Friday, April 12, 2019

महत्वपूर्ण सबक

ब्रिटिश राज से अब तक के चुनाव भागीदारी से महत्वपूर्ण सबक -


ब्रिटिश राज में चुनावी भागीदारी की शुरुआत 1857 के महान आन्दोलन के बाद शुरू किये गये सवैधानिक सुधारों के जरिये हुई थी | यह शुरुआत 1857 के संग्राम और उसके बाद हिन्दुस्तानियों द्वारा अपने अधिकारों की मांगो के साथ चलाए जा रहे आंदोलनों के साथ 1905 के बाद स्वराज एवं स्वतंत्रता की मांगो के साथ खड़े आंदोलनों संघर्षो के चलते ही 1903 , 1919 और फिर 1935 के सवैधानिक सुधार लाये गये | इन सवैधानिक सुधारों के जरिये ही सम्पत्तिवान , सुशिक्षित एवं पद - पदवी प्राप्त भारतीयों को मतदाता एवं शासकीय प्रतिनिधि बन्ने के अधिकार मिलते रहे | इस प्रक्रिया की परिणिति 1950 में देश को गणतंत्र घोषित किये जाने के बाद से देश के सभी व्यस्क लोगो को मिले मताधिकार के रूप में आया |
चुनावी भागीदारी बढ़ने और उसका जनसाधारण समाज तक विस्तारित होने के इस इतिहास से यह सबक निकालन मुश्किल नही है कि चुनाव में भागीदारी के अधिकार का मिलना ब्रिटिश राज्विरोधी आंदोलनों संघर्षो का परिणाम था | चुनावी भागीदारी बढ़ने के साथ हिन्दुस्तानियों के , खासकर धनाढ्य एवं उच्च वर्ग के हिन्दुस्तानियों के अधिकारों में वृद्धि होती रही है | जनसाधारण के लिए अधिकारों में वृद्धि की एक बड़ी परिणिति 1950 के तुरंत बाद लागू किये गये जमींदारी उन्मूलन कानून एवं कई अन्य सवैधानिक अधिकारों के रूप में हुई | इसके वावजूद 1950 के बाद चुनावी भागीदारी के साथ बढती समस्याओं को लेकर ज्नान्दोअलन का सिलसिला कमोवेश चलता रहा | जिसके फलस्वरूप भी जनसाधारण के जीविकोपार्जन के अवसरों को कुछ बढ़ावा मिलने के साथ शिक्षा , चिकित्सा जैसे आवश्यक सेवाओं में भी वृद्धि होती रही | पर 1980 - 85 के बाद लगातार घटते जन आंदोलनों के साथ जनसाधारण के उपरोक्त जनतांत्रिक अधिकारों में लगातार कटौती होती रही | हालाकि उसके मतदान के अधिकारों में अभी प्रत्यक्ष कटौती नही हुई है , पर उसमे भी अचानक कटौती का परिलक्षण 1975 में लगे आपातकाल के दौरान हो चूका है | फिर अब उसका एक दुसरा परिलक्षण , धर्म , जाति के पहचानो के मुद्दों पर मताधिकार को संकुचित सक्रीण बनाये जाने के रूप में लगातार किया जा रहा है | 1947-50 से पहले और उसके बाद के जन आंदोलनों के अभाव में जन साधारण को मिले मतदान के अधिकार को भी को संकुचित बनाया जाना या कभी आवश्यकता पड़ने पर खत्म किया जाना लगभग निश्चित है | इसलिए जन साधारण को अपने व्यापक एवं बुनियादी हितो में मांगे उठाना और उसके लिए आन्दोलन करना आवश्यक हो गया है || साथ ही मतदान के अधिकार को भी अपने बुनियादी एवं व्यापक समस्याओं के साथ जोड़ना आवश्यक हो चूका है ||
इसके लिए पहली आवश्यकता तो यह है की जनसाधारण किसान , मजदुर एवं अन्य समस्याग्रस्त श्रमजीवी अपने शारीरिक एवं मानसिक श्रमजीवी पहचानो मुद्दों को प्रमुखता देते हुए मतदान करें | अगर कोई पार्टी प्रत्याक्षी जनहित का प्रतिनिधित्व करता नही मिल पाता तो वे सभी पार्टियों के विरुद्ध मतदान करें | इस विरोध को घोषित करने के साथ ''नोटा ''पर मतदान जनविरोध का व्यक्त करने का एक विकल्प बन सकता है | फिर कल मतदान के रूप में खड़े जनविरोध को जनसमस्याओ के विरुद्ध जनांदोलन में बदला जा सकता है और बदल देना चाहिए | जनहित के लिए जनांदोलन को बहुआयामी बनाने की शुरुआत अगर ब्रिटिश काल में ब्रिटिश राज विरोधी आंदोलनों से हुई थी तो आज की शुरुआत चुनाव में जनविरोधी नीतियों के जनविरोध की अभिव्यक्ति के साथ ''नोटा '' पर मतदान के रूप में की जा सकती है |

Monday, April 8, 2019

बहरों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है" -- भगत सिंह

बहरों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है"

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आज ही के दिन 1929 को भगतसिंह व् बटुकेश्वर दत्त ने"बहरों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है"के मुख्य वक्तव्य के साथ असम्बली में बम फेका था। साथ में फेका था यह पर्चा।जिसको पढ़ा जाना आज भी सबसे ज्यादा जरूरी है। 8 अप्रैल, सन् 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बाँटे गए अंग्रेजी पर्चे का हिन्दी अनुवाद।-
असेम्बली हॉल में फेंका गया पर्चा
8 अप्रैल, सन् 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बाँटे गए अंग्रेजी पर्चे का हिन्दी अनुवाद।- सं.
‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना’
सूचना
“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है,” प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियाँ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं और न ही हिन्दुस्तानी पार्लियामेण्ट पुकारी जानेवाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग ‘साइमन कमीशन’ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखें फैलाए हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं,विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और ‘औद्योगिक विवाद विधेयक’ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में ‘अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मजदूर नेताओं की अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता को महसूस कर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ’ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परन्तु उसकी वैधनिकता की नकाब फाड़ देना आवश्यक है।
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।
हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।


इन्कलाब जिन्दाबाद !
ह. बलराज
कमाण्डर इन चीफ

Sunday, April 7, 2019

सूक्ष्म अंहकार -

सूक्ष्म अंहकार -

बोध कथा
एक सम्राट विश्वविजेता हो गया | तब उसे खबर मिलने लगी कि उसके बचपन का एक साथी बड़ा फकीर हो गया है | दिगम्बर फकीर नग्न रहने लगा है | उस फकीर की ख्याति सम्राट तक आने लगी | सम्राट ने निमंत्रण भेजा कि आप कभी आये राजधानी आये ; पुराने मित्र है , बचपन में हम साथ थे , एक साथ स्कूल में पढ़े थे ,एक पट्टी पर बैठे थे ; बड़ी कृपा होगी आप आये |
फकीर आया | फकीर तो पैदल चलता था , नग्न था , महीनों लगे | जब फकीर ठीक राजधानी के बाहर आया तो कुछ यात्री जो राजधानी से बाहर जा रहे थे , उन्होंने फकीर से कहा कि तुम्हे पता है ; वह सम्राट अपनी अकड तुम्हे दिखाना चाहता है | इसलिए तुम्हे बुलाया है | फकीर ने कहा , कैसे अकड ! क्या अकड दिखाएगा ? तो उन्होंने कहा , वह दिखला रहा है अकड , पूरी राजधानी सजाई गयी है , रास्तो पर मखमली कालीन बिछाए गये है , सरे नगर में दीप जलाए गये है , सुगंध छिडकी गयी है , फूलो से पाट दिए है रास्ते , सारा नगर संगीत से गुन्जायेमान हो रहा हैं | वह तुम्हे दिखाना चाहता है कि देख , तू क्या है , एक नगा फकीर ! और देख , मैं क्या हूँ ! फकीर ने कहा , तो हम भी दिखा देंगे |
वे यात्री तो चले गये | फिर सांझ जब फकीर पहुचा और राजा , सम्राट द्वार तक लेने आया उसे नगर के - अपने पूरे दरबार के साथ आया था | उसने जरुर राजधानी खूब सजाई थी , उसने तो सोचा भी नही था कि यह बात इस अर्थ में ली जायेगी | उसने तो यही सोचा था कि फकीर आता है , बचपन का साथी , उसका जितना अच्छा स्वागत हो सके ! शायद छिपी कहीं बहुत गहरे में यह वासना भी रही होगी -- दिखाऊं उसे - मगर यह बहुत चेतन नही थी | इसका साफ़ - साफ़ होश नही था | गहरे में हरुर रही होगी | हमारी गहराइयो का हमीं को पता नही होता | जब फकीर आया तो फकीर नग्न था ही , उसके घटने तक पैर भी कीचड़ से भरे थे | सम्राट थोड़ा हैरान हुआ , क्योकि वर्षा तो हुई नही | वर्षा के लिए तो लोग तड़प रहें है | रस्ते सूखे पड़े है , वृक्ष सूखे जा रहे है , किसान आसमान की तरफ देख रहा हैं | वर्ष होनी चाहिए और हो ही नही रही है , समय निकला जा रहा है | इतनी कीचड़ कहाँ से मिल गयी की घटने तक कीचड़ से पैर भरे है ! लेकिन सम्राट ने वहां द्वार पर तो कुछ न कहना उचित समझा | महल तक ले आया | और फकीर उन बहुमूल्य कालीनो पर कीचड़ उछलता हुआ चलता गया | जब राजमहल में प्रविष्ट हो गये और दोनों अकेले रह गये तब सम्राट ने पूछा की मार्ग में जरुर कष्ट हुआ होगा , इतनी कीचड़ आपके पैरो में लग गयी | कहाँ तकलीफ पड़ी ?क्या अड़चन आई ?
तो उसने कहा , अड़चन ? अड़चन कोई भी नही | तुम अगर अपनी दौलत दिखाना चाहते हो तो हम अपनी फकीरी दिखाना चाहते है | हम फकीर है | हम लात मारते है तुम्हारे बहुमूल्य कालीनो को | सम्राट हंसा और उसने कहा , मैं तो सोचता था की तुम बदल गये होगे लेकिन तुम वही के वही , आओ गले मिलो | जब हम अलग हुए थे स्कूल से , तब से और अब में कोई फर्क नही पडा है | हम एक ही साथ , हम एक जैसे | अंहकार के रस्ते बड़े सूक्ष्म है | फकीरी भी दिखलाने लगता है | इससे थोडा सावधान होना जरूरी है | और जब अंहकार परोक्ष रस्ते लेता है तो ज्यादा कठिन हो जाता है | सीधे सीधे रस्ते तो बहुत ठीक होते है

Friday, April 5, 2019

अम्बेडकर बौद्ध क्यो बने ?

अम्बेडकर बौद्ध क्यो बने ?

यह आकस्मिक नही है कि अबेडकर बौद्ध हुए | यह पच्चीस सौ साल के बाद शुद्रो का फिर बौद्धत्व की तरफ जाना , या बौद्धत्व के मार्ग की तरफ मुड़ना , बौद्ध होने की आकाक्षा , बड़ी सूचक है | इससे बुद्ध के सम्बन्ध में खबर मिलती है |
हिन्दू अब तक भी बुद्ध से नाराजगी भूले नही है | वर्ण व्यवस्था को इस बुरी तरह बुद्ध ने तोड़ा | यह कुछ आकस्मिक बात नही थी कि डा अबेडकर ने ढाई हजार साल बाद फिर शुद्रो को बौद्ध होने का निमत्रण दिया | इसके पीछे कारण है | अबेडकर ने बहुत बाते सोची थी | पहले उन्होंने सोचा कि ईसाई हो जाए , क्योकि हिन्दुओ ने तो सता डाला है , तो ईसाई हो जाए | फिर सोचा कि मुसलमान हो जाए | लेकिन यह कोई बात जमी नही , क्योकि मुसलमानों में भी वही उपद्रव हैं | वर्ण के नाम से न होगा तो शिया - सुन्नी का है | अंतत: अबेडकर की दृष्टि बुद्ध पर पड़ी और तब बात जैम गयी अबेडकर को कि शुद्र को सिवाए बुद्ध के साथ और कोई उपाए नही है | क्योकि शुद्र के लिए भी अपने सिद्धांत बदलने को अगर कोई आदमी राजी हो सकता है तो वह गौतम बुद्ध है -- और कोई राजी नही हो सकता -- जिसके जीवन में सिद्धांत का मूल्य ही नही , मनुष्य का चरम मूल्य है |
यह आकस्मिक नही है कि अबेडकर बौद्ध हुए | यह पच्चीस सौ साल के बाद शुद्रो का फिर बौद्धत्व की तरफ मुड़ना , बौद्ध होने की आकाक्षा , बड़ी सूचक है | इससे बुद्ध के सम्बन्ध में खबर मिलती है | बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था तोड़ दी और आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी | जवान , युवको को सन्यास दे दिया | हिन्दू नाराज हुए | सन्यस्त तो आदमी होता है आखिर अवस्था में मरने के करीब | अगर बचा रहा तो पचहत्तर साल के बाद उसे सन्यस्त होना चाहिए | तो पहले तो पचहत्तर साल तक लोग बचते नही | अगर बच गये तो पचहत्तर साल के बाद उर्जा नही बचती जीवन में | तो हिन्दुओ का सन्यास एक तरह का मुर्दा संन्यास है , जो आखरी घड़ी में कर लेना है | मगर इसका जीवन से कोई बहुत गहरा सम्बन्ध नही है | बुद्ध ने युवको को सन्यास दे दिया , बच्चो को सन्यास दे दिया और कहा कि यह बात मूल्यवान नही है , लकीर के फकीर होकर चलने से कुछ भी न चलेगा | अगर किसी व्यक्ति को युवावस्था में भो परमात्मा को खोजने की , सत्य को खोजने की , जीवन के यथार्थ को खोजने की प्रबल आकाक्षा जगी है , तो मनु महाराज का नियम मानकर रुकने की कोई जरुरत नही इ | वह अपनी आकाक्षा को सुने , वह अपनी अपनी आकाक्षा से जाए | प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकाक्षा से जिए | उन्होंने सब सिद्धांत एक अर्थ में गौण कर दिए , मनुष्य प्रमुख हो गया | तो वे सैद्धांतिक नही है , विधिवादी नही है | लीगल नही है उनकी पकड़ा , उनके धर्म की पकड़ मानवीय है | कानून इतना मूल्यवान नही है , जितना मनुष्य मूल्यवान है | और हम कानून बनाते इसलिए की वो मनुष्य के काम आये | इसलिए जब जरूरत हो तो कानून बदला जाए | जब मनुष्य की हित में हो ठीक है , जब अहित में हो जाए तो तोड़ा जा सकता है | कोई कानुन्शाश्वत नही है , सब कानून उपयोग के लिए है |बुद्ध नियमवादी नही है , बोधवादी है | अगर बुद्ध से पूछो , क्या अच्छा है , क्या बुरा है तो बुद्ध उत्तर नही देते है | बुद्ध यह नही कहते कि यह काम बुरा है और यह कम अच्छा है | बुद्ध कहते है , जो बोधपूर्वक किया जाए , वह अच्छा , जो बोधहीनता से किया जाये , बुरा |
इस फर्क को ख्याल में लेना | बुद्ध यह नही कहते कि हर काम हर स्थिति में भला हो सकता है या कोई काम हर स्थिति में बुरा हो सकता है | कभी कोई बात पूण्य हो सकती है और कभी कोई बात पाप हो सकती है | इसलिए पाप और पुण्य कर्मो के उपर लगे हुए लेबिल नही है | तो फिर हमारे पास शाश्वत आधार क्या होगा निर्णय का ? बुद्ध ने एक नया आधार दिया | बुद्ध ने आधार दिया -- बोध जागरूकता | इसे ख्याल में लेना | जो मनुष्य जागरूकता पूर्वक कर पाए , जो भी जागरूकता में ही किया जा सके , वही पूण्य है और जो बात केवल मूर्च्छा में ही की जा सके , वही पाप है |
बुद्ध असहज के पक्षपाती नही है सहज के उपदेष्टा है | बुद्ध कहते है कठिन के ही कारण आकर्षित मत हो | क्योकि कठिन में अहंकार ला लगाव है |इसे तुमने कभी देखा कभी ? जितनी कठिन बात , लोग करने को उसमे उतने उत्सुक होते है | क्योकि कठिन बात में अंहकार को रस आता है मजा आता है | तो बुद्ध असहजवादी नही है | बुद्ध कहते है सहज पर ध्यान दो | जो सरल है सुगम है उसको जियो | जो सुगम है , वही साधना है | जीवन तो सुगम है सरल है | सत्य सुगम और सरल ही होगा | तुम नैसर्गिक बनो और अंहकार के आकर्षणों में मत उलझो |