Monday, September 17, 2018

आंकड़ो के खेल में भारत 6ठवें अमीर देशो में

आंकड़ो के खेल में भारत 6ठवें अमीर देशो में



दिनाक 21 मई 2018 के समाचार पत्रों में अफ्रोशिया बैंक की ताजा रिपोर्ट प्रकाशित हुई है | इस रिपोर्ट में भारत का विश्व का 6 ठवां अमीर देश बताया गया है | इस रिपोर्ट में 62 हजार अरब डालर से भी अधिक दौलत वाला अमेरिका पहले नम्बर पर है | दूसरे , तीसरे चौथे और पांचवे पर चीन जापान ब्रिटेन जर्मनी काबिज है | छठे नम्बर पर भारत है | भारत की दौलत विकसित देशो में शामिल फ्रान्स -कनाडा - आस्ट्रेलिया -इटली से भी ज्यादा है | जबकि भारत आज भी अल्प विकसित या विकासशील देशो की श्रेणी में शामिल है | अल्पविकसित या विकासशील देश होने के चलते न केवल इस देश के प्रति व्यक्ति की आय बहुत कम है . बल्कि इस देश में तथा अन्य कुछ दौलतमन्द - विकासशील देशो में भी गरीबी कही ज्यादा है | 2016 के अंतर्राष्ट्रीय मानको के अनुसार इस देश की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे है | स्पष्ट है कि एक तिहाई आबादी के पास अपने श्रम या संसाधन के बूते जीने खाने का वांछित या न्यूनतम आधार अवसर नही है | देश की व्यापक आबादी के भरण पोषण के लिए चलाई गयी खाधयान्नसुरक्षा योजना इस बात का सबूत देती है किइस आबादी का बड़ा हिस्सा अपना पेट भर पाने के लिए आवश्यक कमाई करने अक्षम है |मानव विकास सूचकांक की स्थितियाँभी इसी की पुष्टि करती है | 2016 में विश्व के 188देशो के मानव सूचकांक में सबसे ऊँचे स्थान पर यूरोपीय देश नार्वे को बताया गया है | वहाँ प्रत्येक नागरिक के मानव विकास की स्थिति सबसे बेहतर बताई गयी है , जबकि भारत उसी सूचि में 133वें स्थान पर था | स्पष्ट है कि भारत का स्थान काफी नीचे था और आज भी है | इसकी कुल दौलत 6230 अरब डालर बताई गयी है | भारत की दौलत विकसित देशो में शामिल बहुआयामी निर्धनता के वैश्विक माप की ऐसी ही स्थिति है | निर्धनता के इस अंतर्राष्ट्रीय सूची से तो अमेरिका. इंग्लैण्ड .फ्रांस .जर्मनी .जापान आस्ट्रेलिया .कनाडा .नार्वे .स्वीडन जैसे धनाढ्य एवं विकसित देश बाहर ही है | क्योकि इन देशो में ऐसी निर्धनता है ही नही | इन देशो को छोड़कर विश्व के निर्धन गरीब तथ अल्पविकसित या विकासशील देशो के 102 सदस्यों में भारत भी शामिल है | मानव विकास सूचकांक की रिपोर्ट के अनुसार 2016 में देश की कुल जनसख्या का 55.3% हिस्सा बहुआयामी निर्धनता से पीड़ित बताया गया है | यह स्थिति दो एक साल या चंद सालो में नही खड़ी हुई है | वह देश के आधुनिक विकास के साथ बढती रही है | खासकर पिछले 20 - 25 सालो से उसमे तीव्र गति से बढ़ोत्तरी होती रही है | कयोकी इन सालो में देश के घोषित तीव्र आर्थिक विकास के नाम पर बहुसंख्यक आबादी की गरीबी घटाने की जगह थोड़े से धनाढ्य उच्च एवं सुविधा सम्पन्न हिस्से की अमीरी बढाने का ही काम किया गया है | देश - विदेश के धनाढ्य उच्च हिस्सों के उदारवादी वैश्वीकरणवादी - निजीकरण वादी छूटो व अधिकारों को बढाते हुए उनकी पूंजियो परिसम्पत्तियो को तथा उच्चस्तरीय वेतन भत्तो सुख सुविधाओं को अंधाधुंध बढावा दिया गया है | इसी का नतीजा है कि एक तरफ यह देश विश्व के सबसे दौलतमन्द देशो की सूची में काफी उंचाई पर 6ठवें पर पहुचं गया है | धनाढ्यता की बढ़त का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 55% गरीब और 40-42% औसत आय के खाते - पीते लोगो की अर्थात इन्हें मिलाकर 90-92% की आबादी के धन सम्पत्ति के कही कम जमाजोड़ के वावजूद यह देश विश्व के दौलतमन्द देशो की श्रेणी में खड़ा हो गया | स्वभावत: वह आबादी 8-10 % लोगो के अत्यधिक तेजी के साथ अत्यधिक धनवान बनते जाने के चलते ही सम्भव हुआ है | इसका एक और सबूत अभी दो तीन माह पहले प्रकाशित एक सूचना में मौजूद है | इस सूचना के अनुसार देश के कुल संसाधनों के 70% से अधिक हिस्से पर 1 % आबादी का मालिकाना मौजूद है | बाकी ९९% आबादी के हिस्से में देश का 30% संसाधन छोटे बड़े हिस्से में बटा हुआ है | प्रश्न है कि अत्यंत छोटे हिस्से के बढ़ते मालिकाने एवं बढती धनाढ्यता के साथ देश में सम्पत्तिहीनो गरीबो की आबादी लगातार बढती जा रही है क्यों ? क्योकि पुराने युगों की तरह ही आधुनिक युग के धनाढ्य के बढ़ने का एक ही रास्ता है | वह रास्ता श्रमजीवी जनसाधारण के श्रम के शोषण के साथ उनके छोटे छोटे संसाधनों को तोड़ने और लूटने का रास्ता है | यही कारण है कि चंद लोगो की अमीरी बहुसंख्यक लोगो की गरीबी की स्थिति में धकेलते हुए ही आगे बढ़ रही है | चंद लोगो का भाग्योदय बहुतेरे लोगो को अभगा बनाते हुए हो पाता है और यही आज हो रहा है | धनाढ्यता निर्धनता की यह स्थितिया वस्तुत: धनाढ्य वर्ग एवं श्रमजीवी जनसाधारण श्रमजीवी वर्ग के बीच असाध्य वर्ग विरोध का सबूत है | यही वर्ग विरोध देश के वर्तमान दौर के आधुनिक विकास के अंतर्गत देश के सर्वाधिक धनी देशो के 62वें नम्बर पर पहुचने तथा विश्व के मानव विकास सूचकांक एवं बहुआयामी दरिद्रता सूचकांक में इस देश का काफी निचले स्तर पर बने रहने के परस्पर विरोधी रूपों में मौजूद है | स्पष्ट है कि देश की बढती अमीरी की सूचना देश के अमीर बनते लोगो को तथा उनके सेवक बने राजनीतिक. प्रचार माध्यमि एवं बौद्धिक सांस्कृतिक हिस्सों को तो आह्लादित कर सकती है और करती भी है | पर वह देश में गरीबी रेखा पर या उससे नीचे या कुछ उपर जी रहे लोगो को संकटग्रस्त एवं भयाक्रांत ही करेगी | क्योकि वह उन्हें ज्यादा साधनहीन एवं सुविधाहीन बनाती जायेगी | इस सन्दर्भ में यह सवाल उठ सकता है कि अगर थोड़े से लोगो में अमीरी बढ़ने के साथ बहुसंख्यक लोगो में गरीबी का बढ़ना लाजिमी है , तो वह काम अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसे विकसित देशो में क्यों नही होता ? उनके देश में अमीरी बढ़ने के साथ गरीब अभावग्रस्त लोगो की आबादी में वृद्धि क्यो नही होती ? उन देशो का मानव विकास सूचकांक इतना ऊँचा क्यो बना रहता है ? वे देश बहुआयामी गरीब देशो की सूची में क्यो नही है ? इन प्रश्नों का उत्तर एक दम सीधा है और यह है कि ये देश केवल धनाढ्य एवं विकसित देश नही है बल्कि साम्राज्यी देश है | इनकी साम्राज्यी पूंजी का तथा इनके मालो मशीनों तकनीको एव अन्य सेवाओं का उच्च मूल्यों एवं उच्च ब्याजदरो पर निर्यात दुनिया के सभी देशो में होता रहा है | फलस्वरूप इन देशो के धनाढ्य वर्गो के शोषण लूट का दायरा पूरे विश्व में फैला हुआ है | विश्व के विभिन्न देशो के श्रम एवं संसाधनों के शोषण दोहन का फल इन देशो में पहुचता रहता है | वह उनके धनाढ्यो को और ज्यादा धनाढ्य बनाने के साथ - साथ वहाँ के जनजीवन एवं उपभोग के स्तर को भी बेहतर बनाये रखता है | उसके परिणाम स्वरूप साम्राज्यी देश और ज्यादा अमीर होने के साथ गरीबी की वैश्विक माप व सूची से बाहर रहते है | जबकि इन साम्राज्यी देशो के लूट के साथ बंधे भारत जैसे तमाम देशो के जनगण और ज्यादा गरीब एवं साधनहीन बना रहता है | निसंदेह इन साम्राज्यी सम्बन्धो में ही भारत जैसे देशो के धनाढ्य उद्योगपति एवं व्यापारियों का हिस्सा भी उसी शोषण - लूट से अधिकाधिक धनाढ्य बनता गया है | इस सन्दर्भ में ब्रिटिश राज के दौरान ब्रिटेन के धनाढ्य वर्गो की बढती धनाढ्यता के साथ वहाँ के मजदूरो की बेहतर होती स्थितियां तथा इस देश के बहुसंख्यक जनसाधारण की बदहाल होती स्तिथियों के साथ इस देश के उद्योग व्यापार के मालिको की बढती रही धनाढ्यता भी इसी बात का सबूत प्रस्तुत करती है | स्पष्ट है कि विकसित साम्राज्यी देशो की बढती धनाढ्यता सम्पन्नता का वर्गीय परिणाम मुख्यत: कम विकसित पिछड़े व विकासशील देशो के जनसाधारण की बढती गरीबी व साधनहीनता में ही आता है | वर्तमान दौर के बढ़ते वैश्वीकरणवादी व निजीकरण के साथ उसका परीलक्षण विदेशियों की बढती धनाढ्यता बेहतर मानव विकास एवं गरीबी के अभाव तथा भारत जैसे देशो के 1-2% लोगो की बढती धनाढ्यता साधन सम्पन्नता और बहुसंख्यक लोगो में बहुआयामी गरीबी के रूप में तेजी के साथ हो रहा है )
( लेख में दिए गये आंकड़े पूरी एवं मिश्र की पुस्तक ''भारतीय अर्थव्यवस्था से लिए गये है )


वो अपने चेहरे में सौ आफ़ताब रखते हैं ------- हसरत जयपुरी

वो अपने चेहरे में सौ आफ़ताब रखते हैं
इसीलिये तो वो रुख़ पे नक़ाब रखते हैं ------------- हसरत जयपुरी

आज है उनका पूण्य तिथि


सलाम प्यार को , चाहत को , मेहरबानी को , सलाम जुल्फ को खुशबु की कामरानी को सलाम
सलाम गाल के तिलों को जो दिलो की मंजिल है ऐसी शायरी के अजीमो शख्सियत हसरत जयपुरी का जन्म 15 अप्रैल 1918 में जयपुर में हुआ था \ हसरत जयपुरी का नाम इकबाल हुसैन था | इन्होने अपनी पूरी शिक्षा दीक्षा जयपुर से हासिल की और इसके साथ ही सरो -- शायरी का हुनर इन्होने अपने मरहूम नाना से तालीम के रूप में हासिल किया | हसरत कहते है बेशक मैंने शेरो - शायरी की तालीम अपने नाना से ली पर इश्क की तालीम मैं अपनी प्रेमिका राधा से पाई | उसने बताया कि इश्क क्या होता है | राधा मेरे हवेली के सामने रहती थी वो बहुत ही खुबसूरत थी | और मैं उसे प्यार करता था | वो झरोखे से झाकती थी तब मैं अपने जीवन का पहला शेर लिखा उसके लिए '' तू झरोखे से जो झाके , तो मैं इतना पुछू | मेरे महबूब तुझे प्यार करु या न करु |
अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद चमड़े की झोपड़ी की आग बुझाने के लिए मैं बम्बई आ गया यहाँ पर मैंने आठ साल बस कंडेक्टरी की नौकरी करते हुए हसरत साहब ने कभी हसिनाओ से टिकट का पैसा नही लिया वो कहते है मैं इन हसिनाओ को देखते हुए बस यही कहा करता था कि तुम खुदा की बनाई नेमत हो तुमसे टिकट के लिए पैसा नही लूँगा और उनसे जो प्रेरणा मिलती मुझे वो गीतों -- कविताओ में घर आकर कागज के सीने में उतार देता | हसरत इन कामो के साथ ही मुशायरो में शिरकत करते उसी दौरान एक कार्यक्रम में पृथ्वीराज कपूर उनके गीतों को सुनकर काफी प्रभावित हुए और उन्होंने अपने पुत्र राजकपूर को हसरत जयपुरी से मिलने की सलाह दिया | राजकपूर स्वंय हसरत जयपुरी के पास गये और उन्होंने उन्हें अपने स्टूडियो बुलाया और वह पर उन्होंने हसरत साहब को एक धुन सुनाई | उस धुन पर हसरत साहब को गीत लिखना था | धुन के बोल कुछ इस तरह के थे '' अबुआ का पेड़ है वही मुंडेर है , आजा मेरे बालमा काहे की देर है ' हसरत जयपुरी ने धुन सुनकर अपनी फ़िल्मी जीवन का पहला गीत लिखा "" जिया बेकरार है , छाई बहार है आजा मोरे बालमा तेरा इन्तजार है | फिल्म '' बरसात के लिए लिखे इस गीत ने हसरत जयपुरी को पुरे देश में एक नई पहचान दी | हिंदी फिल्मो में जब भी टाइटिल गीतों का जिक्र होता है तो सबसे पहले हसरत जयपुरी नाम सबसे पहले लिया जाता है वैसे तो हसरत जयपुरी एक ऐसे शायर थे| | '' दीवाना मुझको लोग कहे ( दीवाना ) , ' दिल एक मंदिर है , रात और दिन दीया जले , तेरे घर के सामने इक घर बनाउगा, गुमनाम है कोई बदनाम है कोई , दो जासूस करे महसूस , जैसे ढेर सराई फिल्मो के उन्होंने टाइटिल गीत लिखे इसके साथ ही हसरत जयपुरी ने लिखा '' अब्शारे -- गजल '' में

ये कौन आ गई दिलरुबा महकी महकी
फ़िज़ा महकी महकी हवा महकी महकी

वो आँखों में काजल वो बालों में गजरा
हथेली पे उसके हिना महकी महकी

ख़ुदा जाने किस-किस की ये जान लेगी
वो क़ातिल अदा वो सबा महकी महकी
सवेरे सवेरे मेरे घर पे आई
ऐ "हसरत" वो बाद-ए-सबा महकी महकी
उन्होंने प्रेम को प्रतीक माना ---------------- हसरत जयपुरी ने अपनी उस प्रेमिका के लिए बहुत से गीत लिखे जहा वो बोल पड़ते है चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल ,

हम वहाँ जाये जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल

प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चलइन्होने अपने प्यार का इजहार बहुत ही शानदार तरीके से किया पर हसरत कभी अपनी उस पहली प्रेमिका को कह नही पाए और उन्होंने उस '' राधा '' के लिए जो अपना पहला प्रेम पत्र लिखा था उसको वो कभी अपनी राधा को नही दे पाए तब राजकपूर ने उनके प्रेम -- पत्र को एक फिल्म में इस्तेमाल किया '' ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर कही तुम नाराज न होना कि तुम मेरी जिन्दगी हो तुम मेरी बन्दगी हो ""

हसरत के गीतों में अंतर वेदना के साथ प्रेम की असीम गहराई है |हसरत जयपुरी की जोड़ी राजकपूर के साथ 1971 तक कायम रही |'' मेरा नाम जोकर '' और '' कल आज और कल '' के बाक्स आफिस में विफलता के कारण राजकपूर से उनकी जोड़ी टूट गयी और राजकपूर ने फिर आनन्द बख्शी को अपने साथ ले लिया | इसके बाद हसरत जयपुरी ने राजकपूर के लिए 1985 में प्रदर्शित फिल्म '' राम तेरी गंगा मैली '' में सुन साहिबा सुन ' गीत लिखा जो काफी लोकप्रिय हुआ | हसरत जयपुरी को दो बार फिल्म फेयर एवार्ड पुरूस्कार से सम्मानित किया गया | हसरत जयपुरी ने यु तो बहुर रूमानी गीत लिखे लेकिन असल जिन्दगी में उन्हें अपना पहला प्यार नही मिला | हसरत के तीन दशक के लम्बे फ़िल्मी कैरियर में 300 से अधिक फिल्मो के लिए करीब 2000 गीत लिखे | अपने गीतों से श्रोताओ को मन्त्र मुग्ध करने वाला शायर 17 सितम्बर 1999 में चिर निद्रा में विलीन हो गया और छोड़ गया अपने लिखे वो गीत जो उसने सादे कागज के कैनवास पे उतारे थे और अलविदा कह दिया उसने इस दुनिया को | ऐसे शायर को आज उनकी पूण्य तिथि पर शत शत नमन |

सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

Wednesday, September 5, 2018

ऐतिहासिक त्रासदी भारतीय शिक्षा व्यवस्था की

शिक्षक दिवस ---

ऐतिहासिक त्रासदी भारतीय शिक्षा व्यवस्था की


भारतीय शिक्षा व्यवस्था की त्रासदी की चर्चा आमतौर पर ब्रिटिश इंडिया कम्पनी के शासन काल में लागू की गयी मैकाले की शिक्षा नीति के साथ की जाती है | एक हद तक यह बात ठीक भी है | कयोकी मैकाले और उनसे पहले इसाई मिशनरियों ने इस देश में इसाई धर्म प्रचार के साथ अंग्रेजी भाषा एवं आधुनिक शिक्षा प्रणाली को स्थापित करने का काम किया था | उस शिक्षा प्रणाली का मुख्य उद्देश्य ही अंग्रेजो जैसी सोच समझ रखने वाले शिक्षित हिन्दुस्तानियों को खड़ा करना था | इस शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य देश और समाज को शिक्षित कर उसे इस राष्ट्र का जागरूक नागरिक बनाना कदापि नही था | इसके विपरीत उसका उद्देश्य अंग्रेज शासको द्वारा अंग्रेजी शिक्षित हिन्दुस्तानियों के सहयोग सेवा और समर्थन से ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य को बनाये रखना था | इस राष्ट्र के श्रम सम्पदा के शोषण लूट एवं प्रभुत्व को बरकरार रखना था | अंग्रेजो से रंग - रूप एवं संस्कृति में भिन्न ये शिक्षित हिन्दुस्तानी हिस्से का समर्थन लेकर उसका विस्तार प्रचार देश के जनसाधारण में करना था |इस उद्देश्य ने न केवल इस देश की पहले से चली आ रही हिन्दुस्तानी शिक्षा प्रणाली को हतोत्साहित करने का काम किया , अपितु देश के आगे बढ़े हुए हिस्से को राष्ट्र व राष्ट्र के जनगण की ब्रिटिश दासता की गंभीर समस्याओं से अलग करने का काम भी किया | यही कारण है कि 1857-58 तक इस देश का अंग्रेजी शिक्षित बौद्धिक हिस्सा ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों का हिस्सा नही बना था | हालाकि बाद के दौर में खासकर 1857 से लेकर 1880 के बाद से अंग्रेजी भाषा साहित्य एवं अन्य आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने वाले हिन्दुस्तानियों का एक हिस्सा स्वतंत्रता आन्दोलन का अगुवा भी बना | स्वराज के साथ राष्ट्रीय शिक्षा को स्वतंत्रता आन्दोलन का हिस्सा बनाया उस दौर के राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का लक्ष्य राष्ट्र स्वतंत्रता के साथ देश की मातृभाषाओं को प्राथमिकता देना और उसका निरंतर विकास करना भी था . साथ ही देश में आधुनिक युग के ज्ञान - विज्ञान की शिक्षा को बढ़ावा देना और उसके लिए अंग्रेजी भाषा को भी बढ़ावा देना और उसके लिए अंग्रेजी भाषा की भी शिक्षा लेना था | आज फिर देश की शिक्षा व्यवस्था एक बड़ी गंभीर त्रासदी से गुजर रही है | देश की सभी केन्द्रीय - प्रांतीय सरकार शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी तथा राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रो की मातृभाषाओं को बुरी तरह से उपेक्षित करने में लगी हुई है | अंग्रेजी भाषा को वह भी अमेरिकन अंग्रेजी को अंधाधुंध रूप से बढावा देने में लगी हुई है | फलस्वरूप आधुनिक युग की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली एक बड़े ही अराजकतापूर्ण विघटन की त्रासदी से गुजर रही है | इसे देखकर यही लगता है कि वर्तमान दौर में मैकाले की शिक्षा नीति का असर आज मैकाले के समय से और पूरे ब्रिटिश शासन के काल से भी अधिक है | उच्च एवं बेहतर शिक्षा प्राप्त समुदाय का राष्ट्रीय समस्याओं को उपेक्षित करते जाना भी इसका ज्वलंत उदाहरण है | यह मैकाले और ब्रटिश राज की जीत और राष्ट्रवादियो की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के भारी पराजय का परिलक्षण है | शिक्षा व्यवस्था की विघटन - निर्माण से ज्यादा विघटन की त्रासदी इस भारतीय भू - भाग के शैक्षणिक इतिहास में लगातार चलती रही है | अगर हम शिक्षा व्यवस्था के एकदम प्रारम्भिक दौर को अर्थात वैदिक शिक्षा अकाल को ( 2500 ईसा पूर्व से लेकर 500 ईसा पूर्व ) को लें , तो यह दौर शिक्षा को एक अलग सामाजिक संस्था के रूप में स्थापित करने का दौर था | अभी भी लिपि व लेखन का विकास नही हो पाया था | उसका आरम्भ ही हो रहा था | गुरु से शिक्षा ज्ञान सुनकर कंठस्थ करना और फिर उसे बोलकर अभिव्यक्त करना प्रमुख शिक्षण विधि के रूप में प्रचलित था | गुरु का घर या आश्रम ही उस युग के शैक्षणिक संस्थान थे | शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी | समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर एवं अधिकार नही था | हालाकि उस समय के शुरूआती अवस्था में सभी के लिए शिक्षा का अवसर उपलब्ध भी नही हो सकता था | पर उस शुरूआती दौर में शिक्षा प्राप्त करने के लिए जन्मना जातीय भेदभाव भी नही था | वह हिन्दू समाज के जाति व्यवस्था की संरचना के मजबूत हो जाने के साथ ही सम्भव हुआ | वैसे वैदिक काल की शिक्षा प्रणाली अनार्यो पर आर्यों के प्रभुत्व स्थापित होने के बाद शुरू हुई थी | स्वाभाविक है कि आर्यों के विजय के साथ अनार्यो में किसी रूप में मौजूद शिक्षा प्रणाली को भी जरुर तोडा गया होगा | लेकिन उसी के साथ बाद के दौर में आर्यों एवं अनार्यो के सभ्यता संस्कृति के बढ़ते समागम के अंतर्गत अनार्यो के शिक्षा ज्ञान एवं शैक्षणिक प्रणाली में सुधार बदलाव के साथ अपनाया भी जरूर गया होगा | हंमे इसके ऐतिहासिक प्रमाण तो नही मिल पाए , पर बदलाव की स्वभाविक ऐतिहासिक प्रक्रिया ऐसी ही रही होगी |
हिन्दू धरम और उसमे ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरोध में खड़े हुए बौद्ध धर्म का प्रभाव 500 ईसा पूर्व से लेकर 1200 ईसा पश्चात तक रहा | इस दौरान बौद्ध राजाओं एवं बौद्ध भिक्षुओ ने बौद्ध मठो में बौद्ध शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा दिया | उस दौरान भाषा का माध्यम बदलकर पाली कर दिया गया था | उस समय पाली भाषा जनसाधारण की भाषा भी थी | बौद्ध मठों में शिक्षा ग्रहण करने से आम तौर पर वर्जित चांडाल एवं अन्य घोषित असामाजिक तत्वों के अलावा अन्य सभी जाति समुदाय के लोग वहाँ शिक्षा ग्रहण कर सकते थे | बौद्ध शिक्षा प्रणाली ने बौद्ध धर्म की शिक्षा के साथ हिन्दू धर्म की शिक्षा को अपने पाठ्यक्रम का विषय बनाया रखा | हालाकि अब उसे पहले जैसा महत्व प्राप्त नही था | बौद्ध काल में उच्चस्तरीय शिक्षा के अनेको केंद्र स्थापित किये गये थे | उच्च शिक्षा के पुराने केन्द्रों को सुधार बदलाव के साथ और ज्यादा व्यवस्थित किया गया था | इन उच्च शिक्षण संस्थाओं में पूर्वी बंगाल में '' नादिया विश्व विद्यालय ' काठियावाड़ में बल्लभी विश्व विद्यालय उत्तरी मगध में विक्रमशिला विश्व विद्यालय इस समय पाकिस्तान में रावलपिंडी से 20 मील पश्चिम में स्थित तक्षशिला विश्व विधालय पटना के दक्षिण नालंदा विश्व विद्यालय जैसे अन्तरराष्ट्री ख्याति प्राप्त विश्व विद्यालय शामिल थे | 1200 ई० से 1757 तक के मुस्लिम शासन काल में बाहर से आये मुस्लिम शासको ने यहाँ की वैदिक व बौद्धकालीन शिक्षण संस्थाओं को न केवल उपेक्षित कर दिया बल्कि उसे नष्ट करने का भी काम किया | उदाहरण विक्रमशिला - नालन्दा को बख्तियार खिलजी ने 1203 में नष्ट कर दिया | तक्षशिला को तो हूंण आक्रमणकारियों ने पहले नष्ट कर दिया था | यही स्थिति अन्य तमाम छोटे बड़े हिन्दू बौद्ध विद्यालयों की भी हुई | उसकी जगह खानकाह व दरगाह में चलने वाले मुस्लिम धर्म के प्रारम्भिक स्कूल मस्जिद से सलग्न कुरआन स्कूल अरबी स्कुस्कूल तथा मदरसों जैसी शिक्षण संस्थाओं को बढ़ावा मिलता रहा | मुस्लिम शिक्षण संस्थाओं की भाषा अरबी फ़ारसी व अरबी जैसी विदेशी भाषा थी | फ़ारसी को मुख्यत: राजभाषा के रूप में तथा अरबी को धर्म की भाषा के रूप में बढ़ावा दिया जाता रहा | साथ ही देश की लोकभाषाओ को पाली व संस्कृत को भी उपेक्षित किया जाता रहा मुस्लिम धर्म तथा फ़ारसी अरबी के इन शिक्षण में मुस्लिम धर्मावलम्बियों को ही शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था | समूचा हिन्दू समुदाय राज्य द्वारा प्रोत्साहित शिक्षण संस्थानों में ही शिक्षा ज्ञान पाने से वंचित रहा | कुछ उच्चस्तरीय हिन्दू ही थोड़े उदारवादी कहे जाने वाले सिकन्दर लोदी तथा अकबर जैसे शासको के काल में बेहतर शिक्षा पाने में सफल रहे | हालाकि वे भी भारतीय भाषाओं में नही बल्कि फ़ारसी भाषा में शिक्षित हो पाए | इस देश के हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए भी शिक्षा के अवसर कम ही थे | कयोकी बाहरी मुस्लिम शासको ने अरबी - फ़ारसी के शिक्षण केन्द्रों का भी कम विकास किया | फिर मुस्लिम बादशाहों की प्रतिद्वन्दिता एवं संघर्ष ने भी उस दौर में शिक्षा का विस्तार नही होने दिया | इस मध्य युगीन शिक्षा पद्धति की सबसे बड़ी त्रासदी देश के विभिन्न क्षेत्रो की भाषाओं की उपेक्षा के साथ के साथ 550 सालो तक अरबी , फ़ारसी जैसी विदेशी भाषा का प्रभुत्व पूर्ण विस्तार रहा है |अंग्रेजो के आने के और 1757 में बंगाल में उनके राज्य की स्थापना के बाद से शिक्षा व्यवस्था में पुन: भारी बदलाव की प्रक्रिया खुद कम्पनी के अंग्रेज अधिकारियों के बीच विवाद का विषय बनी रही | उनका यह विवाद , भारतीय भाषाओं में भारत की पुरानी शिक्षा पद्धति को ही लागू करने के हिमायती प्राच्य्वादियो तथा अंग्रेजी भाषा के साथ पश्चिमी एवं आधुनिक शिक्षा पद्धति के समर्थक पाश्चात्यवादियों के बीच विवाद के रूप में सामने आया | उस विवाद का अन्त 1835 में मैकाले के शिक्षा सम्बन्धी प्रावधानों एवं निर्देशों के रूप में हुआ | उन शिक्षा नीतियों तथा राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन के साथ आधुनिक शिक्षा का त्रासद पूर्ण विकास जारी रहा | फलस्वरूप अंग्रेजी भाषा के लगातार बढ़ते प्रभाव प्रभुत्व के साथ देश की भाषाओं का विकास और इस देश की अपनी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का बहुत कम विकास हो पाया |अब तो वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में उस त्रासदी को अंग्रेजी शिक्षा को सर्वव्यापी बनाते हुए आगे बढावा जा रहा है | विडम्बना यह है की यह त्रासदी अपने आपको राष्ट्रभक्त एवं राष्ट्रवादी कहने वाली सभी राजनितिक पार्तियाओ के उच्चस्तरीय शिक्षाविदो एवं सलाहकारों द्वारा बढावा दिया जा रहा है | नि:संदेह इसे बढावा देने का काम अंतर्राष्ट्रीय , आर्थिक , सांस्कृतिक नीतियों के साथ किया जा रहा है | उसे विश्व बैंक ,यूनिसेफ , यूनेस्को जैसी अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यी प्रभाव प्रभुत्व की संस्थाओं के दिशा निर्देशन के साथ किया जा रहा है | देश का धनाढ्य एवं शासकीय हिस्सा शिक्षण व्यवस्था में उन्ही निर्देशों को मानने और लागू करने में जुटा हुआ है | शिक्षा का बाजारीकरण निजीकरण एवं अंग्रेजीकरण करने में जुटा हुआ है | इसलिए शिक्ष्ण व्यवस्था की त्रासदी को रोकने और राष्ट्रीय शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी वर्तमान दौर की निजीवादी बाजारवादी शिक्षा नीतियों का पुरजोर विरोध आवश्क हो गया है साथ ही 1905-06 की तरह ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मांग व आन्दोलन को आगे बढाने की आवश्यकता है तभी इस देश की शिक्षा में सुधार हो सकता है |

Tuesday, September 4, 2018

बुनकरों का संग्राम ...............1777--------------- 1800

बुनकरों का संग्राम ...............1777--------------- 1800

{ अंग्रेजो ने भारत के कपडे उद्योग को बर्बाद किया था }

क्या आज के दौर में देशी व विदेशी कम्पनियों के लूट ने ठीक वही काम नही किया है ? क्या वर्तमान समय में ये कम्पनिया लागत बढाने के साथ -- साथ बड़े उद्योगों के देशी व आयातित विदेशी मालो सामानों से बुनकरों का उत्पादन व बाजार नही छीन रही है ? बुनकरों एवं अन्य दस्तकारो को साधनहीन नही बना रही है ? बिलकुल बना रही है क्या आज बुनकर व अन्य मेहनतकश समुदाय बुनकरों के उस संघर्ष से प्रेरणा लेगा ? क्या वह वैश्वीकरणवादी नीतियों , संबंधो का विरोध भी संगठित रूप में करने का प्रयास करेगा ? जिसकी आज तात्कालिक पर अनिवार्य आवश्यकता सामने खड़ी हो चुकी है |
अंग्रेज सौदागरों ने आकर इस देश के उद्योग -- धंधो को खासकर कपड़ा उद्योग को बुरी तरह से नष्ट किया , यह जग जाहिर है | भारत के बुनकरों ने , जिनके हाथ का बना कपड़ा , दुनिया में मशहूर था , इन सौदागरों के शोषण -- उत्पीडन का संगठित मुकाबला करने का भरसक प्रयत्न किया | सन्यासी विद्रोह के दौरान इन कारीगरों के एक हिस्से ने फ़ौज से बर्खास्त सैनिको और किसानो के साथ मिलकर अंग्रेज सौदागरों का सशत्र मुकाबला किया था | इस सशत्र प्रतिरोध के अलावा उन्होंने संघर्ष के कई हथियार अपनाए | सूबा बंगाल ( अर्थात आज का प. बंगाल बंगलादेश , बिहार , ओड़िसा ) की जमीन पर पैर रखते ही अंग्रेज सौदागरों ने खासकर यहाँ के सूती और रेशमी कपडे के कारीगरों को लूटना आरम्भ किया | वह लघु उद्योगों का जमाना था , आजकल की तरह बड़े -- बड़े कारखाने उस वक्त न थे | शोषण तो देशी सौदागर भी करते थे ,पर वे उद्योग को ज़िंदा रखते थे | इन कारीगरों को मनमाने ढंग से लूटने के लिए अंग्रेज सौदागर उन्हें बंगाल के विभिन्न हिस्सों से लाकर कलकत्ता के आसपास रखना चाहते थे | प्रलोभन यह दिया जाता था कि कम्पनी बागियों ( मराठो ) और अन्य आक्रमणकारियों से उनकी रक्षा करेगी | बागियों के आक्रमण के वक्त बहुत से धनी लोग अंग्रेजो का संरक्षण स्वीकार कर कलकत्ता में आ बसे | लेकिन इन कारीगरों ने उस वक्त भी यह संरक्षण स्वीकार नही किए | वे उत्तर बंगाल चले गये और वहाँ अपनी बस्तिया स्थापित की | स्वंय ब्रिटिश सौदागर विलियम बोल्ट्स ने अपनी रचना '' भारत के मामलो पर विचार '' में उल्लेख्य किया है कि अंग्रेज सौदागरों के शोषण -- उत्पीडन के कारण मालदह के जंगलबाड़ी अंचल के 700 जुलाहे परिवार बस्ती छोडकर चले गये और अन्यत्र जाकर बस्ती स्थापित की |18 वी सदी के अंतिम भाग में पूर्व भारत के जिन केन्द्रों से ईस्ट इंडिया कम्पनी सूती कपडे इस देश से ले जाती थी , वे थे ढाका 19 जुलाई 1786 में 21 नियमो ( रेगुलेशन ) की एक तालिका पास की गयी | इसके जरिये हुक्म दिया गया कि हर जुलाहे को एक टिकट दिया जाएगा जिस पर उसका नाम निवास स्थान उस कोठी का नाम जिसके मातहत वह काम करता है लिखा रहेगा | उस पर यह भी दर्ज रहेगा कि उसे कितनी रकम अग्रिम और कितने समय के लिए दी गयी है तथा उसने कितना कपडा कम्पनी को दिया है | रेगुलेशन 11 में कहा गया था कि अगर कोई जुलाहा निश्चित अवधि के अन्दर कपड़ा न दे सका , तो कम्पनी के एजेंट को उस पर पहरेदारी के लिए अपने आदमी बैठाने की स्वतंत्रता होगी | ये पहरेदार निगरानी रखते की जुलाहा और उसके परिवार वाले कोई कपड़ा तैयार कर दूसरे के हाथ न बेच सके | इन पहरेदारो का खाना पीना जुलाहे के ही मथ्थे जाता था |

रेगुलेशन 12 में कहा गया कि कम्पनी का काम करने वाला कोई जुलाहा कम्पनी को निश्चित कपड़ा देने के पहले अगर किसी दूसरे व्यापारी के हाथ कपडा बेचेगा तो उसे अदालत दंड देगी | रेगुलेशन 14 में हुक्म दिया गया कि हर परगने की कचहरी में कम्पनी द्वारा नियुक्त जुलाहों की तालिका टांग दी जाए | कम्पनी के गुमाश्ते जुलाहों को अग्रिम पैसा लेने और कम्पनी के लिए कपड़ा तैयार करने को मजबूर करते | उनसे जबरदस्ती समझौते पर दस्तखत कराते या अंगूठे निशान लगवाते | इन कानूनों ने इन समझौतों को न मानना अपराध करार देकर जुलाहों को खरीदे गुलाम की हालत में पहुचा दिया |
30 सितम्बर , 1789 में पूरक नियम पास करके ये कानून और भी कठोर बना दिए गये | अब व्यवस्था की गयी कि जुलाहा निश्चित अवधि के अन्दर कपडा नही दे सकेगा तो , उसे पेशगी वापस करने के अलावा जुर्माना भी देना होगा | जिस जुलाहे के पास एक से ज्यादा करघे थे और मजदूर रखता था , वह अगर लिखित समझौते के अनुसार कपड़ा नही दे पाता तो उसे बकाया थानों की पेशगी वापस करने के साथ --साथ हर थान पर 35 प्रतिशत जुर्माना देना पड़ता और ऐसे ही बाद के बने कानून खुद इस बात के गवाह है कि भारत के जुलाहे अपनी मर्जी से ईस्ट इंडिया कम्पनी का काम नही करना चाहते थे | उनको कम्पनी का काम करने को मजबूर करने की गरज से ये सारे नियम बनाये गये थे | टिकट की व्यवस्था गुलामी के पटटे को तोड़ फेकने की चेष्ठा इन लोगो ने अपनी शक्ति के अनुसार की | कम्पनी ने नियम बनाकर जुलाहों पर जो प्रतिबन्ध लगा दिए थे , उससे उनमे बड़ा असंतोष फैला | नए रेगुलेशन पास होते ही उन्होंने टिकट लेने से इनकार कर दिया | जार्ज उदनी ने मालदा से रिपोर्ट भेजी कि वहाँ के जुलाहे 30 अक्तूबर 1789 के कानून के सख्त विरोधी है और दंड देने वाली धारा को मानकर चलने को कतई तैयार नही है | जुलाहों ने निश्चय किया कि वे कम्पनी से अग्रिम न लेंगे , क्योंकि समझौते के अनुसार समय पर माल देने में बीमारी सूत का अभाव , जमीदारो के साथ झगड़ा आदि कितनी ही बाते बाधक बन सकती है | ठीक समय पर कपड़ा देना चाहने पर भी हो सकता है कि वे ऐसा न कर सके | वैसी हालत में कानून के अनुसार उन्हें जुर्माना देना होगा | इससे बेहतर है कि वे कम्पनी का माल ही न बनाये | इन जुलाहों के नेताओं के नाम भी हमें मिलते है | ढाका के तीताबाड़ी केंद्र के कारीगर गौतम दास ने अंग्रेज सौदागरों के शर्तनामे पर दस्तखत करने से इनकार किया , तो मैककुलुम ने उन्हें अपनी कोठी में कैद कर इतना अत्याचार किया की वे मर गये | इस घटना से तीताबाड़ी के जुलाहों में असंतोष फैला | यह अत्याचार बंद कराने के लिए व्यापक आन्दोलन चलाए | शांतिपुर के जुलाहों का एक प्रतिनिधि मंडल पैदल चलकर कलकत्ता आया था और लार्ड साहब की काउन्सिल के सामने अर्जी पेश कर कम्पनी के ठेकेदार के जुल्मो को बंद करने की माँग की थी | नि:संदेह शांतिपुर के इन कारीगरों ने लम्बे समय तक संगठित प्रतिरोध का प्रदर्शन किया था राजशाही जिले के हरीयाल आड्ग के कामर्शियल रेजिडेंट सैमुएल बीचक्राफ्ट ने बोर्ड आफ ट्रेड को 31 जुलाई 1794 को सूचित किया की खाद्यान्न और रुई की कीमत बढ़ जाने के कारण इस आड्ग के जुलाहे कपडे की ज्यादा कीमत माँग रहे है | उन्होंने अंग्रेजो के लिए एकदम बारीक कपड़ा बनाना बन्द कर दिया और देश के गरीबो की जरूरत व माँग अनुसार मोटा - मझोला कपड़ा बना रहे है | बीचक्राफ्ट , बल का प्रयोग आदि सब उपाय करके भी कारीगरों को अपने फैसले से नही हटा सके |1799 में हुगली के हरिपाल आड्ग के द्वारा हट्टा शाखा के जुलाहों ने आड्ग के रेजिडेन्ट को साफ़ सूचित किया की वे अब कम्पनी के लिए कपड़ा तैयार न कर सकेंगे | रेजिडेन्ट बहुत चेष्टा करने पर भी उनकी एकता तोड़ न सका | भारत के कपड़ा कारीगरों ने इस प्रकार अपनी शक्ति भर अंग्रेज सौदागरों का मुकाबला किया | पर अंग्रेज सौदागरों के पीछे कम्पनी की राजसत्ता थी | इस राजसत्ता के प्रयोग से वे कारीगरों का प्रतिरोध कुचल देने में समर्थ हुए | प्रतिरोध करना असम्भव देख कारीगरों ने अपना काम छोड़ दिया | भारत का वस्त्र उद्योग इस तरह नष्ट होता गया | जो भारत पहले सारी दुनिया को वस्त्र देता था , वह क्रमश: ब्रिटेन के और फिर दूसरो के वस्त्र का बाजार बन गया | ब्रिटिश साम्राज्यी द्वारा खासकर 1810 के बाद शुरू की गयी यह रणनीति तबसे आज तक चलती आ रही है | राष्ट्र के आत्मनिर्भर उत्पादन को तोडकर उसे साम्राज्यी देशो पर निर्भर बनाने की प्रक्रिया निरन्तर चलती जा रही है | इसके फलस्वरूप बुनकरों के समेत विभिन्न कामो पेशो में स्थाई रूप से और पुश्त -- दर पुश्त से लगे जनसाधारण के जीविका के साधन टूटते जा रहे है | उनकी बड़ी संख्या अब गरीबी , बेकारी आदि की शिकार होती जा रही है , आत्म हत्याए तक करने के लिए बाध्य होती जा रही है | देश का वर्तमान दौर इसका साक्षी है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक



Saturday, September 1, 2018

इंकलाबी आवाज: ---- दुष्यंत कुमार

इंकलाबी आवाज:दुष्यंत कुमार

सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख


दुष्यंत का नाम भी जब भी आता है , तो उसके नाम के साथ एक इंकलाबी आवाज नजर आती है दुष्यंत ने अपनी पूरी जिन्दगी समाज के उन कुरीतियों और और दुष्यंत विद्रोह के लिए समर्पण कर दिया और उसके लिए वो ता उम्र लिखते रहे विद्रोह और लड़ते रहे | दुष्यंत अपने आप में एक खुशनुमा इंसान जहा थे वही वो व्यवस्था के लिए एक विद्रोह एक आग थे | अपने उसूलो पे चल के साधारण सी जिन्दगी जीने वाले दुष्यंत जहाँ अपनी लेखनी से आग उगलते थे वही प्यार की मीठी फुहार भी बरसाते थे | उनकी यह नज्म बार -- बार मुझे सोचने पर मजबूर करती है कि
एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

दुष्यंत ने जहा बड़ी ईमानदारी के साथ आम आदमी की जिन्दगी की बात की उसके दर्द की बात को उकेरा वही उन्होंने जिन्दगी को सहिओ मायने मैं कैसे जीया जाए इस व्यवस्था से कैसे लड़ा जाए यह भी बताने की कोशिश की -
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए


उन्होंने अपनी लेखनी से आम जन मानस के पटल पे यह छवि अंकित करने की कोशिश की दुष्यंत अपने आप में सरल जिन्दगी जीते थे वैसे ही सरलता से अपने आम भाषा में अपनी शायरी में एक नया कलेवर दिया उन्होंने आम आदमी के दर्द को समझते हुए बरबस ही कह दिया ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
उन्होंने आम जिन्दगी को बड़ी सिद्दत के साथ देखा और भोगा तभी तो दुष्यंत अपनी कलम से बोल पड़ते हैं आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख

दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख

ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख

राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख.इसके साथ ही दुष्यंत ने इंदिरा गांधी ने जब आपात काल की घोषणा की तब कि गजलो दुष्यंत में और ि नखार आया और वो उस वक्त कह उठे इस देश की व्यवस्था के खिलाफ
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। ऐसे में दुष्यंत ने अपनी आवाज से इस देश के उन सभी वर्गो को जगाने का काम किया यह नज्म लिख कर उन्होंने कहा की मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए आग को कभी मरने मत दो यह सीने में जो व्यवस्था के प्रति आग है तुम्हारे दिल में जो हर वक्त जलनी चाहिए | आज दुष्यंत हमारे बीच नही हैं पर उनके लिखे नज्म हर पल हमे नयी व्यवस्था के लिए लड़ने का एक नया सन्देश देते है -
ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है

राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है

आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा—ए—अमज़द नहीं है

पेड़—पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है

मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद—रफ़्त ही ज़ायद नहीं

इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है.

दुष्यंत हमारे बीच हर पल है और रहेंगे अपनी कलम के कैनवास पर और हमे अपने नज्मो से आगे बढने की दिशा देते रहेंगे | आज दुष्यंत की जयंती है हम उस विराट विद्रोही कवि को सलाम करते हुए उसका शत शत नमन करते है



-सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक