Thursday, December 21, 2017

लखनऊ के इमामबाड़े --- 20-12-17

लखनऊ के इमामबाड़े ---
 

अवध को भारतीय संस्कृति और राजनीति का केंद्र माना जाता है और यह प्रदेश यदि भारत का दिल है तो इसकी राजधानी , लखनऊ , उसकी धडकन | इस नगर की स्थापना का श्री राम के अनुज , लक्ष्मण को दिया जाता है | परम्परा और उत्खनन के आधार पर इसकी प्राचीनता पीछे ले जायेगी | छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यह कोशल महाजनपद का एक भाग था | विभिन्न कालो में इस पर मित्र राजाओ , गुप्तो , मौखरियो , गुजर्र – प्रतिहारो गाहडवालो आदि ने शासन किया | भरो और पासियो ने भी कुछ समय के लिए अपना आधिपत्य जमाया | तेरहवी शताब्दी के आरम्भिक वर्षो में यहाँ पर कश्मडी कलाँ के शेखो , जुग्गौर के किदवई शेखो आदि ने अपनी बस्तिया बसाई | बाद में बिजनौर के शेखजादों, तथा रामनगर के पठानों ने भी यहाँ अपनी कुछ बस्तिया स्थापित की | दिल्ली के सुल्तानों और मुगल राजाओ ने भी शासन किया |

अवध मुग़ल साम्राज्य का एक सूबा था जहां गवर्नर ( उप – शासक ) नियुक्त किया जाता था | मुग़ल सम्राट मोहम्मद शाह ने 1722 ई. में सआदत खा बुरहान – उल – मुल्क को अवध का नवाब नियुक्त किया , जो शिया थे और जिनका पूरा परिवार मुल्त: ईरानी था | उसने अपना मुख्यालय सरयू नदी के किनारे अयोध्या के पास बनाया जिसे आगे चलकर फैजाबाद का नाम दिया गया |

उस समय तक मुगलों का पतन आरम्भ हो गया जिसका लाभ उठाकर सआदत खा और उनके उत्तराधिकारी अवध के वंशानुगत नवाब या गवर्नर बन गये और स्वतंत्र शासक की तरह राज्य करने लगे |

उसकी चौथी पीढ़ी में नवाब आसिफ –उद-दौला ने 1775 ई. में अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित कर दी | इस घटना के इतिहास का स्वर्ण युग आरम्भ हुआ | आसिफ – उद-दौला और उसके उत्तराधिकारियों ने वास्तु कला में बहुत रूचि ली | इसके कारण लखनऊ में विविध स्र्च्नाओ का निर्माण हुआ | 1856 ई में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अंतिम शासक , नवाब वाजिद अली शाह , को गद्दी से हटाकर अवध का शासन अपने हाथ में ले लिया | इस प्रकार शिया नवाबो ने लखनऊ पर कुल 81 वर्ष शासन किया परन्तु वे इस नगर को एक ऐसी संस्कृति और वास्तुकला दे गये जिसकी अलग पहचान है और जिसकी चर्चा आज तक होती आ रही है |
लखनऊ के नवाबो के समय में हिन्दू और मुसलमान सस्कृतियो के संयोग ने एक विलक्ष्ण और मोहक गंगा – जमुनी तहजीब को जन्म दिया जिसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण लखनवी मोहर्रम है | इसमें केवल इस्लामी अनुष्ठानो को ही नही संपादित किया जाता है अपितु कुछ सीमा तक इसमें भारतीय लक्ष्ण भी देखे जा सकते है जिसके परिणाम स्वरूप यह एक मुस्लिम त्यौहार न रहकर हिन्दुओ का भी पर्व बन गया | एक विद्वान् के अनुसार ‘’ आज भी लखनऊ के हिन्दू जाऊ के दाने उगाकर अपना हरा ताजिया अलग उठाते है ‘’ |

लखनऊ के इमामबाड़ो की चर्चा करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि इस स्र्चना का मुसलमानों के शिया समुदाय से विशेष सम्बन्ध है | लखनऊ के नवाब शिया थे अत: वे अपने समुदाय से जुड़े पर्व विशेष रूचि के साथ मनाते थे | उदाहरण के लिए जहां इस्लामी जगत में मोहर्रम का मातम मात्र दस दिन मनाया जाता है वही लखनऊ में यह पहली मोहर्रम से आठवी ‘’रबी – उल – अव्वल ‘’ के चुप ताजिये के उठने तक पूरे सवा दो महीने मनाया जाता है |


लखनऊ के इमामबाड़े -----
 
 


लखनऊ में दिल्ली के सुल्तानों , मुगलों और बिजनौर के शेखजादों द्वारा बनवाई गयी इमारतो के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है | नवाबो से पहले काल की केवल दो ही महत्वपूर्ण इमारते उपलब्ध है | इनमे से एक अकबरी गेट है जिसे अवध के नायब सूबेदार कासिम महमूद ने बनवाया था | दूसरी इमारत औरंगजेब मस्जिद है जिसे मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने अयोध्या से वापस लौटते समय लखनऊ आने पर बनवाया था |


नवाबी काल की वास्तु कला ---
 
 


नवाबी दौर में बनी इमारतों को दो चरणों में विभाजित किया गया है |प्रथम चरण में मुग़ल वास्तुकला का अधिक प्रभाव रहा जबकि द्दितीय चरण में यूरोपियन प्रभाव दिखने लगता है | इस काल की इमारते लौकिक भी है धार्मिक भी | लौकिक इमारतो में महलो के समूह सम्मिलित है , जैसे बावलियो अर्थात बृहदाकार कुओ और अनेक बारादरियो का भी निर्माण हुआ | धार्मिक इमारतो के अंतर्गत मस्जिद इत्माद – उल – दौला , मस्जिद बी मिसरी , मस्जिद टिकैतराय , हजरतगंज की शाही मस्जिद जैसी भव्य मस्जिदे और इमामबाड़े तथा इमामबाड़े समूह से आते है |


लखनऊ में इमामबाड़े –


लखनऊ अट्ठारहवी और उन्नीसवी शताब्दी में शिया नवाबो द्वारा आजादारी अर्थात मोहर्रम के मातम से सम्बन्धित अनुष्ठानो के लिए बनवाये गये अनेक इमामबाड़ो के लिए प्रसिद्द है | इमामबाड़ा एक आयताकार भवन होता है जिसमे मेह्राब्युकत पांच , सात अथवा नौ दरवाजे होते है | मुग़ल नश के शासक अपने मस्जिद समूह इस प्रकार बनवाते थे की उसकी अक्ष मक्का की ओर हो | किन्तु अवध के नवाबो ने इमामबाड़ा समूह का निर्माण इस प्रकार कराया की उनमे इमामबाड़ा मुख्य भवन था और उससे सम्बद्ध मस्जिद उसके पश्चिम की और थी | प्रिनाम्स्व्रूप इन इमारतो में एक विचित्र प्रकार का दिशा सम्बन्धी भ्रम दिखाई देता है | इमामबाड़े सदैव दक्षिण की और मुंह किये बनाये गये | लखनऊ में केवल सौदागर का इमामबाड़ा और काला इमामबाड़ा सीके अपवाद है , जिनके मुंह पूर्व इमामबाड़े का अन्दुरुनी हिस्सा तीन भागो में विभाजित होता है – केन्द्रीय कक्ष मजलिसी और शान्स्हीं | इनमे शाह्न्स्हीं इमामबाड़े का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है | यह मुख्य कक्ष के दक्षिण की और उठाकर बनाया गया चबूतरा है जिस पर मोहर्रम के महीने में जरिह , ताजिये और आलम स्थापित किये जाते है |

आभार हमारा लखनऊ पुस्तक माला से --- क्रमश:

Tuesday, December 19, 2017

बीते दिनों की यात्रा रेजीडेन्सी क्रमश: भाग तीन 20-12-17

बीते दिनों की यात्रा रेजीडेन्सी क्रमश: भाग तीन

लखनऊ शहर रेजीडेन्सी के खंडहरो पर उधर से गुजरने वालो की निगाह पड़ जाना स्वाभाविक है |
अंग्रेजो को क्यो इतना प्यार था रेजीडेन्सी से आइये पड़ताल करते है , ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास में लखनऊ की रेजीडेन्सी का अति विशेष स्थान है | अंग्रेज इसे अपने गौरव के प्रतीक के रूप में देखते है | वे इसे कितना महत्व देते है , इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में इंग्लैण्ड का झंडा यूनियन जैक केवल दो स्थानों पर चौबीस घंटे फहराया जाता था -- इंग्लैण्ड के शासक के आवास और लखनऊ की रेजीडेन्सी पर | इनके अतिरिक्त हर स्थान पर प्रात: झंडा चढाया जाता था और सांयकाल उतार लिया जाता था |


सांडर्स पोस्ट --
 


सांडर्स हाउस को युद्द कार्य में एक सैनिक चौकी के रूप में बदल दिया गया था | सांडर्स हाउस एक दो मंजिला बड़ा भवन था जो वर्तमान बिजली कार्यालय वाली सडक पर स्थित था जो रेजीडेंसी से आगे गोलागंज की और जाती है | इस चौकी पर दो 18 पाउंड का गोला फेकने वाली टॉप तथा एक 9 पाउंड का गोला फेकने वाली टॉप लगाई गयी थी | इसके रक्षा में 32वी रेजिमेंट के कुछ सैनिक तथा सिविलियन कैप्टन सांडर की कमांड में रखा गया था | 5 सितम्बर 1857 को क्रान्तिकारियो ने पुरजोर हमला किया था | जब उन्होंने तीन बार बारूदी सुरंगे लगाकर चौकी पर विस्फोट किया और इसके बरामदे तक आ गये थे , तभी किसी अंग्रेज सैनिक ने उन पर हथगोला फेंक कर उन्हें रोक दिया साथ ही निकट बनी पोस्ट आफिस चौकी से भारतीय क्रांतिकारी पर गोलीबारी होने लगी |

जमोर्न पोस्ट --
 
यह भी एक महत्वपूर्ण चौकी थी
एडरसन पोस्ट 20 जुलाई 1857 को क्रान्तिकारियो ने इस पर भीषण हमला किया था जिसमे एक व्यक्ति जो हरा झंडा लेकर आगे बढ़ रहा था , गोली से मारा गया | 10 अगस्त को पुन: इस चौकी पर क्रान्तिकारियो का जबर्दस्त हमला हुआ जिससे इस भवन की उपरी मंजिल पूरी तरह से ध्वस्त हो गयी थी |

गाबिंस तोपखाना --

यह एक अर्धचन्द्राकार रूप में निर्मित तोपखाना था | इसमें 9 पाउंड की टॉप जोहान्स हाउस की और लगाई गयी थी जिसकी सहायता से गोलागंज बाजार तथा पश्चिम की और ढाल पर बने सैकड़ो मकानों पर नजर राखी जाती थी | साथ ही लोहे के पुल की और से इसकी नजर रहती थी | इसके चारो और दस फीट ऊँचे चबूतरे पर लेफ्टिनेंट हचिन्सन की देखरेख में रहती | इसके चारो और 10 फीट ऊँची दीवार बनाकर इसे घेरा गया था | इसकी कमान सिविल आफिसर ओमानी , कपूर , एस मार्टिन , जी वेन्सन, डब्ल्यू सी कीपर जे ई थार्नहिल तथा जी एच लारेंस ने सभाल राखी थी |

गाबिंस गैरिसन ----
 

गाबिंस हाउस में स्थापित किये जाने के कारण इस सुरक्षा बल को गाबिंस गैरिसन का नाम दिया गया था | गाबिंस हाउस को जिसे रेजीडेंसी के अहाते में बादशाह नसीरुद्दीन हैदर ने अपने संगीतशाला के रूप में बनवाया था | 14 जुलाई 1857 को भारतीय क्रान्तिकारियो द्वारा किये गये हमलो में लेफ्टिनेंट कलेस्टर को इसी पोस्ट पर गोली लगी थी | लेफ्टिनेंट ग्राउंड व कैप्टन फार्वेस उसी दिन यहाँ जख्मी हुए थे | 21 जुलाई 1857 को मेजर बैक्स इसी जगह गोली लगने से उनकी मौत हुई थी |
रेडन बैटरी
रेडन का तोपखाना वाटर गेट से पश्चिम की और रेजीडेंसी भवन से उत्तर वाले मार्ग पर स्थित था जो वाटर गेट को जाता था | इसकी स्थापना १५ जून को कैप्टन फुलटन द्वारा की गयी थी जो बारूदी सुरंग लगाने में माहिर था | जिनकी कमान लेफ्टिनेंट सिम - लारेंस के हाथो में थी |

जोहन्स हाउस

जोहन्स हाउस बिग्रेड मिस के सामने स्थित था जो रेजीडेंसी की सुरक्षा सीमा रेखा से बाहर था | 1857 की क्रान्ति से पूर्व इसमें जोहन्स नामक एक अम्र्रिनियंन रहता था जो लखनऊ के धनाढ्यो में से एक था | इस भवन को रेजीडेंसी के अहाते में सम्मिलित किये जाने की योजना थी किन्तु चिनहट की लड़ाई के बाद इतना समय ही अंग्रेजो को नही मिला उससे पूर्व ही भारतीय क्रांतिकारियों ने इस पर कब्जा जमा लिया | इसी भवन से वह अंग्रेजो के नाक में दम किये थे |

इन्स हाउस

इन्स हाउस लेफ्टिनेंट जेम्स मेक्लीड आईएनएस का आवास था | लेफ्टिनेंट आईएनएस बंगाल इंजीनियर्स के अधिकारी थे | यह घर वर्तमान कब्रिस्तान के उत्तरी - पश्चिमी कोने पर स्थित था जिसका रास्ता चर्चा के पास से होकर नीचे ढलान पर जाता था |

बीते दिनों की यात्रा रेजीडेन्सी क्रमश: भाग दो 19-12-17

बीते दिनों की यात्रा रेजीडेन्सी क्रमश: भाग दो 


लखनऊ शहर रेजीडेन्सी के खंडहरो पर उधर से गुजरने वालो की निगाह पड़ जाना स्वाभाविक है |
अंग्रेजो को क्यो इतना प्यार था रेजीडेन्सी से आइये पड़ताल करते है , ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास में लखनऊ की रेजीडेन्सी का अति विशेष स्थान है | अंग्रेज इसे अपने गौरव के प्रतीक के रूप में देखते है | वे इसे कितना महत्व देते है , इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में इंग्लैण्ड का झंडा यूनियन जैक केवल दो स्थानों पर चौबीस घंटे फहराया जाता था -- इंग्लैण्ड के शासक के आवास और लखनऊ की रेजीडेन्सी पर | इनके अतिरिक्त हर स्थान पर प्रात: झंडा चढाया जाता था और सांयकाल उतार लिया जाता था |

मार्टिनियर पोस्ट ---

मेजर जनरल क्लाउड मार्टिन की वसीयत के अनुसार उनके द्वारा बनाई गयी बिल्डिंग में योरोपियन तथा एंग्लो इन्डियन लडको के लिए लखनऊ में शहर के पूर्व की और उन्ही के नाम पर ला -- मार्टिनियर स्कुल ( अब ला कालेज ) वर्ष 1840 में खोल दिया गया | उसके लगभग डेढ़ दशक के उपरान्त 1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम छिड़ गया |
सुरक्षा की दृष्टि से उस स्कुल के सभी छात्रो एवं स्टाफ को रेजीडेंसी के अहाते में स्थित एक मकान में रखा गया | जो शाह बिहारी लाल नामक एक भारतीय शाहकार का था |
जब रेजीडेंसी की सुरक्षा की तैयारी की जा रही थी तो शाह बिहारी लाल के इस घर को एक सुरक्षा चौकी के लिए चिन्हित किया गया तथा उस पोस्ट चौकी का नाम स्कुल के नाम पर ही ''मार्टिनियर पोस्ट '' रख दिया गया | उसकी रक्षा में 32वी रेजिमेंट के सैनिक , स्कुल के स्टाफ तथा 50 वरिष्ठ छात्र कालेज के प्रधानाचार्य श्री शिलिंग की कमान में तैनात कर दिए गये | सीनियर ब्यायास में एडवर्ड हेनरी हिल्टन नामक छात्र जिसके पिता कालेज में सहायक मास्टर थे , दोनों पुरे समर के दौरान रेजीडेंसी की उपरोक्त चौकी की रक्षा में लगे रहे | बाद में ई.एच हिल्टन ने अपनी पुस्तक वर्ष 1858 में प्रकाशित की थी जो रेजीडेंसी पर एक विश्सनीय दस्तावेज है |

बेगाम्वाली कोठी ---

रेजीडेंसी मुख्य भवन के दक्षिण की और स्थित कोठी का पहले कोई नाम नही था किन्तु 1857 के बाद इसे बेगम वाली कोठी कहकर पुकारा जाने लगा | यह कोठी एक ऐसी महिला की थी जिसने अपने पहले पति जान काल्युडन की मौत के बाद मिस्टर वाल्टर से शादी कर ली | उस कोठी में वह अपनी दो बेटियों तथा अपने इकलौते बेटे जोजफ के साथ रहती थी | कालान्तर में उसने मुस्लिम व्यक्ति से शादी कर के इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया | उनकी छोटी बेटी का निकाह तात्कालीन अवध के बादशाह नवाब नसीरुद्दीन हैदर से हो गया उनकी छोटी बेटी का निकाह के बाद बड़ी बेटी और बेटे ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया | 1857 में क्रान्ति के दौरान उन्होंने अंग्रेजो को अपनी महत्वपूर्ण सेवाए दी |

इमामबाड़ा सरफ- उन - निसा --


बेगाम्वाली कोठी में दो प्रागंण है जिनमे से एक में इमामबाड़ा है | इस इमामबाड़े का निर्माण मिसेज वाल्टर की बड़ी बेटी ने इस्लाम धर्म में शरीक जो जाने के बाद कराया था | अत: उन्ही के नाम पर यह इमामबाड़ा है |


मस्जिद --
सरफ - उन - निसा ने इमामबाड़े के उत्तरी - पश्चिमी और एक मस्जिद का निर्माण कराया | मस्जिद देखने में बहुत बड़ी नदी है इस पर इसकी मीनारे व कांगरा काफी सुन्दर है | यह मस्जिद इस परिवार की निजी सम्पत्ति थी और बाहरी व्यक्ति इसमें नमाज पढने नही आ सकता था | आज भी यह मस्जिद रेजीडेंसी के अहाते में खड़ी है , किन्तु अब इसमें नमाज अदा करने के लिए कोई भी आ सकता है खासकर जुमा के दिन |

बिग्रेड मिस अथवा किंग्स हास्पिटल -
इस स्थान को किंग्स हास्पिटल के नाम से जाना जाता था | इसकी सुरक्षा में अनेक सैनिक सैनिक व अधिकारी कर्नल मास्टर्स की कमान में रखे गये थे | यह अगले पोस्ट की चौकी थी |

सिक्ख स्क्वावर --

स्त्तान्वी क्रान्ति के दौरान अवध के जो सिपाही बंगाल रेजिमेंट में थे उनको वहाँ से हटा कर उनके स्थान पर पंजाब से सिक्ख रेजिमेंट को बुला कर तैनात कर दिया गया था | 18 अगस्त 1857 को भारतीय क्रान्तिकारियो के बारूदी सुरंग द्वारा किये गये एक हमले में एक मकान की छत ध्वस्त हो जाने से कई सैनिक मलबे के नीचे दब गये थे |


शीप हाउस ( भेड़ खाना )

छोटे - छोटे घरो की कतार का प्रयोग सेना के रसद विभाग द्वारा स्लाटर हाउस भेजी जाने वाली भेड़ो को रखने के लिए किया जाता था | स्लाटर हाउस और शीप हाउस की चौकियो की रक्षा के लिए सिविलियन्स को लगाया गया था जिसकी कमान 7वी घुड़सवार के कैप्टन वोइलियु के हाथो में थी |

स्लाटर हाउस पोस्ट ----
सेना के रसद विभाग की देखरेख में वहाँ के पशुओ को हलाल कर उनका मीत खाने के लिए तैयार किया जाता था | वहाँ छोटे - छोटे बहुत सारे घर थे जो मूल रूप से नौकरों के लिए विशेष कर खानसामाओ के लिए तथा पशुओ को रखने के लिए प्रयोग में लाये जाते थे | उसका रास्ता एक अलग फाटक से था जिसे 'घडियाली दरवाजा " कहा जाता था |

कानपुर तोपखाना ---
इस तोपखाने को कानपुर तोपखाने की संज्ञा इसलिए दी गयी थी कयोकी ये कानपुर मार्ग रेजीडेंसी के पूर्व वाली सडक की और लगती है | ये तोपखाना रेजीडेंसी में जून माह के प्रथम सप्ताह में लेफ्टिनेंट जे सी एडरसन के निर्देशानुसार गठित किया गया था तथा इसका अस्न्चालन ३७वी रेजिमेंट के कुछ सैनिक रेड्किल्फ़ की कमान कर रहे थे | कानपुर तोपखाने में एक टॉप 18 पाउंड तथा एक टॉप 9 पाउंड की रखी गयी थी | इसके अतिरिक्त जोहांस हाउस को कवर करने वाली 9 पाउंड टॉप मार्टिनियर पोस्ट के सामने लगाई गयी थी जिसका रुख गोलागंज की और था | क्रमश :

Monday, December 18, 2017

संस्मरण - भाग एक बिहार में आज भी सडके धूल की गुबार उडाती है -- 18-12-17-

संस्मरण - भाग एक
बिहार में आज भी सडके धूल की गुबार उडाती है --
कहलगांव --
तारीख दस दिसम्बर अपनी बेटी के संग कहलगांव की यात्रा में सुभ आठ बजे निकला रिक्शे से चर्चा तक पहुचा ही था बस मिल गयी बनारस की सडक खराब होने के कारण यात्रा में ऐसा महसूस हुआ की हम शहर की सडक पर नही फादो के बेतरतीब सडको पर यात्रा कर रहे है , फिलहाल हाफ्तें - दाबते बस ड्राइवर ने गाडी के समय से पहले उतार दिया सोचा की रिक्शा कर लूँ पर वाह रे बनारस दस कदम जाने का रिक्शावान पचास रुपया मांग रहा था सो पैदल ही आगे बढ़ गया मैं हम और लिपि दोनों स्टेशन पहुचे उसने डिस्प्ले देखा उसके बाद हम लोग प्लेटफ़ार्म नौ की ओर बढ़े पुल पर पहुचे ही थे बेटी ने बोला यही रुको ट्रेन आ जाये तो चलते है , मेरे साथ हर बार यही होता है कि जिस प्लेटफ्राम पर ट्रेन आणि है अंतिम समय में बदल जाती है | मैंने मुस्कुराकर उसकी ऑर देखा ठीक है यही बैठकर इन्तजार कर लेते है | हम दोनों फरक्का एक्सप्रेस का इन्तजार करने लगे अपनी आदत के अनुसार फरक्का जिस दिन से शुरू हुई है कभी भी राईट टाइम से वो नही आई है हुआ भी यही वो अपने नियत समय से करीब दो घंटे लेट से आई | हम लोग आगे यात्रा पे बढ़ चले हम लोग जिस कूपे में थे उसमे दो नौजवान और भी आ गये | ट्रेन जब चल पड़ी तो अचानक एक नौजवान ने मुझसे पूछा अंकल जी कहा जायेंगे मैंने उत्तर दिया कहलगांव तक उसके बाद खामोश हो गया वो बड़ी बारीक नजरो से मुझे देखता रहा और मैं अपनी अलग धुन में खिड़की के बहार भागते खेतो को देख रहा थातभी एक आवाज आई अंकल जी कहा तक जाइयेगा आप हमने उत्तर दिया कहलगांव तक और मौन हो आया वो नौजवान कोशिश में लगा रहा बात करने को अचानक उसने मेरा अखबार का परिचय पत्र देख लिया फिर पूछा कि आप मिडिया से है मैंने कहा हाँ अब उसने बात आगे बढ़ा दिया | मैंने उस नौजवान से उसका नाम पूछा उसने अपना नाम अमरेन्द्र तिवारी बताया उसका काम पूछा तो उसने बताया की वो बी बी सी न्यूज चैनल में न्यूज एडिट करने कार्य करता है , अब तक इतना परिचय हो चूका था सो मैंने उससे पूछा अगर कहलगांव से सडक यात्रा करना हो तो तिवारी जी ने उत्तर दिया ट्रेन से यात्रा तो सरल है यहाँ सडक यात्रा बहुत कठिन है | मेरी नजर एक सवालिया निशाँ बना रही थी उसने आगे कहा अब क्या बताऊ अंकल जी मैंने भागलपुर से पटना की धुल उडती सडक की तस्वीर खीचकर तेजस्वी यादव जी को दिखाया और सडक के सुधर की बात किया तो उन्होंने कहा की यह सडक तो बिहार की नही है कही और की तस्वीर काहे दिखा रहे हो आपको ट्रेन सही समय में चार घंटे में भागलपुर से पटना पहुचा देगा पर सडक मार्ग से धुल से लथपथ करीब नौ घंटे में पहुचेंगे बिहार में सरकार ने सडक परिवहन पे कोई काम नही किया है | यहाँ सारी  सुविधा ट्रेन की है सडक की नही है | क्रमश :

यात्रा संस्मरण भाग दो 18-12-17

संस्मरण भाग दो -
चंद डाक्टर ही ऐसे है जो सेवा भाव रखते है नही तो ......
टी टी ने कहा हमे पता है आप लोगो की यह आदत है
करीब तीन घंटे लेट पटना पहुच गयी थी फरक्का एक्सप्रेस अमरेन्द्र से तब तक मैं घुल मिल चूका था | पटना में हम लोगो के कूपे में कुछ लोग अनाधिकृत घुस कर कब्जा जमा चुके थे , हम सब क्या कहते खामोश रहे | कुछ देर बाद टी टी आया उसने हम लोगो का टिकट चेक करने के बाद उनसे टिकट मागा देखकर उसने हिदायत दी अगले स्टेशन पर उतर कर डब्बा बदल लेना उसी समय भद्र महिला लगी सफाई देने की ट्रेन छुट रही थी सो जल्दी से इसमें चढ़ गये है टी टी ने कहा हमे पता है आप लोगो की यह आदत है बिना वजह सफाई मत दो यह कहके आगे बढ़ गया और वो परिवार बस हंस कर बैठा रहा अपना गन्तव्य आने पर उतर गया |
हम दोनों ने बात शुरू की अमरेन्द्र ने दिल्ली के अस्पतालों की चर्चा करते हुए बोला अंकल जी केजरीवाल ने बहुत बड़ा कदम उठाया दो अस्पतालों का लाइसेंस खत्म करके मैंने भी उसकी बातो का स्वागत किया आगे बोला हमने कहा पंडित जी सही मायने में देश का पहला ऐसा मुख्यमंत्री है जो आम जन का है अब वो कहा तक सफल हो पायेगा यह तो भविष्य तय करेगा कारपोरेट कभी नही चाहता कि वो रहे हर तिकड़म कारपोरेट लगा रहा है पर सफल नही हो रहा है | केजरीवाल और उनके सहयोगी मनीष सिसोदिया जी यह दोनों लोग सही मायने में आम आदमी के मुलभुत जरुरतो पर काम कर रहे है | आम आदमी के स्वास्थ्य - शिक्षा और रोजमर्रा की जिन्दगी से जुड़े चीजो पर दिल्ली की सरकार ध्यान दे रही है अमरेन्द्र ने भी कहा कि यह बहुत बड़ी बात है | अमरेन्द्र ने कहा अंकल जी देश के चंद डाक्टरों को छोड़ दिया जाए तो अन्य डाक्टरों ने इसको सेवा भाव की जगह धंधा बना दिया है | नये शोध के साथ शारीरिक पैमाना बदल दिया जाता है डा स्वंय मरीज पैदा कर रहे है अब क्या बताये आपको हम मैं अपनी अम्मा को बड़े से बड़े अस्पताल में दिया पर अंत में आकर एक सामान्य दात्र से ठीक हुई हमारे बड़ी बहन को रीढ़ की हड्डी में समस्या आई हमने उनके इलाज के लिए दिल्ली हो या अन्य बड़े अस्पताल इनके दाक्रो को दिखाया सब यही कहते की आपरेशन करना होगा यह बताना मुश्किल है की कितना सही होगा एक दिन हमारे जान्ने वाले ने एक आयुर्वेद के डाक्टर का नाम लिया बड़ी मुश्किल से उनसे मुलाक़ात हुई हमारे उन्होंने हमारी दीदी की सारी रिपोर्ट देखि दवा शुरू किया उन्होंने आज मेरी दीदी एक दम सही है डाक्टरी पेशे में कुछ लोग ऐसे अ गये है जो लाशो का व्यापार कर रहे है इतने पवित्र पेशे को पैसे की ह्बिश ने बदनाम कर दिया | रात बहुत हो चुकी थी सो हम सब लम्बी तान दिए | इन बातो को मैं सोचता रहा सत्य ही तो अमरेन्द्र बोल रहा है पहले के डाक्टर सिर्फ नब्ज देखकर दवा देते थे अब नये डाक्टर बिना जाँच के एक कदम नही चलते है |

दो घंटे में पटना 18-12-17

दो घंटे में पटना -


पटना तो बहुत बार जाना हुआ बस इतना ही रहा कि गोधुली वेला पे गया अपना कार्य किया और प्रात: वह से निकल गया , अबकी अभिषेक के साथ आधुनिक पटना को कुछ समय में देखने का मौका मिला |
द्वापर -त्रेता काल के इतिहास के साथ ही आधुनिक काल के इतिहास को समेटे हुए है पाटलिपुत्र आधुनिक कल में नये पटना का सृजन हुआ उसी सृजन को करीब तीन घंटो में सिर्फ चंद हिस्से को दिखाया अभिषेक आनन्द ने पहला बिहार म्यूजियम बेशक यह कहना उचित होगा मैंने अभी तक बहुत सारे संग्रहालय को देखा है


उन संग्रहालयो में सबसे आधुनिक है पटना का संग्रहालय इस संग्रहालय में प्रवेश द्वार से जब आप अन्दर आयेंगे तो सबसे पहले बाल वीथिका मिलेगा आपको उस विधिक की ख़ास बात है उसमे मूर्तियों और आधुनिक माध्यमो से बच्चो की जिज्ञासा को बताना इसके साथ ही इस संग्रहालय में एक अनोखी चीज अभी बन रही है वो है मानव द्वारा उन सरे भौतिक सामानों को एक सूत्र में पिरोना इसमें आपको रसोई घर के इस्तेमाल से लेकर वाशिंग मशीन के साथ ही कमोड का इस तरेह प्रयोग हुआ है जो अदभुत है |


 साथ ही पुरातन शिलालेख के साथ पुरातन मूर्ति शिल्प की प्रस्तुती अनोखी है | दूसरा देखा बुद्ध स्मृति पार्क इसको प्रथम दलाई लामा ने ध्यान का केंद्र चुना अब जगह अपनी अलग छटा बिखेर रही है | यह मात्र पार्क नही है इसमें ध्यान केंद्र के साथ अमूल्य बौद्ध विचार धरा को समझने के लिए पुस्तकालय है | इस पार्क की सबसे अहम् हिस्सा शाम छ: बजे शुरू होने वाला रेजर लाईट एन साउंड कार्यक्रम सिर्फ तीस मिनट में पाटलिपुत्र के प्राचीनतम इतिहास से आधुनिक पटना तक की जानकारी उपलब्ध कराती है | मैं आभार व्यक्त करता हूँ अभिषेक आनन्द का उसने इन दोनों स्थानों को दिखाया मुझे |

Saturday, December 16, 2017

बीते दिनों की यात्रा रेजीडेन्सी क्रमश: भाग एक 16-12-17

बीते दिनों की यात्रा रेजीडेन्सी क्रमश: भाग एक 
 

लखनऊ शहर रेजीडेन्सी के खंडहरो पर उधर से गुजरने वालो की निगाह पड़ जाना स्वाभाविक है |
अंग्रेजो को क्यो इतना प्यार था रेजीडेन्सी से आइये पड़ताल करते है , ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास में लखनऊ की रेजीडेन्सी का अति विशेष स्थान है | अंग्रेज इसे अपने गौरव के प्रतीक के रूप में देखते है | वे इसे कितना महत्व देते है , इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में इंग्लैण्ड का झंडा यूनियन जैक केवल दो स्थानों पर चौबीस घंटे फहराया जाता था -- इंग्लैण्ड के शासक के आवास और लखनऊ की रेजीडेन्सी पर | इनके अतिरिक्त हर स्थान पर प्रात: झंडा चढाया जाता था और सांयकाल उतार लिया जाता था |
 
 
15 अगस्त 1947 को भारत की बागडोर भारतीयों को सौपने से पहले 13 अगस्त देर शाम अंग्रेज अधिकारियों का एक दल रेजीडेन्सी पहुचा जहां 90 वर्ष से 1857 से दिन - रात यूनियन जैक पहरा रहा था | उनकी उपस्थिति में रेजीडेन्सी के प्रभारी वारंट अफसर ने झंडे को नीचे उतारा | रात में झंडे का डंडा ( ध्वजदंड ) और उसका आधार तोड़ दिया गया और झंडा भारत के तत्कालीन कमांडर इन चीफ आकिन्लेक के पास भेज दिया गया |
उन दिनों भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अंग था अत: ब्रिटिश मंत्रिमंडल में भारत सम्बन्धी विषयों के लिए एक मंत्री होता था जिसे सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इंडिया कहते थे | 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने पर यह पड़ समाप्त हो गया | उस दिन अंतिम सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इंडिया लिस्टोवेल के अर्ल (Earl of Listowel ) ब्रिटिश नरेश जार्ज षष्ठ से मिलने गये तो नरेश ने व्यक्तिगत आग्रह किया कि लखनऊ की रेजीडेन्सी से उतरा गया झंडा उन्हें भेट कर दिया जाए , जिसे वे विडसर राजभवन में अन्य एतिहासिक झंडो के साथ प्रदर्शित कर सके |
 
 

रेजीडेन्सी के पन्ने ---

बेली गेट द्वार ---
यह पूर्व की ओर खुलने वाला रेजीडेन्सी का मुख्य द्वार है | वर्ष 1807 में जब अवध के रेजिडेंट कर्नल जान वेळी अवध के रेजिडेंट बनकर लखनऊ आये , तब रेजीडेन्सी के इस मुख्यद्वार का निर्माण नवाब सआदत अली खा ने उनके स्वागत में निर्माण कराया था उसका नाम वेळी गेट रखा गया | 1857 की क्रान्ति के दौरान 2 जुलाई को भारतीय क्रांतिवीरो ने इसी मुख्य गेट पर लेफ्टिनेंट ग्राहम को मार गिराया था | 20 अगस्त 1857 को पुन: इस गेट पर आक्रमण करके उसमे आग लगा दी गयी थी |28 सितम्बर 1857 को लेफ्टिनेंट एलेक्जेंडर इसी गेट पर क्रान्तिकारियो की गोली से मारे गये थे | बेली गेट पर गोंडा से आये डा बटर्म मारे गये थे |
ट्रेजरी ( कोषागार )
ट्रेजरी कोषागार भवन बेली गेट के नजदीक उत्तर की ओर स्थित है | आरम्भ में कोषागार छपर वाले कच्चे कमरे में था | एक दिन आग लगने के कारण वह नष्ट हो गया उसमे जमा खजाना बड़ी मुश्किल से बचाया जा सका | इसके स्थान पर 1851 में 16857 रूपये की लागत से पक्का भवन बनवाया गया | इसके मुख्य द्वार के सामने गोल खम्भों पर टिका पोर्टिको है | कोषागार का पूर्वी भाग तीन दरो का है | पूर्व में तीन छोटी खिडकिया सम्भवत:कर्मचारियों को वेतन वितरित करने के लिए बनाई गयी थी |
 

डा फेयरर हाउस - डा फेयरर की नियुक्ति रेजीडेन्सी में चिकित्सक के रूप में की गयी थी |
बेक्वेट हाल --- रेजीडेन्सी परिसर में स्थित बेक्वेट हाल एक भव्य इमारत में निर्मित किया गया था | यह दो मंजली बनाये गयी थी बेशकीमती साजो सामानों से यह हल सुसज्जित किये गये थे | किसी खास मेहमान के आने पर लखनऊ के लजीज खाने प्रोसे जाते थे | लखनऊ के तत्कालीन नवाब सआदत अली खा नवाब गाजीउद्दीन हैदर तथा नवाब नसीरुद्दीन हैदर अपने कार्यकाल में अक्सर अंग्रेजी अफसरों के साथ खाने का लुफ्त उठाने यहाँ आते थे | उल्लेखनीय है कि 6 जुलाई 1857 को इसी इमारत के एक उपरी कक्ष में रह रहे पादरी पोलहेम्पटन को गोली लगी थी जिनकी घायल अवस्था में ही हैजा होने के कारण मौत हो गयी थी | इस इमारत के उत्तरी पश्चिमी भाग की सुरक्षा में 48 वी व 71 वी इनफैकटरी को कैप्टन स्ट्रेन्जेवेस्ट तथा कर्नल पामर को क्रमश: तैनात किया गया था |

ओमानी हाउस
ओमानी हाउस एक दो मंजिला भवन था | इसमें अवध के तत्कालीन न्याय आयुक्त ( जुडीशियली कमिश्नर ) मिस्टर ओमानी निवास करते थे | ओमानी साहब की मौत 5 जुलाई 1857 को गोली लगने से हुई थी |
डुपरेट हाउस --
ठग जेल -- यह एक पतला लम्बा बैरिक्नुमा भवन था जिसमे पक्तिबद्ध चार बराबर के कमरे थे तथा बड़े फाटक के दरवाजे लगे थे |
ग्रान्ट्सबेशन -- रेजीडेन्सी अहाते में यह एक ऊँची चौकोर दुर्ग के आकर की इमारत थी जिसकी छत समतल थी | यह किसी देशी नागरिक की सम्पत्ति थी किन्तु इस पर कब्जा गबिन साहबने जमा लिया था | 1857 के क्रान्ति काल में रेजीडेन्सी के रक्षार्थ इसकी छत पर एक रोधक दीवार ( पेरापेट ) बना दिया गया था | इस भवन का नाम लेफ्टिनेंट ग्रांट के नाम पर पड़ गया था जो बाम्बे आर्मी के एक सेना के अधिकारी थे तथा इस चौकी पर रहकर रेजीडेन्सी की रक्षा कर रहे थे पोस्ट आफिस
शांतिकाल में रेजीडेन्सी का डाकघर अंग्रेजो की डाक लाने ले जाने का कार्य करता था | 1857 के संग्राम के दौरान डाकघर में मिलट्री इंजीनियर्स व तोपखाने का मुख्यालय स्थापित कर इसे महत्वपूर्ण सैनिक चौकी में परिवर्तित कर दिया गया था |

Friday, December 8, 2017

काफी हाउस भाग दो 8-12-17

काफी हाउस भाग दो
ऐतिहासिक दिन
नियमित जाते रहे पूर्व प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर जी काफी हाउस
जन चेतना की आवाज रही काफी हाउस आभार
16 अगस्त 2011 हजरतगंज के जहागीराबाद बिल्डिंग में स्थित काफी हाउस के लिए एक ऐतिहासिक दिन था | उस दिन स्वतंत्रता दिवस मनाने के नाम पर वे तमाम लोग आये जो पिछले चालीस व पचास सालो में काफी हाउस आते रहे है |
नवासी वर्ष के वरिष्ठ पत्रकार विध्यासागर से लेकर लखनऊ के तीन बार के मेयर डा दाउजी गुप्त , इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश हैदर अब्बास , वरिष्ठ पत्रकार राजनाथ सिंह , अजय कुमार वरिष्ठ अर्थशास्त्री हिरनमय – धर साहित्यकारों में रविन्द्र वर्मा , वीरेन्द्र यादव वकील सिद्दीकी , रवि भट्ट वन्दना मिश्रा रंगकर्मी राकेश , सामाजिक कार्यकर्ता प्रकाश पन्त , जवाहर अग्रवाल , शैलेश अस्थाना , राजेश पाण्डेय , भोला बाबू कांग्रेस के नेता रामकुमार भार्गव , पूर्व मंत्री व कांग्रेस के नेता सत्यदेव त्रिपाठी , पत्रकार अशोक निगम आदि लोगो का जुटान हुआ आने वालो में वे लोग भी शामिल थे जो आज भी नियमित है जैसे लखनऊ विश्व विद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग के डा रमेश दीक्षित , सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष कपूर , कांग्रेस के अरुण प्रकाश आदि |
इस बैठक को सफल बनाने के लिए काफी हॉउस वर्कर्स सोसायटी की सचिव अरुणा सिंह ने काफी प्रयास किया था | आये हुए लोगो को उन तमाम विशिष्ठ लोगो की कमी खली जिनका पिछले पचास सालो में निधन हो गया था | काफी हाउस की इस ऐतिहासिक बैठक में लोगो ने काफी हाउस से जुडी अपनी यादे व संस्मरण रखे जो बड़े रोचक थे | तमाम लोगो ने बताया की इंकलाबी शायर मजाज कहाँ बैठते थे और पूर्व प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर जी काफी हाउस के किस कोने को रौनक करते थे | सबने वायदा भी किया की अब पहले की तरह काफी हाउस में में आना शुरू कर देंगे |
वरिष्ठ पत्रकार विद्यासागर इस बैठक से काफी उत्साहित दिखाई दे रहे थे | वे अकेले व्यक्ति थे जो पचास साल से नियमित काफी हाउस आते रहे | उन्होंने भी वायदा किया की वे भी समय – समय पर काफी हाउस आने का प्रयास करेंगे | 16 अगस्त की बैठक में आने लोग इतना भावुक हो गये की उनकी आँखे उन तमाम लोगो को खोज रही थी जो वर्षो पहले आते थे पर अब इस दुनिया में नही है | वे खासतौर से काफी हाउस के उन बेयरो को भी खोज रही थी जो सबके मित्र थे और काफी पिलाने के साथ पैसा न हो तो अपनी तरफ से उधार भी देते थे |
अब फिर से काफी हाउस आबाद हो गया है नई पीढ़ी के साथ पुराने लोगो ने भी आना शुरू कर दिया है | अभी कुछ दिन पहले लखनऊ विश्व विद्यालय की पूर्व कुलपति व सामाजिक कार्यकर्ता रुपरेखा वर्मा , वरिष्ठ साहित्यकार मुद्रा राक्षस तथा अन्य लोगो के साथ काफी हाउस में वार्ता करती दिखाई दी |
इसी तरह पूर्व मेयर दाउजी गुप्त के साथ सुभाष कपूर पत्रकार ताहिर अनूप श्रीवास्तव नियमित हो गये है | कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व मंत्री सत्यदेव त्रिपाठी भी जब आना होता हो बता देते थे | डा रमेश दीक्षित के साथ कामरेड अतुल अनजान , अगर वो लखनऊ में होते तो साथ में बैठकी करते थे | अभी हाल में जब सुरेन्द्र राजपूत को उत्तर प्रदेश की काग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा ने काग्रेस की मीडिया प्रचार कमेटी का सदस्य नियुक्त किया तो उन्होंने तमाम मित्रो को खासतौर से वे जो रोज उनके साथ सिकन्दर बाग़ में सुबह की सैर करते है काफी हाउस में निमंत्रित किया | उस दिन आने वालो में के जी मेडिकल कालेज के डा नसीम जमाल , वरिष्ठ बन विभाग अधिकारी व शायर मो अहसन , पूर्व बैंक अफसर इकबाल हाईकोर्ट के वकील धुर्व कुमार जहाज के कप्तान आई ए खान और बाद में अरुण प्रकाश भी इस लेखक के साथ शामिल हुआ | सबने काफी पी व नसीम जमाल और मो अहसन से शायरी सुनी मिनी लोहिया के नाम से प्रसिद्द समाजवादी विचारधारा के पोषक और ओजस्वी वक्ता जनेश्वर मिश्रा जी जब लखनऊ आते थे तो सारा समय काफी हाउस में ही बीतता था | वरिष्ठ राजनेता व पूर्व मंत्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव ने बताया की उन्होंने और चन्द्रशेखर जी ने 1951 से बैठना शुरू कर दिया था |
एक बार लखनऊ प्रेस क्लब में भोजन के बाद चन्द्रशेखर जी जब लखनऊ में बिताये हुए दिनों को याद कर रहे थे तो उन्होंने मुझे बताया कि वे ए पी सेन रोड पे रहते थे और वहाँ से रिक्शे में काफी हाउस आते थे | हजरतगंज पैदल ही टहलते थे वरिष्ठ पत्रकार विद्यासागर ने , जो काफी हाउस में पांच दशको तक नियमित बैठते रहे बताया की चन्द्रशेखर जी की टेबिल तय थी और वे 11 बजे के करीब काफी हाउस आते थे और कई घंटे चर्चा में व्यस्त रहते थे |
चन्द्रशेखर जी के साथ काफी हाउस में नियमित बैठने वालो में वरिष्ठ पत्रकारों की टोली विद्यासागर बिष्ण कपूर लक्ष्मीकांत तिवारी एस एम् जफर रमेश पहलवान राजनितिक नेताओं में उनके परम मित्र श्री पद्माकर लाल ,हसन वकील ,राजा बक्शी स्वतंत्रता सेनानी व पुलिस के वरिष्ठ अफसर बलिया के पारसनाथ मिश्र जी भी थे | कार्टूनिस्ट राम उग्रह भी साथ बैठते थे | कुछ वर्षो पहले पूर्व प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर जी से तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह के घर पर मारीशस के प्रधानमन्त्री के सम्मान में आयोजित भोज में मेरी भेट हो गयी | चन्द्रशेखर जी के साथ वरिष्ठ पत्रकार प्रभास जोशी भी थे | चन्द्रशेखर जी ने उनसे कहा की अब प्रदीप मिल गये है तो लखनऊ काफी हाउस की खबर लेते है | वे विस्तार पूर्वक काफी हाउस के समाचार लेते रहे | उन्हें ख़ुशी हुई की उनका अपना पुराना अड्डा काफी हाउस जो काफी समय से बंद चल रहा था , फिर से आबाद हो गया है | उसके बाद लखनऊ आने पर चन्द्रशेखर जी अपने पुराने सहयोगी ओमप्रकाश श्रीवास्तव के साथ काफी हाउस गये | चन्द्रशेखर जी की आँखे जिन परचितो को ढूढ़ रही थी वे वहाँ नही मिले | इसके बाद चन्द्रशेखर जी वी आई पी गेस्ट हाउस चले गये | काफी हाउस में बैठे लोग व बेयरे भी पूर्व प्रधामंत्री को अचानक अपने बीच पाकर अचम्भित रह गये | कुछ घंटो के बाद जब मैं चन्द्रशेखर जी से मिला तो शिकायत भरे लहजे में कहा की तुम्हारी सुचना पर काफी हाउस गया पर कोई परचित नही मिला | उसके बाद नाम लेकर तमाम परचितो के बारे में पूछते रहे | जब वरिष्ठ पत्रकार विद्यासागर जी के बारे में बताया तो कहने लगे की शाम को उनके घर चला जाए |
विद्यासागर जी के घर चन्द्रशेखर जी काफी हाउस में बिठाये हुए दिनों और मित्रो की चर्चा करते रहे | चन्द्रशेखर जी ने बताया कि दिल्ली में भी वे ब्लिट्ज में जुड़े ए .राघवन व गिरीश माथुर के काका नगर कालोनी में स्थित आवास पर अक्सर जाते थे | ------ क्रमश: आभार प्रदीप कपूर

Thursday, December 7, 2017

काफी हाउस 7-12-17

अपना शहर मगरुवा
कहवाखानो से निकलती थी आम आदमी की आवाज
कारपोरेट ने खतम कर दिया यह संस्कृति
बहुत बार लखनऊ गया घूम नही पाया था | पिछली बार जब मैं लखनऊ गया था तब एक दिन शाम को काफी हाउस में जाकर बैठा काफी पी रहा था, तभी वहाँ पर मगरू भाई बैठे मिल गये एक टेबल पर मैं वहाँ से उठा और उस टेबल पर चला गया | मगरू भाई के टेबल पर जाकर उनका हाल – चाल लिया | हमने उनसे कहा कि लखनऊ के काफी हाउस के बारे में बताये मगरू भाई ने कहा काफी से काफी हाउस बना दत्ता बाबू आज संक्षिप्त बताता हूँ इसके बारे में काफी हॉउस बना मगरू भाई बताने लगे और मेरी कलम चलती रही उनके बातो पर आज आप मित्रो को ले चलता हूँ |
काफी हाउस
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काफी ( अंग्रेजी ) या कहवा ( अरबी ) संसार के सबसे अधिक लोकप्रिय पेय पदार्थो में तो है ही , काफी हाउस ( जहां बैठकर पीने वालो को तैयार काफी मिलती है ) या कहवाघर कई सौ साल पहले सामजिक सम्पर्क के केंद्र बन चुके थे यहाँ बैठकर लोग गप्प लडाते थे , विविध विषयों पर बहस करते थे , लिखते थे , पढ़ते थे , परस्पर मनोरंजन करते थे | बैठकबाजी अड्डे के रूप में यह परम्परा आज तक चली आ रही है |
काफी और काफी हाउस का इतिहास बड़ा रोचक है | कहा जाता है कि 9वी शताब्दी ईस्वी में काफी के सुस्ती दूर कर ताजगी देने वाले गुण का अरबो को पता चला और शीघ्र ही पूरे अरब में उसका सेवन होने लगा तथा कहवाघर खुलने अलगा | प्राप्त प्रमाणों से पता चलता है कि 16वी शताब्दी में मक्का के कहवाघरो में राजनीतिक चर्चा होने लगी तो इमामो ने मुसलमानों के कहवा पीने पर रोक लगा दी थी | परन्तु कहवा और कहवाघरो की लोकप्रियता बढती गयी | 16वी शताब्दी में दमिश्क ( सीरिया ) और कायरो ( मिस्र ) में कहवाघर खुल गये थे | इसी शताब्दी में टर्की की राजधानी इस्तबुल में भी काफी का प्रवेश हो चूका था |
योरोप में काफी का प्रवेश टर्की के माध्यम से 16 वी शताब्दी में हुआ था | काफी को वास्तविक लोकप्रियता मिली लन्दन के ‘’काफी घरो “ coffee house ‘’ में जो राजनीतिक , सामजिक और साहित्यिक चर्चा के केंद्र बन गये | यहाँ काफी के गर्म प्यालो से लन्दन के विचारशील , दार्शनिक और लेखक अपना शरीर गरमाने के साथ अपनी जबान की लगाम भी ढीली कर देते थे |
लगभग1652 में लन्दन के सेंत माइकेल्स एली में कार्न्हिल में पहला काफी हाउस स्थापित करने का श्रेय पास्क्वा रोजी (pasqua rosee ) को है |
17 वी शताब्दी में प्रेंच इतिहासकार जीन पारदिन ने लिखा कि यहाँ के कहवाखानो में जहां पर लोग बैठकर न केवल राजनीतिक चर्चा करते थे , वे वहाँ की सरकार के क्रियाकलापों की भी खिचाई करते थे और साथ ही साथ तमाम लोग शतरंज भी खेलते थे | कुछ दरवेश वहाँ खड़े होकर समाज सुधार की बाते करते थे | यही से अवाम के जन समस्याओं से आन्दोलन पैदा होते थे |
लखनऊ में बैठकबाजी की परम्परा
लखनऊ काफी हाउस से मेरा परिचय कराया समाजवादी विचारक खाटी समाजवादी बड़े भाई विनोद कुमार श्रीवास्तव ने मैंने तभी जान लिया था कि यह जगह बैठकबाजो का अड्डा है | मैंने सूना था कि लखनऊ के काफी हॉउस में अमृतलाल नागर , भगवती चरण वर्मा , यशपाल जैसे साहित्यकार और आदरणीय चन्द्रशेखर जी जैसे राजनेताओं का नियमित काफी हाउस आना होता था और घंटो वहाँ बैठकर गंभीर विषयों पर चर्चा करते थे |
बैठकबाजी की बात चली तो यह बताना जरूरी है कि लखनऊ में इसका शगल बहुत पुराना है | नवाबी युग में बैठकबाजी का अड्डा था चडूखाना जहां अफीम के आदि जमा होते थे | चडू अफीम से बना एक गिला प्रदार्थ है जो तम्बाकू की तरह पिया जाता है | अफीम के नशे की विभिन्न स्थितियों में चंडूबाज कल्पनालोक में डूबे बडबडाते , बे पर की उड़ाते रहते थे | झूठी बेसिर – पैर की बातो के लिए अक्सर ‘चडूखाने की गप्प ‘ मुहावरे का उपयोग किया जाता है |
बैठकबाजी का दूसरा अड्डा कहवाखाना ( आधुनिक काफी हॉउस ) हुआ करता था | ऐसा लगता है कि लखनऊ में कहवा का चलन इरान से आया होगा | जहां लखनऊ के नवाबो का मूल स्थान था | लखनऊ के कहवाखाने शिष्ट समाज के बैठकबाजी के अड्डे थे | इनमे दास्तानगो किस्से – कहानिया सुनाया करते थे | इन कहवाखानो का उल्लेख्य उर्दू साहित्य में यत्र –तत्र मिलता है जैसे रंतान् नाथ सरशार का ‘फसांनएआजाद ‘ |
लखनऊ शहर में बैठकबाजी की परम्परा अभी भी चली आ रही है जहां विभिन्न विषयों पर बहस – मुहाब से होते रहते है | आज भी नक्कास , चौक में ''रैड रोज'' चाय की दूकान पर भीड़ लगी रहती है जहां रोज के बैठने वाले एक प्याली चाय पर बहस करते दीख जायेंगे | लखनऊ के भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन का कहना है कि चौक में राजा ठंडाई की दूकान शाम को काफी हाउस की तरह बैठकबाजी का अड्डा बन जाती थी | राजा ठंडाई की दूकान चौक में चौबत्ती के बीच में थी जहां शाम को खासतौर से तैयार होकर लोग आते थे और नियमित बैठके होती थी |
इसी तरह से अमीनाबाद में अब्दुल्ला होटल भी देर रात तक बैठकबाजी के लिए मशहूर था | संगीत के बादशाह नौशाद ने काफी साल पहले अपनी बातो में चर्चा करते बतया था कि वे और उनके दोस्त अमीन सलोनवी अब्दुल्ला के होटल में बैठते थे | बाद में अमीन सलोनवी के बेटे मोबिन जो स्थानीय पायनियर अखबार में काम करते थे , वहाँ नियमित जाते थे | अवकाश प्राप्त हाईकोर्ट के जज हैदर अब्बास साहब अपने छात्र जीवन और फिर बाद में कांग्रेस लीडर की हैसियत से अपने मित्र पत्रकार सूरज मिश्रा के साथ अब्दुल्ला होटल जाते रहे है | अमीनाबाद में सुन्दर सिंह शर्बत वाले थे जिनकी दूकान भी बैठकबाजी का अड्डा रही है | अमीनाबाद में ही कछेना होटल भी साहित्यकारों की बैठकबाजी का अड्डा रहा है | लखनऊ के पूर्व मेयर व साहित्यकार दाउजी आज भी कछेना में बैठते है | पत्रकार – साहित्यकार स्व अखिलेश मिश्रा भी कछेना में बैठते थे |
कैसरबाग में नेशनल हेराल्ड के आफिस के पास जनता काफी हाउस था जहां पत्रकार , साहित्यकार एवं लेखक बराबर बैठते रहे है | पास ही नजीराबाद में एक जमाने में नेशनल कैप स्टोर था जिसको तिवारी जी व उनकी पत्नी जो अम्मा जी के नाम से जानी जाती थी चलाती थी | यहाँ राजनेताओं के मिलने का अड्डा था | एक जमाने में चन्द्रभानु गुप्ता जी भी यहाँ नियमित रूप से बैठते थे |
हजरतगंज में जहां आजकल साहू सिनेमा है , वहाँ फिल्मिस्तान था और उसके नीचे प्रिंस सिनेमा था | उसी बिल्डिंग में न्यू इंडिया काफी हाउस था जो 50-60 के दशको में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र व राजनेताओं की बैठकी का केंद्र रहा है |
इन सार्वजनिक अड्डो के अतिरिक्त पत्रकारों तथा राजनेताओं के लिए पंडित नेकराम शर्मा के घर भी बैठकबाजी का अड्डा रहा है | नेकराम शर्मा पार्क रोड पर रहते थे | उनकी दरियादिली का कोई जबाब नही था | उनकी मेहमाननवाजी की किस्से अभी भी मशहूर है |
हजरतगंज में बैठकबाजी का एक और अड्डा था जिसका नाम था बैनबोज रेस्टोरेंट | हजरतगंज के चौराहे पर जहाँ पर आज छंगामल की दूकान है वही बैनबोज था जो ओबराय सरदार जी का था | बेन्बोज की बेकरी काफी मशहूर थी | वहाँ के बने केक दिल्ली में बैठे राजनेताओं के घर पहुचाये जाते थे | भारतीय राजनीत में दखल देने वाले स्व एन डी तिवारी समेत तमाम राजनेता व पत्रकार शाम को बेन्बोज में नियमित बैठते थे | क्रमश:

Monday, November 27, 2017

क्रांतिवीर - मौलाना बरकत – उल्लाह भोपाली 27-11-17

क्रांतिवीर - मौलाना बरकत – उल्लाह भोपाली


''कोई भी देश , जिसके नागरिक मौलाना बरकत उल्लाह जैसे हो बहुत दिनों तक गुलाम नही रह सकता |''


‘’मैंने जीवन भर निष्ठापूर्वक अपने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है | मेरा सौभाग्य है की मेरे जीवन राष्ट्र की सेवा में बीता है | और इस जीवन को विदा कहते हुए मुझे एक ही बात का दुःख है कि मेरे प्रयत्न सफल न हो सके | किन्तु मुझे पूरा भरोसा है कि मेरे देश के करोड़ो बहादुर देशवासी , जो ऊर्जा और निष्ठा - विश्वास से परिपूर्ण है , कूच कर रहे है और हमारा देश स्वतंत्र होकर रहेगा | मैं पूरी आस्था के साथ अपने प्रिय देश का भाग्य उनके हाथो में सौप रहा हूँ |’’

और इन शब्दों के साथ विश्वभर में भारत की आजादी कि अलख जगाते हुए उस क्रांतिवीर ने , जिसे उसके देशवासी क्रान्ति का पितामह कहते थे , कैलिफोर्निया की धरती पर प्राण त्याग दिए | सितम्बर 1927 में साठ वर्ष की आयु में | एक समय गदर पार्टी के उपप्रधान रहे विद्वान् देशभक्त मौलाना बरकत उल्लाह की समाधि आज भी कैलिफोर्निया राज्य की राजधानी सैक्रामैंटो के प्रमुख कब्रिस्तान में अपने होने की गवाही दे रहा है |

मृत्यु के समय मौलाना बरकत – उल्लाह ने यह इच्छा जताई थी कि जब देश स्वतंत्र हो जाएगा , तो उनके पार्थिव शरीर को पुन: भारत की पावन भूमि में दफनाया जाए | कहना ना होगा उनकी यह अंतिम इच्छा देश की आजादी के सात दशको से अधिक बीत जाने के बाद भी पूरी नही हो पाई |
मृत्यु से एक दिन पहले ही मैरिवल , कैलिफोर्निया की एक सभा में भाषण करते हुए उन्होंने शोक जताया था कि वे अपने लोगो से तेरह वर्षो से अलग रहे थे |’’ आज जैसे ही मैं अपने चारो और देखता हूँ , तो अपने 1914 के सहकर्मियों को नही देख पा रहा हूँ | कहाँ है वे ? मानव स्वतंत्रता के देवदूत ? बलिदान हो गये या काल कोठरी में अकेले बंद है ? जरुर ऐसे ही होंगे – उन्होंने देशप्रेम का अपराध जो किया है | मैं शायद बचा हूँ अपने देशवासियों की भयावह यातना को कुछ काल और देखने के लिए | मेरे देशवासियों , उन वीरो का हम पर बहुत बड़ा ऋण है | क्या हम चुका पायेंगे ?”’
बीसवी शताब्दी के पहले ढाई दशको में मौलाना बरकत उल्लाह का सम्बन्ध उन सभी प्रवासी भारतीयों संस्थाओं से रहा , जो भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न रहे ‘’गदर पार्टी ‘’ बर्लिन इन्डियन कमेटी ‘ श्याम जी कृष्ण जी वर्मा का इंग्लैण्ड में स्थापित ‘इण्डिया हाउस ‘’ मैडम कामा की पेरिस स्थित संस्था और दक्षिण पूर्वी एशिया रूस आदि – सभी से इस आत्म – निर्वासित देशभक्त का पैतीस वर्षो के प्रवास में सम्पर्क रहा | मुस्लिम – बहुल राष्ट्रों में भारत के प्रति सहानुभूति प्रकट करवाने में तो वे शायद अकेले भारतीय थे |
1867 के आस – पास भोपाल के एक कच्चे घर में उनका जन्म हुआ | वहाँ 1857 के विप्लव के बाद उनके माता पिता उत्तर प्रदेश से आकर बस गये थे | आरम्भिक शिक्षा घर में परम्परागत इस्लामिक पद्धति से हुई | मौलाना को दस वर्ष की आयु में पूरी कुरआन याद हो गयी थी | उन्हें उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा भी दी गयी | पर मौलाना की रूचि अंग्रेजी व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने में थी | भोपाल में कोई सुविधा उसकी न थी | हाँ इसी बीच उनका सम्पर्क सैयद ज्लालुद्धीन अफगानी से हुआ , जो भारत में ब्रिटिश शासन के कट्टर विरोधी थे |
1883 की जनवरी की एक रात को मौलाना बिना किसी को बताये घर से गायब हो गये | अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे जबलपुर गये और वहाँ से असंतुष्ट होकर मुंबई | वहाँ एक हाई स्कूल में प्रवेश पाकर अगले चार वर्षो तक रहे |
इस बात से प्रेरित होकर ही एक अंग्रेज ने इस्लाम कबूल कर लिया है , वे इंग्लैण्ड चले गये | वहाँ उन्होंने अरबी फारसी पढाना शुरू किया , उन भारतीयों को जो इन्डियन सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे थे | साथ ही उन्होंने अंग्रेजी भाषा और साहित्य का गहन अध्ययन किया और वे इतने पारंगत हो गये की ‘ लन्दन टाइम्स ‘ में लेख लिखने लगे | इसके फलस्वरूप उन्हें लिवरपूल के मुस्लिम ईस्टीटयूट में अरबी पढ़ाने के लिए निमंत्रण मिला | उसी संस्थान की दो पत्रिकाओं में – क्रीसैनट ‘ और ''‘इस्लामिक वर्ल्ड ''‘ में लिखना प्रारम्भ किया , जहां उन्होंने एक और सार्वभौमिक इस्लाम की कल्पना को जन्म दिया और दूसरे भारत की स्वतंत्रता को अपने जीवन का केंद्र बनाया | उन्होंने भारतीय मुसलमानों को कांग्रेस का सदस्य बनने का आग्रह किया – ब्रिटिश साम्राज्वाद से लड़ने के लिए | मुस्लिम राष्ट्रों से भारत की आजादी में सहायक होने को कहा | अपने भाषणों में वे ब्रिटेन की ‘’फूट डालो और राज करो ‘'' की नीति की भर्त्सना करने लगे | ब्रिटेन द्वारा भारत के शोषण का कच्चा चिठ्ठा खोलने लगे | उन्हें ब्रिटेन में रहकर इस बात का तीव्र आभास हुआ कि भारत के लिए आर्थिक प्रगति करने के लिए स्वतंत्र होने की बात अनिवार्य है | और जब ब्रिटिश सरकार ने मौलाना की गतिविधियों पर नजर रखने लगी तो मौलाना को अमरीका से निमंत्रण मिला – अमरीका में जैसे मौलाना को पहली बार ताज़ी हंवा में साँस लेने का अनुभव हुआ | वहाँ उन्होंने जमकर भारत की स्वतंत्रता विषयक लेख लिखने लगे | उन्होंने 1904 के मुंबई कांग्रेस अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने वाले मौलाना हसरत मोहानी की पत्रिका ‘ ''उर्दू – ए-मोअल्ला ''‘ में लेख लिखे |

मौलाना के लेखो को अंतरराष्ट्रीय प्रशस्ति मिली | उन्हें इस्ताम्बुल जाने का निमत्रण मिला | डेढ़ साल वहाँ रहकर वे जापान गये | वहाँ के प्रमुख पत्रों में लिखने के परिणाम स्वरूप उन्हें सम्राट ने टोकियो विश्व विद्यालय में उर्दू का प्रोफ़ेसर बना दिया ( उसी आधार पर हाल ही में जापान में हिंदी –शिक्षण की शताब्दी मनाई थी ) वहाँ जमने के बाद उन्होंने ‘''इस्लामिक फ्रेटरनिटी ‘’ पत्र निकाला | साथ ही साथ वहाँ बसे प्रवासी भारतीयों को संगठित करना शुरू किया | उससे ब्रिटेन की नीद हराम होनी शरू हो गयी , तो अंग्रेजो ने दबाव डालकर सम्राट द्वारा शालीनता से जापान छोड़ने की बात कहलवाई |
1922 में वे फ़्रांस आ गये | ''‘एल इन्कलाब'' ‘ के सम्पादक बने | पर यहाँ भी ब्रिटेन ने दबाव देना शुरू किया | उन्हें देश छोड़ना पडा |
वे दुबारा अमरीका गये | वहाँ तभी ‘गदर पार्टी ‘’ की स्थापना हुई थी | वे उसमे शामिल हो गये | वे पार्टी के उपप्रधान चुने गये और उर्दू ‘गदर’ के सम्पादक बनाये गये | वहाँ जब ब्रिटिश साम्राज्य के गुर्गो ने प्रवासियों को हिन्दू - सिख मुसलमान के नाम से भिड़ाना चाहा , तो मौलाना बरकत - उल्लाह , भाई भगवान सिंह और रामचन्द्र ने उनका षड्यंत्र नही पनपने दिया | प्रथम युद्ध की घोषणा के बाद जब प्रवासी भारतीय स्वदेश आने शुरू हो गये – भारत की आजादी का बिगुल बजाने – तो इन्ही तीनो नेताओं ने उनके जहाजो के डैक पर खड़ा होकर जोशीले भाषण देकर उन्हें विदा किया |
इस बात का एहसास होने पर कि भारत के स्वतंत्र संग्राम में मित्र राष्ट्र की सहायता बहुत जरूरी है , मौलाना को कई बार विभिन्न देशो में भेजा गया | वे टर्की गये जर्मनी गये | जर्मनी में बर्लिन कमेटी शिद्दत से जर्मन सरकार से बात कर रही थी और भारतीय युद्धबंदियो को ब्रिटेन के विरोध में लड़ने के लिए संगठित कर रही थी | इन योजनाओं में मौलाना की भूमिका अहम् थी | इंडो – जर्मन – मिशन के तहत मौलाना अनेक देशो में गये | इन्ही यात्राओं के मध्य अफगानिस्तान में 29 अक्तूबर , 1915 को प्रवास ( निष्कासन) में भारतीय राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ जिसमे राजा महेंद्र प्रताप सिंह राष्ट्रपति और बरकत उल्लाह प्रधानमन्त्री बनाये गये | उस राष्ट्रीय सरकार ने विभिन्न देशो में अपने प्रतिनिधि मंडल भेजे | 1919 में मौलाना इसी सरकार के प्रधानमन्त्री की हैसियत से सोवियत यूनियन गये | लेनिन से मिले | लेनिन मौलाना और उनके विश्व सम्बन्धी राजनीतिक विश्लेष्ण से बहुत प्रभावित हुए | वे चाहते थे कि मौलाना सोवियत यूनियन में रहे | पर अन्य देश – विशेषत अरब राष्ट्र उनसे परामर्श चाहते थे | खिलाफत आन्दोलन में उनकी प्रमुख भूमिका रही |
उन्होंने तक ''‘ऐल- इसलाह ‘’ नाम का पत्र निकाला पेरिस में | मुसोलीन सहित अनेक राष्ट्र नेताओं से वे मिले | ‘गदर पार्टी “ के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने ब्रसल्स ( वैल्जियम ) में साम्राज्य वाद – विरोधी सम्मेलन में भाग लिया | वहाँ उनकी भेंट जवाहरलाल नेहरु से हुई | नेहरु ने उनकी निष्ठा और बौद्धिक चेतना से बहुत प्रभावित हुए | उन्होंने कहा , ''कोई भी देश , जिसके नागरिक मौलाना बरकत उल्लाह जैसे हो बहुत दिनों तक गुलाम नही रह सकता |''
यही समय था , जब गदर पार्टी ने अपने वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने के लिए उन्हें कैलिफोर्निया बुलाया | उत्साह भरी भीडो को न्यूयार्क , शिकागो डिट्रोयट आदि नगरो में सम्बोधित करके वे कैलिफोर्निया पहुचे | वहाँ उनका स्वागत घर लौटे हुए नायक की भाँती हुआ | किन्तु शोक , वहीँ अपने अंतिम भाषण के साथ उन्होंने प्राण त्याग दिए |
भारतीत स्वतंत्रता और अमरीका में भारतीय अधिकारों की प्रबल समर्थक एग्नेस स्मेडले ने कहा , ‘’ उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के सपने में कभी भी अपना विश्वास नही खोया और अंतिम क्षण तक वे अपनी देशसेवा की सौगंध के प्रति निष्ठ रहे | एक पल के लिए भी वे अपने ध्येय और चुने मार्ग से विचलित नही हुए |''

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक --- आभार आजादी या मौत पुस्तक से

Saturday, November 25, 2017

कतारे - 26-11-17

कतारे
लम्बी कतारे
बेरोजगारों की कतारे
गैस की कतारे
रोटी की कतारे
कभी राशन की कतारे
लम्बी कतारों की फ़ौज
कभी आवेदनों की कतारे
जहां देखिये वही कतारे
मंत्री के घर दलालों की कतारे
संतरी के यहाँ कतारे
अधिकारियों के यहाँ चापलूसों की कतारे
कभी न खतम होने वाली कतरे
क्या खत्म होगी ?
कतारे - कतरे - कतारे ---- सुनील दत्ता

Tuesday, November 21, 2017

किसानो का दर्द 21-11-17



किसानो का दर्द


बीते दो दशको में 3 लाख 21 हजार 428 किसान आत्महत्या कर चुके है |


4 अक्तूबर के अम्र उजाला में भाजपा सांसद वरुण गांधी का लेख ‘’कर्ज में डूबे  किसानो का दर्द शीर्षक के साथ प्रकाशित लेख कुछ तथ्यों को जरुर उजागर करता है | उन्होंने अपने लेख में ग्रामीण कर्ज के बारे में पंजाब विश्व विद्यालय के तीन साल पुराने अध्ययन को प्रस्तुत किया है | उसमे पंजाब के बड़े किसानो पर ( 10 हेक्टेयर या 25 एकड़ से ज्यादा जोत वाले बड़े किसानो पर ) कर्ज उनकी आय का 0.26% है | जबकि माध्यम दर्जे के ( 4 से 10 ) हेक्टेयर की जोत वाला ) किसानो पर कर्ज उनकी आय का 0.34% है | लेकिन छोटे दर्जे के ( 1-2 हेक्टेयर जोत वाले किसानो पर तथा सीमांत किसानो  एक हेक्टेयर से कम जोत के किसानो पर कर्ज का बोझ कही ज्यादा है | वह उनकी आय का 1.42% 0.94% है ! इन पर कर्ज और ब्याज का बोझ और ज्यादा इसलिए भी है कि इनके कर्ज का आधे से अधिक हिस्सा गैर बैंकिंग क्षेत्र अर्थात प्राइवेट महाजनों और माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों आदि से लिया गया है |
कर्ज के इसी बोझ का नतीजा किसानो की आत्महत्याओं के रूप में आता है | प्रकाशित लेख में किसानो की आत्महत्या के बारे में यह सूचना भी दी है कि बीते दो दशको में 3 लाख 21 हजार 428 किसान आत्महत्या कर चुके है | आत्महत्या और कर्ज के बोझ के कारणों पर चर्चा करते हुए उन्होंने सीमित सिचाई सुविधा बारिश पर निर्भरता बाढ़ क्षेत्र एवं उपज में वृद्दि के वावजूद कृषि आयात में बढ़ोत्तरी खाद्यान्नो की कीमत में किसान के लागत की तुलना में गिरावट कृषि के आवश्यक संसधानो का साधारण किसानो की पहुचं के बहार होने आदि को बताया है | बढती लागत के सन्दर्भ में उन्होंने उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं तथा आधुनिक बीज की ऊँची कीमत को भी प्रमुखता से उठाया है |
इसके अलावा सांसद वरुण गांधी ने पहले की और अब की सरकारी नीति के अंतर को बताते हुए भी लिखा है कि ‘’ भारतीय कृषि नीति शुरू से खाद व बीज पे सब्सिडी देकर लागत कम करने तथा उत्पादन एवं समर्थन मूल्य के जरिये न्यूनतम आय की गारंटी प्रदान करने की नीति थी | लेकिन वह नीति धीरे धीरे करके अपनी उपयोगिता खो चुकी है | सब्सिडी घटाने या खत्म किये जाने के साथ देश का कृषि संसधान धीरे धीरे नियंत्रण मुक्त होता जा रहा है |
बजट घटा  कर कम करने के प्रयासों में सिचाई बाढ़ नियंत्रण के उपायों और ज्यादा उपज देने वाली फसलो पर किया जाता रहा सरकारी निवेश प्रभावित हुआ है |
कृषि क्षेत्र को बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है , जिसके लिए वह अभी तैयार नही है | ऐसे में किसानो के लिए अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल होता जा रहा है |

लेख के अंतिम हिस्से में उन्होंने किसानो की मुश्किलों को कम करने के प्रयासों को गिनाया है | उदाहरण उन्होंने कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक द्वारा ट्यूबवेळ सिचाई , कृषि मशीनीकरण और सहायक गतिविधियों की विशेष मदद दिए जाने की , 1990 के बाद से कई बार कृषि ऋण माफ़ी दिए जाने की ग्रामीण सरचनात्मक विकास को तेज किये जाने की 1999 से किसान क्रेडिट कार्ड शुरू किये जाने अदि की चर्चा किया है | छोटे व सीमान्त किसानो के लिए कृषि उपकरणों खाद और कीटनाशको की समस्याओं के समाधान के लिए कृषि उपकरणों खाद और कीटनाशको की खरीद पर ज्यादा सब्सिडी देने का सुझाव दिया है | इसके अलावा मनरेगा का दायरा बढ़ाकर सीमान्त किसानो के खेत की जुताई के भुगतान के जरिये भी उनकी कृषि लागत को घटाने का सुझाव दिया है |

भाजपा सांसद की राय अन्य कृषि विशेषज्ञोव प्रचार माध्यमी विद्वानों से इस माने में भिन्न एवं समर्थन योग्य है कि उन्होंने अपने लेख में बढती कृषि लागत सरकारी निवेश व सब्सिडी को भी किसानो के बढ़ते कर्ज व दर्द के प्रमुख कारण के रूप में पेश किया है |
साथ ही उन्होंने अपने सुझाव में कृषि लागत मूल्य को घटाने का भी सुझाव प्रमुखता से उठाया है | लेकिन अपने लेख में उन्होंने यह बात नही उठाया कि उनके सुझावों के विपरीत कृषि के लागत को लगातार बढाने तथा बजट घाटा कम करने के नाम पर कृषि सब्सिडी को सभी सरकारों द्वारा घटाने का काम क्यों किया जाता रहा है ? साथ ही कृषि में सरकारी निवेश को भी लगातार क्यों घटाया जाता रहा है ?
उन्होंने खुद कहा कि कृषि क्षेत्र को सरकारी सहायता के साथ सरकारी नियंत्रण द्वारा संचालित करने की जगह उसे बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है |
सवाल है कि कृषि नीति को किसानो को न्यूनतम आय की गारंटी देने वाली नीति को क्यों छोड़ दिया गया ?
वरुण गांधी ने इसका जबाब एक लाइन में लिखा है कि यह नीति धीरे धीरे अपनी उपयोगिता खो चुकी है | इस जबाब को तो कोई माने मतलब नही है | क्योकि वह कृषि नीति अपनी उपयोगिता अपने आप कैसे खो सकती है ? क्या अब कृषि से न्यूनतम आय की गारंटी की कोई जरूरत किसानो को नही रह गयी है ? अगर उस गारंटी की जरूरत है तो किसानो के लिए खासकर छोटे व सीमान्त किसानो को खेती एवं जीवन की गारंटी के लिए न्यूनतम तथा उससे थोड़ी बेहतर आय की गारंटी की आवश्यकता जरुर है | इसे पूर्ववर्ती सरकारे भी कबुलती रही है | फिर वर्तमान सरकार का एक प्रमुख एजेंडा किसानो की आय को दोगुना करने के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है | तब आखिर वह कौन है ? , जिसने अब किसानो की न्यूनतम आय की गारंटी वाली नीतियों की उपयोगिता को समाप्त करके उसमे बदलाव किया है ?

लेखक ने इस सवाल को उठाने से परहेज किया है | उन्होंने 1990 –95 से आती रही सभी सरकारों द्वारा कृषि नीति में किये गये परिवर्तन की कोई चर्चा ही नही किया है | जबकि उन्ही नीतियों एवं डंकल प्रस्ताव के जरिये खेती की लागत में वृद्धि के साथ सरकारी निवेश एवं सब्सिडी में कटौती की जाती रही है | कृषि क्षेत्र व किसानो को बाजार के सहारे छोड़ा जाता रहा है | कृषि उत्पादों के खासकर खाद्यान्नो में मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने के घोषित उद्देश्य को अघोषित रूप में उपेक्षित किया गया है | आधुनिक बीजो को सरकारों द्वारा सस्ती दर पर मुहैया कराने की जगह उसका सर्वेसर्वा अधिकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं राष्ट्रीय स्तर की बीज कम्पनियों को दिया जाता रहा है | सार्वजनिक सिचाई की नीति को किसानो के अपने निजी संसधान से सिचाई की नीति के जरिये बदला जाता रहा है | सरकारी मूल्य और बाजार पर सरकारी नियंत्रण के साथ कृषि उत्पादों की खरीद की जगह किसानो को अपने उत्पादों को बाजार में गिरते भाव पर बेचने के लिए बाध्य किया जाता रहा है | न्यूनतम सरकारी मूल्य को भी गेहूँ , चावल , गन्ने की भी न्यूनतम खरीद के रूप में निरंतर निष्प्रभावी किया जाता रहा है |

अन्य रूपों में देश के किसानो का संकट पिछले 20– 25 सालो से तेजी से बढ़ता रहा है | यह संकट देश व विदेश की धनाढ्य कम्पनियों के उदारवादी व निजिवादी छुटो अधिकारों को खुलेआम बढ़ावा देने वाली नीतियों के परिणाम स्वरूप बाधा है | फिर 1995 में डंकल प्रस्ताव के जरिये कृषि क्षेत्र को वैश्विक व्यापार संगठन के अंतर्गत लाने और उसके निर्देशों को लागू करते जाने के बाद और ज्यादा समस्या बढ़ी है | 1995 से किसानो की बढती आत्महत्याए उपरोक्त आर्थिक नीतियों एवं डंकल प्रस्ताव के परिणामो को ही परिलक्षित करती है | इन्ही नीतियों के फलस्वरूप जहां कृषि लागत के साधनों मशीनों मालो को बनाने वाली तथा कृषि उत्पादों के इस्तेमाल से बाजारी उत्पादों को बनाने में लगीधनाढ्य कम्पनियों कृषि क्षेत्र से अधिकाधिक लाभ कमाती रही है | वही आम किसान संकट ग्रस्त होते रहे है | इसीलिए कोई कर्ज माफ़ी या बीमा सुरक्षा अथवा कोई राहतकारी उपाय किसानो को स्थायी राहत देने में सफल नही हुई | वे कर्ज में डूबे किसानो के दर्द का निवारण कदापि नही कर सकते | क्योकि ये राहतकारी उपाय बीज खाद दवा कृषि उपकरण आदि की देशी विदेशी कम्पनियों को कृषि एवं किसान के शोषण से दोहन से अधिकाधिक लाभ कमाने पर रोक नही लगा सकते | कृषि उत्पादों के आयात निर्यात से लेकर देश के कृषि बाजार पर धनाढ्य कम्पनियों को अपना नियंत्रण बढाने से रोक नही सकते | फलस्वरूप किसानो को उनके उत्पादों की उचित या लागत के अनुरूप समुचित मूल्य  भाव भी नही दिला सकते | किसानो को बढ़ते घाटे बढ़ते कर्ज और बढती आत्महत्याओं से छुटकारा भी नही दिला सकते |



सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक