Thursday, February 26, 2015

अंहकार ---- 27-2-15

अंहकार ----


एक गाँव में एक गरीब किसान रहता था | एक बार किसान की पूरी फसल चौपट हो गयी | फलत: वह मेहनत - मजदूरी की तलाश में शहर चला गया | शहर से कुछ कमाई करने के बाद जब वह गाँव लौट रहा था उसे रास्ते में एक ऊँटनी और उसका छोटा बच्चा  नजर आया | किसान उन्हें अपने घर ले आया | कुछ दिन बाद एक कलाकार ग्रामीण जीवन के चित्रं हेतु उसी गाँव में आया | पेंटिंग्स के ब्रश बनाने के लिए वह किसान के घर आकर ऊँट के बच्चे की दुम के बाल ले जाता | इधर ऊँटनी खूब दूध देने लगी तो किसान उसका दूध बेचने लगा | एक दिन वही कलाकार गाँव लौटा और किसान को काफी सारे पैसे दे गया , कयोकी उसके चित्र अच्छी कीमतों में बीके थे | किसान को लगा कि जबसे ऊँटनी और उसका बच्चा उसकी जिन्दगी में आये है , उसकी किस्मत सवर गयी है | उसने एक सुन्दर - सी घंटी लाकर ऊँट के बच्चे के गले में पहना  दी | किसान ने कुछ और ऊँट भी पाल लिए | किसान इन ऊँटो को चरने के लिए दिन में छोड़ देता और वे शाम तक जंगल में पत्ते वगैरह चरकर वापस आते | ऊँट का बच्चा कुछ बड़ा हुआ तो वह भी बाहर चरने जाने लगा | लेकिन वह खुद को सबसे ख़ास समझता और ऊँटो की टोली से प्राय: दूर - दूर ही चलता | उसके एक साथी ऊँट ने उससे कहा भी | ' तुम हमसे दूर - दूर क्यों रहते हो ? हम सब साथ मिलकर चले तो कितना अच्छा रहे | इस पर वह घंटीधारी  ऊँट अकड़ते हुए बोला -- क्या तुम जानते नही कि मैं मालिक का सबसे दुलारा ऊँट हूँ ? मैं अपने से ओछे ऊँटो में शामिल होकर अपना मान  नही खोना चाहता | उसी इलाके में वन में एक शेर रहता था , जो इन ऊँटो की टोली को जंगल में आते - जाते देखता रहता था | वह ऊँटो के झुण्ड पर तो आक्रमण नही कर सकता था , लेकिन जब उसने घंटीधारी ऊँट को अकेले चलते हुए देखा तो उसकी बाछे खिल उठी | दूसरे दिन जब ऊँटो का दल चरकर लौट रहा था , तो घात लगाये बैठा शेर घंटी की आवाज को निशाना बनाकर दौड़ा और उस  अकेले ऊँट को मारकर जंगल में खीच ले गया | इस तरह उस घंटीधारी ऊँट को अपने अंहकार की वजह से अपनी जान से हाथ धोना पडा | जो स्वंय को सबसे श्रेष्ठ और दुसरो को हीन समझता है , उसका अहंकार शीघ्रः  ही उसे ले डूबता है |

Wednesday, February 25, 2015

धोबन का ज्ञान ------------------ 25-2 15

धोबन का ज्ञान

नर्मदा के किनारे रामपुर गाँव में एक पंडित जी रहते थे वो रोज प्रात: नदी में स्नान के बाद ईश्वर को अर्घ्य देते हुए बुदबुदा रहे थे -- '' प्रीति बड़ी माता की और भाई का बल | ज्योति बड़ी किरणों की और गंगा का जल ' | यह सुनकर वह से गुजर रही गाँव की बूढी धोबन हँस पड़ी | पंडित जी को धोबन का यू हँसना अपना अप्माआं लगा | उन्होंने तुरंत जाकर गाँव के सरपच से इस बात की शिकायत करते हुए धोबन को दंड देने की मांग की | सरपच ने पंडित जी से कहा  - यदि धोबन ने आपका अपमान किया है तो उसे दंड जरुर मिलेगा  | अगले दिन पचायत बुलाई गयी | पचायत में सरपच ने धोबन से कहा -- ' पंडित जी ने शिकायत की है कि तुमने उनका अपमान किया है | तुम्हे इस बारे में क्या कहना है ? धोबन हाथ जोड़कर बोली ' हुजुर ; मेरी क्या औकात जो मैं पंडित जी का अपमान करूं | जरुर उन्हें गलतफहमी हुई है ' | तब पंडित जी बोले - ' कल सुबह तुम जो मुझ पर हंसी थी , क्या वह मेरा अपमान नही था ? धोबन ने नजरे झुकाए जबाब दिया = ' विप्रवर , मैं आप पर नही , आपकी बात सुनकर हंसी थी ' पंडित जी बोले मैंने तो यही कहा था कि प्रीती माता की और भाई का बल | ज्योति बड़ी किरणों की और गंगा का जल ' | इस पर सरपच ने कहा - पंडित जी का कहना सही तो है | इसमें हँसने की बात क्या है ? धोबन बोली - पंडित जी की बात सिर्फ सत्य प्रतीत होती है परन्तु है नही | उनके जैसा ज्ञानी यह बात करे इसीलिए मुझे हंसी आई | तब सरपच ने उससे पूछा तो तुम्हारी नजर में सही क्या है ? धोबन बोली - ' सच तो यह है कि '   प्रीति बड़ी त्रिया ( स्त्री ) की और बाहों का बल | ज्योति बड़ी नयनो की और मेघो का जल | ' कयोकी बात अगर पिता और पुत्र में फंसे तो मां   पुत्र का साथ नही देगी , परन्तु पत्नी किसी भी हाल में साथ होगी |  जब बैरी अकेले में घेर लेगा तो भाई का नही , अपनी बाहों का ही बल काम आयेगा | ज्योति नयनो की  इसीलिए बड़ी है कि जब आँखे ही न हो तो सूरज की किरणों की रौशनी या अमावस का अँधेरा सब बराबर है | गंगा जी पवित्र भले ही है , लेकिन वे मेघो के समान न तो जन - जन की प्यास बुझा सकती है , न ही सभी खेतो में फसलो की सिचाई कर सकती है | यह सुनकर सरपच ने पंडित से कहा - अब आप क्या कहते है ? पंडित जी बोले - मुझे समझ में आ गया किसिर्फ किताबी ज्ञान पाना काफी नही | अभी बहुत कुछ सीखना है |

Monday, February 23, 2015

कब्र के छ: फुट उपर की जिन्दगी 24-2-15

कब्र के छ: फुट उपर की जिन्दगी
साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था में भिन्न राष्ट्रों के नागरिको के जीवन स्तर का यथार्थ इस खबर से स्पष्ट हो जाता है | खबर फिलिपाईन्स के मनिला शहर की है जहा 1904 में निर्मित 130 एकड़ के फैले हुए रोमन कैथलिक कब्रिस्तान में गरीबो की बस्ती बस गयी है | उस बस्ती के सभी लोग रबर शीट या गत्ता बिछाकर सोते है , कब्रों के उपर खाना बनाते है और वही बर्तन धुल लेते है | कुछ कब्र ऐसी भी है जहा कमरे भर की जगह है | यदि कब्रों के खानदान के मालिको की अनुमति मिल जाती है तो कुछ लोग उन जगहों का इस्तेमाल आवास के लिए भी कर लेते है , पास के कुवि से पानी ले लेते है और पौधों को पानी देने वाले शावर से नहा धो लेते है | उनकी सबसे बडो परेशानी यह है कि उन्हें यह सब काम खुले आसमान के नीचे करना पड़ता है जहा निजता और गोपनीयता का सर्वथा आभाव होता है | कुछ महिलाये तो ऐसी भी है जो अपने पति के कब्र के उपर ही सोती है | आश्चर्य की बात यह है कि मुर्दों की कब्रों पर जिदा लोगो की कालोनी बसी हुई है जिसमे नवजात बच्चे भी उन्ही कब्रों पर सोते है | वाह के निवासी शिफ्टो में काम करते है | बड़े परिवार वाले लोग अस्थायी घरो में बारी - बारी विश्राम करते है तथा बच्चे पास के स्कुलो में पढ़ते है | इन कब्रों के अधिकतम निवासी कब्रिस्तान के कब्रों की देखभाल करते है और शव पेटिका ढोते है | वर्ष में एक दिन '' आल सोल्स डे '' का वे सब बेसब्री से इन्तजार करते है क्योकि उस दिन मृतको के परिवार वालो से उन्हें कुछ रकम मिल जाती है और भरपेट भोजन मिल जाता है | यह दिन इन लोगो के लिए क्रिसमस के त्यौहार जैसा होता है

कारोबारी मन्त्र ------------------------------- 24-2-15

कारोबारी मन्त्र


एक किसान अपने खेत में भुट्टे पैदा करता  था  | उसका एक ही पुत्र था | पुत्र जब नौ साल का हुआ तो किसान उसे भी अपने साथ कभी - कभार खेतो  में ले जाने लगा  | ऐसे ही एक बार वह अपने बेटे को खेत पर लेकर गया | खेत में भुट्टे पक  चुके थे और किसान उन्हें तोड़कर बाजार ले जाने की तैयारी  कर रहा था | खेत में पहुचकर किसान के बेटे ने उससे - कहा पिताजी क्या मैं भी काम में आपकी कुछ मद्दद कर सकता हूँ ? इस पर किसान ने कहा -- हाँ - हाँ , जरूर  कर सकते हो | हम ऐसा करते है  कि मैं खेत में से भुट्टे तोड़ - तोड़ कर निकालता जाउंगा और तुम एक - एक दर्जन भुट्टो की अलग - अलग ढेरिया बनाते जाना | यह सुनकर बेटा खुश हो गया | इसके बाद वे दोनों काम पर जुट गये | किसान भुट्टे तोड़कर बेटे को देता और बेटा उन्हें ढेरियो में इकठ्ठा करता जाता | दोपहर होने पर दोनों ने वही साथ में बैठकर खाना खाया | इसके बाद किसान ने बेटे द्वारा बनाई ढेरियो पर नजर मारी | इन्हें देखने के बाद किसान खेत से कुछ और भुट्टे तोड़कर लाया और हरेक  ढेरी में एक एक भुट्टा बढा दिया | यह देखकर किसान का बेटा  बोला -- पिताजी , मुझे गिनती आती है | एक दर्जन का मतलब बारह होता है | मैंने हरेक  ढेरी में गिनकर बारह भुट्टे ही रखे है | अब तो ये तेरह हो गये | उसकी बात सुनकर किसान ने मुस्कुराते हुए कहा - बेटा तुम ठीक कहते हो कि एक दर्जन का मतलब बारह होता है | लेकिन जब हम भुट्टे बेचने निकलते है तो एक दर्जन में तेरह भुट्टे होते है | बेटे ने पूछा -- ' ऐसा क्यों पिताजी ? तब किसान ने उसे समझाते हुए कहा - देखो , हम सिर्फ अच्छे भुट्टे बेचते है | भुट्टे के उपर छिलका होता है , तो हमारे ढेर में एक भुट्टा खराब भी निकल सकता है , जिसके बारे में हमे पता नही होता | इसीलिए हम अपने ग्राहकों को दर्जन पर एक अतिरिक्त भुट्टा देते है | हम चाहते है कि हमारे ग्राहक ये न समझे कि हमने उन्हें धोखा दिया | फिर हम यह भी चाहते है कि जो भी हमारा भुट्टा  खरीदे , वह अपने पड़ोसियों को भी बताये कि ये कितने अच्छे है | इस तरह हमारे भुट्टे अधिक बिकेगे और हमारी आमदनी भी बढ़ेगी | यह बात सुनकर बेटा  संतुष्ट हो गया | इस तरह किसान ने बातो - बातो में बेटे को कारोबार का यह अहम सबक भी सिखा दिया कि ग्राहक की संतुष्टि सर्वोपरी है | आप ग्राहक को कुछ अतिरिक्त देकर उसका विश्वास अर्जित करने के अलावा बहुत कुछ पा सकते है |

Sunday, February 22, 2015

भगतसिंह फांसी के समय -- 22-2-15

भगतसिंह फांसी के समय --
लाहौर जेल के चीफ वाडर सरदार चतर सिंह ने बताया कि 23 मार्च , 1931 को शाम तीन बजे ,जब उसे fफाँसी का पता चला तो वह भगतसिंह के पास गया और कहा कि "मेरी केवल एक प्राथना है कि अंतिम समय में वाहे गुरु का नाम ले ले और गुरुवाणी का पाठ कर ले '|
भगत सिंह ने जोर से हंस कर कहा 'आप के प्यार को शुक्रगुजार हूँ |लेकिन अब जब अंतिम समय आ गया में ईश्वर को याद करू तो वह कहेगा कि में बुजदिल हूँ |सारी उम्र तो उसे याद नहीं किया और अब मौत सामने नजर आने लगी हैं तो ईश्वर को याद करने लगूँ| इसलिए यही अच्छा होगा कि मैंने जिस तरह पहले अपना जीवन जीया हैं ,उसी तरह अपना अंतिम समय भी गुजारूं | मेरे उपर यह आरोप तो बहुत लगायेंगे कि भगत सिंह नास्तिक
था और उसने ईश्वर में विश्वास नही किया ,लेकिन यह आरोप तो कोई नही लगायगा कि भगतसिंह कायर व बेईमान भी था और अंतिम समय उसके पैर लड़खड़ाने लगे |'
(भगतसिंह - प्रो ० दीदार सिंह , पन्ना 346 ) दूसरे व्यक्ति ,जो अंतिम दिन भगतसिंह से मिले ,वे उनके परामर्शदाता वकील प्राणनाथ मेहता थे |एकदिन पहले भगतसिंह ने लेलिन
की जीवनी की मांग की थी , सो अंतिम दिन मेहता जी लेलिन की जीवनी भगतसिंह को दे गये |
आखरी पलो तक वे बड़ी निष्ठा और एकाग्रचित से लेलिन की जीवनी पढ़ रहे थे | जब जेल के कर्मचारी उन्हें लेने आये तो उन्होंने कहा 'ठहरो एक क्रांतिकारी के दूसरे क्रांतिकारी से मिलने में बाधा न डालो | और फिर 23 मार्च 1931 को संध्या समय सरकार ने उनसे साँस लेने का अधिकार छीनकर अपनी प्रतिहिंसा की प्यास बुझा ली |अन्याय और शोषण के विरुद्ध विद्रोह करने वाले तीन तरुणों की जिन्दगिया जज्लाद के फंदे ने समाप्त कर दी | फांसी के तख्ते पर चढ़ते हुए भगतसिंह ने अग्रेज मजिस्ट्रेट को सम्बोधित करते हुए कहा 'मजिस्ट्रेट महोदय आप वास्तव में बड़े भाग्यशाली हैं कयोकि आपको यह देखने का अवसर प्राप्त हो रहा हैं कि एक भारतीय क्रन्तिकारी अपने महान आदर्श के लिए किस प्रकार हँसते -हँसते मृत्यु का आलिगन करता हैं |फांसी से कुछ पहले भाई के नाम अपने अंतिम पत्र में उसने लिखा था ,मेरे जीवन का अवसान समीप है प्रात; कालीन प्रदीप टिमटिमाता हुआ मेरा जीवन -प्रदीप भारत के प्रकाश में विलीन हो जायेगा |हमारा आदर्श हमारे विचार सारे संसार में जागृती पैदा कर देंगे |फिर यदि यह मुठ्ठी भर राख विनष्ट हो जाये तो संसार का इससे क्या बनता बिगड़ता है |जैसे -जैसे भगतसिंह के जीवन का अवसान समीप आता गया देश तथा मेहनतकश जनता के उज्जवल भविष्य में उसकी आस्थ गहरी होती गयी | मुर्त्यु से पहले सरकार सरकार के नाम लिखे एक पत्र में उसने कहा था ,' अति शीघ्र ही अंतिम संघर्ष के आरम्भ की दुन्दुभी बजेगी | उसका परिणाम निर्णायक होगा | साम्राज्यवाद और पूजीवाद अपनी अंतिम घडिया गिन रहे हैं |हमने उसके विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था और उसके लिए हमे गर्व हैं
....सुनील दत्ता

Saturday, February 21, 2015

संगत ------------ 22-2-15

संगत  ------------

हकीम लुकमान अक्सर अपने बेटे को संगत के बारे में बताते रहते थे , लेकिन वह नादाँन  उनकी बातो को समझता नही था | एक दिन हकीम लुकमान ने अपने बेटे को पास बुलाया और कहा -- बेटा , आज मैं तुम्हे समझाउंगा कि अच्छी या बुरी संगत हमारे व्यक्तित्व पर किस तरह असर डाल सकती है |
अच्छा यह बताओ कि सामने जो धूपदान रखा है , उसमे क्या है ? बेटा बोला - अब्बा , हुजुर उसमे तो चन्दन का चूरा है |हकीम लुकमान बोले - तुमने बिलकुल ठीक कहा | अब ऐसा करो कि एक मुठ्ठी चूरा ले आओ | यह सुनकर बेटा धूपदान में से एक मुठ्ठी चन्दन का चूरा ले आया | इसके बाद हकीम लुकमान ने सामने चूल्हे में पड़े बुझे हुए कोयले की ओर इशारा करते हुए बेटे से कहा -- ' अब दूसरे हाथ की मुठ्ठी में थोडा कोयला भी ले आओ | बेटा कोयला भी लेकर आ गया | तब हकीम लुकमान ने अपने बेटे से कहा - अब तुम ऐसा करो कि इन दोनों चीजो को वापस इनकी जगह रख  आओ | बेटे ने वैसा ही किया और आ कर पुन: अपने पिता के पास खड़ा हो गया | तब हकीम लुकमान ने उससे पूछा - ' क्या तुम्हारे हाथ में अब भी कुछ है ? बेटा  बोला - नही अब्बा , मेरे तो दोनों हाथ खाली  है | हकीम लुकमान ने कहा -- नही बेटा , ऐसा नही है | तुम अपने हाथो को गौर से देखो , तुम्हे इनमे पहले के मुकाबले कुछ फर्क नजर आयेगा | बेटे ने अनुभव किया कि जिस हाथ में वह चन्दन का चुरा लेकर आया था , उससे अब भी चन्दन की महक आ रही थी , जबकि जिस हाथ से कोयला रखा , उसमे कालिख लगी है | इसके बाद हकीम लुकमान ने कहा - बेटा , चन्दन का चूरा अब भी तुम्हारे हाथ को खुशबु दे रहा है , जबकि कोयले का टुकडा तुमने जिस हथेली में लिया , वह काली  हो गयी और उसे फेंक देने के बाद भी तुम्हारी हथेली काली है | यही है अच्छी और बुरी संगत का असर | दुनिया में कुछ लोग चन्दन की तरह होते है , जिनके साथ जब तक रहो , तब तक हमारा जीवन महकता रहता है और उनका साथ छुट जाने पर भी वह महक हमारे जीवन से जुडी रहती है | वही कुछ लोग ऐसे भी होते है . जिनका साथ रहने से और साथ छूटने पर भी जीवन कोयले की तरह कलुषित होता है |

हकीम लुकमान अक्सर अपने बेटे को संगत के बारे में बताते रहते थे , लेकिन वह नादाँन  उनकी बातो को समझता नही था | एक दिन हकीम लुकमान ने अपने बेटे को पास बुलाया और कहा -- बेटा , आज मैं तुम्हे समझाउंगा कि अच्छी या बुरी संगत हमारे व्यक्तित्व पर किस तरह असर डाल सकती है |
अच्छा यह बताओ कि सामने जो धूपदान रखा है , उसमे क्या है ? बेटा बोला - अब्बा , हुजुर उसमे तो चन्दन का चूरा है |हकीम लुकमान बोले - तुमने बिलकुल ठीक कहा | अब ऐसा करो कि एक मुठ्ठी चूरा ले आओ | यह सुनकर बेटा धूपदान में से एक मुठ्ठी चन्दन का चूरा ले आया | इसके बाद हकीम लुकमान ने सामने चूल्हे में पड़े बुझे हुए कोयले की ओर इशारा करते हुए बेटे से कहा -- ' अब दूसरे हाथ की मुठ्ठी में थोडा कोयला भी ले आओ | बेटा कोयला भी लेकर आ गया | तब हकीम लुकमान ने अपने बेटे से कहा - अब तुम ऐसा करो कि इन दोनों चीजो को वापस इनकी जगह रख  आओ | बेटे ने वैसा ही किया और आ कर पुन: अपने पिता के पास खड़ा हो गया | तब हकीम लुकमान ने उससे पूछा - ' क्या तुम्हारे हाथ में अब भी कुछ है ? बेटा  बोला - नही अब्बा , मेरे तो दोनों हाथ खाली  है | हकीम लुकमान ने कहा -- नही बेटा , ऐसा नही है | तुम अपने हाथो को गौर से देखो , तुम्हे इनमे पहले के मुकाबले कुछ फर्क नजर आयेगा | बेटे ने अनुभव किया कि जिस हाथ में वह चन्दन का चुरा लेकर आया था , उससे अब भी चन्दन की महक आ रही थी , जबकि जिस हाथ से कोयला रखा , उसमे कालिख लगी है | इसके बाद हकीम लुकमान ने कहा - बेटा , चन्दन का चूरा अब भी तुम्हारे हाथ को खुशबु दे रहा है , जबकि कोयले का टुकडा तुमने जिस हथेली में लिया , वह काली  हो गयी और उसे फेंक देने के बाद भी तुम्हारी हथेली काली है | यही है अच्छी और बुरी संगत का असर | दुनिया में कुछ लोग चन्दन की तरह होते है , जिनके साथ जब तक रहो , तब तक हमारा जीवन महकता रहता है और उनका साथ छुट जाने पर भी वह महक हमारे जीवन से जुडी रहती है | वही कुछ लोग ऐसे भी होते है . जिनका साथ रहने से और साथ छूटने पर भी जीवन कोयले की तरह कलुषित होता है |

Thursday, February 19, 2015

विवेकशीलता -------------------------------- 20-2-15

विवेकशीलता


एक गाँव में एक कथावाचक पंडित रहता था | उसके चार बेटे थे और चारो ही बिलकुल नालायक | एक दिन पंडित को एक श्रद्दालु ने कथावाचन के उपरान्त ढेर सारा धन व उपहार देकर विदा किया | यह देख उसके बेटो ने भी कथावाचक बनने की सोची | पंडित ने पुत्रो को समझाया कि इसके लिए पहले घोर अध्ययन जरूरी है , तभी तुम कथावाचन के लायक बन सकोगे | लेकिन पुत्र नही माने और पडोस के गाँव के मुखिया के यहाँ कथा वाचन करने निकल पड़े | पंडित ने यह देख अपने विश्वासपात्र नाई को उनके साथ भेज दिया | पंडित जानता था कि यदि कुछ ऊँच - नीच हुई तो नाई बात को सम्भाल सकता है |
मुखिया के घर पहुचकर उन्होंने कथा कुछ यू प्रारम्भ की | पहला बोला ' राजा पूछेगे तो क्या बोलूंगा | ' दूसरा बोला ' जो तेरी गति सो मेरी गति | ' तीसरे ने कहा -- ' ये चतुराई कितने दिन चले | ' चौथा बोला -- जितने दिन चले , उतने दिन चले | ' मुखिया समेत गांववालों ने उनसे कहा -- कृपया इन बातो का आशय भी बता दे ? इस पर चारो भाई चुप ! यह देखकर मुखिया नाराज हो गया और उसने अपने आदमियों से कहा कि ये पोंगा पंडित हमे मुर्ख बना रहे है | इन्हें पीटकर गाँव से बाहर खदेड़ दो | तब उनके साथ गया नाई बोला -- ' इन चारो ने गूढ़ ज्ञान की बाते कही है | जो आम लोगो की समझ से बाहर है | पहले पंडित के कथन ' राजा पूछेगे तो क्या बोलूँगा का सन्दर्भ है कि सुमंत जब राम से अयोध्या वापस चलने का अनुरोध करने लगे और रामजी ने वापिस जाने से इंकार किया , तब सुमंत ने रामजी से पूछा कि यदि महाराज दशरथ पूछेगे तो मैं क्या जबाब दूंगा ? दूसरे कथन ' जो तेरी गति , सो मेरी गति का अर्थ है कि जब सुग्रीव विभीषण से मिले तो उनसे बोले की तुम्हारी जैसी ही मेरी गति है | तुम भी भाई के मरने के बाद राजा बने और मैं भी | तीसरे और चौथे  पंडित के कथन रावण -- मदोदरी के सम्वाद का हिस्सा है | ये चतुराई कितने दिन चले का तात्पर्य तब से है जब मदोद्दरी ने रावण से पूछा कि सीता को आपने जो यहाँ बंदी बना कर रखा है , ये कब तक चलेगा | तब रावण ने कहा कि ' जब तक चलेगा . तब तक चलेगा ! ये बात मुखिया और गांववालों को भा गयी और उन्होंने चारो को धन देकर गाँव से विदा किया | इस तरह नाई ने अपनी चतुराई से उन चारो की लाज बचाई | इसके बाद उन चारो ने प्रण लिया कि वे दूसरो को उपदेश देने से पहले खुद घोर अध्ययन कर ज्ञानार्जन करेगे |

Wednesday, February 4, 2015

संत रैदास --- 5-2-15

संत रैदास ---






रैदास के गुरु है रामानन्द जैसे अदभुत व्यक्ति और रैदास की शिष्या है मीरा जैसी अदभुत नारे | इन दोनों के बीच में रैदास की चमक अनूठी है |


रैदास कबीर के गुरुभाई है  | रैदास और कबीर दोनों एक ही संत के शिष्य है | रामानन्द गंगोत्री है जिनसे कबीर और रैदास की धाराए बही है ......... भारत का आकाश संतो के सितारों से भरा है | अनंत - अनंत सितारे है , यद्दपि ज्योति सबकी एक है | संत रैदास उन सब सितारों में ध्रुवतारा  है -- इसीलिए कि शुद्र के घर में पैदा होकर भी काशी के पंडितो को भी मजबूर कर दिया स्वीकार करने को | महावीर का उल्लेख्य नही किया ब्राह्मणों  ने अपने शास्त्रों में | बुद्द की जड़े काट डाली | बुद्द के विचार को उखाड़ फेंका | लेकिन रैदास में कुछ बात है कि रैदास को नही उखाड़ सके और रैदास को स्वीकार भी करना पडा | ब्राह्मणों के द्वारा लिखी गयी संतो की स्मृतियों में रैदास सदा स्मरण किये गये | चमार के घर में पैदा होकर भी ब्राह्मणों ने स्वीकार किया वह भी काशी के ब्राह्मणों ने ! बात कुछ अनेरी है , अनूठी है |


रैदास में कुछ रस है , कुछ सुगंध है जो मदहोश कर दे | रैदास से बहती है कोई शराब , कि जिसने पी वही डोला | और रैदास अड्डा जमा कर बैठ गये थे काशी में , जहा कि सबसे कम संभावना है ; जहा का पंडित पाषाण हो चुका है | सदियों का पांडित्य व्यक्तियों के हृदय को मार  डालता है , उनकी आत्मा को जड़ कर देता है | रैदास वहा  खिले , फूले | रैदास ने वहा हजारो भक्त इकठ्ठा कर लिया | और छोटे - मोटे भक्त नही , मीरा जैसी अनुभूति को उपलब्ध महिला ने भी रैदास को गुरु माना | मीरा ने कहा है : गुरु मिल्या रैदास जी ! कि मुझे गुरु मिल गये रैदास | भटकती फिरती थी ; बहुतो में तलाश था लेकिन रैदास को देखा कि झुक गयी | चमार के सामने राज रानी झुके तो बात कुछ रही होगी | वह कमल कुछ अनूठा रहा होगा ! बिना झुके न रहा जा सका होगा | रैदास कबीर के गुरु भाई है | रैदास और कबीर दोनों एक ही संत के शिष्य है | रामानन्द गंगोत्री है जिनसे कबीर और रैदास की धारा बही है | रैदास के गुरु है रामानन्द जैसे अदभुत व्यक्ति और रैदास की शिष्या है अदभुत नारी | इन दोनों के बीच में रैदास की चमक अनूठी है |

रामानन्द को लोग भूल ही गये होंगे अगर रैदास और कबीर न होते | रैदास और कबीर के कारण रामानन्द याद किये जाते है | जैसे फल से वृक्ष पहचाने है वैसे शिष्यों से गुरु पहचाने जाते है | रैदास का अगर एक भी वचन न बचता और सिर्फ मीरा का यह कथन बचता , गुरु मिल्या रैदास जी , तो काफी था | कयोकी जिसको मीरा गुरु कहे , वह कुछ ऐसे - वैसे को गुरु न कह देगी | जब तक परमात्मा बिलकुल साकार न हुआ हो तब तक मीरा किसी को गुरु न खे देगी | कबीर को भी मीरा ने गुरु नही कहा है | रैदास को गुरु कहा | इसीलिए रैदास को मैं कहता हूँ , वे भारत के संतो से भरे आकाश  में ध्रुवतारा है | ----  ओशो

Tuesday, February 3, 2015

जिज्ञासा -------------- 4-2-15

जिज्ञासा --------------



सूफी संत बुल्लेशाह के पास एक नौजवान आया और बोला , हुजुर , मैंने जीवन में अनेक काम किये . लेकिन कही भी सफलता नही मिली | मैं ऐसी जिन्दगी से बहुत ही निराश हो चुका हूँ  | मुझे जीवन में श्रेष्ठ बनने का कोई उपाए बताये | इस पर बुल्लेशाह ने कहा - जीवन में यू ही श्रेष्ठ नही बना जाता है  |  इसके लिए एकाग्रचित भाव से बड़ी साधना करनी पड़ती है . तभी कोई इंसान बुलन्दियो को छू सकता है |
यदि तुम अपने जीवन ने कुछ बड़ा हासिल करना चाहते हो तो इसके लिए बड़ा लक्ष्य बनाओ | अपने ह्रदय को महत्वाकाक्षा और उंचाइयो के स्वप्नों से भर लो | बगैर लक्ष्य और महत्वाकाक्षा के संयोग से तुम श्रेष्ठ व्यक्ति नही बन सकोगे , क्योकि उसके आभाव में तुम आंतरिक एकाग्रता से वंचित रहोगे | जो व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्तियों को एकत्र करके जीवन - जगत के सर्वाधिक म्हत्ब्व्पूर्ण लक्ष्य की सतत आकाक्षा करता है . वही श्रेष्ठ व्यक्तित्व विनिर्मित कर पाटा है  |   नौजवान ने संत बुल्लेशाह से कहा -- मैं ऐसा करना तो चाहता हूँ , पर यह होगा कैसे  ? बुल्लेशाह ने उत्तर दिया -- जमीन में दबे हुए बीज को देखो | वह किस भाँती अपनी साड़ी शक्तियों को एकत्र कर भूमि को भेदकर उपर उठता है | सूर्य के दर्शन की प्रबल महत्वाकाक्षा उसे अंकुर बनाती है | इसी से प्रेरित होकर वव स्वंय की क्षुद्रता से बाहर आता है | विराट को पाने के लिए कुछ ऐसी ही महत्वाकाक्षा की जरुरत है | इसके बाद उन्होंने उस नौजवान को समझाते हुए कहा -- अपनी आंतरिक शक्तियों की एकता . मन की सम्पूर्णता एकाग्रता के द्वारा स्वंय की क्षुद्रताओ को तोड़ दो | जब ऐसा होगा , तब जीवन व जगत में जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है , उसे पाने की आकाक्षा स्वंय ही पूरी हो जाएगा | यह सुनने के बाद नौजवान को जीवन के प्रति नया नजरिया मिला और  वह संत बुल्लेशाह को प्रणाम कर वह से चला गया | यू देखा जाए तो महत्वाकाक्षा की सही समझ बहुत कम को हो पाती है | इसे समझने के लिए मन को निर्मल , चिंतन को केन्द्रित एवं विचारों को व्यापक बनाना होगा

Monday, February 2, 2015

1857 के महासमर के प्रथम राष्ट्रगीत के रचनाकार -अजीमुल्लाह खान ---- 3-2-15

1857 के महासमर के प्रथम राष्ट्रगीत के रचनाकार -अजीमुल्लाह खान


अजीमुल्लाह खान
1857 के महासमर के महान राजनितिक प्रतिनिधि और प्रथम राष्ट्रगीत के रचनाकार उनका जीवन ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष में बीता और उनका उद्देश्य निसंदेह राष्ट्रीय था | इसका सबूत अजीमुल्लाह द्वारा रचित देश के प्रथम राष्ट्र गीत में भी उपलब्ध है | मगर अफ़सोस है की इस राष्ट्रगीत को महत्व नही मिल पाया और न ही वह पाठ्य पुस्तको में ही जगह पा सका | लेकिन यह गीत प्रथम राष्ट्र गीत का दर्जा पाने में हर तरह से उपयुक्त है |
अजीमुल्लाह खान ने 1857 के स्वतंत्रता समर में संभवत: कोई लड़ाई नही लड़ी पर वे उसके प्रमुख राजनितिक सूत्रधार जरुर थे |उनके जीवन के बारे में ज्यादा जानकारिया नही मिल पायी है |राजेन्द्र पटोरिया की पुस्तक "50 क्रांतिकारी और इंटरनेट से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार अजीमुल्लाह खान का पूरा नाम अजीमुल्लाह खान युसूफ जई था | नाना साहेब के प्रथम सलाहकार नियुक्त किए जाने के बाद उन्हें दीवान अजीमुल्लाह खान के नाम से जाना गया | फिर बाद का दौर में 1857 के महासमर वजूद एक रणनीतिकार के रूप में उन्हें क्रान्ति --दूत अजीमुल्लाह खान कहकर पुकारा गया |
1857 के स्वतंत्रता समर की रणनीति कब व कैसे बनी , हिन्दुस्तान में बनी या लन्दन में बनी , आदि जैसे प्रश्नों पर इतिहास में कोई एक सुनिश्चित मत नही है पर यह बात इतिहास में मान्य है की इस रणनीति को बनाने और बढाने में अजीमुल्लाह खान का महत्वपूर्ण योगदान जरुर था | अजीमुल्लाह खान का जन्म 1820 में कानपुर शहर से सटे अंग्रेजी सांय छावनी के परेड मैदान के समीप पटकापुर में हुआ था | उनके पिता नजीब मिस्त्री मेहनत मशक्कत करके बड़ी गरीबी का जीवन गुजार रहे थे | अजीमुल्लाह खान की माँ का नाम करीमन था | सैन्य छावनी व परेड ग्राउंड से एकदम करीब होने के कारण अजीमुल्लाह खान का परिवार अंग्रेज सैनिको द्वारा हिन्दुस्तानियों के प्रति किए जाने वाले दुर्व्यवहारो का चश्मदीद गवाह और भुक्त भोगी भी था |
एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने नजीब मिस्त्री को अस्तबल साफ़ करने को कहा | मना करने पर उसने नजीब को छत से नीचे गिरा और फिर उपर से ईट फेककर मारा भी |परिणाम स्वरूप नजीब छ: माह बिस्तर पर रहकर दुनिया से कूच कर गये | माँ करीमन और बालक अजीमुल्लाह खान बेसहारा होकर भयंकर गरीबी का जीवन जीने के लिए मजबूर हो गये || करीमन बेगम अथक परिश्रम से अपना और बेटे का पेट पाल रही थी | फलस्वरूप वे भी बीमार रहने लग गयी | अब 8 वर्ष के बालक अजीमुल्लाह के लिए दुसरो के यहा जाकर काम करना मजबूरी बन गया | अजीम के पडोसी मानिक चंद ने बालक अजीमुल्लाह को एक अंग्रेज अधिकारी हीलर्सड़न के घर की सफाई का काम दिलवा दिया | बालक अजीमुल्लाह ने एक घरेलू नौकर के रूप में अपने जीवन की शुरुआत की | दो वर्ष बाद यानी 9 वर्ष की उम्र में उनकी माँ का भी इन्तकाल हो गया |
अब अजीमुल्लाह
हीलर्सड़न के यहा रहने लगे | हीलर्सड़न और उनकी पत्नी सहृदय लोग थे | उनके यहा अजीमुल्लाह नौकर की तरह नही बल्कि परिवार के एक सदस्य के रूप में रह रहे थे | घर का काम करते हुए उन्होंने हीलर्सड़न के बच्चो के साथ इंग्लिश और फ्रेंच सीख ली | फिर बाद में हीलर्सड़न की मदद से उन्होंने स्कूल में दाखिला भी ले लिया स्कूल की पढ़ाई समाप्त होने के पश्चात हीलर्सड़न की सिफारिश से उसी स्कूल में उन्हें अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी |स्कूल में अध्यापको के साथ अजीमुल्लाह खान मौलवी निसार अहमद और पंडित गजानन मिश्र से उर्दू , फ़ारसी तथा हिन्दी , संस्कृत सिखने में लगे रहे | इसी के साथ अब वे देश की राजनितिक , आर्थिक तथा धार्मिक , सामाजिक स्थितियों में तथा देश के इतिहास में भी रूचि लेने लग गये . उसके विषय में अधिकाधिक जानकारिया लेने और उसका अध्ययन करने में जुट गये | इसके फलस्वरूप अब अजीमुल्लाह खान कानपुर में उस समय के विद्वान् समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गये | उनकी प्रसिद्धि एक ऐसे विद्वान् के रूप में होने लगी जो अंग्रेजी रंग में रंगा होने के वावजूद अंग्रेजी हुकूमत का हिमायती नही था
यह प्रसिद्धि कानपुर के समीप विठुर में रह रहे नाना साहेब तक पहुची | गवर्नर जनरल डलहौजी की हुकूमत ने बाजीराव द्दितीय के दत्तक पुत्र होने के नाते नाना साहेब की आठ लाख रूपये की वार्षिक पेंशन बंद कर दी थी |उन्होंने अजीमुल्लाह खान को अपने यहा बुलाया और अपना प्रधान सलाहकार नियुक्त कर दिया | अजीमुल्लाह खान ने वहा रहकर घुडसावारी और तलवारबाजी एवं युद्ध ककला भी सिखा | बाद में नाना साहेब की पेंशन की अर्जी लेकर इंग्लैण्ड पहुचे | इंग्लैण्ड में अजीमुल्लाह खान की मुलाक़ात सतारा के राजा के प्रतिनिधि रंगोली बापू से हुई | रंगोली बापू सतारा के राजा के राज्य का दावा पेश करने के लिए लन्दन गये हुए थे | सतारा के राजा के दावे को ईस्ट इंडिया कम्पनी के ' बोर्ड आफ डायरेक्टर ' ने खारिज कर दिया | अजीमुल्लाह खान को भी अपने पेंशन के दावे का अंदाजा पहले ही हो गया | अतत: वही हुआ भी | बताया जाता है की रंगोली बापू के साथ बातचीत में अजीमुल्लाह खान ने इन हालातो में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह की अनिवार्यता को जाहिर किया | फिर इसी निश्चय के साथ दोनों हिन्दुस्तान वापस लौटे | अजीमुल्लाह खान वहा से टर्की की राजधानी कुस्तुन्तुनिया पहुचे | फिर रूस पहुचे |उन दिनों रूस व इंग्लैण्ड में युद्ध जारी था | कहा यह भी जाता है की अजीमुल्लाह खान अंग्रेजो के विरुद्ध रूसियो से मदद लेने का भी प्रयास कुछ प्रयास भी किया था |
इतिहास की इन अपुष्ट सूचनाओं के साथ इतना निश्चित है की अजीमुल्लाह खान के हिनुस्तान लौटने के बाद ही 1857 में महासमर की तैयारी में तेजी आई हिन्दुस्तानी सैनिको में विद्रोह की ज्वाला धधकाने के लिए सेना में लाल कमल घुमाने तथा आम जनता में चपाती घुमाने के जरिये विद्रोह का निमंत्रण देने के अपुष्ट पर बहुचर्चित प्रयास तेज हुए |
बाद का इतिहास 1857 के महा समर का इतिहास है |युद्ध का इतिहास अजीमुल्लाह खान के राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र के प्रति समर्पण का भी इतिहास है | उनकी मृत्यु के बारे में उद्धत पुस्तक से मिली सूचना यह है की अजी मुल्लाह खान अंग्रेजी सेना के विरुद्ध लड़ते हुए कानपुर के पास अहिराना में मारे गये | इंटरनेट से मिली सूचना यह है की नाना साहेब की हार और फिर नेपाल जाने के साथ अजीमुल्लाह खान भी नेपाल पहुच गये थे | वहा 1857 के अन्त में यानी 39 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया | उनकी मृत्यु कैसे भी हुई हो पर निश्चित तौर पर उनका जीवन ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष में बीता और उसका उद्देश्य नि:संदेह राष्ट्रीय था | इसका सबूत अजीमुल्लाह द्वारा रचित देश का प्रथम राष्ट्र गीत में भी उपलब्ध है |अफ़सोस हैकि इस राष्ट्रगीत को महत्व नही मिल पाया और न ही पाठ्य पुस्तको में ही जगह पा सका |
-सुनील दत्ता

पत्रकार

साभार राजेन्द्र पटोरिया की पुस्तक 50 क्रांतिकारी ।

Sunday, February 1, 2015

सम्पूर्ण दुनिया के ह्रदय में है गंगा 2-2 15

सम्पूर्ण दुनिया के ह्रदय में है गंगा


अपना भारत सारी दुनिया में न्यारा कुदरत ने हमारे देश को भिन्न - भिन्न  स्वरूपों से सजाया और सवारा है | नदी  नाद का सुख अप्रतिम  | नदिया बहती है , यो ही | निरुद्देश्य गतिशील | नाद करते हुए | अथर्वेद के ऋषि ने गया है -- हे सरिताओ , आप नाद करते हुए बहती है , इसीलिए आपका नाम नदी पड़ा | नदिया भारत के मन का सरगम है , अपनी गति लय में | वे पवित्र है , पवित्र  करती  भी है |

वैदिक ऋषियों ने उन्हें '' पुनाना '' कहा है | बहती है धरती पर , लेकिन भारत के मन और प्रज्ञा को भी सींचती रहती है | गंगा ऐसी ही नदी है | गंगा ऋग्वेद में है | पुराण कथाओं में है | रामायण व महाभारत में है | काव्य . गीत . संगीत सहित सभी ललित कलाओं में है | सिनेमा में भी है | गंगा जैसी ख्यातिनामा नदी विश्व में दूसरी नही है | वे धरती पर बहती है . आकाश की धवल नक्षत्रावली भी आकाश गंगा कही जाती है | वे भारत का सांस्कृतिक प्रवाह है | वे मुक्तिदायनी है |  861404 वर्ग किमी में विस्तृत गंगा का क्षेत्र भारत की सभी नदियों के क्षेत्र से बड़ा है और दुनिया की नदियों में चौथा | 2525 किमी लम्बा यह क्षेत्र देश के पांच राज्यों उत्तराखंड , उत्तर प्रदेश , बिहार , झारखंड और पश्चिम बंगाल तक फैला हुआ है | गंगा तट पर सौ से ज्यादा आधुनिक नगर और हजारो गाँव है | देश की लगभग 40 % जनसख्या गंगा क्षेत्र में रहती है | देश का 47% सिंचित क्षेत्र गंगा बेसिन में है | पयेजल , सिच का पानी और आस्था स्नान में गंगा की अपरिहार्यता है | लेकिन यही गंगा तमाम बांधो , तटवर्ती नगरो के सीवेज और औधोगिक कचरे व शवो को धोने के कारण आज मरणासन्न है |

गंगा भारत का अन्तस् प्रवाह है | हमेशा चर्चा में रहती है | कभी सुख जाने की आशका में तो प्राय: अविरल निर्मल गंगा की भारतीय अभीप्सा में  पिछले दिनों यही गंगा उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले में सौ से उपर शव ढोकर ले आई | हडकम्प मचा | शासन और देश सन्न है | गंगाजल पवित्रता का पर्याय रहा है , लेकिन गंगा में शव डाले जाते है | अधजले शव और पूरे के पूरे भी | नदियों में शव डालने की परम्परा प्राचीन नही है | इसका उल्लेख्य वेदों में नही है | वैदिक ऋषि नदियों को माँ | उन्होंने जल को बहुवचन माताए  कहा है | ऋग्वेद में शव के अग्निदाह का स्पष्ट उल्लेख है | स्तुति है कि हए अग्नि , इस आत्मा को कष्ट दिए बिना संस्कार सम्पन्न करे | इसकी देह को भस्मीभूत करे और इसे पितरो के पास भेज दे शरीर अनेक मुलभुत तत्वों से बनता है | आगे भावप्रवण स्तुति है -- आँखे सूर्य से मिले और प्राण मिले वायु से | अग्नि से प्रार्थना है कि मृतक के अज भाग को आप तेज तपाये , प्रखर बनाये | फिर इसे दिव्य लोक में ले जाए | मृतक के डाह संस्कार से पृथ्वी स्थल दग्ध होता है | वनस्पतिया क्षतिग्रस्त होती है | इसीलिए अंत में अग्नि से ही प्रार्थना  है कि आपने जिस भूस्थल को दग्ध किया है उसे तापरहित  बनाये | यहाँ फिर से घास उगे | पृथ्वी पहले जैसी हो जाए | शव का अग्निदाह वैदिक परम्परा है | शव के नदी प्रवाह की परम्परा होती तो जल से स्तुतिया होती कि इसे अपने साथ ले जाए | इसके शरीर के सड़ने से हे जल आपको कष्ट न हो , आदि | लेकिन शव का  जल प्रवाह के वेदकालीन परम्परा नही है | वैदिक साहित्य में शव के जल प्रवाह के विवरण नही है , लेकिन भूमि में शव को गाड़ने के संकेत ऋग्वेद में है | यहाँ मृतक से प्रार्थना है कि आप सर्वव्यापिनी पृथ्वी माता की गोद में विराजमान हो | ये पृथ्वी माता कोमल वस्त्रो के स्पर्श वाली सभी ऐश्वर्य स्वामिनी है | फिर पृथ्वी से स्तुति है -- हे  पृथ्वी माँ , जिस तरह माता पुत्र को आँचल से ढकती है , उसी तरह इसे आप सब ओर से आच्छादित करे | वैदिक पूर्वजो का जल के साथ रागात्मक नेह रहा है | वे धरती पर प्रवाहित जल को जीवन जानते रहे है |वे भूगर्भ जल के प्रति सचेत रहे है | आकाशचारी मेघो पर उनकी नेह दृष्टि रही है | अविरल जल प्रवाह वैदिक समाज की अभीप्सा रही है | इसलिए पूर्वज नदी में शव प्रवाह करने की बात सोच भी नही सकते थे | गंगा समूचे भारतीय इतिहास में उपास्य और माँ है | गंगा अर्पण , तर्पण और श्रद्दा समर्पण का प्रवाह है , लेकिन हम भारत के लोगो ने अपने  आचरण से ही उनका अस्तित्व  खतरे में डाल दिए है | गंगा सहित सभी नदियों को पुन्नर्वा नवयौवन  देना भारतीय जनगणमन की गहन आकाक्षा होकर ही   है | साधू संत व धर्माचार्य शंकराचार्यों को हुंकार भरने की आवश्यकता है | गंगा , यमुना सहित सभी नदियों में शव सहित सभी प्रदुषणकारी  वस्तुओ को डालने की प्रथा के विरुद्द अभियान चलाए | गंगा में शव डालना दो तरफा निर्ममता है | हम अपने प्रियजन परिजन के शव को जलीय जीव - जन्तुओ के हवाले कैसे कर सकते है ? हम अपनी श्रद्दा , आस्था और प्रणम्य नदियों में प्रियजनों के सड़ते - नहते शव कैसे ब्र्धाशत कर सकते है ? परम्परा कालवाह्य अकरणीय रूढी बनती है |
इसी क्रम में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उत्तर प्रदेश किसान सभा के अध्यक्ष कामरेड इम्तेयाज बेग ने सवाल खड़ा किया '' गंगा को निर्मल बनाने का जो नारा दिया जा रहा है वह तब तक साकार नही हो सकता है जब तक गंगा सहित तमाम बड़ी नदियों से करोड़ो लीटर प्रतिदिन बंद बोतल के पानी पर रोक लगना चाहिए . तमाम औद्योगिक प्रतिष्ठानो के दूषित पानी पाइप द्वारा जो तीस चालीस फूट नीचे जमीन के अन्दर डाले जाने वाले पानी पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए इसके अतिरिक्त हमारे पूर्वजो ने अपने गाँव - शहरों में बड़े जलाशय बनवाये थे आजादी के बाद उन जलाशयों को पाटकर बड़े लोगो ने उस पर अट्टालिका बनवा लिया उसको पुन: उसी स्थिति में लाकर वर्ष के पानी को सिंचित किया जाए ताकि पानी की किल्लत खत्म हो सके | तब जाकर देश के छोटी बड़ी नदियों में पानी होगा और तब गंगा से कावेरी तक निर्मल व  स्वच्छ जल अविरल बहता रहेगा |

सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक     --------------- साभार -- काशी वार्ता




क्रान्तिकारियो महापुरुषों को जातीय आधार में बाटना खतरनाक है ..... 1-2-15


क्रान्तिकारियो महापुरुषों को जातीय आधार में बाटना खतरनाक है ......



विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता की सीढिया चढ़ रहे बच्चो के प्रति उनके अभिभावकों और शुभचिंतको का खुश होना एक दम स्वाभाविक है | सफलता की खुशियों में घर परिवार से लेकर मित्रो परिचितों आदि की किसी न किसी रूप में भागीदारी भी जरुर होती है | यह सब स्वाभाविक रूप से पहले भी चलता रहा है और अब भी चल रहा है | हां इन खुशियों का आज जैसा प्रचार माधय्मी प्रदर्शन पहले एक दम नही था |क्योंकि आज से 20 -- 25 साल पहले तक न ही ऐसे प्रचार माध्यम थे और न ही उन सफलताओं का श्रेय अपने कोंचिंग सेंटर या संस्थान को दिलाने लोग थे | बताने की जरूरत नही की ये लोग घर परिवार या मित्र मण्डली से अलग होते हुए भी ऐसे प्रदर्शनों में सबसे आगे रहते है ताकि प्रतिभागियों की सफलता का इस्तेमाल अपने कोचिंग विजनेस के विकास विस्तार में कर सके | इसके अलावा अब सफलता की खुशियों के आयोजनों में एक नए चलन की भी शुरुआत हो गयी है | विभिन्न जातीय संगठनों और उनके पदाधिकारियों द्वारा अपनी जाति के सफल युवको \ युवतियों को सामाजिक रूप से सम्मानित करने की नयी परम्परा चलने लग गयी है परिवारजनों के साथ कोंचिंग सेंटर के टीचर आदि का ऐसे अवसरों पर शामिल होना तो फिर भी किसी बच्चे की सफलता में उनके योगदान का एक परिलक्षण होता है | इसे सफलता प्राप्त किए बच्चे अक्सर अपने माता -- पिता व टीचरों के योगदान के रूप में कबूलते है | पर विभिन्न जातियों के जातीय संगठनों द्वारा अपनी जाति के सफल प्रतिभागियों के सम्मानित किए जाने वाले आयोजनों का कोई औचित्य नही है | अगर कोई औचित्य है तो , शुद्ध रूप से इस्तेमाली है | वह जातीय संगठनों को बढावा देने के लिए इन प्रतिभागियों और उनकी सफलताओं का इस्तेमाल मात्र है | सच्चाई यह है की किसी सफल प्रतिभागी को सफलता की उंचाइयो पर पहुचाने में केवल उसी के धर्म या जाति के लोगो का उसी जाति के टीचरों का या फिर प्रतिभागियों को विभिन्न रूप में मिले अन्य सेवाओं में उसी धर्म जाति के लोगो का हाथ नही होता है | वर्तमान दौर में तो ऐसा कदापि संभव नही है | किसी को सफलता दिलाने में बहुतेरे ज्ञात , अज्ञात लोगो का नीचे से उपर तक के लोगो का हाथ होता है | इसका सम्बन्ध उसके धर्म व जाति या आगे बढकर कहे तो उसके क्षेत्र व राष्ट्र के लोगो तक सीमित नही रहता | उदाहरण आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान का लगभग समूचा ज्ञान मुख्यत: यूरोपीय वैज्ञानिकों , विद्वानों खोजकर्ताओं की देन है | इसे हम नकार नही सकते है | इसी तरह से प्रत्यक्ष रूप में परिवार के लोगो , शुभचिंतको टीचरों के योगदान को भी नही नकार सकते लेकिन किसी धर्म जाति विशेष के धार्मिक या जातीयता संगठन के योगदान को जरुर नकारा जा सकता है क्योंकि वह कोई ऐसा योगदान है ही नही | अगर किसी जाति विशेष के साथ उदाहरण दलित जातियों के साथ किसी हद तक ऐसा कुछ रहा भी है तो अब वह उस रूप में बहुत कम है और वह लगातार घटता जा रहा है | इसके वावजूद सफल प्रतिभागियों को लेकर अपने जातीय गौरव , जातीय कल्याण उथान का प्रदर्शन करने में मंचो पर विभिन्न जातियों के अनपढ़ या कम शिक्षित लोग मौजूद रहते है | ऐसे में लोग स्वंय भी जातीय संगठनों द्वारा बन्दन, अभिनन्दन हासिल किए रहते है | यही काम अब जातीय संगठनों के मंचो से स्वतंत्रता आन्दोलन के शहीदों , क्रान्तिकारियो के साथ किया जाने लगा है | जाति के नाम पर उनकी स्मृतिया मनाने का काम किया जा रहा है | इसके जरिये उन्हें अपनी जाति के ( न की समूचे राष्ट्र व समाज के ) क्रांतिकारी नेता के रूप में परिलक्षित करने का काम किया जा रहा है | यह क्रान्तिकारियो को याद करना तथा उनका अभिनन्दन करना नही है | उनके कद को बढाना भी नही है | बल्कि उन्हें जातीयता के खांचे में डालकर उनके राष्ट्रीय कद को छोटा या संकुचित कर देना है | आखिरकार उनके त्याग , बलिदान विशिष्ट जातीय हितो के दायरे में कदापि सीमित नही होते | वे व्यापक होते है | राष्ट्र व व्यापक समाज के हित में होते है |
सफल प्रतिभागियों के बारे में भी यह बात इस रूप में कही जा सकती है की वे किसी जाति या धर्म के सदस्य के रूप में सफलताए नही अर्जित करते | बल्कि समाज की व्यापक उपलब्धियों के आधार पर तथा विभिन्न धर्म व जाति के लोगो के शाह्ता सहयोग से सफलता पाते रहते है | अत: उन्हें अपने धर्म जाति के रूप में गौरवान्वित करने की चल रही यह परम्परा कत्तई ठीक नही है | बल्कि सफल प्रतिभागियों के या किन्ही क्षेत्र में सफलता अर्जित किए व्यक्तियों के स्वस्थ व जनतांत्रिक विकास की विरोधी है और उसे ग्रसित करने वाली भी है |
-सुनील दत्ता ...........