Thursday, March 17, 2016

क्रांति के स्वप्नद्रष्टा : भाग एक

क्रांति के स्वप्नद्रष्टा :


युगद्रष्टा भगत सिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे -- भाग एक




सरदार अर्जुनसिंह व श्रीमती जय कौर



वे धर्म की बैलगाड़ी से उतर कर क्रान्ति के रथ पर बैठ गए | रथ क्रांति का था , पर उस की धुरी धर्म की थी | धर्म अपनी लम्बी यात्रा में थक कर गतिहीन हो गया था , पर उस के पास प्रभाव की पूंजी थी | यह पूंजी उसने क्रान्ति को भेट कर दी |
क्रान्ति भी न ठग थी न कृत्घन | उस ने धर्म को गति दे ,उदबोधन पताका सौप दी | दोनों एक - दूसरे का सहारा थे , प्रगति के पथ पर बढ़ चले | इस धर्म - क्रान्ति का नाम था आर्य - समाज |

1857 के स्वतंत्रता विप्लव की असफलता के बाद अंग्रेजो ने पहले तो रणनीति के अनुसार देश में ऐसा दमन - चक्र चलाया कि आंधिया उठ गयी , विरोध की पसलिया टूट गयी और जनता के मन में यह बात बैठ गयी कि अब अंग्रेजो की गुलामी चुपचाप सहने के सिवा अन्य कोई मार्ग नही है | यह घोर निराशा का युग था , पर कोई जीवित जाति अधिक दिन तक निराश हो कर बैठी नही रह सकती , अंग्रेज यह बात जानते थे | फिर 1857 के महान विद्रोह का सगठन भारतवासियों ने जिस गुप्त ढंग से किया था , उस से भी अंग्रेज बहुत घबरा गये थे | भारत को दमन - चक्र के द्वारा त्रस्त और कानून के द्वारा देश को शस्त्र विहीन करके भी निश्चिन्त नही हो सके और उन्होंने गुप्तचरों के द्वारा भारत के बौद्दिक वर्ग की जो जाच - पड़ताल की , उस से पता चला की उपर से शान्ति दिखने पर भी भीतर अशांति है | लोग कुछ - न - कुछ करने की बात सोच रहे है , कयोकी वे सोचते है की यदि इस समय कुछ न किया गया , तो फिर कभी कुछ न किया जा सकेगा |

अंग्रेजो की कूटनीति अब यह थी कि निराश बौद्दिक वर्ग में आशा पैदा हो , और उसे अपनी महत्वाकाक्षी की पूर्ति के रास्ते अंग्रेजो की छाया में खुलते दिखाई दे | श्री ओ ह्युम के द्वारा सन 1885 में कांग्रेस की स्थापना में सहयोग देना इसी कूटनीति का फल था | भारत की महानता सचमुच अजेय है | उस ने उस अन्धकार के युग में एक अदभुत ओजस्वी महापुरुष को जन्म दिया | वे थे ऋषि दयानन्द | उन्होंने निराशा की उस अंधियारी रात में आशा का दीपक ही नही जलाया , आत्म - विश्वास का उद्बोधन भी दिया | इतिहास का कितना अदभुत संयोग है की काग्रेस की स्थापना के दिनों में ही आर्यसमाज की स्थापना हुई और इस प्रकार देश में नव - जागरण कल का आरम्भ हो गया |

अब देश के बौद्दिक वर्ग के सामने दो निमंत्रण एक साथ थे : अंग्रेजो के सहारे से , समाज में अपने विशिष्ट व्यक्तित्व का निर्माण , यह कांग्रेस की राह थी और पूरे समाज को जागृत करना , उसे उभारना - उठाना यह आर्यसमाज की राह थी | कितनी विचित्र बात है कि एक ही वृक्ष पर एक ही साथ दोनों निमंत्रण का प्रभाव पडा | यह वृक्ष था हमारा वंश |

इससे एक बात तो स्पष्ट है किइस वंश का रक्त प्रबुद्द था , क्योकि प्रबुद्द रक्त , प्रबुद्द मानव ही बाहरी प्रभाव को इतनी तेजी और तत्परता से ग्रहण कर सकता है | सरदार खेमसिंह के तीन पुत्र थे : सरदार सुरजन सिंह , सरदार अर्जुन सिंह और सरदार मेहर सिंह | सबसे छोटे भाई मेहर सिंह का जीवन एक साधारण किसान का जीवन रहा और वे युग के उफानो से अछूते रहे | सबसे बड़े भाई सरदार सुरजन सिंह अंग्रेजो के साथ खड़े हो गये ; पदों पर बैठे और पैसे से खेले | उनके पुत्र सरदार बहादुर दिलबाग सिंह ने उस युग की परस्ती का सबसे बड़ा तोहफा ओ . बी ई ( आडर्र आव ब्रिटिश एम्पायर ) का खिताब पाया और सरकार का दया हाथ बनकर रहे | यह भी एक कहानी है |

लाहौर में कांग्रेस का जो अधिवेशन दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में हुआ , उस में सरदार सुरजन सिंह और सरदार अर्जुन सिंह दोनों भाई जालन्धर से प्रतिनिधि बनकर गये | दोनों ने अपने हाथो में झंडे ले रखे थे और दोनों ही देहाती वेश में थे | जालन्धर स्टेशन पर जब ट्रेन पहुची , जिस से दादाभाई लाहौर जा रहे थे और दुसरे प्रतिनिधि भी , तो जालन्धर के प्रसिद्द वकील रायजादा भगतराम ने इन दोनों का परिचय दादाभाई से कराया | सब प्रतिनिधि सूत - बूटमें होते थे | उस युग में किसान प्रतिनिधि ये भी दो थे और कांग्रेस में ऐसे प्रतिनिधि पहली बार ही सम्मिलित हो रहे थे | इस लिए दादाभाई इनसे मिलकर बहुत खुश हुए और उन दोनों को उन्होंने अपने ही डिब्बे में बैठा लिया | लाहौर में भी ये दोनों अपने रंग - ढंग के कारण सब का ध्यान आकर्षित किये रहे और दादाभाई बराबर इनकी खोज खबर लेते रहे |
 
 क्रमश : भाग एक
 

Thursday, March 10, 2016

किसानो की आत्महत्या जिम्मेदार कौन ? 11-3 16





किसानो की आत्महत्या जिम्मेदार कौन ?

महाराष्ट्र में जनवरी 2015 से लेकर अक्तूबर 2015 के दस महीनों में 2590 किसानो की तथा दिसम्बर तक के 12 महीनों में 3228 किसानो के आत्महत्याओं का समाचार प्रकाशित हुआ है | ये समाचार अक्तूबर तक के दस महीनों में औसतन 259 किसान प्रतिमाह तथा बाद के दो माह में औसतन 319 किसान प्रतिमाह की आत्महत्याओं को दर्शाता है | स्पष्ट है कि साल के अनत में किसानो की आत्महत्याओं में काफी तेजी आई है |
वैसे तो पिछले कई सालो से महाराष्ट्र और उसका विदर्भ क्षेत्र किसानो की सर्वाधिक आत्महत्याओ का क्षेत्र रहा है |
लेकिन तीन सालो से लगातार पड़ रहे सूखे और अन्य कारणों के चलते फसलो की चौतरफा बर्बादी ने आत्महत्या करने वालो किसानो की संख्या में और ज्यादा वृद्दि कर दी है |
इससे एक साल पहले यानी 2014 में महाराष्ट्र में कुल 1611 किसानो द्वारा आत्महत्या की गई थी | 2005 से 2014 तक के नौ सालो में 17.276 किसानो द्वारा ( प्रतिवर्ष औसतन 1916 किसानो द्वारा ) आत्महत्या की गयी है | 2015 के पहले 2006 में सर्वाधिक संख्या में ( 2376 किसानो द्वारा ) आत्महत्या की गयी थी | इस बार वह संख्या से काफी आगे निकल गयी है |
21 दिसम्बर के अंग्रेजी दैनिक ‘ दि हिन्दू ‘ ने उपरोक्त सुचना देते हुए विदर्भ के यवतमाल जिले के आत्महत्या करने वाले एक किसान – विशाल पवार के बारे में यह सुचना भी प्रकाशित किया है कि विशाल ने आत्महत्या से पहले जिले के सरक्षक मंत्री संजय राठौर के नाम लिखे गये सुसाइड नोट में लिखा है कि वह फसल की बर्बादी के चलते आत्महत्या कर रहा है | उसकी अंतिम इच्छा है कि किसानो पर चढ़े कर्ज को महाराष्ट्र सरकार माफ़ कर दे |
महाराष्ट्र सरकार ने आत्महत्या करने वाले विशाल पवार तथा पिछले तीन – चार सालो से मौसम की मार झेल रहे किसानो की मांगो पर कोई ध्यान नही दिया | उनको कृषि उत्पादन जारी रखने में सहयाता पहुचाने का कोई काम नही किया | बैंको का पुराना कर्ज चुकाए बिना नया फसली कर्ज पाने के लिए भी कोई सहायता नही की गयी |
फलस्वरूप किसान प्राइवेट महाजनों के कर्ज के जाल में फसने के लिए बाध्य हुए | साथ ही फसल की पुन: बर्बादी के साथ कर्ज चुकाने और आगे खेती करने के सारे रास्ते बंद हो जाने के चलते आत्महत्या करने के लिए बाध्य हुए |
महाराष्ट्र सरकार ने इतनी आत्महत्याओं के बाद भी किसानो के सरकारी कर्ज माफ़ी की राहत देने से साफ़ इंकार कर दिया है | मुख्यमंत्री फडनवीस का कहना है की कर्ज माफ़ी से किसानो को नही बल्कि बैंको को लाभ होता है | कर्ज माफ़ी की जगह किसानो को स्थायी राहत देने के नाम पर उन्होंने 10.512 करोड़ रूपये के सरकारी पैकेज की घोषणा की है | मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि पिछले साल भी सरकार ने इतने ही रूपये के पैकेज की घोषणा की थी |
लेकिन विडम्बना है कि पिछले साल की पैकेज घोषणा का किसानो की आत्महत्या पर कोई असर नही पडा | उनकी आत्महत्याओं की संख्या में पिछले साल के मुकाबले वृद्दि हुई है | स्पष्ट है कि सरकारी पैकेज किसानो के लिए राहतकारी साबित नही हुआ |
जहा तक कर्ज माफ़ी का सवाल है तो महाराष्ट्र की कांग्रेस पार्टी भी उसी की मांग कर रही है | निश्चित रूप से कर्ज माफ़ी से किसानो को पुन: बैंक से सस्ते दर पर कर्ज मिलने और उससे प्राइवेट महाजनों की कुछ देनदारी चुकता करने और कुछ खेती में लगाने का तात्कालिक रास्ता मिल जाता |
आत्महत्याओं का सिलसिला कुछ थम जाता | कर्जमाफी की इस उपयोगिता के वावजूद किसान संकटग्रस्त होने और पुन कर्ज में फसने से बच नही सकते | क्योकि बीज , खाद दवा आदि के रूप में खेती की बढती लागत और सार्वजनिक सिचाई की सुविधाओं का अभाव उसे कर्ज में फसने तथा फसल की बिक्री – बाजार घटने या फसलो पर मौसम की मार से पुन बर्बादी की तरफ धकेल देता है 2008 में में केंद्र सरकार द्वारा की गयी कर्ज माफ़ी के बाद किसानो में कई बार फसल अच्छी होने के वावजूद हुए घाटे का संकट का बढ़ते रहना इसके सबूत है | कर्ज माफ़ी के बाद एक – दो साल तक किसानो की आत्महत्याओं में कुछ कमी आने के वावजूद वह पुन: स्फ्तार पकडती रही है | फिर अब तो किसानो की आत्महत्याओं का विस्तार देश के अन्य क्षेत्रो में होता जा रहा है |


विडम्बना यह है कि किसानो की आत्महत्याओं में उपरोक्त बढ़ोत्तरी एवं विस्तार के वावजूद वह राजनितिक एवं प्रचार माध्यमि चर्चाओं से बाहर है | लेकिन क्यो ? क्योकि उस पर चर्चा करने से वर्तमान दौर की धर्मवादी सम्प्रदायवादी जातिवादी व क्षेत्रवादी राजनीति परवान नही चढ़ पाती | नाम किसान का आता है , इस या उस धर्म जाति के किसान का नही आ पाता | इसलिए वह विशिष्ठ धर्म जाति का समर्थन व वोट पाने का हथकंडा भी नही बन पाता | अन्यथा हैदराबाद विश्व विद्यालय में दलित छात्र रोहित बेमुला की आत्महत्या पर पक्ष – विपक्ष की देशव्यापी राजनीति करने वाली राजनितिक पार्टिया महाराष्ट्र में विशाल पवार की आत्महत्या व उसके सुसाइड नोट को लेकर इसी तरह आपस में भीड़ जाती और प्रचारतंत्र उन्हें हाथो में उठा लेती |
उसका प्रचार करने में दिन – रात एक कर देता | पर चूँकि किसानो कि आत्महत्याओं का मुद्दा उठाने से समाज को बाटने की सत्तावादी राजनीति परवान नही चढनी है इसीलिए सभी राजनितिक पार्टिया इससे अपना किनारा कसे रहती है | उस पर कभी कभार बयानबाजी कर के उसे उपेक्षित करने का ही काम कर रही है |


इसे उपेक्षित करने का एक दूसरा कारण एव महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि कमोवेश देश के हर प्रांत में हो रही किसानो की आत्महत्याओं को प्रमुखता से उठाने का मतलब उन आत्महत्याओं के कारणों – कारको को किसानो के सामने लाना | किसानो को उसके विरोध के लिए जागृत संगठित एवं आंदोलित करना | खतरनाक यह है कि सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य से राजनीति कर सभी राजनितिक पार्टिया एवं उनके नेताओं के लिए खतरनाक होगा | क्योकि किसानो का संघर्ष उनके चुनावी राजनितिक दायरे तक ही सीमित रहने वाला नही है बल्कि वह उनकी सत्ता के लिए चुनौती बनने वाला भी है | क्योकि किसी पार्टी की सत्ता सरकार ने इसे रोकने की कोई कोशिश नही की है | हर प्रमुख पार्टी की केन्द्रीय या प्रांतीय शासन के दौरान देश व प्रदेश में किसानो की आत्महत्याए बढती रही है |


किसानो की आत्महत्याओं को न उठाने का दुसरा प्रमुख एवं आर्थिक कारण यह है कि किसानो के बढ़ते आर्थिक संकट और बढती आत्महत्याओं के पीछे कृषि क्षेत्र के बीजो ,खादों, दवाओं ,पम्पसेटो ट्रेक्टरों आदि जैसी मशीनों में धनाढ्य मालिको ने भारी शोषण के साथ अनाज व्यापार में लगे धनाढ्य आढतियो आदि की भारी लुट मौजूद रहती है | अत: किसानो को जागृत व आंदोलित करने का मतलब उद्योग व्यापार के धनाढ्य मालिको के शोषण का विरोध करना है | जबकि सभी पार्टिया अपने केन्द्रीय व प्रांतीय शासन में भागीदारी के जरिये इन्ही वर्गो को वैश्वीकरणवादी , उदारीकरणवादी एवं निजीकरणवादी नीतियों – सुधारों का लाभी पहुचाती रही है | मजदूरो किसानो एवं अन्य जनसाधारण हिस्सों के छुटो – अधिकारों को काटते – छाटते हुए उनके शोषण व लुट को बढाती रहती है |
स्पष्ट है कि किसानो की आत्महत्याओं को उठाना और उन्हें आंदोलित करना न केवल धनाढ्य वर्गो का विरोध करना करवाना है बल्कि उनके साथ खड़ी होती रही राजनितिक पार्टियों के किसान विरोधी कारगुजारियो का भी विरोध करना है | फिलहाल यह काम कोई भी प्रमुख राजनितिक पार्टी नही करने वाली है | इसीलिए किसानो को जागृत एवं आंदोलित करने का अब स्वंय किसानो एवं किसानो के समर्थको का बनता है |


सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक



Wednesday, March 2, 2016

गन्ना किसान इस बार भी छला गया --- 3 - 2- 15

गन्ना किसान इस बार भी छला गया ---
प्रदेश सरकार ने लगातार तीसरे साल भी गन्ना के खरीद मूल्य 280 रूपये प्रति किवंटल को ज्यो का त्यों बरकरार रखा है | किसानो द्वारा उसे 350 रु किवंटल किये जाने या कम से कम 300 रु किवंटल किये जाने की दो सालो से मांगो के वावजूद उसमे कोई वृद्दि नही की |
इसके अलावा गन्ना किसानो का पिछ्ला बकाया चुकता करने के मामले को भी बहुत कम महत्व दिया | यही कारण है कि अभी तक मिलो पर किसानो का 2014 -2015 का भी बकाया ( लगभग साढ़े चार हजार करोड़ ) रुपया पड़ा है | इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्देशों के वावजूद मिल मालिको पर कोई बड़ी कार्यवाही नही की गयी |
हालाकि कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सरकार द्वारा मिल - मालिको से बकाये की रकम को सख्ती से वसूलने का ब्यान दिया जाता रहा |
लेकिन उसके बाद गन्ना आयुक्त और मिल - मालिको के बीच बातचीत में बकाये की रकम को इतने उतने दिनों में चुकता करने के सरकार के निर्देशों और मिल मालिको के बीच आश्वाशनो के साथ सारा मामला रफा - दफा होता रहा |
चीनी के कम मूल्य के चलते मिलो पर बढ़ते घाटे की मजबूरियों को बताकर चीनी मिल मालिक प्रदेश व देश की सरकारों से सहायता पॅकेज के साथ बिना व्याज का कर्ज भी लेते रहे |
उदाहरण , केंद्र सरकार ने कुछ माह पहले 6000 करोड़ रूपये का व्याज मुक्त ऋण देश की चीनी मिलो को दिया था | इससे पहले भी केंद्र सरकार देश की चीनी मिलो को 4400 करोड़ रु का व्याज मुक्त ऋण और चीनी निर्यात को बढ़ावा देने के लिए 3300 करोड़ रूपये की सब्सिडी प्रदान की थी |
उत्तर प्रदेश की सरकार भी मिल - मालिको को 40 रूपये प्रति किवंटल का आर्थिक पॅकेज देने के साथ - साथ पेराई के लिए गन्ने का मूल्य बकाया लगाने और किश्तों में भुगतान करने की छुट देती रही है | - पिछले साल गन्ना मूल्य के चीनी मिलो को 280 रु प्रति किवंटल में से 260 रु प्रति किवंटल तुरंत चुकता करने के साथ प्रति किवंटल 20 रूपये का भुगतान पेराई बंद होने के बाद करने की छुट दी गयी थी | मिल - मालिको का उपरोक्त पॅकेज व व्याज मुक्त कर्ज की सहायता मुख्यत: उन्हें गन्ना किसानो का बकाया भुगतान करने के नाम पर दी जाती रही |
इसके वावजूद बकाये का भुगतान थोड़ी - थोड़ी मात्रा में करते हुए चीनी मिले दो साल पहले के बकाये को अभी तक लटकाए हुए है | इसके वावजूद प्रदेश व देश की सरकार चीनी मिलो को ही सुनती है | गन्ना किसानो की समस्याओं व मांगो की उपेक्षा करती रही है | गन्ने का मूल्य बढने से चीनी मिलो का घटा होने की बात मानकर सरकार न केवल गन्ना किसानो का मूल्य नही बढ़ा रही है बल्कि चीनी
मिल मालिको को इन सहायताओ के साथ गन्ना का भुगतान लटकाने की छुट भी देती रही है | उन्हें यह छुट यह जानते हुए दी जाती रही है कि चीनी मिल मालिक न केवल किसानो के बकाये को 2 - 3 सालो तक लटकाए रहते है बल्कि गन्ने की खरीदारिया भी कम ही करते है और कई बार मिलो को पेराई सत्र की समय सीमा से पहले ही बंद कर देते है |
गन्ने की कम खरीद का असली कारण यह नही है कि चीनी मिलो पर उसकी पेराई क्षमता से अधिक गन्ना पहुचता रहा है , बल्कि उसका असली कारण यह है कि चीनी मिले गन्ने की कम पेराई कर और कम चीनी उत्पादन से मूल्य भाव चढाये र्ल्हने का हर सम्भव प्रयास करती है | गन्ने की ज्यादा पेराई और चीनी के ज्यादा उत्पादन से मूल्य भाव के गिरने की सम्भावना बढ़ जाती है | जाहिर सी बात है की कम्पनियों का लक्ष्य ज्यादा चीनी पैदा करना नही बल्कि चीनी व अन्य उत्पादों से ज्यादा मुनाफ़ा पैदा करना है | अब यह काम इसीलिए ज्यादा आसान हो गया है की प्रदेश एवं देश में निजी चीनी मिलो की संख्या अब कही ज्यादा है और वे आपस में संगठित भी है | उनके मुकाबले सरकारी व सहकारी चीनी मिले बहुत ही कम रह गयी है | 25 - 30 साल पहले निजी चीनी मिलो के पास यह ताकत नही थी | उनके मुकाबले सरकारी व सहकारी चीनी मिले मजबूती से खड़ी थी | इन मिलो का घोषित उद्देश्य एवं कार्यप्रणाली क्षेत्र के किसानो के गन्ने की अधिकाधिक खरीद व उसकी पेराई करना तथा अध्यधिक चीनी उत्पादन करना था | इसीलिए उस समय किसानो में अपना कोल्हू से खुद ही पैर कर गुड - भेली बनाने का चलन आम तौर पर जारी था | सरकारी व सहकारी चीनी मिलो द्वारा गन्ने का मूल्य बकाया रखने का वर्तमान समय जैसा संकट भी नही था | इसीलिए उस समय भी किन्ही क्षेत्रो में गन्ने का वाजिब मूल्य न मिलने के चलते गन्ने को खेत में जला देने की घटनाओं के वावजूद किसानो ने गन्ने की खेती में कमी नही की थी |
लेकिन अब सरकारी व सहकारी चीनी मिलो के टूटते जाने या कहिये घाटे के नाम पर उन्हें बंद किये जाने अथवा उसे निजी मालिको को सौपे जाने के साथ निजी चीनी मिलो का दबदबा बढ़ता रहा है | गन्ने की कम पेराई करके किसानो के गन्ना मूल्य को बकाया रखने के साथ सरकारों पर गन्ना मूल्य न बढाने का बढ़ता दबाव मिलो के इसी दबदबे का प्रिल्क्ष्ण है | इसी के परिणाम स्वरूप आम किसान गन्ने की खेती में कमी करने लगे है | मिलो में गन्ना न बेच पाने वाले किसान क्रेशर मालिको को सरकार द्वारा निर्धारित रेट से कही कम मूल्य पर अपना गन्ना बेचने पर मजबूर हो गये है | इन्ही मजबूरियों के चलते किसान गन्ने की खेती को घाटे उठाने वाली खेती मान चुके है या मानते जा रहे है | गन्ने की खेती कम करते जा रहे है |
यह किन्ही केन्द्रीय या प्रांतीय सरकार के गलत निर्णयों का परिणाम नही है , बल्कि यह देश प्रदेश में लागू होती निजिक्रंवादी औद्योगिक नीति का तथा खेती - किसानी को ( खासकर सीमांत छोटे - औसत किसानो की खेतियो को ) नीतिगत रूप से हतोत्साहित करने की वैश्वीकरणवादी नीतियों के परिणाम है | उन्ही नीतियों के अंतर्गत देश - प्रदेश की सरकारे देश की जरुरतो के लिए कृषिगत उत्पादन को बढ़ावा देने तथा देश को खाद्यायन के मामले में आत्मनिर्भर बनाने की निति का परित्याग कर व चीनी जैसे कृषि पर आधारित आवश्यक उत्पादों का विदेशो से आयात बढाने की नीतियों को लागू करते जा रहे है |
इन्ही नीतियों के चलते गन्ने की कम पेराई करने उसका बकाया बनाये रखने का कम चीनी मिले सरकारों के सहयोग व समर्थन से लगातार जारी रखे हुए है | इन्ही नीतियों के फलस्वरूप चीनी मिलो द्वारा गन्ने का मूल्य न बढाने की बात मानकर प्रदेश सरकार ने 2015- 16 के तीसरे साल में भी गन्ने का मूल्य 280 रूपये प्रति किवंटल से आगे नही बढने दिया | जबकि यह बात सरकार बखूबी जानती है की गन्ने की लागत में बढती महगाई के साथ वृद्दि होती रही है |
इसी तरह से बात - बात में साड़ी योजनाओं की रकम किसानो के खातो में सीधे पहुचाने का प्रचार करती रही केंद्र सरकार व प्रांतीय सरकार भी अपनी घोषणाओं व प्रचारों के विपरीत किसानो के बकाये वापस करने के लिए अपनी सहायताए किसानो के खाते में सीधे देने की जगह उन्हें चीनी मिल मालिको को सौपती रही है | मिल मालिको द्वारा किसानो के बकाये चुकता करने के कोर्ट के निर्देशों की अनदेखी करने के वावजूद सौपती जा रही है |
यह सबकेंद्र व प्रान्त की सरकारों द्वारा चीनी मिल मालिको की खुली पक्षधरता के साथ गन्ना किसानो की उपेक्षा व विरोध का सबूत है | यह स्थिति अगर बदलनी है तो किसानो को संगठित आन्दोलन और दबाव बनाना होगा सरकार पर तभी इनकी भली हो सकती है |
सुनील दत्ता ---------- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक