Monday, November 27, 2017

क्रांतिवीर - मौलाना बरकत – उल्लाह भोपाली 27-11-17

क्रांतिवीर - मौलाना बरकत – उल्लाह भोपाली


''कोई भी देश , जिसके नागरिक मौलाना बरकत उल्लाह जैसे हो बहुत दिनों तक गुलाम नही रह सकता |''


‘’मैंने जीवन भर निष्ठापूर्वक अपने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है | मेरा सौभाग्य है की मेरे जीवन राष्ट्र की सेवा में बीता है | और इस जीवन को विदा कहते हुए मुझे एक ही बात का दुःख है कि मेरे प्रयत्न सफल न हो सके | किन्तु मुझे पूरा भरोसा है कि मेरे देश के करोड़ो बहादुर देशवासी , जो ऊर्जा और निष्ठा - विश्वास से परिपूर्ण है , कूच कर रहे है और हमारा देश स्वतंत्र होकर रहेगा | मैं पूरी आस्था के साथ अपने प्रिय देश का भाग्य उनके हाथो में सौप रहा हूँ |’’

और इन शब्दों के साथ विश्वभर में भारत की आजादी कि अलख जगाते हुए उस क्रांतिवीर ने , जिसे उसके देशवासी क्रान्ति का पितामह कहते थे , कैलिफोर्निया की धरती पर प्राण त्याग दिए | सितम्बर 1927 में साठ वर्ष की आयु में | एक समय गदर पार्टी के उपप्रधान रहे विद्वान् देशभक्त मौलाना बरकत उल्लाह की समाधि आज भी कैलिफोर्निया राज्य की राजधानी सैक्रामैंटो के प्रमुख कब्रिस्तान में अपने होने की गवाही दे रहा है |

मृत्यु के समय मौलाना बरकत – उल्लाह ने यह इच्छा जताई थी कि जब देश स्वतंत्र हो जाएगा , तो उनके पार्थिव शरीर को पुन: भारत की पावन भूमि में दफनाया जाए | कहना ना होगा उनकी यह अंतिम इच्छा देश की आजादी के सात दशको से अधिक बीत जाने के बाद भी पूरी नही हो पाई |
मृत्यु से एक दिन पहले ही मैरिवल , कैलिफोर्निया की एक सभा में भाषण करते हुए उन्होंने शोक जताया था कि वे अपने लोगो से तेरह वर्षो से अलग रहे थे |’’ आज जैसे ही मैं अपने चारो और देखता हूँ , तो अपने 1914 के सहकर्मियों को नही देख पा रहा हूँ | कहाँ है वे ? मानव स्वतंत्रता के देवदूत ? बलिदान हो गये या काल कोठरी में अकेले बंद है ? जरुर ऐसे ही होंगे – उन्होंने देशप्रेम का अपराध जो किया है | मैं शायद बचा हूँ अपने देशवासियों की भयावह यातना को कुछ काल और देखने के लिए | मेरे देशवासियों , उन वीरो का हम पर बहुत बड़ा ऋण है | क्या हम चुका पायेंगे ?”’
बीसवी शताब्दी के पहले ढाई दशको में मौलाना बरकत उल्लाह का सम्बन्ध उन सभी प्रवासी भारतीयों संस्थाओं से रहा , जो भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न रहे ‘’गदर पार्टी ‘’ बर्लिन इन्डियन कमेटी ‘ श्याम जी कृष्ण जी वर्मा का इंग्लैण्ड में स्थापित ‘इण्डिया हाउस ‘’ मैडम कामा की पेरिस स्थित संस्था और दक्षिण पूर्वी एशिया रूस आदि – सभी से इस आत्म – निर्वासित देशभक्त का पैतीस वर्षो के प्रवास में सम्पर्क रहा | मुस्लिम – बहुल राष्ट्रों में भारत के प्रति सहानुभूति प्रकट करवाने में तो वे शायद अकेले भारतीय थे |
1867 के आस – पास भोपाल के एक कच्चे घर में उनका जन्म हुआ | वहाँ 1857 के विप्लव के बाद उनके माता पिता उत्तर प्रदेश से आकर बस गये थे | आरम्भिक शिक्षा घर में परम्परागत इस्लामिक पद्धति से हुई | मौलाना को दस वर्ष की आयु में पूरी कुरआन याद हो गयी थी | उन्हें उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा भी दी गयी | पर मौलाना की रूचि अंग्रेजी व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने में थी | भोपाल में कोई सुविधा उसकी न थी | हाँ इसी बीच उनका सम्पर्क सैयद ज्लालुद्धीन अफगानी से हुआ , जो भारत में ब्रिटिश शासन के कट्टर विरोधी थे |
1883 की जनवरी की एक रात को मौलाना बिना किसी को बताये घर से गायब हो गये | अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे जबलपुर गये और वहाँ से असंतुष्ट होकर मुंबई | वहाँ एक हाई स्कूल में प्रवेश पाकर अगले चार वर्षो तक रहे |
इस बात से प्रेरित होकर ही एक अंग्रेज ने इस्लाम कबूल कर लिया है , वे इंग्लैण्ड चले गये | वहाँ उन्होंने अरबी फारसी पढाना शुरू किया , उन भारतीयों को जो इन्डियन सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे थे | साथ ही उन्होंने अंग्रेजी भाषा और साहित्य का गहन अध्ययन किया और वे इतने पारंगत हो गये की ‘ लन्दन टाइम्स ‘ में लेख लिखने लगे | इसके फलस्वरूप उन्हें लिवरपूल के मुस्लिम ईस्टीटयूट में अरबी पढ़ाने के लिए निमंत्रण मिला | उसी संस्थान की दो पत्रिकाओं में – क्रीसैनट ‘ और ''‘इस्लामिक वर्ल्ड ''‘ में लिखना प्रारम्भ किया , जहां उन्होंने एक और सार्वभौमिक इस्लाम की कल्पना को जन्म दिया और दूसरे भारत की स्वतंत्रता को अपने जीवन का केंद्र बनाया | उन्होंने भारतीय मुसलमानों को कांग्रेस का सदस्य बनने का आग्रह किया – ब्रिटिश साम्राज्वाद से लड़ने के लिए | मुस्लिम राष्ट्रों से भारत की आजादी में सहायक होने को कहा | अपने भाषणों में वे ब्रिटेन की ‘’फूट डालो और राज करो ‘'' की नीति की भर्त्सना करने लगे | ब्रिटेन द्वारा भारत के शोषण का कच्चा चिठ्ठा खोलने लगे | उन्हें ब्रिटेन में रहकर इस बात का तीव्र आभास हुआ कि भारत के लिए आर्थिक प्रगति करने के लिए स्वतंत्र होने की बात अनिवार्य है | और जब ब्रिटिश सरकार ने मौलाना की गतिविधियों पर नजर रखने लगी तो मौलाना को अमरीका से निमंत्रण मिला – अमरीका में जैसे मौलाना को पहली बार ताज़ी हंवा में साँस लेने का अनुभव हुआ | वहाँ उन्होंने जमकर भारत की स्वतंत्रता विषयक लेख लिखने लगे | उन्होंने 1904 के मुंबई कांग्रेस अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने वाले मौलाना हसरत मोहानी की पत्रिका ‘ ''उर्दू – ए-मोअल्ला ''‘ में लेख लिखे |

मौलाना के लेखो को अंतरराष्ट्रीय प्रशस्ति मिली | उन्हें इस्ताम्बुल जाने का निमत्रण मिला | डेढ़ साल वहाँ रहकर वे जापान गये | वहाँ के प्रमुख पत्रों में लिखने के परिणाम स्वरूप उन्हें सम्राट ने टोकियो विश्व विद्यालय में उर्दू का प्रोफ़ेसर बना दिया ( उसी आधार पर हाल ही में जापान में हिंदी –शिक्षण की शताब्दी मनाई थी ) वहाँ जमने के बाद उन्होंने ‘''इस्लामिक फ्रेटरनिटी ‘’ पत्र निकाला | साथ ही साथ वहाँ बसे प्रवासी भारतीयों को संगठित करना शुरू किया | उससे ब्रिटेन की नीद हराम होनी शरू हो गयी , तो अंग्रेजो ने दबाव डालकर सम्राट द्वारा शालीनता से जापान छोड़ने की बात कहलवाई |
1922 में वे फ़्रांस आ गये | ''‘एल इन्कलाब'' ‘ के सम्पादक बने | पर यहाँ भी ब्रिटेन ने दबाव देना शुरू किया | उन्हें देश छोड़ना पडा |
वे दुबारा अमरीका गये | वहाँ तभी ‘गदर पार्टी ‘’ की स्थापना हुई थी | वे उसमे शामिल हो गये | वे पार्टी के उपप्रधान चुने गये और उर्दू ‘गदर’ के सम्पादक बनाये गये | वहाँ जब ब्रिटिश साम्राज्य के गुर्गो ने प्रवासियों को हिन्दू - सिख मुसलमान के नाम से भिड़ाना चाहा , तो मौलाना बरकत - उल्लाह , भाई भगवान सिंह और रामचन्द्र ने उनका षड्यंत्र नही पनपने दिया | प्रथम युद्ध की घोषणा के बाद जब प्रवासी भारतीय स्वदेश आने शुरू हो गये – भारत की आजादी का बिगुल बजाने – तो इन्ही तीनो नेताओं ने उनके जहाजो के डैक पर खड़ा होकर जोशीले भाषण देकर उन्हें विदा किया |
इस बात का एहसास होने पर कि भारत के स्वतंत्र संग्राम में मित्र राष्ट्र की सहायता बहुत जरूरी है , मौलाना को कई बार विभिन्न देशो में भेजा गया | वे टर्की गये जर्मनी गये | जर्मनी में बर्लिन कमेटी शिद्दत से जर्मन सरकार से बात कर रही थी और भारतीय युद्धबंदियो को ब्रिटेन के विरोध में लड़ने के लिए संगठित कर रही थी | इन योजनाओं में मौलाना की भूमिका अहम् थी | इंडो – जर्मन – मिशन के तहत मौलाना अनेक देशो में गये | इन्ही यात्राओं के मध्य अफगानिस्तान में 29 अक्तूबर , 1915 को प्रवास ( निष्कासन) में भारतीय राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ जिसमे राजा महेंद्र प्रताप सिंह राष्ट्रपति और बरकत उल्लाह प्रधानमन्त्री बनाये गये | उस राष्ट्रीय सरकार ने विभिन्न देशो में अपने प्रतिनिधि मंडल भेजे | 1919 में मौलाना इसी सरकार के प्रधानमन्त्री की हैसियत से सोवियत यूनियन गये | लेनिन से मिले | लेनिन मौलाना और उनके विश्व सम्बन्धी राजनीतिक विश्लेष्ण से बहुत प्रभावित हुए | वे चाहते थे कि मौलाना सोवियत यूनियन में रहे | पर अन्य देश – विशेषत अरब राष्ट्र उनसे परामर्श चाहते थे | खिलाफत आन्दोलन में उनकी प्रमुख भूमिका रही |
उन्होंने तक ''‘ऐल- इसलाह ‘’ नाम का पत्र निकाला पेरिस में | मुसोलीन सहित अनेक राष्ट्र नेताओं से वे मिले | ‘गदर पार्टी “ के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने ब्रसल्स ( वैल्जियम ) में साम्राज्य वाद – विरोधी सम्मेलन में भाग लिया | वहाँ उनकी भेंट जवाहरलाल नेहरु से हुई | नेहरु ने उनकी निष्ठा और बौद्धिक चेतना से बहुत प्रभावित हुए | उन्होंने कहा , ''कोई भी देश , जिसके नागरिक मौलाना बरकत उल्लाह जैसे हो बहुत दिनों तक गुलाम नही रह सकता |''
यही समय था , जब गदर पार्टी ने अपने वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने के लिए उन्हें कैलिफोर्निया बुलाया | उत्साह भरी भीडो को न्यूयार्क , शिकागो डिट्रोयट आदि नगरो में सम्बोधित करके वे कैलिफोर्निया पहुचे | वहाँ उनका स्वागत घर लौटे हुए नायक की भाँती हुआ | किन्तु शोक , वहीँ अपने अंतिम भाषण के साथ उन्होंने प्राण त्याग दिए |
भारतीत स्वतंत्रता और अमरीका में भारतीय अधिकारों की प्रबल समर्थक एग्नेस स्मेडले ने कहा , ‘’ उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के सपने में कभी भी अपना विश्वास नही खोया और अंतिम क्षण तक वे अपनी देशसेवा की सौगंध के प्रति निष्ठ रहे | एक पल के लिए भी वे अपने ध्येय और चुने मार्ग से विचलित नही हुए |''

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक --- आभार आजादी या मौत पुस्तक से

Saturday, November 25, 2017

कतारे - 26-11-17

कतारे
लम्बी कतारे
बेरोजगारों की कतारे
गैस की कतारे
रोटी की कतारे
कभी राशन की कतारे
लम्बी कतारों की फ़ौज
कभी आवेदनों की कतारे
जहां देखिये वही कतारे
मंत्री के घर दलालों की कतारे
संतरी के यहाँ कतारे
अधिकारियों के यहाँ चापलूसों की कतारे
कभी न खतम होने वाली कतरे
क्या खत्म होगी ?
कतारे - कतरे - कतारे ---- सुनील दत्ता

Tuesday, November 21, 2017

किसानो का दर्द 21-11-17



किसानो का दर्द


बीते दो दशको में 3 लाख 21 हजार 428 किसान आत्महत्या कर चुके है |


4 अक्तूबर के अम्र उजाला में भाजपा सांसद वरुण गांधी का लेख ‘’कर्ज में डूबे  किसानो का दर्द शीर्षक के साथ प्रकाशित लेख कुछ तथ्यों को जरुर उजागर करता है | उन्होंने अपने लेख में ग्रामीण कर्ज के बारे में पंजाब विश्व विद्यालय के तीन साल पुराने अध्ययन को प्रस्तुत किया है | उसमे पंजाब के बड़े किसानो पर ( 10 हेक्टेयर या 25 एकड़ से ज्यादा जोत वाले बड़े किसानो पर ) कर्ज उनकी आय का 0.26% है | जबकि माध्यम दर्जे के ( 4 से 10 ) हेक्टेयर की जोत वाला ) किसानो पर कर्ज उनकी आय का 0.34% है | लेकिन छोटे दर्जे के ( 1-2 हेक्टेयर जोत वाले किसानो पर तथा सीमांत किसानो  एक हेक्टेयर से कम जोत के किसानो पर कर्ज का बोझ कही ज्यादा है | वह उनकी आय का 1.42% 0.94% है ! इन पर कर्ज और ब्याज का बोझ और ज्यादा इसलिए भी है कि इनके कर्ज का आधे से अधिक हिस्सा गैर बैंकिंग क्षेत्र अर्थात प्राइवेट महाजनों और माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों आदि से लिया गया है |
कर्ज के इसी बोझ का नतीजा किसानो की आत्महत्याओं के रूप में आता है | प्रकाशित लेख में किसानो की आत्महत्या के बारे में यह सूचना भी दी है कि बीते दो दशको में 3 लाख 21 हजार 428 किसान आत्महत्या कर चुके है | आत्महत्या और कर्ज के बोझ के कारणों पर चर्चा करते हुए उन्होंने सीमित सिचाई सुविधा बारिश पर निर्भरता बाढ़ क्षेत्र एवं उपज में वृद्दि के वावजूद कृषि आयात में बढ़ोत्तरी खाद्यान्नो की कीमत में किसान के लागत की तुलना में गिरावट कृषि के आवश्यक संसधानो का साधारण किसानो की पहुचं के बहार होने आदि को बताया है | बढती लागत के सन्दर्भ में उन्होंने उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं तथा आधुनिक बीज की ऊँची कीमत को भी प्रमुखता से उठाया है |
इसके अलावा सांसद वरुण गांधी ने पहले की और अब की सरकारी नीति के अंतर को बताते हुए भी लिखा है कि ‘’ भारतीय कृषि नीति शुरू से खाद व बीज पे सब्सिडी देकर लागत कम करने तथा उत्पादन एवं समर्थन मूल्य के जरिये न्यूनतम आय की गारंटी प्रदान करने की नीति थी | लेकिन वह नीति धीरे धीरे करके अपनी उपयोगिता खो चुकी है | सब्सिडी घटाने या खत्म किये जाने के साथ देश का कृषि संसधान धीरे धीरे नियंत्रण मुक्त होता जा रहा है |
बजट घटा  कर कम करने के प्रयासों में सिचाई बाढ़ नियंत्रण के उपायों और ज्यादा उपज देने वाली फसलो पर किया जाता रहा सरकारी निवेश प्रभावित हुआ है |
कृषि क्षेत्र को बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है , जिसके लिए वह अभी तैयार नही है | ऐसे में किसानो के लिए अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल होता जा रहा है |

लेख के अंतिम हिस्से में उन्होंने किसानो की मुश्किलों को कम करने के प्रयासों को गिनाया है | उदाहरण उन्होंने कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक द्वारा ट्यूबवेळ सिचाई , कृषि मशीनीकरण और सहायक गतिविधियों की विशेष मदद दिए जाने की , 1990 के बाद से कई बार कृषि ऋण माफ़ी दिए जाने की ग्रामीण सरचनात्मक विकास को तेज किये जाने की 1999 से किसान क्रेडिट कार्ड शुरू किये जाने अदि की चर्चा किया है | छोटे व सीमान्त किसानो के लिए कृषि उपकरणों खाद और कीटनाशको की समस्याओं के समाधान के लिए कृषि उपकरणों खाद और कीटनाशको की खरीद पर ज्यादा सब्सिडी देने का सुझाव दिया है | इसके अलावा मनरेगा का दायरा बढ़ाकर सीमान्त किसानो के खेत की जुताई के भुगतान के जरिये भी उनकी कृषि लागत को घटाने का सुझाव दिया है |

भाजपा सांसद की राय अन्य कृषि विशेषज्ञोव प्रचार माध्यमी विद्वानों से इस माने में भिन्न एवं समर्थन योग्य है कि उन्होंने अपने लेख में बढती कृषि लागत सरकारी निवेश व सब्सिडी को भी किसानो के बढ़ते कर्ज व दर्द के प्रमुख कारण के रूप में पेश किया है |
साथ ही उन्होंने अपने सुझाव में कृषि लागत मूल्य को घटाने का भी सुझाव प्रमुखता से उठाया है | लेकिन अपने लेख में उन्होंने यह बात नही उठाया कि उनके सुझावों के विपरीत कृषि के लागत को लगातार बढाने तथा बजट घाटा कम करने के नाम पर कृषि सब्सिडी को सभी सरकारों द्वारा घटाने का काम क्यों किया जाता रहा है ? साथ ही कृषि में सरकारी निवेश को भी लगातार क्यों घटाया जाता रहा है ?
उन्होंने खुद कहा कि कृषि क्षेत्र को सरकारी सहायता के साथ सरकारी नियंत्रण द्वारा संचालित करने की जगह उसे बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है |
सवाल है कि कृषि नीति को किसानो को न्यूनतम आय की गारंटी देने वाली नीति को क्यों छोड़ दिया गया ?
वरुण गांधी ने इसका जबाब एक लाइन में लिखा है कि यह नीति धीरे धीरे अपनी उपयोगिता खो चुकी है | इस जबाब को तो कोई माने मतलब नही है | क्योकि वह कृषि नीति अपनी उपयोगिता अपने आप कैसे खो सकती है ? क्या अब कृषि से न्यूनतम आय की गारंटी की कोई जरूरत किसानो को नही रह गयी है ? अगर उस गारंटी की जरूरत है तो किसानो के लिए खासकर छोटे व सीमान्त किसानो को खेती एवं जीवन की गारंटी के लिए न्यूनतम तथा उससे थोड़ी बेहतर आय की गारंटी की आवश्यकता जरुर है | इसे पूर्ववर्ती सरकारे भी कबुलती रही है | फिर वर्तमान सरकार का एक प्रमुख एजेंडा किसानो की आय को दोगुना करने के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है | तब आखिर वह कौन है ? , जिसने अब किसानो की न्यूनतम आय की गारंटी वाली नीतियों की उपयोगिता को समाप्त करके उसमे बदलाव किया है ?

लेखक ने इस सवाल को उठाने से परहेज किया है | उन्होंने 1990 –95 से आती रही सभी सरकारों द्वारा कृषि नीति में किये गये परिवर्तन की कोई चर्चा ही नही किया है | जबकि उन्ही नीतियों एवं डंकल प्रस्ताव के जरिये खेती की लागत में वृद्धि के साथ सरकारी निवेश एवं सब्सिडी में कटौती की जाती रही है | कृषि क्षेत्र व किसानो को बाजार के सहारे छोड़ा जाता रहा है | कृषि उत्पादों के खासकर खाद्यान्नो में मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने के घोषित उद्देश्य को अघोषित रूप में उपेक्षित किया गया है | आधुनिक बीजो को सरकारों द्वारा सस्ती दर पर मुहैया कराने की जगह उसका सर्वेसर्वा अधिकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं राष्ट्रीय स्तर की बीज कम्पनियों को दिया जाता रहा है | सार्वजनिक सिचाई की नीति को किसानो के अपने निजी संसधान से सिचाई की नीति के जरिये बदला जाता रहा है | सरकारी मूल्य और बाजार पर सरकारी नियंत्रण के साथ कृषि उत्पादों की खरीद की जगह किसानो को अपने उत्पादों को बाजार में गिरते भाव पर बेचने के लिए बाध्य किया जाता रहा है | न्यूनतम सरकारी मूल्य को भी गेहूँ , चावल , गन्ने की भी न्यूनतम खरीद के रूप में निरंतर निष्प्रभावी किया जाता रहा है |

अन्य रूपों में देश के किसानो का संकट पिछले 20– 25 सालो से तेजी से बढ़ता रहा है | यह संकट देश व विदेश की धनाढ्य कम्पनियों के उदारवादी व निजिवादी छुटो अधिकारों को खुलेआम बढ़ावा देने वाली नीतियों के परिणाम स्वरूप बाधा है | फिर 1995 में डंकल प्रस्ताव के जरिये कृषि क्षेत्र को वैश्विक व्यापार संगठन के अंतर्गत लाने और उसके निर्देशों को लागू करते जाने के बाद और ज्यादा समस्या बढ़ी है | 1995 से किसानो की बढती आत्महत्याए उपरोक्त आर्थिक नीतियों एवं डंकल प्रस्ताव के परिणामो को ही परिलक्षित करती है | इन्ही नीतियों के फलस्वरूप जहां कृषि लागत के साधनों मशीनों मालो को बनाने वाली तथा कृषि उत्पादों के इस्तेमाल से बाजारी उत्पादों को बनाने में लगीधनाढ्य कम्पनियों कृषि क्षेत्र से अधिकाधिक लाभ कमाती रही है | वही आम किसान संकट ग्रस्त होते रहे है | इसीलिए कोई कर्ज माफ़ी या बीमा सुरक्षा अथवा कोई राहतकारी उपाय किसानो को स्थायी राहत देने में सफल नही हुई | वे कर्ज में डूबे किसानो के दर्द का निवारण कदापि नही कर सकते | क्योकि ये राहतकारी उपाय बीज खाद दवा कृषि उपकरण आदि की देशी विदेशी कम्पनियों को कृषि एवं किसान के शोषण से दोहन से अधिकाधिक लाभ कमाने पर रोक नही लगा सकते | कृषि उत्पादों के आयात निर्यात से लेकर देश के कृषि बाजार पर धनाढ्य कम्पनियों को अपना नियंत्रण बढाने से रोक नही सकते | फलस्वरूप किसानो को उनके उत्पादों की उचित या लागत के अनुरूप समुचित मूल्य  भाव भी नही दिला सकते | किसानो को बढ़ते घाटे बढ़ते कर्ज और बढती आत्महत्याओं से छुटकारा भी नही दिला सकते |



सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक

Friday, November 17, 2017

कुपोषण और उसकी कुंजी 17-11-2017


कुपोषण और उसकी कुंजी

भूख के विरुद्ध भात के लिए --- रात के विरुद्ध प्रात के लिए



16 अक्तूबर के हिंदी दैनिक ‘हिन्दुस्तान ‘ में जाने माने कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का 'देश में बढ़ते कुपोषण' पर लेख प्रकाशित हुआ है | कुपोषण की कुंजी शीर्षक के साथ प्रकाशित लेख के नीचे लेखक ने निष्कर्ष के रूप में लिखा है , ‘ गरीबी , भूख और कुपोषण से लड़ाई तब तक नही जीती जा सकती , जब तक कृषि पर पर्याप्त ध्यान नही दिया जाता ‘|

अपने लेख में उन्होंने भूख के शिकार लोगो के बारे में यह तथ्य प्रस्तुत किया है कि संयुकत राष्ट्र एवं खाद्द सगठन की सूचनाओं के अनुसार पिछले 15 वर्षो में पहली बार भूख का आंकडा बढ़ा है | भारत में भी भूख से पीडितो की बढती संख्या का परिलक्षण वैश्विक भूख सूचकांक में भारत के तीन पायदान नीचे खिसकने के रूप में शामिल हो गया है | एक वर्ष पहले 119 देशो के भूख सूचकांक में भारत 97 वे नम्बर पर था , जबकि इस वर्ष के सूचकांक में भारत नीचे खिसक कर 100 वे नम्बर पर पहुच गया है | लेखक ने भूख से लड़ने के मामले में भारत की शर्मनाक तस्वीर के बारे में लिखा है कि पाकिस्तान को छोड़कर दक्षिण एशिया के तमाम देशो का प्रदर्शन भारत से अच्छा रहा है | सूचकांक में भारत के 100 वे और पाकिस्तान के 106 वे पायदान से कही उपर चीन 29 वे नेपाल 72 वे म्यामार 77 वे श्रीलंका 84 वे और बांग्लादेश 88 वे पायदान पर है | 12 साल पहले 2006 में जब यह पहली बार यह सूची बनी थी , तब भी भारत 97 वे पायदान पर था | जाहिर है कि12 साल के बाद भी हम वही खड़े है और पिछले एक साल में हम नीचे खिसक कर 100 वे पायदान पर आ गये है | ... इन 12 सालो में देश का सकल घरेलू उत्पादन औसतन 8% से ज्यादा बढा है फिर भी देश में भूख की समस्या बढ़ी है | ,... देश के 21% से अधिक बच्चे कुपोषित है | राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत के खान – पान में भी गिरावट आ गयी है | 40 साल पहले की तुलना में अब खाद्यानो में प्रोटीन व अन्य घटकों में कमी आ गयी है |
सही है कि भूख से लड़ना एक जटिल एवं चुनौतीपूर्ण काम है , मगर यह असम्भव भी नही है | गरीबी - भूख और कुपोषण पर पर्याप्त ध्यान नही दिया जाता | क्योकि भारतीय अर्थशास्त्री नीति निर्माता और नौकरशाह बाजार के सुधारों के लिए प्रतिबद्ध है | कृषि व सामाजिक क्षेत्र में निवेश को जानबूझ कर कम करते जा रहे है | अगर हम चाहते है कि 2022 तक देश में कोई भूखा न रहे तो हमे कृषि में सार्वजनिक निवेश को बढावा देकर खेती –बाड़ी को फिर से ज़िंदा करना होगा |

उनके लेख के उपरोक्त उद्धरण में आप देख सकते है कि लेखक ने देश में बढती भुखमरी की तस्वीर पेश करने के साथ उसके लिए देश के नीति निर्माताओं अर्थशास्त्रियो और नौकरशाहों को जिम्मेदार ठहराया है | उनका बाजार के सुधार के लिए प्रतिबद्ध बताने के साथ उसे कृषि व सामाजिक क्षेत्र में जानबूझ कर सरकारी निवेश कम करने खेती किसानी को बेजान करने तथा भुखमरी व कुपोषण को बढाने का कारण बताया है | सवाल है कि अगर वे जानबूझ कर यह काम कर रहे है जैसा की वे कर भी रहे है तो वे उसे छोड़ेंगे क्यों ? फिर उससे ज्यादा अहम् सवाल यह है कि नीति निर्माताओं नौकरशाहों द्वारा कुपोषण व भुखमरी को उपेक्षित करने या बढावा देने के लिए किन नीतियों को लागू किया जाता रहा है ? उनके गुण चरित्र क्या है ? और वे नीतिया राष्ट्र समाज को बहुसंख्यक हिस्से में भूख एवं कुपोषण को बढ़ा क्यो और कैसे रहे है ?

इन प्रश्नों का समुचित उत्तर जाने बिना बढ़ते भूख एवं भुखमरी की समस्या का समाधान प्रस्तुत करना सम्भव नही है |

विडम्बना यह है कि जन समस्याओं पर खासकर कृषि समस्याओं पर प्रचार माध्यमो में लिखने वाले देविंदर शर्मा जी जैसे लेखक भी इन प्रश्नों को नजरअंदाज कर के अपना सुझाव प्रस्तुत करते रहते है | इस लेख में भी शर्मा जी ने ऐसा ही सुझाव दिया है | उन्होंने इस लेख में भी प्रस्तुत सवालों से कतराते हुए सुझाव प्रस्तुत कर दिया है कि ‘ गरीबी , भूख और कुपोषण से लड़ाई नही जीती जा सकती जब तक की कृषि पर पर्याप्त ध्यान नही दिया जाता |’ कृषि पर सामजिक निवेश को बढाकर खेती बाड़ी को पुन: ज़िंदा नही किया जाता |’

इस बात से लेखक अनभिज्ञ नही हो सकते की पिछले 20 – 25 सालो से देश में लागू होती रही अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों एवं प्रस्तावों के परिणाम स्वरूप ही कृषि विकास पर अपर्याप्त या आवश्यकता से बहुत कम ध्यान दिया जाता रहा है | कृषि तथा कुटीर एवं लघु उद्योग के साथ जनसाधारण की शिक्षा , स्वास्थ जैसी आवश्यक सेवाओं में सार्वजनिक निवेश को निरंतर घटाया जाता रहा है | यह काम किसी एक पार्टी की सरकार द्वारा नही बल्कि केंद्र व प्रान्तों की सत्ता सरकार में बैठने वाली सभी पार्टियों द्वारा किया जाता रहा है | फिर देविन्द्र शर्मा जैसे जनहित तथा कृषि व किसान हित के चिंतको , विचारको द्वारा भी इन नीतियों का विरोध नही किया जाता रहा | यही स्थिति नामी – गिरामी किसान संगठनो की भी रही है | इस विरोध के अभाव में भी कृषि व किसान विरोधी अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय नीतियों प्रस्तावों को केंद्र व प्रान्तों की सभी सरकारों द्वारा चरण दर चरण आगे बढाया जाता रहा | कृषि क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाले मालो – सामानों , मशीनों के उत्पादों के बिक्री बाजार से जुडी औद्योगिक एवं व्यापारिक कम्पनियों की कृषि क्षेत्र में घुसपैठ व लूट को बढ़ाया जाता रहा | साथ ही किसानो के छूटो व अधिकारों को काटा - घटाया भी जाता रहा | सरकारी निवेश को घटाते जाने के साथ राष्ट्र में खाद्यानो का भी विदेशी आयात का यहाँ तातक की गेहूं का भी आयात बढ़ाया जाता रहा | खाद्यान्नो के गिरते राष्ट्रीय उत्पादन – उसके बढ़ते निर्यात और फिर उसकी कमी को प्रचारित करके बढ़ाया जा रहा आयात देश में कुपोषण और भुखमरी को दूर नही होने देगा | वर्तमान दौर की वैश्विक नीतियों के ये परिलक्षण व परिणाम अपरिहार्य है | आम किसान इन परिणामो को भले ही न जानता हो , लेकिन हमारे विद्वान् बुद्धिजीवियों लेखको को इस बात की बखूबी जानकारी है | इसके वावजूद वे इसे अपनी चर्चा तक में जगह नही देते है | वे इन नीतियों को लागू करने वाले राजनितिज्ञो , नौकरशाहों को इन नीतियों के विपरीत सरकारी निवेश का सुझाव देते रहते है | इसे ठीक नही माना जा सकता | इसे किसी संज्ञान व्यक्ति का ईमानदारी भरा सुझाव नही माना जा सकता | यह सुझाव केवल तभी वास्तविक एवं ईमानदारी भरा हो सकता है , जब कोई लेखक देश के जनसाधारण श्रमजीवी हिस्से को भूख और कुपोषण के तथ्यों एवं उनके कारणों और कारको के बारे में बताने के साथ ही उन्हें इस बात के लिए भी सचेत करे ककि देश की सभी सत्ताधारी पार्टियों एवं नौकरशाहों अब इन नीतियों को बदलने वाले नही है | कृषि में सार्वजनिक निवेश बढाने वाले तथा खाद्यान्न उत्पादन में देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले नही है | देश के जनसाधारण में बढती बेरोजगारी मंहगाई को , कुपोषण व भुखमरी को दूर करने वाले नही है |
इस सच्चाई को देखते समझते हुए अपनी व्यापक बुनियादी समस्याओं , संकटो के लिए आगे आना आवश्यक हो गया है आम आदमी को | बढ़ते कुपोषण व भुखमरी के विरुद्ध कम से कम इन नीतियों का विरोध करना अनिवार्य हो गया है | जनहित की मांगो के साथ इन नीतियों का संगठित विरोध अपरिहार्य हो गया है | वैश्विक नीतियों के विरोध के साथ वैश्विक साम्राज्यी लूट के सम्बन्धो को तोड़ना भी अपरिहार्य हो चला है |

सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक आभार – चर्चा आजकल से

Thursday, November 2, 2017

अनेकता के साथ एकता 1-11-17



सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर हमला दरअसल कहा से

अनेकता के साथ एकता


सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मुख्यत भा ज पा एवं अन्य हिंदूवादी सगठनों द्वारा उठाया जाता रहा है | वे इसे देश को मातश्भूमि की देवी के रूप में स्वीकार करने , भारत माँ की जय जयकार करने देश की प्राचीन धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं को राष्ट्रीयता की पहचान के रूप में अपनाने विदेशी धर्म व संस्कृति को ( उदाहरण इस्लाम व इसाई धर्म को ) इस राष्ट्र के लिए विजातीय मानने आदि के रूप में प्रस्तुत करते है | सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा के प्रस्तुतकर्ताओ द्वारा इसे मुख्यत: इस्लाम धर्मावलम्बी आक्रमणकारियों द्वारा हिन्दू धर्म व समाज की संस्कृति को पहुचाई गयी क्षति और उसके पुनरुथान के रूप में प्रस्तुत करते आ रहे है |
विदेशी आक्रमणकारियों और विजातीय धर्मावलम्बियों द्वारा मध्य युग में किये जाते रहे धार्मिक सांस्कृतिक हमलो से इसी देश में नही बल्कि अन्य देशो में भी की गयी धार्मिक सामाजिक सांस्कृतिक क्षतियो से इनकार नही किया जा सकता | लेकिन यह काम केवल विदेशी धर्मावलम्बियों द्वारा ही नही बल्कि देश की सीमा के भीतर भी भिन्न भिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा किया जाता रहा है | उदाहरण इस देश में हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्मानुयायियो के आपसी संघर्षो में भी एक दुसरे को धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूप से क्षति पहुचाई जाती रही है |
फिर इस सन्दर्भ में मुख्य सवाल तो यह है कि क्या आधुनिक काल के मध्य युग के विभिन्न धर्मावलम्बियों का वह प्रभाव प्रभुत्व बचा रह पाया है ?या वर्तमान युग में उन सभी के प्रभाव व प्रभुत्व को घटाने तथा उन सभी प्राचीन एवं मध्ययुगीन संस्कृति को निरंतर क्षति पहुचाने वाली कोई अन्य शक्ति ही सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति बन गयी है |

इस सच्चाई से इनकार नही किया जा सकता की ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन और कम्पनी व्यापार एवं राज की स्थापना के बाद यहाँ पर प्राचीन एवं मध्य युग से रह रहे सभी धर्मावलम्बियों द्वारा अंग्रेजी धर्म व संस्कृति के बढ़ते प्रभाव प्रभुत्व के खतरे को महसूस किया जाने लगा था | 1857 के विद्रोह में हिन्दुओ मुसलमानों द्वारा इस खतरे के चलते भी राजनितिक एकजुटता स्थापित हुई थी | विडम्बना यह है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकार मध्ययुग के सांस्कृतिक खंडहरों को तो देख लेते है उसकी चर्चा और उसका प्रचार भी करते है | लेकिन आधुनिक युग की व्यापारवादी बाजारवादी संस्कृति के बढ़ते फैलाव व हमले को अपनी चर्चा का मुद्दा नही बनाते है | या फिर उस पर बहुत ही कम चर्चा करते है |
लेकिन वर्तमान दौर की बाजारवादी संस्कृति के प्रति बेरुखी या उदासीनता से तो इस राष्ट्र की प्राचीन संस्कृति या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बचे रह पाने की कोई गुंजाइश ही नही बचती | इसलिए यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और उसकी पक्षधरता इस राष्ट्र में हिन्दुओ मुसलमानों के बीच धार्मिक साम्प्रदायिक विरोध को बढ़ाने का हथकंडा तो बन सकता है मगर वह राष्ट्र पर होने वाले सांस्कृतिक हमले को रोक नही सकता | अमेरिका इंग्लैण्ड जैसे विजातीय धर्म व संस्कृति वाले राष्ट्रों के निरंतर बढ़ते रहे आर्थिक राजनितिक सम्बन्धो , प्रभावों के चलते इस देश की संस्कृति व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का बचाव कदापि नही कर सकता | अब जहाँ तक इस राष्ट्र व समाज के ही अभिन्न हिस्से के रूप में मौजूद इस्लाम या इसाई धर्मावलम्बियों की बात है , तो मध्य युग में हिन्दू धर्म संस्कृति की क्षति के लिए उन धर्मावलम्बियों की आज की पीढ़ी को कही से भी जिम्मेदार नही ठराया जा सकता | मगर उनके द्वारा मध्ययुगीन सधर्मी शासको का पक्ष पोषण करना भी न्याय संगत नही है | उसकी जगह उनके द्वारा भी मध्य युग के आम चलन  के अनुसार मुस्लिम शासको द्वारा यहाँ के हिन्दुओ के साथ किये गये धार्मिक उत्पीडन को स्वीकारना उचित भी है न्याय संगत भी  इसी तरह से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अंतर्गत इस राष्ट्र को अपनी मातृभूमि मानने इसके साथ अपनापन रखने की बात तो एकदम ठीक है | इसकी भौतिक एवं भावनात्मक आवश्यकता से इनकार भी नही किया जा सकता | लेकिन इसकी सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भारत माता की जय या वन्देमातरम के नारे या ऐसे नारों का दबाव डालना उचित नही माना जा सकता | ऐसे दबावों से लोगो में राष्ट्र व राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति प्रेम की भावना नही पैदा की जा सकती |


उसकी जगह पर स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में प्रचलित हुए और सर्वमान्य बने ‘’ जय हिन्द ‘’ जैसे अभिवादन को स्वीकारने में शायद ही कोई एतराज करे | किसी के राष्ट्रिय प्रेम को शब्दों के जरिये नापना ही गलत है | न तो इन शब्दों को न बोलने वालो को राष्ट्र विरोधी कहा जा सकता है और न ही इन्हें बोलने वाले सभी लोगो को राष्ट्रवादी , राष्ट्रप्रेमी माना जा सकता है |  यही बात राष्ट्र की प्राचीन सामजिक मान्यताओं उदाहरण गाय , गंगा से जुडी मान्यताओं के बारे में भी कही जा सकती है | 1947 से प्रचलित अनेकता में एकता की अवधारणा को ही अपनाते हुए विभिन्न धार्मिक सामजिक समुदायों के बीच मौजूद अंतर्विरोध को आपसी सहमती के साथ घटाने का प्रयास किया जाये तो बेहतर हो सकता है  भारतीय समाज |  लेकिन विदेशी राष्ट्रों के साथ परनिर्भरता पूर्ण जुड़ाव को तथा देश में हर तरह की विदेशी घुसपैठ को बढावा देते हुए अनेकता के साथ एकता को तथा देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत नही किया जा सकता | क्योकि आर्थिक सम्बन्धो एवं प्रक्रियाओं के साथ आपसी विखंडन की कूटनीति एवं विदेशी भोगवादी संस्कृति का आना निश्चित है | वैसे आधुनिक काल में यह विदेशी सांस्कृतिक हमला ब्रिटिश राज के दौरान शुरू हो गया था | पर 1947 से पहले साम्राजय्वाद विरोधी राष्ट्रवाद की प्रचंड लहरों ने उसे बढने से रोक दिया था | लेकिन अब खासकर 1991 के बाद तेजी से एवं खुलेआम बढाये जाते रहे वैश्वीकरण से , भोगवादी नग्न अर्द्धनग्न संस्कृति को बढावा देते रहे विकसित पश्चिमी देशो के साथ बढ़ते आर्थिक , कुटनीतिक सांस्कृतिक सम्बन्धो से राष्ट्र की संस्कृति पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर भारी खतरा खड़ा हो गया है | इस खतरे को इस्लाम व दुसरे धर्मावलम्बियों के मध्य युगीन धार्मिक , सांस्कृतिक कारवाइयो के विरोध के जरिये नही रोका जा सकता है | उसके लिए आधुनिक युग के  साम्राज्यवादी विरोधी राष्ट्रवाद का पुनर्जागरण किया जाना आवश्यक है | साम्राजयवादी देशो से बढ़ते आर्थिक सांस्कृतिक सम्बन्धो पर रोक लगाना आवश्यक है | साथ ही धार्मिक सामाजिक विख्न्दन की अंतर्राष्ट्रीय एवं सत्ता स्वार्थी कूटनीत के विरोध में देश की अनेकता के साथ एकता की सांस्कृतिक भावना को पुन: जागृत करना जरूरी है |

सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक