Saturday, December 28, 2019

अभी भी एक काँटे का ज़ख्‍़म हँसता है

अभी भी एक काँटे का ज़ख्‍़म हँसता है
(उस आदमी के नाम जिसके जन्‍म से कोई संवत शुरू नहीं होता)
वह बहुत देर तक जीता रहा
कि उसका नाम रह सके
धरती बहुत बड़ी थी
और उसका गाँव बहुत छोटा
वह सारी उम्र एक ही छप्‍पर में सोता रहा
वह सारी उम्र एक ही खेत में हगता रहा
और चाहता रहा
कि उसका नाम रह सके
उसने उम्र भर बस तीन ही आवाजें सुनीं
एक मुर्गे की बांग थी
एक पुशओं के हाँफने की आवाज
और एक अपने ही मसूड़ों में रोटी चुबलाने की
टीलों की रेशमी रोशनी में
सूर्य के अस्‍त होने की आवाज उसने कभी नहीं सुनी
बहार में फूलों के चटखने की आवाज उसने कभी नहीं सुनी
तारों ने कभी भी उसके लिए कोई गीत नहीं आया
उम्र भर वह तीन ही रंगों से बस वाकिफ रहा
एक रंग जमीन का था
जिसका कभी भी उसे नाम न आया
ए करंग आसमान का था
जिसके बहुत से नाम थे
लेकिन कोई भी नाम उसकी जुबान पर नहीं चढ़ता था
एक रंग उसकी बीबी के गालों का था
जिसका कभी भी उसने शर्माते हुए नाम न लिया
मूलियां वह‍ जिद से खा सकता था
बढ़कर भुट्टे चबाने की उसने कई बार जीती शर्त
लेकिन खुद वह बिन शर्त ही खाया गया
उसके पके हुए खरबूजों जैसे उम्र के साल
बिना चीरे ही निगले गए
और कच्‍चे दूध जैसी उसकी सीरत
बड़े स्‍वाद से पी ली गई
उसे कभी भी न पता चल सका
वह कितना सेहतमन्‍द था
और यह लालसा कि उसका नाम रह सके
शहद की मक्‍खी की तरह
उसके पीछे लगी रही
वह खुद अपना बुत बन गया
लेकिन उसका बुत कभी भी जश्‍न न बना
उसके घर से कुएँ तक का रास्‍ता
अभी भी जीवित है
लेकिन अनगिनत कदमों के नीचे दब गए
लेकिन कदमों के निशान में
अभी भी एक काँटे का ज़ख्‍़म हँसता है
अभी भी एक काँटे का ज़ख्‍़म हँसता है
- पाश

Sunday, November 10, 2019

भगत सिंह की वैचारिक विरासत -

भगत सिंह की वैचारिक विरासत -
भगत सिंह ने अपने समय के राष्ट्रीय आन्दोलन पर जो आलोचनात्मक टिपण्णी की थी अपने देश काल की जमीन पर खड़े होकर उन्होंने भविष्य की सम्भावनाओं के बारे में जो आकलन प्रस्तुत किया था , कांग्रेसी नेतृत्व का जो वर्ग विश्लेषण किया था , देश की मेहनतकश जनता के सामने छात्रो - युवाओं के सामने और सहयोद्धा क्रान्तिकारियो के सामने क्रान्ति की तैयारी और मार्ग की उन्होंने जो नई योजना प्रस्तुत की थी , उसका आज के स्न्कत्पूर्ण समय में बहुत अधिक महत्व है | जब पूरा देश देशी - विदेशी पूँजी की निर्वाध लूटऔर निरंकुश वर्चस्व तले रौदा जा रहा है , जब श्रम और पूँजी के बीच ध्रुवीकरण ज्यादा से ज्यादा तीखा होता जा रहा है , जब साम्राजय्वाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष ( जिसकी भगत सिंह ने भविष्यवाणी की थी ) विश्व स्टार पर ज्यादा से ज्यादा अवश्यम्भावी बनना प्रतीत हो रहा है , जब कांग्रेस ही नही सभी संसदीय पार्टियों और नकली वामपंथियो का चेहरा और पूरी सत्ता का चरित्र एकदम नगा हो चुका है | भगतसिंह की आशंकाए एकदम सही साबित हो चुकी है और भारत की मेहनतकश जनता व क्रांतिकारी युवाओं को साम्राजय्वाद और देशी पूंजीवाद के विरुद्ध एक नई क्रान्ति की तैयारी के जटिल कार्य के नये सिरे से सन्नद्ध हो जाने का समय अ चुका है भगत सिंह के समय के भारत से आज का भारत काफी बदल चूका है | उत्पादन प्रणाली से लेकर राजनितिक व्यवस्था , सामाजिक सम्बन्ध और संस्कृति तक के स्टार पर चीजे काफी बदल गयी है \ साम्राज्यवादी शोषण -उत्पीडन आज भी मौजूद है , लेकिन प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन के दौर से आज इसका स्वरूप काफी बदला है | वर्ग संघर्ष विगत सर्वहारा क्रांतियो और राष्ट्रीय मुक्ति युद्दो के दबाव के चलते तथा अपने भीतर के आंतरिक दबावों के फलस्वरूप साम्राज्यवाद के तौर तरीको में काफी बदलाव आये है | गाँवों में भी बुजुर्वा भूमि सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया ने भूमि सम्बन्धो को मुल्त: बदल दिया है और नये पूंजीवादी भूस्वामी तथा पूंजीवादी फार्मर बन चुके है | भूतपूर्व धनी काश्तकार आज गाँव के मेह्नात्क्शो और छोटे - मझोले किसानो के शोषक की भूमिका में है | मझोले किसानो की भूमिका दोहरी बन चुकी है तथा गाँव के गरीबो को लुटने में देशी -विदेशी वित्तीय एवं औध्योगिक पूँजी की प्रत्यक्ष भूमिका बन रही है | निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि भारत जैसी अगली कतारों के भुँत्पुर्व औपनिवेशिक देश आज पिछड़े पूंजीवादी देश बन चुके है | अब इन देशो के इतिहास के एजेंडे पर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष नही बल्कि समाजवाद के लिए संघर्ष है | लेकिन इन महत्वपूर्ण परिवर्तनों के वावजूद साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध अभी जारी है और जैसा कि फाँसी से तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को फाँसी के बजाए गोली से उडाये जाने की मांग करते हुए लिखे गये अपने पात्र में भगत सिंह , राजगुरु , सुखदेव ने लिखा था : ''यह युद्ध तब तक चलता रहेगा जब तक की शकतीशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिको की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे | चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति , अंग्रेज शासक अथवा सर्वथा भारतीय ही हो | उन्होंने आपस में मिलकर एक लुट जारी कर राखी है | यदि शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थित में कोई फरक नही पड़ता |'' इस पत्र के अनत में विश्वासपूर्वक यह घोषणा की गयी थी कि ''निकट भविष्य में यह युद्ध अंतिम रूप से लड़ा जाएगा और तब यह निर्णायक युद्ध होगा | साम्राजय्वाद व पूंजीवाद कुछ समय के मेहमान है | यहाँ भगत सिंह की इस प्रकार इतिहास दृष्टि से हमारा साक्षात्कार होता है जो राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को जनमुक्ति - संघर्ष की इतिहास यात्रा के दौरान बीच का एक पड़ाव मात्र मानती थी और साम्राजय्वाद - पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष को ही अंतिम निर्णायक संघर्ष मानती थी | भगत सिंह ने कई स्थानों पर इस बात पर बल दिया है कि इस निर्णायक विश्व ऐतिहासिक महासभा का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है और पूंजीवाद का एक मात्र विकल्प समाजवाद ही हो सकता है | आज विश्व स्टार पर पूँजी और श्रम श्कतियो एक नये निर्णायक ऐतिहासिक युद्द के लिए आमने - सामने लामबंद हो रही है | तो भारत के युवाओं और मेह्नात्क्शो के लिए साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के भविष्य के बारे में आकलन और भविष्यवाणी का विशेष महत्व हो जाता है | भगत सिंह , भगवतीचरण वोहरा और हिदुस्तान शोसलिस्ट रिपब्लिक असोसिएशन (एच,एस आ .ए ) के ने अग्रणी क्रान्तिकारियो का दृष्टिकोण भारतीय पूंजीपति वर्ग के बारे में एकदम स्पष्ट था | कांग्रेस के नेतृत्व को इन्ही पूंजीपतियों , व्यापारियों का प्रतिनिधि मानते थे और उनकी स्पष्ट धारणा थी कि राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व यदि कांग्रेस के हाथो में रहा तो उसका अनत एक समझौता के रूप में होगा और इसीलिए वह यह स्पष्ट संदेश देते है कि क्रान्तिकारियो के लिए आजादी का मतलब सत्ता अपर बहुसंख्य मेहनतकश वर्ग का काबिज होना न की लार्ड रीडिंग और लार्ड इरविन की जगह पुरुषोतम दास , ठाकुरदास अथवा गोर अंग्रेजो की जगह काले अंग्रेज का स्तासिं हो जाना | उनकी स्पष्ट घोषणा थी की यदि देशी शोषक भी किसानो -मजदूरो का खून चूसते रहेंगे तो हमारी लड़ाई जारी रहेगी |

साभार --- सामयिक कारवाँ के जुलाई -- दिसम्बर अंक से

Saturday, October 26, 2019

सन्यासी विद्रोह

सन्यासी विद्रोह और उसके सबक ( 1763-1800 )
( क्या आज के सन्यासी , फकीर , महात्मा , धर्मगुरु व धार्मिक नेता सन्यासी विद्रोह के शहीदों व फकीरों से प्रेरणा ले सकेगे ? इन विदेशी साम्राज्यी ताकतों और उनके सहयोगी देश के धनाढ्य वर्गियो से संघर्ष कर सकेगे ? उनके द्वारा लायी गयी और देश के धनाढ्य व हुक्मती हिस्सों द्वारा लागू की गयी नीतियों का विरोध कर सकेगे ? )
बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सत्ता स्थापित ( 1757 ) होने के बाद सत्ता के विरुद्ध देशवासियों का पहला बड़ा विद्रोह सन्यासी विद्रोह के रूप में प्रस्टफूटित हुआ | बकिम चन्द्र के उपन्यास " आनद मठ" का कथानक इसी सन्यासी विद्रोह पर आधारित है |कम्पनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज ने इस विद्रोह को" सन्यासी विद्रोह " का नाम दिया था |सर विलियम हंटर ने स्पष्ट लिखा है कि , सन्यासी विद्रोह की शक्ति मुगल साम्राज्य के बेकार कर दिए गये सैनिक तथा भूमिहीन किसान थे | जीवन यापन का कोई उपाय न रहने पर विद्रोह के रास्ते पर चल पड़े थे |इनमे बहुतेरे लोग गृहत्यागी सन्यासी बन गये थे |उस समय के एतिहासिक तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि इसी वोद्रोह में मुख्यत: तीन शक्तिया शामिल थी | मुख्य रूप से बंगाल व बिहार के किसान थे , जिन्हें कम्पनी के व्यापार व राज ने लुटकर बर्बाद कर दिया था | दुसरे मरते हुए मुगल साम्राज्य के बेकारी और भूख से पीड़ित सैनिक थे | ये सैनिक खुद भी किसानो के ही परिवारों के थे | तीसरे बंगाल व बिहार के सन्यासी व फकीर थे |सन्यासी व फकीर ही इस विद्रोह के अगुवा थे | पर उनकी मूल शक्ति किसानो , दस्तकारो की तथा विद्रोह में शामिल भूतपूर्व मुगल शासन के सैनिको की थी |सन्यासियों ने अपने यायावरी जीवन को , इस विद्रोह को संगठित करने बढाने में लगा दिया | वे गाँव - गाँव घूमते हुए यह अलख जगाते चल रहे थे कि देश को मुक्त करना ही सबसे बड़ा धर्म है | ये विद्रोही सैकड़ो हजारो की संख्या में ईस्ट इंडिया कम्पनी की कोठियो और जमीदारो की कचहरियो को लुटते और उनसे कर वसूलते , इनका पहला हमला ढाका में कम्पनी की कोठी पर हुआ | यह कोठी ढाका के जुलाहों , बुनकरों और कारीगरों पर जुल्म ढाने का केन्द्र थी | उनकी तबाही और बर्बादी का कारण थी | विद्रोहियों ने रात में कोठी पर धावा बोल दिया | पहरेदार , सौदागर और कोठी के व्यवस्थापक भाग निकले | उस कोठी पर अंग्रेज छ: माह बाद ही दुबारा कब्जा कर पाए और वह भी बड़े सैन्य हमले के बाद | विद्रोहियों का दुसरा हमला राजशाही जिले के रामपुर बोआरिया की अंग्रेज कोठी पर हुआ वंहा का सारा धन लुट लिया गया |आमने -सामने की लड़ाई में अंग्रेजो से पराजित होने पर विद्रोहियों ने छापामार युद्ध की नीति अपनाई|
पटना से लेकर उत्तरी बंगाल के तराई इलाके तक सन्यासी विद्रोह की आग फ़ैल गयी थी | विद्रोहियों ने जलपाईगुड़ी में एक किला भी बनाया हुआ था | 1770 - 71 में पूर्णिया जिले के विद्रोहियों को पराजित कर उन्हें बड़ी संख्या में कैद करने में अंग्रेज शासक सफल हुए | उन्ही कैदियों से अंग्रेज शासको को सन्यासी विद्रोह की और जानकारी मिली | उसी जानकारी के अनुसार मुर्शिदाबाद के रेवन्यू बोर्ड के पास भेजे गये पत्रों में यह दर्ज़ है कि ज्यादातर विद्रोही किसान थे | अंग्रेजी शासन के संगठित हमलो के वावजूद सन्यासी विद्रोह बढ़ता - फैलता रहा | उत्तरी बंगाल से अब उसका फैलाव पूर्वी बंगाल के क्षेत्र मैंमन सिंह की तरफ बढ़ता रहा |जलपाई गुडी के पास महास्थान गढ़ और पौण्डवर्धन में भी दुर्ग बनाये गये | 1771 के शरद काल में सन्यासी विद्रोहियों ने उत्तर बंगाल में अपने धावे तेज़ कर दिए |नारोर के सुपरवाईजर ने 25 जनवरी 1772 को पत्र लिखकर यह सूचित किया कि "बाकुड़ा जिले के सिल्बेरी में फकीरों के एक दल ने जनसिन परगना कि कचहरी को लूट लिया | पत्र में उन्होंने यह भी सुचना दी कि ग्रामीणों ने खुद आगे बढकर विद्रोहियों के खाने - पीने का इंतजाम किया |किसानो ने ब्रिटिश सरकार को कर न देने का निर्णय ले लिया | 1773 में विद्रोहियों का प्रधान कार्यालय रंगपुर था | दमन के लिए अंग्रेज सेनापति टामस बड़ी भारी सेना लेकर आया | 30 सितम्बर 1773 को प्रातकाल: रंगपुर शहर के नजदीक श्यामगंज के मैदान में उसने विद्रोहियों पर आक्रमण कर दिया | विद्रोही शीघ्र ही भागने लगे |अंग्रेजी फ़ौज ने उनका पीछा किया | लेकिन आगे के जंगलो में अंग्रेजी फ़ौज विद्रोहियों से घिर गयी | विद्रोही उन पर टूट पड़े | अंग्रेजी सेना के देशी सिपाहियों ने भी विद्रोह कर दिया | थोड़ी ही देर में अंग्रेजी सेना मरती - कटती भागने लगी |टामस भी मारा गया रंगपुर के सुपरवाइजर ने रेवेन्यु काउन्सिल के पास पत्र भेजा कि किसानो ने हमारी सहायता नही की उल्टे उन्होंने लाठी ,भाला आदि लेकर सन्यासियों की तरफ से हमारे विरुद्ध युद्ध किया | जो अंग्रेज जंगल की लम्बी घास को अंदर छिपे थे , किसानो ने उन्हें खोज कर बाहर निकाला और मौत के घाट उतार दिया| मार्च 1774 को इन विद्रोहियों ने मैंमन सिंह जिले में अंग्रेज सेनापति कैप्टन एडवर्ड की सेना नष्ट कर दी उसमे एडवर्ड मारा गया सिर्फ 12 सैनिक ही बच सके | विद्रोहियों के क्रिया - कलापों और उनके साथ किसानो के सहयोग को बढ़ता देख कर गवर्नर हेस्टिंग्ज ने घोषणा की कि जिस गावं के किसान विद्रोहियों के बारे में ब्रिटिश शासको को खबर देने से इनकार करेंगे और विद्रोहियों के बारे कि मदद करेंगे , उन्हें गुलामो कि तरह बाज़ार में बेच दिया जाएगा | इस घोषणा के बाद कईहजार किसानो को गुलाम बना दिया गया |
कितनो को बीच गाँव में फांसी दे दी गयी | विद्रोहियों का संगठन टूटने लगा 1774 - 75 में सन्यासी फकीर मजनू शाह ने उन्हें फिर से संगठित करने का प्रयास किया | 15 नवम्बर 1776 को मजनू शाह की सेना और कम्पनी की सेना में उत्तर बंगाल में युद्ध हुआ | अंग्रेजो को जंगल में खीच कर विद्रोही उन पर टूट पड़े | इस युद्ध में लेफ्टीनेन्ट राबर्ट्सन विद्रोहियों की गोली से घायल हो गया | मजनू शाह और उनके सन्यासी व फकीर साथी भागने में कामयाब रहे | बाद के कई सालो तक मजनू शाह विद्रोहियों को संगठित करने का प्रयास करते रहे | 29 दिसम्बर 1786 को अंग्रेजो के साथ युद्ध करते हुए यह फकीर बिद्रोही बुरी तरह घायल हो गये और कुछ दिनों बाद ही इस महान विद्रोही फकीर मौत के आगोश में सो गये | इसके बाद मजनू शाह के शिष्य फकीर मुसा शाह इस इंकलाबी विद्रोह के बड़े अगुवा बने |इनके अलावा विद्रोहियों के बड़े नेताओं में भवानी पाठक और देवी चौधरानी आदि के नाम उल्लेख्य्नीय है | युद्ध में भवानी पाठक मारे गये देवी चौधरानी उनके बाद भी लडती रही | ब्रिटिश कम्पनी कई सत्ता के विरोधी विद्रोहों में सन्यासी विद्रोह सबसे पहली व मजबूत कड़ी थी | इस संघर्ष में हिन्दू सन्यासी और मुस्लिन फकीर दोनों कई अगुवाई में किसानो व दस्तकारो का बहुत बड़ा हिस्सा इनके साथ खड़ा था | यह विद्रोह दशको तक चलता रहा और उस विद्रोह को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा सालो - साल के संघर्षो के बाद ही दबाया जा सका राष्ट्र व समाज में सत्ता के विरुद्ध विद्रोह तक नही खड़े हो सकते है , जब तक उसकी शोषणकारी , दमनकारी व अन्यायी क्रिया - कलापों के चलते जन साधारण में असंतोष व विरोध नही खड़ा हो जाता | इसीलिए ऐसे विद्रोह तब तक खड़े होते भी रहेगे जब तक जनसाधारण किसानो , मजदूरों , दस्तकारो कई लूट चलती रहेगी | उन पर अन्याय व अत्याचार चलता रहेगा चाहे उसका रूप 1770 के जैसा हो या वह आधुनिक युग के छली , कपटी , भ्रष्टाचारी जनतांत्रिक बाजारवाद के जैसा हो | जिस तरह से विदेशी सत्ता के जरिये जन साधारण के शोषण , लूट कि जा रही थी , उसी तरह ही वर्तमान युग में बढ़ते वैश्वीकरण के साथ विदेशी पूंजी , विदेशी नीतियों व प्रस्तावों के जरिये आम किसानो , दस्तकारो के लूट जारी है | राष्ट्र व जन साधारण पर विदेशी साम्राज्यी का बढना जारी है | क्या आज के सन्यासी , फकीर , महात्मा , धर्मगुरु व धार्मिक लीडर सन्यासी विद्रोह के शहीदों व फकीरों से प्रेरणा ले सकेंगे ? इन विदेशी साम्राज्यी ताकतों और उनके सहयोगी देश के धनाढ्य वर्गियो से संघर्ष कर सकेंगे ? उनके द्वारा लायी गयी और देश के धनाढ्य व हुक्मती हिस्सों द्वारा लागू कि गयी नीतियों का विरोध कर सकेंगे ? इसकी संभावना नही है | क्योंकि आज के सन्यासी फकीर भी लक्ष्मीपूजक हो गये है | देशी व विदेशी धन कुबेरों एवं शासक हिस्सों के साथ हो गये है | वे किसानो - मजदूरों के साथ आये न आये , पर चौतरफा बढती जा रही लूट के विरुद्ध आम लोगो को खड़ा होना ही पड़ेंगा | वर्तमान दौर में तो नही लगता कि कोई सन्यासी भी ऐसा है जो इस रास्ते पे आगे चलेगा ....
सुनील दत्ता----- स्वतंत्र पत्रकार --- समीक्षक
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Tuesday, October 15, 2019

भगीरथ की प्रतीक्षा में है माँ गंगा

भगीरथ की प्रतीक्षा में है माँ गंगा
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विश्व के प्राचीनतम ज्ञान सकलन ऋग्वेद में गंगा सहित अनेक नदियों से राष्ट्र कल्याण की प्रार्थना है |गंगा भारत की पहचान है ,आस्था और संस्कृति है |मृत्यु के समय दो बूंद गंगाजल की अभीप्सा सनातन है |गंगा राष्ट्र जीवन का स्पंदन है |पवन में ,प्राण में पृथ्वी ,पाताल और परमधाम तक में चेतना की जो तरल संवेदना तैरती है ,गंगा उसी की एक कंठ -मधुर सज्ञा है |देश की 37% सिंचित क्षेत्रफल गंगा बेसिन में है |गंगा के अभाव में समृद्धि ,सांस्कृतिक भारत की कल्पना नही की जा सकती |तेरहवी शताब्दी के महान कवि विद्यापति ने गंगा विनती में कहा था कि दृष्ट्वा ,स्मृत्वा ,स्पृश्य (दर्शन ,स्मरण ,स्पर्श ) से ही गंगा मैया श्रद्दालुओं के मन में आ बसती है |
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की प्रतीक गंगा काशी में उत्तरवाहिनी होकर भगवान भोलेनाथ के मस्तक पर विराजमान होकर अर्द्धचन्द्राकार रूप में अपनी मोहनी छटा बिखेर रही है |काशी में गंगा के उत्तर की ओर बहने के निसंदेह: कुछ वैज्ञानिक कारण भी है |गंगा को एक साधारण नदी मान ले तो यथार्थ के धरातल पर स्थूल धौमिकीय कारण पर्याप्त माने जा सकते है |आइंस्टाइन ने यह सिद्ध करने में कोई कसर नही छोड़ी है कि सारी नदियों का मार्ग सर्पिल आकृति गुरुत्वाकर्षण होती है |
लेकिन हिन्दू -मन गंगा को किसी सामान्य सरिता के रूप में न देखता है न जानता है और न मानता है |वृहत्तर सत्य के संदर्भ में उसे सारे वैज्ञानिक कारण सतही और कामचलाऊ लगते है |उसे गंगा में प्राणों का उल्लास दिखाई देता है | बहन का पवित्र प्यार दिखाई देता है ,माँ कि ममता दिखाई देती है और कुल मिलाकर आत्मा के उत्कर्ष कि सीमा दिखाई देती है |वस्तुत:काशी में गंगा के उत्तर -परवाह का प्रश्न विज्ञान से उतना सम्बन्धित नही है जितना आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि से है |काशी में गंगा के उत्तर की ऑर बहने का एक आध्यत्मिक रहस्य है |हजारो साल पहले एक बार महर्षि अत्रि ने ज्ञानवल्क्य से उपासना के संदर्भ में प्रश्न किया |याज्ञवल्क्य ने महर्षि अत्रि से कहा था कि इसके लिए अविमुक्त कहा अवस्थित है ,किस स्थान पर उनकी प्रतिष्ठा है? तब ज्ञानवक्ल्य ने एक गूढ़ उत्तर दिया था -वर्णाया नास्या च प्रतिष्ठित: | अविमुक्ति क्षेत्र कहा जाता है |यह क्षेत्र वरुणा और नास्या अर्थात वरुणा और अस्सी उपनदियो के बीच स्थित है |यही अविमुक्त क्षेत्र काशी है |आज इसी अविमुक्त क्षेत्र काशी में मोक्षदायनी गंगा का अस्तित्व खतरे में है |इसके लिए प्रकृति नही हम जिम्मेवार है |प्रदूषित गंगा मानवता के हित के लिए कराह रही है और एक भगीरथ का रास्ता देख रही है जो गंगा को मुक्ति दिलाये |हमारे पूर्वजो ने गंगा को माँ कहा |गंगा तट तीर्थ बने ,स्नान ,योग और ध्यान के पीठ बने |भारत के मन ने धरती की गंगा को आकाश में भी बहाने का कौशल निभाया |कृष्ण ने अर्जुन को बताया -पार्थ तारो में आकाश गंगा मैं ही हूँ |धरती की नदियों को आकाश में बहाने का शिल्प भारत का ही प्रज्ञा चमत्कार है |भारतीय पूर्वजो का उद्देश्य गंगा की महता ही बताना था भारत में मन में प्रतिपल गंगा का भाव है |गंगा से जुडा एक विशाल अर्थतंत्र है |तीर्थ है ,तीर्थो से जुड़े व्यापारी और पुजारी है ,मछुवारे है |गंगा से निकलने वाली नहरे है |गंगा एक विपुल क्षेत्र की सिंचाई का साधन है |वर्षा ऋतू की नदी नही है गंगा बारह मॉस हिमखंडो से बहती है ढेर सारी नदियों को आत्मसात करती है |माँ गंगा भारत का काव्य है ,आध्यात्म है अर्थ्य है ,आचमन ,पूजन वन्दन है गंगा |गंगा का परवाह अन्द्ध नाद है |नील टेम्स या डेन्यूब के उदगम स्थलों का दर्शन करने कोई नही जाता ,लेकिन गोमुख का दर्शन भारत में परमलब्धि है |अब तक ऋषिकेश और हरिद्वार तक गंगा जल शुद्ध था ,अब गढ़मुक्तेश्वर तक की यात्रा में इसकी हताशा है ,लेकिन कुमाऊ रूहेलखंड ,मुरादाबाद ,बरेली शाहजहापुर ,हरदोई पार करते गंगा औद्योगिक कचरे के घोल में परिवर्तित होती जा रही है गंगा |गंगा का अविरल प्रवाह देश - काल ,सभ्यता संस्कृति और आस्था अर्थशास्त्र सहित सभी दृष्टियों का आह्वान है |अगर हम सरकारी प्रयासों की बात करे तो हरिद्वार से आगे गंगा की सफाई और इसके पानी को नहाने लायक बनाने के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने गंगा एक्सन प्लान की शुरुआत की थी |इस परियोजना पर 1984 से अब तक एक हजार करोड़ रूपये खर्च किए जा चुके है ,लेकिन गंगा जल में कोई सुधार नजर नही आता |ऐसा नही है की गंगा के पानी को स्वच्छ नही किया जा सकता है |ऐसा हो सकता है ,लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ -गंगा आम लोगो को भी अपनी इस धरोहर के प्रति संवेदनशील होना पडेगा |राजनीत मौन है |आश्चर्य है की संसदीय व्यवस्था भी इसी प्रश्न पर कोई साकार ध्यानाकर्षण नही कर पा रही है |विश्व व्यापार संगठन प्रायोजित औद्योगिक घरानों से निर्देशित सरकारी तंत्र को जगाने के लिए जनांदोलन ही एक मात्र विकल्प है |कुछ नि:स्वार्थी लोग आगे आये है |प्रत्येक गंगा भक्त के सामने भगीरथ बन जाने का अमृत अवसर है ...................................माँ गंगा को मोक्षदायनी ,जीवनदायनी ,आइये गंगा को फिर वही स्वरूप देने का काम करे जो गंगा का पहले स्वरूप था .....................

Monday, October 14, 2019

लहू बोलता भी है

लहू बोलता भी है

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन भाग

उलेमाओं की राय थी की अब जो हालात है , उसके मुताबिक़ सिर्फ मुसलमानों के आन्दोलन से अंग्रेज को मुल्क से बाहर कर पाना मुश्किल ही नही बल्कि नामुमकिन है | इसी दौरान जालियाँवाला बाग़ के हादसे ने खुद - ब खुद हिन्दू मुसलमान को अंग्रेजो के खिलाफ एक जुट होकर लड़ने की जमीन तैयार कर दी | खिलाफत आन्दोलन के समय महात्मा गांधी के साथ ने भी दोनों कौमो के बीच की दुरी को बहुत हद तक कम कर दिया था | जमीअतुल - उलमा -ए - हिन्द ने भी अपने इजलास में साफ़ तौर पर कहा कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद दिन - पर दिन अपनी जड़े मजबूत करता जा रहा है | भारत के हिन्दू और मुसलमान ने अगर मिलकर आन्दोलन नही चलाया , तो अंग्रेजो को मुल्क से बाहर कर पाना नामुमकिन हो जाएगा | महात्मा गांधी ने हकीम अजमल खान को साथ लेकर जमीअतुल -उलमा -ए - हिन्द को आन्दोलन में साथ देने के लिए दावत दी , जिस पर जमात के लोगो ने हामी भर दिया | अब जमीअतुल - उलमा - ए - हिन्द और कांग्रेस ने कंधे - से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता - आन्दोलन में नई जान फूंक दी , लेकिन जब कभी इस्लामिक कानून का कोई पेचीदा मामला सामने आ जाता तब माहौल कुछ असहज हो जाता था | बाद में उसका भी रास्ता निकल जाता - जैसे कि नेहरु की रिपोर्ट , साइमन कमीशन , शुद्दी सगठन और शारदा एक्ट के सवाल पर जमात - ए - उलमा -ए - हिन्द ने मुखालिफत की थी | इस पर कांग्रेस रहनुमाओं ने कोई प्रतिक्रिया नही दी | जमीअतुल - उलमा -ए - हिन्द ने मुस्लिम इशु ( जैसे शरियत बिल , खुला बिल , काजी बिल ) पर कांग्रेस की हिमायत पाने में कामयाबी हासिल कर ली थी | सन 1908 - 1910 के बीच अलीगढ़ कालेज और देवबंद से आलमियत की शिक्षा हासिल किये छात्रो ने एक जमातुल - अंसार - एसोशियेशन बनाकर दोनों ख्यालो के लोगो को एक प्लेटफ़ार्म दिया ताकि ख्यालाती एख्तलाफ दूर करके सभी लोग जंगे - आजादी में पुरे जी जान से जुट सके | दारुल उलूम ( देवबंद ) में 1910 में एक बहुत बड़े जलसा -ए - दस्तारबंदी का एहेतामाम हुआ जिसमे तक़रीबन 30 हजार लोग शामिल हुए | इसकी खासियत एक वजह से और बढ़ गयी थी जब इस जलसे में आफताब अहमद खान की कयादत में अलीगढ़ कालेज के टीचरों और लडको का एक डेलिगेशन शामिल हुआ और हर मामले पर आपस में खुलकर बात हुई | जमातुल अंसार के बाद सन 1913 में एक तंजीम नजरतुल मारिफ के नाम से देहली में बनी | इसमें शेख - उल - हिन्द , मौलाना हुसैन अहमद मदनी , डा मोखतार अहमद अंसारी , नवाब वकारुल मुल्क , हकीम अजमल खान वगैरह शामिल हुए | इस तंजीम को सियासत से दूर खासतौर कुरआन की तालीम की तरक्की के लिए बनाया गया था | मुसलमानों में अब तक़रीबन हर तबका जंगे - आजादी में अपने नजरयाति एख्तलाफ को दूर करने के साथ चलने लगा था | इसी मुहीम में जामिया मिलिल्या इस्लामिया के लोग भी शामिल हुए | अंग्रेजो से लगातार किसी - न किसी महाज पर मुसलमानों की जंग जारी थी |मुजाहिदीन ने यंगिस्तान के दफ्तर को खबर कर दी की हथियारों के साथ खाने - पीने का सामान अब खत्म होने की कगार पर है | इसलिए फौरी तौर पर किसी जंग की गुंजाइश नही बन पा रही है | तब उलेमाओं ने मुस्लिम मुल्को से मदद के लिए कहा | इसके बाद मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी को काबुल भेजा गया और खुद शेख - उल - हिन्द इस्ताम्बुल गये |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
लहू बोलता भी है --- सैय्यद शाहनवाज कादरी

Monday, October 7, 2019

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन भाग- चार

लहू बोलता भी हैं ---

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन भाग- चार

सबकी राय के बाद विद्रोह का फैसला तय हो गया | अब सवाल हुआ कि अमीरुल - मोमनीन किसे बनाया जाए | सबकी इत्तेफाके - राय से हाजी इम्दादुल्लाह सैय्यद बहादुर को अमीरुल - मोमनीन बनाकर मजलिसे - शुरा ने आजादी का एलान कर दिया | हाजी इम्दादुल्लाह महाजिर मक्की ने इस्लामिक सरकार की बुनियाद रखी और उनके अमीर ने इंतजामिया के सारे अख्त्यारात अपने हाथो में रखे - साथ ही , मौलाना रशीद अहमद गंगोही और मौलाना कासिम नानोतवी को नायब बनाया गया | आरजी इस्लामी हुकूमत ने शरियत के मुताबिक़ कुछ फैसले भी लिए | उलमाओं की बैठक अभी खत्म भी नही हुई थी कि खबर मिली की थाना भवन और शामली में अंग्रेज फ़ौज आम लोगो को सडक चलते बिना किसी गलती के जुल्म कर रही है | उलमाओं की फ़ौज फ़ौरन शामली की तरफ रवाना हुई और एक टीम थाना भवन में ही अंग्रेजो से मोर्चा लेने की तैयारी के लिए रुक गयी | बाग़ शेर अली शामली में अंग्रेज सैनिको से उलमाओं की जमकर जंग हुई और थाना - भवन और शामली में अंग्रेज फ़ौज के पैर उखड गये और वे भाग निकले - जो बचे थे - वे जंग में मारे गये | इस जंग में जामिन अली , राशिद अहमद गंगोही , मौलाना कासिम नानोवती ने अंग्रेजो से लड़कर उन्हें परास्त कर दिया | इस पूरी जंग के कमांडर मौलाना कासिम नानोवती थे | इन जंग में काजी इनायत अली और जामिन अली शहीद हो गये , लेकिन उलमाओं की मुजाहेदीन सेना ने ब्रिटिश सेना पर फतह हासिल की | इस हार के बाद अंग्रेजो ने आम मुसलमानों के साथ - साथ गैर - मुस्लिमो पर जुल्मो - ज्यादती बढ़ा दी | न जाने कितने लोगो को किसी जुर्म के बगैर ही सडक के किनारे पेड़ो पर लटकाकर फांसी दे दी | कई लोगो को हाथियों से कुचलवाकर मार डाला गया | उलमाओं को इस कार्यवाही से बहुत गहरा सदमा पहुचा | अभी वे लोग इस मुसीबत का कोई सियासी और मजबूत हल तलाश कर ही रहे थे की सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीव पड़ी | कांग्रेस की तंजीम और मकासिद को देखते हुए आम मुसलमानों ने फौरी कोई राय नही बनाई , लेकिन राष्ट्रीय सोच के उलमाओं ने दो कदम आगे आकर कांग्रेस का खैरमकदम किया और मुसलमानों का झुकाव आहिस्ता - आहिस्ता कांग्रेस की तरफ होता गया | मुसलमानों का झुकाव कांग्रेस की तरफ होता देख अंग्रेज नौकरशाह थोडा फिक्रमंद हुए और कांग्रेस की मकबूलियत को कम करने के लिए अलीगढ़ कालेज के प्राचार्य मिस्टर बेक ने कुछ मुसलमानों को साथ लेकर एक नई तंजीम भारतीय देशभक्त सगठन बनाकर कांग्रेस की खुले - आम मुखालिफत शुरू कर दी | बेक ने सर सैय्यद अहमद खान को भी कांग्रेस की मुखालिफत के लिए राजी कर लिया | सर सैय्यद अहमद खान ने अपने हमख्याल मौलानो और मुसलमानों के पढ़े-लिखे तबके को साथ लेकर एक तंजीम अंजुमन मुहिब्बाने वतन के नाम से बना दी और इसी तंजीम के बैनर से कांग्रेस की मुखालिफत करना शुरू कर दिया | इसकी वजह से जिस तेजी से मुसलमान कांग्रेस के साथ जुड़ रहा था , उसमे भी रुकावट आ गयी | सर सैय्यद अहमद ने कुछ उलमाओं से कांग्रेस के खिलाफ फतवा भी जारी कर दिया i

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
लेखक --- सैय्यद शाहनवाज कादरी

Sunday, October 6, 2019

आगरा रेड फोर्ट - भाग दो -

आगरा रेड फोर्ट - भाग दो -
अदभुत है रेड फोर्ट
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इस गेट से अन्दर जाने के बाद सामने ही खुबसूरत महल पर नजर पड़ती है यह है जहाँगीर महल यह लाल पत्थरों की बनी दो मंजिला इमारत है , अकबर ने इसे अपने पुत्र के लिए बनवाया था इसकी छत और दीवारे आकर्षित रंगों से सजी हुई है इसमें सुनहरी रंग भी शामिल है | कुछ समय बाद इसी तरफ की ईमारत जहाँगीर ने बनवाई थी जब उसने अकबर द्वारा जोधाबाई के लिए बनी इमारत नष्ट कर दी | लेकिन कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यह इमारत अकबर ने जहाँगीर की पत्नी के लिए बनवाई कारण ऐसी ही एक इमारत फतेहपुर सिकरी में भी है |
इसके चार कोने अलग - अलग कामो के लिए थे जोधाबाई इसका पूर्वी हिस्सा पुस्तकालय के लिए इस्तेमाल करती थी पश्चिमी हिस्सा मंदिर के लिए उत्तरी हिस्सा बातचीत के लिए तथा चित्रकारी के लिए दक्षिण तरफ का हिस्सा प्रयोग करती थी | यह महल हिन्दू तथा मध्य एशिया की कला के संगम का प्रतीक था |
अंगूरी बाग़ --
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यह ख़ास महल के सामने स्थिति है | यह अकबर द्वारा पत्नी तथा अन्य हराम की औरतो के लिए बनवाया गया था | इसके लिए मिटटी कश्मीर से लाइ गयी थी | यह बाग़ दो मंजिला इमारतों से तीन कोनो से घिरा है बाद में जहांगीर ने अंगूर की खेती करवाकर उससे शराब बनवाता था |
ख़ास महल --
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ख़ास महल को शाहजहाँ द्वारा सफेद संगमरमर का शानदार महल बनवाया गया था | यह हरम की औरतो द्वारा इस्तेमाल किया जाता था | इसे आरामगाह भी कहा जाता था | यह शाहजहाँ द्वारा चित्रकारी के लिए तथा सोने के लिए इस्तेमाल किया जाता था | ये कहावत है कि यहाँ सभी मुग़ल राजाओ के चित्र थे जो भरतपुर के जाट रराजा द्वारा नष्ट कर दिए गये |
दीवाने - ए- ख़ास --- दीवान - ए - ख़ास अथवा शाहजहाँ द्वारा बनवाया गया था यह सफेद संगमरमर से सन 1637 में बनवाया गया यह नदी के किनारे स्थिति है | दीवान - ए- ख़ास एक ऐसी जगह जहाँ बादशाह अपने तमाम मंत्रियो और गुप्त लोगो के बैठकर बाते करते थे | शाहजहाँ का प्रसिद्द मयूर सिंहासन यही पर रखा गया था | कुछ समय उपरान्त यह औरंगजेब द्वारा दिल्ली ले जाया गया | फिर यह सिंहासन कुछ हमला करने वाले लोगो द्वारा हासिल कर लिया गया अब यह तेहरान में मौजूद है |
शीश महल --
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यह जगह हराम की औरतो द्वारा श्रृंगार करने के लिए प्रयोग की जाती थी | यह शाहजहाँ द्वारा सन 1630 में बनवाया गया था , उसने यह अपने परिवार के सदस्यों के लिए बनवाया यह तुर्की ढंग से बना नहाने के घाट जैसा था | जिसमे दो हाल , दो टंकिया - एक गर्म पानी और दूसरा ठंडे पानी के लिए थी | छोटी बत्तियो की रौशनी में मुग़ल बादशाह अपनी पत्नियों के साथ ऐश तथा आराम किया करते थे |
सम्मान बुर्ज --
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जेसमीन टावर , सम्मन बुर्ज मुसम्मन बुर्ज एक ही इमारत का नाम है , जो की जहाँगीर द्वारा अपनी पत्नी नूरजहाँ के लिए बनवाया गया था | कुछ समय बाद यह शाहजहाँ द्वारा मुमताज महल के लिए वापस बनवाया गया | यह काम करिश्मा है , इसमें अमूल्य तथा रागिन पत्थरों का कम किया गया है | यह ही वो जगह है जहां औरंगजेब द्वारा शाहजहाँ को कैद किया गया था | यह शाहजहाँ का मरण स्थान है , जहाँ उसने अपनी आखरी साँसे अपनी प्रिय बेटी जहाँआरा के गोद में ली थी तब वे ताज की तरफ देख रहे थे |
नगीना मस्जिद ---
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नगीना मस्जिद बादशाह औरंगजेब द्वारा सन १६७५ में बनवाई गयी उन्होंने हरम की औरतो के लिए यह मस्जिद बनवाई थी | यह मच्छी के उत्तर पश्चिमी तरफ है इसकी दक्षिण दीवार में एक दरवाजा है जो की मीना बाजार को जाता है |
दीवान -ए - आम -- दीवान -ए आम जनता के लिए हाल का निर्माण लाल पत्थर से अकबर द्वार करवाया गया और यह मच्ची भवन के के पश्चिमी तरफ स्थित है | यह शाहजहाँ द्वारा फिर से बनवाया गया | इसकी वृत्तखंड और छत पर संगमरमर पे कशीदाकारी का कम किया हुआ है |
मीना मस्जिद -- यह बादशाह औरंगजेब द्वारा शाहजहाँ के प्रयोग के लिए बनवाई गयी जब वे आगरा किले में कैद थे | यह सफेद संगमरमर का बना हुआ है | इसके अन्दर का नाम 22 गुना 13 फीट है और इसके आगे 22 स्क्वायर फीट बरामदा है |
मीना बाजार - यह बाजार अकबर द्वारा हरम की सुन्दर औरतो के लिए बनवाई गयी थी | यह लाल पत्थर की बनी थी यह एक बाजार था जहाँ अमूल्य वस्तुए खरीदी और बेचीं जाती | कोई भी मर्द इस बाजार में नही जा सकता था | आगरा रेड फोर्ट देखने के बाद मैं .राज और राजीव बढ़ चले इटावा की तरफ -- जारी

आगरा रेड फोर्ट में -- भाग एक

आगरा रेड फोर्ट में -- भाग एक
24 सितम्बर हम सब भाई एह्तेशाम और मारुफ़ भाई से मिलने के बाद सीधे राज के छोटे भाई के घर पहुचे रात वही पर व्यतीत हुआ दूसरे दिन हम लोग अंशुल के यहाँ गये वहाँ पर राज को शहीद मेला की वेव साईट की प्रगति देखनी थी , सारा काम सम्पन्न होने के बाद वापसी फिर यमुना एक्सप्रेसवे की तरफ बढ़ लिए , उस दिन बारिश भी जमकर हो रही थी , मुझे आगरा का रेड फोर्ट देखना था जब मैंने राज से कहा तो उन्होंने कहा ताजमहल क्यो नही ? मैंने हँसकर जबाब दिया किले में बहुत कुछ मिलेगा , हम सब किरण पाल जी की चर्चा करते हुए यमुना एक्सप्रेस वे पार किया संशय की स्थिति में आगे बढ़ते रहे अन्तोगत्वा राज ने एक ढाबा खोज ही लिया , हम लोग सडक से उतर कर कटीले तारो को पार करके चाय पिने नीचे उतरे संयोग से चाय मिल गयी , फिर यात्रा आगे बढ़ चली , आगरा के मुहाने पर जब हम सब पहुचे तो राज ने पूछा क्या ख्याल है हमने कहा जो आप सब का गाडी आगरे किले की तरफ मुड गयी हम सब रेड फोर्ट पर खड़े थे अचानक सामने एक टूरिस्ट गाइड आ गया , कम बहस में वो किला घुमाने के लिए राजी हो गया हम सब साथ निकल लिए |
{आगरा रेड फोर्ट }
आगरा किला खासकर तीन मुग़ल बादशाहों ने पूरा किया इसकी शुरुआत अकबर ने किया था यह किला इमारतो तथा महलो का म्यूजियम है , इसको अकबर , शाहजहाँ , औरंगजेब द्वारा बनवाया गया था |
आगरा किला यमुना नदी के बायीं तट पर बनाया गया है जो कि आगरा शहर के पूर्वी तरफ है | यहाँ दीवारे मोटे तथा शक्तिशाली लाल पत्थरों से बने गयी है | यह कहावत है कि अकबर ने यह किला पुराने बादलगढ़ के किले के स्थान पर बनवाया | इस किले की बाहर की दीवार 40 फीट ऊँची है और अन्दर की 70 फीट | आगरा का किला दो बड़ी खाइयो से घिरा था | इन दोनों में से अन्दर वाली खाई अब भी मौजूद है , लेकिन बाहर वाली खाई को भर दिया गया है और अब वहाँ सडक है | दोनों खाइयो में डरावने तथा खतरनाक कछुओ और एनी जिव जन्तुओ से भरी थी ताकि कोई दुश्मन इस खाई को आसानी से न पार कर सके | यह किला सन १५६५ में बनना शुरू हुआ और इसे बनाने में साथ साल लगे | इसे बनवाने कि जिम्मेदारी कासिम खान को सौपी गयी जो कि अकबर की सेना का मुख्य गवर्नर था | इस इमारत को बनाने में 35 लाख रूपये लगे थे | प्रसिद्ध साहित्यकार अबुल -फजल ने इस के बारे में कहा है कि इस किले में कम से कम 500 इमारते थी , लेकिन दुर्भाग्यवश अब कुछ ही इमारते बच गयी है नादिरशाह के आक्रमण में इस किले को नष्ट करने की कोशिश की गयी , फिर मराठो तथा जातो ने हमला किया कुछ राजाओं ने तो ताज तथा ने मुग़ल इमारतो में ''भूसा ' भर दिया था |
''अमर सिंह गेट ''
किले के दक्षिण तरफ यह गेट स्थित है जो आम जनता के लिए खुला है | अमर सिंह गेट बादशाह , शाहजहाँ द्वारा बनवाया गया था | इसका नाम राजपूत के बहादुर राव अमर सिंह राठौर जो कि जोधपुर के राजा था , उनके नाम पर रखा गया था | वो शाहजहाँ के दरबार के मान सबदर थे | सन १६४४ में सलाबत खान , राज्य के रक्षक अमर सिंह राठौर की बेइज्जती की , इसलिए गुस्से में आकर उन्होंने सलाबत खान का क़त्ल कर दिया , वो भी मुगलों के दरबार में | इस कारण मुग़ल सेना उनके खिलाफ हो गयी | इस कारण वो अपने घोड़े पर सवार होकर किले की दीवारों की ओर दौड़ते हुए उन्हें फाँद कर जहाँ छलाँग मारी वही अमर सिंह गेट का निर्माण हुआ उन्होंने वो खाई अपने घोड़े की मदद से पार की , जो कि उसे कुछ किलोमीटर तक ही साथ दे पाया , यह घटना सिकन्दरा के पास हुई | घटना को तजा रखने के लिए यहाँ एक घोड़े का बुत बनवा कर उसे स्थापित किया गया दूसरा गुरु ताल और सिकन्दरा के बीच , जहाँ उस घोड़े की मौत हुई थी | आज उस घोड़े का बुत अपनी गर्दन के बगैर आज भी मौजूद है , यह गर्दन अब भी आगरा किले के म्यूजियम में मौजूद है |

Saturday, October 5, 2019

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन भाग -तीन

लहू बोलता भी है -

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन भाग -तीन

भाग दो से आगे -
ब्रिटिश अधिकारियो के दस्तावेजो से पता चलता है कि मुस्लिम जंगे - आजादी तंजीम के जरिये संघर्ष की रोजाना आवाजे कही - न कही - से उठने लगी , जो की आगे चलकर सन 1857 की जंगे - आजादी की जमीन तैयार करने में काम आई | हर तरफ से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ माहौल बनने लगा | रोजाना यह अफवाह जोर पकडती गयी कि अंग्रेज सभी हिन्दुस्तानियों को ईसाई बनने और मजहब बदलने पर मजबूर कर रहे है | इन बातो का असर हिन्दुस्तानी सिपाहियों और फौजियों के दिलो - दिमाग पर भी पड़ने लगा | उलमाओं के फतवों के जरिये अंग्रेजो के खिलाफ मुसलमानों को लामबंध करना शुरू कर दिया | जब काफी तादात में मुसलमानों ने जंगे - आजादी के लिए अपना मिजाज बना लिया , तब आगे का आन्दोलन चलाने के लिए मौलाना महमुदुल हसन , मौलाना मोहम्मद अली , मौलाना शौकत अली , मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी , मौलाना अब्दुल कलाम आजाद , मौलाना मक्बुलुरह्मान वगैरह ने मिलकर एक आजाद तंजीम गदर पार्टी के नाम से बनाई | थाना भवन मुजफ्फर नगर में एक जलसा हुआ , जिसमे आस पास के मशहूर उलमा इकठ्ठा हुए , इनमे मौलाना हाजी इम्दादुल्लाह महाजिर मक्की , हजरत हाफ़िज़ जामिन अली हजरत मौलाना शेख मोहम्मद मुहद्दिस , हजरत मौलाना कासिम नानोतवी हजरत मौलाना राशिद अहमद गंगोही , हजरत मौलाना अहसान , मौलाना मजहर वगैरह का नाम खासकर लिया जाता है | इस में दो तजाविज पर राय - मशवरा हुआ |
1- अंग्रेजो के खिलाग जंग शुरू करना |
2- जब जंग शुरू होगी तो आन्दोलन की हद में आयेगा या नही |
पहले इशु पर सबकी राय एक थी | दुसरे पर हालत के मुताबिक़ फैसला लेने की बात तय हुई | इसी बैठक में मौलाना कासिम नानोतवी ने इस्लामी रौशनी में बताया कि मुसलमानों और मजहब की हिफाजत के लिए जब तक सभी इलाको के मुस्लिम एक - साथ ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के लिए तैयारी नही कर लेते , तब तक हमे इन्तजार करना चाहिए | उससे कबल जेहाद का एलान नही करना चाहिए | इस पर मौलाना कासिम नानोतवी ने जबाब दिया कि अंग्रेजो से सभी पहले की संधियों की खिलाफवर्जी करते हुए कई बेगुनाह मुस्लिमो को सूली पर चढा दिया | इन हालात में एक तरफा संधि से बंधे रहने के लिए हम मजबूर नही है | इसलिए हम ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जंग शुरू कर सकते है |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
लहू बोलता भी है - सैय्यद शाहनवाज कादरी - भाग तीन

Friday, October 4, 2019

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन भाग - दो

लहू बोलता भी हैं -

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन भाग - दो

इस बारे में शाह अब्दुल अजीज ने कहा था कि भारत अब मुस्लिमो और धिमिम्यो ( गैर मुस्लिम ) के लिए सकूं और हिफाजत की जगह नही रह गयी है काफ़िरो (अंग्रेजो ) की ताकत में लगातार इजाफा होता जा रहा है | वे जब चाहते है , कोई भी इस्लामिक कानून की खिलाफवर्जी कर लेते है | यही नही वे कोई भी कानून हटा सकते है | ऐसे में कोई इतना ताकतवर नही है , जो इन्हें ऐसा करने से रोक दे | ऐसे में अब यह मुल्क सियासी एतबार से दारुल -हर्ब हो गया है | ऐसे हालात में शाह अब्दुल अजीज ने सन 1803 में फतवा जारी किया कि भारत में अब दारुल - इस्लाम खत्म हो गया है | फ़तवा आने के बाद समझदार और मजहबी ख्याल के मुसलमानों में उम्मीद की नयी किरण दिखने लगी और किसी मजबूत कयादत के बगैर ही मुसलमान आहिस्ता - आहिस्ता मुत्तहिद और लामबंद होने लगा | जेहाद को आम जनता की हिमायत मिलने लगी | इसे और मजबूत करने के लिए शाह सैय्यद अहमद ने पुरे हिन्दुस्तान में दौरा करके अंग्रेजो से नये सिरे से लड़ने का माहौल मुसलमानों में पैदा किया और हिन्दुस्तान से खत्म हुई इस्लामिक पहचान और वकार को दोबारा पाने के लिए लोगो को तैयार किया | यह एक ऐतिहासिक सच है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वजूद में आने से पहले ही उलमाओ और उनके माननेवालो ने एक मजबूत तंजीम बना ली थी , जिसने ब्रिटिश फ़ौज के खिलाफ स्वतंत्रता - आन्दोलन की शुरुआत कर दी थी | इस तंजीम के आंदोलनों में हिन्दुओ ने भी हिस्सा लिया और मुसलमानों के साथ उनकी कयादत में अंग्रेजो से लड़े | उलमाओं की इस तंजीम का असर यह हुआ कि आम गरीब मुसलमान बगैर किसी फौजी साजो - सामान या तैयारी के ही फतवे का हुकम मानकर अपने मजहब की हिफाजत के लिए अल्लाह की राह पर अपना घर - बार छोड़कर मैदान में आने लगे | उलमाओं ने गैर - मुस्लिमो को यकीन दिलाया की हमारा मकसद सिर्फ अंग्रेजो को मुल्क से बाहर करके अपनी खोयी हुई इज्जत - आबरू हासिल करना है | हमारा मकसद हुकूमत करना नही है , बल्कि हमारा मकसद सिर्फ अंग्रेजो को हराना है |अंग्रेजो के जाने के बाद हमारा अकीदा पूरा हो जाएगा | उसके बाद जो लोग भी हुकूमत करना चाहे उन्हें पूरा मौका दिया जाएगा |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
लेखक सैय्यद शाहनवाज कादरी

Monday, September 30, 2019

बगाल की संस्कृति का आगमन आजमगढ़ तक

बगाल की संस्कृति का आगमन आजमगढ़ तक --------------
परानापुर में काली बाड़ी में होती है पारम्परिक तरीके से पूजा
ओकार स्वरूप की अविभाज्य ऊर्जा '' प्रकृति '' के रूप में '' शक्ति ' की उपासना वैदिक काल से प्रचलित रही है | किन्तु '' नव दुर्गा '' रूपायन '' सप्तशती '' मूर्ति स्थापना एवं सामूहिक पूजा -- विसर्जन बाद के यूग की देंन है | अवतारवाद के धारणा के साथ त्रिदेव ( ब्रम्हा , विष्णु , महेश ) तथा बहुदेव ( ग्राम देवता ) कुल देवता आदि की परिकल्पना एवं मान्यताए आई किन्तु शक्ति स्वरूपा दुर्गा सभी परिकल्पनाओं में उपस्थित थी | यही समस्त ब्रह्माण्ड के परिचालन की अजस्र स्रोत है | किन्तु बंगाल की धरती इस उपासना पद्दति की केन्द्र -- बिंदु है | प्राचीन गणराज्य में भी बंगाल का '' काली मन्दिर '' लोगो की आस्था का केन्द्र रहा है | कहते है कि आधुनिक '' कोलकाता '' का मध्य एवं उत्तरकाल में नाम '' कलिका -- स्थान '' -- '' कलिकाथा '' कलिकाता बनता -- बिगड़ता रहा है जो काली माँ के आधार पर अवस्थित है | स्वास्थ्य , संगीत , कला मंच , व्यापार के माध्यम से बगाली बन्धुओ ने इसे न केवल उत्तर प्रदेश, बिहार बल्कि देश के सुदूर प्रान्तों और अंचलो तक ले गये | बंग विभाजन एवं बागलादेश के उदय ने भी बगाल मूल के लोगो का पूरे बड़े फलक पर वितरण किया | फलत: बंग - बन्धुओ के साथ '' दुर्गापूजा '' भी समूचे विश्व में प्रतिष्ठित हुआ | बंगाल में देवी पूजन परम्परा का मूल 19 वी शताब्दी में प्राप्त होता है | जब विधर्मियो के आक्रमण से धार्मिक आन्दोलन का समय था | बालकवि दीपक एक स्मृतिकार थे उन्होंने संस्कृत श्लोकों एवं बंगभाषी पद्दति में दुर्गापूजा का विधान बनाया | इसे अन्य स्मृतिकारो ने सुधारा | व्यवस्थित सुधार रघुनन्दन भट्टाचार्य ने 1757 ई में एक भव्य आयोजन के साथ किया | इसी वर्ष प्लासी युद्ध के पश्चात श्याम -- बाजार के राजवंशी राजा नवकृष्ण बहादुर ने दुर्गापूजा का भव्य आयोजन किया और लार्ड क्लाइव को आमंत्रित किया | इसी बीच 11 वी शताब्दी में लिपिबद्ध , दुर्गाचरण पद्धति को वाचस्पति मिश्र ने विस्तार से लिखा और दस प्रहरणी ( दस अस्त्रों से प्रहार करने वाली ) देवी का रूपायन किया तो सर्व प्रथम ताहिरपुर के महाराज वंश नारायण ने साढ़े आठ लाख रुपया खर्च कर 1783 में उत्तर भारत में दुर्गापूजा का भव्य आयोजन किया था | उत्तर भारत में बंगीय दुर्गापूजा की शुरुआत 1773 ई में काशी में आनन्द मोहन मित्रा के द्वारा किया गया | इसके ठीक तीन वर्ष बाद गोरखपुर की दुर्गाबाड़ी में वैसा ही भव्य आयोजन की शुरुआत हुई | दिल्ली में सार्वजनिक पूजा 1910 में शुरू की गयी -- धीरे --धीरे इसी क्रम में प्रयाग , लखनऊ , कानपुर आदि बड़े महानगरो से होते हुए यह सिलसिला 1956 में आजमगढ़ पहुचा | 1956 में यहाँ तैनात कुछ बंग बन्धुओ जो अधिकारी व डाक्टर और अन्य पेशो से जुड़े लोग थे उन्होंने तय किया कि यहाँ भी दुर्गापूजा होना चाहिए | इसी कर्म में श्री श्याम लाल अग्रवाल के स्टैन्डर्ड मेडिकल हाल के उपर बने मकान में उपस्थित हुए गणमान्य बंग बन्धु और शहर के सम्भ्रांत लोगो ने मिलकर बंग सोसायटी की नीव रखी | उस नीव रखने में डा नवजीवन बनर्जी , राजेन्द्र नाथ दत्ता ( रेलवे स्टेशन मास्टर ) डा एस के मुखर्जी ( तत्कालीन हेल्थ अफसर ) आजमगढ़ ई बी दास ( तत्कालीन एस डी ओ हाइडिल ) डा पी के अग्रवाल ( एम् ओ सीतापुर आँख का अस्पताल ) डा एस के साहा - डा चित्तपद विश्वास , डा एस के सेन डा श्रीमोन्तो सिन्हा श्यामलाल अग्रवाल , के साथ विद्युत् -- विभाग से जुड़े श्री हिरण्य सेन गुप्ता , श्री बी मुखर्जी , विशटूपद दास , श्री निशिकांत राय , डी के दता और प्रख्यात इतिहासकार डा शांति स्वरूप वर्मा व एडवोकेट भगवान स्वरूप वर्मा ने इस बंग सोसायटी के माध्यम से आजमगढ़ को एक ऐसा मंच दिया जो आजमगढ़ को एक संस्कृति और परम्परा प्रदान करती है | 1956 सर्व प्रथम '' आदि शक्ति '' का पूजा का केन्द्र बना हाइडिल का कैम्पस | माँ आदि शक्ति का आव्ह्वान षष्टी के दिन विधिवत संस्कारों से पूरा क्या गया और सप्तमी के दिन इन परिवारों से जुड़े लोगो ने एक नये युग का सूत्रपात शास्त्रीय संगीत , कत्थक नृत्य , उप शास्त्रीय संगीत के माध्यम से महा अष्टमी के दिन बंग सोसायटी के शानदार मंचीय अभिनय कलाकारों ने पहला नाट्य मंचन '' शाहजँहा '' से किया | इसमें शाहजहाँ का मुख्य किरदार निभाया मिस्टर वी के दत्ता और अन्य किरदारों में डा एस के साहा , डा पी के अग्रवाल एन के राय बी मुखर्जी हिरण्य सेन गुप्ता शिशिर विश्वास ने इसका निर्देशन डा एस के साहा ने किया था | नवमी के दिन हिन्दी नाटक का मंचन हुआ पता करने के बाद भी उस नाटक का नाम नही मालुम हो सका | 1957 में बंग सोसायटी का दूसरा पड़ाव बना नर्सरी स्कूल का प्रागण -- 1957 द्वारा कलाभवन में जिले के बाढ़ पीडितो के आश्रय के लिए निर्माण कुसुम संगीत विद्यालय की स्थापना श्रीमती कुसुम कटारा द्वारा की गई थी जो जनपद के तत्कालीन जिलाधिकारी श्री बीरेन्द्र कटारा की पत्नी थीं। इस कलाभवन के साथ कुछ विशेषताए भी जुडी है इस कलाभवन के रंगमंच को प्रख्यात सिने कलाकार पृथ्वीराज कपूर ने डिजाइन किया था और इसके पुस्तकालय में महा पंडित राहुल साकृत्यायन ने बौद्ध काल की मुर्तिया और प्राचीन काल की अमूल्य पांडुलिपिया सौपी थी जो आज नदारत है अगर वो पांडुलिपिया होती तो आजमगढ़ पर शोध करने वाले लोगो के काम आती | इसके साथ ही एक रंग आन्दोलन की शुरुआत भी श्री कटारा जी ने किया इस कला भवन में पुस्तकालय के साथ ही अपनी पत्नी कुसुम जी के नाम से एक संगीत विद्यालय की स्थापना की | इस संगीत विद्यालय में 1959 में मिस्टर जैन जो एक शानदार कत्थक नर्तक थे उन्होंने इस जनपद को अपना अमूल्य योगदान दिया और यहाँ उन्होंने कत्थक नृत्य की शिक्षा शुरू की | कलाभवन के निर्माण के बाद से ही बंग सोसायटी का आदि शक्ति ( दुर्गापूजा ) का आयोजन इस प्रागण में होता चला आ रहा है | इसी दौरान आजमगढ़ बंग सोसायटी को 1964 में एक बेहतरीन कलाकार मिला '' गरीब फार्मिसी '' के संचालक डा रामपद चक्रवर्ती जी वो मात्र यहाँ तीन वर्ष ही रहे उनके बाद उनके भांजे डा गोराचांद बनर्जी ने बंग सोसायटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की बागडोर संभाली डा गोराचांद बनर्जी ने बंग सोसायटी के मंच को एक ऊंचाई प्रदान की अपने बेजोड़ निर्देशकीय क्षमता से बंगला भाष्य के नाटको के साथ हिन्दी नाटको का और बंगाल की जात्रा का सफल निर्देशन किया इसके साथ ही उन नाटको में नूतन प्रयोग भी किये | इसी वर्ष इस मंच को जिले के रंग -- क्षेत्र में दो होनहार नगीने मिले | श्री दीनदयाल सिंह जो पी डब्लू डी में जूनियर इंजिनियर थे और शमशुल हुदा खान जो बाद के दिनों में '' डैडी " के नाम से मशहूर हुए | 70 के दशक में बंग सोसायटी को उस समय की नई पीढ़ी ने गति के साथ नई ऊर्जा प्रदान की डा पवित्र जीवन बनर्जी , डा जमाल , बृज मोहन , श्रीमती मंजू दत्ता , नमिता दता , सविता दता ,मीना दता ,श्रीमती मीना साहा ,श्रीमती स्वरूप इन सारे लोगो ने अपने मंचीय अभिनय से इस बंग सोसायटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों को नई उर्जा प्रदान की उसी दशक में बंग सोसायटी में और निखार आया अब इसमें अपनी सक्रियता को इन लोगो ने बढाया डा दीपक साहा , अचिन कुमार दता डा सुभाष सिन्हा , प्रेम मजुमदार ,धिरेश्वर चटर्जी , गोपेश्वर बनर्जी डा तपन कुमार विश्वास आर बी भट्टाचार्य , नरेन भट्टाचार्य चंडी जीवन बनर्जी मधुलिका साहा , मधुछ्न्दा साहा , शिखा साहा , सुनीता सिन्हा श्रीमती जयश्री साहा ने बंग सोसायटी के मंच को नई दिशा प्रदान की 80 के दशक में इसमें जुड़े सुनील कुमार दत्ता , डा सौमित्र जीवन बनर्जी , उत्पल कुमार दत्ता , सुधीर कुमार दत्ता अधीर कुमार दत्ता , उत्तम दत्ता , रुद्राणी दत्ता , रीना दत्ता , पीयूष चक्रवर्ती बंग सोसायटी में 80 के दशक में बंग सोसायटी के रंगमंच पर नये प्रयोग की शुरुआत हुई सुनील दत्ता ने बादल सरकार के नूतन प्रयोग थर्ड थियेटर और शाशंक बहुगुणा के मनोशारीरिक थियेटर की समावेश करते हुए नाटको में नये प्रयोग किये बाबू देर डाल कुकुर , सेम साईट , डकैत कौन , विशुरेर बीये , मिस्टर जासूस , आमी मोदोंन बोलछी, पिनकुशन , काफी हाउस में इन्तजार , जनता पागल हो गई, हमे हमारा अधिकार दो के साथ ही दर्जनों नाटको का निर्देशन किया इसके साथ ही अभिनय भी किया | 90 के दशक में पीयूष चक्रवर्ती और सुमित दास ने लाईट साउंड का नया प्रयोग किया इसमें प्रकृति के संरक्षण को '' उपकारी वृक्ष और निरकुश मानव , लाल कमल नील कमल , महिषासुर मर्दनी संगीत की खोज में लाईट और साउंड की बेजोड़ प्रयोग करके उसके साथ ही बंग परिवार के बच्चो को भी मंचीय कलाकार बनाया कुमारी लिपि दत्ता , प्रकृति दता , श्रुति दत्ता , डोली मजुमदार , नन्दनी दास , मिष्टी दास , रेशम दास , बोनी दास ,शुभांकर दत्ता , समीर दत्ता , समरेश दत्ता , सुष्मिता दत्ता जैसे बाल कलाकारों ने अपने गीत संगीत नृत्य और अपने अभिनय से इस बंग सोसायटी के रंग मंच को नई दिशा देने का काम किया और आज भी बंग सोसायटी अपनी उसी पुरातन आदि शक्ति ( दुर्गा पूजा ) के परम्पराओं का निर्वहन करती चली आ रही है | वर्तमान समय में परानापुर में काली बाड़ी निर्मित हो चूका है गत बीते 5 वर्षो से वहा पर इस परम्परा का निर्वहन हो रहा है |
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

Thursday, September 26, 2019

आज जन्मदिन पर भगत सिंह का --

आज जन्मदिन पर भगत के --
कल भी गुलाम थी - आज भी गुलाम है आम जनता
महान क्रांतिकारी महावीर सिंह
............( लोग भगत सिंह के साथ रहे क्रांतिकारी महावीर सिंह के बारे में शायद कम ही जानते होंगे | महावीर सिंह का जीवन संघर्ष और उसमे उनके पिता का उत्कृष्ट प्रेरणादायक योगदान आज के पिताओं ,पितामहो के लिए भी शिक्षाप्रद है |क्योंकि वर्तमान दौर के पिताओं का लक्ष्य अपने बेटो ,पोतो को धन ,पद -प्रतिष्ठा और पेशो की उंचाइयो पर येन -केन प्रकारेण चढाना हो गया है |अगर महावीर सिंह और उनके पिता जैसे लोगो के त्याग -बलिदान के फलस्वरूप हमारे राष्ट्र व समाज को कुछ अधिकार मिले थे व मिले है ,तो साम्राज्वाद की वर्तमान विश्वव्यापी चढत -बढत और पितामहो व पिताओं तथा बेटे -बेटियों की निरी स्वार्थी मनोदशाए राष्ट्र व समाज के खासकर बहुसंख्यक जन साधारण के वर्तमान व भविष्य को संकटग्रस्त भी जरुर करेगी |)
महावीर सिंह का जन्म 16 सितम्बर 1904 के दिन शाहपुर टहला नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था |यह गाँव उत्तर प्रदेश के एटा जिले में है |पिता कुंवर देवी सिंह अच्छे वैद्ध थे और आस -पास के क्षेत्र में उनका अच्छा प्रभाव था |माता श्रीमती शारदा देवी सीढ़ी -सादी एक धर्मपरायण महिला थी |महावीर सिंह की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल में हुई और उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा पास की गवर्मेंट कालेज एटा से |
बगावत की भावना महावीर सिंह में बचपन से ही मौजूद थी और राष्ट्र -सम्मान के लिए मर -मिटने की शिक्षा उन्होंने अपने पिता से प्राप्त की थी |घटना जनवरी सन 1922 की है |एक दिन कासगंज तहसील (जिला एटा ) के सरकारी अधिकारियों ने अपनी राजभक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से अमन सभा का आयोजन किया | जिलाधीश , पुलिस कप्तान ,स्कूलो के इंस्पेक्टर ,आस -पड़ोस के अमीर -उमरा राय बहादुर ,खान बहादुर आदि जमा हुए | छोटे -छोटे बच्चो को भी जबरदस्ती ले जाकर सभा में बिठाया गया |उनमे महावीर सिंह भी थे |लोग बारी -बारी उठकर अंग्रेजी हुकमत की तारीफ़ में लम्बे -लम्बे भाषण दे रहे थे |तभी बच्चो के बीच से किसी ने जोर से से नारा लगाया 'महात्मा गांधी की जय '!बाकी लडको ने भी उसके स्वर मिलाकर ऊँचे कंठ से समर्थन किया 'महात्मा गांधी की जय '! देखते -देखते गांधी विरोधियो की वह सभा गांधी की जय जयकार के नारों से गूंज उठी |जांच के फलस्वरूप महावीर सिंह को विद्रोही बालको का नेता घोषित कर दिया गया |सजा भी मिली पर उससे उनकी बगावत की भावना और भी मजबूत हो गयी |
1925 में जब वे कालेज पढने के लिए कानपुर आये तो असहयोग आन्दोलन सम्पात हो चुका था लेकिन देश की जनता के दिलो की आग ठंठी नही हुई थी |चारो ओर असंतोष की आग सुलग रही थी |स्वत:स्फुरित संघर्षो के रूप में किसानो की बगावते जारी थी |मजदुर तथा मध्यम वर्ग के लोग भी अपने -अपने तरीको से लड़ रहे थे |नौजवानों की क्रांतिकारी टोलियों ने फिर से हथियार उठा लिए थे |परिस्थितियों ने महावीर सिंह को अछूता नही छोड़ा |कालेज में क्रांतिकारी दल से उनका सम्पर्क हुआ और वे उसके सदस्य बन गये |
उसी दौरान महावीर के पिता जी ने उनकी शादी तय करने के सम्बन्ध में उनके पास पत्र भेजा |पत्र पाकर वे चिंतित हुए |क्रांतिकारी साथियो से सलाह मशविरा किया |फिर उसी अनुसार पिता जी को राष्ट्र की आजादी के लिए क्रांतिकारी संघर्ष पर चलने की सूचना देते हुए शादी -व्याह के पारिवारिक संबंधो से मुक्ति देने का आग्रह किया |चन्द दिनों बाद पिता का उत्तर आया |उन्होंने लिखा कि '' मुझे यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि तुमने अपना जीवन देश के काम में लगाने का निश्चय किया है |मैं तो समझता था कि हमारे वंश में पूर्वजो का खून अब नही रहा और उन्होंने दिल से गुलामी कबूल कर ली है |तुम्हारा पत्र पाकर आज मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली समझ रहा हूँ |शादी की बात जहा चल रही थी ,उन्हें जबाब लिख दिया है |निश्चिन्त रहो ,मैं ऐसा कोई काम नही करूंगा जो तुम्हारे मार्ग में बाधक हो |
देश कि सेवा का जो मार्ग तुमने चुना है वह बड़ी तपस्या का और बड़ा कठिन मार्ग है लेकिन जब तुम उस पर चल ही पड़े हो तो पीछे न मुड़ना ,साथियो को धोखा मत देना और अपने बूढ़े पिता के नाम का ख्याल रखना | तुम जहा भी रहोगे मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है ..............तुम्हारा पिता .देवी सिंह
क्रांतिकारी गतिविधियों में लगातार लगे रहे महावीर सिंह लाहौर में बुरी तरह बीमार पड़े |वे संग्रहणी व पेचिश से परेशान थे |कुछ भी हजम नही हो पा रहा था |साथियो ने राय दी कि कुछ दिनों के लिए एटा चले जाओ |तुम पर तो वारेंट नही है |ठीक हो जाने पर वापस चले आना |महावीर ने साथियो से कहा कि -क्या पिता जी कि चिठ्ठी उन्हें याद नही है |उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि पीछे मुडकर मत देखना उसमे घर का माया -मोह आदि सब शामिल था और उन्होंने वे शब्द बहुत सोच -समझ कर लिखे थे |फिर साथियो से हंस कर बोले -चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा |इसी बीच लाहौर में पंजाब बैंक पर छापा मारने कि योजना बनी |पहले दिन साथी बैंक पर भी गये |लेकिन महावीर सिंह को जिस कार द्वारा साथियो को बैंक से सही -सलामत निकाल कर लाना था वही ऐसी नही थी कि उस पर भरोसा किया जा सकता |अस्तु भरोसे लायक कार न मिलने तक के लिए योजना स्थगित कर दी गयी |तभी लाहौर में साइमन कमिशन आया |'साइमन कमिशन वापस जाओ " के नारों के साथ काले झंडे के एक विराट प्रदर्शन से उसका स्वागत किया गया |फिर अंधाधुंध लाठिया बरसी ,लाला जी आहात हुए और कुछ दिनों में उनकी मृत्यु हो गयी |यह राष्ट्र के पौरुष को चुनौती थी और क्रान्तिकारियो ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया |बैंक पर छापा मारने कि योजना स्थगित कर दी गयी और लाला जी पर लाठिया बरसाने वाले पुलिस अधिकारी को मारने का निश्चय किया गया |उस योजना को कार्यान्वित करने में भगत सिंह आजाद तथा राजगुरु के साथ महावीर सिंह का भी काफी योगदान था |
साडर्स की हत्या के बाद महावीर सिंह फिर अस्वस्थ रहने लगे |लाहौर का पानी उनके स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नही पड़ रहा था |उधर लाहौर का वातावरण भी काफी गरम था |सुखदेव ने उन्हें संयुक्त प्रांत (उत्तर - प्रदेश ) वापस जाने की सलाह दी |आगरा का पता उनके पास नही था ,इसलिए वे कानपुर चले गये और चार दिन सिसोदिया जी के पास छात्रावास में रहे |फिर इलाज के लिए अपने गाँव पिता जी के पास चले गये |आज एक गाँव तो कल दूसरे गाँव आज एक सम्बन्धी के यहा तो कल किसी दूसरे सम्बन्धी या मित्र के यहा |इस प्रकार रोज जगह बदलकर पिताजी से इलाज करवाने में लग गये कि जल्द -से -जल्द स्वस्थ होकर मोर्चे पर वापस जा सके |सन 1929 में दिल्ली असेम्बली भवन में भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त द्वारा बम फेके जाने के बाद लोगो की गिरफ्तारिया शुरू हो गयी और अधिकाश: क्रांतिकारी पकडकर लाहौर पहुचा दिए गये |महावीर सिंह भी पकडे गये |पुलिस या जेलवालो से किसी -न किसी बात पर आये दिन क्रान्तिकारियो का झगड़ा हो जाता था |उस समय वे लोग मोटे- तगड़े साथियो को चुन लेते थे और सबका गुस्सा उन पर उतारते |इस प्रकार हर मारपीट में भगत सिंह ,किशोरी लाल ,महावीर सिंह ,जयदेव कपूर ,गया प्रसाद आदि कुछ मोटे -तगड़े साथियो को बाकी के हिस्से की मार खानी पड़ती थी |जेल में क्रान्तिकारियो द्वारा अन्याय के विरुद्ध 13 जुलाई ,1929 से आमरण अनशन शुरू किया गया |दस दिनों तक तो जेल अधिकारियों ने कोई विशेष कार्यवाही नही की |उनका अनुमान था कि यह बीस -बीस बाईस -बाईस साल के छोकरे अधिक दिनों तक बगैर खाए नही रह सकेंगे |लेकिन जब दस दिन हो गये और एक -एक कर साथी बिस्तरों पर पड़ने लगे तो उन्हें चिंता हुई |सरकार ने अनशनकारियो कि देखभाल के लिए डाक्टरों का एक बोर्ड नियुक्त कर दिया था |अनशन के ग्यारहवे दिन से बोर्ड के डाक्टरों ने बलपूर्वक दूध पिलाना आरम्भ कर दिया |महावीर सिंह कुश्ती भी करते थे और गले से भी लड़ते थे ||जेल अधिकारी को पहलवानों के साथ अपनी कोठरी की तरफ आते देख वे जंगला रोकर खड़े हो जाते |एक तरफ आठ -दस पहलवान और दूसरी तरफ अनशन के कमजोर महावीर सिंह |पांच -दस मिनट की धक्का -मुक्की के बाद दरवाजा खुलता तो काबू करने की कुश्ती आरम्भ हो जाती |एक दिन जेल के दो अधिकारी को आपस में बात करते सुना कि 63 दिनों के अनशन में एक दिन भी ऐसा नही गया जिस दिन महावीर सिंह को काबू करने में आधे घंटे से कम समय लगा हो |डाक्टर के साथ भी ऐसी ही बीतती थी | महावीर सिंह ने शत्रु की अदालत को मान्यता देने से इनकार कर दिया था |लाहौर षड्यंत्र केस केअभियुक्तों के प्रचार से घबड़ाकर केस को जल्द -से जल्द समाप्त कर देने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने 1930 के आरम्भ में एक अध्यादेश जारी किया जिसका नाम था 'लाहौर षड्यंत्र केस आध्यादेश ' |इसे 1930 का तीसरा अध्यादेश भी कहा गया था |आध्यादेश के अनुसार लाहौर हाईकोर्ट के तीन जजों का एक ट्रिब्यूनल नियुक्त कर मजिस्ट्रेट की अदालत से केस उठाकर नयी अदालत को सुपुर्द कर दिया गया |नयी अदालत को यह भी अधिकार था कि उसकी निगाह में जब भी अभियुक्त दोषी प्रमाणित हो जाए ,तो बाकी गवाहों की गवाहिया लिए बगैर वही पर केस की सुनवाई समाप्त कर वह अपना निर्णय दे सकती थी |इस अदालत के विरुद्ध कही भी अपील नही हो सकती थी |अदालती सुनवाई के दौरान महावीर सिंह तथा चार अन्य साथियो ने (कुंदन लाल ,बटुकेश्वर दत्त ,गयाप्रसाद और जितेन्द्रनाथ सान्याल ) एक बयान द्वारा अपने उद्देश्य की व्याख्या करते हुए कहा की वे शत्रु की अदालत से किसी प्रकार के न्याय की आशा नही करते है |यह कहकर उन्होंने अदालत को मान्यता देने और उसकी कार्यवाही में भाग लेने से इनकार कर दिया था |
महावीर सिंह तथा उनके साथियो का यह बयान लाहौर षड्यंत्र केस के अभियुक्तों की उस समय की राजनितिक एवं सैद्दानतिक समझ पर अच्छा प्रकाश डालता है |बयान के कुछ अंश इस प्रकार थे :
".....................हमारा यह दृढ विश्वास है की साम्राज्यवाद लुटने -खसोटने के उद्देश्य से संगठित किए गये एक विस्तृत षड्यंत्र को छोडकर और कुछ नही है |साम्राज्वाद मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र को धोखा देकर शोषण करने की नीति के विकास की अंतिम अवस्था है |साम्राज्यवादी अपने लूट -खसोट के मंसूबो को आगे बढाने की गरज से केवल अपनी अदालतों द्वारा ही राजनितिक हत्याए नही करते वरन युद्ध के रूप में कत्ले -आम विनाश तथा अन्य कितने वीभत्स एवं भयानक कार्यो का संगठन करते है |ऐसे लोगो को ,जो उनकी लूट -खसोट की माँगों को पूरा करते है या उनके तबाह करने वाले घृणित मंसूबो का विरोध करते है ,गोली से उड़ा देने में वे जरा भी नही हिचकिचाते |'न्याय तथा शान्ति का रक्षक ' होने के बहाने वे शान्ति का गला घोटते है ,अशांति की सृष्टि करते है ,बेगुनाहों की जाने लेते है और सभी प्रकार के जुल्मो को प्रोत्साहन देते है |
हमारा यह विश्वास है कि मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति आजादी का हक़दार है ,उसे कोई दुसरा व्यक्ति दबाकर नही रख सकता |हर मनुष्य को अपनी मेहनत का फल पाने का पूरा अधिकार है और हर राष्ट्र अपने साधनों का पूरा मालिक है |यदि कोई सरकार उन्हें उनके इन प्रारम्भिक अधिकारों से वंचित रखती है तो लोगो का अधिकार है -नही ,उनका कर्तव्य है की ऐसी सरकार को उलट दे ,उसे मिटा दे |चूँकि ब्रिटिश सरकार इन वसूलो से ,जिन के लिए हम खड़े हुए है बिलकुल परे है इसलिए हमारा दृढ विश्वास है कि क्रान्ति के द्वारा मौजूदा हुकूमत को समाप्त करने के लिए सभी कोशिशे तथा सभी उपाय न्याय संगत है |हम परिवर्तन चाहते है -सामाजिक ,राजनितिक तथा आर्थिक ,सभी क्षेत्रो में आमूल परिवर्तन |हम मौजूदा समाज को जड़ से उखाडकर उसके स्थान पर एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते है कि जिसमे मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाए और हर व्यक्ति को हर क्षेत्र में पूरी आजादी हासिल हो जाए |हम महसूस करते है की जब तक समाज का पूरा ढाचा ही नही बदला जाता और उसकी जगह पर समाजवादी समाज की स्थापना नही हो जाती तब तक दुनिया महाविनाश के खतरे से बाहर नही है |
रही बात उपायों की -शांतिमय अथवा दुसरे -जिन्हें हम क्रांतिकारी आदर्श की पूर्ति के लिए काम में लायेंगे |हम कह देना चाहते है की इसका फैसला बहुत कुछ उन लोगो पर निर्भर करता है जिसके पास ताकत है |क्रांतिकारी तो फायदा चाहने के सिद्धांत पर विश्वास करने के नाते शान्ति के उपासक है -सच्ची और टिकने वाली शान्ति के जिसका आधार न्याय तथा समानता पर है ,न की कायरता पर आधारित तथा संगीनों की नोक पर बचाकर रखी जाने वाली शान्ति के |
बयान के अन्त में कहा गया गया था ,'हम पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का अभियोग लगाया गया है |हम ब्रिटिश सरकार की बनाई हुई किसी भी अदालत से न्याय की आशा नही रखते और इसलिए हम न्याय के नाटक में भाग नही लेंगे |"
केस समाप्त हो जाने पर सम्राट के खिआफ युद्ध और सांडर्स की हत्या में सहायता करने के अभियोग में उन्हें उनके सात अन्य साथियो के साथ आजन्म कारावास का दंड दिया गया |सजा के बाद कुछ दिनों तक पंजाब की जेलों में रखकर बाकी लोगो को (भगत सिंह राजगुरु सुखदेव और किशोरी लाल के अतिरिक्त )मद्रास प्रांत की विभिन्न जेलों में भेज दिया गया |महावीर सिंह और गयाप्रसाद को बेलोरी (कर्नाटक राज्य के अंतर्गत ) सेंट्रल जेल ले जाया गया |
वे 1930 -31 के सत्याग्रह के दिन थे और बेलारी जेल स्याग्रही बन्दियो से भरा था |जेल में इन दोनों साथियो ने कैदी नम्बर की तख्ती सीने पर लटकाने ,टोपी पहने ,परेड के दौरान सर पर बिस्तरा आदि रखकर खड़े होने से इनकार कर दिया |
जेलर अपने समय का मुक्केबाज था |वह सिपाहियों से उन्हें खड़ा करवाता ,फिर हर एक पर दस -दस ,पन्द्रह -पन्द्रह तक मुक्केबाजी का अभ्यास करता |जेलर ने वाडर से कहकर महावीर सिंह की कोठरी खुलवाई |वाडरो ने महावीर सिंह को बाहर लाकर जेलर के सामने खड़ा कर दिया और उसने मुक्केबाजी शुरू कर दी |उस दिन महावीर सिंह के हाथो में हथकड़ी नही थी |उन्होंने एक झटके से अपना दाहिना हाथ छुडा लिया और जेलर के मुँह पर इतनी जोर से घुसा मार दिया की हाथ -पैर बंधे कैदियों पर घुसेबाजी का अभ्यास करने वाले उस बुजदिल जेलर का बहादुर कैदियों पर मुक्केबाजी समाप्त हो गयी |हालाकि इसके बाद दंड महावीर सिंह को तीस बेतों की सजा झेलनी पड़ी |हर बेत की सजा के साथ टिकटिकी पर बंधे महावीर सिंह 'जिंदाबाद 'के नारे लगाते रहे |उनके पीठ की खाल उधडती रही ,पर उनके नारे तीव्रतर होते गये |तीस की गिनती पूरी होने पर वहा खड़े अस्पताल के लोगो ने उन्हें टिकटिकी से उतारा और स्ट्रेचर पर डालकर अस्पताल ले जाना चाहा |लेकिन महावीर सिंह ने स्ट्रेचर पर लेटने या किसी का सहारा लेने से इनकार कर दिया |उन्होंने जेलर की ओर देखकर जेल को क़पा देने वाली आवाज में एक बार फिर नारा लगाया और उन्नत भाल टहलते हुए अपने अहाते चले गये |जेलर भी सर झुकाए धीमी गति से चुपचाप अपने दफ्तर की ओर चल दिया -जैसे बेत महावीर सिंह को नही उसकी को लगे हो |जनवरी 1933 में उन्हें उनके कुछ साथियो के साथ मद्रास से अण्डमान (काला पानी )भेज दिया गया |उन दिनों अण्डमान जेल की हालत बड़ी खराब थी |वहा इंसान जानवर बनाकर रखा जाता था |अस्तु सम्मानजनक व्यवहार ,अच्छा खाना ,पढने -लिखने की सुविधाए ,रात में रौशनी आदि की मांगो को लेकर सभी राजनितिक बंदियों ने 12 मई,1933 से अनशन आरम्भ कर दिया |उससे पूर्व इतने अधिक बन्दियों ने एक साथ इतने दिनों तक कही भी अनशन नही किया था |अनशन के छठे दिन से ही अधिकारियों ने बलपूर्वक दूध पिलाने का कार्यक्रम आरम्भ कर दिया |
आधे घण्टे की कुश्ती के बाद दस -बारह व्यक्तियों ने मिलकर महावीर सिंह को जमीन पर पटक दिया और डाक्टर ने एक घुटना उनके सीने पर रखकर नली नाक के अन्दर चला दी |उसने यह देखने की परवाह नही की की नली पेट में न जाकर महावीर सिंह के फेफड़ो में चली गयी है |अपना फर्ज पूरा करने की धुन में पूरा एक सेर दूध उसने फेफड़ो में भर दिया और उन्हें मछली की तरह छटपटाता हुआ छोडकर अपने दल -बल के साथ दूसरे बन्दी को दूध पिलाने चला गया |यह घटना 17 मई 1933 की शाम की है |महावीर सिंह की तबियत तुरंत बिगड़ने लगी |कैदियों का शोर सुनकर डाक्टर उन्हें देखने वापस आया लेकिन उस समय तक उनकी हालत बिगड़ चूकि थी |उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहा देर रात के बारह बजे के बाद आजीवन लड़ते रहने का व्रत लेकर चलने वाला हमारा अथक क्रांतिकारी देश की माटी में विलीन हो गया |अधिकारियों ने चोरी -चोरी उनके शव को समुद्र के हवाले कर दिया |आगे चलकर उस अनशन में दो और क्रांतिकारी मोहित मित्र और मोहन किशोर शहीद हुए |महावीर सिंह के कपड़ो में उनके पिता का एक पत्र भी मिला था |वह पत्र उन्होंने महावीर सिंह के अण्डमान से लिखे उक्त पत्र के उत्तर में लिखा था | पत्र का सारांश कुछ ऐसा है "इस टापू पर सरकार ने देशभर के जगमगाते हीरे चुन -चुनकर जमा किए है |मुझे ख़ुशी है की तुम्हे उन हीरो के बीच रहने का मौक़ा मिल रहा है |उनके बीच रहकर तुम और चमको ,मेरा तथा देश का नाम अधिक रौशन करो ,यही मेरा आशीर्वाद है "|
आज जिस आजादी का उपभोग हम कर रहे है उसकी भव्य इमारत की बुनियाद डालने में महावीर सिंह उन जैसे कितने अज्ञात क्रान्तिकारियो ने अपना रक्त और माँस गला दिया था |किसी देश में महावीर सिंह जैसे बहादुर देशभक्त और उनके पिता जैसी आत्माए रोज -रोज जन्म नही लेती |उनकी यादगार हमारे गौरवपूर्ण इतिहास की पवित्र धरोहर है |क्या हम उसका उचित सम्मान कर रहे है ?
--"भगत सिंह के साथी क्रांतकारी शिव वर्मा की संस्मृतियो से |
पिता का उपरोक्त पत्र महावीर सिंह द्वारा लिखे पत्र के उत्तर के रूप में आया था |महावीर सिंह का पत्र 'भगत सिंह एवं साथियो के दस्तावेज में मौजूद है |उसको हम संक्षिप्त रूप में दे रहे है |
पूज्य पिताजी ! पोर्टब्लयेर (अंडमान ).....प्यारे भाई का क्या हाल है ...इसकी सुचना मुझे शीघ्र दीजिएगा |उसे केवल वैद्ध ही बनने का उपदेश न देना ,बल्कि साथ -ही साथ मनुष्य बनाना भी बतलाना |आजकल मनुष्य वही हो सकता है जिसे वर्तमान वातावरण का ज्ञान हो ,जो मनुष्य के कर्तव्य को जानता ही न हो परन्तु उसका पालन भी करता हो |इसलिए समाज की धरोहर को आलस्य तथा आरामतलबी तथा स्वार्थपरता में डालकर समाज के सामने कृतघ्न न साबित हो |इससे शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की उन्नति करता रहे ,क्योकि दोनों आवश्यक है |शारीरिक पुष्टि अन्न तथा व्यायाम से तथा मानसिक अध्ययन से |उसे आजकल के वातावरण का ज्ञान करने के लिए समाचार पत्र तथा एतिहासिक ,साम्पत्तिक तथा राजनैतिक ,सामाजिक पुस्तको का अवलोकन (अध्ययन ) को कहिये |समाज से मेरा मतलब आर्य समाज अथवा अन्य संकीर्णताव्य्जक समाज नही है ,परन्तु जनसाधारण का है |क्योंकि ये धार्मिक समाज मेरे सामने संकीर्ण होने के कारण कोई भी मूल्य नही रखते है और साथ ही इस संकीर्णता तथा स्वार्थपरता तथा अन्यायपूर्ण होने के कारण सब धर्मो से दूर रहना चाहता हूँ और दुसरो को भी ऐसा ही उपदेश देता हूँ (और )उसको सबसे बढकर तथा मनुष्य तथा समाज का (के लिए )कल्याणकारी समझता हूँ वह है "मनुष्य का मनुष्य तथा प्राणी -मात्र के साथ के कर्तव्य बिना किसी जाति-भेद ,रंग भेद धर्म तथा धन भेद के "|...................आपका आज्ञाकारी पुत्र महावीर सिंह .....(सेलुलर जेल ,पोर्टब्लयेर (अंडमान )
.......... प्रस्तुति -- सुनील दत्ता .पत्रकार

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन - भाग - एक

लहू बोलता भी हैं -
जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन

अंग्रेजो ने सन 1799 में टीपू सुलतान को धोखे से हराकर उनका कत्ल कर दिया था | उससे पहले प्लासी की जंग में भी उन्होंने नबाब के ख़ास लोगो को अपनी तरफ मिलाकर उनका कत्ल करके उनकी सरहदों तक पर अपना कब्जा जमा लिया था | इस तरह बंगाल , बिहार , उड़ीसा और युनाईटेड प्राविन्स के ज्यादातर हिस्से ईस्ट इंडिया कम्पनी के जरिये ब्रिटिश हुकूमत के कब्जे में आ गये थे | अवध का सूबा ब्रिटिश हुकूमत के लिए एक कोरिडोर की तरह था | एक समझौते के मुताबिक़ हैदराबाद पर ब्रिटिश हुकूमत का ही असर था | इधर , मराठा आपस में न सिर्फ बटे हुए थे , बल्कि खुद आपस में ही लड़ भी रहे थे | दूसरी तरफ मराठो से जंग में अंग्रेज अफसरों की चालाकी से मराठा कमजोर हो गये | इसका फायदा अंग्रेजो ने उठाया और अपने रास्ते की रुकावट दूर कर ली | मराठो के बाद अंग्रेजो की निगाह सिंधिया - राज पर थी जिसे आपसी संधि के जरिये ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी तरफ कर लिया | इसके बाद अंग्रेजो ने दिल्ली की तरफ रुख किया | दिल्ली के राजा शाह आलम सेहत से कमजोर और अंधे हो चुके थे | उनकी जंग लड़ने की हालत भी नही थी | इसका भी अंग्रेजो ने भरपूर फायदा उठाया और उन्हें अपनी पनाह में लेकर उनकी जरूरतों का बन्दोबस्त करके उन्हें भी हुकूमत से हटाकर दिल्ली की हुकूमत को भी पूरी तरह अपने कब्जे में कर लिया | अब हिन्दुस्तानियों को डराने की कार्यवाही शुरू हुई | दिल्ली सडको पर अंग्रेजी फ़ौज ने बगैर किसी वजह के ही अपनी ताकत का मुजाहरा किया | बचे हुए नवाबो और जमींदारों को भी डरा धमका सबसे अलग - अलग संधियाँ करके उन्हें मदद करने का लालच दिया और उनके हलको को भी अपने कब्जे में कर लिया | बाद में उनकी हिफाजत के लिए जो सेनाये अंग्रेजो ने तैनात की , उनका खर्च भी उन्ही पर डालकर उन्हें कर्जदार बना दिया | जो सरदार , नवाब या जमींदार कर्ज की अदायगी नही करता , उसकी जायदाद और एजाज को जब्त कर लिया जाता था | देश के उत्तर - पश्चिम में सिख - सामंत आपस में छोटी - बड़ी लड़ाई लड़कर थक हुके थे | सभी सिख - सामन्तो को एक - एक करके सिख - राजनेता राजा रंजित सिंह ने अपना शासन बरकरार रखने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी से एक शान्ति - संधि कायम की अपने - आप को सुरक्षित कर लिया था | इस संधि के बाद जब एक तरफ अंग्रेजो से फौरी खतरा टल गया तो दूसरी तरफ उनके शासन में मुसलमानों के साथ भेदभाव और ज्यादती के अलावा उन पर जुल्म बढने लगे | कई मस्जिद और खानकाहे तोड़ी जाने लगी | पुरे पंजाब में माहौल खराब होने लगा , जबकि वहां मुसलमान तादात के एतबार से अक्सरियत में थे | अब कलकत्ता से दिल्ली तक कम्पनी के कब्जे में पूरी तरह से आ चुका था , जिसका फायदा उठाकर अंग्रेजो ने ईसाइयत को मजबूत करना शुरू किया | आम कारोबारियों और मुसाफिरों के शहर में दाखिल होने पर तो कोई रोक नही थी , लेकिन शुजाउल मुल्क और विलायत बेगम जैसे ख़ास लोगो को शहर में घुसने पर पाबंदी थी | तब की मजबूत रियासतों में से हैदराबाद , रामपुर और लखनऊ ने मुहायदे के तहत अंग्रेज अफसरों के मातहत काम करना शुरू कर दिया था | एक तरीके से इन रियासतों ने भी अंग्रेजो की गुलामी मंजूर कर ली थी | कितनी हैरत की बात थी कि भारतीयों के खर्चे पर पलने वाली भारतीय फ़ौज अब अंग्रेजो के हुकम की गुलाम होकर भारतीयों पर ही जुल्मो - ज्यादती करने पर मजबूर थी | सारे राजा , नवाब , जमींदार व जागीरदार इन मंजर का तमाशा देख रहे थे |अंग्रेजो की बढती ताकत और चालाकी से फैलाए हुए उनके जाल में एक - एक करके ज्यादातर रियासते फंसकर गुलाम हो गयी अंग्रेज अब मुस्लिम - समाज से बदला लेने की तैयारी में लग गये थे , जिसे देखते हुए मुस्लिम - समाज में बेचैनी बढनी लाजिमी थी | आगे जारी भाग - एक

लहू बोलता भी है - सैय्यद शाहनवाज कादरी
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Friday, September 20, 2019

हिंदू बनाम हिंदू ----------------------- राममनोहर लोहिया

हिंदू बनाम हिंदू ----------------------- राममनोहर लोहिया

भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई, हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पाँच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अंत अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गई, जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रख कर हिंदुस्तान के इतिहास को देखा जाए। लेकिन देश में जो कुछ होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है। सभी धर्मों में किसी न किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है। लेकिन हिंदू धर्म के अलावा वे बँट गए,अक्सर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद वे झगड़े पर काबू पाने में कामयाब हो गए। हिंदू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है जिसमें कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की और खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ है, लेकिन झगड़ा आज तक हल नहीं हुआ और झगड़े के सवालों पर एक धुंध छा गया है। ईसाई, इस्लाम और बौद्ध, सभी धर्मों में झगड़े हुए। कैथोलिक मत में एक समय इतने कट्टरपंथी तत्व इकट्ठा हो गए कि प्रोटेस्टेंट मत ने, जो उस समय उदारवादी था, उसे चुनौती दी। लेकिन सभी लोग जानते हैं कि सुधार आंदोलन के बाद प्रोटेस्टेंट मत में खुद भी कट्टरता आ गई। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट मतों के सिद्धांतों में अब भी बहुत फर्क है लेकिन एक को कट्टरपंथी और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है। ईसाई धर्म में सिद्धांत और संगठन का भेद है तो iइस्लाम धर्म में शिया-सुन्नी का बँटवारा इतिहास के घटनाक्रम से संबंधित है। इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बँट गया और उनमें कभी रक्तपात तो नहीं हुआ, लेकिन उसका मतभेद सिद्धांत के बारे में है, समाज की व्यवस्था से उसका कोई संबंध नहीं। हिंदू धर्म में ऐसा कोई बँटवारा नहीं हुआ। अलबत्ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा है। नया मत उतनी ही बार उसके ही एक नए हिस्से के रूप में वापस आ गया। इसीलिए सिद्धांत के सवाल कभी साथ-साथ नहीं उठे और सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ। हिंदू धर्म नए मतों को जन्म देने में उतना ही तेज है जितना प्रोटेस्टेंट मत, लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का अजीब आवरण डाल देता है जैसी एकता कैथोलिक संगठन ने अंदरूनी भेदों पर रोक लगा कर कायम की है। इस तरह हिंदू धर्म में जहाँ एक और कट्टरता और अंधविश्वास का घर है, वहाँ वह नई-नई खोजों की व्यवस्था भी है। हिंदू धर्म अब तक अपने अंदर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टि-भेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालना जरूरी है। चार बड़े और ठोस सवालों - वर्ण, स्त्री , संपत्ति और सहनशीलता - के बारे में हिंदू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है। चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिंदुओं के कान में दूसरे हिंदुओं के द्वारा सीसा गला कर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी क्योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं। तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मंत्री बनाएगा ताकि हिंदू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके। करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिंदू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह अपने वर्ण के अनुसार ऊँची जमीन पर तंबू लगाना चाहता था। करीब पंद्रह साल पहले एक हिंदू ने हिंदुत्व की रक्षा करने की इच्छा से महात्मा गांधी पर बम फेंका था, क्योंकि उस समय वे छुआछूत का नाश करने में लगे थे। कुछ दिनों पहले तक, और कुछ इलाकों में अब भी हिंदू नाई अछूत हिंदुओं की हजामत बनाने को तैयार नहीं होते, हालाँकि गैर-हिंदुओं का काम करने में उन्हें कोई एतराज नहीं होता। इसके साथ ही प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए। एक, पूरे उपनिषद में वर्ण व्यवस्था को सभी रूपों में पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की गई है।हिन्दुस्तान के प्राचीन साहित्य में वर्ण व्यवस्था का जो विरोध मिलता है, उसके रूप, भाषा और विस्तार से पता चलता है कि ये विरोध दो अलग-अलग कालों में हुए - एक, आलोचना का काल और दूसरा, निंदा का। इस सवाल को भविष्य की खोजों के लिए छोड़ा जा सकता है, लेकिन इतना साफ है कि मौर्य और गुप्त वंशों के स्वर्ण-काल वर्ण व्यवस्था के एक व्यापक विरोध के बाद हुए। लेकिन वर्ण कभी पूरी तरह खत्म नहीं होते। कुछ कालों में बहुत सख्त होते हैं और कुछ अन्य कालों में उनका बंधन ढीला पड़ जाता है। कट्टरपंथी और उदारवादी वर्ण व्यवस्था के अंदर ही एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और हिंदू इतिहास के दो कालों में एक या दूसरी धारा के प्रभुत्व का ही अंतर होता है। इस समय उदारवादी का जोर है और कट्टरपंथियों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे गौर कर सकें। लेकिन कट्टरता उदारवादी विचारों में घुस कर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। अगर जन्मना वर्णों की बात करने का समय नहीं तो कर्मणा जातियों की बात की जाती है। अगर लोग वर्ण व्यवस्था का समर्थन नहीं करते तो उसके खिलाफ काम भी शायद ही कभी करते हैं और एक वातावरण बन गया है जिसमें हिंदुओं की तर्कबुद्धि और उनकी दिमागी आदतों में टकराव है। व्यवस्था के रूप में वर्ण कहीं-कहीं ढीले हो गए हैं लेकिन दिमागी आदत के रूप में अभी भी मौजूद हैं। इस बात की आशंका है कि हिंदू धर्म में कट्टरता और उदारता का झगड़ा अभी भी हल न हो।
आधुनिक साहित्य ने हमें यह बताया है कि केवल स्त्री ही जानती है कि उसके बच्चे का पिता कौन है, लेकिन तीन हजार वर्ष या उसके भी पहले जबाल को स्वंय भी नहीं मालूम था कि उसके बच्चे का पिता कौन है और प्राचीन साहित्य में उसका नाम एक पवित्र स्त्री के रूप में आदर के साथ लिया गया है। हालाँकि वर्ण व्यवस्था ने उसके बेटे को ब्राह्मण बना कर उसे भी हजम कर लिया। उदार काल का साहित्य हमें चेतावनी देता है कि परिवारों के स्रोत की खोज नहीं करनी चाहिए क्योंकि नदी के स्रोत की तरह वहाँ भी गंदगी होती है। अगर स्त्री बलात्कार का सफलतापूर्वक विरोध न कर सके तो उसे कोई दोष नहीं होता क्योंकि इस साहित्य के अनुसार स्त्री का शरीर हर महीने नया हो जाता है। स्त्री को भी तलाक और संपत्ति का अधिकार है। हिंदू धर्म के स्वर्ण युगों में स्त्री के प्रति यह उदार दृष्टिकोण मिलता है जबकि कट्टरता के युगों में उसे केवल एक प्रकार की संपत्ति माना गया है जो पिता, पति या पुत्र के अधिकार में रहती है।
इस समय हिंदू स्त्री एक अजीब स्थिति में है, जिसमें उदारता भी है और कट्टरता भी। दुनिया के और भी हिस्से हैं जहाँ स्त्री के लिए सम्मानपूर्ण पद पाना आसान है लेकिन संपत्ति और विवाह के संबंध में पुरुष के समान ही स्त्री के भी अधिकार हों, इसका विरोध अब भी होता है। मुझे ऐसे पर्चे पढ़ने को मिले जिनमें स्त्री को संपत्ति का अधिकार न देने की वकालत इस तर्क पर की गई थी कि वह दूसरे धर्म के व्यक्ति से प्रेम करने लगे अपना धर्म न बदल दे, जैसे यह दलील पुरुषों के लिए कहीं ज्यादा सच न हो। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े नहीं हों, यह अलग सवाल है, जो स्त्री व पुरुष दोनों वारिसों पर लागू होता है, और एक सीमा से छोटे टुकड़ों के और टुकड़े न होने पाएँ, इसका कोई तरीका निकालना चाहिए। जब तक कानून या रीति-रिवाज या दिमागी आदतों में स्त्री और पुरुष के बीच विवाह और संपत्ति के बारे में फर्क रहेगा, तब तक कट्टरता पूरी तरह खत्म नहीं होगी। हिंदुओं के अंदर स्त्री को देवी के रूप में देखने की इच्छा , जो अपने उच्च संस्थान से कभी न उतरे, उदार से उदार लोगों के दिमाग में भी बेमतलब के और संदेहास्पद खयाल पैदा कर देती है। उदारता और कट्टरता एक-दूसरे से जुड़ी रहेंगी जब तक हिंदू अपनी स्त्री को अपने समान ही इंसान नहीं मानने लगता। हिंदू धर्म में संपत्ति की भावना संचय न करने और लगाव न रखने के सिद्धांत के कारण उदार है। लेकिन कट्टरपंथी हिंदू कर्म-सिद्धांत की इस प्रकार व्याख्या करता है कि धन और जन्म या शक्ति का स्थान ऊँचा है और जो कुछ है वही ठीक भी है। संपत्ति का मौजूदा सवाल कि मिल्कियत निजी हो या सामाजिक, हाल ही का है। लेकिन संपत्ति की स्वीकृति व्यवस्था या संपत्ति से कोई लगाव न रखने के रूप में यह सवाल हिंदू दिमाग में बराबर रहा है। अन्य सवालों की तरह संपत्ति और शक्ति के सवालों पर भी हिंदू दिमाग अपने विचारों को उनकी तार्किक परिणति तक भी नहीं ले जा पाया। समय और व्यक्ति के साथ हिंदू धर्म में इतना ही फर्क पड़ता है कि एक या दूसरे को प्राथमिकता मिलती है। आम तौर पर यह माना जाता है कि सहिष्णुता हिंदुओं का विशेष गुण है। यह गलत है, सिवाय इसके कि खुला रक्तपात अभी तक उसे पसंद नहीं रहा। हिंदू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य मतों और विश्वासों का दमन कर के एकरूपता के द्वारा एकता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन उन्हें भी सफलता नहीं मिली। उन्हें अब तक आम तौर पर बचपना ही माना जाता था क्योंकि कुछ समय पहले तक विविधता में एकता का सिद्धांत हिंदू धर्म के अपने मतों पर ही लागू किया जाता था, इसलिए हिंदू धर्म में लगभग हमेशा ही सहिष्णुता का अंश बल प्रयोग से ज्यादा रहता था, लेकिन यूरोप की राष्ट्रीयता ने इससे मिलते-जुलते जिस सिद्धांत को जन्म दिया है, उससे इसका अर्थ समझ लेना चाहिए। वाल्टेयर जानता था कि उसका विरोधी गलती पर ही है, फिर भी वह सहिष्णुता के लिए, विरोधी के खुल कर बोलने के अधिकार के लिए लड़ने को तैयार था। इसके विपरीत हिंदू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों में अलग-अलग सिद्धांत और चलन हो सकते हैं, और उनके बीच वह कोई फैसला करने को तैयार नहीं। वह आदमी की जिंदगी में एकरूपता नहीं चाहता, स्वेच्छा से भी नहीं, और ऐसी विविधता में एकता चाहता है जिसकी परिभाषा नहीं की जा सकती, लेकिन जो अब तक उसके अलग-अलग मतों को एक लड़ी में पिरोती रही है। अत: उसमें सहिष्णुता का गुण इस विश्वास के कारण है कि किसी की जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, इस विश्वास के कारण कि अलग-अलग बातें गलत ही हों यह जरूरी नहीं है, बल्कि वे सच्चाई को अलग-अलग ढंग से व्यक्त कर सकती हैं। कट्टरपंथियों ने अक्सर हिंदू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है। उनके उद्देश्य कभी बुरे नहीं रहे। उनकी कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी, लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए। मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता जिसमें कट्टरपंथी हिंदू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आई, तो हमेशा वर्ण, स्त्री , संपत्ति, सहिष्णुता आदि के संबंध में हिंदू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिंदू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनैतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में,राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आई जब हिंदू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था। आधुनिक इतिहास में देश में एकता लाने की कई बड़ी कोशिशें असफल हुईं। ज्ञानेश्वर का उदार मत शिवाजी ओर बाजीराव के काल में अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन सफल होने के पहले ही पेशवाओं की कट्टरता में गिर गया। फिर गुरु नानक के उदार मत से शुरू होनेवाला आंदोलन रणजीत सिंह के समय अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन जल्दी ही सिक्ख सरदारों के कट्टरपंथी झगड़ों में पतित हो गया। ये कोशिशें, जो एक बार असफल हो गईं, आजकल फिर से उठने की बड़ी तेज कोशिशें करती हैं, क्योंकि इस समय महाराष्ट्र और पंजाब से कट्टरता की जो धारा उठ रही है, उसका इन कोशिशों से गहरा और पापपूर्ण आत्मिक संबंध है। इन सब में भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए पढ़ने और समझने की बड़ी सामग्री है जैसे धार्मिक संतों और देश में एकता लाने की राजनैतिक कोशिशों के बीच कैसा निकट संबंध है या कि पतन के बीज कहाँ हैं, बिल्कुल शुरू में या बाद की किसी गड़बड़ी में या कि इन समूहों द्वारा अपनी कट्टरपंथी असफलताओं को दुहराने की कोशिशों के पीछे क्या कारण है? इसी तरह विजयनगर की कोशिश और उसके पीछे प्रेरणा निंबार्क की थी या शंकराचार्य की, और हम्पी की महानता के पीछे कौन-सा सड़ा हुआ बीज था, इन सब बातों की खोज से बड़ा लाभ हो सकता है। फिर, शेरशाह और अकबर की उदार कोशिशों के पीछे क्या था और औरंगजेब की कट्टरता के आगे उनकी हार क्यो हुई?
देश में एकता लाने की भारतीय लोगों और महात्मा गांधी की आखिरी कोशिश कामयाब हुई है, लेकिन आंशिक रूप में ही। इसमें कोई शक नहीं कि पाँच हजार वर्षों से अधिक की उदारवादी धाराओं ने इस कोशिश को आगे बढ़ाया, लेकिन इसके तत्कालीन स्रोत में, यूरोप के उदारवादी प्रभावों के अलावा क्या था - तुलसी या कबीर और चैतन्य और संतों की महान परंपरा या अधिक हाल के धार्मिक-राजनैतिक नेता जैसे राममोहन राय और फैजाबाद के विद्रोही मौलवी ? फिर, पिछले पाँच हजार सालों की कंट्टरपंथी धाराएँ भी मिल कर इस कोशिश को असफल बनाने के लिए जोर लगा रही हैं और अगर इस बार कट्टरता की हार हुई, तो वह फिर नहीं उठेगी। केवल उदारता ही देश में एकता ला सकती है। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा और पुराना देश है। मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिंदुत्व अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा नहीं पैदा कर सकता, लेकिन उदार हिन्दुत्व कर सकता है, जैसा पहले कई बार चुका है। हिंदू धर्म, संकुचित दृष्टि से, राजनैतिक धर्म, सिद्धांतों और संगठन का धर्म नहीं है। लेकिन देश के राजनैतिक इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इससे प्रेरणा मिली है और उनका यह प्रमुख माध्यम रहा है। हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता से महान युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है। लेकिन उदार हिन्दुत्व पूरी तरह समस्या का हल नहीं कर सका। विविधता में एकता के सिद्धांत के पीछे सड़न और बिखराव के बीज छिपे हैं। कट्टरपंथी तत्वों के अलावा, जो हमेशा ऊपर से उदार हिंदू विचारों में घुस आते हैं और हमेशा दिमागी सफाई हासिल करने में रुकावट डालते हैं, विविधता में एकता का सिद्धांत ऐसे दिमाग को जन्म देता है जो समृद्ध और निष्क्रीय दोनों ही है। हिंदू धर्म का बराबर छोटे-छोटे मतों में बँटते रहना बहुत बुरा है, जिनमें से हरे एक अपना अलग शोर मचाए रखता है और उदार हिन्दुत्व उनको एकता के आवरण में ढँकने की चाहे जितनी भी कोशिश करे, वे अनिवार्य ही राज्य के सामूहिक जीवन में कमजोरी पैदा करते हैं। एक आश्चर्यजंक उदासीनता फैल जाती है। कोई इन बराबर होनेवाले बँटवारों की चिंता नहीं करता जैसे सबको यकीन हो कि वे एक-दूसरे के ही अंग हैं। इसी से कट्टरपंथी हिंदुत्व को अवसर मिलता है और शक्त्िा की इच्छा के रूप में चालक शक्ति मिलती है, हालाँकि उसकी कोशिशों के फलस्वरूप और भी ज्यादा कमजोरी पैदा होती है। उदार और कट्टरपंथी हिंदुत्व के महायुद्ध का बाहरी रूप आजकल यह हो गया है कि मुसलमानों के प्रति क्रिया रुख हो। लेकिन हम एक क्षण के लिए भी यह न भूलें कि यह बाहरी रूप है और बुनियादी झगड़े जो अभी तक हल नहीं हुए, कहीं अधिक निर्णायक हैं। महात्मा गांधी की हत्या , हिंदू-मुस्लिम झगड़े की घटना उतनी नहीं थी जितनी हिंदू धर्म की उदार व कट्टरपंथी धाराओं के युद्ध की। इसके पहले कभी किसी हिंदू ने वर्ण, स्त्री , संपत्ति और सहिष्णुता के बारे में कट्टरता पर इतनी गहरी चोटें नहीं की थीं। इसके खिलाफ सारा जहर इकट्ठा हो रहा था। एक बार पहले भी गांधी जी की हत्या करने की कोशिश की गई थी। उस समय उसका खुला ओर साफ उद्देश्य यही था कि वर्ण व्यवस्था को बचा कर हिंदू धर्म की रक्षा की जाए। आखिरी और कामयाब कोशिश का उद्देश्य ऊपर से यह दिखाई पड़ता था कि इस्लाम के हमले से हिंदू धर्म को बचाया जाए, लेकिन इतिहास के किसी भी विद्यार्थी को कोई संदेह नहीं होगा कि यह सब से बड़ा और सब से जघन्य जुआ था, जो हारती हुई कट्टरता ने उदारता से अपने युद्ध में खेला। गांधी जी का हत्यारा वह कट्टरपंथी तत्व था जो हमेशा हिंदू दिमाग के अंदर बैठा रहता है, कभी दबा हुआ और कभी प्रकट, कुछ हिंदुओं में निष्क्रिय और कुछ में तेज। जब इतिहास के पन्ने गांधी जी की हत्या को कट्टरपंथी-उदार हिंदुत्व के युद्ध की एक घटना के रूप में रखेंगे और उन सभी पर अभियोग लगाएँगे जिन्हें वर्णों के खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में, गांधी जी के कामों से गुस्सा आया था, तब शायद हिंदू धर्म की निष्क्रिता और उदासीनता नष्ट हो जाए। अब तक हिंदू धर्म के अंदर कट्टर और उदार एक-दूसरे से जुड़े क्यों रहे और अभी तक उनके बीच कोई साफ और निर्णायक लड़ाई क्यों नहीं हुई, यह एक ऐसा विषय है जिस पर भारतीय इतिहास के विद्यार्थी खोज करें तो बड़ा लाभ हो सकता है। अब तक हिंदू दिमाग से कट्टरता कभी पूरी तरह दूर नहीं हुई, इसमें कोई शक नहीं। इस झगड़े का कोई हल न होने के विनाशपूर्ण नतीजे निकले, इसमें भी कोई शक नहीं। जब तक हिंदुओं के दिमाग से वर्ण-भेद बिल्कुल ही खत्म नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता, या संपत्ति और व्यवस्था के संबंध से पूरी तरह तोड़ा नहीं जाता तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी और उसकी निष्क्रियता को कायम रखेगी। अन्य धर्मों की तरह हिंदू धर्म सिद्धांतों और बँधे हुए नियमों का धर्म नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध अभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिल कर सदियों से देश पर अच्छा या बुरा शासन करते आए हैं जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी।
उन चार सवालों पर केवल उदारता से काम न चलेगा। अंतिम रूप से उनका हल करने के लिए हिंदू दिमाग से इस झगड़े को पूरी तरह खत्म करना होगा। इन सभी हल न होनेवाले झगड़ों के पीछे निर्गुण और सगुण सत्य के संबंध का दार्शनिक सवाल है। इस सवाल पर उदार और कट्टर हिंदुओं के रुख में बहुत कम अंतर है। मोटे तौर पर, हिंदू धर्म सगुण सत्य के आगे निर्गुण सत्य की खोज में जाना चाहता है, वह सृष्टि को झूठा तो नहीं मानता लेकिन घटिया किस्म का सत्य मानता है। दिमाग से उठ कर परम सत्य तक पहुँचने के लिए वह इस घटिया सत्य को छोड़ देता है। वस्तुत: सभी देशों का दर्शन इसी सवाल को उठाता है। अन्य धर्मों और दर्शनों से हिंदू धर्म का फर्क यही है कि दूसरे देशों में यह सवाल अधिकतर दर्शन में ही सीमित रहा है, जबकि हिन्दुस्तान में यह जनसाधारण के विश्वास का एक अंग बन गया है। दर्शन को संगीत की धुनें दे कर विश्वास में बदल दिया गया है। लेकिन दूसरे देशों में दार्शनिकों ने परम सत्य की खोज में आम तौर पर सांसारिक सत्य से बिल्कुल ही इनकार किया है। इस कारण आधुनिक विश्व पर उसका प्रभाव बहुत कम पड़ा है। वैज्ञानिक और सांसारिक भावना ने बड़ी उत्सुकता से प्रकृति की सारी जानकारी को इकट्ठा किया, अलग-अलग कर के क्रमबद्ध किया और उन्हें एक में बाँधनेवाले नियम खोज निकाले। इससे आधुनिक मनुष्य को, जो मुख्यत: यूरोपीय है, जीवन पर विचार करने का एक खास दृष्टिकोण मिला है। वह सगुण सत्य को, जैसा है वैसा ही बड़ी खुशी से स्वीकार कर लेता है। इसके अलावा ईसाई मत की नैतिकता ने मनुष्य के अच्छे कामों को ईश्वरीय काम का पद प्रदान किया है। इन सब के फलस्वरूप जीवन की असलियतों का वैज्ञानिक और नैतिक उपयोग होता है। लेकिन हिंदू धर्म कभी अपने दार्शनिक आधार से छुटकारा नहीं पा सका। लोगों का साधारण विश्वास भी व्यक्त और प्रकट सगुण सत्य से आगे जा कर अव्यक्त और अप्रकट निर्गुण सत्य को देखना चाहता है। यूरोप में भी मध्य युग में ऐसा ही दृष्टिकोण था लेकिन मैं फिर कह दूँ कि यह दार्शनिकों तक ही सीमित था और सगुण सत्य से इनकार कर के उसे नकली मानता था जबकि आम लोग ईसाई मत को नैतिक विश्वास के रूप में मानते थे और उस हद तक सगुण सत्य को स्वीकार करते थे। हिंदू धर्म ने कभी जीवन की असलियतों से बिल्कुल इनकार नहीं किया बल्कि वह उन्हें एक घटिया किस्म का सत्य मानता है और आज तक हमेशा ऊँचे प्रकार के सत्य की खोज करने की कोशिश करता रहा है। यह लोगों के साधारण विश्वास का अंग है। एक बड़ा अच्छा उदाहरण मुझे याद आता है। कोणार्क के विशाल लेकिन आधे नष्ट मंदिर में पत्थरों पर हजारों मूर्तियाँ खुदी हुई मिलती हैं। जिंदगी की असलियतों की तस्वीरे देने में कलाकार ने किसी तरह की कंजूसी या संकोच नहीं दिखाया है। जिंदगी की सारी विभिन्नताओ को उसने स्वीकार किया है। उसमें भी एक क्रमबद्ध व्यवस्था मालूम पड़ती है। सब से नीचे की मूर्तियों में शिकार, उसके ऊपर प्रेम, फिर संगीत और फिर शक्ति का चित्रण है। हर चीज में बड़ी शक्ति और क्रियाशीलता है। लेकिन मंदिर के अंदर कुछ नहीं है, और क्रियाशीलता से अंदर की खामोशी और स्थिरता, मंदिर में बुनियादी तौर पर यही अंकित है। परम सत्य की खोज कभी बंद नहीं हुई। चित्रकला की अपेक्षा वास्तुकला और मूर्तिकला के अधिक विकास की भी अपनी अलग कहानी है। वस्तुत: जो प्राचीन चित्र अब भी मिलते हैं, वास्तुकला पर ही आधारित हैं। संभवत: परम सत्य के बारे में अपने विचारों को व्यक्त करना चित्रकला की अपेक्षा वास्तुकला और मूर्तिकला में ज्यादा सरल है।
अत: हिंदू व्यक्तित्व दो हिस्सों में बँट गया है। अच्छी हालत में हिंदू सगुण सत्य को स्वीकार कर के भी निर्गुण परम सत्य को नहीं भूलता और बराबर अपनी अंतर्दृष्टि को विकसित करने की कोशिश करता रहता है, और बुरी हालत में उसका पाखंड असीमित होता है। हिंदू शायद दुनिया का सबसे बड़ा पाखंडी होता है, क्योंकि वह न सिर्फ दुनिया के सभी पाखंडियों की तरह दूसरों को धोखा देता है बल्कि अपने को धोखा दे कर खुद अपना नुकसान भी करता है। सगुण और निर्गुण सत्य के बीच बँटा हुआ उसका दिमाग अक्सर इसमें उसे प्रोत्साहन देता है। पहले, और आज भी, हिंदू धर्म एक आश्चर्यजनक दृश्य प्रस्तुत करता है। हिंदू धर्म अपने माननेवालों को, छोटे-से-छोटे को भी, ऐसी दार्शनिक समानता, मनुष्य और मनुष्य और अन्य वस्तुओ की एकता प्रदान करता है जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती। दार्शनिक समानता के इस विश्वास के साथ ही गंदी से गंदी सामाजिक विषमता का व्यवहार चलता है। मुझे अक्सर लगता है कि दार्शनिक हिंदू खुशहाल होने पर गरीबों और शूद्रों से पशुओं जैसा, पशुओं से पत्थरों जैसा और अन्य वस्तुओ से दूसरी वस्तुओ की तरह व्यवहार करता है। शाकाहार और अहिंसा गिर कर छिपी हुई क्रूरता बन जाते हैं। अब तक की सभी मानवीय चेष्टाओ के बारे में यह कहा जा सकता है कि एक न एक स्थिति में हर जगह सत्य क्रूरता में बदल जाता है और सुंदरता अनैतिकता में, लेकिन हिंदू धर्म के बारे में यह औरों की अपेक्षा ज्यादा सच है। हिंदू धर्म ने सच्चाई और सुंदरता की ऐसी चोटियाँ हासिल कीं जो किसी और देश में नहीं मिलतीं, लेकिन वह ऐसे अँधेरे गढ़ों में भी गिरा है जहाँ तक किसी और देश का मनुष्य नहीं गिरा। जब तक हिंदू जीवन की असलियतों को, काम और मशीन, जीवन और पैदावार, परिवार और जनसंख्या वृद्धि, गरीबी और अत्याचार और ऐसी अन्य असलियतों को वैज्ञानिक और लौकिक दृष्टि से स्वीकार करना नहीं सीखता, तब तक वह अपने बँटे हुए दिमाग पर काबू नहीं पा सकता और न कट्टरता को ही खत्म कर सकता है, जिसने अक्सर उसका सत्यानाश किया है। इसका यह अर्थ नहीं कि हिंदू धर्म अपनी भावधारा ही छोड़ दे और जीवन और सभी चीजों की एकता की कोशिश न करे। यह शायद उसका सबसे बड़ा गुण है। अचानक मन में भर जानेवाली ममता, भावना की चेतना और प्रसार, जिसमें गाँव का लड़का मोटर निकलने पर बकरी के बच्चे को इस तरह चिपटा लेता है जैसे उसी में उसकी जिंदगी हो, या कोई सूखी जड़ों और हरी शाखों के पेड़ को ऐसे देखता है जैसे वह उसी का एक अंश हो, एक ऐसा गुण है जो शायद सभी धर्मों में मिलता है लेकिन कहीं उसने ऐसी गहरी और स्थायी भावना का रूप नहीं लिया जैसा हिंदू धर्म में। बुद्धि का देवता, दया के देवता से बिल्कुल अलग है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर है या नहीं है, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि सारे जीवन और सृष्टि को एक में बाँधनेवाली ममता की भावना है, हालाँकि अभी वह एक दुर्लभ भावना है। इस भावना को सारे कामों, यहाँ तक कि झगड़ों की भी पृष्ठभूमि बनाना शायद व्यवहार में मुमकिन न हो। लेकिन यूरोप केवल सगुण, लौकिक सत्य को स्वीकार करने के फलस्वरूप उत्पन्न हुए झगड़ों से मर रहा है, हिन्दुस्तान केवल निर्गुण, परम सत्य को ही स्वीकार करने के फलस्वरूप निष्क्रियता से मर रहा है। मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि मुझे सड़ने की अपेक्षा झगड़े से मरना ज्यादा पसंद है। लेकिन विचार और व्यवहार के क्या यही दो रास्ते मनुष्य के सामने हैं ? क्या खोज की वैज्ञानिक भावना का एकता की रागात्मक भावना से मेल बैठाना मुमकिन नहीं है, जिसमें एक दूसरे के अधीन न हो और समान गुणोंवाले दो कर्मों के रूप में दोनों बराबरी की जगह पर हों। वैज्ञानिक भावना वर्ण के खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में काम करेगी और धन पैदा करने के ऐसे तरीके निकालेगी जिससे भूख और गरीबी दूर होगी। एकता की सृजनात्मक भावना वह रागात्मक शक्ति पैदा करेगी जिसके बिना मनुष्य की बड़ी-से-बड़ी कोशिशें लोभ, इर्ष्या , शक्ति और घृणा में बदल जाती हैं। यह कहना मुश्किल है कि हिंदू धर्म यह नया दिमाग पा सकता है और वैज्ञानिक और रागात्मक भावनाओं में मेल बैठ सकता है या नहीं। लेकिन हिंदू धर्म दरअसल है क्या ? इसका कोई एक उत्तर नहीं, बल्कि कई उत्तर हैं। इतना निश्चित है कि हिंदू धर्म कोई खास सिद्धांत या संगठन नहीं है न विश्वास और व्यवहार का कोई नियम उसके लिए अनिवार्य ही है। स्मृतियों और कथाओं, दर्शन और रीतियों की एक पूरी दुनिया है जिसका कुछ हिस्सा बहुत ही बुरा है और कुछ ऐसा है जो मनुष्य के काम आ सकता है। इन सब से मिल कर हिंदू दिमाग बनता है जिसकी विशेषता कुछ विद्वानों ने सहिष्णुता और विविधता में एकता बताई है। हमने इस सिद्धांत की कमियाँ देखीं और यह देखा कि दिमागी निष्क्रियता दूर करने के लिए कहाँ उसमें सुधार करने की जरूरत है। इस सिद्धांत को समझने में आम तौर पर यह गलती की जाती है कि उदार हिंदू धर्म हमेशा अच्छे विचारों और प्रभावों को अपना लेता है चाहे वे जहाँ से भी आए हों, जबकि कट्टरता ऐसा नहीं करती। मेरे खयाल में यह विचार अज्ञानपूर्ण है। भारतीय इतिहास के पन्नो में मुझे ऐसा कोई काल नहीं मिला जिसमें आजाद हिंदू ने विदेशों में विचारों या वस्तुओ की खोज की हो। हिन्दुस्तान और चीन के हजारों साल के संबंध में मैं सिर्फ पाँच वस्तुओ के नाम जान पाया हूँ जिनमें सिंदूर भी है, जो चीन से भारत लाई गई। विचारों के क्षेत्र में कुछ भी नहीं आया। आजाद हिंदुस्तान का आम तौर पर बाहरी दुनिया से एकतरफा रिश्ता होता था जिसमें कोई विचार बाहर से नहीं आते थे और वस्तुए भी कम ही आती थीं, सिवाय चाँदी आदि के। जब कोई विदेशी समुदाय आ कर यहाँ बस जाता और समय बीतने पर हिंदू धर्म का ही एक अंग या वर्ण बनने की कोशिश करता तब जरूर कुछ विचार और कुछ चीजें अंदर आतीं। इसके विपरीत गुलाम हिन्दुस्तान और उस समय का हिंदू धर्म विजेता की भाषा, उसकी आदतों और उसके रहन-सहन की बड़ी तेजी से नकल करता है। आजादी में दिमाग की आत्म निर्भरता के साथ गुलामी में पूरा दिमागी दीवालियापन मिलता है। हिंदू धर्म की इस कमजोरी को कभी नहीं समझा गया और यह खेद की बात है कि उदारवादी हिंदू अज्ञानवश, प्रचार के लिए इसके विपरीत बातें फैला रहे हैं। आजादी की हालत में हिंदू दिमाग खुला जरूर रहता है, लेकिन केवल देश के अंदर होनेवाली घटनाओं के प्रति। बाहरी विचारों और प्रभावों के प्रति तब भी बंद रहता है। यह उसकी एक बड़ी कमजोरी है और भारत के विदेशी शासन का शिकार होने का एक कारण है। हिंदू दिमाग को अब न सिर्फ अपने देश के अंदर की बातों बल्कि बाहर की बातों के प्रति भी अपना दिमाग खुला रखना होगा और विविधता में एकता के अपने सिद्धांत को सारी दुनिया के विचार और व्यवहार पर लागू करना होगा। आज हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिंदू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है लेकिन हर ऐसा हिंदू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित है, उन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्यान देगा जो पाँच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए। कोई हिंदू मुसलमानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और संपत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे। उदार और कट्टर हिंदू धर्म की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुँच गई है और संभव है कि उसका अंत भी नजदीक ही हो। कट्टरपंथी हिंदू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो, भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे न सिर्फ हिंदू-मुस्लिम दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रांतों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिंदू ही राज्य को कायम कर सकते हैं। अत: पाँच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई अब इस स्थिति में आ गई है कि एक राजनैतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिंदुस्तान के लोगों कीहस्ती ही इस बात पर निर्भर है कि हिंदू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो। धार्मिक और मानवीय सवाल आज मुख्यत: एक राजनैतिक सवाल है। हिंदू के सामने आज यही एक रास्ता है कि अपने दिमाग में क्रांति लाए या फिर गिर कर दब जाए। उसे मुसलमान और ईसाई बनना होगा और उन्हीं की तरह महसूस करना होगा। मैं हिंदू-मुस्लिम एकता की बात नहीं कर रहा क्योंकि वह एक राजनैतिक, सगठनात्मक या अधिक से अधिक सांस्कृतिक सवाल है। मैं मुसलमान और ईसाई के साथ हिंदू की रागात्मक एकता की बात कर रहा हूँ, धार्मिक विश्वास और व्यवहार में नहीं, बल्कि इस भावना में कि मैं वह हूँ। ऐसी रागात्मक एकता हासिल करना कठिन मालूम पड़ सकता है, या अक्सर एक तरफ हो सकता है और उसे हत्या और रक्तपात की पीड़ा सहनी पड़ सकती है। मैं यहाँ अमरीकी गृह-युद्ध की याद दिलाना चाहूँगा जिसमें चार लाख भाइयों ने भाइयों को मारा और छह लाख व्यक्ति मरे लेकिन जीत की घड़ी में अब्राहम लिंकन और अमरीका के लोगों ने उत्तरी और दक्षिणी भाइयों के बीच ऐसी ही रागात्मक एकता दिखाई। हिन्दुस्तान का भविष्य चाहे जैसा भी हो, हिंदू को अपने आप को पूरी तरह बदल कर मुसलमान के साथ ऐसी रागात्मक एकता हासिल करनी होगी। सारे जीवों और वस्तुओ की रागात्मक एकता में हिंदू का विश्वास भारतीय राज्य की राजनैतिक जरूरत भी है कि हिंदू मुलसमान के साथ एकता महसूस करे। इस रास्ते पर बड़ी रुकावटें और हारें हो सकती हैं, लेकिन हिंदू दिमाग को किस रास्ते पर चलना चाहिए, यह साफ है। कहा जा सकता है कि हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की इस लड़ाई को खत्म करने का सब से अच्छा तरीका यह है कि धर्म से ही लड़ा जाए। यह हो सकता है लेकिन रस्ता टेढ़ा है और कौन जाने कि चालाक हिंदू धर्म, विरोधियों को भी अपना एक अंग बना कर निगल न जाए। इसके अलावा कट्टरपंथियों को जो भी अच्छे समर्थक मिलते हैं, वह कम पढ़े-लिखे लोगों में और शहर में रहनेवालों में। गाँव के अनपढ़ लोगों में तत्काल चाहे जितना भी जोश आ जाए वे उसका स्थाई आधार नहीं बन सकते। सदियों की बुद्धि के कारण पढ़े-लिखे लोगों की तरह गाँववाले भी सहिष्णु होते हैं। कम्युनिज्म या फासिज्म जैसे लोकतंत्रविरोधी सिद्धांतों से ताकत पाने की खोज में, जो वर्ण और नेतृत्व के मिलते-जुलते विचारों पर आधारित हैं, हिंदू धर्म का कट्टरपंथी अंश भी धर्म-विरोधी का बाना पहन सकता है। अब समय है कि हिंदू सदियों से इकट्ठा हो रही गंदगी को अपने दिमाग से निकाल कर उसे साफ करे। जिंदगी की असलियतों और अपनी परम सत्य की चेतना, सगुण सत्य और निर्गुण सत्य के बीच उसे एक सच्चा और फलदायक रिश्ता कायम करना होगा। केवल इसी आधार पर वह वर्ण, स्त्री , संपत्ति और सहिष्णुता के सवालों पर हिंदू धर्म के कट्टरपंथी तत्वों को हमेशा के लिए जीत सकेगा जो इतने दिनों तक उसके विश्वासों को गंदा करते रहे हैं और उसके देश के इतिहास में बिखराव लाते रहे हैं। पीछे हटते समय हिंदू धर्म में कट्टरता अक्सर उदारता के अंदर छिप कर बैठ जाती है। ऐसा फिर न होने पाए। सवाल साफ हैं। समझौते से पुरानी गलतियाँ फिर दुहराई जाएँगी। इस भयानक युद्ध को अब खत्म करना ही होगा। भारत के दिमाग की एक नई कोशिश तब शुरू होगी जिसमें बौद्धिक रागात्मक से मेल होगा, जो विविधता में एकता को निष्क्रीय नहीं बल्कि, सशक्त सिद्धांत बनाएगी और जो सब कुछ लौकिक खुशियों को स्वीकार कर के भी सभी जीवों और वस्तुओं की एकता को नजर से ओझल न होने देगी।

(जुलाई, 1950)

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक