Friday, August 30, 2019

आज भी कबीर की धार मौजूद हैं - दार्शनिक विनोद मल्ल

आज भी कबीर की धार मौजूद हैं - दार्शनिक विनोद मल्ल
पिछले दिनों इंदौर के जाल सभागार में स्वरागिनी जन विकास समिति के तत्वाधान में बुद्ध व कबीर नये संदर्भ में नये तथ्यों के साथ विषय पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया | कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्ज्वलन के साथ आरम्भ हुआ सर्व प्रथम स्वरागिनी संगीत संस्था द्वारा उनके छात्रो द्वारा कबीर के पदों की प्रस्तुती की गयी , इसके बाद सेमीनार की शुरुआत वरिष्ठ पत्रकार - सीनियर फोटोजर्नलिस्ट सुनील दत्ता ''कबीर द्वारा किया गया , विषय प्रवर्तन करते हुए सुनील दत्ता कबीर ने कहा किकबीर की आवाज कामगारों की आवाज थी कबीर जिस युग में आये उस जमाने में उन्होंने देखा कि पूरी व्यवस्था एक विशेष तरह के मोर्चे के साथ जनशोषण कर रही है | जनशोषण के लिए उस समय के शक्तिशाली लोगो ने कानून से भी बड़ा कानून बना रखा था जिसे धर्म कहा जाता था | धर्म की आड़ में खड़े हो जाने के कारण शोषक वर्ग अपनी चालाकी को दैवी - विधान से जोड़ देता था | आकस्मिक नही था कि कबीर को इस चालाक लोक - वेद - समर्थित दैवी - विधान के खिलाफ आवाज उठानी पड़ी | जिन लोगो के पक्ष में पत्थर , पानी अर्थात मुर्तिया और तीर्थ खड़े थे उनके खिलाफ कबीर को कविता का शस्त्र खड़ा करना पडा ; जिन लोगो के पक्ष में किताबे , मंदिर - मस्जिद लैस थे उन लोगो के खिलाफ कबीर को साधू शब्दावली की सहायता से मुकाबला करने वाला संयम स्थिर करना था | 

जिन लोगो ने अपने हितो की रक्षा के लिए पुरोहित , शेख और मुल्ले तैयार कर रखे थे उनके विपक्ष में कबीर ने अपने घर में जुलाहा , मजदुर का कार्य करते हुए श्रम की ताकत से लड़ाई शुरू की | मिथकीय स्तर पर यह लड़ाई राम - रावण की लड़ाई थी , रथी और विरथ की लड़ाई | शोषक वर्ग के शिक्षितों , साधन सम्पन्नो के खिलाफ यह एक गरीब कामगार की लड़ाई थी | सेमीनार आगे बढाते हुए दिल्ली से आये दार्शनिक -लेखक -सिनेमा निर्देश कृष्ण कल्कि जी ने कहा कि कृष्ण और कबीर को जोड़ते हुए कहा कि दोनों के माथे पर बँधी मोरपंखी पर मत जाइये, कृष्ण और कबीर दोनों में हमारी परम्परा और लोक-चेतना बे-ओर-छोर का अपार अन्तर मानती-आँकती आयी है. कहाँ कृष्ण, जो राजमहलों के अभिजात्य सोपानों से कभी नीचे न उतरे... जिनकी राजधानी भी अथाह सागर तक को चुनौती देती रही— और कहाँ कबीर, जिनकी झोपड़ी अपने ज़माने के आम लोगों से बदतर... और वह भी कसाइयों की शहर-बाहर की बस्ती में : खुद कहते हैं वह— "कबिरा तेरी झोपड़ी गलकट्टों के पास" ! जहाँ एक ओर कृष्ण अपने समय में राजाओं के भी राजा की भूमिका निभाते रहे, वहीं दूसरी ओर कबीर दबे-कुचले लोगों को साथ लेकर जीवन-भर जन-चेतना की ऐसी अलख जगाते रहे जो सदियों बाद तक राजसत्ता को अपनी निरंकुश राह में रोड़े की तरह चुभती रही. जहाँ एक ओर कृष्ण भगवत्ता को धरती पर उतारे जाने की प्रतिमा बनकर उभरते हैं, वहीं दूसरी ओर कबीर भगवत्ता की हर प्रतिमा को ताउम्र तोड़ते दिखायी पड़ते हैं. ज़ाहिरन, कृष्ण और कबीर एक नाव के मुसाफिर नहीं हैं; दोनों में दूरी बहुत है, अन्तर बहुत और विषमताएं भी बहुत. दोनों ने हालाँकि आत्मिक स्तर पर अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर को जिया, दोनों ने हालाँकि वैयक्तिक स्तर पर प्रेम के ढाई आखर को अपनी साँसों की गरमी दी— लेकिन लोक के स्तर पर, समाजी परिवेश के स्तर पर, दोनों की भूमिका में और दोनों के अभिगम्य में ज़मीन-आसमान का अन्तर था. इसीलिए हमारी परम्परा ने— जिनमें केवल दार्शनिक और विद्वान ही नहीं, बल्कि आम लोग भी शामिल हैं— उन सब ने कृष्ण और कबीर दोनों को एक-साथ याद करने से हमेशा परहेज़ किया है. मानते हालाँकि वे सब भी कृष्ण और कबीर दोनों को हैं, लेकिन चर्चा दोनों की अलग-अलग ही करते रहे हैं— गोया कि कबीर के साथ जुड़कर कृष्ण की भगवत्ता पर कोई धब्बा लग जायेगा, या फिर कृष्ण के साथ नाम जुड़ने से कबीर की कबीरीयत कुछ कमतर हो जायेगी !

लेकिन तर्कशीलता का वह अंकुर चूंकि तब तक मानव-सभ्यता के लिए नया-नया था, कोमल था, इसलिए उसकी रक्षा के लिए हालाँकि आगे चलकर स्वयं कृष्ण को पुरातनता की पिटी-पिटायी लकीरों के साथ थोड़े-बहुत समझौते भी करने पड़े, लेकिन फिर भी उन लकीरों में भी उन्होंने उस समय तक की तर्कशीलता का समावेश करते हुए उन्हें नया रूप ज़रूर दे दिया, जो कि तब तक के लिहाज से पाखण्ड-शून्य थे
वैज्ञानिक दृष्टि से लबरेज़ बुद्ध ने विश्व के जन-मानस पर भी बहुत गहरा असर डाला है. उनकी समता-मूलक, मध्यम-मार्गीय और तर्कनिष्ठ वैचारिकी ने दुनिया के तमाम देशों में सच को सच की तरह ही पहचानने और परखने की कुव्वत पैदा की है; ढोंग-ढकोसलों को परे हटाकर हताश आदमी को होशपूर्ण इंसान बनानेवालों की जमात तैयार की है— भले ही जिस भारत-भूमि पर उनका प्रादुर्भाव हुआ था, वहाँ से तो कालान्तर में उनके माननेवालों की जमातें उखड़ गयीं... या तमाम किस्म के छल-छद्म-कौशलों का इस्तेमाल करके साज़िशन उखाड़ दी गयीं, क्योंकि तर्कशीलता को आचरण की सभ्यता बनानेवाली उन जमातों का सामना यहाँ उन दकियानूस पोंगापंथियों से था जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तब इसे उस कोटि का एक ऐसा युद्ध मानकर लड़ रहे थे, जिसकी नंगी सच्चाई को बयान करते हुए 'रश्मिरथी' में दिनकर ने कहा है कि— "सत्य ही युद्ध में जय के लिए नहीं केवल बल चाहिए; कुछ बुद्धि का भी घात, छल-छद्म-कौशल चाहिए". ऐसी ही कायराना साजिशों पर अमल करके उस युद्धक मानसिकता के कर्णधारों ने बुद्ध की तर्कशील वैचारिकी के बल से संपन्न शान्तिपूर्ण जमातों का सालों-साल हर तरह से दमन किया; हज़ारों-हज़ार विहारों को जला डाला; अनगिनत भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया. लेकिन जैसा कि सूली पर चढ़ाये जाते वक़्त जीसस ने कहा था कि "हे पिता ! इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं"— मतलब यह कि जीसस के शरीर को मिटाने से जीसस की वैचारिकी नहीं मिटती, उसी तरह बुद्ध के माननेवालों के संगठित कत्लेआम से भी बुद्ध की आधारभूत तर्कशीलता मिट तो नहीं सकी... उल्टे, जन-जन के ज़ेहन में वह पैठ ज़रूर गयी. लोगों के दिल-दिमाग में तब स्वाभाविक रूप से तमाम ऐसे सवाल खदबदाने लगे, जो पीढ़ियों तक उनके मन को प्रतिरोध के जज़्बे से भरने का कारण बने. प्रतिरोध की यह आग सुलगती गयी तमाम तरह के पाखंडों के खिलाफ, विभेदकारी गैर-बराबरी के खिलाफ, कर्मकांडों के कांइयापन के खिलाफ, अंधविश्वासों की बे-दिमागी के खिलाफ, ऊँच-नीच व छुआ-छूत की बीमार भावना के खिलाफ, पाठ-पूजा व शिक्षा-दीक्षा पर कुछ लोगों के एकाधिकार के खिलाफ, सच्चे-झूठे आसमानी देवताओं के खिलाफ, ज़मीनी ओझाओं के खिलाफ, भय-प्रलोभनों पर टिकी धरम-पोथियों के खिलाफ, पुरोहितों के ज़ालिम जकड़जालों के खिलाफ, धर्म के नाम पर जारी शोषण के खिलाफ... गरज़ यह कि व्यवस्था और प्रतिष्ठान के हर उस तौर-तरीके के खिलाफ लोगों के मन में तब दिनों-दिन बढ़ता प्रतिरोध प्रज्जवलित होने लगा, जो हर बीतती पीढ़ी के साथ धमनियों के रक्त को कुछ और गरमाता भी गया. प्रतिरोध की यह ज्वाला, जो तर्कशील चेतना से उपजी थी, कबीर तक आते-आते प्रखर हो चुकी थी. चौदहवीं सदी के अंतिम वर्षों में जब कबीर का प्रादुर्भाव हुआ था, उस समय न केवल देश की सामाजिक व्यवस्था ही चरमरा-सी गयी थी बल्कि आस्था के सबरंगी फूल भी अपनी सुगंध से छीजने लगे थे.
 दक्षिण-भारत के कुछ हिस्सों में तो राज-व्यवस्था फिर भी स्थिति को सँभाले रखने के लिए सचेष्ट थी, लेकिन बाकी भारत में जन-जीवन की हालत चौतरफा बरबादी के साथ गोया होड़ कर रही थी. अनाचार उन दिनों अपने चरम पर था और सदाचार रसातल में. तंत्र के अत्याचारी शिकंजे में बेबस पड़ा लोक अपने हाल पर बिलख रहा था. व्यवस्था शीर्षासन कर रही थी. जनहितों की बलि दी जा रही थी. मुक्ति दिलाने का वायदा करनेवाला भगवान खुद मन्दिर में नज़रबंद था और बस मुट्ठी-भर लोगों को ही दर्शन देने पर मज़बूर भी. खुदाई सोयी पड़ी थी, अजानें भी उसे जगा नहीं पा रही थीं. पण्डितों और मुल्लाओं की तूती बोल रही थी. धर्म पर हावी था पाखण्ड. आडम्बर ही पूजा जा रहा था. मेहनतकशी निन्दित थी और विलास की मठाधीशी सम्मानित. योगी ढोंगी थे और सिद्ध नकली. पुजारी व्याभिचारी थे और संत मक्कार. वर्तमान संत्रस्त था और भविष्य अन्धकारपूर्ण.ज़माने की हालत देखकर अन्धकार उन दिनों हर आम आदमी की आँखों में भी छाने लगा था. अब चूंकि तर्कशील चेतना की जाग्रत् कसौटी थी | इस सेमीनार के क्रम को आगे बढाते हुए गुजरात पुलिस के ए.डी.जी दार्शनिक - च्निताक श्री विनोद मल्ल ने कहा कि जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों से आए हुए महानुभाव ने शिरकत की श्री कृष्ण कल्कि ने कबीर और बुद्ध के दार्शनिक पहलू पर बात करते हुए आज के समय में कबीर की प्रासंगिकता पर बात की आज के समय में जिस तरीके से समाज में कर्मकांड का फैलाव हो रहा है उसका विरोध करने की आवश्यकता है और यह प्रेरणा हमें कबीर से मिलती है श्री विनोद मल्ल आईपीएस जो बुद्ध से कभी तक संस्था के प्रमुख हैं उन्होंने भारत की दार्शनिक विरासत को विविधता और बहुलता बाद से परिपूर्ण बताएं हमारे देश की संस्कृति अलग-अलग संस्कृतियों और धर्मों के सम्मिश्रण और विकास और अंतर प्रभाव से बनी हुई है और हमें उस पर गौरव करना चाहिए आज बुध का मध्यम वर्ग समाज को संवाद की तरफ ले जाने की प्रेरणा देता है और सारे आपसी मामले बातचीत से हल करने के लिए रास्ता दिखाता है कबीर का ब्रह्म सारे मानव की बराबरी पर जोर देता है और यह बताता है कि जात पात और धर्म पर आधारित भेदभाव आज के समाज के लिए अच्छे नहीं हैं और उनको दूर करने की आवश्यकता है | उन्होंने आगे कहा की अपने बात की शुरुआत विनोद मल्ल ने मालवा की गौरवपूर्ण इतिहास के साथ शुरू की जो की विविधता से भरी हुई है। उन्होंने इस प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानियों को भी श्रद्धांजलि अर्पित की जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति दी थी ।मालवा पक्षेत्र में कबीर की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा है और कबीर के गाने बजाने वाले लोग कबीर के संदेशों का प्रचार प्रसार जनमानस में करते रहते हैं। भारत एक विविधता पूर्ण देश है जिसका इतिहास विविधता से भरा हुआ है। हजारों वर्षों से भारत में अलग-अलग धर्म और संस्कृतियों के लोग एक दूसरे के साथ रहते हुए, एक दूसरे से सीखते हुए, एक समृद्ध साझा संस्कृत का निर्माण किए। हमारे महापुरुषों महावीर, बुद्ध, नागार्जुन शंकराचार्य ,कबीर ,तुलसी ,नामदेव गुरु नानक, विवेकानंद और गांधी ने हमारी परंपरा के तत्वों को जाना और पहचाना। इन्हीं तत्वों को लेकर स्वतंत्रता संग्राम में हम आगे बढ़ते रहे। महावीर और बुद्ध के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत को गांधी ने अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए अपनाया और इसीलिए हिंदुस्तान का स्वतंत्रता संग्राम दुनिया के दूसरी आजादी की लड़ाईयों से बिलकुल अलग सा दिखता है। अगर हम गांधी, नेहरू, पटेल, अंबेडकर, सुभाष चंद्र बोस, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जैसे लोगों के विचार सुने और देखें, वो विचार जो इंडियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन में बार-बार रखे गए, तो हम पाएंगे कि भारत का इतिहास विविधता और बहुसंस्कृतिवादी परंपरा को लेकर के आगे बढ़ता है।
अगर हम भारत की धार्मिक परंपरा की बात करें तो हम पाएंगे कि भारतवर्ष में सभी धर्म के लोग मौजूद हैं और सभी धर्म एक दूसरे की इज्जत करते हैं । वे एक दूसरे से सीखते हुए आगे बढ़ते देखे जा सकते हैं ।इस्लाम का एकेश्वरवाद और वेदांत का अद्वैत ब्रह्म एक दूसरे से करीब दिखता है। इसीलिए भारत में जहां एक तरफ इस्लाम में सूफी परंपरा आगे बढ़ती है वहीं पर हिंदू धर्म में भक्तिकाल विकसित होता है। सूफी परंपरा दक्षिण एशिया की अनूठी परंपरा है। वेदांत की परंपरा में भी रामानुज के ईश्वर की हर व्यक्ति अपने तरीके से आराधना कर सकता है। सबसे खास बात यह है कि आराधना करने का कोई एक रास्ता नहीं होता । जो जिस तरीके से चाहे उस तरीके से ईश्वर की आराधना कर सकता है ।इसीलिए भारतीय परंपरा में धर्म के साथ संगीत, नृत्य और कविता बहुत ही बारीकी से जुड़े हुए हैं । ईश्वर के रूप को लेकर के दो परंपराएं भारत में मौजूद रही हैं - सगुण और निर्गुण। व्यक्ति की अपनी आजादी है कि वह सगुण परंपरा से ईश्वर की आराधना करना चाहता है या निर्गुण परंपरा से। जहां सूर और तुलसी, कृष्ण और राम को लेकर एक मजबूत सगुण परंपरा की रचना करते हैं और महाकाव्यों का निर्माण करते , हैं वहीं कबीर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते हैं और अपने सीधे-साधे दोहों से समाज की कुरीतियों पर आक्रमण करते हैं। कबीर दास के निर्गुण हमारी संगीत परंपरा में जनमानस में गहरे तक प्रवेश कर चुके हैं। आज का यह कार्यक्रम उसी परंपरा की कड़ी को आगे बढ़ाता हुआ कार्यक्रम है जिसमें माननीय अंजना जी, बनारस से आए हुए ताना-बाना के कलाकार और मालवा प्रदेश के प्रतिष्ठित कलाकार आज आपके सामने संगीत प्रस्तुत करने वाले हैं।
मैं आपको बताना चाहता हूं कि विश्व में कहीं भी इतनी समृद्ध परंपरा कभी नहीं रही है। ज्यादातर धर्मों में ईश्वर एक पूजा गृह या एक किताब तक सीमित हो जाता है । जब कि भारतीय परंपरा में ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, सर्वत्र बिखरा हुआ है। अलग-अलग रूपों में है और संगीत, कविता ,नृत्य, मंदिर और कई बार जंगलों में नदियों में खुली जगहों में भी लोग ईश्वर की आराधना करते हुए देखे जा सकते हैं। बुद्ध से कबीर तक आंदोलन आज से करीब डेढ़ साल पहले शुरू हुआ था। इसका उद्देश्य भारत की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत को सहेजना तथा इसके विविधता पूर्ण , बहुसंस्कृतिवादी परंपरा को मजबूती प्रदान करना है जिससे हम अपने संविधान में लिखे हुए बराबरी, न्याय और आजादी के सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचा सकें। आज का प्रयास उसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कड़ी है कार्यक्रम को आगे बढाते हुए स्वरागिनी संस्था के सचिव श्री महेश यादव इ नेतृत्व में कबीर सुर साधिका श्रीमती अंजना सक्सेना जी द्वारा कबीर के गाया गया , इसके बाद कबीर मठ से आये तानाबान के साथियो ने कबीर के पदों पर नये प्रयोग के संग प्रस्तुती दी जिसके चले साभागर में बैठे सारे श्रोता कुछ समय के लिए कबीर मय हो गए | कार्यक्रम में शहीद मेला के संयोजक इ राज त्रिपाठी को उनके इस कार्य के लिए सम्मानित किया गया , इसके साथ ही वरिष्ठ पत्रकार -सीनियर फोटो जर्नलिस्ट , एक्टिविस्ट सुनील दत्ता कबीर , दिल्ली से आये कृष्ण कल्कि जी के साथ दार्शनिक -चिन्तक श्री विनोद मल्ल को संस्था द्वारा सम्मानित किया गया | अंत में स्वरागिनी संस्था की अध्यक्षा श्रीमती अंजना सक्सेना द्वारा आभार व्यक्त किया गया |

Sunday, August 18, 2019

बादशाह खान ( खुदाई खिदमतगार ) आखरी कड़ी

बादशाह खान ( खुदाई खिदमतगार ) आखरी कड़ी

1942 के भारत छोडो आन्दोलन में सीमांत प्रांत के खदाई ख्द्मात्गार सक्रिय भूमिका निभाते रहे | बादशाह खान के प्रयासों से इस क्षेत्र में स्वतंत्रता आन्दोलन में तेजी आ गयी थी .पर उसका स्वरूप अंत तक अहिंसात्मक बना रहा | खान अब्दुल गफ्फार खान के व उनके साथियो के वक्तव्यों ,धरने ,प्रदर्शनों से आन्दोलन ने सीमांत क्षेत्र में तेजी पकड़ी | जुलाई 1942 में ही पंडित नेहरु ने कहा था -''बहुत कम लोग जानते है की बादशाह खान पिछले छ: महीने से चुपचाप महान कार्य कर रहे है | वह आडम्बर में विशवास नही करते ,लेकिन वह लोगो से मिलने गाँवों में जाते है उन्हें सगठित करते हैं , हर तरह से प्रोत्साहित करते है , इस तरह वह पुरे प्रांत में घूम रहे हैं |'' 27 अक्तूबर 1942 को एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने बादशाह खान को बेरहमी से पिटा और गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया | 1943 में बादशाह खान को हरिपुर जेल भेज दिया गया - जहाँ वे साथी कैदियों के बीच साक्षरता की क्लास लगाने लगे | इन क्लास में गीता और कुरआन पढ़ाई जाती | 1946-47 के साम्प्रदायिकता के माहौल में जब सीमांत में यह हिंसा पनपी ;तब पेशावर में शान्ति कायम रखने व अल्पस्ख्यक हिन्दू -सिक्ख की रक्षा करने के लिए दस हजार खुदाई खिदमतगार सामने आये | 1947 में बिहार जब साम्प्रदायिकता की हिंसा की आग में जल रहा था ;तो बादशाह खान दंगाग्रस्त इलाको में गये | पटना स्थिति गुरुद्वारा हरमंदिर में हिन्दू -मुस्लिम और सिक्खों की एक संयुकत सभा को सम्बोधित करते हुए वे बोले ''भारत आज पागलपन का नर्क बन गया है और मेरा हृदय हमारे अपने ही हाथो जलाए हुए घरो को देखकर रोता हैं :... एक खुदाई ख्द्मात्गार के नाते मैं तो केवल पीड़ित मानव जाति की सेवा करने को आतुर हूँ ""| जो दंगाग्रस्त मुस्लिम परिवार अपने क्ष्तग्र्स्त घरो को लौटने से डर रहे थे उनमे से कइयो को बादशाह खान ने हिम्मत बाधी अपने नेतृत्व वे उन्हें क्षतिग्रस्त गाँव में छोड़ आये | विभाजन के प्रबल विरोध के वावजूद बादशाह खान व अन्य खुदाई ख्द्मात्गारो को विभाजन का धक्का सहना पडा ,दुखी ,उदास किन्तु फिर भी पख्तूनो के हितो के प्रति सचेत और मानवता की खदमत के लिए तैयार खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपने अनेक पुराने साथियो से बिछुड़ने का आघात शा | गांधी जी से मिलने वाले मनोबल का उन्हें पूरा भरोसा था | बिछुड़ते हुए गांधी जी से उन्होंने कहा था - '' अब आपका कर्तव्य पाकिस्तान को वास्तविक अर्थो में पाक - पवित्र बनाना है |'' पाकिस्तान में भी पख्तूनो के वाजिब हको नागरिक अधिकारों के लिए उन्हें लाफि संघर्ष करना पडा |लम्बे समय तक उन्हें पाकिस्तान के जेलों में रखा गया कहा के इस नेक बंदे , मानवता के इस महान खिदमतगार की मृत्यु 98 वर्ष की उम्र में 20 जनवरी 1988 को पेशावर ने हुई | उनका जीवन ही संदेश था | उन्होंने कहा था , ''कोई भी सच्छा प्रयास बेकार नही जाता | इन खेतो को देखो यहाँ जो अनाज बोया गया है उसे कुछ समय तक धरती के भीतर ही रहना है | फिर उसे अंकुर फूटता है और धीरे - धीरे वह अपने जैसे हजारो अन्न के दानो को जन्म देता है | यही बात अच्छे उद्देश्यों के लिए किये गये हर प्रयास पर लागू होती है |

Saturday, August 17, 2019

बादशाह खान -- भाग तीन

बादशाह खान -- भाग तीन

बादशाह खान समाज में महिलाओं की व्यापक भूमिका , स्वतंत्रता के संघर्ष में उनकी सक्रिय भागीदारी पर जोर देते थे | उनकी खुद की बहनों ने परदे के बहार आकर उनके आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई | 1930 में उनकी बहने सीमांत के एक क्षेत्र से दुसरे क्षेत्र में यात्राए करते हुए जन जागरण द्वारा आजादी का संदेश देती रही | पठान औरतो को सम्बोधित करते हुए 1931 में खान अब्दुल गफ्फार खान ने कहा था ''भगवान ने आदमी और औरत में कोई अंतर नही बनाया है यदि इनमे से कोई दूजे से उपर उठ सकता है तो केवल अपने अच्छे कर्मो और नैतिक गुणों के बल पर | अगर आप इतिहास पढ़ेंगी तो पाएगी की औरतो में कई विधुशी और कवित्री हुई है | औरतो को कम अंक कर हमने बहुत बड़ी गलती की हैं | उन्होंने मुस्लिम महिलाओं का आव्हान किया '' यदि तुम इस्लाम के इतिहास का अध्ययन करो तो तुम पाओगे की पुरुष और स्त्री ने एक साथ मिलकर इस्लाम की सेवा की हैं | इसलिए तुम्हे हमारे साथ मिलकर देश की सेवा में जुट जाना चाहिए "'| 1934 में बम्बई में उन्होंने खा था .. यदि भारतीय महिलाए जागरूक हो जाए ;तो धरती पर कोई भी शक्ति नह रहेगी जो भारत को गुलाम रख सके ''| सीमांत प्रांत में मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा व सामाजिक सुधार के उद्देश्यों के लिए खान अब्दुल गफ्फार खान के अनुरोध पर गांधी जी ने 1939 में वहाँ मीरा बहन व बीबी अम्तुस सलाम को भेजा था | बादशाह खान ने अपने क्षेत्र में नागरिक अवज्ञा आन्दोलन में शामिल हो इसी अपील को फैला रहे थे और वे गिरफ्तार कर लिए गये उन्हें तीन साल की सजा हुई | पेशावर समेत सीमांत क्षेत्र में अन्य इलाको में सरकार ने पठानों पर विशेषकर खुदाई खिदमतगारो पर भयंकर कहर ढाया | इसी दौर में भारतीय इतिहास की एक यादगार घटना घटी थी | पेशावर में निहत्थी भीड़ पर गोलिया चलाने से चन्द्रसिंह गढवाली के नेतृत्व में गढवाल राइफल्स की एक पलटन ने इनकार कर दिया | अपने अफसरों से उन्होंने साफ़ कहा की चाहे उन्हें ही गोलियों से क्यो न भुन दिया जाए ;पर वे निह्ठो भाइयो पर गोलिया नही चलाएंगे | इन साहसी सिपाहियों को बाद में कड़ी सजा दी गयी | जेल से रिहा होने के बाद बादशाह खान खुदाई ख्द्मात्गारो को पुन: संगठित करने में जुट गये | एक सादगीपूर्ण जीवन जीते हुए बादशाह खान अपने सबदेश फैलाते हुए निरंतर एक गाँव से दुसरे गाँव की यात्रा करते रहे | अंग्रेजो ने उन पर कई तरह की बंदिशे लगाई , उनके बारे में गलत अफवाह फैलाई गयी ; पर कोई बाधा उन्हें न ओके सकी | अंतत:उन्हें पुन: गिरफ्तार करके बिहार की जेल में एकांतवास में भेज दिया गया | सीमांत क्षेत्र से बाहर भी बादशाह खान ने अपने व्यक्तित्व की विशेष छाप छोड़ी | अगस्त 1934 में उन्होंने पटना में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए साम्प्रदायिकता एकता पर बल दिया | बंगाल के युवको को उन्होंने अपना खुद का एक खुदाई -खिदमतगार आन्दोलन चलाने को प्रोत्साहित किया | 1938 में गांधी जी ने सीमांत क्षेत्र में दो बार दौरा किये और वे खुदाई ख्द्मात्गारो से काफी प्रभावित हुए | उन्होंने सीमांत क्षेत्र में रचनात्मक कार्यक्रम पर बल देने की सलाह दी | बादशाह खान को उनकी सलाह थी की पठानों को अंहिसात्मक ढंग से लड़ना तो आता है , पर अब खान अब्दुल गफ्फार खान को उन्हें अहिंसात्मक तरीके से जीना भी सिखाना है | क्रमश:

Friday, August 16, 2019

खान अब्दुल गफ्फार खान - बादशाह खान - 2

खान अब्दुल गफ्फार खान - बादशाह खान - 2

'' मेरा मानना है कि इस्लाम अमन , यकीन और मोहब्बत का नाम है ....''
---------------------------------------- बादशाह खान


खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म पेशावर से लगभग 24 मील दूर स्थित उत्तमजई गाँव के समृद्द परिवार में हुआ था उनके पिता बहराम खान अपने गाँव के मुखिया थे | अपने आसपास के माहौल के विपरीत वे एक शांत प्रवृत्ति के बदले की जगह माफ़ कर देने वाले इंसान थे | उन्होंने स्थानीय मुल्लाओ के विरोध के वावजूद अपने बेटो को गाँव से बाहर हाई स्कूल में पढने भेजा | अब्दुल गफ्फार खान अपनी शिक्षा पूरी करके स्थानीय ब्रिटिश सेना में गाइड की नौकरी करने लगे थे , पर एक अंग्रेज अफसर के हाथो अपने एक साथी का अपमान देखकर उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी | उन्होंने कुछ समय तक खेतो में काम किया , अलीगढ़ जाकर पढ़ाई जारी रखी ; पर वे पठानों में व्याप्त अज्ञानता ,पिछड़ेपन और हिंसा से व्यथित हो सुधार के लिए कुछ करने के लिए परेशान रहते | कुछ समय तक उन्होंने सीमांत क्षेत्र के प्रमुख समाज सुधारक हाजी अब्दुल वाहिद साहिब की छत्रछाया में काम किये | शुरूआती दौर में खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपने गाँव उत्तमजई और उसके आस पास के अन्य गाँव में स्कूल खोलकर उदार शिक्षा का प्रसार करना शुरू किया | जाहिर है इससे अंग्रेजो और रुढीवादियों मुल्लाओ दोनों को परेशानी हुई कयोकि सीमांत क्षेत्र में जागरूकता फैलना उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता था | अत: गफ्फार खान को कई कठिनाइयो का सामना करना पडा | देश के कुछ मुस्लिम नेताओं की सलाह पर बादशाह खान ने कई पहाड़ी कबीलाई इलाको में शिक्षा - प्रसार के प्रयास शुरू किये | इस कार्य में वे बिलकुल अकेले पड़ गये पर अपने आंतरिक मनोबल को मजबूत बना लिया | अपने गाँव लौटने पर अंग्रेजो द्वारा बंद किये स्कूल को पुन: चालु करने में लग गये | स्कूलों की पुनर्स्थापना , नए स्कूल खोलने और पठानों की सर्वोमुखी उन्नति के लिए वे एक के बाद एक पठान गाँव की यात्राये करते रहे | इन्ही दिनों इनकी पत्नी बीमार हो गयी जिनसे उनकी मौत हो गयी |
1919 की राजनीतिक हलचलों के दौरान सीमांत क्षेत्र में जब मार्शाल ला लगाया गया तो बादशाह खान को गिरफ्तार कर लिया गया | जेल से छूटने पर माता -पिता की आग्रह पर उन्होंने दूसरी शादी की | सीमांत क्षेत्र में सुधार कार्यो के लिए एक गैर राजनीतिक संस्था ''अंजुमन - ए-इस्लाह - उल -अफगीना '' के गठन का मार्गदर्शन अब्दुल गफ्फार खान ने किया और वे पख्तूनो की तालीम हेतु स्थापित आजाद स्कूल के विस्तार में लग गये | खिलाफत आन्दोलन के दौरान खान अब्दुल गफ्फार खान से सीमांत क्षेत्र की खिलाफत समिति की अध्यक्षता ग्रहण करने का लोगो ने आग्रह किया | हिजरत आन्दोलन के तहत वे अफगानिस्तान गये | यह आन्दोलन विफल हो गया और खान अब्दुल गफ्फार खान ने पुन: भारत लौटकर अपना ध्यान शिक्षा के प्रसार में लगाया | अंग्रेजो द्वारा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बंद किये गये स्कूलों की पुनर्स्थापना और नये स्कूल खोले जाने के कारण बादशाह खान से अंग्रेज बेहद चिढ गये और दिसम्बर 1921 में उन्हें गिरफ्तार करके तीन वर्ष का कठोर कारावास की सजा सूना दिया गया | 1924 तक खान अब्दुल गफ्फार खान का समय उत्तरपश्चिमी क्षेत्र की कई जेलों में गुजरा | इस दौरान उन्हें कई तरह की प्रताड़ना व अपमान सहना पडा भारी बेडियो से पांवो के छलनी होने से लेकर भूखे - प्यासे रख जाने दूषित और बुनियादी सुविधाओं से रहित माहौल में रहने एकांतवास के कठोर श्रम व अपमान सहने जैसे कई बुरे अनुभवो में उन्होंने अपने दिन गुजारे | इन सबके बीच जेल की दशा सुधारे जाने के लिए और जेल प्रशासन के भ्रष्टाचार के विरुद्ध बादशाह खान ने शालीनता से अपनी आवाज बुलंद किया | अपने बंदी जीवन में उन्होंने विभिन्न धार्मिक ग्रंथो का अध्ययन किया | उनका स्वास्थ्य गिरता गया और उनकी माँ के मौत की खबर बहुत बाद में उन्हें मिली | 1926 में अपनी पिता की मृत्यु के बाद बादशाह खान ने अपने परिवार के साथ हज यात्रा आरम्भ किया | यरूशलम में उनकी पत्नी एक दुर्घटना में गुजर गयी | मध्य पूर्व की यात्रा से लौटने के बाद खान अब्दुल गफ्फार खान ने पश्तून जिरगाह नाम से पठान युवको की एक लीग गठित की जो सामजिक - शैक्षिक व राजनीतिक सुधारों के लिए थी | 1927 में देश में साम्प्रदायिकता की जो लहर चली उस वक्त बादशाह खान ने दृढ़ता से अपना मत रखा कि '' मेरा मानना है कि इस्लाम अमन , यकीन और मोहब्बत का नाम है ....'' 1928 में उन्होंने ''पख्तून '' नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया | यह पश्तो भाषा का मासिक अखबार था जिसमे पख्तूनो की विभिन्न समस्याओं को उठाने के अतिरिक्त सामान्य सामजिक मुद्दों पर भी लेख होते __ क्रमश:

Thursday, August 15, 2019

बादशाह खान

बादशाह खान ( खान अब्दुल गफ्फार खान )

देश की आजादी और उत्तर - पश्चिम सीमांत क्षेत्र की पठान आबादी के सर्वोमुखी विकास जैसे उदात्त उद्देश्यों के लिए जीवन भर अहिंसक संघर्ष जारी रखने वाले बादशाह खान सही मायने में मानवता के सच्चे खिदमतगार थे | उन्होंने अपना सारा जीवन अंग्रेजो के शोषण से मुक्ति , पठानों के जीवन में सुधार और पठानों के भीतर हिन्दा द्द्वेश को कम करने में लगाया | जीवन भर अनेक कष्टों - अन्यायों को सहते हुए भी बादशाह खान ने गहरी सहनशीलता ,दृढ़ता और लक्ष्य के पीटीआई अटूट निष्ठा का परिचय दिया | गांधी जी से प्रभावित बादशाह खान ने सार्वजनिक जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य प्रतिष्ठित करने की ऐसी मिसाल कायम की जो आज भी प्रेरणादायक है | लोगो ने प्यार व सम्मान से उन्हें बादशाह खान व सीमांत गांधी फ्रन्टियर गांधी के नाम से संबोधित किया |
पाकिस्तान - अफगानिस्तान की वही सरहदी जमीन जहाँ आज आतंकवादियों और कट्टरपंथियों का खौफ मौजूद है और हिंसा का बोलबाला रहा है ; उसी इलाके में कभी गुजें थे खुदा के बन्दों के रूप में मानवता की सच्ची खिदमत करने वाले अहिंसक सेनानियों के गीत | इसी पठान इलाके से निकला था खुदा का वह नेक बन्दा जिसने मानवता की खिदमत के लिए अहिंसक तरीके से जीवन भर संघर्ष किया था | पठानों के बदले की भावना , हिंसा की प्रवृत्ति काफी प्रबल थी विभिन्न कबीले और कबीलों के भीतर भी विभिन्न गुट व परिवार आपसी दुश्मनियो की हिंसा से बुरी तरह तरसत थे | छोटी - छोटी बातो पर कलह , कबीलों - गुटों के बीच षड्यंत्र लड़ाई - झगड़े काफी आम बात थी और इसी पठान समाज को अन्दर से कमजोर कर दिया था | स्वाभिमान को लगी जरा सी ठेस को बदले की आक्रोशपूर्ण भावना में तब्दील हो हिंसक लड़ाइयो का रूप लेते देर नही लगती थी | अंग्रेजो से पठान कबीलों की छिटपुट संघर्ष तो चलते ही रहते थे ; पर सम्पूर्ण देश की आजादी के व्यापक उद्देश्यों का यहाँ अभाव था | पठान कबीलों पर अपना कठोर नियंत्रण रखने वाले मुल्लाओ को न्ग्रेजो ने इतनी छुट दे राखी थी कि वे पठानों में किसी राजनितिक - सामाजिक सुधार को होने से रोके | इस वातावरण में पठानों में सामाजिक सुधार का बीड़ा उठाना और हिंसक प्रवृत्ति के पठानों को देश की आजादी जैसे व्यापक उद्देश्यों के लिए अहिंसक सैनिको में तब्दील करना सचमुच बेहद आश्चर्यजनक उपलब्द्धि थी | खान अब्दुल गफ्फार खान ने यही प्रयास किया और इसलिए वे पठानों के ही नही सम्पूर्ण देशवासियों के दिलो के बादशाह बन गये | पठानों में छिपे साहस , दृढ़ता , स्वाभिमान और अनुशासन को पूर्णत: अहिंसक संघर्ष में तब्दील करके बादशाह खान ने सही मायने में ''अहिंसा ' के सिद्दांत को प्रतिपादित किया | क्रमश :

Monday, August 12, 2019

अहिंसा का देवदूत - बादशाह खान

अहिंसा का देवदूत - बादशाह खान


वास्तव में अफगानिस्तान की सीमा से लगे अविभाजित भारत के सीमांत प्रांत में बादशाह खान उनके द्वारा बनाई गयी खुदाई खिदमतगार सगठन ने जो उपलब्द्धि हासिल किया था वह देश ही नही पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी मिशाल थी आज इतना लम्बा समय बीतने के बाद भी यह प्रेरणा का एक स्रोत बना हुआ है | महात्मा ने लिखा है '' सीमांत प्रांत मेरे लिए एक तीर्थ रहेगा , जहां मैं बार - बार जाना चाहूँगा | लगता है कि शेष भारत सच्ची अहिंसा दर्शाने में भले ही असफल हो जाए ; तब भी सीमांत प्रांत इस कसौटी पर खरा उतरेगा ....|
सीमांत प्रांत एक ऐसा क्षेत्र था जो हिंसा से बुरी तरह त्रस्त था | एक तरह अंग्रेज शासको का अन्याय व उत्पीडन था तो दूसरी तरफ पठान कबीलों की आपसी हिंसा थी | बदले की भावना से बड़े - बड़े अपराध होते | पर हिंसा के इस क्षेत्र में भी बादशाह खान ने यह सपना देखा और जिया कि वो बड़ी संख्या में आम लोगो को अहिंसा की राह पर ले आये उन्होंने आम आदमी के जीवन मूल्यों में बुनियादी सुधार किया अहिंसक सघर्ष से अंग्रेजो शासको के अन्याय व अत्याचार का भी विरोध किया | इस तरह यह अन्याय से लड़ने के साथ जीवन - मूल्यों में बदलाव का एक अद्भुत प्रयोग किया था उन्होंने जो हिंसा की जमीन में अहिंसा के फुल उगाना चाता था |
कल्पना कीजिये कि उस समय जब विरोध की जरा सी आहात सुनते ही विदेशी शासक किसी भी व्यक्ति को जेल में डाल देते और कई अत्याचार करते थे उस समय यह कार्य कितना कठिन रहा ओगा कि गाँव - गाँव में जाकर लोगो को नये तरह के संघर्ष नये तरह के जीवन मूल्यों के लिए तैयार करना कितना कठिन रहा होगा पर बादशाह खान ने न केवल यह साहस किया , अपितु उन्होंने इसमें आश्चर्यजनक हद तक सफलता को प्राप्त भी किया | महात्मा गांधी ने कहा था , ' बाद्शाह खान '' मैं आपको मुबारकबाद देता हूँ | मैं यही प्रार्थना करूंगा की सीमांत के पठान न केवल भारत को आजाद कराए बल्कि सारे संसार को अहिंसा का अमूल्य संदेश भी देवे .....'' बादशाह खान की सफलता का एक बड़ा आधार यह था कि उनके अपने कार्य के प्रति और अपने लोगो के लिए बहुत गहरी निष्ठा थी | उन्होंने कहा था , ''मैं इन बहादुर , देशभक्त लोगो को उन विदेशियों के आतंक से निकालना चाहता हूँ जिन्होंने इनके स्वाभिमान को टेस पहुचाई है |.... मैं इनके लिए एक ऐसे आजाद संसार का निर्माण करना चाहता हूँ , जहाँ यह शान्ति से रह संके, जहां ये हँस सके और खुश रहें | मैं इन ओगो के कपड़ो पर से खून के धब्बे मिटाना चाहता हूँ .. मैं इनके घरो को खुद अपने हाथो से साफ़ करना चाहता हूँ कि ये पहाड़ी लोग कितने खुबसूरत और सभी है .....|
एक सच्चे जन आन्दोलनकारी में यह सामर्थ्य होना चाहिए कि उपरी परत को हटाकर वह अपने लोगो में छुपे हुए गुणों को पहचानकर व फिर इन गुणों को प्रेरित और जागृत कर उन्हें दे कार्यो के लिए तैयार कर सकें | यही बादशाह खान और उनके बहादुर साथियो ने खुदाई खिदमतगार संगठन के माध्यम से किया | दुनिया हैरानी इ देखती रह गयी जो क्षेत्र हिंसा की बड़ी पहचान रखता था वहां से खबरे आई की अब लोग यहाँ अंहिंसा को मानने लगे है | खुदाई खिदमतगारो का यह संघर्ष बहुत प्रेरक था जो हिन्दू -मुस्लिम एकता की एक बड़ी मिशाल भी कायम किया |सभी धर्मो में सद्भावना स्थापित करना खुदाई खिदमतगारो का एक मुख्य उद्देश्य था | बादशाह खान ने कहा , ''मजहब तो दुनिया में इंसानियत , अमन , मोहब्बत , प्रेम , सच्चाई और खुदा की मखलूक की खिदमत के लिए टा है ... जमाते तो सेवाओं के लिए बनाई जाती है और हर एक का दावा भी यही है | फिर आपस में झगड़ा क्यों हो ?


सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Sunday, August 11, 2019

अलमस्त फकीर

अलमस्त फकीर --------------------- अमीर खुसरो
तीर , तलवार , दरबार , सरकार से हटकर भी एक ऐसी दुनिया है इस जहांन में जहा सिर्फ हर ओर एक नगमा है प्यार का हर सांसो का एक एहसास है , एक ऐसी रूहानी दुनिया जहा सिर्फ मुहब्बत है प्यार है और उस प्यार में खोने का कोई एहसास नही बस समर्पण है जहा चाह कोई नही है वह है फकीरों की दुनिया जिसमे न दीन का पता न जाति का पता न ही किसी राजकाज का पता वहा तो अलमस्ती है प्यार के एहसास का --------------------------------------
ऐसे ही एक फकीर का आस्ताना
ऐ री सखी मोरे पिया घर आए
भाग लगे इस आँगन को
बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को।
ऐसे मस्ती में जीने वाले अलमस्त फकीर अमीर खुसरो जैसे मोहब्बत भरे दिल के आत्मा को शान्ति मयस्सर आई ये हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन की खानकाही फजा थी | दिल्ली की ग्यास्पुरी बस्ती में जहा अब जमुना किनारे हुमांयू का मकबरा है | यही पर रहते थे वो अकला मस्त फकीर जिन्होंने आम आवाम के मन की शान्ति के लिए दीनी प्रेम के एहसास को आम पैगाम बनाया | अमीर खुसरो अपने पीर ख्वाजा निजामुद्दीन के हमदम और हमराज भी रहे | ख्वाजा निजामुद्दीन की बानबे बरस की ब्रम्हचारी मुजर्रत जिन्दगी में खुसरो रंग और आवाजे बिखेतरे रहे और उनसे टूटकर इश्क किया |
खुसरो कहते है -- ऐ पीर निजामुद्दीन तुम हुस्नो जमाल के बादशाह हो और खुसरो तुम्हारे दर का फकीर | इस फकीर पर रहम करो | करम की नजर से इसे नवाज दो | नजरे क्रम कुन | खुसरो अपने पीर से फकीर व औलिया निजामुद्दीन से राज ओ नियाज की बाते करते और रूहानी शान्ति की दौलत समेत करते | कभी एक गुफ्तगू के दौरान हजरत निजामुद्दीन ने कहा ' खुसरो हमने तुम्हे तुर्क अल्लाह का खिताब दिया है | बस चलता तो वसीयत कर जाते कि तुम्हे हमारी कब्र में ही सुलाया जाए | तुम्हे जुदा करने को जी नही चाहता , मगर दिन भर कमर से फटका बाधे दरबार करते हो | जाओ कमर खोलो | आराम करो | तुम्हारी नफ्स ( अस्तित्व ) को भी तुम पर हक़ है | शब्बा खैर | ''

आम आवाम इस सूफी शायर की यही मुहब्बत आम लोगो की देसी - जुबानो में इसने मजे - मजे के दोहे कहे | अमीर खुसरो ने अपनी रचना शिल्प को एक आयाम दिया फकीरी का उन्होंने कहमुकरनियो- गीत - गजल , पहेलियाँ लिखे जो हिन्दुस्तान के गाँव - गाँव आज भी गूजता है | सावन के गीत , चक्की के गीत , शादी व्याह के गीत , पनघट के गीत , जो किताबो में लिपिब्द्द नही मिलते जो लोगो की जुबानो पर मिलते है |
अमीर खुसरो ने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के न रहने पर यह मार्मिक दोहा कहा |
'' गोरी सोवे मेज पे मुख पर डाले केस ,
चल खुसरो घर आपने रेन भई चंहु देस |
खुसरो अपनी फकीरी में कहते है
' खुसरो रेन सोहाग की , सो जागी पी के संग |
तन मोरा मन पीहू का , सो दोनों एक ही रंग || -------------------- सुनील दत्ता  कबीर