Wednesday, December 31, 2014

दमन और उत्पीडन के खिलाफ जारी संघर्ष ------------------------------------ 1-1 -15

दमन और उत्पीडन के खिलाफ जारी संघर्ष




गदर पार्टी आन्दोलन के जन -- नायक      ----  करतार सिंह सराभा



यही पाओगे महशर में जंबा मेरी बंया मेरा ,

मैं बन्दा हिन्द वालो का हूँ है हिन्दोस्ता मेरा
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है ,
यह मजहब यही फिरका यही है खानदा मेरा
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो -- निशा मेरा
मैं उठते -- बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत !
कहा किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहा मेरा
तेरी खिदमत में अय  भारत !
ये सर जाए ये जाँ जाए ,
तो समझूंगा कि मरना हयाते -- जादवा मेरा |






यह गजल करतार सिंह सराभा ने कही थी |  करतार सिंह सराभा की यह गजल  भगत सिंह को बेहद पसंद थी वे इसे अपने पास हमेशा रखते थे और अकेले में अक्सर गुनगुनाया करते थे  | 24 मई  1896  को जन्मे करतार सिंह सराभा को 16 नवम्बर 1915 को साढ़े उन्नीस साल की उम्र में उनके छह अन्य साथियो -- बख्शीश सिंह ( जिला अमृतसर )  हरनाम सिंह ( जिला स्यालकोट ) जगत सिंह ( जिला लाहौर ) सुरैण सिंह व सुरैण , दोनों ( जिला अमृतसर ) व विष्णु गणेश पिंगले ( जिला पूना महाराष्ट्र ) के साथ लाहौर जेल में फाँसी पर चढा कर शहीद कर दिया गया | 1857 के प्रथम '' स्वतंत्रता संग्राम ''की विफलता के बाद जिसे अपमानित करने के लिए अंग्रेजो ने '' गदर '' कहा लेकिन भारत की जनता ने इसे अपमान नही सम्मान की तरह लिया और इसे अपना प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना , उसी  '' गदर '' शब्द को सम्मान देने के लिए अमेरिका में बसे भारतीय देशभक्तों ने अपनी पार्टी और उसके मुखपत्र को ही '' गदर '' नाम दिया |


करतार सिंह सराभा , अपने बहुत छोटे - से राजनितिक जीवन में अपने कार्यकलापो के कारण गदर पार्टी आन्दोलन के जन नायक के रूप में उभरे | कुल दो -- तीन साल में ही सराभा ने अपने प्रखर व्यक्तित्व की ऐसी छाप छोड़ी कि देश के युवको की आत्मा को उसने देशभक्ति के खून में रंग कर नये इस्पात में ढाल दिया | अदालत में न्यायाधीश ने करतार सिंह सराभा से अदालत में दिए गये अपने ब्यान को हल्का करने का मशविरा और वक्त भी दिया , ताकि वे बच  जाए  लेकिन देश के नवयुवको के लिए प्रेरणास्रोत बनने वाले इस वीर नायक ने ब्यान हल्का करने की बजाए  और सखत किया और फाँसी पर झूल गया |


करतार सिंह सराभा गदर पार्टी के उसी तरह नायक बने , जैसे बाद में 1925 - 31 के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी आन्दोलन के महानायक बने | यह अस्वाभाविक नही है कि करतार सिंह सराभा ही भगत सिंह के सबसे लोकप्रिय नायक थे , जिनका चित्र वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे और '' नौजवान भारत सभा '' नामक युवा संगठन के माध्यम से वे करतार सिंह सराभा के जीवन को स्लाइड शो द्वारा पंजाब के नवयुवको में आजादी की प्रेरणा जगाने के लिए दिखाते थे | '' नौजवान भारत सभा '' की हर जनसभा में करतार सिंह सराभा के चित्र को मंच पर रख कर उसे पुष्पांजलि दी जाती थी | पिछले साल ही गदर पार्टी की स्थापना की शती थी और 16  नवम्बर 2015 करतार सिंह सराभा के शहादत की शती होगी |


हमारा देश जिस कारपोरेट गुलामी और तानाशाही के जिस अन्धकार की ओर बढ़ रहा है , ऐसे समय में 1857 , गदर पार्टी , हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसियशन , करतार सिंह सराभा , चन्द्रशेखर आजाद , भगत सिंह और उनके साथियो को याद करना उनके पद- चिन्हों पर चलकर के ही इस अँधेरे के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा को अपने व आम आदमी के अन्दर जगाना है |

                                                                      साभार --- समकालीन जनमत
                                                                       ------------------- 1-1-2015

जिरोनिमो और अमेरिकी उपनिवेशवाद ---------------------------- 31-12-14

जिरोनिमो और अमेरिकी उपनिवेशवाद

जिरोनिमो

अमेरिकी सेना ने ओसामा को पकड़ने \ मारने के अभियान को विशिष्ट नाम दिया हुआ था |अमेरिकी कमांडो सैनिको ने लादेन के अंत पर व्हाइट हाउस को "जिरोनिमो -इ0 के0 आई0 ० " को संदेश भेजा था |जिसका मतलब था -जिरोनिमो यानी ओसामा बिन लादेन "-एनिमी किल्ड इन एक्शन "अर्थात कार्यवाही में दुश्मन मारा गया |अमेरिकी समाचार -पत्र "वाशिगटन पोस्ट "की सूचनाओं को हिंदी के दैनिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान (५ मई )में प्रकाशित किया गया है |इसके अनुसार -ओसामा और उसको पकड़ने \ मारने के अभियान को जिरोनिमो का नाम दिये जाने पर अमेरिकी रेड इन्डियन समूह ने अपना विरोध व्यक्त किया है |उन्होंने बराक ओबामा से इसके लिए सार्वजनिक रूप से माफ़ी भी मागने के लिए कहा है |लेकिन क्यों ? क्यों कि जिरोनिमो 150 वर्ष पूर्व अमेरिका को अपना उपनिवेश और फिर स्थाई देश बना लेने वाले गोरो से युद्धरत मूल निवासियों का अग्रणी योद्धा था |वह अमेरिका और मैक्सिको के सीमा क्षेत्र के प्रदेशो में रहने वाली "अपाचे इन्डियन "जनजाति का नायक था |अपाचे इन्डियन ने 19 वी सदी में अमेरिकी और मैकिस्कियो कि सेनाओं से लोहा लिया था |अमेरिकी सेना ने जिरोनिमो को पकड़ने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया था |इसके वावजूद वह पकड़ा नही जा सका |1886 में जिरोनिमो ने समर्पण कर दिया |जिरोनिमो को युद्धबंदी बनाया गया और यातनाये दी गयी |1909 में कैद में ही उसकी मृत्यु हो गयी |इसी के साथ यह दूसरी सच्चाई भी जगजाहिर है कि अमेरिका गोरो का देश नही है |पहले स्पेनी ,फिर बाद में ब्रिटेनवासी गोरो ने इस भू -भाग को अपना उपनिवेश बनाया |वंहा कि मूल आबादी को काट डाला और गुलाम बना लिया |अमेरिका को अपना देश और ब्रिटेन से स्वतंत्र देश घोषित कर दिया |येही स्थिति आस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड , साउथ अफ्रिका , कनाडा व यूरोपीय लोगो कि भूल आबादी वाले कई दक्षिणी अमेरिकी देशो की भी है |
अभी चंद साल पहले आस्ट्रेलियाई प्रधानमन्त्री ने आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों पर गोरो के पूर्वजो द्वारा किये गये अत्याचार पर खेद जताने की औपचारिकता निभाई थी |लेकिन अमेरिका हुकूमत आज भी वंहा के मूल निवासियों के बहादुर योद्धाओ को कलंकित कर रही है |यह अमेरिकी हुकूमत की और वंहा सदियों से कब्जा जमाए यूरोपीय लोगो की औपनिवेशिक मानसिकता का ही घोतक है |वंहा के मूल निवासियों के यूनाइटेड नेटिव अमेरिका के नाम से बने संगठन ने राष्ट्रपति ओबामा और सीनेट एवं प्रतिनिधि सभा पर जिरोनिमो का अपमान करने का आरोप लगाते हुए कहा कि-इंडियंस की धरती पर कब्ज़ा करने वाले गोरे यूरोपीय आज भी मूल निवासियों पर आघात करने से बाज़ नही आते |वंहा के मूल निवासियों का यह विरोध एकदम उचित है |कयोंकि यह अमेरिका को अपना राष्ट्र मान चुके गोरो के उस उपनिवेशवादी मानसिकता की घोतक है ,जो वंहा के मूल निवासियों और उनके योद्धाओको आज भी अपने दुश्मन जैसा मानता है |उनके प्रति घृणा व्यक्त करता है |ओसामा को पकड़ने \मारने के लिए प्रयोग किया गया शब्द आपरेशन केवल ओसामा के प्रति अमेरिकी घृणा का सूचक नही है ,बल्कि वे जिरोनिमो के प्रति भी अमेरिकी घृणा का सूचक है |

-सुनील दत्ता
स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक 

Tuesday, December 30, 2014

एहसास 31-12-14

एहसास



पुन्नाग वन में रहने वाला एक दुर्दांत लुटेरा था  | वह एक तरह से अपराध का पर्याय बन गया था | भटके हुए यात्री अनायास ही उसके चंगुल में आ फंसते | पुन्नाग उन्हें कष्ट देता और उनका सारा सामान लूट लेता |
वह धन - आभूषण इत्यादि लूट ले तो भी कोई बात नही थी | मगर पुन्नाग को लोगो को उत्पीडित  करते हुए लुटने में मजा आता था  जब वह लूट का माल लेकर वापस घर पहुचता तो उसकी पुत्री बिपाशा उससे पूछती -- तात , आप यह सारी सम्पत्ति , वस्त्र , आभूषण  इत्यादि कहा से लाते है ? यह प्रश्न पुन्नाग को झकझोर देता | वह अपनी बेटी कोई जबाब नही दे पाता था | एक तरह का अपराध बोध उसे घेर लेता | पर अगले  ही दिन पुन्नाग पुन: वन में जाकर लूटपाट में लग जाता धीरे - धीरे बिपाशा जान गयी कि उसके पिता द्वारा लाया गया धन कहा से आता है | एक दिन वह अकेली थी | उसे अपना पालतू मृग -- शिशु मयंक कही दिखाई नही पडा | वह उसे खोजती हुई उपवन में पहुची | उसने वह पहुचकर देखा कि मयंक दर्द के मारे l लगडा रहा है | छलांग मारते समय उसकी एक टांग में मोच आ गयी थी | माँ विहीन बिपाशा ने पहली बार किसी को यूँ  पीड़ित देखा था | पैर में चोट लगने से क्या होता है , यह जान्ने के लिए नन्ही बोपाषा ने एक पत्थर हाथ में लिया और उसे जोर से अपने पैर में दे मारा | उस पत्थर की चोट लगते ही बिपाशा पीड़ा से छटपटाने लगी | अब उसे मयंक की पीड़ा का एहसास हो रहा था | दोनों वही बैठकर एक - दूसरे की पीड़ा बाँटते रहे  | शाम हो गयी और नन्ही बिपाशा को वही बैठे - बैठे नीद आ गयी | पुन्नाग इस बीच घर लौटा तो देखा कि उसकी प्यारी बिटिया वहा  नही है | वह तुरंत उपवन की ओर भागा | वहा  पहुचकर उसने देखा कि बिपाशा शिशु मृग को बाँहों में लिए पड़ी है | पुन्नाग ने उसे जगाया | बिपाशा ने उठने की कोशिश की तो गिर  गयी | तभी पुन्नाग का ध्यान उसके पैर में लगी चोट की ओर गया | उसने पूछा - बेटी तुम्हे यह चोट कैसे लगी ? क्या किसी ने तुम पर आघात किया है ? बिपाशा ने कहा - नही पिताश्री  , मैं खुद ही अपने आपको चोटिल किया है | यह सुनकर पुन्नाग चौक गया | कारण पूछने पर बिपाशा ने कहा -- आप दूसरो को पीड़ा देते है तो उन्हें कैसी तकलीफ होती है , यह जानना था | इतना कहकर वह पुर्छित हो गयी | पुन्नाग का मर्म मचल उठा | उसी दिन से उसकी दिशा बदल गयी और उसने शेष जीवन पीड़ित मानवता की सेवा में समर्पित कर दिया

बैंक के बढ़ते ब्याज दर का रोना 31-12-14

बैंक के बढ़ते ब्याज दर का रोना



दिग्गज घरेलू कम्पनियों के पास अकूत नकदी के संदर्भ में



देश की वर्तमान आर्थिक सुस्ती या मंदी की चर्चाओं प्रचारों में विभिन्न क्षेत्रो में पूंजी निवेश की कमी का रोना रोया जा रहा है | वैश्विक मंदी खासकर यूरोपीय देशो में मंदी के चलते देश में विदेशी निवेश की कमी को और बैंको के ब्याज दर बढने से देशी कम्पनियों द्वारा निवेश में कमी को खासतौर प्रचारित किया जाता रहा है | फिलहाल अब विदेशी निवेशको को छोडकर देश की दिग्गज कम्पनियों के बारे में सूचनाये -सच्चाई जाने -
दिनाक 7 मई के एक हिन्दी दैनिक ने 'अकूत नकदी से भरी दिग्गज घरेलू कम्पनियों की तिजोरी '' शीर्षक के साथ यह सूचनाये दी है की घरेलू बाजार में 10 कम्पनियों के पास करीब 2 .34 लाख करोड़ की नकदी है | इसमें एक तिहाई ( करीब 70 .252 करोड़ रूपये की ) नकदी तो रिलायंस इण्डस्ट्रीज के पास है | कम्पनी की यह नकदी उसकी सालाना आय की 19 .5 % है | इसी तरह से 'इनफ़ोसिस " नाम की दूसरी दिग्गज कम्पनी के पास 20 .591 करोड़ रूपये की नगदी मौजुद है | यह कम्पनी के सालाना बिक्री की 61 % है | सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कम्पनियों के बहुप्रचारित घाटे के विपरीत तथ्यगत सच्चाई यह है की आयल इंडिया के पास हजारो करोड़ के लाभ के साथ सितम्बर 2011 में 72 .598 करोड़ रूपये की नकदी मौजूद थी | समाचार पत्रों की सूचनाओं के अनुसार सितम्बर 2011 तक कोल इंडिया के पास 54 हजार 980 करोड़ ओ . एक .जी . सी .के पास 17 हजार 914 करोड़ , सेल के पास 15 हजार 658 करोड़ और टाटा मोटर्स के पास 15 हजार 382 करोड़ रूपये की नकदी मौजूद है | स्वाभाविक है की अन्य दिग्गज कम्पनियों के पास नकदी भंडार जरुर होगा जिसकी सूचनाये अभी नही मिली | कई कम्पनियों व उच्च स्तरीय मैनेजिग डायरेक्टर ने यह स्वीकार किया है की बड़ी कम्पनियों के पास नकदी इसलिए है की वे बड़ी परियोजनायो की शुरुआत नही कर पा रही है | अगर मैनेजिग डायरेकटरो की यह बात मान ली जाए तो भी यह मुद्दा जरुर खड़ा रहेगा की देशी कम्पनियों के पास भारी नकदी जमा होने के वावजूद उसके द्वारा देश में निवेश के लिए बैंक के ब्याज दर वृद्धि का हल्ला क्यों मचाया जा रहा है ? क्या ऐसा करना इन कम्पनियों द्वारा देश की अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश को बढाने से अपने आप को बचाने का द्योतक नही है ?
असल मामला भी यही है | और वह इसलिए है की दिग्गज कम्पनिया अपने नकदी का इस्तेमाल विदेशो में विदेशी सम्पत्तियों , कम्पनियों आदि के अधिग्रहण में लगाने का सुअवसर तलाश रही है | समाचार पत्र में ओ । एन । जी. सी .के सी . एम् डी. सुधीर वासुदेव ने खुलकर कहा है की '' हमारे पास 11 .000 करोड़ की नगदी है | इसका इस्तेमाल कम्पनी विदेश में अधिग्रहण के लिए कर सकती है |" यह है देश की दिग्गज कम्पनियों का राष्ट्र प्रेम और आर्थिक सुस्ती या मंदी को हल करने के बारे में उनकी चिंताओं की असलियत | निवेश की कमी के लिए बैंक के बढ़ते ब्याज दर पर रोने- धोने या हल्ला मचाने की असलियत | ऐसा नही है की इन सच्चाइयो से देश के उच्च कोटि के अर्थशास्त्री एवं प्रचार माध्यमिगण अन्जान है| वे सब कुछ जानते है | जानने के बाद भी वे कम्पनियों द्वारा आर्थिक सुस्ती के लिए सरकार की नीतिगत सुधारों की सुस्ती के साथ -- साथ बैंको के बढ़ते रहे ब्याज दर से निवेश की कमी पर ही लिखते --- बोलते रहते है | उसे ही प्रचारित करने में लगे रहते है | फिर सब कुछ जानते हुए भी देश की सरकारे उनकी आलोचनाओं पर न केवल मौन साधे रहती है बल्कि उन आलोचनाओं के अनुसार ही जनविरोधी नीतियों आदि को आगे बढाती जा रही है | साथ ही बैंको द्वारा ब्याज दर को कम किए जाने का आश्वासन भी देती रहती है | जैसा की वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी ने अभी अपने हाल के बयानों में भी दिया भी है | जाहिर सी बात है की धनाढ्य कम्पनियों को राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय बैंको से यह धन देश की मंदी पड़ती अर्थव्यवस्था को ठीक करने और उसे गति देने के लिए नही बल्कि विदेशो में अपनी पूंजियो परिसम्पत्तियों के और ज्यादा फैलाव बढाव के लिए चाहिए | उसी के लिए वे अपने नकदी के भंडार को बचाए भी हुए है | यह है आर्थिक मंदी के बहुप्रचारित अभियान में बैंको के बढ़ते ब्याज दर से निवेश की कमी का हल्ला मचाने की असलियत.

-सुनील दत्ता
पत्रकार

इंकलाबी आवाज:दुष्यंत कुमार ---------------- 30-12-14

इंकलाबी आवाज:दुष्यंत कुमार




दुष्यंत का नाम भी जब भी आता है , तो उसके नाम के साथ एक इंकलाबी आवाज नजर आती है दुष्यंत ने अपनी पूरी जिन्दगी समाज के उन कुरीतियों और और दुष्यंत विद्रोह के लिए समर्पण कर दिया और उसके लिए वो     ता उम्र लिखते रहे और लड़ते रहे | अपने आप में एक खुशनुमा इंसान जहा थे वही वो व्यवस्था के के लिए एक विद्रोह एक आग थे |अपने उसूलो पे चल के साधारण सी जिन्दगी जीने वाले दुष्यंत जहाँ  अपनी लेखनी से आग उगलते थे वही प्यार की मीठी फुहार भी बरसाते थे | उनकी यह नज्म बार -- बार मुझे सोचने पर मजबूर करती है कि

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल आग !
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।
दुष्यंत ने जहा बड़ी ईमानदारी के साथ आम आदमी की जिन्दगी की बात की उसके दर्द की बात को उकेरा वही उन्होंने जिन्दगी को सहिओ मायने मैं कैसे जीया जाए इस व्यवस्था से कैसे लड़ा जाए यह भी बताने की कोशिश की  -
 कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए उन्होंने अपनी लेखनी से आम जन मानस के पटल पे यह छवि अंकित करने की कोशिश की दुष्यंत अपने आप में सरल जिन्दगी जीते थे वैसे ही सरलता से अपने आम भाषा में अपनी शायरी में एक नया कलेवर दिया उन्होंने आम आदमी के दर्द को समझते हुए बरबस ही कह दिया ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
उन्होंने आम जिन्दगी को बड़ी सिद्दत के साथ देखा और भोगा तभी तो दुष्यंत अपनी कलम से बोल पड़ते हैं आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख

दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख

ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख

राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख.इसके साथ ही दुष्यंत ने इंदिरा गांधी ने जब आपात काल की घोषणा   की तब कि  गजलो  दुष्यंत    में और ि नखार आया और वो उस वक्त कह उठे इस देश की व्यवस्था के खिलाफ
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। ऐसे में दुष्यंत ने अपनी आवाज से इस देश के उन सभी वर्गो को जगाने का काम किया यह नज्म लिख कर उन्होंने कहा की मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए आग को कभी मरने मत दो यह सीने में जो व्यवस्था के प्रति आग है तुम्हारे दिल में जो हर वक्त जलनी चाहिए | आज दुष्यंत हमारे बीच नही हैं पर उनके लिखे नज्म हर पल हमे नयी व्यव्स्त्झा के लिए लड़ने का एक नया सन्देश देते है -
ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है

राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है

आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा—ए—अमज़द नहीं है

पेड़—पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है

मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद—रफ़्त ही ज़ायद नहीं

इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है.
दुष्यंत हमारे बीच हर पल है और रहेंगे अपनी कलम के कैनवास पर और हमर पड़ने की दिशा देते रहेंगे | आज दुष्यंत  की जयंती है हम उस विराट विद्रोही कवि को सलाम करते हुए उसका शत शत नमन करते है

-सुनील दत्ता----------  स्वतंत्र पत्रकार

Monday, December 29, 2014

भगत सिंह ----- 29-12-14

भगत सिंह

भगत सिंह और उनके साथियों का सन 1920 में अंग्रेज साम्राज्यवादियो सत्ता के विरुद्ध मोर्चा लेना , भारतीय  स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सदैव ही एक गौरवशाली अध्याय बना रहेगा | एक उच्च आदर्श के लिए अडिग निष्ठा और उस आदर्श को पूरा करने की राह  में आई मुसीबतों की  कहानी , देश वासियों को सदैव विदेशी आधिपत्य या जनता के किसी भी प्रकार के आर्थिक बंधन का नामो -- निशाँ तक मिटा देने के लिए संघर्ष को प्रेरित करती रहेगी |

उनके बालपन में जनता के संघर्ष
------------------------------
-----------------------


 जनता का गुसा '' रौलेक्ट एक्ट '' के खिलाफ था , जिसके द्वारा अंग्रेज सरकार ने यह कोशिश की थी कि प्रथम विश्व युद्ध के समय की असाधारण दमनकारी धाराओं को युद्ध के बाद भी जारी  रखा जाए | सारे देश में उथल पुथल थी , प्रदर्शन हो रहे थे , जगह - जगह हडतालो की बाढ़ आ गयी थी |  बम्बई की हडतालो में सूती मिलो के एक लाख से भी ज्यादा मजदूर काम छोड़कर सडको पर आ गये थे | सरकार जनता पर भीषण दमन का चक्र चला रही थी | अप्रैल 1919  में अमृतसर के जलियावाला बाग़ में जनरल डायर ने सभा में एकत्र हुए जन समूह पर गोलिया बरसाकर निहत्थे आदमियों , औरतो तथा बच्चो का कत्ल  कर दिया , पर आन्दोलन रुका नही चलता रहा |

कांग्रेसी वालन्टियर के रूप में
----------------------------------------------



भगत सिंह का जन्म लाहौर से कुछ मील दूर सिन्दा गाँव में किसानी करने वाले एक सिख परिवार में हुआ था | उनके पिता -- सरदार किशन सिंह आर्य समाज के समाज सुधार आन्दोलन में शामिल होने के कारण प्रसिद्ध थे | भगत सिंह ने अपने स्कूली जीवन में  ''रौलेक्ट एक्ट  '' के खिलाफ होने वाले जनता के प्रदर्शनों के उथल पुथल भरे दिन देखे थे | अग्रेजी शासन के खिलाफ आम जनता की घृणा ने -- जो अपने -- आप फूट पड़ी थी और जिसका इजहार लाहौर में तीन मील लम्बे जलूस तथा उसके बाद होने वाली सप्ताह भर की शानदार हड़ताल में हुआ था -- स्वाभाविक  तौर पर इस बारह वर्ष के बालक के दिमाग पर एक गहरा असर डाला था | उसके कोमल मस्तिष्क पर अपनी गहरी छाप छोड़ी थी |
दो वर्ष बाद  भगत सिंह ने असहयोग -- आन्दोलन में एक कांग्रेसी वालंटियर की हैसियत से अपनी सक्रिय राजनैतिक शिक्षार्थी -- जीवन  की शुरुआत की | उन्होंने सिख गुरुद्वारे के प्रचार -- आन्दोलन में भी सक्रिय भाग लिया | यह आन्दोलन गुरुद्वारे की विशाल भूमि की सम्पत्ति पर थोड़े से महन्तों का ही सम्पत्ति -- अधिकार बनाये रखने के विरुद्ध , और उसे सारे सिख समुदाय की पंचायत के अधिकार में लाने के लिए था | सत्याग्रह सफल हुआ | पर उसके बाद , सिखों के एक हिस्से में साम्प्रदायिकता बढने लगी , परन्तु भगत सिंह साम्प्रदायिकता से दूर रहे उन्होंने उसमे सहयोग नही दिया | इतनी कुछ सक्रियता के बाद भगत सिंह ने पंजाब नेशनल कालेज में

नाम लिखाया , तब वह अपने संक्षिप्त पर सितारे की तरह झिलमिलाते हुए क्रांतिकारी जीवन के द्वार पर ही थे |
यही
पर वह सुखदेव और उन दूसरे साथियों से मिले जो आगे चलकर क्रांतिकारी कार्य
में उनके साथी बने | इसी दौरान में उत्तर परदेश के क्रान्तिकारियो द्वारा
-- संगठित '' हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी '' से सम्पर्क किया
---------------


'' हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियसन ''
----------------------------------------
-
सितम्बर सन 1928 में इन क्रान्तिकारियो का काम एक महत्वपूर्ण मंजिल तक पहुच गया था जब मुख्यत: भगत सिंह , सुखदेव , विजय कुमार सिन्हा और शिव वर्मा के प्रयत्नों से उत्तर प्रदेश, पंजाब , राजपुताना  , और बिहार के क्रांतिकारी दलों के प्रतिनिधियों ने दिल्ली में फिरोजशाह कोटला के पास कांफ्रेंस की | दो दिन की बहस के बाद एक नया  संगठन बनाया गया जिसका नाम '' दि हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा गया | उसकी केन्द्रीय समिति भी चुनी गयी और सभी प्रान्तों से सम्पर्क रखने का कम विजय कुमार सिन्हा और भगत सिंह को सौपा गया इस कांफ्रेंस में समाजवादी जनतांत्रिक राज्य की स्थापना के उद्देश्य का स्वीकृत होना बताता है कि रुसी क्रांति के फलस्वरूप भारत के अधिकाधिक तरुणों में समाजवादी विचारों का प्रसार होता जा रहा था | भगत सिंह कुछ समय के लिए '' कृति ''  के दफ्तर से भी काम कर चुके थे | इस समाजवादी पत्र को पंजाब के कम्युनिस्ट नेता सरदार सोहन सिंह '' जोश '' ने शुरू किया था | भारत के साम्राज्यवाद ---- विरोधी संघर्ष में मार्क्सवाद -- लेलिनवाद के अस्त्र को काम  में लाने का पूरा अर्थ तो इन क्रान्तिकारियो ने भी अभी तक नही समझा था लेकिन उनमे इस विश्वास ने जड़ जमा ली थी कि मनुष्य द्वारा होने वाले मनुष्य के शोषण को सिर्फ समाजवाद ही खत्म कर सकता है |


उनके इरादे
------------------------

क्या भगत सिंह और उनके साथी गोरी चमड़ी वाले अफसरों के खिलाफ थे जो अन्याय करते थे  | साण्डर्स को गोली मारने के बाद बाटे हुए उनके पर्चे को देखने पर , कोई भी उन पर ऐसा लाक्षण नही लगा सकता था | असेम्बली भवन में बाटे हुए उनके पर्चे भी यही बताते है | उन पर्चो से मनुष्यों के रक्तपात के प्रति उनकी दिली नफरत और न्याय के लिए उनकी ललक की भी झलक मिलती है | अंग्रेज शासन का हित इसी में था कि जनता के सामने भगत सिंह के कार्यो को दूसरे ही रंगों में पेश किया जाए नही तो उनकी अमानुषिक दण्ड देने पर सारे  देश की संवेदना और क्रोध का ज्वार उमड़ पड़ता | इसीलिए उस परचे पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था |
हिन्दुस्तान टाइम्स के एक उत्साही सवाददाता ने किसी तरह विस्फोट के ठीक बाद ही उस परचे की एक प्रति हासिल कर ली और उसी दिन दोपहर को अखबार का एक विशेष संस्करण निकला जिसने उसके विषय की जानकारी को जनता की सम्पत्ति बना दिया |
परचा इस प्रकार था -----

'' बधिरों को सुनाने के लिए एक भारी आवाज की आवश्यकता पड़ती है |
ऐसे ही एक अवसर पर , एक फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद -- भाईयो -- द्वारा कहे गये इन अमर शब्दों के साथ   '' हम दृढतापूर्वक  अपने इस कार्य को न्यायपूर्ण ठहराते है | ''
'' हम यहाँ सुधारों ( माटेग्यु - चेम्सफोर्ड सुधारों ) के लागू होने के पिछले दस वर्षो के अपमानजनक इतिहास की कहानी को बिना दोहराए और भारत के माथे पर इस सदन -- इस तथा कथित भारतीय प्रालियामेंट द्वारा मढ़े हुए अपमानो का भी बिना कोई जिक्र किये देख रहे है कि इस बार फिर , जबकि साइमन कमीशन  से कुछ और सुधारों की आशा करने वाले लोग उन टुकडो के बटवारे के लिए ही एक दूसरे पर भौक रहे है ,, सरकार हमारे उपर पब्लिक सेफ्टी ( जन सुरक्षा ) और ट्रेडर्स डिस्प्यूट्स ( औद्योगिक विवाद ) जैसे दमनकारी बिलों ( विध्येको ) को थोप रही है | ' प्रेस सेडीशन बिल ' को उसने अगली बैठक के लिए रख छोड़ा है | खुले आम काम करने वाले मजदूर नेताओं की अन्धाधुन्ध गिरफ्तारिया साफ़ बताती है कि हवा का रुख किस तरफ है |
इस अत्यंत ही उतेजनापूर्ण  परिस्थितियों में पूरी स्जिदगी के साथ अपनी पूरी जिम्मेदारी महसूस करते  हुए , ( हि. सो , रि ए  ) ने अपनी सेना को यह विशेष कार्य करने का आदेश दिया है जिससे कि इस अपमानजनक नाटक पर परदा गिराया जा सके | विदेशी नौकरशाह शोषक मनमानी कर ले | लेकिन जनता की आँखों के सामने उनका असली रूप  प्रकट होना चाहिए |
जनता के प्रतिनिधि अपने चुनाव -- क्षेत्रो में वापिस लौट जाए और जनता को आगामी क्रान्ति के लिए तैयार करे | और सरकार भी यह समझ ले कि असहाय भारतीय जनता की ओर से ' पब्लिक सेफ्टी ' और ट्रेडर्स डिस्प्यूटस ' बिलों तथा लाला लाजपत राय की निर्मम हत्या का विरोध करते हुए हम उस पाठ पर जोर देना चाहते है जो इतिहास अक्सर दोहराया करता है |
यह स्वीकार करते हुए दुःख होता है कि हमे भी जो मनुष्य को जीवन को इतना पवित्र मानते है , जो एक ऐसे वैभवशाली भविष्य का सपना देखते है जब मनुष्य परम शान्ति और पूर्ण स्वतंत्रता भोगेगा , मनुष्य का रक्त  बहाने पर विवश होना पड़ा है | लेकिन मनुष्य द्वारा होने वाले मनुष्य के शोषण को असम्भव बनाकर सभी के लिए स्वतंत्रता लाने वाली महान क्रान्ति की वेदी पर कुछ व्यक्तियों  का बलिदान अवश्यभावी है |


इन्कलाब जिंदाबाद -----------------------------------------   हस्ताक्षर -- बलराज ( कमांडर इन चीफ )

भगत सिंह का दर्शन -- के  क्रांति और बमो के संदर्भ में

----------------------------------------------------------------------
 भगत सिंह क्रान्ति को किस रूप में समझते थे ?
दिल्ली सेशन जज द्वारा आजन्म कैद की सजा के फैसले के खिलाफ लाहौर हाईकोर्ट  में अपनी अपील की सुनवाई के समय उन्होंने अदालत में कहा था : -- '' क्रान्ति संसार  का नियम है , वह मानवीय प्रगति का रहस्य है | लेकिन '' उनमे रक्तरंजित संघर्ष बिलकुल लाजिमी नही है और न उसमे व्यक्तिगत प्रति  -- हिंसा  की ही कोई जगह है | वह बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नही है |
लेकिन तब भगत सिंह और उनकी पार्टी द्वारा  संगठित साण्डर्स गोलीकांड और तमाम बमो के विस्फोटो का क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए ? साण्डर्स से असेम्बली के बम फोड़ने  के बाद बाटे गये परचे इन कृत्यों के कारणों को बताते है | दिल्ली लाहौर की अदालतों में दिए गये भगत सिंह के वक्तव्य में उन्हें विस्तृत रूप से रखा गया था | उन्होंने बिलकुल स्पष्ट तौर पर कहा था वह और उनके साथी विदेशी शासन के कसमसिया  दुश्मन होते हुए भी किसी व्यक्ति के प्रति अंधी और कुत्सित घृणा की भावना से प्रेरित नही थे |
बटुकेश्वर दत्त के साथ , एक संयुक्त वक्तव्य में उन्होंने स्पष्ट रूप से घोषित किया था :: '' हम मानवीय जीवन को अकथनीय पवित्रता देते है | मानवता की सेवा किसी को हानि पहुचाने की अपेक्षा शीघ्र ही अपने स्वंय के जीवन को होम कर देगे | हम समाजवादी सेना के भाड़े के सैनिको के तरह नही है , जिन्हें बिना किसी अफ़सोस के हत्या करने का अनुशासन सिखाया जाता है | हम मानवीय जीवन का आदर करते है जहा तक बनता है उसे बचाने के कोशिश करते है | इस पर भी , हम असेम्बली भवन में जानबूझकर बम फेकने के काम को स्वीकार करते है | तथ्य स्वंय ही अपनी कहानी कहते है और उद्देश्यों  की परख उस काम प्रणाम को देखकर ही करनी चाहिए , न कि कल्पित परिस्थितियों और मनमानी धारणाओं के आधार पर |
'' सरकारी पक्ष के विशेषज्ञ के सबूतों के बावजूद , असेम्बली भवन में फेके जाने वाले बमो से आधे दर्जन से भी कम लोगो को कुछ खरोचे भर लगी यदि उन बमो में कुछ ज्यादा क्लोरेट पोटाश का पूत दे दिया जाता  और जेल किस्म की पिक्रेट ( एसिड ) का भी मिश्रण  होता , तो उनसे चारो ओर का टीम -- ताम ही चकनाचूर हो जाता और विस्फोट के कुछ गजो के दायरे में तमाम लोग धाराशायी हो जाते | यदि , उन बमो में कुछ दूसरे अधिक विस्फोटक प्रदार्थ व नाशकारी चहरे या सुइया आदि भी मिला दी जाती तो वह विधान सभा के अधिकांश सदस्यों को खत्म करने के लिए काफी होते | इस पर भी हम उन्हें अफसरों के बैठने के स्थान पर फेंक सकते थे जहा बहुत ख़ास -- ख़ास लोग ठसाठस भरे थे | और अंत में हम उन बमो का निशाना सर जान  साइमन को भी बना सकते थे जो उस समय अध्यक्ष की गैलरी में बैठा था , जिसके अभागे कमिशन से सभी जिम्मेदार आदमी नफरत करते थे | लेकिन यह सब कुछ तो हमारा उद्देश्य नही था | बमो ने ठीक उतना ही काम  किया जितने के लिए वे बनाये गये थे | जिसे चमत्कार कहा जाता है वह कुछ और नही , एक समझा बुझा हुआ उद्देश्य ही था , जिसके कारण वे हानिरहित स्थानों पर ही फेंके गये थे | ''
अपने  मुकदमे में बहस करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि विठ्ठल  भाई पटेल  , पंडित मोतोलाल नेहरु  , पंडित मदन मोहन मालवीय तथा दूसरे आदरणीय नेताओ पर संहारक बम फेकने  की बात वे सपने में भी नही सोच सकते थे -- यह अलग बात थी कि क्रांतिकारी  उन नेताओं के विचारो से सहमत नही थे | उनके साधनों में विश्वास नही करते थे | भगत सिंह ने मिस्टर जसिस्ट फोर्ड से पूछा था : '' यदि एक आदमी इस तरकीब से एक बम बनाता है कि उससे किसी को भी कोई गम्भीर चोट नही लग सकती और वह उसके फटने के वक्त ज्यादा से ज्यादा सावधानी बरतता है कि कोई ऐसी चोट न लग सके , तब भी क्या वह आदमी हत्या का पर्यटन करने का अपराधी होगा ?
मिस्टर फोर्ड :  '' तुमको यह साबित करना होगा कि वह बम इसी प्रकार का था , और उसको ऐसे ढंग से फेंका गया था कि किसी आदमी के जीवन को खतरा पैदा न हो | "
भगत सिंह : '' हम उन बमो की सीमित शक्ति जानते थे , और किसी को भी चोट न लगने देने के लिए हमने हर संभव सावधानी बरती थी | ''
उन्होंने आगे कहा कि जनरल दायर ने जालियावाला बाग़ में सैकड़ो आदमियों की हत्या की थी , लेकिन उस पर कभी भी मुकदमा नही चलाया गया था | इसके विपरीत उसके  देश के लोगो ने उसे लाखो का इनाम दिया था | वह कहते गये उसकी तुलना में
'' हम एक कमजोर बम बनाते है और जानबूझकर उसे एक खाली  स्थान पर फेंकते है | पर हम , पर मुकदमा चलाया जाता है और आजन्म कैद की सजा सुनाई  जाती है | किसी की हत्या करने का  हमारा इरादा नही था | द्देष शब्द को निकल दीजिये बस मुझे संतोष हो जाएगा | हमारा एक निश्चित आदर्श है हम अपने आदर्श को पाने के लिए कुछ साधन अपनाए थे | ''
भगत सिंह को ऐसा कोई बचकाना भ्रम नही था कि बमो से ही क्रान्ति आ जायेगी | या ऐसा करना क्रान्ति की ओर एक आगे बढा हुआ कदम होगा | परतंत्र मातृभूमि की वेदना ने उनके हृदय में विद्रोह की भावना जगा दी | बमो का प्रयोग देशवासियों की हृदय -- विदारक पीड़ा के प्रति उनके '' क्षोभ का अभिव्यक्तिकरण ही था |

दिल्ली के अदालत में उन्होंने कहा था '' समाज का वास्तविक पोषक मजदूर है | जनता का प्रभुत्व मजदूरो का अंतिम  भाग्य है | इन आदर्शो और विश्वासों के लिए , हम हर उस कष्ट का स्वागत करेंगे जिसकी हमे सजा दी जायेगी | हम अपनी तरुणाई को इसी क्रान्ति की वेदी पर होम करने लाये है क्योकि इतने गौरवशाली उद्देश्य के लिए कोई भी बलिदान बहुत बड़ा नही है | क्रान्ति के आगमन की प्रतीक्षा करने में हमे संतोष है '' |
उनके विचार से क्रान्ति का उद्देश्य '' स्पष्ट रूप से अन्याय पर खड़ी हुई वर्तमान व्यवस्था '' को बदलना था | यह अन्याय किस जगह पर होता है ?
'' समाज के सबसे आवश्यक तत्व होते हुए भी उत्पादन करने वालो या मजदूरो से उनके शोषक उनकी मेहनत का फल लूट लेते है , और उनको प्रारम्भिक अधिकारों से भी वंचित कर देते है | एक ओर तो सभी के लिए अनाज पैदा करने वाले किसानो के परिवार भूखो मरते है सारे संसार के बाजारों को सूत जुटाने वाला जुलाहा अपना और अपने बच्चो का तन ढकने के लिए भी पूरा कपडा नही जूता पता शानदार महल खड़े करने वाले राज लुहार और बढ़ई झोपड़ियो में ही बसर करते और मर जाते है और दूसरी ओर पूजीपति शोषक -- समाज की जोंके  -- अपनी संको पर ही करोड़ो बहा  देते है | ''  भगत सिंह ने कहा था कि इसीलिए एक उग्र परिवर्तन की आवश्यकता थी और लोग भी महसूस कर चुके थे उनका कर्तव्य था कि '' एक  समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन करे | ''
'' जब तक यह नही किया जता और मनुष्य द्वारा होने वेक मनुष्य के , तथा साम्राज्यवाद का चोगा पहने हुए देश द्वारा देश के शोषण का अंत नही किया जता , मानवता की इस मुसीबत और खूनखराबे को , जो आज उसे धमका रही है , नही रोका जा सकता | दरअसल इसके बिना युद्धों को अंत करने और विश्व व्यापी शान्ति के युग को लाने की सारी बाते ऐसी व्यवस्था की स्थापना जिसमे इस प्रकार के हडकम्प का भय न हो और जिसमे मजदुर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाए और उसके फलस्वरूप विश्व संघ पूजीवाद के बन्धनों , दुखो तथा युद्धों की मुसीबतों से मानवता का उद्धार कर सके | '' आज भी भगत सिंह के विचार प्रासंगिक है |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

Saturday, December 27, 2014

छापेखाने ( प्रेस ) के अविष्कारक ----- विलियम कैक्सटन 28-12-14

जिनके हम ऋणी है --------


छापेखाने ( प्रेस ) के अविष्कारक ----- विलियम कैक्सटन






आज से सात -- आठ सौ वर्ष पहले बहुत कम लोग पढ़े - लिखे होते थे | लोग पढ़ते कैसे ? पुस्तके ही नही थी | थोड़ी -- बहुत पुस्तके जो थी वे बहुत महँगी थी , कयोकि वे हाथ से लिखी जाती थी | एक पुस्तक लिखने में महीनों लगते | फिर यह पुस्तक कोई धनी आदमी खरीद लेता |

प्राचीन काल में कागज और कलम भी नही होते थे | लोग  राजहंस या बत्तख के पखो से कलम बनाते और भेड़ की खाल को साफ कर के उससे  कागज का काम लेते ,  , फिर अपने मनपसन्द रंग से उस पर लिखते | यदि  छापाखाना  ( प्रेस ) का आविष्कार न हुआ होता , तो आज प्रत्येक पुस्तक  दूसरी पुस्तक से भिन्न होती | फिर पुस्तके  इतनी बड़ी संख्या में बाजार में कहा से मिलती ? हम पर यह बड़ा उपकार किसने किया विलियम कैक्सटन ने |


विलियम कैक्सटन इंग्लैण्ड में पैदा हुए थे | उन दिनों में शिक्षा बहुत कम थी | फिर भी विलियम के पिता ने उन्हें घर पर थोड़ा -- बहुत पढ़ा लिखा दिया | विलियम कुछ सयाने हुए तो उनके पिता ने उन्हें लन्दन के एक व्यापारी के पास नौकर रखवा दिया | विलियम के पिता चाहते थे कि उनका बेटा व्यापार करना सीखे | जिस व्यापारी  के पास विलियम काम सिखने गया उनकी कम्पनी में लन्दन के कई अन्य व्यापारी भी शामिल थे | ये व्यापारी रेशम और ऊनि कपड़े खरीदते -- बेचते थे | विलियम थोड़े ही समय में कपड़े के व्यवसाय के गुर जान गये | उन्हें कपड़े की पूरी -- पूरी पहचान हो गयी | कपड़े के रंगों को देखते ही विलियम बता देते थे कि ये रंग कच्चे है या पक्के | कपड़ा अच्छा है या खराब |
उन दिनों लन्दन में व्यापारियों के सभाए भी होती थी | व्यापारी लोग अपने सामान का प्रचार करने के लिए इकठ्ठे होकर बाजारों में घूमते थे | विलियम की कम्पनी भी शहर में जलूस निकालती | उस समय विलियम अपने स्वामियों के पीछे -- पीछे जलूस में शामिल होते | सब व्यापारी गीत  और कविता पढ़ते हुए बाजार से गुजरते | विलियम बीस वर्ष के थे कि कम्पनी का स्वामी मर गया | विलियम को उनकी मौत का बड़ा दुःख हुआ | अब विलियम को घर से दूर वेल्जियम के नगर बुरोजज में भेज दिया गया | वहा  वह एक बड़े मकान में रहने लगे | विलियम  को शायद यह मकान पसंद न आता, लेकिन उस मकान में सभी अंग्रेज रहते थे | विलियम को विदेश में अपने देश के लोग मिल गये तो वह स्वदेश से दूर होने का दुःख भूल गये | वह बहुत जल्दी सब लोगो से घुल - मिल गये | विलियम बहुत ही समझदार थे | प्रत्येक का हमदर्द भी था | इसीलिए उस मकान में रहने वाले अंग्रेज ने उन्हें मकान का मैनेजर बना दिया | अब मकान की देखभाल , लोगो के खाने - पीने और मनोरंजन आदि सब का प्रबंध विलियम के हाथ में था | अंग्रेजो के आपस में झगड़े होते तो विलियम ही उनमे सुलह - सफाई करवाते | उन्हें जब फुर्सत मिलती , तो पुस्तके ढूढने निकलते और घर लाकर रात - रात  भर पढ़ते रहते | विलियम जब वहा  से जर्मनी  गये तो वह वहा  के कई धनी आदमियों से मिले | इन मुलाकातों में विलियम ने इन धनी लोगो के पास पुस्तके देखी  | ये पुस्तके चमड़े पर हाथ से लिखी हुई थी  | लिखने वालो ने बड़े सुन्दर रंग का उपयोग किया था | इन पुस्तको में हाथ से बनी हुई तस्वीरे भी थी | विलियम को फ्रांससी भाषा में लिखी हुई एक पुस्तक मिल गयी | उन्हें यह पुस्तक इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने पुस्तक का अंग्रेजी  में अनुवाद करना आरम्भ कर दिया और अपनी पुस्तक का नाम '' ट्राय का इतिहास '' रख दिया | पुस्तक बहुत बड़ी थी | विलियम ने उसे नकल और अनुवाद करने में दिन - रात एक कर दिए | वह काफी समय तक अनुवाद में लगे रहे | आखिर उनकी नजर कमजोर हो गयी | उनकी आँखों से हर समय पानी बहने लगा | हाथ से बिलकुल  शिथिल हो गये | उन्होंने विवश होकर अनुवाद बंद कर दिया लेकिन उसी दिन से सोचने लगे कि कोई ऐसा तरीका होना चाहिए जिससे पुस्तक आसानी से नकल हो जाए और साथ ही बहुत सी पुस्तके एक साथ तैयार हो जाए | जर्मनी और हालैंड में घूमते हुए विलियम को पता चला कि कई लोग लकड़ी को खोदकर उसमे कुछ अक्षर उभार  लेते है | उभरे हुए अक्षरों पर रंग लगा देते है और फिर कागज चिपका कर उसका प्रतिबिम्ब उतार लेते है | इस प्रकार आक्ग्ज पर उभरे हुए अक्षर नकल हो जाते है | विलियम बुरोजज वापस आये , तो किसी ऐसे आदमी को ढूढने लगे , जो लकड़ी पर अक्षर बनाना जानता हो | उन्हें एक दुकानदार मिल गया | विलियम ने बूढ़े आदमी को समझाया कि भई लकड़ी के अक्षर बनाना ठीक नही है , कयोकि लकड़ी फट जाती है और अक्षर बेकार हो जाते है | विलियम ने उसे सलाह दी कि लकड़ी के बजाए धातु के छोटे - छोटे अक्षर बनाये | फिर एक चौखटा तैयार किया | विलियम उस चौखटे में सभी अक्षर इकठ्ठे करके कस  देते | अक्षर पर स्याही लगाते और कागज चिपका -- चिपकाकर उतर लेते | इस प्रकार शब्द कागज पर बिल्कुल  साफ छप जाते | विलियम ने यह आविष्कार पूरा कर लिया तो अपना छापाखाना ( प्रेस ) लेकर अपने देश वापस आ गये | लन्दन आते ही विलियम ने एक दुकान में छापाखाना लगा दिया दुकान के बाहर छापेखाने का बोर्ड  लगाया | सारे  संसार में यह सबसे पहला छापाखाना था | लोग हैरान थे | लन्दन में रहने वाले भाग  -- भाग कर छपाई का तमाशा देखने के लिए विलियम की दुकान पर आते | विलियम के छापेखाने की हर और धूम मच गयी | यहाँ तक कि इंग्लैण्ड  का सम्राट एडवर्ड चतुर्थ भी यह विचित्र मशीन  को देखने आया | शाही जलूस जब छापेखाने पहुचा तो विलियम और उसके साथी अपने काम  में लगे हुए थे | दुकान में हर और धातु के छोटे - छोटे अक्षरों के ढेर पड़े थे | सम्राट और उसके धनी मंत्रियों ने कागज छपते देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ | विलियम ने अपने छापेखाने में बहुत सी सस्ती पुस्तके छापी | प्राचीन काल में तो पुस्तके महँगी थी और केवल धनी आदमी ही उन्हें खरीद सकते थे | अब पुस्तके सामान्य लोगो के हाथो में भी पहुच गयी | लोग बड़े शौक से पुस्तके पढने और सुनने लगे | विलियम ने कहानियो की बहुत सी पुस्तके वीरो के कारनामे , गिरजे की प्रार्थनाये , प्रवचन छापे | विलियम कहते थे कि विद्या बड़े आदमियों के घर की दासी नही है कि हर समय उन्ही की सेवा करती रहे | विद्या प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है | विद्या पुस्तको से प्राप्त होती है | इसीलिए पुस्तके अधिक से अधिक और सस्ती छपनी चाहिए |
विलियन अब इस दुनिया में नही है लेकिन उनका कारनामा अब भी जिन्दा है | विलियम के बाद छापेखाने की बड़ी उन्नति हुई | संसार में प्रत्येक नगर में कई - कई छापेखाने खुले | हजारो - लाखो पुस्तके , पत्रिकाए और अख़बार छपने लगे | अज छापेखाने में ऐसी मशीने लगी हुई है जो रातो -- रात हजारो अखबार छापकर तैयार कर देती है | आधुनिक तकनीक के प्रेस समेत पुस्तकीय ज्ञान से आलोकित समस्त विश्व विलियम कैक्सटन का ऋणी है और रहेगा |   


सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक --
                                                  -  आभार सुरजीत की पुस्तक '' प्रसिद्द वैज्ञानिक और उनके आविष्कार '' से

गुलाम ---- 27-12-14

गुलाम ----



अजीब सा गाँव नाम था नत्थूपुर उस गाँव की अपनी एक अनूठी परम्परा के लिए विख्यात था | परम्परा कुछ ऐसी थी कि गांववाले अपनी जमीन बिना किसी मूल्य के किसी भी उनके गाँव में आये मेहमानों को दे दिया करते थे | बस इसके लिए उसे गांव वालो द्वारा राखी गयी शर्त को पूरा करना होता था |  हालाकि यह बात अलग थी कि वे शर्त क्या रखते थे इसका बहार के लोगो को पता नही लग पाटा था | ऐसा ही किवदन्तीयो को सुनकर एक किसान उस गाँव में पहुचा | उसने  गाँव वालो  से जब इस परम्परा के विषय में पूछा तो उन्होंने ने भी इस  बात की पुष्टि की और उसे मुखिया के पास ले गये | गाँव के मुखिया ने जब उस किसान को देखा तो जोर से हँसा और बोला --- लो एक और आ गया ! यह सुनकर किसान आश्चर्यचकित हो गया और पूछने लगा -- आप इस तरह हँस क्यो रहे है ?  तब गाँव के मुखिया ने कहा दरअसल हँसने की बात यह है कि यहाँ तो लगभग हर दिन ही कोई न कोई इस शर्त का पता लगाने आ जाता है , लेकिन आज तक उसको जीतकर कोई वापस नही लौटा | इस पर किसान ने कहा -- अप शर्त बताये मैं उसे पूरा करूंगा | मुखिया बोला -- साड़ी जमीन नि: शुल्क उपलब्ध है | इसके लिए मात्र एक शर्त है कि तुम यहाँ खिची रेखा से सूर्योदय से दौड़ना शुरू करोगे और सूर्यास्त होने तक जितनी जमीन नापकर तुम इसी रेखा तक आ जाओगे , उतनी जमीन तुम्हारी हो जायेगी | पर यदि नही आ पाए तो तुम्हे आजीवन यही गुलाम बनकर रहना पड़ेगा | किसान को लगा कि यह तो बड़ी आसान शर्त है और उसने तुरंत हाँ कर दी  | सूर्योदय पर उसने भागना शुरू किया और दोपहर होने तक सैट - आठ मील जमीन नाप ली तो उसका लालच बढने लगा | उसने साथ लाया भोजन और पानी वही छोड़ा और सोचा कि एक दिन भी नही खाया तो क्या , आज से ज्यादा से ज्यादा जमें नाप लेते है | भागते -- भागते साय के चार बज गये पर ज्यादा जमीन का लालच उसे दूसरी तरफ खिचे जा रहा था | मन मार कर वह वापस लौटा तो खिची रेखा से आधा मील दूर जमीन पे गिर गया |  |  मुखिया वही खड़ा था |  वह किसान के पास आया और बोला --- शर्त आसान है |

Thursday, December 25, 2014

युद्ध अभी जारी हैं -------------------------- .हमें गोली से उड़ा दिया जाये 26-12 14

फांसी के पूर्व पंजाब गवर्नर के नाम लिखा प्रत्र
युद्ध अभी जारी हैं -------------------------- .हमें गोली से उड़ा दिया जाये





महोदय
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बाते .आपकी सेवा में रख रहे हैं - भारत की ब्रीटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अद्यादेश जारी करके लाहौर षड़यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायधिकर्ण (ट्रिबुनल ) स्थापित किया था ,जिसने 7 अक्टुबर ,1930 को हमें फांसी का दंड सुनाया | हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया हैं कि हमने सम्राट जार्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया हैं |
न्यायालय के इस निर्णय से दो बाते स्पस्ट हो ज़ाती हैं - पहली यह कि अंग्रेजी जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा हैं | दूसरी यह हैं कि हमने निशचित रूप में इस युद्ध में भाग लिया है | अत: हम युद्ध बंदी हैं | यद्यपि इनकी व्याख्या में बहुत सीमा तक अतिशयोक्ति से काम लिया गया हैं , तथापि हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि ऐसा करके हमें सम्मानित किया गया हैं | पहली बात के सम्बन्ध में हम तनिक विस्तार से प्रकाश डालना चाहते हैं | हम नही समझते कि प्रत्यक्ष रूप से ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी हुई हैं | हम नहीं जानते कि युद्ध छिड़ने से न्यायालय का आशय क्या हैं ? परन्तु हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हैं और साथ ही इसे इसके ठीक सन्दर्भ को समझाना चाहते हैं | ......................
युद्ध कि स्थिति
हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ हैं और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिको की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा हैं - चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों ,उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी हैं | चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नही पड़ता | यदि आपकी सरकार कुछ नेताओ या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाये ,कुछ सुविधाय मिल जाये ,अथवा समझौते हो जाये ,इससे भी स्थिति नही बदल सकती ,तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता हैं | हमे इस बात की भी चिन्ता नही कि युवको को एक बार फिर धोखा दिया गया हैं और इस बात का भी भय नहीं हैं कि हमारे राजनीतिक नेता पथ - भ्रष्ट्र हो गये हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध ,बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गये हैं ,जिन्हें दुर्भाग्य से क्रन्तिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता हैं | हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रू समझते है ,क्योकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं | हमारी वीरागनाओ ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया हैं | उन्होंने अपने पतियों को बलिबेदी पर भेट किया ,भाई भेट किये ,और जो कुछ भी उनके पास था -सब न्यौछावर कर दिया | उन्होंने अपने आप को भी न्यौछावर कर दिया परन्तु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती हैं | आपके एजेन्ट भले ही झूठी कहानिया बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धी को हानि पहुचाने का प्रयास करें ,परन्तु यह युद्ध चलता रहेगा |
युद्ध के विभिन्न स्वरूप
........................
हो सकता हैं कि यह लड़ाई भिन्न -भिन्न दशाओ में भिन्न - भिन्न स्वरूप ग्रहण करे | किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले ,कभी गुप्त दशा में चलती रहे ,कभी भयानक रूप धारण के ले ,कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाये कि जीवन और मृत्यु की बाज़ी लग जाये | चाहे कोई भी परिस्थिति हो ,इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा | यह आप की इच्छा हैं कि आप जिस परिस्थिति को चाहे चुन लें ,परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी | इसमें छोटी -छोटी बातो पर ध्यान नही दिया जायेगा | बहुत सम्भव हैं कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले | पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नही होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढाचा समाप्त नही हो जाता ,प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नही हो जाती और मानवी सृष्टी में एक नवीन युग का सूत्रपात नही हो जाता |
अन्तिम युद्ध .........
निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जायेगा और यह युद्ध निर्णायक होगा | साम्राज्यवाद व पूजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं | यही वह लड़ाई हैं जिसमे हमने प्रत्यक्ष रूप में भाग लिया हैं और हम अपने पर गर्व करते है कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया हैं और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा हमारी सेवाए इतिहास के उस अध्याय में लिखी जाएगी जिसको यतीन्द्रनाथ दास और भगवतीचरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया हैं | इनके बलिदान महान हैं | जहाँ तक हमारे भाग्य का सम्बन्ध हैं हम जोरदार शब्दों में आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फांसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया हैं | आप ऐसा करेंगे ही | आपके हाथो में शक्ति हैं और आपको अधिकार भी प्राप्त हैं | परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्दांत ही अपना रहे हैं और आप उस पर कटिबद्ध हैं | हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि हमने कभी कोई प्रार्थना नही की और अब भी हम आप से किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नही करते | हम आप से केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग हैं | इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं ,अत:इस आधार पर हम आपसे मांग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियो -जैसा ही व्यवहार किया जाये और हमें फांसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाये | अब यह सिद्ध करना आप का काम हैं कि आपको उस निर्णय में विश्वास हैं जो आपकी सरकार के न्यायालय ने किया हैं | आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिये | हम विनय पूर्वक आप से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना -विभाग को आदेश दे  कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाये |........
.......भवदीय ,
.... भगतसिंह ,राजगुरु ,सुखदेव
------------------------------------------------------------------------प्रस्तुती सुनील दत्ता

बलिदान से पहले साथियों को अंतिम पत्र ---------- भगत सिंह 26-12-14

आओ  मेरे प्रिय बच्चो

आज तुम्हे कुछ बाते बताता हूँ शहीदे आजम भगत सिंह के बारे में उनके लिखे पत्रों के बारे में ---




बलिदान से पहले साथियों को अंतिम पत्र
......................................
22 मार्च 1931

साथियों ,

स्वाभाविक हैं कि जीने की इच्छा मुझमे भी होनी चाहिए ,मैं इसे छिपाना नहीं चाहता |

लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हूँ कि मैं क़ैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता |
मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका हैं और क्रन्तिकारी दल के आदर्शो और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया हैं - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा हरगिज़ नहीं हो सकता |........हाँ ,एक विचार आज भी मेरे मन में आता हैं कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरते मेरे दिल में थीं ,उनका हजारवा भाग भी पूरा नही कर सका | अगर स्वतंत्र ,जिन्दा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरते पूरी कर सकता | इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नही आया | मुझसे अधिक भाग्यशाली कोंन होगा ? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व हैं | अब तो बड़ी बेताबी से अन्तिम समय का इंतजार हैं | कामना है कि यह और नजदीक हो जाए |.......
............आपका साथी
                    भगतसिंह                                             प्रस्तुति सुनील दत्ता


एक्स रेज के अविष्कारक -------- विल्हेलम कानराड रौटजन २25- 12 - 14

हम जिनके ऋणी है -----------------------


एक्स रेज के अविष्कारक --------  विल्हेलम कानराड रौटजन


एक्स रेज ( यानी एक्स किरणों ) का नाम जनसाधारण भी जानता है | इसका उपयोग चिकित्सा शास्त्र से लेकर अन्य दूसरे क्षेत्रो में भी बढ़ता जा रहा है | इसका आविष्कार प्रोफ़ेसर विल्हेलम कानराड रौटजन  अपनी प्रयोगशाला में वैकुअम ट्यूब ( हवा निकालकर पूरी तरह से खाली कर दिए ट्यूब ) में बिजली दौड़ाकर उसके वाहय प्रभावों को देखने के लिए प्रयोग कर रहे थे | खासकर वे इस ट्यूब से निकलने वाले कैथोड किरणों का अध्ययन करनी चाहते थे | इसके लिए उन्होंने ट्यूब को काले गत्ते से ढक रखा था | जिससे उसकी रौशनी बाहर न जाए | प्रयोग के पूरे कमरे में अन्धेरा कर रखा था , ताकि प्रयोग के परिणामो को स्पष्ट देखा जा सके | ट्यूब में बिजली पास करने के बाद उन्होंने  यह देखा कि मेज पर ट्यूब से कुछ दुरी पर रखा प्रतिदीप्तीशील  पर्दा चमकने लगा |
 रौटजन के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा | उन्होंने ट्यूब को अच्छी तरह से देखा | वह काले गत्ते से ढका हुआ था | साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि ट्यूब के पास दूसरी तरफ पड़े बेरियम प्लेटिनोसाइनाइड के कुछ टुकड़े भी ट्यूब में विद्युत् प्रवाह के साथ चमकने लग गये है | रौटजन ने अपना प्रयोग  कई बार दोहराया | हर बार नलिका में विद्युत् प्रवाह के साथ उन्हें पास रखे वे टुकड़े और प्रतिदीप्ती  पर्दे पर झिलमिलाहट नजर आई | वे इस नतीजे पर पहुचे कि ट्यूब में से कोई ऐसी अज्ञात किरण निकल रही है , जो गत्ते की मोटाई को पार कर जा रही है | उन्होंने इस अज्ञात किरणों को गणितीय चलन के अनुसार एक्स रेज  का नाम दे दिया | बाद में इसे रौटजन की अविष्कृत किरने रौटजन   रेज का नया नाम दिया गया | लेकिन तब से आज तक रौटजन  द्वारा दिया गया ' एक्स रेज ' नाम ही प्रचलन में है | बाद में रौटजन ने एक्स रेज पर अपना प्रयोग जारी रखते हुए फोटो वाले  खीचने वाले फिल्म पर अपनी पत्नी अन्ना बर्था -- का हाथ रखकर एक्स रेज को पास किया | फोटो धुलने पर हाथ की हड्डियों का एकदम साफ़ अक्स फोटो फिल्म पर उभर आया | साथ में अन्ना बर्था के उंगलियों की अगुठी का भी अक्स आ गया | मांसपेशियों  का अक्स बहुत धुधला था | फोटो देखकर हैरान रह गयी अन्ना ने खा कि मैंने अपनी मौत देख ली ( अर्थात मौत के बाद बच रहे हड्डियों के ढाचे को देख लिया |
एक्स रेज के इस खोज के लिए रौटजन को 1901में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के लिए निर्धारित पहला नोबेल पुरूस्कार मिला | रौटजन ने वह पुरूस्कार उस विश्व विद्यालय को दान कर दिया | साथ ही उन्होंने अपनी खोज का पेटेन्ट कराने से भी स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि वे चाहते है कि इस आविष्कार के उपयोग से पूरी मानवता लाभान्वित हो | रौटजन का जन्म 27 मार्च 1845 में जर्मनी के रैन प्रांत के लिनेप नामक स्थान पर हुआ था | उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हालैण्ड में हुई तथा उच्च शिक्षा स्विट्जरलैंड के ज्युरिच विद्यालय में हुई थी | यही पर उन्होंने 24 वर्ष की आयु में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की | वह से निकलकर उन्होंने कई विश्व विद्यालय में अध्ययन का कार्य किया | 1888 में वे बुर्जवुर्ग विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफ़ेसर नियुक्त किये गये | यही पर 1895 में उन्होंने एक्स रेज का आविष्कार किया | 1900 में वह म्यूनिख विश्वविद्यालय चले गये |
वह से सेवा निवृत्त  होने के बाद म्यूनिख में 77वर्ष की उम्र में इस महान वैज्ञानिक की मृत्यु हो गयी | जीवन के अंतिम समय में उन्हें आतो का कैंसर हो गया था | आशका जताई जाती है कि उन्हें यह बीमारी एक्स रेज के साथ सालो साल प्रयोग के चलते हुई थी |




सुनील दत्ता 

गाँधी जी के नाम खुली चिट्ठी -------------------- 25-12-14

गाँधी जी के नाम खुली चिट्ठी
........................................
....
{ गाँधी जी के नाम सुखदेव की यह खुली चिट्ठी मार्च 1931 में गाँधी जी और वायसराय इरविन के बीच हुए समझैते के बाद लिखी गई थी जो हिंदी नवजीवन 30 अप्रैल 1931 के अंक में प्रकाशित हुई थी ]
परम कृपालु महात्मा जी ,
आजकल की ताज़ा खबरों से मालूम होता है कि { ब्रीटिश सरकार से } समझौते कि बातचीत सफलता के बाद आपने क्रन्तिकारी कार्यकर्ताओं को फिलहाल अपना आन्दोलन बन्द कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा देखने का आखरी मोका देने के लिए कई प्रकट प्राथनाए की है | वस्तुत ; किसी आन्दोलन को बन्द करना केवल आदर्श या भावना में होने वाला काम नहीं हैं | भिन्न -भिन्न अवसरों कि आवश्यकता का विचार ही अगुआओं को उनकी युद्ध नीति बदलने के लिए विवश करता हैं |
माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान , आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष किया ,न इसे छिपा ही रखा की समझैता न होगा | मैं मानता हूँ कि सब बुद्धिमान लोग बिलकुल आसानी के साथ यह समझ गये होंगे कि आप के द्वारा प्राप्त तमाम सुधारो का अम्ल होने लगने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले -मकसूद पर पहुच गये हैं | सम्पूर्ण स्वतन्त्रता जब तक न मिले ,तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए कांग्रेस महासभा लाहोर के प्रस्ताव से बंधी हुई हैं | उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ काम चलाऊ युद्ध विराम हैं | जिसका अर्थ यही होता हैं कि अधिक बड़े पयमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोडा विश्राम हैं ......किसी भी प्रकार का युद्ध -विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्ते ठहराने का काम तो उस आन्दोलन के अगुआवो का हैं | लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आप ने फिलहाल सक्रिय आन्दोलन बन्द रखना उचित समझा हैं | इसके वावजूद भी वह प्रस्ताव तो कायम ही हैं | इसी तरह 'हिन्दुस्तानी सोसलिस्ट पार्टी ' के नाम से ही साफ़ पता चलता हैं कि क्रांतिवादियों का आदर्श समाजवादी प्रजातन्त्र की स्थापना करना हैं | यह प्रजातन्त्र मध्य का विश्राम नही हैं | जब तक उनका ध्येय प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो , तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बंधे हुए हैं | परन्तु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध .नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे | क्रन्तिकारी युद्ध ,जुदा ,जुदा रूप धारण करता हैं | कभी गुप्त ,कभी केवल आन्दोलन -रूप होता हैं ,और कभी जीवन - मरण का भयानक सग्राम बन जाता हैं | ऐसी दशा में क्रांतिवादियों के सामने अपना आन्दोलन बन्द करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए | परन्तु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया | निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतीवादी युद्ध में कोई विशेष महत्त्व नही होता ,हो भी नही सकता |
आप के समझौते के बाद आपने अपना आन्दोलन बन्द किया हैं ,और फलस्वरूप आप के सब कैदी रिहा हुए हैं | पर क्रन्तिकारी कैदियों का क्या हुआ ? 1915 ई . से जेलों में पड़े हुए गदर - पक्ष के बीसो कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं | मार्शल ला के बीसों कैदी आज भी जिन्दा कब्रों में दफनाये पड़े हैं | यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का हैं | देवगढ , काकोरी ,मछुआ -बाज़ार और लाहौर षड़यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बन्द पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं लाहौर ,दिल्ली चटगाँव बम्बई कलकत्ता और अन्य जगहों में कई आधी दर्जन से ज्यादा षड़यंत्र के मामले चल रहे हैं | बहुसंख्य क्रांतिवादी भागते फिरते हैं ,और उनमे कई स्त्रिया हैं \सचमुच आधे दर्जन से अधिक कैदी फांसी पर लटकने कि राह देख रहे हैं | लाहौर षड़यंत्र केस के सजायाफ्ता तीन कैदी , जो सौभाग्य से मशहूर हो गये और जिन्होंने जनता क़ी बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की हैं ,वे कुछ क्रांतिवादी दल का एक बड़ा हिस्सा नही हैं | उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नही हैं | सच पूछा जाये तो उनकी सज़ा घटाने की अपेक्षा उनके फांसी पर चढ़ जाने से अधिक लाभ होने की आशा हैं |
यह सब होते हुए भी आप उन्हें अपना आन्दोलन बन्द करने की सलाह देते हैं | वे ऐसा क्यों करे ? आपने कोई निश्चित वस्तु की ओर निर्देश नही किया हैं | ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आन्दोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं ,और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को राष्ट्रद्रोह . पलायन और विश्वास घात का उपदेश करना हैं | यदि ऐसी बात नही है ,तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रांतिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते | अपना आन्दोलन बन्द करने के बारे में पहले आपको उनकी बुद्दी की प्रतीति कर लेने का प्रयत्न करना चाहिए था | मैं नही मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं | मैं आप को कहता हूँ कि वस्तु स्थिति ठीक इसकी उल्टी हैं सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं ,और इस प्रकार वे जो जिम्मेदारी अपने माथे लेते हैं ,उसका उन्हें पूरा - पूरा ख्याल होता है और क्रांति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग कि अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यन्त महत्व का मानते हैं | हालाकि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवाए और कोई चारा उनके लिए नही हैं |
उनके प्रति सरकार कि मौजूदा नीति यह है कि लोगो की ओर से उन्हें अपने आन्दोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है ,उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाये | अकेले पड़ जाने पर उनका शिकार आसानी से किया जा सकता है | ऐसी दशा में उनके दल में बुद्धि - भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावपूर्ण अपील एकदम बुद्धिमानी से रहित और क्रांतिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करने वाली होगी | इसलिए हम आप से प्रार्थना करते है कि या तो आप कुछ क्रन्तिकारी नेताओ से बातचीत कीजिये - उनमे से कई जेलों में हैं -और उनके साथ सुलह कीजिये या सब प्रार्थना बन्द रखिये | कृपा कर हित की दृष्टि से इन दो में से कोई एक रास्ता चुन लीजिये और सच्चे दिल से उस पर चलिए | अगर आप उनकी मदद न कर सके ,तो मेहरबानी करके उन पर रहम करे | उन्हें अलग रहने दें | वे अपनी हिफाजत आप अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं ...
अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हो तो उनका दृष्टिकोण समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसीलवार चर्चा कर लीजिये | आशा है ,आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्व साधारण के सामने प्रगट करंगे |
........................................
..आपका
अनेको में से एक सुखदेव
                                                                                                ------प्रस्तुती .........सुनील दत्ता

Tuesday, December 23, 2014

अपसंस्कृति ----- 24-12-14

अपसंस्कृति




दुनिया की आप़ा धापी में शामिल लोग
भूल चुके है
अलाव की संस्कृति
नहीं रहा अब बुजुर्गों की मर्यादा का ख्याल
उलझे धागे की तरह नहीं
सुलझाई जाती समस्याएं
संस्कृति , संस्कार ,परम्पराओं की मिठास को
मुंह चिढाने लगी हैं
अपसंस्कृति की आधुनिक बालाएं
अब वसंत कहाँ ?
कहां ग़ुम हो गयीं
खुशबू भरी जीवन की मादकता
उजड़ते गावं -दरकते शहर के बीच
उग आई हैं चौपालों की जगह चट्टियां
जहाँ की जाती है
व्यूह रचना
थिरकती हैं
षड्यंत्रों की बारूद
फेकें जाते हैं
सियासत के पासे
भभक उठती हैं
दारू की गंध -
और
हवाओं में तैरने लगती हैं युवा पीढ़ी
गूँज उठती हैं
पिस्टल और बम की डरावनी आवाज़
सहमी-सहमी उदासी पसर जाती हैं
गावं की गलियों
,खलिहानों और खेतों की छाती पर
यह अपसंस्कृति का समय हैं |
------------------------------------------------------------------------------सुनील दत्ता

भूमि अधिग्रहण पर विश्व बैंक का किसान विरोधी सुझाव --- 24-12-14

भूमि अधिग्रहण पर विश्व बैंक का किसान विरोधी सुझाव


दैनिक जागरण एक जून के अंक में " खेती की खतरनाक खरीद के नाम से प्रकाशित लेख में कृषि नीतियों के विशेषज्ञ लेखक देवेद्र शर्मा ने एक महत्त्वपूर्ण सुचना दी है | यह कि , 2008 में विश्व बैंक ने अपनी विश्व विकास रिपोर्ट में यह कहा है कि - " भूमि भुत महत्त्वपूर्ण संसाधन है , किन्तु वह ऐसे लोगो के ( यानी किसानो ) के हाथो में संकेंद्रित है , जो उनका कुशलता से उपयोग नही कर पा रहे है | इसलिए भूमि को बड़े संसाधन को उन लोगो के दे दिया जाना चाहिए जो उसका कुशलता से उपयोग कर सके | लेखक ने इसका मतलब स्पष्ट करत हुए कहा कि विश्व बैंक के सुझावों के अनुसार भूमि संसाधन का कुशलता पूर्वक उपयोग करने कि क्षमता पूंजी विहीन , अभाव ग्रस्त , किसानो के पास नही बल्कि आधुनिक संसाधनों से सम्पन्न धनाढ्य लोगो के ही पास है | इसलिए किसानो कि खेती अर्थात विशालकाय कम्पनियों द्वारा संचालित नियर्त्रित खेती में बदल दिया जाना चाहिए | लेखक ने आगे बताया है की इन्ही सुझावों के अनुसार काम भी किया जा रहा है | किसानो को जमीन से बेदखल करने और उसे धनाढ्य हिस्सों को सौपने की प्रक्रिया लम्बे समय से चलाई जा रही है | इस देश में ही नही बल्कि अन्य पिछड़े देशो में भी येही प्रक्रिया चलाई जा रही है |
पड़ोसी देश चीन में भी वंहा की सरकार द्वारा भूमि - अधिग्रहण के जरिये भारी संख्या में किसानो की कृषि भूमि से बेदखली किया है | यह सब देश की जनतांत्रिक कंही जाने वाली सत्ता - सरकार द्वारा धनाढ्य एवं उच्च तबको के हितो , स्वार्थो की अन्धाधुन पूर्ति के लिए एकदम नग्न रूप में किसानो विरोधी , जनविरोधी चरित्र अपना लेने का सबूत है की विश्व बैंक के सुझावों के अनुरूप ही सत्ता - सरकारे कृषि भूमि को किसानो से चिनकर उसका अधिकाधिक कुशलता से उपयोग करने वाली धनाढ्य कम्पनियों को सौपने को तैयार है | हमारे देश के कई विद्वान एवं उच्च स्तरीय अर्थशास्त्री भी येही बात कर रहे है | जाहिर सी बात है की विद्वान अर्थशास्त्री की यह बात उनकी अपनी सोच नही है | बल्कि वह धनाढ्य कम्पनियों की वकालत मात्र ही है | यह वकालत प्रचार माध्यमी जगत में भी इस रूप में चलती रही है कि , " विकास के लिए जमीन कि आश्यकता से इनकार नही किया जा सकता |
उद्योग , वाणिज्य , व्यापार , यातायात , संचार आदि के विकास विस्तार के लिए जमीनों की आश्यकता से इनकार नही किया जा सकता | तीव्र विकास के वर्तमान दौर में भूमि और कृषि भूमि के अधिकाधिक अधिग्रहण की आश्यकता से इनकार नही किया जा सकता | इन पाठो , प्रचारों के साथ किसानो से जमीने चिनकर उन्हें धनाढ्य कम्पनियों के देने में विश्व बैंक , देश व् विदेश के उच्च कोटि के अर्थशास्त्री गण देश की केन्द्रीय प्रांतीय सरकारे तथा प्रचार माध्यम जगत के बहुसख्यक हिस्से एक जुट है | इनके पीछे देश - दुनिया के धनाढ्य कम्पनिया खड़ी है और उनका वरदहस्त इनके उपर है | आधिनिक विकास के लिए किसानो और गावो की विनाश करना इनका प्रमुख लक्ष्य बन गया है |
अत : किसानो द्वारा भूमि अधिग्रहण के विरोध में जगह - जगह चलाया जा रहा आन्दोलन केवल ' अपनी जमीन बचाओ ' अपना गाव बचाओ ' आन्दोलन के रूप में ख्त्न नही हो जाना चाहिए | बल्कि यह देश - प्रदेश के गाव बचाओ किसान बचाओ के रूप में आगे बढ़ जाना चाहिए | प्रदेश व्यापी , देश व्यापी हो जाना चाहिए अधिकाधिक संगठित एवं एकताबद्ध हो जाना चाइये | फिर इस विरोध को भूमि अधिग्रहण के विरोध तक ही सिमित नही रहना चाहिए | बल्कि सरकार के जरिये भूमि का मालिकाना पा रही कम्पनियों के विरोध के रूप में भी आगे बढना चाहिए | चुकी भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया वैश्वीकरणवादी निजीकरण वादी नीतियों का अहम हिस्सा है | इन नीतियों के तहत निजी लाभ मालिकाना बढाने की छुट पाते रहे धनाढ्य एवं उच्च तबको के कृषि भूमि पर मालिकाने का बढ़ाव विस्तार है | इसलिए किसानो एवं ग्रामवासियों को इस बात को जरुर जानना समझना चाहिए की भूमि अधिग्रहण के विरोध के लिए वैश्वीकरणवादी तथा निजीकरणवादी नीतियों का विरोध अत्यंत आश्यक है | अपरिहार्य है |खाद्यानो की बढती महगाई की मार सहते जा रहे गैरकृषक जन साधारण हिस्से को भी इस विरोध इस विरोध में किसानो के साथ होना चाहिए ............... जागो -जागो कब तक सोते रहोगे लोगो .........

' थका पिसा मजदूर वही दहकान वही है |
कहने को भारत , पर हिन्दुस्तान वही है ||
सुनील दत्ता
पत्रकार

Monday, December 22, 2014

हिन्दू समाज में सामाजिक एकता की विखंडित अवधारणाये ---- 23-12-14

हिन्दू समाज में सामाजिक एकता की विखंडित अवधारणाये
..............................
..........
..................................................................


हिन्दू
------ समाज राष्ट्र पर मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त किये गये
मंदिरों पर तो चिंता प्रकट करता है , लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों या
मुस्लिम बादशाहों के काल में धर्म के रूप में विखंडित होते रहे हिन्दू समाज
पर कोई चिंता नही करता | वह हिन्दू -- समाज में किसी विजातीय धर्म के लोगो
को न अपना पाने अथवा हिन्दू धर्म से च्युत हुए लोगो को पुन: न अपना पाने (
उल्टे उन्हें सदा सर्वदा के लिए त्याज्य मानने ) की अपनी ध्रामिक --
सामाजिक अवधारणा पर भी कोई प्रश्न चिन्ह नही खड़ा करता | .................

हिन्दू समुदाय के प्रबुद्ध हिस्सों द्वारा राष्ट्र और धर्म के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के उदगार बारम्बार प्रकट किये जाते रहे है |
कई
बार तो राष्ट्र और धर्म को एक में जोड़ कर राष्ट्र -- धर्म के प्रति जागरूक
व निरंतर प्रयत्नशील रहने की अवधारणाये  भी प्रस्तुत की जाती रही है |
हालाकि आधुनिक राष्ट्र  और धर्म ( हिन्दू धर्म या कोई अन्य धर्म ) की
अवधारणाओ को एक में मिलाकर देखना ठीक नही कहा जा सकता | क्योकि दोनों  शब्द
मानव समाज के एतिहासिक विकास की दो अलग -- अलग स्थितियों व विचारों का
प्रतिनिधित्व करते है | दोनों के दायरे अलग -- अलग है |

इसके
वावजूद यदि धर्म को राष्ट्रिय व सामाजिक नियमो आधारों -- विचारों ,
नैतिकताओ के मानने के रूप में ले लिया जाय , जैसा कि बहुत बार कह दिया जाता
है तो राष्ट्र - धर्म की अवधारणा को राष्ट्रप्रेम , राष्ट्रवाद तथा
राष्ट्रीय -- संस्कृति आदि के रूप में स्वीकारा जा सकता है , बशर्ते कि वह
अवधारणा आधुनिक युग की राष्ट्र की आत्मनिर्भर स्वतंत्रता की पुरजोर समर्थक
हो , विदेशी ताकतों पर राष्ट्र की पर -- निर्भरता की , विदेशी लूट व प्रभुत्व की विरोधी हो | साथ ही वह राष्ट्र तथा उसके  बहुसंख्यक जनसाधारण समाज में एकता , समानता व बन्धुत्व को अर्थात सामाजिक जनतंत्र को बढावा देने वाली हो | आम समाज में विद्यमान पुराने या नए सामाजिक विखंडन  की विरोधी हो |
लेकिन विडम्बना यह है कि इसी  सामाजिक  जनतंत्र के प्रश्न पर अर्थात समाज में एकता समानता व प्रभुत्व को बढावा देने के प्रश्न पर हमारे समाज में खासकर हिन्दू -- समाज में निष्क्रियता विद्यमान है | वह राष्ट्र पर मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त किये गये मंदिरों पर तो चिंता प्रकट करती है , लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों या मुस्लिम बादशाहों के काल में धार्मिक बदलाव के रूप में विखंडित होते रहे हिन्दू समाज पर कोई चिंता नही करती | हिन्दू समाज के खासे बड़े हिस्से का मुस्लिम समुदाय के रूप में होते रहे बदलाव से समूचे हिन्दू समाज में सदियों से होते रहे विखंडन पर भी आम तौर से कोई गम्भीर चर्चा नही करती | वह समाज के धर्मवादी विखंडन के लिए वह मुस्लिम शासको और उनके जोर जबरदस्ती पर दोष दे लेती है , जो गलत भी नही है , पर हिन्दू -- समाज में किसी विजातीय धर्म के लोगो को न अपना पाने अथवा हिन्दू -- धर्म से च्युत हुए लोगो को पुन: न अपना पाने ( उल्टे उन्हें सर्वदा के लिए त्याज्य मानने ) की अपनी बुनियादी धार्मिक --  सामाजिक अवधारणा पर कोई प्रश्न चिन्ह नही खड़ा करती | और न ही आधुनिक युग के अनुरूप उनके साथ सामाजिक समागम बढाने आपसी अन्तर विरोधो को घटाने -- मिटाने वाला समाधान प्रस्तुत का ही प्रयास करती है |

 यह मामला आधुनिक समय में किसी पार्टी या संगठन द्वारा कही पर धर्मान्तरित किये गये कुछ लोगो को उन्हें पुन:हिन्दू धर्म व समाज में वापस लेने  के प्रयासों को नही है , बल्कि हिन्दू समुदाय में विद्यमान धार्मिक सामाजिक अलगाववादी अवधारणा का है | इस अवधारणा पर चिंता किये बिना और उसे दुरुस्त किये बिना  हिन्दू समाज आधुनिक युग के राष्ट्र धर्म या राष्ट्रवाद के कर्तव्यो का निर्वहन नही कर सकता | इस राष्ट्र में किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के मानने वालो को अपने से अलग मानकर राष्ट्र की राष्ट्रीयता को समग्र रूप में स्थापित नही कर सकता | उसकी एकता अखंडता की रक्षा नही कर सकता | इसका  यह मतलब कदापि नही है  कि अन्य धर्म सम्प्रदाय के लोगो की गलत अवधारणाओ की कोई आलोचना न की जाए | नही ऐसी आवश्यक आलोचनाये जरुर की जाए | पर वह आलोचना उन्हें अपने राष्ट्र व समाज का हिसा मानकर किया जाय |

फिर हिन्दू समाज में यह विखंडन केवल धार्मिक रूप में ही नही है बल्कि उससे कही ज्यादा जातीय रूप में विद्यमान है | हालाकि जातीय व्यवस्था में पहले के मुकाबले टूटन जरुर आई है और वह लगातार टूटती भी जा रही है | लेकिन यह काम हिन्दू समाज में राष्ट्रीय व सामाजिक एकता को स्थापित करने के सक्रिय प्रयासों से बहुत कम हुआ है | इसकी जगह यह टूटन मुख्यत:: या आधारभूत रूप से आधुनिक शिक्षा के फैलाव बढाव व आधुनिक पेशो के आगमन के चलते हुआ है |

पुराने युग के जातीय व पुश्तैनी कामो पेशो में निरंतर टूटन आने के चलते बढ़ता रहा है | जातीय व्यवस्था की इस टूटन और उसे हर हाल में आगे बढने  ( तथा पीछे न लौट सकने ) की दिशा दशा को देखने जानने के वावजूद हिन्दू समाज और उसके अगुवाकार , घोषित धर्मज्ञ  तथा अन्य सामाजिक राजनीतिक संगठन  हिन्दू समाज के इस सदियों पुराने विखंडन को दूर करने का कोई सार्थक व सक्रिय प्रयास करते दिखाई नही  पड़ रहे है | बहुत हुआ तो छुआछूत का विरोध कर दिया या निचली जातियों के साथ कभी कभार का सहभोज कर लिया | उनके प्रति ऊँची जातियों को उदारता बरतने का उपदेश व प्रचार आदि कर दिया | लेकिन मामला केवल छुआछूत और निम्न जातियों के प्रति केवल कट्टरता को कम करने का नही है | बल्कि हिन्दू समाज में सदियों से चले आ रहे और आधुनिक युग में किन्ही हद तक विद्यमान इस उंच -- नीच की असमानता , विखडन और दुरी -- दुराव के संबंधो के खात्मे का है |  जाति -- व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म किये जाने का है | उसके लिए आधुनिक युग की मांगो आवश्यकताओ अनुसार विखंडित समाज को एक करने के लिए नए जनतांत्रिक सोच व व्यवहार को अपनाने का है |
ठीक इसी जगह हिन्दू धर्मज्ञो , राष्ट्रवादियो या कहिये समूचे हिन्दू समाज की कमजोरी स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है | फिर यह कमजोरी इस बात को भी परिलक्षित करती है कि हिन्दू समाज के अगुवाकारो ने हिन्दू समाज के इस विखडन को दूर करने की जगह उसे भविष्य में कभी स्वत: समाप्त हो जाने के लिए छोड़ दिया है | जबकि वर्तमान युग की बाजारवादी -- जनतांत्रिक व्यवस्था को संचालित करने वाली धनाढ्य वर्गीय राजनीति इस सामाजिक ( धार्मिक व जातीय ) विखडन के राजनीतिक इस्तेमाल से समाज में परस्पर विरोधी गोलबंदी को बढाने में लगी हुई है | '' बाटो व राज करो '' की साम्राज्यी राजनीति को अपनाते  और अधिकाधिक इस्तेमाल करते हुए वह अब पूरे राष्ट्र व समाज के जनसाधारण को धर्म जाति इलाका भाषा के आधार पर विखंडित करती जा रही है |
इसीलिए अब खासकर हिन्दू समुदाय को जहा एक तरफ आधुनिक '' राष्ट्र धर्म '' में विदेशी लूट व प्रभुत्व से स्वतंत्र व आत्म निर्भर राष्ट्र निर्माण के लिए ''  राष्ट्रधर्म '' या राष्ट्रवाद की नवजागृति को खड़ा करने की आवश्यकता आ खड़ी हुई है | वही दूसरी तरफ उसे सदियों से जाति व धर्म के रूप में विखंडित होते रहे समाज को भी एकजुट करने उसमे समानता व बन्धुत्व पैदा करने की आवश्यकता  आ खड़ी हुई है | क्योकि राष्ट्र केवल भौगोलिक सीमा नही है , न ही वह केवल एक केन्द्रीय राज्य द्वारा शासित क्षेत्र  ही है |
बल्कि वह इसके उपर राष्ट्र सीमा के भीतर रहने वाले जन समुदाय का राष्ट्रीय -- जीवन  है | राष्ट्रीय एकजुटता के सम्बन्ध व भावनाए है | उसी अनुसार अपनाए गये विचार एवं व्यवहार है | राष्ट्र की जीवतता केवल भौगोलिक सीमाओं व राज्य की सीमाओं में परिलक्षित नही हो सकती | बल्कि वह राष्ट्र के जन समुदाय के राष्ट्र प्रेम , राष्ट्रीय -- पहचान , राष्ट्रीय -- सम्बन्ध और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावनाओं में ही फल -- फूल; सकती है | यह तभी संभव है जब राष्ट्र व जन -- समाज  विखण्डित न रहे और साथ ही  विखण्डन के नए व पुराने रूपों को कमतर करने का भी निरंतर प्रयास करता रहे |
यह प्रयास इस राष्ट्र व समाज का उच्च हिस्सा कदापि नही कर सकता | क्योकि वह तो अपने धन पूंजी के स्वार्थ में तथा सत्ता के स्वार्थ में राष्ट्र व समाज के विखण्डन को ही बढाने में ही लगा हुआ है | इसीलिए अब इस काम को राष्ट्र व समाज के जनसाधारण को ही करना पडेगा | उसे ही हिन्दू समाज में पुरानी व नई विखण्डनवादी  अवधारणा को दुरुस्त करना ही होगा |


सुनील दत्ता .पत्रकार

Monday, December 15, 2014

मुग्ध करती है अजन्ता एलोरा की मूर्ति शिल्प --- 16-12-14


 मेरे प्यारे बच्चो आज तुम्हे बताता हूँ अजन्ता व एलोरा के मूर्ति शिल्प के बारे में

मुग्ध करती है अजन्ता एलोरा की मूर्ति शिल्प ---


अजन्ता को ऐतिहासिक पहचान देती अजन्ता - एलोरा की गुफाओं को एक लम्बे अरसे बाद 1819 में एक ब्रिटिश अफसर ने शिकार के दौरान देखा तो उसे पत्थरों व पहाड़ो को काट कर बनाई गयी इन अदभुत गुफाओं का अस्तित्व चकित कर गया | प्रकृति की हरी - भरी वादियों में बसी बाघेरा नदी के किनारे घोड़े की नाल के आकार में बनी इन गुफाओ का निर्माण तब किया गया जब बौद्द धर्म अपनी अलग - अलग अवस्थाओं में पनप रहा था | औरंगाबाद से 99 किलोमीटर दूर स्थित अजन्ता की गुफाओं की संख्या तीस है | विशाल पर्वतों को काट कर बनाई गयी इन गुफाओं के भित्ति चित्र और इनके अन्दर निर्मित मूर्तियों का सौन्दर्य सैकड़ो सालो बाद भी सैलानियों को मन्त्रमुग्ध करने की क्षमता रखता है | इन गुफाओं का निर्माण लगभग शायद दूसरी से सातवी शताब्दी के बीच किया गया था | गुफा न एक में भगवान बुद्द की भव्य मूर्ति देखने को मिलती है | इनकी विशेषता यह है कि इसे सामने से देखने पर महात्मा बुद्द ध्यानमग्न नजर आते है जबकि दाए - बाए देखने पर क्रोधित तथा प्रसन्नचित्त मुद्रा में नजर आते है | इस गुफा का एक अन्य आकर्षण एक सिर से चार हिरणों का शरीर जोड़े हुए मूर्ति है | इस गुफा की छत पर भी देखने योग्य चित्रकारी की गयी है | 



अजन्ता की गुफाओं में बने सभी चित्र प्राकृतिक रंगों से बने है , जिनमे हजारो वर्ष बीत जाने के बाद भी चमक देखी जा सकती है | ये बेजोड़ नमूने उस काल की चित्रकला , शिल्प व संस्कृति को प्रदर्शित करते है |
गुफा के भीतर की चित्रकारी अपनी सुन्दरता , भाव , अभिव्यक्ति , आकर्षक चमकीली रंग योजना एवं उत्कृष्ट रंगों से उकेरी गयी संतुलित रचनाओं के कारण हतप्रद कर देती है |



एलोरा की गुफाएअपने बेजोड़ शिल्प व स्थापत्य के लिए जहा विख्यात है वही अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए भी जानी जाती है | यहाँ की गुफाये मूर्तिकला के माध्यम से हिन्दू धर्म , जैन धर्म , बौद्द धर्म का दर्शन कराती है | कला प्रेमियों की मनपसंद स्थल अजन्ता की तरह ही एलोरा की गुफाये भी विशाल चट्टान को काटकर बनाई गयी है | इनकी संख्या 34 है | इनमे 16 गुफाय्र हिन्दू , 13 बौद्द और 5 जैन धर्म की प्रतीक है | अजन्ता की गुफाये जहा कलात्मक भित्ति चित्रों के लिए मशहूर है वही एलोरा की गुफाये मूर्ति कला के लिए विख्यात है |
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

नये विचारों की रोशनी में 15-12-14

नये विचारों की रोशनी में


संघर्ष
देखा है मैंने तुम्हें
ताने सुनते/जीवन पर रोते
देखा है मैंने तुम्हे सांसों-सांसों पर घिसटते
नये रूप / नये अंदाज में
देखा है मैंने तुम्हें
पल-पल संघर्ष में उतरते
मानो कह रही हो तुम
बस - बस -बस
अब बहुत हो चुका ?
न सहेंगे अत्याचार, न सुनेंगे ताने
हर जुल्म का करेंगे प्रतिकार
नये विचारों की रोशनी में।

-सुनील दत्ता

सांसदों के विकास निधि में भारी वृद्धि , लेकिन क्यों ? 15-12-14

सांसदों के विकास निधि में भारी वृद्धि , लेकिन क्यों ?

सांसद निधि में 150 % की वृद्धि कर दी गयी है | इसे दो करोड़ रुपया प्रतिवर्ष से बढाकर पांच करोड़ रूपये प्रतिवर्ष कर दिया गया है |इससे सरकारी खजाने पर प्रतिवर्ष 2370 करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा | सांसद निधि में इतनी भारी वृद्धि का कारण विकास कार्यो के लागत में वृद्धि को पूरा करना और उन कार्यो और और ज्यादा बढावा देना बताया गया है | प्रश्न है कि क्या अभी तक तक के सांसद निधि से हो रहे विकास कार्यो की छानबीन की गयी ? वैसे इसकी समीक्षा के लिए बहुत खोजबीन नही करनी थी | इसका पता संसदीय क्षेत्र की जनता से जानकारी प्राप्त करके आसानी से किया जा सकता था | यह बात जग जाहिर है की ज्यादातर सांसदों , विधायकों के विकास निधि से उनके क्षेत्र में इधर -उधर के विकास से कंही ज्यादा सांसदों के भारी कमीशन का भ्रष्टाचार विकास से जुड़ा है | सांसदों के अपने निर्वाचन क्षेत्र में सडक , नाली , खडंजा , पेयजल , शिक्षा एवं चिकित्सा का विकास भले ही कम हुआ हो पर सांसदों और उनके करीबियों का भरपूर विकास एकदम साफ़ नजर आयेगा |
आम जनता में वर्षो से उजागर इस सच्चाई को सरकार न जानती हो , यह सम्भव नही है |वह भी तब जब बिहार में नितीश कुमार की सरकार ने इसी को कारण बताकर प्रांत कि विधायक निधि पर रोक लगा दी है | जहा तक विकास और वह भी वर्तमान दौर के विकास का मामला है तो यह बात भी जग जाहिर है , विकास और भ्रष्टाचार में चोली - दामन का साथ हो गया है | अब तो यह बात डंके कि चोट पर कही जा सकती है जहा जितना विकास है ,वहा भ्रष्टाचार का उतना ही विकास है | चाहे वह सडक यातायात का विकास हो या मोबाइल फोन के 2 जी , 3 जी जैसे पीढियों का विकास विस्तार या फिर राष्ट्र मंडल जैसा खेल तमाशे का विकास विस्तार .......फिर आधुनिक अस्त्र - शस्त्र आदि की खरीद बिक्री का विकास . आप को हर जगह भ्रष्टाचार का निरंतर बढ़ता विकास देखने को मिल जाएगा | सांसद निधि के जरिये विकास और उसमे बढ़ते भ्रष्टाचार पर चुप्पी की एक और बड़ी वजह है की इसकी बुनियाद में विकास नही राजनितिक भ्रष्टाचार निहित है |1993 में जब इसकी शुरुआत तब की गयी थी जब नई आर्थिक नीतियों को लेकर केंद्र में कांग्रेस की अल्पमत सरकार का विरोध हो रहा था |उस वक्त यह विकास निधि के नाम, से शुरू की गयी , निधि वस्तुत:सांसदों को इन नीतियों का विरोध छोडकर समर्थन के लिए दिया गया था |इसलिए इसे विकास निधि की बदले समर्थन निधि कहना ज्यादा उचित होगा इसीलिए उसका नतीजा भी क्षेत्रो के बढ़ते विकास के रूप में नही अपितु नीतियों के बढ़ते समर्थन के रूप में आया और आता रहा | फिर इन नीतियों के आगे बढाने उसके अधिकाधिक समर्थन के लिए तथा बढती जन समस्याओं को नजर अंदाज़ करने के लिए भी इसे बधया जाता रहा | इसके लिए जन - प्रतिनिधियों को और ज्यादा भ्रष्ट बनाने का काम किया जाता रहा | अब बढ़ते भूमि अधिग्रहण तथा छोटे कम्पनियों , कारोबारियों और खुदरा व्यापार आदि के बढ़ते अप्रत्यक्ष अधिग्रहण के दौर में इन इन नीतियों के समर्थन की तथा ग्रामीणों किसानो व अन्य जन - साधारण हिस्सों को उनकी समस्याओं , आंदोलनों आदि को नजर अंदाज़ करने के लिए भी विकास निधि को बधया जा रहा है | जन प्रतिनिधियों को और ज्यादा भ्रष्ट किया जा रहा है | उनके वेतनों सुविधाओं और विकास निधियो में वृद्धि करते हुए उन्हें जनसाधारण के प्रतिनिधित्व से पूरी तरह अलग किया जा रहा है | अब उन्हें खुलेआम धनाढ्य कम्पनियों एवं उच्च सुविधाभोगी हिस्से का ही का ही प्रतिनिधि बनाया जा रहा है | जो देश के आम आवाम के लिए खतरनाक है |

सुनील दत्ता
पत्रकार

Saturday, December 13, 2014

भूख के विरुद्ध भात के लिए --- रात के विरुद्ध प्रात के लिए --------- शैलेन्द्र 14-12-14

भूख के विरुद्ध भात के लिए --- रात के विरुद्ध प्रात के लिए --------- शैलेन्द्र








स्मृतियों के पन्ने -- दर -- पन्ने खुलते रहे और भारतीय हिन्दी साहित्य के साथ ही गीत , कविता ने प्रखर विद्रोही स्वर को स्थापित किया | उसी कड़ी में एक ऐसा कविता का चितेरा इस भारतीय साहित्य व फिल्म के इतिहास में पदापर्ण किया |
कहा से बनते ऐसे गीत जो बाबस्ता लगे रूह से कंठ गुनगुना उठे | देश की आजादी मिले बरसों बीत चूका था | समाज के सरोकार भी बदल रहे थे |
रावलपिंडी में पैदा हुआ नौजवान विस्थापन का दर्द लेकर मथुरा से बम्बई पहुचा | अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को लिए '' तू जिन्दा है तो जिन्दगी के जीत पर यकीन कर अगर कही है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर ''वो बेचैन नौजवान शंकरदास केसरीलाल -- वह वामपंथी जनवादी गीतकार बम्बई के माटुंगा रेलवे वर्कशाप में बेलदार बनने की कोशिश कर रहा था और वह अपने कोशिश में कामयाब भी रहा | शंकरदास केसरीलाल अपने कार्य की समाप्ति के बाद अपने वैचारिक विचारों को एक कैनवास दे रहा था और बोल पडा तत्कालीन व्यवस्था को देखकर
'' भगत सिंह से ''
भगत सिंह इस बार न लेना काय भारतवासी की
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी
यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहलाओगे
बम्ब , सम्ब की छोडो भाषण दिया पकडे जाओगे
निकला है कानून नया चुटकी बधते बंध जाओगे
न्याय अदालत की मत पूछो सीधे मुक्ति पाओगे |
वो नौजवान लोहा तो कभी ठीक से नही जोड़ पाया | उसने शब्दों को ऐसा जोड़ा कि पूरी दुनिया उसका लोहा मानने लगी और संगीत की दुनिया उसकी आवारगी पर वाह -- वाह कह उठी |
1948 उमस भरी एक शाम एक मुशायरे में एक नौजवान अपनी कविता का पाठ कर रहा था | कविता खत्म होती है तालियों के गडगडा हट के बीच से एक व्यक्ति उसके पास पहुचता है और अपना परिचय देते हुए कहता है मेरा नाम '' राजकपूर '' है |



उस कवि का नाम शंकरदास केसरीलाल था |
राजकपूर उनकी कविता को अपनी फिल्म में लेना चाहते थर | वो क्रांतिकारी नौजवान उनकी पेशकश यह कहते हुए ठुकरा देता है कि मैं अपनी कविताओं का खरीद -- फरोख्त नही कर्ता और उसकी कलम बोल पड़ती है |
'' मरे हुए प्यारे सपनो के प्रेत नाचते अट्टाहास कर
खूब थिरकते ये हड्डी के ढाचे चर -- चरमर -- चरमर का
ढक सफेद चादर में अपनी ठठरी खोल जरा सा घुघट
संकेतो से पास बुलाती वह पिशाचनी
असमय जो घुट भरी जवानी सीनादानी
कभी -- कभी यद् आ ही जाती बिसरी
दुःख भरी कहानी
समय तीव्र गति से गतिमान था शंकर दास केसरीलाल लोहा जोड़ते रहे और राजकपूर फिल्मे बनाते रहे | उनकी कमी खर्चे का साथ नही दे पा रही थी | शंकरदास अपनी फकीरी में मस्त थे पर माँ की बीमारी ने उनको उधार के लिए राजकपूर के दरवाजे तक पहुचा दिया |
पांच सौ रुपया उस जमाने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी | तीन महीने बाद जब वो उधार चुकता करने गये तो राजकपूर का जबाब था वो सूद पे रुपया नही देते है और वो रुपया लेने से इंकार कर दिए |
उन्होंने शंकरदास से कहा कि अगर वो सचमुच इस कर्ज से मुक्त होना चाहते है तो उनकी फिल्मो के लिए गीत लिखे | उस समय शंकरदास केसरीलाल ने उनकी बात मन ली और उन्होंने राजकपूर की फिल्म '' बरसात '' के लिए पहला गीत लिखा
बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम
बरसात में ...
प्रीत ने सिंगार किया, मैं बनी दुल्हन
सपनों की रिमझिम में, नाच उठा मन
मेरा नाच उठा मन
आज मैं तुम्हारी हुई तुम मेरे सनम
तुम मेरे सनम
बरसात में ...
इस गीत के साथ ही शंकरदास का कायाकल्प हो चुका था और राजकपूर ने उन्हें एक नया नाम दिया ''शैलेन्द्र '' फिल्म बरसात के गीत ने शैलेन्द्र को भारतीय सिनेमा के साथ ही पुरे देश में एक गीतकार के रूप में स्थापित कर दिया |
भारतीय सिनेमा में शैलेन्द्र संगीत के नक्षत्र बन चुके थे | सिनेमा को हिन्दी का गीतकार मिल चुका था |
एक दिन राजकपूर शैलेन्द्र को लेकर अब्बास साहब के यहाँ गये | अब्बास साहब शैलेन्द्र को दो घन्टे कहानी सुनाते रहे | कोई प्रतिक्रिया न होने पर अब्बास साहब ने राजकपूर से कहा कि ये किसे पकड़ लाये हो | इतना सुनते ही शैलेन्द्र बाहर निकल आये उनके पीछे राजकपूर निकलकर पूछे क्या हुआ कविराज ? इतना सुनते ही शैलेन्द्र ने पीछे मुड़कर कहा
'' आवारा हूँ, आवारा हूँ
या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ - २
आवारा हूँ, आवारा हूँ
घर-बार नहीं, संसार नहीं
मुझसे किसी को प्यार नहीं - २
उस पार किसी से मिलने का इक़रार नहीं
मुझसे किसी को प्यार नहीं - २
सुनसान नगर अन्जान डगर का प्यारा हूँ
आवारा हूँ, आवारा हूँ इतना सुनते ही अब्बास साहब पानी -- पानी हो गये | राजकपूर शैलेन्द्र को कविराज बुलाया करते थे |
राजकपूर की मासूमियत , शैलेन्द्र के शब्द और शंकर जयकिशन का संगीत पुरे भारतीय सिनेमा में चमकता तारा बन गया था |
शैलेन्द्र एक ऐसे गीत शिल्पकार थे जो अपने अंतस मन के भीतर एक ज्वालामुखी लिए फिरते थे चाहे वो जीवन -- दर्शन हो या प्रेम का दर्शन तभी तो वो कैनवास पर लिखते है |
मिट्टी से खेलते हो बार-बार किस लिए
टूटे हुए खिलौनों से प्यार किस लिए
'' किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है |
'' वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर ! जाएगा कहाँ ?
दम ले ले घड़ी भर, ये छैयाँ पाएगा कहाँ ?
बीत गए दिन प्यार के पल-छिन
सपना बनी वो रातें
भूल गए वो, तू भी भुला दे
प्यार की वो मुलाकातें
सब घोर अन्धेरा, मुसाफ़िर ! जाएगा कहाँ ?
'' तेरा जाना
दिल के अरमानों का लुट जाना
कोई देखे
बन के तक़दीरों का मिट जाना
तेरा जाना...
'' जाने कैसे सपनों मैं खो गई अँखियाँ
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियाँ
'' खोया-खोया चांद, खुला आसमां
आँखों में सारी रात जाएगी
तुमको भी कैसे नींद आएगी, हो
खोया-खोया ...
'' अपनी तो हर आह इक तूफ़ान है
क्या करे वो जान कर अंजान है -
ऊपर वाल जान कर अंजान है
अपनी तो हर आह इक तूफ़ान है
ऊपर वाल जानकर अंजान है
अपनी तो हर आह इक तूफ़ान है
शैलेन्द्र की रचना शिल्प अदभुत थी एक तरफ वो विद्रोह के स्वर देते तो दूसरी तरफ प्रेम के दर्शन की कथा शिल्प को रचते सीधी सच्ची साधारण से असाधारण कर देते वो अपने गीत सिल्प से शंकर जयकिशन शैलेन्द्र के बहुत बड़े मुरीद थे और उन्होंने शैलेन्द्र से वादा किया था कि वो उनके लिखे ढेरो गीतों को लयबद्ध करंगे | बहुत दिनों तक शंकर जयकिशन ने शैलेन्द्र की सुधि नही ली तब एक दिन शैलेन्द्र ने एक चुटके पर यह लिखकर उनको दिया '' छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रस्तें हैं
तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल
छोटी सी .
सीखा नहीं हमारे दिल ने प्यार में धीरज खोना
आग में जल के भी जो निखारे, है वोही सच्चा सोना, है वोही सच्चा सोना
छोटी सी ये दुनिया .. हिन्दी सिनेमा में शैलेन्द्र का सिक्का चलने लगा था उनके दमकते आभा मंडल के सामने हसरत जयपुरी का सूरज ढल रहा था | यहूदी , श्री 420,आवार , बरसात , वंदिनी , अनाडी , मुसाफिर , गाइड ,जिस देश में गंगा बहती है शैलेन्द्र के मर्म - स्पर्शी गीत दुनिया गुनगुना रही थी | इसी दरम्यान देवानन्द फिल्म गाइड बना रहे थे वो चाहते थे कि शैलेन्द्र इस फिल्म के लिए गीत लिखे | देवानन्द ने तय किया कि वो हसरत जयपुरी के साथ शैलेन्द्र से भी गीत लिखवायेगे | आधी रात के वक्त देवानन्द अपने बड़े भाई चेतन आनन्द के साथ उनके घर जा पहुचे पर उस वक्त शैलेन्द्र घर पर नही थे | उनको पता चला कि देवानन्द उनसे अपनी फिल्म गाइड में गीत लिखवाना चाहते है पर उनका नाम दूसरे नम्बर पर है इससे वो बहुत आहत हुए | उन्होंने जानबूझ कर इतनी कीमत मागी पर देवानन्द तय कर चुके थे कि शैलेन्द्र उनके फिल्म के लिए गीत लिखेगे | शैलेन्द्र के शर्तो पर देवानन्द तैयार हो गये | शैलेन्द्र ने फिल्म गाइड के लिए गीत लिखा '' काटो से खीच के ये आँचल तोड़ के ये बन्धन बांधे पायल ,
आज फिर जीने की तमन्ना है आज फिर मरने का इरादा है ------------
फिल्म बनने से पहले ही गाइड के गीत इतिहास रच चुके थे | साधारण शब्दों का असाधारण मानव शैलेन्द्र नई पीढ़ी के तमन्नाओं को पंख दे दिए |
शैलेन्द्र जैसा दुसरा कोई नही हुआ माध्यम वर्गीय संगीत चेतना को शैलेन्द्र ने गाँव के अभाव और अकाल की दुनिया को सिनेमा के बड़े फलक तक ले आये | सौन्दर्य के उन्होंने ऐसे सघन बिम्ब गढ़े कि उसपे काल की कोई पहुच नही थी |
गीत के सौन्दर्य प्रतिबिम्ब को शैलेन्द्र जब शब्द देते हुए जन्मभूमि के लिए कह उठते है |
'' मेरी जन्म-भूमि,
मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
नीलम का आसमान है, सोने की धरा है,
चाँदी की हैं नदियाँ, पवन भी गीत भरा है,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
ऊँचा है, सबसे ऊँचा जिसका भाल हिमाला,
पहले-पहल उतरा जहाँ अंबर से उजाला,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि ! इसके साथ ही जब शैलेन्द्र इस कैनवास पर यह सवाल उठाते है
''पूछ रहे हो क्या अभाव है
तन है केवल प्राण कहाँ है ?
डूबा-डूबा सा अन्तर है
यह बिखरी-सी भाव लहर है ,
अस्फुट मेरे स्वर हैं लेकिन
मेरे जीवन के गान कहाँ हैं ? शैलेन्द्र की रचना शिल्प -- यथार्थ की धरातल पर दुनिया में चारो ओर अगर प्रश्न खड़ा करते थे तो एक एक आशा की किरण के साथ उत्तर भी देते थे |
'' ग़म की बदली में चमकता एक सितारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
धमकी ग़ैरों की नहीं अपना सहारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
ग़र्दिशों से से हारकर ओ बैठने वाले
तुझको ख़बर क्या अपने पैरों में भी छाले हैं
पर नहीं रुकते कि मंज़िल ने पुकारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है |
उनकी पहचान उनके गीत थे |
1950 में यहूदी ने शैलेन्द्र को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्म फेयर एवार्ड दिलाया |
60 का दशक आ चुका था | मशहूर , महान महत्वपूर्ण तीनो हो चुके थे | उनके गीतों के रिदम पर दुनिया झूम रही थी | 1962 तक आते -- आते शैलेन्द्र के अन्दर का ज्वालामुखी उबाल खा रहा था फटने को उनकी रचनात्मक भूख और अंतर मन की आवाज बेचैन थी कुछ बड़ा , विशेष करने के लिए उनका मन छटपटा रहा था |
ऐसे में शैलेन्द्र ने फिल्म बनाने का निर्णय लिया | फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी '' मारे गये गुलफाम '' पर फिल्म बने '' तीसरी कसम '' इस फिल्म का नायक '' हीरामन '' तीन कसमे खता है पर इसके साथ ही शैलेन्द्र चौथी कसम खाते है |
इस फिल्म को बनाने के लिए शैलेन्द्र ने इस फिल्म में राजकपूर और व्हिदाढ़मान को लिया और निर्देशन का कार्य -- भार दिया प्रख्यात निर्देशक बासु भट्टाचार्य को | बहुत प्रयास करके शैलेन्द्र ने रेणु जी इसका संवाद लिखने को मनाया | वो इस फिल्म के एक -- एक दृश्य को को एक रचना शिल्प की तरह गढ़ रहे थे और इनके मित्र राजकपूर इस फिल्म के लिए समय नही दे पा रहे थे | फिल्म का बजट बुरी तरह बधता जा रहा था | तीसरी कसम शैलेन्द्र के लिए यातना की गली बनती जा रही थी वो पीछे नही लौट सकते थे |
एक वर्ष में बनने वाली फिल्म पांच साल में बनी |
उस फिल्म ने कैमरे की नजर से गाँव को ऐसे देखा कि पूरी दुनिया दांग रह गयी थी पर यह फिल्म बाक्स आफिस पर असफल रही | तब शैलेन्द्र ने कहा कि दोस्तों के ऐतबार पर वो कभी फिल्म नही बनायेगे | इस फिल्म के बनाने के कारण शैलेन्द्र बुरी तरह कर्ज में डूब गये |
'' कलम का कलंदर कला के कारोबार में किनारे न लग सका | इसीलिए शब्दों के जादूगर ने शराब की पनाह ली | और बोल पड़े -----
तुम काया, मैं कुरूप छाया, हैं पास-पास पर दूर सदा,
छाया काया होंगी न एक, है ऎसा कुछ ये भाग्य बदा,
तुम पास बुलाओ दूर करो, तुम दूर करो लो बुला पास,
बस इसी तरह निस्सीम शून्य में डूब रही हैं शेष श्वास,
हे अदभुद, समझा दो रहस्य, आकर्षण और विकर्षण का!
जिस ओर करो संकेत मात्र! ऐसे संकट के समय शैलेन्द्र चारो ओर से अकेले पड़ थे , पर उनका विद्रोही स्वभाव उनके जीवन के संघर्ष को ऊर्जा देता रहा और वो अपने जीवन के अंतिम काल में कह गये |
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता
राह कहती,देख तेरे पांव में कांटा न चुभ जाए
कहीं ठोकर न लग जाए;
चाह कहती, हाय अंतर की कली सुकुमार
बिन विकसे न कुम्हलाए;
किन्तु फिर कर्तव्य कहता ज़ोर से झकझोर
तन को और मन को,
चल, बढ़ा चल,
मोह कुछ, औ' ज़िन्दगी का प्यार है कुछ और!
इन रुपहली साजिशों में कर्मठों का मन नहीं ठगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता!
शुभ्र दिन की धूप में चालाक शोषक गिद्ध
तन-मन नोच खा जाते!
समय कहता--
और ही कुछ और ये संसार होता
जागरण के गीत के संग लोक यदि जगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता! साधरण शब्दों के असाधारण गीतकार की कर्जदारी रहेगी सदियों | आज भी शैलेन्द्र के गीत बरबस ही होठो को छूते है तो अचानक बोल पड़ते है |
क्रान्ति के लिए जली मशाल
क्रान्ति के लिए उठे क़दम !
भूख के विरुद्ध भात के लिए
रात के विरुद्ध प्रात के लिए
मेहनती ग़रीब जाति के लिए
हम लड़ेंगे, हमने ली कसम !
छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ
बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ
किन्तु सेठ भर रहे हैं कोठियाँ
लूट का यह राज हो ख़तम !
सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक