Wednesday, January 24, 2018

कारोबारी लाभ सर्वोपरी 24-1-18

कारोबारी लाभ सर्वोपरी
भारत पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव - विरोध के वावजूद दोनों देशो में बढ़ता कारोबार वस्तुत: कारोबारियों की सर्वोच्चता को ही साबित करता है |


भारत पाकिस्तान के बीच रिश्तो के निरंतर खराब होने की खबर हमेशा बनी रहती है | कभी आपसी वार्ताए चल रही होती है तो कभी महीनों के लिए बंद कर दिया जाता है | कभी सांस्कृतिक आदान - प्रदान को बढावा देने के साथ एक दुसरे के बीच यातायात एवं खेल आदि को बढ़ावा दिया जाता है , तो कभी उन्हें आंशिक या पूर्ण रूप से निलम्बित कर दिया जाता है | इसके साथ ही आपसी सम्बन्धो को लेकर दो परस्पर विरोधी प्रक्रियाए हमेशा चलती रहती है | पहली प्रक्रिया तो दोनों राष्ट्रों को परस्पर विरोधी और कटु प्रतिद्द्वन्द्दी बताने के रूप में चलती रहती है . और दूसरी प्रक्रिया , भारत -- पाक के बीच आयात - निर्यात को कमोवेश बढाते रहने के रूप में चलती रहती है |
इन दोनों प्रक्रियाओं में जहां पहली प्रक्रिया दोनों देशो के विरोध को बढाने - भडकाने की प्रक्रिया है , वही दूसरी प्रक्रिया एक दुसरे के साथ कारोबारी सहयोग करने बढाने की ठोस आर्थिक प्रक्रिया है | अगर विरोध ही इन अभिव्यक्तो से दोनों राष्ट्रों के जनसाधारण तक में एक दुसरे के प्रति विरोध - राष्ट्रीय विरोध के साथ - साथ धार्मिक एवं साम्प्रदायिक विरोध बढ़ता रहा है तो दूसरी और दोनों देशो के उच्च कारोबारी वर्गो में एकजुटता भी बढ़ता रहा है | अगर एक दुसरे के विरोध के लिए उनमे आत्नब्क्वाद कश्मीर समस्या जैसे मुद्दे उनके केन्द्रीय या प्रमुख मुद्दे रहे है , तो कारोबारी एक जुटता में भारत पाक के आयात - निर्यात से लेकर यहाँ और वहाँ की अध्योगिक एवं व्यापारिक कम्पनियों के लाभ -- मुनाफे तथा उनके बाजार का विस्तार , उनका केन्द्रीय मुद्दा बना रहा है |
वर्तमान समय में ये दोनों प्रक्रियाए तेजी पर है | एक तरफ सीमा पार के भीतर आतंकी घुसपैठ से लेकर इस देश और उस देश के रक्षा सैनिक हताहत हो रहे है , तो दूसरी तरफ दोनों देशो के बीच बढ़ते कारोबार से इनमे लगी कम्पनियों के लाभ - मुनाफे बढ़ रहे है | दोनों देशो के कारोबारी फलते - फूलते रहे है | हाँ यह जरुर है की इसमें जहाँ आतंकी घुस्पैठो हमलो और उन पर भारतीय सैनिको की कार्यवाइयो तथा सीमा के इधर - उधर की सिने झड़पो के प्रचारों एवं चर्चाओं को आम समाज में बताया सुनाया जाता रहा है , वही एक दुसरे के साथ बढ़ते कारोबार की सूचनाये आमतौर पर जाहिर नही की जाती | इनकी सूचनाये कभी कभार ही आती है | 15 अप्रैल 2017 के समाचार पत्रों में भारत - पाक के बीच द्दिपक्षीय कारोबार की ऐसी सुचना महीनों बाद प्रकाशित हुई है | इन सुचना के अनुसार भारत - पाक के बीच द्दीपक्षीय कारोबार बढ़कर124.4. करोड़ डालर पहुच गया है | इसमें पकिस्तान से भारत को निर्यात होने वाला निर्यात 28.6 करोड़ डालर रहा है जबकि भारत से पकिस्तान को होने वाला निर्यात95.83 करोड़ डालर का रहा है | जाहिर है की द्दीपक्षीय व्यापार में भारतीय निर्यातक पाकिस्तानी निर्यातको के मुकाबले ज्यादा लाभ में रहे है | हालाकि पिछले साल 2016 -17 में पाकिस्तान से भारत को होने वाले निर्यात में 14% की वृद्धि हुई है , जबकि भारत से पकिस्तान को होने वाले निर्यात में 23% की कमी आई है | अर्थात पकिस्तान के निर्यातक पहले से ज्यादा लाभ में रहे है | लेकिन असली प्रश्न इन दोनों देशो के कारोबारियों के कम या ज्यादा लाभ का नही बल्कि आपसी तनावों के बढ़ते रहने के वावजूद कारोबार एवं कारोबारी सम्बन्धो के बढ़ने का है | बताने की जरूरत नही है की कारोबारियों के बीच बढ़ते सम्बन्ध और उनके कारोबारी लाभ दोनों देशो की सरकारों वर्तमान ही नही पूर्वर्ती सरकारों द्वारा दिए जाने वाले अधिकारों तथा छुटो सहायताओ के साथ चलते बढ़ते रहे है | साफ़ बात है की सरकारों द्वारा इन कारोबारी सम्बन्धो को दोनों राष्ट्रों के कुटनीतिक , सांस्कृतिक सम्बन्धो से भी उपर रखने का कम किया जाता रहा है |
कारोबार और कारोबारी लाभ की इसी सर्वोच्चता का ही परिलक्षण है की इस देश ने सालो पहले से व्यापार के लिए पाकिस्तान को सर्वोच्च अनुकूल देशो की श्रीनि में दाल रखा है | पाकिस्तान ने भारत को ऐसी श्रीनि में तो नही डाला है , मगर भारत से व्यापार को बढाता रहा है | कारोबार में इस दो तरफा वृद्धि के पीछे यहाँ - वहाँ के कारोबारियों द्वारा किसी राष्ट्रीय एवं राजनितिक , सामाजिक एकजुटता को बढाने का उद्देश्य बिलकुल नही है |
उनका उद्देश्य तो अपने कारोबारी लाभ को बढ़ाना ही है | इसीलिए उनके बीच बढ़ते कारोबारी सम्बन्धो एवं लाभों से दोनों देशो के बीच तनाव - विवाद कम करने में भी कोई मदद नही मिलती | लेकिन उनके बीच व्यापारिक प्र्तिद्दन्द्ददिता बढने के साथ उनके बीच आपसी कारोबारी विवादों का असर दोनों देशो के बीच तनाव बढाने के लिए जरुर होता रहा है | यह पहले भी होता रहा है और आगे भी होगा | इसे भली भाँती जानते हुए भी सरकारे आपसी कुनितिक स्वं सामाजिक सम्बन्धो को उपेक्षित करते और खराब करते हुए हुए भी कारोबारी सम्बन्ध एवं लाभ को प्रमुखता देने में लगी रहती है | इसीलिए ये कारोबारी हिस्से दोनों देशो के बीच तनाव - विवादों के समाधान का कोई प्रयास नही करते | उल्टे वे उन्हें ज़िंदा रखते है ताकि कल को उठने वाले कारोबारी विवादों के लिए भी वे उनका इस्तेमाल कर सके |

Tuesday, January 23, 2018

आदिवासी संघर्ष गाथा 24-1-18



आदिवासियों का संघर्ष -
झारखंड राज्य के गठन के बाद से डोमेसाइल या स्थानीयता के मुद्दे को लेकर पूरा राज्य आंदोलित है | यह सही है कि इस आन्दोलन का नेतृत्व और विरोध राजनीति से प्रेरित लोग कर रहे है जिनका एक मात्र लक्ष्य लोगो की भावनाओं को उभार कर अपनी चुनावी गोटी को लाल करना और सत्ता पर काबिज होना है , लेकिन सतह पर दिखने वाली इन बातो के भीतर यदि झाँककर देखा जाए तो वह साफ़ दिखता है कि यहाँ के मूलवासी - चाहे वे आदिवासी हो या सदान - बैचैन है | उन्हें अपना अस्तित्व एक बार फिर खतरे में पडा दिखाई दे रहा है | झारखंड राज्य के गठन से उनकी जो उम्मीद थी , वे पूरी नही हुई हैं | इस क्षेत्र के जल , जंगल , जमीन पर से उनका अधिकार पूरी तरह छीन चुका है | जीवनयापन के आर्थिक स्साध्नो पर उनका अधिकार नही रहा | रोजगार के अवसर निरंतर कम होते जा रहे है और जो थोड़े अवसर पैदा हो रहे है , उसके लिए भी छिना - झपटी मची हुई है | जनतांत्रिक व्यवस्था में उनकी पहचान का मूलाधार है कुल आबादी में उनका प्रतिशत , जो निरंतर कम होता जा रहा है ; अपने ही घर में वे अल्पसंख्यक बनते जा रहे है और हालात ऐसे बन गये है कि वर्तमान व्यवस्था में उनका सत्ता पर कब्जा कभी हो ही नही सकता | और अब तो सत्ता के दलाल ''ह्न्दुत्ववादी ' उनकी अस्मिता और उनकी विशिष्ट सामाजिक - सांस्कृतिक पहचान ही मिटाने पर तुले है |
छोटानागपुर /संथाल परगना टीनेंसी एक्ट को समाप्त करने की बात हो रही है | उन्हें हिन्दू साबित करने की कोशिश हो रही है , क्योकि उनकी समझ है कि बिना हिन्दू हुए कोई भारतीय नही हो सकता | वास्तविकता यह है कि आदिवासियों की संस्कृति तथाकथित हिन्दू संस्कृति से भिन्न है | इसका ठोस प्रमाण यह तथ्य है कि हिन्दू समाज मनुवादी वर्ण -व्यवस्था द्वारा संचालित होता रहा है , जबकि आदिवासी समाज में जातीय समूह तो थे लेकिन वर्ण - व्यवस्था नही | हेयर आदिवासी हिन्दू समाज व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर कभी मेहनतकश जनका अधिकार नही रहा , जबकि आदिवासी समाज में उत्पादन के साधनों पर उस समाज के हर वैसे व्यक्ति का अधिकार था जो श्रम कर सकता था | इसीलिए गैर आदिवासी भारतीय समाज में जहां सामन्तवादी व्यवस्था रही वहाँ आदिवासी समाज में न कोई सामंत था , और न किसी तरह का राजतंत्र |
इस तथ्य को भी नही भुलाया जा सकता कि ढहते मुग़ल शासन के दौरान अंग्रेज जब भारत में आये तो उनका कोई संगठित विरोध नही हुआ | १८५७ का सिपाही विद्रोह भी एक सिमित अर्थ में ही स्वतंत्रता संग्राम था | उसके बाद गांधी जी के भारतीय राजनीति में आने से पहले तक अंग्रेज ' भारत भागे विधाता बने रहे और देश की कथित मुख्य धारा के लोग अंग्रेजी राज को स्वीकार किये हुए थे |
लेकिन आदिवासी समाज ने कभी भी अंग्रेजो की दासता काबुल नही की | अंग्रेजी राज का कदम - कदम पर विरोध हुआ और सिपाही विद्रोह के पहले १८३२ में कोल विद्रोह हुआ | १९०० में विरसा विद्रोह भी अंग्रेजो के अधीन आंतरिक स्वशासन के लिए नही बल्कि ''रानी '' के शासन की समाप्ति और ''मुण्डाराज की पुनर्वापसी '' के एलान के साथ शुरू हुआ था | अंग्रेजो ने विलकिसन रुल , छोटानागपुर /संथाल परगना टीनेंसी एकत जैसे कानून इन क्षेत्र विशेष के लिए किसी सदाशयता से प्रेरित होकर नही बनाये गये थे | इसके लिए मूलवासियो ने सतत संघर्ष किया था और अगिनत लोग शहीद हुए |
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आदिवासी संघर्ष गाथा ---- भार दो

झारखंड का अतीत ---


झारखंड के आदिवासियों का सम्पूर्ण इतिहास नही मिलता , कयोकी अपनी विशिष्ठ सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवस्था की वजह से वे इतिहास की उस धारा से कटे रहे जिसे इतिहासकार देश की मुख्य धरा मानते है | इसीलिए भारतीय इतिहास में जहां - तहां उनकी चर्चा भी हुई है तो एक आदिम सभ्यता के अवशेष के रूप में | यह अलग बात है की अपने उसी सामाजिक और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और अपनी अलग पहचान के लिए अनवरत संघर्ष की वजह से आज उन्होंने इतिहास में अपनी जगह बना ली है , बल्कि आदिवासी जनजातीय समूहों को केंद्र में रखकर आई कई राज्यों का गठन भी हुआ है | झारखंड उन राज्यों में अपना विशिष्ठ स्थान रखता है और यह जानना दिलचस्प होगा की छोटानागपुर के रूप में चिन्हहित झारखंड का इतिहास क्या रहा है | इस सम्बन्ध में अनेक शोध पूर्ण कार्य हुए है और अब तक अन्धकार में रहे आदिवासी समाज के इतिहास को हम अब जानने भी लगे है |

छोटानागपुर क्षेत्र के कुछ इलाको में आज भी जंगल दिखाई देते है और सैकड़ो वर्ष पहले जब इस क्षेत्र में जनजातीय समूह के लोगो ने प्रवेश किया तो यह पूरा इलाका जंगलो से आच्छादित था | अब तक जो प्रमाण मिले है , उनके अनुसार इस इलाके में सबसे पहले मुण्डा, उड़ाव, और खडिया जाति के लोगो ने प्रवेश किया | उस वक्त भी इस क्षेत्र की पहचान झारखंड के रूप में की जाती थी , यानी जंगल - झाड से आच्छादित प्रदेश | मुण्डा जाति के लोगो ने पशिच्मोत्तर क्षेत्र से इस इलाके में सबसे पहले प्रवेश किया , इसका प्रमाण उन कब्रिस्तानो से मिलता है जिसे सासिदरी कहते है और जहां वे अपने मृत परिजनों को या उनके अवशेषों को दफनाते है , वे इस इलाके में जिन रास्तो से होकर वे इस क्षेत्र में आये | उनके साथ उया उनके आने के कुछ दिन बाद उराँव जनजाति समूह के लोगो ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया | उन्होंने इस क्षेत्र के घने जंगलो को काटकर खेती लायक जमीन बनाई और अपने गाँव बसाए | जिस जमीन को जंगल से काटकर वे कृषि लायक बनाते थे , उस जमीन के मालिक वे स्वंय होते थे और खुद को खुटखुट्टीदार कहते थे | और चूँकि वे जमीन के मालिक होते थे , इसलिए वे किसी को लगान नही देते थे | यह ऐतिहासिक परिघटना मुग़ल काल के काफी पहले , सम्भवत: दसवी शताब्दी की है | वैसे कुछ इतिहासकार इस परिघटना का समय कुछ और पीछे ले जाते है |

चूँकि उत्पादन के स्साध्नो पर उत्पादन करने वालो का अधिकार था , इसीलिए यहाँ की सामाजिक व्यवस्था भी देश के उन इलाको से भी भिन्न थी जहां उत्पादन के स्साध्नो पर सामन्तो का अधिकार हुआ करता था यहाँ की सामाजिक , राजनितिक व्यवस्था बिलकुल अनूठी और अलग थी | पूरा क्षेत्र परहा में विभाजित था और एक परहा में 15 से 20 गाँव हुआ करते थे | प्रत्येक परहे का एक प्रधान या प्रमुख होता था | इन्ही प्रधानो ने मिलकर खुखरा चीफ का चुनाव किया जो छोटानागपुर का राजा या महाराजा के पूर्वज थे | हो सकता है , तत्कालीन खुखरा चीफ ने अपनी सर्वोच्चता किसी तरह प्रमाणित की हो | और वह एक मुण्डाथा | इसीलिए छोटानागपुर की राज व्यवस्था को मुण्डा राज के रूप में वे अब भी चिन्हहित करते है |

अब जो भी हो रहा है , बाद में खुखरा राजाओं ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए सिंहभूम और पचेत के राजपूत परिवारों से वैवाहिक रिश्ते कायम किये | उन्होंने ब्राह्मणों , राजपूतो , बराईक एवं अन्य हिन्दू जाति के लोगो को जमीन देकर अपने इलाके में बसाया और अपनी स्थिति इतनी सुदृढ़ कर ली की अन्य प्रधान या राजा उन्हें चुनौती नही दे सके | यहाँ की व्यवस्था यह थी की जो जंगल साफ़ करता था और जमीन तैयार करता था , वह जमीन उसकी होती थी और उसके लिए उसे किसी को लगान देना नही पड़ता था , लेकिन खुखरा राजाओ ने बाद में इस व्यवस्था को समाप्त करने की कोशिश की | अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए जिन लोगो को अपने यहाँ लाकर वे बसा रहे थे , उन्हें जमीन या जमीदारी देकर नवाजते थे | परिणाम यह हुआ की अन्य राजा या प्रधान सामान्य किसान बनकर रह गये | अंग्रेजो के जमाने में खूटी सब दिजिवन को छोड़कर कही भी खुटकट्टीदारी व्यवस्था नही बची थी |

मुग़ल - शासन का छोटानागपुर के इस हिस्से पर कोई ख़ास प्रभाव नही था | कभी - कभी उनके सिपहसालार इस इलाके पर आक्रमण करते और खुखरा राजा से ''हीरे '' का नजराना लेकर वापस लौट जाते | उस वक्त , चर्चा के मुताबिक़ , शंख नदी में हीरा मिलता था | यह प्रक्रिया 1585 इसवी से शुरू हो चुकी थी | इतिहासकारों के मुताबिक़ 1616 इसवी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने अपने सिपहसालार इब्राहिम खान , जो उस वक्त बिहार का सूबेदार था , को इस क्षेत्र पर आक्रमण करने का निर्देश दिया | उस तक यह चर्चा पहुच चुकी थी की इस इलाके में हीरे की प्रचुरता से मिलते है | एक विशाल सेना लेकर इब्राहिम खान ने इस इलाके पर आक्रमण किया और खुखरा रजा दुर्जन साल को पकड़कर दिल्ली ले गया | बाद में उन्हें ग्वालियर ले जाया गया , जहां वे अन्य राजाओ के साथ करीब बारह वर्ष कैद रहे | बाद में उन्हें इस शरत पर छोड़ा गया की वे प्रतिवर्ष 6000 रूपये नजराना मुग़ल बादशाह को देंगे | उन्हें यह छुट दी गयी की वे अपने राज्य को अपनी मनमर्जी से चला सकते है |क्रमश :

Friday, January 19, 2018

किसानो की फाँस 20-1-18

किसानो की फाँस


1947 – 50 से पहले जमीदारो को लगान चुकाने तथा अपनी आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए रियाया एवं स्वतंत्रत किसानो के पास भी किसी महाजन से कर्ज लेने के अलावा सरकार द्वारा नियंत्रित संचालित वित्तीय संस्था नही थी | हालाकि कोपरेटिव कर्जदाता सोसायटियो की शुरुआत 1904 से ही हो गयी थी | लेकिन यह आम तौर पर जमीदारो तथा स्थायी महाजनों को ही कर्ज देने वाली सोसायटिया बनी रही | जमीदारो से स्वतंत्रत और उनके मातहत रियाया किसानो को इन सोसायटियो का लाभ आम तौर पर नही मिल पाता था | 1950 तक किसानो को उन पर चढ़े कुल कर्ज का 3.1%हिस्सा ही इन सोसायटियो से मिला था | 1952 – 53 के बाद कर्ज का यह हिस्सा बढ़कर 15.5% तथा 1961 – 62 में 22 7. % तक पहुच गया | गौर करने वाली बात है कि कर्ज की यह बढ़ोत्तरी पहले जमीदारी उन्मूलन और फिर बाद में आधुनिक बीज खाद दवा वाली खेती के आगमन के साथ ही आगे बढ़ी स्वभावत इसमें बड़ी जोत के सभी किसानो के साथ माध्यम और छोटी जोतो के किसानो का एक हिस्सा शामिल था | आधुनिक खेती के साधनों के लिए बाजार से जुड़ने और उसकी
लागत बढने के साथ किसानो द्वारा सोसायटियो तथा बैंको आदि से अधिकाधिक कर्ज लेने की जरूरत बढती रही | इसके फलस्वरूप 1980 के दशक में कोपरेटिव सोसायटियो द्वारा लिया जाने वाला कृषि ऋण कुल कर्ज का 53.4 % तक पहुच गया | हालाकि उसके बाद से कोपरेटिव सोसायटियो से मिलने वाले कर्ज के मुकाबले अन्य वित्तीय संस्थानों से मिलने वाले कर्ज के मुकाबले गिरने लगा | 2013 – 14 में वह गिरकर 16.9% पहुच गया | कृषि ऋण का बड़ा हिसा अन्य वित्तीय संस्थानों से आता रहा कृषि ऋणदाता अन्य वित्तीय संस्थानों को भी 1960 के बाद से विभिन्न रूपों में बढ़ावा दिया गया | फलस्वरूप इस समय देश में एक लाख कोपरेटिव कर्जदाता संस्थाओं के अलावा 60 हजार से ज्यादा वाणिज्यिक बैंको एवं 10 हजार से ज्यादा क्षेत्रीय बैंको की शाखाए कार्यरत है | इनका फैलाव दूर – दराज के गाँवों तक हो चुका है | 2013 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO) की रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया कि अभी भी किसानो का 40% हिस्सा निजी महाजनों एवं गैर संस्थागत स्रोतों द्वारा दिए जाने वाले कर्जो पर निर्भर है | रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि खासकर छोटी जोतो वाले किसान गैर सहकारी निजी महाजनों एवं कर्जदाताओ कम्पनियों के जाल में ज्यादा फंसे हुए है | बताया गया की एक हेक्टेयर तक या उससे भी कम जोत के किसानो का 47% से लेकर 85% तक का हिस्सा इन कर्जदारों के चंगुल में फंसा हुआ है | रिपोर्ट में इस बात को भी उठाया गया है कि सीमांत यानी एक हेक्टेयर से कम जोत वाले कृषक कर्जदारों की संख्या बढती जा रही है | इनकी यह संख्या संगठित क्षेत्र में रोजगार की कुल संख्या में ( बढ़ते आधुनिकरण एवं निजीकरण ताला बंदी आदि के चलते ) आती रही कमी तथा असंगठित औद्योगिक क्षेत्रो में बढ़ते संकट से भी रोजगार में आती कमी है |
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का यह आकडा किसानो के वित्तीय समावेश के पूर्व घोषित लक्ष्य के ठीक विपरीत है | उन्हें वित्तीय संस्थानों से कर्ज पाने से बाहर रखने का सबूत है | केन्द्रीय सरकार ने किसानो को सरकारी या सहकारी वित्तीय संस्थानों से न जुड़ पाने के कारणों व कारको का विश्लेष्ण करते हुए कई कमेटियो और कार्यकर्ताओं समूहों का गठन किया था | इन रिपोर्टो में यह बताया गया है की ‘ बैंक छोटे कर्जदारों को असफल और बड़े कर्जदारों को सफल को सिद्दांत के रूप में स्वीकार कर छोटे व सीमांत किसानो को कर्ज देने से कतराते है | साथ ही उनका कहना है की इन छोटी जोतो के उत्पादन से अधिक वृद्दि नही हो पाती है इसलिए इनको दिए कर्ज बैंको के ब्त्तेखाते ( एन पी इ ) को तथा बैंको के घाटो को ही बढाने का काम करते है |

लेकिन आम किसानो पर बैंको या सोसायटियो का चढा बकाया धनाढ्य कम्पनियों के बकाये से एकदम भिन्न है | कयोकी ये कम्पनिया बैंको के कर्ज का इस्तेमाल अपनी पूजी परिसम्पत्तियो और निवेशो को बढ़ावा देने के लिए करते हुए बैंको के बकाये को जान बूझकर द्कारती रहती है |

स्वंय श्रम न करने की हरामखोरी के साथ हर तरह से टैक्स व धन चोरी पर हमेशा आमदा रहती है | इसके विपरीत व छोटे किसान न तो कामचोर है न ही धन चोर | उलटे वे अपनी छोटी या अत्यंत छोटी जोत पर कठिन परिश्रम कर देश के खाद्यन्न उत्पादन में बड़े किसानो के मुकाबले ज्यादा योगदान करते है | लेकिन खेती करने और जीवन के अन्य आवश्कताओ उन्हें फिर कर्ज लेने के लिए मजबूर करती रहती है | ऐसे सथियो में वे प्राइवेट महाजनों या फिर राष्ट्रीय व ग्रामीण बैक ( नाबार्ड ) की स्नस्त्तियो के अनुसार सरकारी आज्ञा व लाइसेंस से चलाई गयी फाइनेंस कम्पनियों के वित्तीय जालो में फंस जाती है कृषि ऋण को बढाने का यह काम कृषि लागत को , किसानो के निजी सिंचाई के साधनों तथा बीज खाद एवं कृषि यंत्र की भारी लुट को बढ़ावा देने की नीतिगत छुट के साथ किया जाता है | इनके अलावा देश की सरकारे पिछले 20 – 25 सालो से कृषि निवेश घटाने और खाद – बीज आदि पर दी जाने वाली सब्सिडिया को काटने – घटाने की नीतियों को भी अपनाई हुई है यह स्थिति तब तक रुकने वाली नही है , जब तक सरकार कृषि के निवेश के साथ आम किसानो की जीविका को बचाने का प्रयास नही करती है | कृषि क्षेत्र में लगी कम्पनियों और उनकी लूट पर लगाम नही लगाती | लागत का मूल्य घटाने तथा किसानो को उनके उत्पानो के संतुलित मूल्य भाव के साथ बिक्री बाजार की गारंटी नही देती है | क्या इन अपेक्षाओं के ठीक विपरीत दिशा में बढती तथा देश व विदेश की धनाढ्य कम्पनियों की सेवा में लगी सरकारे यह काम कर सकती है ? तब तो एकदम नही कर सकती जब तक बहुसख्यक किसान अपनी खेती से जुडी समस्याओं और मांगो को लेकर एकजुट नही हो जाते |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Sunday, January 14, 2018

भगत सिंह की वैचारिक विरासत - 14-1-18

भगत सिंह की वैचारिक विरासत -

भगत सिंह ने अपने समय के राष्ट्रीय आन्दोलन पर जो आलोचनात्मक टिपण्णी की थी अपने देश काल की जमीन पर खड़े होकर उन्होंने भविष्य की सम्भावनाओं के बारे में जो आकलन प्रस्तुत किया था , कांग्रेसी नेतृत्व का जो वर्ग विश्लेषण किया था , देश की मेहनतकश जनता के सामने छात्रो - युवाओं के सामने और सहयोद्धा क्रान्तिकारियो के सामने क्रान्ति की तैयारी और मार्ग की उन्होंने जो नई योजना प्रस्तुत की थी , उसका आज के स्न्कत्पूर्ण समय में बहुत अधिक महत्व है |
जब पूरा देश देशी - विदेशी पूँजी की निर्वाध लूटऔर निरंकुश वर्चस्व तले रौदा जा रहा है , जब श्रम और पूँजी के बीच ध्रुवीकरण ज्यादा से ज्यादा तीखा होता जा रहा है , जब साम्राजय्वाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष ( जिसकी भगत सिंह ने भविष्यवाणी की थी ) विश्व स्टार पर ज्यादा से ज्यादा अवश्यम्भावी बनना प्रतीत हो रहा है , जब कांग्रेस ही नही सभी संसदीय पार्टियों और नकली वामपंथियो का चेहरा और पूरी सत्ता का चरित्र एकदम नगा हो चुका है | भगतसिंह की आशंकाए एकदम सही साबित हो चुकी है और भारत की मेहनतकश जनता व क्रांतिकारी युवाओं को साम्राजय्वाद और देशी पूंजीवाद के विरुद्ध एक नई क्रान्ति की तैयारी के जटिल कार्य के नये सिरे से सन्नद्ध हो जाने का समय अ चुका है |
भगत सिंह के समय के भारत से आज का भारत काफी बदल चूका है | उत्पादन प्रणाली से लेकर राजनितिक व्यवस्था , सामाजिक सम्बन्ध और संस्कृति तक के स्टार पर चीजे काफी बदल गयी है \ साम्राज्यवादी शोषण -उत्पीडन आज भी मौजूद है , लेकिन प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन के दौर से आज इसका स्वरूप काफी बदला है | वर्ग संघर्ष विगत सर्वहारा क्रांतियो और राष्ट्रीय मुक्ति युद्दो के दबाव के चलते तथा अपने भीतर के आंतरिक दबावों के फलस्वरूप साम्राज्यवाद के तौर तरीको में काफी बदलाव आये है | गाँवों में भी बुजुर्वा भूमि सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया ने भूमि सम्बन्धो को मुल्त: बदल दिया है और नये पूंजीवादी भूस्वामी तथा पूंजीवादी फार्मर बन चुके है | भूतपूर्व धनी काश्तकार आज गाँव के मेह्नात्क्शो और छोटे - मझोले किसानो के शोषक की भूमिका में है | मझोले किसानो की भूमिका दोहरी बन चुकी है तथा गाँव के गरीबो को लुटने में देशी -विदेशी वित्तीय एवं औध्योगिक पूँजी की प्रत्यक्ष भूमिका बन रही है | निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि भारत जैसी अगली कतारों के भुँत्पुर्व औपनिवेशिक देश आज पिछड़े पूंजीवादी देश बन चुके है | अब इन देशो के इतिहास के एजेंडे पर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष नही बल्कि समाजवाद के लिए संघर्ष है |
लेकिन इन महत्वपूर्ण परिवर्तनों के वावजूद साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध अभी जारी है और जैसा कि फाँसी से तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को फाँसी के बजाए गोली से उडाये जाने की मांग करते हुए लिखे गये अपने पात्र में भगत सिंह , राजगुरु , सुखदेव ने लिखा था : ''यह युद्ध तब तक चलता रहेगा जब तक की शकतीशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिको की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे | चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति , अंग्रेज शासक अथवा सर्वथा भारतीय ही हो | उन्होंने आपस में मिलकर एक लुट जारी कर राखी है | यदि शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थित में कोई फरक नही पड़ता |'' इस पत्र के अनत में विश्वासपूर्वक यह घोषणा की गयी थी कि ''निकट भविष्य में यह युद्ध अंतिम रूप से लड़ा जाएगा और तब यह निर्णायक युद्ध होगा | साम्राजय्वाद व पूंजीवाद कुछ समय के मेहमान है | यहाँ भगत सिंह की इस प्रकार इतिहास दृष्टि से हमारा साक्षात्कार होता है जो राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को जनमुक्ति - संघर्ष की इतिहास यात्रा के दौरान बीच का एक पड़ाव मात्र मानती थी और साम्राजय्वाद - पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष को ही अंतिम निर्णायक संघर्ष मानती थी | भगत सिंह ने कई स्थानों पर इस बात पर बल दिया है कि इस निर्णायक विश्व ऐतिहासिक महासभा का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है और पूंजीवाद का एक मात्र विकल्प समाजवाद ही हो सकता है | आज विश्व स्टार पर पूँजी और श्रम श्कतियो एक नये निर्णायक ऐतिहासिक युद्द के लिए आमने - सामने लामबंद हो रही है | तो भारत के युवाओं और मेह्नात्क्शो के लिए साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के भविष्य के बारे में आकलन और भविष्यवाणी का विशेष महत्व हो जाता है |
भगत सिंह , भगवतीचरण वोहरा और हिदुस्तान शोसलिस्ट रिपब्लिक असोसिएशन (एच,एस आ .ए ) के ने अग्रणी क्रान्तिकारियो का दृष्टिकोण भारतीय पूंजीपति वर्ग के बारे में एकदम स्पष्ट था | कांग्रेस के नेतृत्व को इन्ही पूंजीपतियों , व्यापारियों का प्रतिनिधि मानते थे और उनकी स्पष्ट धारणा थी कि राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व यदि कांग्रेस के हाथो में रहा तो उसका अनत एक समझौता के रूप में होगा और इसीलिए वह यह स्पष्ट संदेश देते है कि क्रान्तिकारियो के लिए आजादी का मतलब सत्ता अपर बहुसंख्य मेहनतकश वर्ग का काबिज होना न की लार्ड रीडिंग और लार्ड इरविन की जगह पुरुषोतम दास , ठाकुरदास अथवा गोर अंग्रेजो की जगह काले अंग्रेज का स्तासिं हो जाना | उनकी स्पष्ट घोषणा थी की यदि देशी शोषक भी किसानो -मजदूरो का खून चूसते रहेंगे तो हमारी लड़ाई जारी रहेगी |

साभार --- सामयिक कारवाँ के जुलाई -- दिसम्बर अंक से

विक्रमशिला संग्रहालय ---

विक्रमशिला संग्रहालय ---
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विक्रमशिला का संग्रहालय छोटे में पर बहुत ही शानदार तरीके से बनाया गया है , इसमें विक्रमशिला की खुदाई से प्राप्त सामग्री प्रदर्शित की गयी है , जिसको देखने से यह अंदाजा लगता है की जब यह विश्व विद्यालय अपने उरूज पे रहा होगा तो कितना भव्य होगा आइये देखते है यहाँ पर खुदाई से क्या प्राप्त हुए है

विक्रमशिला संग्रहालय की स्थापना नवम्बर 2004 में की गयी जिसमे भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण द्वारा कराए गये उत्खनन (1972--82) से प्राप्त पूरासामग्री प्रदर्शित की गयी है |विक्रमशिला से प्राप्त पूरा वस्तुए आठवी से बारहवी शताब्दी की है तथा एक ही सांस्कृतिक कालखंड की ध्योतक है | रूप , आकृति व कलात्मकता की दृष्टि से यहाँ की मुर्तिया एक विशिष्ठ कला शैली का प्रतिनिधित्व करती है जिसे पाल शैली अथवा मध्यकालीन पूर्वी भारतीय शैली कहा जाता है | पाल मुर्तिया प्राय: अधिक उभर्युकत फलक मुर्तिया है जिनमे शिल्प कौशल , सुन्दर नक्काशी तथा गहन अलंकरण स्पष्ट दिखाई देता है |
इसके अतिरिक्त काले बैसाल्ट पत्थर में बनी कुछ मूर्तियों में एक विशेष चमक भी देखने को मिलती है | यद्दपि अधिकाश मुर्तिया राजमहल पहाडियों से प्राप्त काले बैसाल्ट पत्थर में ही उकेरी गयी है परन्तु कुछ को पथरघट्टा पहाडियों के चुना पत्थर में भी तराशा गया है |
चुना पत्थर के एक सुन्दर फलक में बुद्ध के जीवन से जुडी आठ प्रमुख घटनाओं का चित्रण किया गया है | केंद्र में स्थित प्रधान मूर्ति में मुकुटधारी बुद्ध को भूमि का स्पर्श करते हुए दर्शाया गया है जो बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति के समय बुद्ध द्वारा पृथ्वी को साक्षी बनाये जाने की घटनाओं को प्रतीकात्मक लघु आकृतियों के माध्यम से फलक पर चित्रित किया गया है | मूर्ति के बाए सबसे निचे लुम्बिनी में उनके जन्म का द्रश्य है | तदुपरांत घड़ी के विपरीत दिशा की ओर बढने पर क्रमश: राजगृह में मदमत्त हाथी का वशीकरण , सारनाथ में प्रथम धर्मोपदेश , कुशीनगर में महापरीनिर्वाण , श्रास्व्ती का चमत्कार संकिसा की घटना तथा वैशाली में वानर प्रमुख द्वारा मधु अर्पण करने के दृश्यों का अंकन किया गया है
वज्रयान के प्रादुर्भाव के साथ बौद्ध धर्म में बड़ी संख्या में देवी स्वरूपों को भी स्थान मिला जिसमे सर्वाधिक पूजी जाने वाली व लोकप्रिय देवी तारा है | वस्तुत:बौद्ध धर्म में अनेको देवियों के एक विशेष समूह के लिए तारा सर्वप्रचलित नाम है ||
विक्रमशिला के उत्खनन से बड़ी संख्या में तारा प्रतिमाये प्राप्त हुई है जिनमे से अधिकाश काले बैसाल्ट पत्थर में उकेरी गयी अत्यधिक उभर्युकत मुर्तिया है | इनमे लक्ष्ण , वस्त्राभूष्ण एवं अलंकरण आदि के सूक्ष्म विवरण भी सुन्दरता के साथ चित्रित किये गये है |
वज्रयान चरण में अनेक हिन्दू देवी - देवता भी बौद्ध धर्म में समाविष्ट कर लिए गये थे | इनमे महाकाल अत्यंत महत्वपूर्ण है जो शिव का ही एक रूप है | तांत्रिक कर्मकांड में इस रौद्र देवता की पूजा शत्रुओ का नाश करने के उद्देश्य से की जाती है | इनकी कल्पना ऐसी विकराल का शक्ति के रूप में की गयी है जो पापिज्नो का मांस भक्षण व रक्तपान करते है | ये ऐसे लोगो के मन में श्रद्धा एवं भय का संचार भी करते है जो अपने गुरुओ तथा धर्मग्रन्थो के प्रति आदर भाव नही रखते |
विक्रमशिला से प्राप्त एक फलक में उन्हें उन्नतोदर वामन के रूप में चित्रित किया गया है जिनकी बढ़ी हुई दाढ़ी व मुछे है तथा खुले हुए मुख में दन्तावली स्पष्ट दिखाई पड़ रही है | उनके चार हाथो में क्रमश: शंख ,कपाल , त्रिशूल व कटोरा है तथा गले में नरमुण्ड की मला धारण किये हुए है जो उनके विनाशक रूप का ध्योतक है |

इस संग्रहालय में प्रदर्शित बौद्ध मुर्तिया में अवलोकितेश्वर , लोकनाथ , जाम्भाल , अपराजिता , मारीचि आदि की प्रतिमाये विशेष रूप से उल्लेखनीय है | इनके अतिक्रिकत महाविहार परिसर के मुख्य द्वार से उत्तर लगभग १०० मीटर की दुरी पर अनावृत हिन्दू मंदिरों के भ्ग्नावेशेष से द्वारा स्तम्भों , चौखटों , स्थापत्य शिलाखंडो सहित हिन्दू देवी - देवताओं की अनेको मुर्तिया भी प्रापत्र हुई है | इनमे गणेश , सूर्य , पार्वती , उमा - महेश्वर , महिषासुर मर्दिनी विष्णु इत्यादि की मुर्तिया प्रमुख है | चुना पत्थर में उकेरी गयी एक सूर्य प्रतिमा में उन्हें लम्बा जुटा पहने तथा दोनों हाथो में खिला हुआ कमल धरान किये हुए दिखाया गया है |
भगवान कृष्ण की मित्रता की पौराणिक कथा सर्वविदित है | संग्रहालय में प्रदर्शित एक फलक में उस दृश्य का अंकन है जब सुदामा अपने बालसखा कृष्ण से मिलने द्वारका पहुचंते है | अत्यंत प्राचीन युग से ही भारतीय लोगो का ग्रहों के सुभ - अशुभ प्रभावकारी शक्ति पर विशवास रहा है | हिन्दू , बौद्ध व जैन मतावलम्बियो में समान रूप से ऐसा विशवास देखने को मिलता है तथा तीनो धर्मो में ग्रहों की पूजा की जाती रही है परम्परानुसार सौर मंडल के नव ग्रहों के समूह को 'नवग्रह'कहा जाता है जिनके नाम क्रमश: सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुद्द ,वृहस्पति , शुक्र , शनि , राहू - केतु है | एक पट्टिका में इन सभी को अधोभग में अंकित प्रतीक चिन्हों के साथ मानव रूप में दिखलाया गया है | प्रस्तर मूर्तियों के अतिरिक्त विक्रमशिला के कलाकारों ने बहुसंख्यकांस्य प्रतिमाये भी बनाई जिसमे अधिकाश देवी - देवताओं की है | अत्यंत लचीला व हल्का माध्यम होने के कारण कांस्य में शिल्पी को सूक्ष्म से सूक्ष्म अभिव्यक्ति का भी पूरा अवसर मिला जो इन मूर्तियों में स्पष्ट झलकता है | यद्धपि कांस्य मूर्तियों के निर्माण में सर्वाधिक प्रचलित अष्टधातु था जो ताँबा, टिन, सीसा ,जस्ता ,एंटीमनी, लोहा , सोना एवं चाँदी का एक मानक मिश्रधातु है तथापि ताँबा, पीतल अथवा इनके किसी भी मिश्रधातु की बनी प्राय: सभी मुर्तिया काँस्य की श्रीनि में ही राखी जाती है |
विक्रमशिला की काँस्य मुर्तिया अत्यधिक सुन्दर तथा आकर्षक बन पड़ी है जिनमे काय की कोमलता , शास्त्रोचित नियमबद्धता , वस्त्राभूष्ण , जटामुकुट, अथवा किरीट के सुनिश्चित प्रतिमान देखने को मिलते है | शिल्प की दक्षता तथा अभिव्यक्ति की प्रधानता की दृष्टि से यहाँ की काँस्यमुर्तिया विलक्ष्ण है | विक्रमशिला की इन मूर्तियों की तुलना बिहार स्थित नालंदा एवं कुर्किहार तथा बंगाल व बांग्लादेश के अनेक श्त्लो से प्राप्त काँस्यप्रतिमाओं से की जा सकती है |

विक्रमशिला संग्रहालय में मृणमय कलाकृतियों का भी उल्लेख्य्नीय संग्रह है जिनमे हाथी, कुत्ता मकर इत्यादि सहित अनेको पशु , पक्षी व मानव आकृतिया प्रदर्शित है |
अन्य पुरावस्तुओ में मृणमय खिलौने , झुनझुने , चकतिया , त्व्चामार्जक, मुद्राए एवं मुद्राकन ;पत्थर , काँच तथा मिटटी के मनके ;विभिन्न आकार - प्रकार के गृहोपयोगी मृदभाण्ड, सिक्के , अभिलेख , अंजन शालाक्ये , ताँबे की अंगुठिया , कास्य की नथुनी , हाथी दांत के पासे , हड्डी से बने वेधक , सिंग , लौह निर्मित बाणाग्र भले , खंजर इत्यादि सम्मलित है जो पालकालीन इतिहास कला स्थापत्य पर पर्याप्त प्रकाश डालते है | यह संग्रहालय इस क्षेत्र के तत्कालीन जन समुदाय और विशेषकर विक्रमशिला महाविहार की जीवन शैली को जिवंत रूप में दर्शाने का अनूठा प्रयास है

Saturday, January 13, 2018

दिवालिया होते बैंक -- 13-1-18

सम्पादकीय -- चर्चा आजकल

दिवालिया होते बैंक --



देश की सत्ता सरकारों को अब यही उपचार समझ में आ रहा है | डकैतों , लुटेरो को ही घर का मालिक बना देने जैसा उपचार सही लग रहा है |

25- दिसम्बर 2017 के हिंदी दैनिक 'बिजनेस स्टैंडर्ड ' ने बैंको के डूबता धन का उपचार श्रीश्क के साथ यह समाचार प्रकाशित किया है कि संसद की समिति ने सरकार से इसके लिए तत्काल कदम उठाने को कहा है | इसके लिए वर्तमान एवं निकम्मे सतर्कता तंत्र की जगह एक सखत सतर्कता तंत्र बनाने के लिए कहा है | समिति ने बैंको के डूबता धन के उपचार हेतु बैंकिंग कानूनों में शंसोधन का सुझाव दिया है | इन सुझाव में कर्ज न चुकाने वालो के नाम खुलासा किये जाने की बात भी कही गयी है |
जहां तक बैंको के डूबता धन के तथ्यों आकड़ो का प्रश्न है तो 'रिजर्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार सरकारी बैंको द्वारा दिए गये कर्जो में वापस न मिल पाने वाले धन की मात्रा 7.34 लाख करोड़ रूपये हो गयी है | इसके अलावा निजी क्षेत्रो के बैंको में भी डूबता धन की रकम 1.03 लाख रूपये पहुच गयी है | बैंको के इस डूबता धन या बत्तेखाते की रकम के बारे में समाचार पत्रों ने यह सुचना प्रकाशित किया है कि इसमें बड़े कारोबारियों व कम्पनियों की हिस्सेदारी 77% है | स्वभावत तमाम छोटे मझोले स्टार के बत्तेखाते की रकम की कुल हिस्सेदारी 23% है | इस 23% के बारे में समाचार पत्र ने सिर्फ शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज की चर्चा करते हुए कहा है की शिक्षा कर्ज अब एक समस्या बनता जा रहा है |यह कर्ज मार्च 2017 तक बैंको की डूबती रकम का 6.67% हो गया है |
रिजर्व बैंक के अनुसार बैंको के ब्त्तेखाते की रकम उनके द्वारा दिए गये कुल कर्ज की प्रतिशत के रूप में लगातार बढती जा रही है | 2014-15 में वक कुल कर्ज की 5.7% थी जो 2015-16 में 7.3% तक तथा पिछले वर्ष में 7.67% तक पहुच गया है |
दिलचस्प बात है कि समाचार पत्र ने अपनी सुचना में शिक्षा क्षेत्र के डूबता कर्ज पर तो दो बार महत्व देकर चर्चा किया है पर बड़े कारोबारियों के डूबता कर्ज की समस्या पर कोई चर्चा नही किया है | जबकि बैंको के डूबता धन में बड़े कारोबारियों की 77% हिस्सेदारी की तुलना में शिक्षा कर्ज में डूबता धन की हिस्सेदारी बहुत कम है (7.67%० है |
जहाँ तक डूबता धन के उपचार के लिए मौजूद सतर्कता तंत्र की बात है तो उसने साल - दर साल बढ़ रहे डूबता धन के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार बड़े कारोबारियों एवं कम्पनियों का नाम का भी निर्णय अभी तक नही लिया है |
संसदीय समिति ने 'सखत सतर्कता तंत्र ' बनाये जाने के साथ दिए गये सुझावों में उनका नाम खुलासा करने का सुझाव मात्र दिया है | जबकि इस सन्दर्भ में सुझाव देने की बात इसलिए भी बेमानी है की किसानो एवं अन्य छोटे बकायेदारो की सूचनाये समाचार पत्रों में आये दिन प्रकाशित की जाती रहती है | उनके नाम से आर सी कटती रही है और उनके जमीनों सम्पत्तियों की नीलामी तक होती रही है |
बताने की जरूरत नही है की चढ़े बट्टे खाते की रकम बड़े कारोबारियों एवं कम्पनियों पर चढ़े बट्टे खाते की रकम से बहुत कम है | इसके वावजूद छोटे कर्जदारों का नाम उजागर करने में बैंको को कोई हिचक नही होती | जबकि बड़े कारोबारियों का नाम आज तक उजागर नही कर पाए | यह तो छोटे चोरो को सरे आम पीटने और बड़े डाकुओ पर ऊँगली तक न उठाने जैसी बात है | यह बैंकिंग क्षेत्र में जनतांत्रिक प्रणाली की नही अपितु घु गैर जनतांत्रिक एवं भेदभाव पूर्ण प्रणाली के संचालन का सबूत है |
इसी गैर जनतांत्रिक एवं भेदभाव पूर्ण बैंकिंग प्रणाली का परिलक्षण शिक्षा कर्ज और उसमे बैंको के डूबता धन को महत्व देने के रूप में भी परिलक्षित हो रहा है | पूरी सम्भावना है की इसी डूबता धन को आगे करके आने वाले दिनों में शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज की मात्रा को और ज्यादा घटा दिया जाएगा |
क्या यही काम बड़े कारोबारियों एवं कम्पनियों के साथ भी होगा ? कदापि नही ! उनके लिए तो ज्यादा कर्ज देने और उस पर व्याज दर घटाने की रिजर्व बैंक से मांग सरकारे करती रही है |
पूँजी निवेश बढाने के नाम पर करती है | इसी सबके फलस्वरूप धनाढ्य कारोबारियों , सरकार के मंत्रियो , अधिकारियों एवं बैंको के उच्च स्तरीय अधिकारियो के साठ-गाठ से धनाढ्य कारोबारियों एवं कम्पनियों को हजारो करोड़ का कर्ज मिलता रहा है | उन पर बैंको की देनदारियो पहले से ही चढ़े होने के वावजूद उन्हें कर्ज मिलता है | इन कर्जदारों में एक नाम विजय माल्या का है | लेकिन बाकी के लोगो के नाम उजागर नही किया गया है |
सच्चाई यह है की धनाढ्य कारोबारियों में ज्यादातर लोग विजय माल्या ही है | यही हिस्से सरकारी बैंको को उसी तरह से घटे में ढकेल रहे है , जिस तरह उन्होंने 1980 के दशक में और उससे पहले भी सार्वजनिक क्षेत्रो के उपक्रमों , प्रतिष्ठानों सरकारों से सर्वाधिक लाभ उठाते हुए उसे घटे में धकेलने का कम किया था और आज भी कर रहे है | फिर उसी घाटे को दिखाकर वे सार्वजनिक क्षेत्र को नकारा या सफेद हठी बताने का भी काम बखूबी कर रहे है |
कोई आश्चर्य की बात नही होगी कि कल को सरकारी बैंको को घाटे का क्षेत्र बताकर उसे इन्ही बड़े कारोबारियों एवं कम्पनियों को सौंप दिया जाए | जबकि वही आज अपने बड़े बकायो से सरकारी बैंको को सबसे ज्यादा घाटे में ढकेल रहे है | बैंको के निजीकरण की चर्चा शुरू हो गयी है | फिर निजीकरणवादी नीतियों को आगे बढाते हुए यह कम होना निश्चित है |
देश की सत्ता सरकारों को अब यही उपचार समझ में आ रहा है | डकैतों , लुटेरो को ही घर का मालिक बना देने जैसा उपचार सही लग रहा है |
फिर इसकी सलाहे उच्च स्तरीय अर्थशास्त्री तथा विद्वान् बुद्दिजीवी गण देते भी रहते है | फिर उनसे उपर बैठे सबसे बड़े सलाहकार तो विश्व व्यापार सगठन जैसी संस्थाए है ही | उनके द्वारा प्रस्तुत डंकल प्रस्ताव की धारा में यह स्पष्ट निर्देश है कि सरकारे बैंकिंग सेवाओं को भी देश व विदेश के निजी मालिको को सौंप दे |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

विक्रमशिला -- महाविहार 13-1-18

विक्रमशिला -- महाविहार


भिक्षुओ के निवास हेतु निर्मित महाविहार एक विशाल वर्गाकार स्र्चना है जिसकी प्रत्येक भुजा लगभग 300 मीटर है | इसके केंद्र में क्रास के समान आधार वाला ईट - निर्मित एक स्तूप अवस्थित है | उत्तरी भुजा के मध्य में भव्य प्रवेश द्वार है जिसका मंडप ऊँचे एकाश्मक स्तम्भों पर आच्छादित था | द्वार मंडप के द्प्नो पाश्व्र्र में चार - चार कक्ष बने है | मुख्य द्वार से लगभग 70 मीटर पूर्व की और एक गुप्त द्वार दक्षिणी भुजा पर एक सकरा निकास मार्ग होने के भी स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए है |





कुल 208 कक्षों वाले महाविहार की प्रत्येक भुजा पर 52 कक्ष पक्तिब्द्द है जो एक बरामदे के साथ जुड़े है | बरामदो के मध्य में प्रागण में उतरने के लिए सीढ़िया बनी हैं | प्राय: सभी कक्ष वर्गाकार है जिनकी दीवारों की भीतरी माप लगभग 4.0. मीटर है | बाहरी दीवार चारो कोनो पर दुर्ग का आभास देती गोलाकार बुर्जी से युक्त है जिनके बीच नियमित अंतराल पर अपेक्षाकृत छोटे आकार वाली गोलाकार तथा आयातकार बुर्जिया क्रमागत रूप से बनी है |इस प्रकार प्रत्येक भुजा पर चार गोलाकार व चार आयतकार कुल आठ बजरिया है | बुजरी वाले सभी प्रक्षेपित कक्ष तीन शायिकाओ व मेहराबदार खिडकियों से युक्त है | महाविहार की उत्तरी भुजा के अतिरिक्त शेष तीनो भुजाओं के मध्य में स्थित आयातकार बुर्जी अपेक्षाकृत बड़ी है जिसमे तीन - तीन कक्ष बने हैं | विहार के कुछ कमरों के नीचे ईटो द्वारा निर्मित मेहराब वाले भूमिगत कक्ष भी है जो सम्भवत" भिक्षुओ के एकांत चिंतन के लिए बनाये गये थे | जल निकासी हेतु मुख्य नाला परिसर के पूर्वोत्तर कोण पर स्थित है |
महाविहार के दक्षिण -पश्चिम कोने से लगभग 32 मीटर दक्षिण संकरे सम्पर्क मार्ग के द्वारा जोड़ी हुई एक आयातकार स्र्चना है जिसकी पहचान ग्रन्थागार के रूप में की गयी है | इसकी पाश्वर भित्ति में झरोखो की पंक्ति तथा सम्बद्द जलाशय के आधार पर ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह भवन को वातानुकूलित रखने की प्रणाली थी जो ग्रंथो व पांडुलिपियों को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से विकसित की गयी थी |

विशाल स्तूप ----




महाविहार के केंद्र में स्थित विक्रमशिला स्तूप पूजा के निर्मित प्रतीत होता है | यह मिटटी के गारे व ईटो की सहायता से बनी ठोस सरचना है | क्रास के समान आधार विन्यास वाले इस द्दिमेधि स्तूप की वर्तमान की ऊँचाई लगभग 15 मीटर है | भूमि से प्रथम मेधी तथा प्रथम मेढ़ी से द्दितीय मेधी दोनों की ऊँचाई लगभग 2.25 मीटर है | दोनों पर प्रदक्षिणा पथ है जिसकी चौड़ाई क्रमश: 4.50 मीटर 3.00 मीटर है |
मुख्य स्तूप ऊपरी मेधी पर निर्मित है जहां पहुचने के लिए उत्तर की और सीढ़िया बनी है | चारो प्रमुख दिशाओं में स्तूप से जुड़े प्रक्षेपित कक्ष अंतराल तथा उनके सन्मुख प्रदक्षिणा पथ द्वारा पृथक्कृत स्तम्भ युक्त मंडप बने है | इन कक्षों में बुद्द की विशालकाय गच प्रतिमाये स्थापित थी जिनमे से तीन के अवशेष तो यथा स्थान प्राप्त हुए है किन्तु उत्तर दिशा की एक परवर्ती प्रस्तर प्रतिमा प्राप्त हुई है | सभी गच प्रतिमाये दुर्भाग्य वश कटिभाग के ऊपर नष्ट हो चुकी है | प्रतिमाये इष्टिका निर्मित पीठिका पर आसीन है जिन पर लाल व काले रंग की चित्रकारी के भी चिन्ह मिले है | मुख्य कक्षों व अंतराल की दीवारों तथा फर्श को चुना - प्लास्टर से लेपित भी किया गया था | दोनों मेधियो की भित्ति पर मृण्मय फलको तथा कलात्मक सज्जा - पट्टीकाओ का सुरुचिपूर्ण समायोजन इस क्षेत्र में पाल्युगिन ) 8वी--12वी शती ई ) मृण्मय कला की पराकाष्ठा का जिवंत उदाहरण है | इन मृण्मय फलको पर बुद्द , अवलोकितेश्वर , मंजुश्री , मैत्रेय , जाम्भाल , मारीची एवं तारा इत्यादि बौद्धों प्रतिमाओं के साथ - साथ बौद्ध धर्म से जुड़े कुछ दृश्यों को भी दर्शाया गया है | इन पर कुछ सामाजिक एवं आकेत दृश्य तथा विष्णु , पार्वती अर्द्धनारीश्वर , हनुमान इत्यादि हिन्दू देवी देवताओं का भी चित्रण किया गया है | इनके अतिरिक्त कुछ मानव आकृतिया यथा साधू , योगी , उपदेशक , ढोल वादक नर्तक योद्धा सपेरा इत्यादि पशु आकृति यथा वानर हाथी अश्व हिरन सूअर चिता सिंह भेदिया इत्यादि तथा कुछ पक्षियों का भी चित्रं भी इन मृण्मय फलको पर देखने को मिलता है |
स्तूप की बनावट तथा मृण्मय फलको की विषयवस्तु की दृष्टि से यह सोमपुर महाविहार , पहाडपुर ( बांग्लादेश ) के साथ अत्यधिक समानता रखता है | ज्ञातव्य है कि दोनों के संस्थापक पाल नरेश धर्मपाल ही थे |




Wednesday, January 10, 2018

कहलगांव से विक्रम शिला --- 10-1-18

कहलगांव से विक्रम शिला ---


साल के आखरी तीन दिन पहले दो पहिये वाहन से कडाके की ठंढी में अनीत मिश्रा और उनके सहयोगी आशीष के साथ कहलगांव से विक्रमशिला जाने का मौका दिलाया छोटे भाई धीरज ने निकल पडा दक्षिण ओर पहाडो की श्रृखला के साथ उत्तरायणी गंगा के बीच बसा कहलगांव से करीब बारह किलोमीटर सर्पीले उबड़ - खाबड़ रास्तो से गुजरते हुए खजूर के वृक्षों का तांता एक तरफ गंगा की निर्मल धारा दूसरी तरफ पहाडो की श्रृखला प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य देखते हुए मैं पहुचा अंतींचक गाँव - विक्रमशिला के विस्तृत परिसर में अंतींचक , माधोपुर के साथ ओरियप नाम के तीन गाँवों के क्षेत्र आंशिक रूप से सम्मलित है किन्तु इसमें सबसे बड़ा हिस्सा अंतींचक का है इसके सबसे नजदीक बस्तिया इसी गाँव की है इसलिए विक्रमशिला परिसर को अंतींचक गाँव के पास स्थित कहना सर्वथा तर्कसंगत होगा |


इस स्थल का नाम विक्रमशिला सम्भवत: महाविहार के संस्थापक नरेश धर्मपाल को प्रदत्त उपाधि ''विक्रमशील '' के कारण प्रचलित हुआ होगा | किन्तु जनश्रुति के अनुसार यहाँ विक्रम नामक यक्ष का दमन होने के कारण ऐसा नाम पडा | महाविहार को राजकीय विश्व विद्यालय के रूप में जाना जाता था इसका कारण था की यह विश्व विद्यालय राजा धर्मपाल द्वारा निर्माण करवाया गया था | इसके रख - रखाव व प्रबन्धन के लिए इसे राजकीय प्रश्रय प्राप्त था | उत्खनन में प्राप्त एक मुद्रा ( सील ) पर भी 'राजगृह महाविहार ' अंकित है जिससे इस विचार को बल मिलता है | ऐसा प्रतीत होता है कि इस विश्व विध्यालय को तिब्बत में विक्रमशिला के नाम से जाना जाता रहा होगा जब की भारत में इसके लिए राजगृह महाविहार अधिक प्रचलित नाम था |
विक्रमशिला विश्व विध्यालय के प्रादुर्भाव के समकालीन सामाजिक एवं धार्मिक परिपेक्ष्य में जन सामान्य की लालसा मोक्ष प्राप्ति की अपेक्षा सांसारिक सुखभोगो के प्रति बढ़ रही थी | ऐसे समय में लोकप्रियता प्राप्त करने व अधिक से अधिक अनियाई आकृष्ट करने के दृष्टिकोण से बौद्द धर्म में वज्रयान स्म्र्पदाय का सूत्रपात हुआ | धीरे - धीरे तंत्रशास्त्र के सभी लोकप्रिय एवं प्रचलित कर्मकांड व जादू- टोना आदि को बौद्द धर्म में समाहित कर लिया गया |

तंत्र्यान वस्तुत: धर्म , दर्शन , विज्ञान,रहस्यविध्या, जादू - टोन एवं योग विध्या आदि का मिलाजुला स्वरूप था जो अनुयायी को स्थापित सामजिक नियमो का उल्लघन करने की एक सीमा तक छुट भी देता था | इसमें मानवीय इच्छाओं की तुष्टि के लिए मन्त्रो , जादू टोन एवं योग विध्या आदि के प्रयोग के साथ - साथ आत्मबोध कराने का प्रयास भी किया जाता था ||
ऐसा विश्वास था की मन्त्रो में पापो व दोषों को का नाश करने की अदभुत शक्ति निहित है | अध्ययन का यह विषय यहाँ पर प्रमुखता के साथ पढ़ाया जता था जो इस विश्व विध्यालय की लोकप्रियता का मुख्य कारण बना | इस बात का उल्लेख्य करना प्रासंगिक है कि तंत्रशास्त्र की अवधारणा विशुद्द भारतीय है तथा विश्व संस्कृति में इस प्रकार का साहित्य इससे पूर्व देखने को मिलता |

विक्रमशिला के बारे में जानकारी देने वाले श्रोत अत्यल्प है जिसमे सोलहवी - सत्रहवी शती के प्रमुख तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ के विवरण प्रमुख है | इसके अतिरिक्त पुरातात्विक उत्खननो एवं सर्वेक्षणों द्वारा प्राप्त पूरा सामग्री को ही विश्वसनीय श्रोत मन जा सकता है |
उत्खनन से पूर्व अधातोघुम्कड़ राहुल सांकृत्यायन ने पुरातत्व अवशेषों की चर्चा करते हुए सुल्तानगंज के करीब होने का अन्देशा जताया था |
उत्खनन से पूर्व भागलपुर व पटना जिलो के अंतर्गत सिलाव सुल्तानगंज , पथरघट्टा, केउर आदि अनेक स्थलों पर स्थित तिलों को विक्रमशिला महाविहार के अवशेषों के रूप में पहचानने के प्रयास किये गये थे , किन्तु विभिन्न स्र्वेस्ख्नो से प्राप्त सामग्री व साहित्य श्रोतो के विवरणों के आधार पर अंतींचक स्थित पुरास्थल पर विक्रमशिला महाविहार के भग्नावशेष होने की सर्वाधिक प्रबल थी | इस स्थल पर वर्षो तक किये गये उत्खननो के परिणाम ने उक्त सम्भावना की पुष्टि कर दी है | यहाँ प्रारम्भिक उत्खनन पटना विश्व विध्यालय1960 - 69 तक कराए गये जिसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण1972 से 82 तक पूर्ण किया गया वैसे अभी भी वहाँ पर उत्खनन की आवश्यकता है |

प्राप्त साक्ष्यो के आधार पर अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है की विक्रमशिला की स्थापना पाल नरेश धर्मपाल द्वारा आठवी शदी के अंतिम चरण अथवा नौवी शदी के प्रारम्भ की गयी थी | लगभग चार शताब्दियों के वैभवकाल के उपरान्त त्रेह्वी सदी के प्रारम्भिक चरण में इसका विध्वंस बख्तियार खिलजी द्वारा कर दिया गया था |
महान विश्व विध्यालय --


विक्रंशिला महाविहार अपने युग के विशालतम विश्व विद्यालयो में से एक था जिसका दो अन्य विश्व विद्यालयों नालंदा एवं ओद्न्तपुरी से भी घनिष्ठ पारस्परिक सम्बन्ध था | यहाँ अध्ययन के मुख्य विषय अध्यात्म , दर्शन , तंत्रविध्या व्याकरण तत्वज्ञान तर्कशास्त्र आदि थे | इनमे सर्वाधिक लोकप्रिय विषय तंत्र शास्त्र था क्योकि इस महाविहार का उत्कर्षकाल तंत्र मन्त्र व जादू टोना का युग आदि में विशेष रूचि लेते थे | जिसमे हिन्दू तथा बौद्ध दोनों धर्मो के अनुयायी तंत्र एवं गूढ़विध्या था |

इस विश्व विध्यालय ने अनेको महापंडित विद्वानों को जन्म दिया जिन्हें बौद्ध शिक्षा , संस्कृति व धर्म का प्रसार करने के उद्देश्य से सुदूर देशो में भी आमंत्रित किया जाता था | विक्रमशिला को रत्न्वज्र , जेतारी ,ज्ञान , श्रीमित्र रत्नकृति , रत्नाकर शान्ति जैसे अनेको विद्वान् उत्पन्न करने का श्री प्राप्त है जिसमे तिब्बत में लामा स्म्र्पदाय के संस्थापक आतिश दीपंकर का नाम सर्वप्रमुख है |
यहाँ प्रवेश पाने के इच्छुक छात्र को द्वार पर ही कठिन परीक्षा पास करनी पड़ती थी जिसके निमित्त उच्च योग्यता वाले पंडित विशेष रूप से नियुक्त होते थे |