजादी -ए-हिन्द पर नजरेसानी - भाग - दो

लहू भी बोलता है -- सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी

जंगे -आजादी -ए-हिन्द पर नजरेसानी - भाग - दो


1857 -- 1847 -- की जंगे - आजादी

1857 की जंगे - आजादी को अंग्रेजो ने हालाकि सिपाही विद्रोह या गदर का नाम दिया था , लेकिन असल में यह जंगे - आजादी ही थी | जिसकी अगुवाई मुग़ल हुकूमत के आखरी बादशाह बहादुर शाह जफर ने ही की थी जो कि उर्दू के माहिर और जाने - माने शायर भी थे | उन्होंने अपनी शेरो - शायरी से जंगे - आजादी के लिए जज्बा पैदा किया | सन 1857 की यह पहली जंगे - आजादी सैनिक छावनियो से शुरू होकर करीब दो साल तक मुल्क के तमाम हिस्सों में फ़ैल गयी और एक बारगी समूचा मुल्क ही इस आन्दोलन में शामिल हो गया |
इस पहली जंगे - आजादी के अजीम म्जाहिद अल्लामा फजले हक़ खैराबादी ने सबसे पहले दिल्ली की जामा मस्जिद से अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष का ऐलान किया और खुद बादुर्शाह जफ़र के साथ मिलकर इस जंग को परवान चढाया | इस फतवे के बाद तो पुरे मुल्क का मुस्लिम समाज हो या हिदू समाज हो सारे लोग सडको पर उतर कर अपनी पहुच के मुताबिक़ जंगे - आजादी में हिस्सा लेने के लिए बेताब दिखे | मुल्क का ज्यादातर हिस्सा जंग का मैदान नजर आने लगा |
जंग को काबू करने के लिए अंग्रेजो ने आम अवाम को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया | अंग्रेज इतिहासकार लिखते है कि इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने अपना बदला मुसलमानों और खासकर मुस्लिम उल्माओ पर इस कदर उतारा कि हजारो उल्माओ को सरेआम फांसी दे दी गयी ; सैकड़ो को जामा मस्जिद और लाल किले के बीच मैदानों में नागा करके ज़िंदा जलाया गया | कानपुर - फरुखाबाद के बीच जी .टी रोड पर सडक के किनारे जितने भी पेड़ थे , उन सभी पर मौलानाओ को फांसी पर लटका दिया गया और मरने के बाद उन्हें उतारकर कफन - दफ़न की भी इजाजत नही दी गयी | अंग्रेजो का गुस्सा इस जंगे - आजादी में शामिल विद्रोहियों और सिपाहियों तक महदूद नही था बल्कि उनके रिश्तेदारों , औरतो व बच्चो तक को गिरफ्तार करके लाल किले में रखा गया | सभी कैदियों को एक दिन लाल किले के खुनी दरवाजे ( ब्लडी गेट ) से बाहर निकलने को आहा गया | लेकिन बाहर निकलते वक्त उन्हें गोलियों से भुन दिया गया जबकि बचे हुए लोगो को तोप से उड़ा दिया गया | उस वक्त की मंजरकशी शायरे आजम मिर्जा ग़ालिब ने अपने खतूत व शायरी में ब्यान की है | ग़ालिब के इन खतो को आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने ग़ालिब हिज लाइफ एंड लेटर्स के नाम से साया किया है | इस जंगे - आजादी को दर का नाम देकर अंग्रेजो ने इसमें शामिल लोगो पर जो जुल्म ढाया , उसका आलम यह था की दिल्ली में तब लाल किला व जामा मस्जिद के आस - पास लाशो के ढेर पड़े थे की उनको उठानेवाला कोई नही था | उस वक्त अल्लामा फज्लेह्क खैराबादी ने खुद उन लाशो को उठाने की जिम्मेदारी ली और हजारो - हजार लाशो को तर्को के जरिये दूर - दराज भिजवाकर वहां दफ़न कराया | बाद में इसी जंगे - आजादी की अगुवाई के लिए बगावत की कयादत करने के जुर्म में बहादुरशाह जफर को रागुन ( वर्मा ; मौजूदा म्यामार ) भेज दिया गया जहाँ अप आखरी साँस तक रहे | इस बाबत उनका यह शेर आज भी लोगो की जिबान पर है |
'' है कितना बदनसीब जफर दफ़न के लिए
दो गज जमीं भी न मिली कुएं-यार में
अल्लामा फज्लेह्क खैराबादी को भी कालापानी की सजा मिली , जहाँ उन्हें शहादत हासिल हुई |

सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक