Sunday, July 21, 2019

मेरठ बगावत के एक महीने बाद

तहरीके जिन्होंने जंगे - आजादी - ए - हिन्द को परवान चढाया

लहूँ बोलता भीं हैं


मेरठ बगावत के एक महीने बाद
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देघर बिहार के रोहणी में 12 जून 1857 को पांचवी देशी घुड़सवार सेना के कुछ जवानो ने बगावत कर दी | बिहार सूबे में सन 1857 की यह पहली वारदात थी | बागी सैनिको ने नौकरशाहों से बदला लेने के तहत मेजर मैकडोनाल्ड के घर रात 9 बजे अचानक हमला बोलकर वहां मौजूद लेफ्टिनेंट सर नार्मन लेसली और डाक्टर ग्रांट को तलवार से जख्मी करके मार डाला | इस हमले से बुरी तरह घायल मेजर मैकडोनाल्ड बच गया | इस अचानक हमले से अंग्रेज अफसर बौखला गये | सेना की जांच में बागी सैनिको की कयादत करने वाले के रूप में जो नाम सामने आया , वह मेजर इमाम खान का था | वक्ती तौर पर इमाम खान तो पकड़ में नही आये , लेकिन उनके साथ के टीम सैनिक सलामत अली , अमानत अली , और शेख हारून गिरफ्तार कर लिए गये जिन्हें मेहर मैकडोनाल्ड ने खुद ही कोर्ट मार्शल किया और सरकार से कोई आर्डरलिए बिना उन्हें फांसी का हुकम दे दिया | मेजर ने तीनो शहीदों को हाथी पर खड़ाकर पेड़ पर लटकाने के लिए खुद उनके गर्दन में रस्सी बाँधी और हाथी को दौड़ा दिया | इस तरह उन तीनो बहादुरों की सहादत हुई | लेकिन हर कोशिश के बाद भी मेजर इमाम खान को अंग्रेज गिरफ्तार नही कर पाए | सरकार ने उनकी गिरफ्तारी पर इनाम का एलान भी कर दिया | मेजर इमाम खान ने कुछ सैनिको को साथ लेकर देवघर में लेफ्टिनेंट एस सी ए कपूर के घर पर हमला बोलकर कपूर और असिस्टेंट कमिश्नर आर ई रोनाल्ड को मौत के घाट उतार दिया और बंगले में आग लगा दिया | इस हमले में मौजूद तीसरा अफसर ले रैनी घायल हालात में बच निकला | उसे दो सैनिक डोली में बिठाकर दूर एक गाँव में लेकर गये , जहां से उन्ही सैनिको की मदद से रैनी अपने हेडक्वाटर पहुचा | मेजर इमाम खान के बारे में इसके बाद कही कोई खबर नही मिलती | बिहार में सन 1857 की बगावत की कुछ किताबो में से सिर्फ एक जगह मेजर इमाम खान को गोली मारे जाने की बात कही गयी है , लेकिन तारीख और महीना वहां अंदाजन जुलाई सन 1857 लिखा गया है |
पार्ट - 2
भागलपुर में भी अक्तूबर सन 1857 की बगावत की खबर फैली | अंग्रेजी फ़ौज के अफसर सहादत अली का कत्ल हुआ , लेकिन उसके बाद बगावत को दबा दिया | इस कत्ल के इल्जाम में भागपुर के ही अह्दु खान वुद्घू खान , बहादुर खान , याद अली उम्र 16 साल गिरफ्तार किये गये | बगावत में हामिल होने और अंग्रेज अफसर के कत्ल के इल्जाम में चारो मुस्लिम शहीदों को 10 -12 अक्तूबर 1857 को फांसी दे दी गयी | इसी केस में पांच अन्य सैनिको को फांसी दे दी गयी |
पार्ट - 3
मुंगेर जिले के मोहनपुर गाँव में पठान जमींदारों ने अगस्त 1857 में अंग्रेजी जुल्म के खिलाफ बगावत कर दी | उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद करके कचहरी पे हमला कर दिया और सरकारी दस्तावेजो को लुट लिया साथ ही वहां पर आग लगा दिया | इस बगावत के इल्जाम में दस लोग गिरफ्तार करके मुकदमा चलाया गया जिसमे क्रीम खान की पुलिस पिटाई से जेल में मौत हो गयी रज्जू खान को उम्रकैद की सजा हुई | इन पठानों के साथ गाँव के पांच और अन्य लोगो पर मुकदमा चला उनमे से दो को 14 - 14 और - को 9 - 9 साल की सजा हुई |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
साभार -- सैय्यद शाहनवाज हमद कादरी

Saturday, July 20, 2019

होमरूल मूवमेंट

तहरीके जिन्होंने जंगे -आजादी -ए- हिन्द को परवान चढाया
लहूँ बोलता भी हैं
स्वदेशी आन्दोलन
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स्वदेशी आन्दोलन का मकसद था ब्रिटेन में बने सामानों का बाईकाट करना और भारत में बने सामानों को बढावा देकर ब्रिटेन को नुक्सान पहुचना था | इससे हिन्दुस्तानियों को अपने रोजगार का मौका भी मिला | उसी दौरान बंगाल में बंगाल के बटवारे के खिलाफ माहौल गरम होने लगा था | बंगाल के आसपास ये दोनों आन्दोलन एक साथ चले | इससे अंग्रेजो को बहुत नुक्सान हुआ | इस आन्दोलन की कामयाबी को देखते हुए इसके लिए बनाई गयी कमेटियो को महात्मा गांधी के कहने पर जंगे - आजादी के मूवमेंट को तेज करने के लिए कांग्रेस के साथ शामिल कर दिया गया | इस आन्दोलन को मौलाना अबुल कलाम आजाद , अरविन्द घोष रविन्द्रनाथ टैगोर , बाल गंगाधर तिलक की मुश्तरका कयादत माना जाता हैं | दिली और आसपास के इलाको में सैय्यद हैदर राजा की कयादत ने इस आन्दोलन को बखूबी अंजाम दिया | यह आन्दोलन 1905 - 1911 तक चला |
होमरूल मूवमेंट
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अंग्रेजो ने कांग्रेसी नेताओं और आंदोलनकारियो को यह यकीन दिलाया था कि पहली जंगे - अजीम जो की तब तक शुरू हो चुकी थी में अगर भारत के लोग मदद करते है , तो जंगे - अजीम के बाद ब्रिटेन भारत को आजाद कर देगा | इस लालच में उस वक्त कांग्रेस और बाकी तंजीम फंस गयी जो जंगे - आजादी का हिस्सा थी | इस पर पूरी कमेटी दो हिस्सों में बत्ती दिखाई देने लगी | एक गुर इससे मानने पर अदा हुआ था , लेकिन दुसरा गुट इसे ब्रिटेन की चाल समझता था इसलिए इसे मानने से इनकार करके आन्दोलन का दूसरा रास्ता खोजने पर जोर देता था | यही होमरूल मूवमेंट की वजह बनी | सन 1915-1916 के बीच होमरूल लीग बनी | पुणे में होमरूल लीग की कयादत बाल गंगाधर तिलक ने की जबकि मद्रास में होमरूल लीग एनीबेसेंट की कयादत में बनी | बाद में ये दोनों ही कांग्रेस के साथ मिल गयी | इस आन्दोलन का मकसद असलहो या खून -खराबे के बिना ही स्वराज हासिल करना था | इस आन्दोलन में मुसलमानों ने अहम् किरदार निभाया | हालाकि यह आन्दोलन भी और आन्दोलन की तरह बहुत असरदार नही रहा |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

साभार -- सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी

Friday, July 19, 2019

खुदाई खिदमतगार ( लाल कुर्ती मूवमेंट )

तहरीके जिन्होंने जंगे -आजादी -ए- हिन्द को परवान चढाया

लहूँ बोलता भी हैं



गदर मूवमेंट
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भोपाल के बरकतुल्लाह ने सैन -फ्रांसिस्को में गदर पार्टी के नाम से एक तंजीम बनाई | इस तंजीम का मकसद भारत और भारत के बाहर जहाँ भी ब्रिटिश - मुखालिफ तंजीमे थी , उन सबके साथ एक नेटवर्क बनाकर अंडरग्राउण्ड क्रान्ति के जरिये अंग्रेजो को भारत से खदेड़ना था | सैय्यद शाह रहमत ने फ्रांस में रहकर कुछ अंडरग्राउण्ड आन्दोलन शुरू किये थे , लेकिन गदर मूवमेंट कामयाब नही हो सका | गदर के आरोप में बरकतुल्लाह गिरफ्तार हुए और सन 1915 में इसी इल्जाम में फांसी की सजा पाकर शहीद हुए | इसके बाद मुल्क के बाहर गदर पार्टी का काम जौनपुर के सैय्यद मुजतबा हुसैन और फैजाबाद के अली अहमद सिद्दीकी ने मिलकर सम्भाला | मलाया और बर्मा में ब्रिटिश - मुखालिफ बगावत की प्लानिग बनाई गयी लेकिन यह भी किसी वजह से कामयाब नही हो सकी | बगावत के जुर्म में दोनों लोग 1917 में गिरफ्तार किये गये और फांसी पर लटका दिए गये |


खुदाई खिदमतगार
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खान अब्दुल गफ्फार खान ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ताईद में जंगे आजादी की लड़ाई के लिए सीमा सरहद के लोगो को मुकामी पैमाने पर मुत्तहिद करके खुदाई खिदमतगार के नाम से एक तंजीम बनाई जिसकी वर्दी लाल - कुर्ती थी | इसलिए इसे लाल कुर्ती मूवमेंट के नाम से भी जाना जाता हैं | यह आन्दोलन बहुत तेजी से फैला | नतीजन अंग्रेज घबरा गये और उन्होंने खान अब्दुल गफ्फार खान को गिरफ्तार करके तीन साल के लिए कैद कर लिया | इसके बाद तो जैसे खान साहब को मुसीबतों व तकलीफ सहने की आदत सी पड़ गयी
जेल से आकर उन्होंने और ज्यादा मजबूती से पठानों को मुत्तहिद करके मूवमेंट को और तेज कर दिया | सन 1937 में नये आर्डिनेंस के जरिये कराए गये चुनावों में लाल - कुर्ती की ताईद से कांग्रेस पार्टी को अक्सरियत मिली और कांग्रेस ने गफ्फार खान के भाई की कयादत में वजारत बनाई | जो की सन १९४७ तक चली | बाद में उन लोगो को भारत और पाकिस्तान में से किसी एक नये मुल्क के हक में चुनाव करना पडा | चुनाव के नतीजे सीमांत प्रांत को पाकिस्तान में मिलने के हक में हुआ | खान अब्दुल गफ्फार खान ( सरहदी गांधी के नाम से मशहूर थे | सरहदी गांधी नेशनलिस्ट के थे उन्होंने 95 साल की उम्र में से 45 साल तो जेल में बिताए |


प्रस्तुती सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक


आभार - सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी

रेशमी रुमाल तहरीक

लहूँ बोलता भी हैं
तरीके जिन्होंने जंगे - आजादी -ए - हिन्द को परवान चढाया
रेशमी रुमाल तहरीक

आन्दोलन की जानकारी को खुफिया तरीके से एक - दुसरे तक पहुचाने के लिए इस तहरीक का इजाद किया गया था | खिलाफत मूवमेंट व अदमताऊन तहरीक की वजह से अंग्रेज खुफिया एजेंसी के lओग ज्यादातर मुस्लिम इदाय्रो व मजहबी इदाय्रो के आस - पास निगरानी रखने लगे थे | इससे बचकर मूवमेंट की जरूरी मालूमात एक जगह से दूसरी जगह भेजने की यह कारगर तरकीब साबित हुई | इस तहरीक का नाम रेशमी रुमाल तहरीक पडा | इस तहरीक में एक रेशमी रुमाल पर जरी के काम से जरूरी जानकारी को काढा जाता था उसके बाद इसे किसी भरोसेमंद आदमी के जरिये कपड़ो के व्यापारियों ( जो तिजारत की गरज से हिजाज से हिन्दुस्तान आते थे ) के बण्डल में रखकर भेजा जाता था | इस तहरीक व तरीकेकार को इजाद करनेवालों व जंगे - आजादी में अहम् मुकाम रखनेवाले मौलाना महमुदुल हसन मदनी थे जिन्हें शेख - उल -हिन्द के खिताब से जाना जाता था | मदनी साहब के साथ रहते हुए मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी ने इस तहरीक के लिए बहुत मेहनत व जोखिम उठाकर इसे आगे बढाया | मौलाना सिन्धी रेशमी रुमाल तहरीक के जरिये अफगानिस्तान में रहकर मूवमेंट की मजबूती के लिए बहुत जिम्मेदारी से काम को अंजाम दिया | दुसरे मुल्को से हिन्दुस्तान की जंगे - आजादी के मुहीम में मदद के लिए शेख - उल -हिन्द ने मदीने में तुर्की में मिनिस्टर अनवर पाशा से मुलाक़ात की इस मुलाक़ात में उन्होंने मदद का यकीन दिलाया | उनके वायदे के मुताबिक़ ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के लिए एक खुफिया स्कीम तैयार हुई | लेकिन इस पर अमल शुरू होने से पहले ही मदीने में शेख - उल हिन्द को सन 1916 में गिरफ्तार कर लिया गया | वहां से मिस्र होते हुए रोम सागर के एक टापू माल्टा पर कैद कर दिया गया | आपके साथ मौलाना वहीद अहमद व कुछ और लोग ही थे | आपकी गिरफ्तारी व अनवर पाशा के लिखे मदद के हट जो रेशमी रुमाल के जरिये हिन्दुस्तान लाये जा रहे थे उन्हें मुबई में ब्रिटिश हुकूमत के अफसरानो ने पकड़ लिया | उसके बाद इस तहरीक से जुड़े ज्यादातर उलमा गिरफ्तार कर लिए गये | यह तहरीक इसके बाद खत्म हो गयी | शेख - उल हिन्द व उनके साथी लोग को चार साल कैद - बा - मशक्कत की सजा खत्म होने के बाद सन 1920 में रिहा कर दिया गया |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
संदर्भ - सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी

''इंदिरा नेहरु को''

                                                                                                                                        ''इंदिरा नेहरु को''
                                                                                                                                     21 फरवरी , 1933
एक पिता का अपनी पुत्री के नाम पत्र 

प्यारी इंदु ,
कल मैंने तुम्हारे पास दो किताबे भेजी है | एक तो बच्चो की किताब है | इसका नाम ''टूटलिओ '' -- मुझे उम्मीद है कि बच्चो के मतलब की किताबन पाना तुम अपनी बढ़ी हुई शान के खिलाफ नही समझोगी | मैंने यह इसलिए भेजी क्योकि मैंने कही पढ़ी था कि वह बहुत अच्छी है और ''एलिस इन वंडरलैंड '' के मुकाबले की है | एलिस को एक जमाने से पसंद करता रहा हूँ इसलिए मैं एक ऐसी किताब मंगाने के लालच से नही बच सका जो इतनी अच्छी समझी जाए कि अमर एलिस से उसका मुकाबला हो | खैर टूटलिओ बिलकुल मुख्तलिफ है , लेकिन मुझे इसमें मजा आया और बहुत - सी तस्वीरो पर हँसी आये बिना नही रह सकी | मुझे उम्मीद है कि इस किताब ने तुम्हारा और दूसरे बच्चो का दिल बहलाया होगा |
दूसरी किताब है ''बर्नाड शा का नाटक 'सेंट जान '' | क्या तुम्हे याद है कि पेरिस में हमने फ्रांसीसी भाषा में इस नाटक को देखा था , जिसमे एक ठिगनी - सी रुसी महिला दिलकश जीन बनी थी ? बाद में हमने यह नाटक अंग्रेजी में भी देखा था , लेकिन मुझे याद नही कि तब तुम हमारे साथ थी या नही | यह एक बहुत अच्छा नाटक है -- इसके कुछ हिस्से तुम्हे जरा फीके लग सकते है | लेकिन कहानी शानदार है और बार बार पढने लायक है | चूँकि जिन तुम्हारी पुरानी चहेती और नायिका है , तुम इसे पसंद करोगी | किताब में एक नाटक और है , जो शायद तुम्हे पसंद ना आये | दोनों लम्बी भूमिकाये भी शायद तुम्हे फीकी मालूम हो |
तुम अपने काम में मशगुल होगी और इम्तिहान की तैयारी में लगी होगी | फिर भी मैं समझता हूँ कि कभी कभी और किताब पढने के लिए कुछ वक्त निकल लेती होगी | यही वजह है कि मैंने तुम्हारे पास 'सेंट जान' भेजी है |
मम्मी ने मुझे लिखा है कि बिरजू भाई के साथ कोई साहब उनसे मिलने के लिए आस्ट्रिया से आये थे और वह तुम्हे पढ़ाई के लिए फ़ौरन वियना ले जाने को तैयार थे | वियना एक अदभुत खुबसूरत जगह है , वह संगीत का नगर है | वियना वाले बड़े मजेदार लोग होते है लेकिन इस वक्त उनका मुल्क एक भयानक मुसीबत में फंसा है | फूफी ने मुझे बताया कि एक जर्मन महिला जो हाल में आनन्द भवन आकर ठहरी थी , तुम्हारी तालीम के लिए जर्मनी में इंतजाम कर देने के लिए उत्सुक थी | तुम्हारे पिता और माता के अलावा ढेर सारे लोग तुम्हारी भावी शिक्षा में दिलचस्पी लेते दीखते है | शायद किसी दिन , जो ज्यादा दूर नही है , तुम हमको यहाँ किसी कदर अकेला छोड़कर दूर देश जाकर अपनी पढ़ाई करोगी | जेल में लम्बी मुद्दते बिताकर हमने अपने को इसकी ट्रेनिग दे ली है | जो भी हो , हम इसे बेशक बर्दाश्त कर लेंगे क्योकि तुमसे बार बार मिलने और तुमको अपने पास रखने की खुदगर्ज ख़ुशी से कही ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि तुम अच्छी ट्रेनिग हासिल करो और तुम्हे हर मौक़ा मिले ताकि तुम्हारे आगे जो काम हो उसके लिए तुम अपने को तैयार कर सको | लेकिन अभी तो यह सब भविष्य की बात है और इसके बारे में ऐन इसी वक्त हमे परेशान होने की जरूरत नही है | फिलहाल तो तुम्हे अपना मौजूदा काम करते रहना है और इसे अच्छी तरह से करना है ताकि तुम किन्ही इम्तिहानो में या इस तरह की किसी भी चीज पर जो तुम्हारे सामने आये आसानी से सफलता हासिल कर सको | और फिलहाल मुझे देहरादून जेल में बने रहना है |
मगर मैं यह पसंद करूंगा कि अपने भविष्य के बारे में अपने निजी विचार तुम मुझे लिखो | तुम्हे याद होगा कि अपने हाल के एक ख़त में इस बारे में मैंने तुमसे पूछा था | आगे जिन्दगी में तुम अपने लिए क्या काम पंसंद करोगी ? किन विषयों में और किस काम में तुम्हारी दिलचस्पी है ? बेशक जैसे - जैसे हम बड़े होते जाते है , हम इसके बारे में अपनी राय बहुत - कुछ बदलते जाते है | छोटे लड़के के जीवन का आदर्श इंजन का ड्राइवर होता है | लेकिन फिर भी अगर तुम कभी - कभी मुझे लिखती रहो कि तुम्हारे नन्हे से दिमाग में कैसे विचार आ रहे है तो मुझे ख़ुशी होगी | मुझे मालूम हुआ है कि बम्बई में तुम्हे दोबारा टीका लगा हैं टीका मुझे नापसंद है , लेकिन मेरा ख्याल है कि इसे लगाना ही पड़ता है |
दोल्म्मा या दादी - अब तुम उन्हें क्या कहती हो ? गालिबन अगले महीने पूना जायेंगी | बापू चाहते है कि वह कुछ अरसे के लिए वहाँ उनके पास ठहरे | कल जब मैं यह ख़त लिख रहा था तो मसूरी के चारो तरफ पहाडियों पर बर्फ गिर रही थी और शाम को मैं जब घुमने निकला तो पहाडियों की चोटियों बर्फ से जगमग थी |
प्यार -- तुम्हार - पापू
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Thursday, July 18, 2019

आनद मरा नही -

बाबू मोशाय --- जिन्दगी लम्बी नही बड़ी होनी चाहिए और जिन्दगी को खुलकर जीना चाहिए
आनद मरा नही ---------- आनद कभी मरते नही ..........
आनद ने सिखाया की मौत तो आनी है लेकिन हम जीना नही छोड़ सकते | जिन्दगी लम्बी नही बड़ी होनी चाहिए |
इस दुनिया में जिन्दगी का एक नया फलसफा गढने वाला '' बाबू मोशाय , ''हम सब तो रंगमंच की कठपुतलिया
है , जिसकी डोर उपर वाले के हाथ में है , कौन कब कहा उठेगा , कोई नही जानता | ' इस फलसफा को देने वाला आनद नहीं है आज अनेको ऐसे अंदाज में जिया आनन्द जो कोई और नही जी सकता |
दुनिया में |भारतीय सिनेमा जगत में पहली बार स्टारडम लाने वाले राजेश खन्ना ही थे | इन्होने ही बताया की सुपर स्टार होता क्या है ? 29 दिसम्बर 1942 को अमृतसर में पैदा हुए राजेश खन्ना को स्कूल और कालेजो से ही अभिनय का शौक था उन्होंने रंगमंच पे भी कार्य किया नए चेहरों की तलाश में सन 1965 में यूनाटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेअर द्वारा टैलेंट हंट से फिल्म इंडस्ट्री में उनका पदार्पण हुआ दस हजार में से आठ लकड़ो का चुनाव हुआ ,जिनमे एक राजेश खन्ना भी थे | राजेश खन्ना ने उस प्रतियोगिता में ही अपने अभिनय की क्षमता को जजों के सामने मनवा दिया और अन्त में जजों ने उनको विजेता घोषित किया | राजेश खन्ना का वास्तविक नाम जतिन खन्ना है | 1969 से 1975 के दरम्यान राजेश ने बहुत सारे सुपर हिट फिल्मे दी |इन्होने फिल्म इंडस्ट्री को नया आयाम दिया सुपर स्टार का वही से सुपर स्टार शब्द प्रचलित भी हुआ |फिल्म इंडस्ट्री उन्हें प्यार से काका कह के बुलाती थी |1967 में' आखरी खत '' सिनेमा से उनके फ़िल्मी पारी की शुरुआत हुई | 1969 में अराधना और दो रास्ते की सफलता के बाद राजेश खन्ना सीधे शिखर पर जा बैठे | उन्हेंसुपर स्टार घोषित कर दिया गया और लोगो के बीच उन्हें अपार लोकप्रियता हासिलहुई वास्तव में ऐसी लोकप्रियता किसी को हासिल नही हुई जो राजेश को हुई |उनके आकर्षण का वह एक अजीब दौर था | स्टूडियो या किसी निर्माता के दफ्तर के बाहर राजेश खन्ना की सफ़ेद कार रूकती थी तो लडकिया उस कार को ही चूम लेती थी राजेश खन्ना ने रोमांटिक हीरो के रूप में बेहद पसंद किया गया | उनकी आँख झपकाने और गर्दन टेढ़ी करने की अदा के लोग दीवाने हो गये |' मेरे सपनोकी रानी और ' रूप तेरा मस्ताना ' जैसे रोमांटिक गीतों के भावो को अपनी जज्बाती अदाकारी से जीवन्त करने वाले राजेश खन्ना ने अपने जमाने में लगातार15 हिट फिल्मे देकर बालीवुड को '' सुपर स्टार '' की परिभाषा दी थी | उनसे पहले के स्टार राज कपूर और दिलीप कुमार के लिए भी लोग पागल रहते थे लेकिनइस बात पे कोई शक नही की जो दीवानगी राजेश खन्ना के लिए थी , वैसी पहले या बाद में कभी नही दिखी 1969 में आई अराधना ने बालीवुड में काका का असली दौर शुरू हुआ इसमें राजेश खन्ना और हुस्न पारी शर्मिला टैगोर की जोड़ी ने सिल्वर स्क्रीन पर रोमांस और जज्बातों का वो गजब चित्रण किया की लाखो युवतियों की रातो की नीद उड़ने लगी | अराधना का वो गीत '' कोरा कागज था ये मन मेरा -लिख लिया नाम इसपे तेरा , सुना आगन था जीवन मेरा बस गया प्यार इसपे तेरा..नारी के सौन्दर्य की अनुभूति को कुछ इस तरह व्यक्त किया रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना ....राजेश खन्ना ने जहा रोमांटिक फिल्मो के किरदार को भरपूर जीया वही उन्होंने ऐसी फिल्मे दी जो भारतीय फिल्मो में मील का पत्थर है उन्होंने जब बाबर्ची का किरदार निभाकर समाज को यह सन्देश दिया की एक संयुक्त परिवार में कैसे रहा जाता है '' भोर आई गया अंधियारा सारे जग में हुआ उजियारा नाचे झूमे ये मन मतवाला वो पूरे समाज को यह भी बता दिया की एक अंधियार के बाद नए सूरज का स्वागत कैसे किया जाता है | जब वो जीवन के फलसफा को कुछ इसतरह बया करते है '' तुम बिन जीवन कैसा जीवन फूल खिले तो दिल मुरझाये , आग लगे जब बरसे सावन जैसे गीत से जिन्दगी की गहरी फालसा को बताया वही काकाने यह भी कहा '' दुनिया में रहना है तो काम करो , हाथ जोड़ो सबको सलाम करो प्यारे इसमें काम के उस तरीके को कहा की प्यार ही दुनिया के लिए है | ''अमर प्रेम के जरिये उन्होंने एक ऐसी प्रेम की परिभाषा गढ़ी जो अपने में बेमिशाल...उन्होंने दुनिया के उन लोगो का जबाब दिया जो बेवजह कही भी टांग अडाते है उन्होंने साफ़ कहा की '' कुछ तो लोग कहेंगेलोगो का काम है कहना छोडो बेकार की बातो में कही बीत ना जाए रैना ..............से प्रेम की पराकाष्ठा व्यक्त किया , दर्द की बेइन्तहा को बया किया न हसना मेरे गम पे इन्साफ करना जो मैं रो पडू तो मुझे माफ़ करना ,जब दर्द नही था सीने मीन , तब ख़ाक मजा  है जीने में ....काका ने दोस्ती की वो निशाल पेश की जो शायद फिल्म इंडस्ट्री में आज तक किसी ने नही किया नमक हराम में एक दोस्त अपने अनमोल दोस्त के लिए हँसते हुए अपनी जान तक कुर्बान कर देता है यह कहते हुए ''दीये जलते है फूल खिलते है ,बड़ी मुश्किल से मगर दुनिया में दोस्त मिलते है ऐसी मिशाल दी काका ने दोस्ती का 

.............राजेश खन्ना ने अपने मर्मस्पर्शी अभिनय के साथ सवाद अदायगी से भारतीय सिनेमा को अनमोल बना दिया और गुरु कुर्ता पहनने वाला आनद समन्दर किनारे जब यह गाता है की जिन्दगी को कैसे ज़िया जाता है '' जिन्दगी कैसी है पहेली हाय कभी तो हसाए कभी ये रुलाये , कभी देखो मन नही चाहे पीछे पीछे सपनो के भागे , एक दिन सपनो का राही चला जाए सपनोसे आगे कहा .......आनद के किरदार के इतने रंगों को राजेश खन्ना ने जिस खूबी सी ज़िया आनद ने सिखाया की मौत तोआनी है लेकिन हम जीना नही छोड़ सकते | जिन्दगी लम्बी नही बड़ी होनी चाहिए | जिन्दगी जितनी जियो , दिल खोलकर जियो | हिन्दी सिनेमा का यह आनद अब हमारे बीच नही रहा लेकिन उसका दिया फलसफा हमेशा हमे याद दिलाता रहेगा की जिन्दगी लम्बी नही बड़ी होनी चाहिए और जिन्दगी को खुलकर जीना चाहिए | काका को मेरा
शत शत नमन
...................सुनील दत्ता '' कबीर ''स्वतंत्र ...पत्रकार... समीक्षक

Wednesday, July 17, 2019

खिलाफत आन्दोलन

तहरीके जिन्होंने जंगे -आजादी -ए-हिन्द को परवान चढाया


खिलाफत आन्दोलन

सन 1919 से 1924 तक चले इस मूवमेंट को मुस्लिम उल्माओ की कयादत में चलाया गया | इस मूवमेंट का मकसद एक तरफ तुर्की के खलीफा की दोबारा ताजपोशी कराना और दूसरी तरफ हिन्दुस्तान से अंग्रेजो को खदेड़ना था | इसके लिए खिलाफत के रहनुमाओं ने नौजवान नस्ल में पहले इस्लाम के खलीफा की बहाली का जज्बा पैदा करके उन्हें मूवमेंट के साथ मुत्तहिद किया , फिर उनमे मुत्तहिदा कौमियत के लिए ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के लिए तैयार किया | पहली जंगे - अजीम के बाद अंग्रेजो ने तुर्की पर जो जुल्म - ज्यादतिया की इसकी वजह से हिन्दुस्तान ही नही पूरी दुनिया का मुसलमान ब्रिटिश हुकूमत की मुखालिफत में सडको पर उतरकर मुकाबला कर रहा था | दुनिया के मुसलमान तुर्की के खलीफा को ही अपना खलीफा मानते थे जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने हटाकर तुर्की को दो हिस्सों में बाट दिया था | ब्रिटेन की इस कार्यवाही से पूरी दुनिया के मुसलमानों में अंग्रेजो के खिलाफ नफरत व तुर्की के लिए हमदर्दी का जज्बा था | इस आन्दोलन की शुरुआत सन 1919 के शुरू में मौलाना मोहम्मद अली ,मौलाना शौकत अली , मौलाना आजाद - मौलाना हसरत मोहानी और हाकिम अजमल खान के कयादत में खिलाफत कमेटी के तकमील से हुई | इस मूवमेंट ने मुल्क के पैमाने पर धरना - सभाए और मुजाहरा करते हुए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आन्दोलन का रूप ले लिया | नवम्बर 1919 में खिलाफत कमेटी का कौमी कांफ्रेंस दिल्ली में हुआ जिसकी सदारत महात्मा गांधी ने की | इस इजलास में अंग्रेजी सामानों का बाईकाट का फैसला हुआ - साथ ही , यह भी तय किया गया कि जंग के बाद समझौते की शर्त जब तक तुर्की के हक़ में नही बनाई जायेगी तब तक ब्रिटिश सरकार के साथ किसी तरह का ताउँन नही किया जाएगा | भारतीयों के बीच एकता बनाये रखने व सरकार के खिलाफ असहयोग आन्दोलन चलाने के लिए इस कांफ्रेंस से महात्मा गांधी की सदारत में एक मजबूत प्लेटफ्राम तैयार हुआ | जून 1920 में इलाहाबाद में हुए खिलाफत कमेटी के मरकजी इजलास के बाद इसी तंजीम ने स्कुल - कालेजो और अदालतों का बाईकाट का फैसला लिया , जो कि जंगे - आजादी के लिए मील का पत्थर साबित हुआ | इस मूवमेंट में बड़ी तादात में मुस्लिम उल्माओ और मुस्लिम सदस्यों की गिरफ्तारिया हुई | बड़े पैमाने पर माली नुक्सान भी हुआ |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
सन्दर्भ --- लहू बोलता भी हैं
आभार - सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी

वहाबी मूवमेंट

लहू बोलता भी हैं

जंगे -आजादी -ए-हिन्द पर नजरेसानी

वहाबी मूवमेंट

सन 1828 से 1888 तक चले वहाबी मूवमेंट को रायबरेली के सैय्यद अहमद ने मजहबी पायदारी और तालीम के लिए शुरू किया था | लेकिन मुल्क के हालात को देखते हुए उन्होंने पटना के विलायत अली और इनायत अली के साथ पटना से ही इस पूरी तंजीम को जंगे - आजादी की लड़ाई में तब्दील कर दिया | पहले तो इस पूरी तंजीम ने अंग्रेजो के खिलाफ फिर से मुसलमानों को तबलीग कर दिया || पहले तो इस पूरी तंजीम ने अग्रेजो के खिलाफ फिर से मुसलमानों को तबलीग करने की मुहीम चलाई , फिर पूरे मुल्क में इस तंजीम ने उनके खिलाफ अपने मुरीदो व माननेवालो की एक फ़ौज तैयार की , जिसे जंगी साजो - सामान रखने और चलाने की ट्रेनिग भी दिया | बाद में उन्हें फौजी वर्दी व साजो - सामान से लैस भी किया | इसी सेना ने सन 1830 में कुछ वक्त के लिए पेशावर पर कब्जा करके अपना सिक्का भी चलाया | सन 1857 में इस सेना की कयादत करते हुए बिहार में पीर अली ने जो आन्दोलन चलाया उससे अंग्रेज बौखला गये और कुछ दिनों बाद ही उन्हें गिरफ्तार करके एलिफिस्टन सिनेमा के सामने पेड़ पर लटकाकर फांसी की सजा दे दी गयी | ताकि आंदोलनकारियो में बगावत के अंजाम का खौफ फैले | अंग्रेजो की इस हरकत ने आंदोलनकारियो में दहशत की जगह गुस्सा और इश्तेयाल पैदा कर दिया | पीर अली के साथ के बचे नेताओ को भी कुछ दिनों बाद अंग्रेजी सेना ने कमिश्नर टेलूब की अगुआई में गुलाम अब्बास , जुम्मन खान , उनधू मियाँ , हाजी रहमान , पीर बक्श ,वहीद अली , गुलाम अली , मोहम्मद अख्तर , असगर अली नंदलाल और छोटे यादव को भी अवाम की मौजूदगी में सरे आम फांसी पर लटका दिया गया | गौरतलब है कि इसी टेलूब ने पीर अली को भी फांसी दी थी |सन 1857 - 1860 के बीच वहाबी आन्दोलन के नेताओं में विलायत अली इनायत अली और मौलवी अब्दुल्लाह के कयादत में यह तंजीम इतनी बास्लाहियत व फौजी तैयारी से मजबूत थी कि तीन साल तक अंग्रेजी अफसरों और उनकी सेना को चैन से बैठने नही दिया | मूवमेंट का नाम वहाबी अंग्रेज अफसरों ने रखा था |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
संदर्भ - सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी

Tuesday, July 16, 2019

मोपला आन्दोलन

लहू बोलता भी है ---- जंगे -आजादी -ए-हिन्द को परवान चढाया

मोपला आन्दोलन

मोपला आन्दोलन केरल के मुसलमानों का बहुत मशहूर आन्दोलन है , जो सन 1920 में शुरू हुआ था | मोपला मुसलमानों की वह बिरादरी है , जो अरब से 8वी सदी और उसके बाद भारत आई थी | उन्होंने इसी सर जमीन को अपना मादरे वतन बना लिया | ज्यादातर लोगो ने तो केरल एवं मालाबार के इलाको में मुकामी औरतो से शादी करके वही रहना पसंद किया | मुकामी जुबान में मोपला का मतलब दामाद होता हैं , जिन्हें हिन्दुस्तानी तहजीब में बड़ी इज्जत और वकार से देखा जाता है | बाद में उनकी औलादे भी इसी नाम से जानी गयी | इसके अलावा वहाँ की मुकामी आबादी ने भी बड़ी तादात में इस्लाम कबूल कर लिया | यही वजह है कि आम मुसलमान भी वहाँ इसी नाम से जाना जाता हैं | रवायत है कि जब मुस्लिम दरवेशो का एक काफिला लंका में हजरत आदम के नक्शे - कदम की जियारत के लिए जा रहा था , जो मुखालिफ तेज हवा तूफ़ान की वजह से उनका जहाज मालाबार के शहर कुदान - किलोर (कुंदगानुर ) के साहिल पर पहुच गया | वहां के राजा जेम्रूरन ( सामरी ) ने उनकी बड़ी खातिर की और उनसे उनके धर्म की जानकारी ली | राजा उनके बयानात और बातचीत से इतना असरअंदाज हुआ कि दरवेशो का वह काफिला जब जियारत करके लौटा तो राजा भी अपने राजपाट को अपनी हुकूमत के सरदारों के सुपुर्द करके खुद भी उनके साथ मक्का अरब चला गया और वही उसका इंतकाल हो गया | लेकिन जाने से पहले वह अपनी वसीयत कर गया कि इस्लाम फैलानेवाले व्यापारियों को मालाबार में सौदागरी करके यहाँ की तरक्की करने में मदद की जाए | उसने अपने मातहतों से भी कहा कि मोपले हमारे होकर आये है , लेकिन अब यही के बाशिंदे हैं | उन्हें तब तक प्यार से रखना जब तक की मैं लौटकर न आऊ | तारीखनवीसो के मुताबिक़ जब सामरी गद्दी नशींन होता , तो मुसलमानों जैसे कपडे पहनता और कोई मोपला ही उसके सिर पर राजा का ताज रखता था | यह आपसी इत्तेहाद का नमूना था , जो उस वक्त अंग्रेज अफसरों को रास नही आया | इतिहासकार डा ताराचन्द्र के अनुसार मोपले एक नए मजहब के साथ आये और यहाँ के लोगो को इतना असरदार अंदाज किया कि बड़ी तादात में स्थानीय लोग मुसलमान होने लगे | यहाँ तक की महाराजा जनसल पेरूयल ने भी इस्लाम मजहब अपना लिया | अब आबादी के साथ - साथ मोपलाओ का असर बढने लगा | यह बरतानवी अधिकारियो को खटकने लगा | लिहाजा कोई न कोई बहाना बनाकर अंग्रेजो ने इन पर जुल्म करना शुरू किया | मुकामी जमींदारों को भी चूँकि इनसे खतरा दिखने लगा , इसलिए अंग्रेजो ने इन्हें मोपलाओ के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया | चूँकि जमींदार नम्बूदरी ब्राह्मण हिन्दू थे , इसलिए जमींदारों के जरिये हिन्दुओ को आन्दोलन से हटाने में अंग्रेज कामयाब हो गये | फिर मोपलाओ पर जुल्म बढ़ता गया | अंग्रेजो की नजर में मोपले टीपू सुलतान के माननेवाले थे | मालाबार में देश की आजादी की लड़ाई की इससे पहले कोई नजीर नही मिलती हैं | पहली बार 16 फरवरी 1920 को कुछ कांग्रेसी आंदोलनकारी यहाँ आये थे और सिर्फ हालात देखकर लौट गये | उनके लौटते ही 4 लोग गिरफ्तार कर लिए गये : जिनसे कांग्रेस नेताओं की मुलाक़ात हुई थी | इसमें दो हिन्दू और दो मुसलमान ( मोपले ) थे , जिन्हें जंगे -आजादी का आन्दोलनकारी बताया गया था | इसके बाद से ही यहाँ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ माहौल बनने लगा | इससे पहले कांग्रेस की यहाँ कोई सरगर्मी नही थी , यहाँ तक कि उनका कोई आफिस भी नही था | इसके बाद जंगे - आजादी के कांग्रेस से जुड़े लोग यहाँ खुफिया तरीके से मुकामी लोगो को आन्दोलन की वजह और अंग्रेजो की जुल्मो - ज्यादतियों से आगाह कराने लगे | कांग्रेस नेता अंग्रेजो के जरिये तुर्की के माननेवालो पर की गयी अत्याचार के बारे में मोपलो को बताते थे वे यह भी बताते कि अंग्रेजी हुकूमत शैतानी हुकूमत है , जिसमे इस्लाम के साथ - साथ आम हिन्दुस्तानी जिसमे हिन्दू भी हैं के साथ क्या - क्या किया ! इसलिए पूरे देश में हिन्दू - मुसलमानों को मिलकर आजादी की जंग लड़नी चाहिए और वे ऐसा कर भी रहे हैं | लिहाजा आप लोग एक जुट होकर अंग्रेजो का मुकाबला करने को तैयार हो जाए | इस प्रचार का काफी असर हुआ , जिसमे होमरूल - लीडर एनी बेसेंट ने हिस्सा लिया था | मौलाना मोहम्मद अली जौहर का मोपलो के साथ साथ सभी हिन्दुओ ने भी जबर्दस्त इस्तेकबाल किया | बाद में इसी काफ्रेंस में महात्मा गांधी और मौलाना शौकत अली भी शरीक हुए थे | इन नेताओं के भाषण के बाद तो जैसे पूरा इलाका आन्दोलनमय हो गया | इतना जोश पैदा हुआ कि जहाँ कांग्रेस का एक भी दफ्तर नही था , वही देखते देखते छोटे बड़े 200 दफ्तर खुल गये और बहुत कम वक्त में 28.000 सदस्य बन गये जिसमे 20.000 तो मुसलमान थे |देश के दूसरे हिस्सों में चलनेवाले स्वतंत्रता - आन्दोलन की तर्ज पर यहाँ भी अब सभाए विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये | अब अंग्रेजो का जुल्म भी शुरू हो गया | जैसे - जैसे जुल्मो ज्यादतिया होती वैसे वैसे आन्दोलन बेकाबू होता गया | फरवरी सब 1921 में कलक्टर ने हाजी कुल्ले अहमद , माधवन नायर के अरनाड वगैरह की कयादत में होने वाले अवामी जलसों पर पाबंदी लगा दी | बाद में अंग्रेजो ने इसे मुकामी सतह पर मुसलमानों का आन्दोलन साबित करके हिन्दू - मुसलमान इख्तिलाफ बढाकर जमींदारों के आदमियों से मिलकर फिरकावाराना मोड़ देने में कामयाब हो गये |
आन्दोलन थोडा कमजोर तो हुआ लेकिन मोपला मुत्तहिद होकर आन्दोलन ,में लग गये | इस बीच अंग्रेजो से लड़ते हुए 100 मोपले मारे गये | पहले के आन्दोलन में 82 गैर - मोपले भी अंग्रेजो के हाथो शहीद हो चुके थे |मोपले आंदोलनकारियो और अंग्रेज हुकूमत के बीच कई झड़पो और आमने - सामने की लड़ाइयो का हवाला मिलता है | उनमे 2 अगस्त सन 1921 को तिरुवरनगादी में पुलिस फायरिंग में 9 मोपले शहीद हुए | उसके बाद अंग्रेज अधिकारियों ने तलाशी के नाम पर मस्जिदों में घुसकर काफी जुल्म किया जिससे मोपला समाज पूरी तरह बेचैन हो गया और अपने अपने इलाको में रोड पर पेड़ो को काटकर डाल दिया | रास्ता बंद होने पर उन्होंने सभी सरकारी इमारतों स्टेशन रेलवे लाइन कचहरी सभी जगह तोड़ फोड़ और आगजनी भी किया जिससे प्रशासन पूरी तरह पंगु हो गया | इस लड़ाई में भी 29 मोपले शहीद हुए | 6 माह की इस बगावत में अंग्रेजो के जुल्म की एक ख़ास वारदात यह थी कि मालापुरम के एम् एस पी ग्राउंड पर मोपले जब सभा कर रहे थे तभी अंग्रेजी पुलिस ने घेर कर उन पर बेतहाशा गोलिया चलाई जिसमे हजारो मोपले शहीद हुए और जो बचे थे , उन्हें अंग्रेजो ने गिरफ्तार करके अंडमान - निकोबार ( कालापानी ) भेज दिया | इस बरबरियत में सैकड़ो लोगो की रास्ते में ही दम घुटने से मौत हो गयी | इसके बाद भडकी हिंसा ने अंग्रेजी सेना को पीछे धकेल दिया | मोपलो ने अब अपनी आजादी का एलान कर दिया और खिलाफत फ़ौज के आलाकमान हाजी कुंजाबयम को राजा घोषित किया जबकि अली मुसायार को काजी बनाया गया | अरनाड व बालबनाड को राजधानी बनाया गया | खिलाफत का झंडा फहराकर मोपला सरकार बना दी गयी | अंग्रेज ने मार्शल - ला लगाकर मोपलो के आन्दोलन को दबाने की कोशिश की , लेकिन उस वक्त वे कामयाब न हो सके | कई महीनों आजाद हुकूमत चली उसके बाद अंग्रेज दोबारा काबिज हुए |
संदर्भ -- सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी --

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Saturday, July 13, 2019

यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिन्दगी ---

यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिन्दगी ---
एक ऐसा खलनायक जो सारे लोगो के दिल पर राज किया प्राण

गर खुदा मुझसे कहे कुछ मांग ये बन्दे मेरे मैं ये मांगू महफ़िलो के दौर यू चलते रहे
हम प्याला , हम निवाला, हम सफर हम राज हो ता कयामत जो चिरागों की तरह जलते रहे |
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एक ऐसा खलनायक जो सारे लोगो के दिल पर राज किया प्राण
दिल्ली की वल्ली मारा मोहल्ले की गलबहिया डाले पेचीदा सी गलिया , कमरजोड़ करबने मकानों के मुँह चूमते छज्जे , घरो के नीचे बनी दुकानों से इलाके मेंफैली चहल -- पहल , चिल्लाती रिक्शे की घंटिया , फुसफुसाती पैरो की आवाज ,एक दूसरे को पीछे छोड़ते लोगो का बेपनाह शोर , चन्द दरवाजो पर गुजरे कल केदस्तक देते हवेलियों का अक्स , कही कबूतरों की गुटरगूं तो कही पंख फडफडानेकी आवाज , धुधलायी हुई शाम की बेनूर अँधेरी सी गली इस बेनूर अँधेरी सी गलीसौदागरान से एक तरतीब चिरागों की शुरू होती है एक हुनर ए सुखन का सफा खुलता है प्राण किशन सिकन्दर का पता मिलता है अदाकारी के प्राण खलनायकी केनायक प्राण साथ वर्षो तक एक छत्र राज किया फ़िल्मी दुनिया में |
कसमे वादे प्यार वफा सब बाते है बातो का क्या
कोई किसी का नही ये झूठे नाते है नातो का क्या --------------
जिन्दगी को जिन्दादिली से जीने की कला , अनुशासन के पाबन्द समय के मूल्य की पहचान और सदा अपने चेहरे पर मुस्कान लिए शक्स पिता लाला केवल किशन सिकन्द और माता रामेश्वरी के संयोग से एक ऐसा हीरा आया जो फ़िल्मी दुनिया के रुपहले पर्दे पर छ: दशको तक भारतीय सिनेमा की खलनायकी का नायक बना रहा |
दिल्ली में जन्मे प्राण का पूरा नाम प्राण किशन सिकन्द था | उनके पिता सिविल इंजिनियर थे इसलिए उनको अलग -- अलग स्थानों पर काम करना पडा | प्राण की प्राइमरी की शिक्षा दिशा उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुई उन्होंने इण्टर की पढ़ाई रामपुर के हामिद इण्टर कालेज से पूरी की | उसके बाद प्राण के पिता लाहौर चले गये | प्राण की दिली तमन्ना थी की वो फोटोग्राफर बने | इसके लिए वो शिमला चले गये पर उनका मन वहा नही लगा तो फिर वो लाहौर अपने पिता के पास चले गये और वही पर वो तीन सौ रूपये पर नौकरी शुरू कर दी |लाहौर ने उनके जिन्दगी के नये पन्ने लिखने शुरू किये | एक दिन एक घटना घटी प्राण पान खाने के बड़े शौक़ीन थे | जब वे एक दिन पान की दूकान पर पान खाने गये तो उसी दूकान पर उस वक्त के मशहूर अफ़साना नगमा निगार वली मोहम्मद वली साहब भी पान खाने पहुचे | थोड़ी देर वली साहब प्राण को देखते रहे प्राण की हर अदा उनको भा गयी और प्राण से उन्होंने पूछा क्या हीरो बनोगे | प्राण ने कहा क्या मजाक कर रहे है पर वली साहब ने उनको अपनी फिल्म में हीरो की भूमिका का निमंत्रण दिया | सन 1940 में पंजाबी फिल्म '' जट यमला '' में बतौर नायक की भूमिका से प्राण ने अपने जीवन के अभिनय की शुरुआत की | उसके बाद प्राण कभी पीछे नही मुड़े | सन 1947 में बटवारे के वक्त प्राण 14 अगस्त को दिल्ली आ गये | वही से उन्होंने मुंबई की तरफ रुख किया | जब प्राण लाहौर छोड़कर आये थे तब उनकी माली हालात ठीक नही थी | ऐसे समय में वो मुंबई के फ़िल्मी स्टूडियो में काम की तलाश में घुमने लगे तब उनको उर्दू के मशहूर अफ़साना नगमा निगार सहादत हसन मंटो के प्रयास से फिल्म '' जिद्दी '' मिली | जिसके हीरो थे देवानंद और हीरोइन थी कामनी कौशल | प्राण ने फिल्म जिद्दी में अविस्मर्णीय खलनायक की भूमिका अदा की और फिर प्राण ने कभी पीछे मुड़कर नही देखा और वही से प्राण खलनायकों की दुनिया के बेताज नायक बादशाह बन गये | उसके बाद वो देवानंद , दिलीप कुमार राजकपूर के फिल्मो में खलनायक की भूमिका अदा करने लगे | उन्होंने करीब चार सौ फिल्मो में काम किया और हर फिल्म में खलनायकी के अलग किरदारों में अपने अभिनय से जीवंत कर दिया उन चरित्रों को पत्थर के सनम , कश्मीर की कली , , औरत ' बड़ी बहन , हाफ टिकट , जिस देश में गंगा बहती है में डाकू के चरित्र को ऐसा जीवंत किया साथ ही फिल्म '' जंजीर '' में शेर खान की भूमिका में अपने अभिनय की वो छाप छोड़ी जो दर्शको के दिलोदिमाग में सिहरन पैदा करती है | प्राण की खलनायकी अदा ऐसी थी की जब वो पर्दे पर आते तो दर्शक अपनी साँसे रोक लेता कि अब क्या करेंगे प्राण | यह बात सर्वविदित है कि पिछले 6 दशको से किसी ने अपने बच्चो का नाम प्राण नही रखा खलनायकी में पहला ऐसा खलनायक रहा जिसके नाम से बच्चे डरते थे | प्राण की यही खासियत उनको अभिनय की दुनिया में सर्वश्रेष्ठ खलनायक स्थापित करता है | ऐसा नही है की प्राण ने सिर्फ खलनायकी की है उन्होंने किशोर कुमार के साथ मिलकर हास्य अभिनय भी किया है | सन 1968 में मनोज कुमार द्वारा निर्मित फिल्म "" उपकार '' ने प्राण के चरित्र को ही बदल दिया ''मलग बाबा '' के रूप में उसके बाद तो प्राण ने चरित्र अभिनेता के रूप में भी अपने को स्थापित किया | फिल्म उपकार में मलग बाबा के चरित्र पर दर्शक भी रो पड़े ऐसा जीवंत अभिनय किया था प्राण ने | उसके बाद प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर में शेर अली पठान की महत्वपूर्ण किरदार में प्राण ने अपने अभिनय से उस चरित्र को जिदा किया और ऐसी दोस्ती का मिशाल कायम किया जो आज भी दर्शक भूल नही पाया है फ़िल्मी दुनिया में नये हीरो तो आते जाते रहते है पर प्राण ने 6 दशको तक उसी तरह बरकरार रहे अपने खलनायकी और चरित्र अभिनेता के रूप में प्राण साहब को मिलेनियम खलनायक के पुरस्कार से नावाजा गया अभी हाल में उन्हें दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया प्राण साहब ने 93 वर्ष में आज अंतिम साँसे लेकर इस दुनिया से विदाई ली | प्राण जैसा खलनायक न कभी हुआ है और न होगा उनको शत -- शत नमन

सुनील दत्ता ''कबीर ''---- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

किसान सगठन की ऐतिहासिक - दशा - दिशा

किसान आन्दोलन व किसान सगठन की ऐतिहासिक - दशा - दिशा

किसान आन्दोलन की शुरुआत ब्रिटिश गुलामी के समय से हुई थी | वह आन्दोलन बदलते रूप एवं चारित्रिक विशेषताओं के साथ 1947 - 50 के बाद भी चलता रहा | बीते समय के साथ किसान आन्दोलन के बदलते मुद्दों मांगो एवं समस्याओं के साथ किसान सगठनों के भी रूप बदलते रहे | किसान आंदोलनों एवं सगठनों के इतिहास के बारे में फिलहाल यहाँ हम एक मोटी रूपरेखा प्रस्तुत कर रहे है , ताकि आम किसान उससे प्रेरणा लेकर वर्तमान समय की अपनी समस्याओं को लेकर किसान समुदाय को सगठित करने का काम कर सके | साथ ही अपनी मांगो एवं आंदोलनों का निर्धारण भी कर सके |
ब्रिटिश शासन काल में किसान आन्दोलन मुख्यत" जमींदारों व महाजनों के अधिकाधिक लगान और अधिकाधिक सूदखोरी के विरोध में चलते रहे थे | साथ ही ये आन्दोलन इन जमींदारों महाजनों के साथ खड़े ब्रिटिश शासन - व्यवस्था के दमन उत्पीडन के विरुद्ध भी चलते रहे थे | इसके अलावा वे आन्दोलन आदिवासी क्षेत्र के भूमि पर ब्रिटिश शासन और उनके जमींदारों के अतिक्रमण व कब्जे के विरोध में तथा नील , चाय जैसी नयी खेती के मालिको द्वारा उसमे श्रम करने वाले किसानो व श्रमिको के भारी शोषण दमन के विरुद्ध भी चले | 1850 से लेकर 20 वी शताब्दी के शुरूआती वर्षो में ये सभी किसान एवं भूमि आंदोलनों क्षेत्रीय आन्दोलन ही बने रहे | इन आंदोलनों मव 1855-56 का स्थल विद्रोह 1857 के महा विद्रोह में किसानो की सबसे व्यापक भागीदारी 1860 में बंगाल में नील किसानो का विद्रोह 1875 में दक्षिण भारत में किसानो द्वारा मारवाड़ी एवं गुजराती साहुकारो के विरुद्ध विद्रोह के साथ ही साथ महाराष्ट्र में कपास किसानो का महाजनों व्यापारियों के विरुद्ध किया गया विद्रोह प्रमुख था 1895 में पंजाब के किसान समुदाय द्वारा बढती ऋणग्रस्तता के परिणाम स्वरूप उनकी जमीनों का सूदखोर महाजनों एवं अन्य गैर कृषक हिस्सों के पास हस्तांतरण के विरोध में सगठित विरोध किया गया | इसके फल स्वरूप ब्रिटिश हुकूमत को ''पंजाब भूमि अन्याकरण अधिनयम ' पास करना पडा | 

बाद के सालो में कांग्रेस पार्टी ने भी किसानो के दमन अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठायी पर उसने रियाया व प्रजा किसानो के हितो के लिए कानून बनाने की मांग नही की | 1915 में गांधी जी के आगमन के बाद उन्होंने और कांग्रेस पार्टी ने बिहार के चम्पारण के नील किसानो के शोषण - दमन के विरोध में तथा महाराष्ट्र के खेडा क्षेत्र के किसानो के साथ भारी सूखे के बावजूद महाराष्ट्र सरकार द्वारा भारी कर वसूली के विरोध में सत्याग्रह आन्दोलन के जरिये भागीदारी निभाई | इससे कृषक समुदाय को थोडा बल जरुर मिला था | पर गांधी जी और कांग्रेस ने किसान आन्दोलन को अपने राष्ट्रीय एवं जनांदोलन का हिस्सा कभी नही बनाया | बाद में कांग्रेस के सोशलिस्ट धड़े ने तथा कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वत: स्फूर्त ढंग से उठते किसान आन्दोलन का समर्थन करने के साथ उसे संगठित करने का भी काम किया | उसके फलस्वरूप जमींदारी , महाजनी तथा उसके सरक्षक बने ब्रिटिश राज के विरुद्ध 1920 के बाद से बंगाल , पंजाब , उत्तर प्रदेश बिहार में किसान सभाओं का गठन किया |
1928 में आंध्र प्रांतीय रैयत सभा और 1936 में बिहार जमींदारों के अपनी काश्त कही जाने वाली कृषि भूमि पर रियाया के शोषण के विरुद्ध 'बाकाश्त भूमि विरुद्ध आन्दोलन '' शुरू किया गया | वहाँ की किसान सभा ने जमींदारों द्वारा बेदखल किये गये किसानो को सगठित व आंदोलित करने में अग्रणी भूमिका निभायी | अखिल भारतीय किसान सभा के 1936 में लखनऊ अधिवेशन में कृषको पर चढ़े कर्ज की वसूली स्थगित करने , कम उपजाऊ जमीनों पर भूमि कर हटाने , कृषि मजदूरो का न्यूनतम वेतन निश्चित करने , गन्ना व अन्य व्यापारिक फसलो का उचित मूल्य भाव तय करने सिंचाई के साधनों को मुहैया करने आदि की मांग की गयी | इसके साथ ही किसान सभा किसानो से स्वतंत्रता आन्दोलन में भी भाग लेने का भी आव्हान किया | 

किसान सभाओं के गठन एवं आन्दोलन के दबाव में कांग्रेस ने भी 1936 के बाद के अधिवेशनो में खासकर करांची एवं फैजपुर अधिवेशनो में लगान कम करने का , पुराने चढ़े लगान व ऋण को समाप्त करने का , कृषि मजदूरो के लिए न्यूनतम वेतन की मांग का प्रस्ताव किया | जमींदारों के भूमि बेदखली के विरोध में किसानो के चल रहे मांगो आंदोलनों के दबाव में कांग्रेस पार्टी ने जोतने वालो को जमीन का मालिकाना देने का नारा जरुर दिया पर तब तक जमींदारी उन्मूलन को उन्होंने कृषि कार्यक्रम का हिस्सा नही घोषित किया था | 1847 से ठीक पहले के सालो में तीन बड़े आन्दोलन के रूप में बंगाल का ''तेभागा आन्दोलन'' , हैदराबाद का ''तेलगाना आन्दोलन'' पश्चिमी भारत का ''वरली आन्दोलन'' प्रमुख थे |
तेलगाना आन्दोलन तो 1947 के बाद तक चलता रहा | वह आन्दोलन वहां के शासक निजाम और बड़े भूस्वामियो के विरुद्ध 1945 से शुरू हुआ था | इसके फलस्वरूप वहाँ भूमि हदबंदी पहले 500 एकड़ फिर 100 एकड़ का निर्धारण करने के बाद निकली जमीनों को भूमिहीन एवं गरीब किसानो में बाटा गया | उस समय की अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी इस आन्दोलन की अगुवा शक्ति थी | इसके अलवा पटियाला के रियाया किसान का आन्दोलन भी 1945 से शुरू हुआ था | इसने रियाया कृषको एवं भूस्वामियो के बीच होते रहे लम्बे एवं कटु संघर्ष को पटियाला ''मुजरा आन्दोलन'' के रूप में जाना गया | नक्सलबाड़ी आन्दोलन के नाम से विख्यात आन्दोलन भी मुल्त: किसान आन्दोलन ही था | वह आन्दोलन दरअसल भूस्वामियो के विरुद्ध भूमिहीन एवं छोटे किसानो का सगठित एवं सशक्त आन्दोलन था , भारी दमन के चलते तथा आन्दोलन के नेतृत्व में बढ़ते फूट के चलते यह आन्दोलन किसान आन्दोलन के रूप में कमजोर पड़ता गया और ग्रामीण एवं कृषक आन्दोलन की जगह शहरी प्रगतिशील एवं मध्यमवर्गीय आन्दोलन के रूप में सीमित हो गया | आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में भी बड़े भूस्वामियो के विरुद्ध नक्सलबाड़ी जैसा सशत्र कृषक आन्दोलन शुरू हुआ था , जिसे बाद में दबा दिया गया | इन आंदोलनों में आधुनिक खेती के खड़े हो रहे नए पूजीवादी शोषको का विरोध नही हो पाया | आधुनिक खेती को अपनाए जाने के साथ ही नए किसान आन्दोलन का जन्म हुआ 1980 में महाराष्ट्र के ''शेतकारी सगठन'' ने प्याज व गन्ने के बेहतर मूल्य को लेकर किसानो को सगठित व आंदोलित किया | 1986 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन , तमिलनाडू में ''विवसगल संगम आन्दोलन'' ने लाखो किसानो को आन्दोलन में उतारा | इन सगठनों ने विभिन्न कृषि उत्पादों के मूल्य भाव बढाने बिजली सिंचाई के दर रेट घटाने कृषि ऋण माफ़ करने आदि की मांग को आगे करके किसानो को सगठित व आंदोलित करने का काम किया था | विडम्बना यह है कि इन किसान आंदोलनों को गैर राजनीतिक कहते और प्रचारित किये जाने के वावजूद सभी सगठन विभिन्न राजनीतिक दलों व नेताओं के समर्थक बनते गये |साथ ही इन सगठनों के किसान सगठन और किसान आन्दोनो में गिरावट आई |
1991 में लागू की गयी आर्थिक नीतियों एवं 1995 में स्वीकार किये गये डंकल प्रस्ताव के बाद ये सभी किसान सगठन एवं आन्दोलन लगातार कमजोर पड़ते गये या कमजोर किये जाते रहे | इस दौर में किसान सगठन एवं आन्दोलन को ही नही बल्कि मजदूरो एव अन्य जनसाधारण के आंदोलनों एवं सगठनों को भी कमजोर किया गया | उसमे सागठनिक टूटन को विभिन्न रूपों में बढ़ावा दिया गया | क्योकि इन आर्थिक नीतियों तथा डंकल प्रस्ताव में देश विदेश के धनाढ्य वर्गो के दबाव में सभी पार्टियों की सरकारों द्वारा जनविरोधी नीतियों को लागू करने तथा बढाने हेतु जन आंदोलनों व सगठनों को तोड़ना जरूरी हो गया था जैसा आज भी हो रहा है इसका परीलक्षण सभी प्रमुख राजनीतिक दल के अपने ट्रेड यूनियनों एवं किसान सगठनों के कमोवेश निष्क्रिय होते जाने के रूप में भी सामने आ रहा है | अब उनका मुख्य कार्य पार्टी के लिए किसानो को उनके वोट बैंक को जोड़ना रह गया है | किसानो की बढती समस्याओं संकटो के विरुद्ध किसानो को सगठित एवं आंदोलित करना उनका कार्यभार कदापि नही रह गया है | वर्तमान समय में बहुप्रचारित किसान आन्दोलन कई बार तो विपक्षी पार्टियों या फिर गैर सरकारी सगठनों द्वारा या कही कही स्थानीय किसानो द्वारा चलाए गये छोटे - छोटे आंदोलनों के रूप में सामने आ रहा है | कृषि भूमि के अधिग्रहण के विरुद्ध 3 - 4 साल पहले विभिन्न क्षेत्रो में खड़ा होता आन्दोलन भी अब सरकारों द्वारा दिए जा रहे मुआवजे की भारी एवं अप्रत्याशित काम के जरिये धाराशायी कर दिया जा रहा है | ऐसी स्थित में समस्याग्रस्त किसानो उनके समर्थको को किसान सगठन व आन्दोलन की नयी शुरुआत करने की जरूरत है | अपनी समस्याओं मांगो को लेकर सभी धर्मो जाति के श्रमजीवी किसानो को स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर किसान सगठनों समीतियो के रूप में सगठित होने की अनिवार्य आवश्यकता खड़ी हो गयी है |कारण है कि अब विभिन्न पार्टियों के उच्च नेतागण प्रचार माध्यमो के उच्च स्तरीय प्रवक्ता किसान विरोद्शी नीतियों को लागू करने के साथ अपने आप को किसान हितैषी के रूप में प्रचारित करने के साथ किसानो को धर्म जाति क्षेत्र की परस्पर विरोधी गोलबन्दियो में बाटने तोड़ने में लगातार लगे हुए है | इसीलिए अब किसानो को उनकी समस्याओं के कारणों को जानने समझने तथा किसानो को जागृत संगठित एव आंदोलित करने का दायित्व सक्रिय प्रबुद्ध किसानो तथा किसान समर्थको का ही है | याद रखने की जरूरत है कि वे यह काम किसान की पहचान को प्रमुखता देकर ही कर सकते है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक ''चर्चा आजकल ''

Wednesday, July 10, 2019

अहरार मूवमेंट



तहरीके जिन्होंने
जंगे - आजादी -ए- हिन्द को परवान चढाया
अहरार मूवमेंट
अहरार आन्दोलन की बुनियाद मौलाना रईस - उल -अहरार , मौलाना हबीबुर्रहमान लुधियानवी , सैय्यद अताउल्ला शाह बुखारी और चौधरी अफजल हक़ ने 29 दिसम्बर सन 1929 को हबीब हाल लाहौर में रखी थी | इसका मकसद तब की जालिम अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेकना था | इस आन्दोलन का ववत तो बहुत ज्यादा नही रहा लेकिन जितने दिनों तक मूवमेंट चला , अंग्रेजो को नाको - चना चबाने पर मजबूर कर दिया | कई मौको पर हजारो - हजार वालेंटियर गिरफ्तार करके जेल हेजे गये , लेकिन आन्दोलन बदस्तूर चलता रहा | अल्लामा इकबाल साहब जंगे - आजादी के अजीम मुजाहिद और मजलिसे - अहरार के बानी सैय्यद अताउल्लाह शाह बुखारी के बारे में कहा करते थे की ये इस्लाम की चलती फिरती तलवार हैं |
भारत छोडो आन्दोलन
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काकोरी काण्ड के 17 साल बाद महात्मा गांधी के पुकार पर पूरे मुल्क में एक साथ अंग्रेजो भारत छोडो का नारा बुलंद हुआ | यह अंग्रेजो के खिलाफ एक बड़ा सिविल नाफरमानी आन्दोलन था | क्रिप्स मिशन की नाकामयाबी के बाद महात्मा गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ इस बड़े आन्दोलन का फैसला 8 अगस्त सन 1942 को बम्बई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के इजलास में किया गया | गांधी जी को फ़ौरन ही गिरफ्तार कर लिया गया , लेकिन मुल्क भर के नौजवान वालेंटियर हड़ताल और तोड़फोड़ की कार्यवाई करने लगे | जयप्रकाश नारायण , डा राममनोहर लोहिया व दीगर नेता रूपोश होकर आन्दोलन की सरपरस्ती करते रहे | इस आन्दोलन का मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा व उनके हमख्याल लोगो ने बाईकाट किया था बाकी जंगे - आजादी के लिए बनी हर छोटी - बड़ी तंजीम ने क्विट इंडिया मूवमेंट में हिस्सा लिया | इसी में सतारा और मेदनीपुर जिलो में आजाद हुकूमत का कयाम अमल में आया | अंग्रेजो ने इस आन्दोलन को दबाने में बहुत ही सख्त रवैया अपनाया | हजारो लोग मारे गये और कई हजार कारकुनो को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया | भारत छोडो आन्दोलन को केरल में अब्दुल कादिर ने बहुत ही असर अंदाज ढंग से चलाया | इस आन्दोलन में सरगर्म कायद की तरह हिस्सा लेने पर अब्दुल कादिर को सन 1942 में फाँसी दी गयी थी | भारत छोडो आन्दोलन में बम्बई के उस मशहूर कारोबारी उमर सुभानी को अंग्रेजो ने घर में ही आग लगाकर शहीद कर दिया जिन्होंने आन्दोलन के लिए बेहिसाब माली मदद की थी , यह आन्दोलन तक़रीबन एक साल तक लगातार चला |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
साभार -- लहू बोलता भी हैं -- सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी