Monday, September 30, 2019

बगाल की संस्कृति का आगमन आजमगढ़ तक

बगाल की संस्कृति का आगमन आजमगढ़ तक --------------
परानापुर में काली बाड़ी में होती है पारम्परिक तरीके से पूजा
ओकार स्वरूप की अविभाज्य ऊर्जा '' प्रकृति '' के रूप में '' शक्ति ' की उपासना वैदिक काल से प्रचलित रही है | किन्तु '' नव दुर्गा '' रूपायन '' सप्तशती '' मूर्ति स्थापना एवं सामूहिक पूजा -- विसर्जन बाद के यूग की देंन है | अवतारवाद के धारणा के साथ त्रिदेव ( ब्रम्हा , विष्णु , महेश ) तथा बहुदेव ( ग्राम देवता ) कुल देवता आदि की परिकल्पना एवं मान्यताए आई किन्तु शक्ति स्वरूपा दुर्गा सभी परिकल्पनाओं में उपस्थित थी | यही समस्त ब्रह्माण्ड के परिचालन की अजस्र स्रोत है | किन्तु बंगाल की धरती इस उपासना पद्दति की केन्द्र -- बिंदु है | प्राचीन गणराज्य में भी बंगाल का '' काली मन्दिर '' लोगो की आस्था का केन्द्र रहा है | कहते है कि आधुनिक '' कोलकाता '' का मध्य एवं उत्तरकाल में नाम '' कलिका -- स्थान '' -- '' कलिकाथा '' कलिकाता बनता -- बिगड़ता रहा है जो काली माँ के आधार पर अवस्थित है | स्वास्थ्य , संगीत , कला मंच , व्यापार के माध्यम से बगाली बन्धुओ ने इसे न केवल उत्तर प्रदेश, बिहार बल्कि देश के सुदूर प्रान्तों और अंचलो तक ले गये | बंग विभाजन एवं बागलादेश के उदय ने भी बगाल मूल के लोगो का पूरे बड़े फलक पर वितरण किया | फलत: बंग - बन्धुओ के साथ '' दुर्गापूजा '' भी समूचे विश्व में प्रतिष्ठित हुआ | बंगाल में देवी पूजन परम्परा का मूल 19 वी शताब्दी में प्राप्त होता है | जब विधर्मियो के आक्रमण से धार्मिक आन्दोलन का समय था | बालकवि दीपक एक स्मृतिकार थे उन्होंने संस्कृत श्लोकों एवं बंगभाषी पद्दति में दुर्गापूजा का विधान बनाया | इसे अन्य स्मृतिकारो ने सुधारा | व्यवस्थित सुधार रघुनन्दन भट्टाचार्य ने 1757 ई में एक भव्य आयोजन के साथ किया | इसी वर्ष प्लासी युद्ध के पश्चात श्याम -- बाजार के राजवंशी राजा नवकृष्ण बहादुर ने दुर्गापूजा का भव्य आयोजन किया और लार्ड क्लाइव को आमंत्रित किया | इसी बीच 11 वी शताब्दी में लिपिबद्ध , दुर्गाचरण पद्धति को वाचस्पति मिश्र ने विस्तार से लिखा और दस प्रहरणी ( दस अस्त्रों से प्रहार करने वाली ) देवी का रूपायन किया तो सर्व प्रथम ताहिरपुर के महाराज वंश नारायण ने साढ़े आठ लाख रुपया खर्च कर 1783 में उत्तर भारत में दुर्गापूजा का भव्य आयोजन किया था | उत्तर भारत में बंगीय दुर्गापूजा की शुरुआत 1773 ई में काशी में आनन्द मोहन मित्रा के द्वारा किया गया | इसके ठीक तीन वर्ष बाद गोरखपुर की दुर्गाबाड़ी में वैसा ही भव्य आयोजन की शुरुआत हुई | दिल्ली में सार्वजनिक पूजा 1910 में शुरू की गयी -- धीरे --धीरे इसी क्रम में प्रयाग , लखनऊ , कानपुर आदि बड़े महानगरो से होते हुए यह सिलसिला 1956 में आजमगढ़ पहुचा | 1956 में यहाँ तैनात कुछ बंग बन्धुओ जो अधिकारी व डाक्टर और अन्य पेशो से जुड़े लोग थे उन्होंने तय किया कि यहाँ भी दुर्गापूजा होना चाहिए | इसी कर्म में श्री श्याम लाल अग्रवाल के स्टैन्डर्ड मेडिकल हाल के उपर बने मकान में उपस्थित हुए गणमान्य बंग बन्धु और शहर के सम्भ्रांत लोगो ने मिलकर बंग सोसायटी की नीव रखी | उस नीव रखने में डा नवजीवन बनर्जी , राजेन्द्र नाथ दत्ता ( रेलवे स्टेशन मास्टर ) डा एस के मुखर्जी ( तत्कालीन हेल्थ अफसर ) आजमगढ़ ई बी दास ( तत्कालीन एस डी ओ हाइडिल ) डा पी के अग्रवाल ( एम् ओ सीतापुर आँख का अस्पताल ) डा एस के साहा - डा चित्तपद विश्वास , डा एस के सेन डा श्रीमोन्तो सिन्हा श्यामलाल अग्रवाल , के साथ विद्युत् -- विभाग से जुड़े श्री हिरण्य सेन गुप्ता , श्री बी मुखर्जी , विशटूपद दास , श्री निशिकांत राय , डी के दता और प्रख्यात इतिहासकार डा शांति स्वरूप वर्मा व एडवोकेट भगवान स्वरूप वर्मा ने इस बंग सोसायटी के माध्यम से आजमगढ़ को एक ऐसा मंच दिया जो आजमगढ़ को एक संस्कृति और परम्परा प्रदान करती है | 1956 सर्व प्रथम '' आदि शक्ति '' का पूजा का केन्द्र बना हाइडिल का कैम्पस | माँ आदि शक्ति का आव्ह्वान षष्टी के दिन विधिवत संस्कारों से पूरा क्या गया और सप्तमी के दिन इन परिवारों से जुड़े लोगो ने एक नये युग का सूत्रपात शास्त्रीय संगीत , कत्थक नृत्य , उप शास्त्रीय संगीत के माध्यम से महा अष्टमी के दिन बंग सोसायटी के शानदार मंचीय अभिनय कलाकारों ने पहला नाट्य मंचन '' शाहजँहा '' से किया | इसमें शाहजहाँ का मुख्य किरदार निभाया मिस्टर वी के दत्ता और अन्य किरदारों में डा एस के साहा , डा पी के अग्रवाल एन के राय बी मुखर्जी हिरण्य सेन गुप्ता शिशिर विश्वास ने इसका निर्देशन डा एस के साहा ने किया था | नवमी के दिन हिन्दी नाटक का मंचन हुआ पता करने के बाद भी उस नाटक का नाम नही मालुम हो सका | 1957 में बंग सोसायटी का दूसरा पड़ाव बना नर्सरी स्कूल का प्रागण -- 1957 द्वारा कलाभवन में जिले के बाढ़ पीडितो के आश्रय के लिए निर्माण कुसुम संगीत विद्यालय की स्थापना श्रीमती कुसुम कटारा द्वारा की गई थी जो जनपद के तत्कालीन जिलाधिकारी श्री बीरेन्द्र कटारा की पत्नी थीं। इस कलाभवन के साथ कुछ विशेषताए भी जुडी है इस कलाभवन के रंगमंच को प्रख्यात सिने कलाकार पृथ्वीराज कपूर ने डिजाइन किया था और इसके पुस्तकालय में महा पंडित राहुल साकृत्यायन ने बौद्ध काल की मुर्तिया और प्राचीन काल की अमूल्य पांडुलिपिया सौपी थी जो आज नदारत है अगर वो पांडुलिपिया होती तो आजमगढ़ पर शोध करने वाले लोगो के काम आती | इसके साथ ही एक रंग आन्दोलन की शुरुआत भी श्री कटारा जी ने किया इस कला भवन में पुस्तकालय के साथ ही अपनी पत्नी कुसुम जी के नाम से एक संगीत विद्यालय की स्थापना की | इस संगीत विद्यालय में 1959 में मिस्टर जैन जो एक शानदार कत्थक नर्तक थे उन्होंने इस जनपद को अपना अमूल्य योगदान दिया और यहाँ उन्होंने कत्थक नृत्य की शिक्षा शुरू की | कलाभवन के निर्माण के बाद से ही बंग सोसायटी का आदि शक्ति ( दुर्गापूजा ) का आयोजन इस प्रागण में होता चला आ रहा है | इसी दौरान आजमगढ़ बंग सोसायटी को 1964 में एक बेहतरीन कलाकार मिला '' गरीब फार्मिसी '' के संचालक डा रामपद चक्रवर्ती जी वो मात्र यहाँ तीन वर्ष ही रहे उनके बाद उनके भांजे डा गोराचांद बनर्जी ने बंग सोसायटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की बागडोर संभाली डा गोराचांद बनर्जी ने बंग सोसायटी के मंच को एक ऊंचाई प्रदान की अपने बेजोड़ निर्देशकीय क्षमता से बंगला भाष्य के नाटको के साथ हिन्दी नाटको का और बंगाल की जात्रा का सफल निर्देशन किया इसके साथ ही उन नाटको में नूतन प्रयोग भी किये | इसी वर्ष इस मंच को जिले के रंग -- क्षेत्र में दो होनहार नगीने मिले | श्री दीनदयाल सिंह जो पी डब्लू डी में जूनियर इंजिनियर थे और शमशुल हुदा खान जो बाद के दिनों में '' डैडी " के नाम से मशहूर हुए | 70 के दशक में बंग सोसायटी को उस समय की नई पीढ़ी ने गति के साथ नई ऊर्जा प्रदान की डा पवित्र जीवन बनर्जी , डा जमाल , बृज मोहन , श्रीमती मंजू दत्ता , नमिता दता , सविता दता ,मीना दता ,श्रीमती मीना साहा ,श्रीमती स्वरूप इन सारे लोगो ने अपने मंचीय अभिनय से इस बंग सोसायटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों को नई उर्जा प्रदान की उसी दशक में बंग सोसायटी में और निखार आया अब इसमें अपनी सक्रियता को इन लोगो ने बढाया डा दीपक साहा , अचिन कुमार दता डा सुभाष सिन्हा , प्रेम मजुमदार ,धिरेश्वर चटर्जी , गोपेश्वर बनर्जी डा तपन कुमार विश्वास आर बी भट्टाचार्य , नरेन भट्टाचार्य चंडी जीवन बनर्जी मधुलिका साहा , मधुछ्न्दा साहा , शिखा साहा , सुनीता सिन्हा श्रीमती जयश्री साहा ने बंग सोसायटी के मंच को नई दिशा प्रदान की 80 के दशक में इसमें जुड़े सुनील कुमार दत्ता , डा सौमित्र जीवन बनर्जी , उत्पल कुमार दत्ता , सुधीर कुमार दत्ता अधीर कुमार दत्ता , उत्तम दत्ता , रुद्राणी दत्ता , रीना दत्ता , पीयूष चक्रवर्ती बंग सोसायटी में 80 के दशक में बंग सोसायटी के रंगमंच पर नये प्रयोग की शुरुआत हुई सुनील दत्ता ने बादल सरकार के नूतन प्रयोग थर्ड थियेटर और शाशंक बहुगुणा के मनोशारीरिक थियेटर की समावेश करते हुए नाटको में नये प्रयोग किये बाबू देर डाल कुकुर , सेम साईट , डकैत कौन , विशुरेर बीये , मिस्टर जासूस , आमी मोदोंन बोलछी, पिनकुशन , काफी हाउस में इन्तजार , जनता पागल हो गई, हमे हमारा अधिकार दो के साथ ही दर्जनों नाटको का निर्देशन किया इसके साथ ही अभिनय भी किया | 90 के दशक में पीयूष चक्रवर्ती और सुमित दास ने लाईट साउंड का नया प्रयोग किया इसमें प्रकृति के संरक्षण को '' उपकारी वृक्ष और निरकुश मानव , लाल कमल नील कमल , महिषासुर मर्दनी संगीत की खोज में लाईट और साउंड की बेजोड़ प्रयोग करके उसके साथ ही बंग परिवार के बच्चो को भी मंचीय कलाकार बनाया कुमारी लिपि दत्ता , प्रकृति दता , श्रुति दत्ता , डोली मजुमदार , नन्दनी दास , मिष्टी दास , रेशम दास , बोनी दास ,शुभांकर दत्ता , समीर दत्ता , समरेश दत्ता , सुष्मिता दत्ता जैसे बाल कलाकारों ने अपने गीत संगीत नृत्य और अपने अभिनय से इस बंग सोसायटी के रंग मंच को नई दिशा देने का काम किया और आज भी बंग सोसायटी अपनी उसी पुरातन आदि शक्ति ( दुर्गा पूजा ) के परम्पराओं का निर्वहन करती चली आ रही है | वर्तमान समय में परानापुर में काली बाड़ी निर्मित हो चूका है गत बीते 5 वर्षो से वहा पर इस परम्परा का निर्वहन हो रहा है |
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

Thursday, September 26, 2019

आज जन्मदिन पर भगत सिंह का --

आज जन्मदिन पर भगत के --
कल भी गुलाम थी - आज भी गुलाम है आम जनता
महान क्रांतिकारी महावीर सिंह
............( लोग भगत सिंह के साथ रहे क्रांतिकारी महावीर सिंह के बारे में शायद कम ही जानते होंगे | महावीर सिंह का जीवन संघर्ष और उसमे उनके पिता का उत्कृष्ट प्रेरणादायक योगदान आज के पिताओं ,पितामहो के लिए भी शिक्षाप्रद है |क्योंकि वर्तमान दौर के पिताओं का लक्ष्य अपने बेटो ,पोतो को धन ,पद -प्रतिष्ठा और पेशो की उंचाइयो पर येन -केन प्रकारेण चढाना हो गया है |अगर महावीर सिंह और उनके पिता जैसे लोगो के त्याग -बलिदान के फलस्वरूप हमारे राष्ट्र व समाज को कुछ अधिकार मिले थे व मिले है ,तो साम्राज्वाद की वर्तमान विश्वव्यापी चढत -बढत और पितामहो व पिताओं तथा बेटे -बेटियों की निरी स्वार्थी मनोदशाए राष्ट्र व समाज के खासकर बहुसंख्यक जन साधारण के वर्तमान व भविष्य को संकटग्रस्त भी जरुर करेगी |)
महावीर सिंह का जन्म 16 सितम्बर 1904 के दिन शाहपुर टहला नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था |यह गाँव उत्तर प्रदेश के एटा जिले में है |पिता कुंवर देवी सिंह अच्छे वैद्ध थे और आस -पास के क्षेत्र में उनका अच्छा प्रभाव था |माता श्रीमती शारदा देवी सीढ़ी -सादी एक धर्मपरायण महिला थी |महावीर सिंह की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल में हुई और उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा पास की गवर्मेंट कालेज एटा से |
बगावत की भावना महावीर सिंह में बचपन से ही मौजूद थी और राष्ट्र -सम्मान के लिए मर -मिटने की शिक्षा उन्होंने अपने पिता से प्राप्त की थी |घटना जनवरी सन 1922 की है |एक दिन कासगंज तहसील (जिला एटा ) के सरकारी अधिकारियों ने अपनी राजभक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से अमन सभा का आयोजन किया | जिलाधीश , पुलिस कप्तान ,स्कूलो के इंस्पेक्टर ,आस -पड़ोस के अमीर -उमरा राय बहादुर ,खान बहादुर आदि जमा हुए | छोटे -छोटे बच्चो को भी जबरदस्ती ले जाकर सभा में बिठाया गया |उनमे महावीर सिंह भी थे |लोग बारी -बारी उठकर अंग्रेजी हुकमत की तारीफ़ में लम्बे -लम्बे भाषण दे रहे थे |तभी बच्चो के बीच से किसी ने जोर से से नारा लगाया 'महात्मा गांधी की जय '!बाकी लडको ने भी उसके स्वर मिलाकर ऊँचे कंठ से समर्थन किया 'महात्मा गांधी की जय '! देखते -देखते गांधी विरोधियो की वह सभा गांधी की जय जयकार के नारों से गूंज उठी |जांच के फलस्वरूप महावीर सिंह को विद्रोही बालको का नेता घोषित कर दिया गया |सजा भी मिली पर उससे उनकी बगावत की भावना और भी मजबूत हो गयी |
1925 में जब वे कालेज पढने के लिए कानपुर आये तो असहयोग आन्दोलन सम्पात हो चुका था लेकिन देश की जनता के दिलो की आग ठंठी नही हुई थी |चारो ओर असंतोष की आग सुलग रही थी |स्वत:स्फुरित संघर्षो के रूप में किसानो की बगावते जारी थी |मजदुर तथा मध्यम वर्ग के लोग भी अपने -अपने तरीको से लड़ रहे थे |नौजवानों की क्रांतिकारी टोलियों ने फिर से हथियार उठा लिए थे |परिस्थितियों ने महावीर सिंह को अछूता नही छोड़ा |कालेज में क्रांतिकारी दल से उनका सम्पर्क हुआ और वे उसके सदस्य बन गये |
उसी दौरान महावीर के पिता जी ने उनकी शादी तय करने के सम्बन्ध में उनके पास पत्र भेजा |पत्र पाकर वे चिंतित हुए |क्रांतिकारी साथियो से सलाह मशविरा किया |फिर उसी अनुसार पिता जी को राष्ट्र की आजादी के लिए क्रांतिकारी संघर्ष पर चलने की सूचना देते हुए शादी -व्याह के पारिवारिक संबंधो से मुक्ति देने का आग्रह किया |चन्द दिनों बाद पिता का उत्तर आया |उन्होंने लिखा कि '' मुझे यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि तुमने अपना जीवन देश के काम में लगाने का निश्चय किया है |मैं तो समझता था कि हमारे वंश में पूर्वजो का खून अब नही रहा और उन्होंने दिल से गुलामी कबूल कर ली है |तुम्हारा पत्र पाकर आज मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली समझ रहा हूँ |शादी की बात जहा चल रही थी ,उन्हें जबाब लिख दिया है |निश्चिन्त रहो ,मैं ऐसा कोई काम नही करूंगा जो तुम्हारे मार्ग में बाधक हो |
देश कि सेवा का जो मार्ग तुमने चुना है वह बड़ी तपस्या का और बड़ा कठिन मार्ग है लेकिन जब तुम उस पर चल ही पड़े हो तो पीछे न मुड़ना ,साथियो को धोखा मत देना और अपने बूढ़े पिता के नाम का ख्याल रखना | तुम जहा भी रहोगे मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है ..............तुम्हारा पिता .देवी सिंह
क्रांतिकारी गतिविधियों में लगातार लगे रहे महावीर सिंह लाहौर में बुरी तरह बीमार पड़े |वे संग्रहणी व पेचिश से परेशान थे |कुछ भी हजम नही हो पा रहा था |साथियो ने राय दी कि कुछ दिनों के लिए एटा चले जाओ |तुम पर तो वारेंट नही है |ठीक हो जाने पर वापस चले आना |महावीर ने साथियो से कहा कि -क्या पिता जी कि चिठ्ठी उन्हें याद नही है |उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि पीछे मुडकर मत देखना उसमे घर का माया -मोह आदि सब शामिल था और उन्होंने वे शब्द बहुत सोच -समझ कर लिखे थे |फिर साथियो से हंस कर बोले -चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा |इसी बीच लाहौर में पंजाब बैंक पर छापा मारने कि योजना बनी |पहले दिन साथी बैंक पर भी गये |लेकिन महावीर सिंह को जिस कार द्वारा साथियो को बैंक से सही -सलामत निकाल कर लाना था वही ऐसी नही थी कि उस पर भरोसा किया जा सकता |अस्तु भरोसे लायक कार न मिलने तक के लिए योजना स्थगित कर दी गयी |तभी लाहौर में साइमन कमिशन आया |'साइमन कमिशन वापस जाओ " के नारों के साथ काले झंडे के एक विराट प्रदर्शन से उसका स्वागत किया गया |फिर अंधाधुंध लाठिया बरसी ,लाला जी आहात हुए और कुछ दिनों में उनकी मृत्यु हो गयी |यह राष्ट्र के पौरुष को चुनौती थी और क्रान्तिकारियो ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया |बैंक पर छापा मारने कि योजना स्थगित कर दी गयी और लाला जी पर लाठिया बरसाने वाले पुलिस अधिकारी को मारने का निश्चय किया गया |उस योजना को कार्यान्वित करने में भगत सिंह आजाद तथा राजगुरु के साथ महावीर सिंह का भी काफी योगदान था |
साडर्स की हत्या के बाद महावीर सिंह फिर अस्वस्थ रहने लगे |लाहौर का पानी उनके स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नही पड़ रहा था |उधर लाहौर का वातावरण भी काफी गरम था |सुखदेव ने उन्हें संयुक्त प्रांत (उत्तर - प्रदेश ) वापस जाने की सलाह दी |आगरा का पता उनके पास नही था ,इसलिए वे कानपुर चले गये और चार दिन सिसोदिया जी के पास छात्रावास में रहे |फिर इलाज के लिए अपने गाँव पिता जी के पास चले गये |आज एक गाँव तो कल दूसरे गाँव आज एक सम्बन्धी के यहा तो कल किसी दूसरे सम्बन्धी या मित्र के यहा |इस प्रकार रोज जगह बदलकर पिताजी से इलाज करवाने में लग गये कि जल्द -से -जल्द स्वस्थ होकर मोर्चे पर वापस जा सके |सन 1929 में दिल्ली असेम्बली भवन में भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त द्वारा बम फेके जाने के बाद लोगो की गिरफ्तारिया शुरू हो गयी और अधिकाश: क्रांतिकारी पकडकर लाहौर पहुचा दिए गये |महावीर सिंह भी पकडे गये |पुलिस या जेलवालो से किसी -न किसी बात पर आये दिन क्रान्तिकारियो का झगड़ा हो जाता था |उस समय वे लोग मोटे- तगड़े साथियो को चुन लेते थे और सबका गुस्सा उन पर उतारते |इस प्रकार हर मारपीट में भगत सिंह ,किशोरी लाल ,महावीर सिंह ,जयदेव कपूर ,गया प्रसाद आदि कुछ मोटे -तगड़े साथियो को बाकी के हिस्से की मार खानी पड़ती थी |जेल में क्रान्तिकारियो द्वारा अन्याय के विरुद्ध 13 जुलाई ,1929 से आमरण अनशन शुरू किया गया |दस दिनों तक तो जेल अधिकारियों ने कोई विशेष कार्यवाही नही की |उनका अनुमान था कि यह बीस -बीस बाईस -बाईस साल के छोकरे अधिक दिनों तक बगैर खाए नही रह सकेंगे |लेकिन जब दस दिन हो गये और एक -एक कर साथी बिस्तरों पर पड़ने लगे तो उन्हें चिंता हुई |सरकार ने अनशनकारियो कि देखभाल के लिए डाक्टरों का एक बोर्ड नियुक्त कर दिया था |अनशन के ग्यारहवे दिन से बोर्ड के डाक्टरों ने बलपूर्वक दूध पिलाना आरम्भ कर दिया |महावीर सिंह कुश्ती भी करते थे और गले से भी लड़ते थे ||जेल अधिकारी को पहलवानों के साथ अपनी कोठरी की तरफ आते देख वे जंगला रोकर खड़े हो जाते |एक तरफ आठ -दस पहलवान और दूसरी तरफ अनशन के कमजोर महावीर सिंह |पांच -दस मिनट की धक्का -मुक्की के बाद दरवाजा खुलता तो काबू करने की कुश्ती आरम्भ हो जाती |एक दिन जेल के दो अधिकारी को आपस में बात करते सुना कि 63 दिनों के अनशन में एक दिन भी ऐसा नही गया जिस दिन महावीर सिंह को काबू करने में आधे घंटे से कम समय लगा हो |डाक्टर के साथ भी ऐसी ही बीतती थी | महावीर सिंह ने शत्रु की अदालत को मान्यता देने से इनकार कर दिया था |लाहौर षड्यंत्र केस केअभियुक्तों के प्रचार से घबड़ाकर केस को जल्द -से जल्द समाप्त कर देने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने 1930 के आरम्भ में एक अध्यादेश जारी किया जिसका नाम था 'लाहौर षड्यंत्र केस आध्यादेश ' |इसे 1930 का तीसरा अध्यादेश भी कहा गया था |आध्यादेश के अनुसार लाहौर हाईकोर्ट के तीन जजों का एक ट्रिब्यूनल नियुक्त कर मजिस्ट्रेट की अदालत से केस उठाकर नयी अदालत को सुपुर्द कर दिया गया |नयी अदालत को यह भी अधिकार था कि उसकी निगाह में जब भी अभियुक्त दोषी प्रमाणित हो जाए ,तो बाकी गवाहों की गवाहिया लिए बगैर वही पर केस की सुनवाई समाप्त कर वह अपना निर्णय दे सकती थी |इस अदालत के विरुद्ध कही भी अपील नही हो सकती थी |अदालती सुनवाई के दौरान महावीर सिंह तथा चार अन्य साथियो ने (कुंदन लाल ,बटुकेश्वर दत्त ,गयाप्रसाद और जितेन्द्रनाथ सान्याल ) एक बयान द्वारा अपने उद्देश्य की व्याख्या करते हुए कहा की वे शत्रु की अदालत से किसी प्रकार के न्याय की आशा नही करते है |यह कहकर उन्होंने अदालत को मान्यता देने और उसकी कार्यवाही में भाग लेने से इनकार कर दिया था |
महावीर सिंह तथा उनके साथियो का यह बयान लाहौर षड्यंत्र केस के अभियुक्तों की उस समय की राजनितिक एवं सैद्दानतिक समझ पर अच्छा प्रकाश डालता है |बयान के कुछ अंश इस प्रकार थे :
".....................हमारा यह दृढ विश्वास है की साम्राज्यवाद लुटने -खसोटने के उद्देश्य से संगठित किए गये एक विस्तृत षड्यंत्र को छोडकर और कुछ नही है |साम्राज्वाद मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र को धोखा देकर शोषण करने की नीति के विकास की अंतिम अवस्था है |साम्राज्यवादी अपने लूट -खसोट के मंसूबो को आगे बढाने की गरज से केवल अपनी अदालतों द्वारा ही राजनितिक हत्याए नही करते वरन युद्ध के रूप में कत्ले -आम विनाश तथा अन्य कितने वीभत्स एवं भयानक कार्यो का संगठन करते है |ऐसे लोगो को ,जो उनकी लूट -खसोट की माँगों को पूरा करते है या उनके तबाह करने वाले घृणित मंसूबो का विरोध करते है ,गोली से उड़ा देने में वे जरा भी नही हिचकिचाते |'न्याय तथा शान्ति का रक्षक ' होने के बहाने वे शान्ति का गला घोटते है ,अशांति की सृष्टि करते है ,बेगुनाहों की जाने लेते है और सभी प्रकार के जुल्मो को प्रोत्साहन देते है |
हमारा यह विश्वास है कि मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति आजादी का हक़दार है ,उसे कोई दुसरा व्यक्ति दबाकर नही रख सकता |हर मनुष्य को अपनी मेहनत का फल पाने का पूरा अधिकार है और हर राष्ट्र अपने साधनों का पूरा मालिक है |यदि कोई सरकार उन्हें उनके इन प्रारम्भिक अधिकारों से वंचित रखती है तो लोगो का अधिकार है -नही ,उनका कर्तव्य है की ऐसी सरकार को उलट दे ,उसे मिटा दे |चूँकि ब्रिटिश सरकार इन वसूलो से ,जिन के लिए हम खड़े हुए है बिलकुल परे है इसलिए हमारा दृढ विश्वास है कि क्रान्ति के द्वारा मौजूदा हुकूमत को समाप्त करने के लिए सभी कोशिशे तथा सभी उपाय न्याय संगत है |हम परिवर्तन चाहते है -सामाजिक ,राजनितिक तथा आर्थिक ,सभी क्षेत्रो में आमूल परिवर्तन |हम मौजूदा समाज को जड़ से उखाडकर उसके स्थान पर एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते है कि जिसमे मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाए और हर व्यक्ति को हर क्षेत्र में पूरी आजादी हासिल हो जाए |हम महसूस करते है की जब तक समाज का पूरा ढाचा ही नही बदला जाता और उसकी जगह पर समाजवादी समाज की स्थापना नही हो जाती तब तक दुनिया महाविनाश के खतरे से बाहर नही है |
रही बात उपायों की -शांतिमय अथवा दुसरे -जिन्हें हम क्रांतिकारी आदर्श की पूर्ति के लिए काम में लायेंगे |हम कह देना चाहते है की इसका फैसला बहुत कुछ उन लोगो पर निर्भर करता है जिसके पास ताकत है |क्रांतिकारी तो फायदा चाहने के सिद्धांत पर विश्वास करने के नाते शान्ति के उपासक है -सच्ची और टिकने वाली शान्ति के जिसका आधार न्याय तथा समानता पर है ,न की कायरता पर आधारित तथा संगीनों की नोक पर बचाकर रखी जाने वाली शान्ति के |
बयान के अन्त में कहा गया गया था ,'हम पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का अभियोग लगाया गया है |हम ब्रिटिश सरकार की बनाई हुई किसी भी अदालत से न्याय की आशा नही रखते और इसलिए हम न्याय के नाटक में भाग नही लेंगे |"
केस समाप्त हो जाने पर सम्राट के खिआफ युद्ध और सांडर्स की हत्या में सहायता करने के अभियोग में उन्हें उनके सात अन्य साथियो के साथ आजन्म कारावास का दंड दिया गया |सजा के बाद कुछ दिनों तक पंजाब की जेलों में रखकर बाकी लोगो को (भगत सिंह राजगुरु सुखदेव और किशोरी लाल के अतिरिक्त )मद्रास प्रांत की विभिन्न जेलों में भेज दिया गया |महावीर सिंह और गयाप्रसाद को बेलोरी (कर्नाटक राज्य के अंतर्गत ) सेंट्रल जेल ले जाया गया |
वे 1930 -31 के सत्याग्रह के दिन थे और बेलारी जेल स्याग्रही बन्दियो से भरा था |जेल में इन दोनों साथियो ने कैदी नम्बर की तख्ती सीने पर लटकाने ,टोपी पहने ,परेड के दौरान सर पर बिस्तरा आदि रखकर खड़े होने से इनकार कर दिया |
जेलर अपने समय का मुक्केबाज था |वह सिपाहियों से उन्हें खड़ा करवाता ,फिर हर एक पर दस -दस ,पन्द्रह -पन्द्रह तक मुक्केबाजी का अभ्यास करता |जेलर ने वाडर से कहकर महावीर सिंह की कोठरी खुलवाई |वाडरो ने महावीर सिंह को बाहर लाकर जेलर के सामने खड़ा कर दिया और उसने मुक्केबाजी शुरू कर दी |उस दिन महावीर सिंह के हाथो में हथकड़ी नही थी |उन्होंने एक झटके से अपना दाहिना हाथ छुडा लिया और जेलर के मुँह पर इतनी जोर से घुसा मार दिया की हाथ -पैर बंधे कैदियों पर घुसेबाजी का अभ्यास करने वाले उस बुजदिल जेलर का बहादुर कैदियों पर मुक्केबाजी समाप्त हो गयी |हालाकि इसके बाद दंड महावीर सिंह को तीस बेतों की सजा झेलनी पड़ी |हर बेत की सजा के साथ टिकटिकी पर बंधे महावीर सिंह 'जिंदाबाद 'के नारे लगाते रहे |उनके पीठ की खाल उधडती रही ,पर उनके नारे तीव्रतर होते गये |तीस की गिनती पूरी होने पर वहा खड़े अस्पताल के लोगो ने उन्हें टिकटिकी से उतारा और स्ट्रेचर पर डालकर अस्पताल ले जाना चाहा |लेकिन महावीर सिंह ने स्ट्रेचर पर लेटने या किसी का सहारा लेने से इनकार कर दिया |उन्होंने जेलर की ओर देखकर जेल को क़पा देने वाली आवाज में एक बार फिर नारा लगाया और उन्नत भाल टहलते हुए अपने अहाते चले गये |जेलर भी सर झुकाए धीमी गति से चुपचाप अपने दफ्तर की ओर चल दिया -जैसे बेत महावीर सिंह को नही उसकी को लगे हो |जनवरी 1933 में उन्हें उनके कुछ साथियो के साथ मद्रास से अण्डमान (काला पानी )भेज दिया गया |उन दिनों अण्डमान जेल की हालत बड़ी खराब थी |वहा इंसान जानवर बनाकर रखा जाता था |अस्तु सम्मानजनक व्यवहार ,अच्छा खाना ,पढने -लिखने की सुविधाए ,रात में रौशनी आदि की मांगो को लेकर सभी राजनितिक बंदियों ने 12 मई,1933 से अनशन आरम्भ कर दिया |उससे पूर्व इतने अधिक बन्दियों ने एक साथ इतने दिनों तक कही भी अनशन नही किया था |अनशन के छठे दिन से ही अधिकारियों ने बलपूर्वक दूध पिलाने का कार्यक्रम आरम्भ कर दिया |
आधे घण्टे की कुश्ती के बाद दस -बारह व्यक्तियों ने मिलकर महावीर सिंह को जमीन पर पटक दिया और डाक्टर ने एक घुटना उनके सीने पर रखकर नली नाक के अन्दर चला दी |उसने यह देखने की परवाह नही की की नली पेट में न जाकर महावीर सिंह के फेफड़ो में चली गयी है |अपना फर्ज पूरा करने की धुन में पूरा एक सेर दूध उसने फेफड़ो में भर दिया और उन्हें मछली की तरह छटपटाता हुआ छोडकर अपने दल -बल के साथ दूसरे बन्दी को दूध पिलाने चला गया |यह घटना 17 मई 1933 की शाम की है |महावीर सिंह की तबियत तुरंत बिगड़ने लगी |कैदियों का शोर सुनकर डाक्टर उन्हें देखने वापस आया लेकिन उस समय तक उनकी हालत बिगड़ चूकि थी |उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहा देर रात के बारह बजे के बाद आजीवन लड़ते रहने का व्रत लेकर चलने वाला हमारा अथक क्रांतिकारी देश की माटी में विलीन हो गया |अधिकारियों ने चोरी -चोरी उनके शव को समुद्र के हवाले कर दिया |आगे चलकर उस अनशन में दो और क्रांतिकारी मोहित मित्र और मोहन किशोर शहीद हुए |महावीर सिंह के कपड़ो में उनके पिता का एक पत्र भी मिला था |वह पत्र उन्होंने महावीर सिंह के अण्डमान से लिखे उक्त पत्र के उत्तर में लिखा था | पत्र का सारांश कुछ ऐसा है "इस टापू पर सरकार ने देशभर के जगमगाते हीरे चुन -चुनकर जमा किए है |मुझे ख़ुशी है की तुम्हे उन हीरो के बीच रहने का मौक़ा मिल रहा है |उनके बीच रहकर तुम और चमको ,मेरा तथा देश का नाम अधिक रौशन करो ,यही मेरा आशीर्वाद है "|
आज जिस आजादी का उपभोग हम कर रहे है उसकी भव्य इमारत की बुनियाद डालने में महावीर सिंह उन जैसे कितने अज्ञात क्रान्तिकारियो ने अपना रक्त और माँस गला दिया था |किसी देश में महावीर सिंह जैसे बहादुर देशभक्त और उनके पिता जैसी आत्माए रोज -रोज जन्म नही लेती |उनकी यादगार हमारे गौरवपूर्ण इतिहास की पवित्र धरोहर है |क्या हम उसका उचित सम्मान कर रहे है ?
--"भगत सिंह के साथी क्रांतकारी शिव वर्मा की संस्मृतियो से |
पिता का उपरोक्त पत्र महावीर सिंह द्वारा लिखे पत्र के उत्तर के रूप में आया था |महावीर सिंह का पत्र 'भगत सिंह एवं साथियो के दस्तावेज में मौजूद है |उसको हम संक्षिप्त रूप में दे रहे है |
पूज्य पिताजी ! पोर्टब्लयेर (अंडमान ).....प्यारे भाई का क्या हाल है ...इसकी सुचना मुझे शीघ्र दीजिएगा |उसे केवल वैद्ध ही बनने का उपदेश न देना ,बल्कि साथ -ही साथ मनुष्य बनाना भी बतलाना |आजकल मनुष्य वही हो सकता है जिसे वर्तमान वातावरण का ज्ञान हो ,जो मनुष्य के कर्तव्य को जानता ही न हो परन्तु उसका पालन भी करता हो |इसलिए समाज की धरोहर को आलस्य तथा आरामतलबी तथा स्वार्थपरता में डालकर समाज के सामने कृतघ्न न साबित हो |इससे शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की उन्नति करता रहे ,क्योकि दोनों आवश्यक है |शारीरिक पुष्टि अन्न तथा व्यायाम से तथा मानसिक अध्ययन से |उसे आजकल के वातावरण का ज्ञान करने के लिए समाचार पत्र तथा एतिहासिक ,साम्पत्तिक तथा राजनैतिक ,सामाजिक पुस्तको का अवलोकन (अध्ययन ) को कहिये |समाज से मेरा मतलब आर्य समाज अथवा अन्य संकीर्णताव्य्जक समाज नही है ,परन्तु जनसाधारण का है |क्योंकि ये धार्मिक समाज मेरे सामने संकीर्ण होने के कारण कोई भी मूल्य नही रखते है और साथ ही इस संकीर्णता तथा स्वार्थपरता तथा अन्यायपूर्ण होने के कारण सब धर्मो से दूर रहना चाहता हूँ और दुसरो को भी ऐसा ही उपदेश देता हूँ (और )उसको सबसे बढकर तथा मनुष्य तथा समाज का (के लिए )कल्याणकारी समझता हूँ वह है "मनुष्य का मनुष्य तथा प्राणी -मात्र के साथ के कर्तव्य बिना किसी जाति-भेद ,रंग भेद धर्म तथा धन भेद के "|...................आपका आज्ञाकारी पुत्र महावीर सिंह .....(सेलुलर जेल ,पोर्टब्लयेर (अंडमान )
.......... प्रस्तुति -- सुनील दत्ता .पत्रकार

जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन - भाग - एक

लहू बोलता भी हैं -
जमात - ए - उलमा -ए हिन्द और उल्माओ के आन्दोलन

अंग्रेजो ने सन 1799 में टीपू सुलतान को धोखे से हराकर उनका कत्ल कर दिया था | उससे पहले प्लासी की जंग में भी उन्होंने नबाब के ख़ास लोगो को अपनी तरफ मिलाकर उनका कत्ल करके उनकी सरहदों तक पर अपना कब्जा जमा लिया था | इस तरह बंगाल , बिहार , उड़ीसा और युनाईटेड प्राविन्स के ज्यादातर हिस्से ईस्ट इंडिया कम्पनी के जरिये ब्रिटिश हुकूमत के कब्जे में आ गये थे | अवध का सूबा ब्रिटिश हुकूमत के लिए एक कोरिडोर की तरह था | एक समझौते के मुताबिक़ हैदराबाद पर ब्रिटिश हुकूमत का ही असर था | इधर , मराठा आपस में न सिर्फ बटे हुए थे , बल्कि खुद आपस में ही लड़ भी रहे थे | दूसरी तरफ मराठो से जंग में अंग्रेज अफसरों की चालाकी से मराठा कमजोर हो गये | इसका फायदा अंग्रेजो ने उठाया और अपने रास्ते की रुकावट दूर कर ली | मराठो के बाद अंग्रेजो की निगाह सिंधिया - राज पर थी जिसे आपसी संधि के जरिये ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी तरफ कर लिया | इसके बाद अंग्रेजो ने दिल्ली की तरफ रुख किया | दिल्ली के राजा शाह आलम सेहत से कमजोर और अंधे हो चुके थे | उनकी जंग लड़ने की हालत भी नही थी | इसका भी अंग्रेजो ने भरपूर फायदा उठाया और उन्हें अपनी पनाह में लेकर उनकी जरूरतों का बन्दोबस्त करके उन्हें भी हुकूमत से हटाकर दिल्ली की हुकूमत को भी पूरी तरह अपने कब्जे में कर लिया | अब हिन्दुस्तानियों को डराने की कार्यवाही शुरू हुई | दिल्ली सडको पर अंग्रेजी फ़ौज ने बगैर किसी वजह के ही अपनी ताकत का मुजाहरा किया | बचे हुए नवाबो और जमींदारों को भी डरा धमका सबसे अलग - अलग संधियाँ करके उन्हें मदद करने का लालच दिया और उनके हलको को भी अपने कब्जे में कर लिया | बाद में उनकी हिफाजत के लिए जो सेनाये अंग्रेजो ने तैनात की , उनका खर्च भी उन्ही पर डालकर उन्हें कर्जदार बना दिया | जो सरदार , नवाब या जमींदार कर्ज की अदायगी नही करता , उसकी जायदाद और एजाज को जब्त कर लिया जाता था | देश के उत्तर - पश्चिम में सिख - सामंत आपस में छोटी - बड़ी लड़ाई लड़कर थक हुके थे | सभी सिख - सामन्तो को एक - एक करके सिख - राजनेता राजा रंजित सिंह ने अपना शासन बरकरार रखने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी से एक शान्ति - संधि कायम की अपने - आप को सुरक्षित कर लिया था | इस संधि के बाद जब एक तरफ अंग्रेजो से फौरी खतरा टल गया तो दूसरी तरफ उनके शासन में मुसलमानों के साथ भेदभाव और ज्यादती के अलावा उन पर जुल्म बढने लगे | कई मस्जिद और खानकाहे तोड़ी जाने लगी | पुरे पंजाब में माहौल खराब होने लगा , जबकि वहां मुसलमान तादात के एतबार से अक्सरियत में थे | अब कलकत्ता से दिल्ली तक कम्पनी के कब्जे में पूरी तरह से आ चुका था , जिसका फायदा उठाकर अंग्रेजो ने ईसाइयत को मजबूत करना शुरू किया | आम कारोबारियों और मुसाफिरों के शहर में दाखिल होने पर तो कोई रोक नही थी , लेकिन शुजाउल मुल्क और विलायत बेगम जैसे ख़ास लोगो को शहर में घुसने पर पाबंदी थी | तब की मजबूत रियासतों में से हैदराबाद , रामपुर और लखनऊ ने मुहायदे के तहत अंग्रेज अफसरों के मातहत काम करना शुरू कर दिया था | एक तरीके से इन रियासतों ने भी अंग्रेजो की गुलामी मंजूर कर ली थी | कितनी हैरत की बात थी कि भारतीयों के खर्चे पर पलने वाली भारतीय फ़ौज अब अंग्रेजो के हुकम की गुलाम होकर भारतीयों पर ही जुल्मो - ज्यादती करने पर मजबूर थी | सारे राजा , नवाब , जमींदार व जागीरदार इन मंजर का तमाशा देख रहे थे |अंग्रेजो की बढती ताकत और चालाकी से फैलाए हुए उनके जाल में एक - एक करके ज्यादातर रियासते फंसकर गुलाम हो गयी अंग्रेज अब मुस्लिम - समाज से बदला लेने की तैयारी में लग गये थे , जिसे देखते हुए मुस्लिम - समाज में बेचैनी बढनी लाजिमी थी | आगे जारी भाग - एक

लहू बोलता भी है - सैय्यद शाहनवाज कादरी
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Friday, September 20, 2019

हिंदू बनाम हिंदू ----------------------- राममनोहर लोहिया

हिंदू बनाम हिंदू ----------------------- राममनोहर लोहिया

भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई, हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पाँच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अंत अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गई, जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रख कर हिंदुस्तान के इतिहास को देखा जाए। लेकिन देश में जो कुछ होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है। सभी धर्मों में किसी न किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है। लेकिन हिंदू धर्म के अलावा वे बँट गए,अक्सर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद वे झगड़े पर काबू पाने में कामयाब हो गए। हिंदू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है जिसमें कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की और खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ है, लेकिन झगड़ा आज तक हल नहीं हुआ और झगड़े के सवालों पर एक धुंध छा गया है। ईसाई, इस्लाम और बौद्ध, सभी धर्मों में झगड़े हुए। कैथोलिक मत में एक समय इतने कट्टरपंथी तत्व इकट्ठा हो गए कि प्रोटेस्टेंट मत ने, जो उस समय उदारवादी था, उसे चुनौती दी। लेकिन सभी लोग जानते हैं कि सुधार आंदोलन के बाद प्रोटेस्टेंट मत में खुद भी कट्टरता आ गई। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट मतों के सिद्धांतों में अब भी बहुत फर्क है लेकिन एक को कट्टरपंथी और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है। ईसाई धर्म में सिद्धांत और संगठन का भेद है तो iइस्लाम धर्म में शिया-सुन्नी का बँटवारा इतिहास के घटनाक्रम से संबंधित है। इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बँट गया और उनमें कभी रक्तपात तो नहीं हुआ, लेकिन उसका मतभेद सिद्धांत के बारे में है, समाज की व्यवस्था से उसका कोई संबंध नहीं। हिंदू धर्म में ऐसा कोई बँटवारा नहीं हुआ। अलबत्ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा है। नया मत उतनी ही बार उसके ही एक नए हिस्से के रूप में वापस आ गया। इसीलिए सिद्धांत के सवाल कभी साथ-साथ नहीं उठे और सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ। हिंदू धर्म नए मतों को जन्म देने में उतना ही तेज है जितना प्रोटेस्टेंट मत, लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का अजीब आवरण डाल देता है जैसी एकता कैथोलिक संगठन ने अंदरूनी भेदों पर रोक लगा कर कायम की है। इस तरह हिंदू धर्म में जहाँ एक और कट्टरता और अंधविश्वास का घर है, वहाँ वह नई-नई खोजों की व्यवस्था भी है। हिंदू धर्म अब तक अपने अंदर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टि-भेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालना जरूरी है। चार बड़े और ठोस सवालों - वर्ण, स्त्री , संपत्ति और सहनशीलता - के बारे में हिंदू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है। चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिंदुओं के कान में दूसरे हिंदुओं के द्वारा सीसा गला कर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी क्योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं। तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मंत्री बनाएगा ताकि हिंदू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके। करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिंदू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह अपने वर्ण के अनुसार ऊँची जमीन पर तंबू लगाना चाहता था। करीब पंद्रह साल पहले एक हिंदू ने हिंदुत्व की रक्षा करने की इच्छा से महात्मा गांधी पर बम फेंका था, क्योंकि उस समय वे छुआछूत का नाश करने में लगे थे। कुछ दिनों पहले तक, और कुछ इलाकों में अब भी हिंदू नाई अछूत हिंदुओं की हजामत बनाने को तैयार नहीं होते, हालाँकि गैर-हिंदुओं का काम करने में उन्हें कोई एतराज नहीं होता। इसके साथ ही प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए। एक, पूरे उपनिषद में वर्ण व्यवस्था को सभी रूपों में पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की गई है।हिन्दुस्तान के प्राचीन साहित्य में वर्ण व्यवस्था का जो विरोध मिलता है, उसके रूप, भाषा और विस्तार से पता चलता है कि ये विरोध दो अलग-अलग कालों में हुए - एक, आलोचना का काल और दूसरा, निंदा का। इस सवाल को भविष्य की खोजों के लिए छोड़ा जा सकता है, लेकिन इतना साफ है कि मौर्य और गुप्त वंशों के स्वर्ण-काल वर्ण व्यवस्था के एक व्यापक विरोध के बाद हुए। लेकिन वर्ण कभी पूरी तरह खत्म नहीं होते। कुछ कालों में बहुत सख्त होते हैं और कुछ अन्य कालों में उनका बंधन ढीला पड़ जाता है। कट्टरपंथी और उदारवादी वर्ण व्यवस्था के अंदर ही एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और हिंदू इतिहास के दो कालों में एक या दूसरी धारा के प्रभुत्व का ही अंतर होता है। इस समय उदारवादी का जोर है और कट्टरपंथियों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे गौर कर सकें। लेकिन कट्टरता उदारवादी विचारों में घुस कर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। अगर जन्मना वर्णों की बात करने का समय नहीं तो कर्मणा जातियों की बात की जाती है। अगर लोग वर्ण व्यवस्था का समर्थन नहीं करते तो उसके खिलाफ काम भी शायद ही कभी करते हैं और एक वातावरण बन गया है जिसमें हिंदुओं की तर्कबुद्धि और उनकी दिमागी आदतों में टकराव है। व्यवस्था के रूप में वर्ण कहीं-कहीं ढीले हो गए हैं लेकिन दिमागी आदत के रूप में अभी भी मौजूद हैं। इस बात की आशंका है कि हिंदू धर्म में कट्टरता और उदारता का झगड़ा अभी भी हल न हो।
आधुनिक साहित्य ने हमें यह बताया है कि केवल स्त्री ही जानती है कि उसके बच्चे का पिता कौन है, लेकिन तीन हजार वर्ष या उसके भी पहले जबाल को स्वंय भी नहीं मालूम था कि उसके बच्चे का पिता कौन है और प्राचीन साहित्य में उसका नाम एक पवित्र स्त्री के रूप में आदर के साथ लिया गया है। हालाँकि वर्ण व्यवस्था ने उसके बेटे को ब्राह्मण बना कर उसे भी हजम कर लिया। उदार काल का साहित्य हमें चेतावनी देता है कि परिवारों के स्रोत की खोज नहीं करनी चाहिए क्योंकि नदी के स्रोत की तरह वहाँ भी गंदगी होती है। अगर स्त्री बलात्कार का सफलतापूर्वक विरोध न कर सके तो उसे कोई दोष नहीं होता क्योंकि इस साहित्य के अनुसार स्त्री का शरीर हर महीने नया हो जाता है। स्त्री को भी तलाक और संपत्ति का अधिकार है। हिंदू धर्म के स्वर्ण युगों में स्त्री के प्रति यह उदार दृष्टिकोण मिलता है जबकि कट्टरता के युगों में उसे केवल एक प्रकार की संपत्ति माना गया है जो पिता, पति या पुत्र के अधिकार में रहती है।
इस समय हिंदू स्त्री एक अजीब स्थिति में है, जिसमें उदारता भी है और कट्टरता भी। दुनिया के और भी हिस्से हैं जहाँ स्त्री के लिए सम्मानपूर्ण पद पाना आसान है लेकिन संपत्ति और विवाह के संबंध में पुरुष के समान ही स्त्री के भी अधिकार हों, इसका विरोध अब भी होता है। मुझे ऐसे पर्चे पढ़ने को मिले जिनमें स्त्री को संपत्ति का अधिकार न देने की वकालत इस तर्क पर की गई थी कि वह दूसरे धर्म के व्यक्ति से प्रेम करने लगे अपना धर्म न बदल दे, जैसे यह दलील पुरुषों के लिए कहीं ज्यादा सच न हो। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े नहीं हों, यह अलग सवाल है, जो स्त्री व पुरुष दोनों वारिसों पर लागू होता है, और एक सीमा से छोटे टुकड़ों के और टुकड़े न होने पाएँ, इसका कोई तरीका निकालना चाहिए। जब तक कानून या रीति-रिवाज या दिमागी आदतों में स्त्री और पुरुष के बीच विवाह और संपत्ति के बारे में फर्क रहेगा, तब तक कट्टरता पूरी तरह खत्म नहीं होगी। हिंदुओं के अंदर स्त्री को देवी के रूप में देखने की इच्छा , जो अपने उच्च संस्थान से कभी न उतरे, उदार से उदार लोगों के दिमाग में भी बेमतलब के और संदेहास्पद खयाल पैदा कर देती है। उदारता और कट्टरता एक-दूसरे से जुड़ी रहेंगी जब तक हिंदू अपनी स्त्री को अपने समान ही इंसान नहीं मानने लगता। हिंदू धर्म में संपत्ति की भावना संचय न करने और लगाव न रखने के सिद्धांत के कारण उदार है। लेकिन कट्टरपंथी हिंदू कर्म-सिद्धांत की इस प्रकार व्याख्या करता है कि धन और जन्म या शक्ति का स्थान ऊँचा है और जो कुछ है वही ठीक भी है। संपत्ति का मौजूदा सवाल कि मिल्कियत निजी हो या सामाजिक, हाल ही का है। लेकिन संपत्ति की स्वीकृति व्यवस्था या संपत्ति से कोई लगाव न रखने के रूप में यह सवाल हिंदू दिमाग में बराबर रहा है। अन्य सवालों की तरह संपत्ति और शक्ति के सवालों पर भी हिंदू दिमाग अपने विचारों को उनकी तार्किक परिणति तक भी नहीं ले जा पाया। समय और व्यक्ति के साथ हिंदू धर्म में इतना ही फर्क पड़ता है कि एक या दूसरे को प्राथमिकता मिलती है। आम तौर पर यह माना जाता है कि सहिष्णुता हिंदुओं का विशेष गुण है। यह गलत है, सिवाय इसके कि खुला रक्तपात अभी तक उसे पसंद नहीं रहा। हिंदू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य मतों और विश्वासों का दमन कर के एकरूपता के द्वारा एकता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन उन्हें भी सफलता नहीं मिली। उन्हें अब तक आम तौर पर बचपना ही माना जाता था क्योंकि कुछ समय पहले तक विविधता में एकता का सिद्धांत हिंदू धर्म के अपने मतों पर ही लागू किया जाता था, इसलिए हिंदू धर्म में लगभग हमेशा ही सहिष्णुता का अंश बल प्रयोग से ज्यादा रहता था, लेकिन यूरोप की राष्ट्रीयता ने इससे मिलते-जुलते जिस सिद्धांत को जन्म दिया है, उससे इसका अर्थ समझ लेना चाहिए। वाल्टेयर जानता था कि उसका विरोधी गलती पर ही है, फिर भी वह सहिष्णुता के लिए, विरोधी के खुल कर बोलने के अधिकार के लिए लड़ने को तैयार था। इसके विपरीत हिंदू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों में अलग-अलग सिद्धांत और चलन हो सकते हैं, और उनके बीच वह कोई फैसला करने को तैयार नहीं। वह आदमी की जिंदगी में एकरूपता नहीं चाहता, स्वेच्छा से भी नहीं, और ऐसी विविधता में एकता चाहता है जिसकी परिभाषा नहीं की जा सकती, लेकिन जो अब तक उसके अलग-अलग मतों को एक लड़ी में पिरोती रही है। अत: उसमें सहिष्णुता का गुण इस विश्वास के कारण है कि किसी की जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, इस विश्वास के कारण कि अलग-अलग बातें गलत ही हों यह जरूरी नहीं है, बल्कि वे सच्चाई को अलग-अलग ढंग से व्यक्त कर सकती हैं। कट्टरपंथियों ने अक्सर हिंदू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है। उनके उद्देश्य कभी बुरे नहीं रहे। उनकी कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी, लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए। मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता जिसमें कट्टरपंथी हिंदू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आई, तो हमेशा वर्ण, स्त्री , संपत्ति, सहिष्णुता आदि के संबंध में हिंदू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिंदू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनैतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में,राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आई जब हिंदू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था। आधुनिक इतिहास में देश में एकता लाने की कई बड़ी कोशिशें असफल हुईं। ज्ञानेश्वर का उदार मत शिवाजी ओर बाजीराव के काल में अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन सफल होने के पहले ही पेशवाओं की कट्टरता में गिर गया। फिर गुरु नानक के उदार मत से शुरू होनेवाला आंदोलन रणजीत सिंह के समय अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन जल्दी ही सिक्ख सरदारों के कट्टरपंथी झगड़ों में पतित हो गया। ये कोशिशें, जो एक बार असफल हो गईं, आजकल फिर से उठने की बड़ी तेज कोशिशें करती हैं, क्योंकि इस समय महाराष्ट्र और पंजाब से कट्टरता की जो धारा उठ रही है, उसका इन कोशिशों से गहरा और पापपूर्ण आत्मिक संबंध है। इन सब में भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए पढ़ने और समझने की बड़ी सामग्री है जैसे धार्मिक संतों और देश में एकता लाने की राजनैतिक कोशिशों के बीच कैसा निकट संबंध है या कि पतन के बीज कहाँ हैं, बिल्कुल शुरू में या बाद की किसी गड़बड़ी में या कि इन समूहों द्वारा अपनी कट्टरपंथी असफलताओं को दुहराने की कोशिशों के पीछे क्या कारण है? इसी तरह विजयनगर की कोशिश और उसके पीछे प्रेरणा निंबार्क की थी या शंकराचार्य की, और हम्पी की महानता के पीछे कौन-सा सड़ा हुआ बीज था, इन सब बातों की खोज से बड़ा लाभ हो सकता है। फिर, शेरशाह और अकबर की उदार कोशिशों के पीछे क्या था और औरंगजेब की कट्टरता के आगे उनकी हार क्यो हुई?
देश में एकता लाने की भारतीय लोगों और महात्मा गांधी की आखिरी कोशिश कामयाब हुई है, लेकिन आंशिक रूप में ही। इसमें कोई शक नहीं कि पाँच हजार वर्षों से अधिक की उदारवादी धाराओं ने इस कोशिश को आगे बढ़ाया, लेकिन इसके तत्कालीन स्रोत में, यूरोप के उदारवादी प्रभावों के अलावा क्या था - तुलसी या कबीर और चैतन्य और संतों की महान परंपरा या अधिक हाल के धार्मिक-राजनैतिक नेता जैसे राममोहन राय और फैजाबाद के विद्रोही मौलवी ? फिर, पिछले पाँच हजार सालों की कंट्टरपंथी धाराएँ भी मिल कर इस कोशिश को असफल बनाने के लिए जोर लगा रही हैं और अगर इस बार कट्टरता की हार हुई, तो वह फिर नहीं उठेगी। केवल उदारता ही देश में एकता ला सकती है। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा और पुराना देश है। मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिंदुत्व अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा नहीं पैदा कर सकता, लेकिन उदार हिन्दुत्व कर सकता है, जैसा पहले कई बार चुका है। हिंदू धर्म, संकुचित दृष्टि से, राजनैतिक धर्म, सिद्धांतों और संगठन का धर्म नहीं है। लेकिन देश के राजनैतिक इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इससे प्रेरणा मिली है और उनका यह प्रमुख माध्यम रहा है। हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता से महान युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है। लेकिन उदार हिन्दुत्व पूरी तरह समस्या का हल नहीं कर सका। विविधता में एकता के सिद्धांत के पीछे सड़न और बिखराव के बीज छिपे हैं। कट्टरपंथी तत्वों के अलावा, जो हमेशा ऊपर से उदार हिंदू विचारों में घुस आते हैं और हमेशा दिमागी सफाई हासिल करने में रुकावट डालते हैं, विविधता में एकता का सिद्धांत ऐसे दिमाग को जन्म देता है जो समृद्ध और निष्क्रीय दोनों ही है। हिंदू धर्म का बराबर छोटे-छोटे मतों में बँटते रहना बहुत बुरा है, जिनमें से हरे एक अपना अलग शोर मचाए रखता है और उदार हिन्दुत्व उनको एकता के आवरण में ढँकने की चाहे जितनी भी कोशिश करे, वे अनिवार्य ही राज्य के सामूहिक जीवन में कमजोरी पैदा करते हैं। एक आश्चर्यजंक उदासीनता फैल जाती है। कोई इन बराबर होनेवाले बँटवारों की चिंता नहीं करता जैसे सबको यकीन हो कि वे एक-दूसरे के ही अंग हैं। इसी से कट्टरपंथी हिंदुत्व को अवसर मिलता है और शक्त्िा की इच्छा के रूप में चालक शक्ति मिलती है, हालाँकि उसकी कोशिशों के फलस्वरूप और भी ज्यादा कमजोरी पैदा होती है। उदार और कट्टरपंथी हिंदुत्व के महायुद्ध का बाहरी रूप आजकल यह हो गया है कि मुसलमानों के प्रति क्रिया रुख हो। लेकिन हम एक क्षण के लिए भी यह न भूलें कि यह बाहरी रूप है और बुनियादी झगड़े जो अभी तक हल नहीं हुए, कहीं अधिक निर्णायक हैं। महात्मा गांधी की हत्या , हिंदू-मुस्लिम झगड़े की घटना उतनी नहीं थी जितनी हिंदू धर्म की उदार व कट्टरपंथी धाराओं के युद्ध की। इसके पहले कभी किसी हिंदू ने वर्ण, स्त्री , संपत्ति और सहिष्णुता के बारे में कट्टरता पर इतनी गहरी चोटें नहीं की थीं। इसके खिलाफ सारा जहर इकट्ठा हो रहा था। एक बार पहले भी गांधी जी की हत्या करने की कोशिश की गई थी। उस समय उसका खुला ओर साफ उद्देश्य यही था कि वर्ण व्यवस्था को बचा कर हिंदू धर्म की रक्षा की जाए। आखिरी और कामयाब कोशिश का उद्देश्य ऊपर से यह दिखाई पड़ता था कि इस्लाम के हमले से हिंदू धर्म को बचाया जाए, लेकिन इतिहास के किसी भी विद्यार्थी को कोई संदेह नहीं होगा कि यह सब से बड़ा और सब से जघन्य जुआ था, जो हारती हुई कट्टरता ने उदारता से अपने युद्ध में खेला। गांधी जी का हत्यारा वह कट्टरपंथी तत्व था जो हमेशा हिंदू दिमाग के अंदर बैठा रहता है, कभी दबा हुआ और कभी प्रकट, कुछ हिंदुओं में निष्क्रिय और कुछ में तेज। जब इतिहास के पन्ने गांधी जी की हत्या को कट्टरपंथी-उदार हिंदुत्व के युद्ध की एक घटना के रूप में रखेंगे और उन सभी पर अभियोग लगाएँगे जिन्हें वर्णों के खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में, गांधी जी के कामों से गुस्सा आया था, तब शायद हिंदू धर्म की निष्क्रिता और उदासीनता नष्ट हो जाए। अब तक हिंदू धर्म के अंदर कट्टर और उदार एक-दूसरे से जुड़े क्यों रहे और अभी तक उनके बीच कोई साफ और निर्णायक लड़ाई क्यों नहीं हुई, यह एक ऐसा विषय है जिस पर भारतीय इतिहास के विद्यार्थी खोज करें तो बड़ा लाभ हो सकता है। अब तक हिंदू दिमाग से कट्टरता कभी पूरी तरह दूर नहीं हुई, इसमें कोई शक नहीं। इस झगड़े का कोई हल न होने के विनाशपूर्ण नतीजे निकले, इसमें भी कोई शक नहीं। जब तक हिंदुओं के दिमाग से वर्ण-भेद बिल्कुल ही खत्म नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता, या संपत्ति और व्यवस्था के संबंध से पूरी तरह तोड़ा नहीं जाता तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी और उसकी निष्क्रियता को कायम रखेगी। अन्य धर्मों की तरह हिंदू धर्म सिद्धांतों और बँधे हुए नियमों का धर्म नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध अभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिल कर सदियों से देश पर अच्छा या बुरा शासन करते आए हैं जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी।
उन चार सवालों पर केवल उदारता से काम न चलेगा। अंतिम रूप से उनका हल करने के लिए हिंदू दिमाग से इस झगड़े को पूरी तरह खत्म करना होगा। इन सभी हल न होनेवाले झगड़ों के पीछे निर्गुण और सगुण सत्य के संबंध का दार्शनिक सवाल है। इस सवाल पर उदार और कट्टर हिंदुओं के रुख में बहुत कम अंतर है। मोटे तौर पर, हिंदू धर्म सगुण सत्य के आगे निर्गुण सत्य की खोज में जाना चाहता है, वह सृष्टि को झूठा तो नहीं मानता लेकिन घटिया किस्म का सत्य मानता है। दिमाग से उठ कर परम सत्य तक पहुँचने के लिए वह इस घटिया सत्य को छोड़ देता है। वस्तुत: सभी देशों का दर्शन इसी सवाल को उठाता है। अन्य धर्मों और दर्शनों से हिंदू धर्म का फर्क यही है कि दूसरे देशों में यह सवाल अधिकतर दर्शन में ही सीमित रहा है, जबकि हिन्दुस्तान में यह जनसाधारण के विश्वास का एक अंग बन गया है। दर्शन को संगीत की धुनें दे कर विश्वास में बदल दिया गया है। लेकिन दूसरे देशों में दार्शनिकों ने परम सत्य की खोज में आम तौर पर सांसारिक सत्य से बिल्कुल ही इनकार किया है। इस कारण आधुनिक विश्व पर उसका प्रभाव बहुत कम पड़ा है। वैज्ञानिक और सांसारिक भावना ने बड़ी उत्सुकता से प्रकृति की सारी जानकारी को इकट्ठा किया, अलग-अलग कर के क्रमबद्ध किया और उन्हें एक में बाँधनेवाले नियम खोज निकाले। इससे आधुनिक मनुष्य को, जो मुख्यत: यूरोपीय है, जीवन पर विचार करने का एक खास दृष्टिकोण मिला है। वह सगुण सत्य को, जैसा है वैसा ही बड़ी खुशी से स्वीकार कर लेता है। इसके अलावा ईसाई मत की नैतिकता ने मनुष्य के अच्छे कामों को ईश्वरीय काम का पद प्रदान किया है। इन सब के फलस्वरूप जीवन की असलियतों का वैज्ञानिक और नैतिक उपयोग होता है। लेकिन हिंदू धर्म कभी अपने दार्शनिक आधार से छुटकारा नहीं पा सका। लोगों का साधारण विश्वास भी व्यक्त और प्रकट सगुण सत्य से आगे जा कर अव्यक्त और अप्रकट निर्गुण सत्य को देखना चाहता है। यूरोप में भी मध्य युग में ऐसा ही दृष्टिकोण था लेकिन मैं फिर कह दूँ कि यह दार्शनिकों तक ही सीमित था और सगुण सत्य से इनकार कर के उसे नकली मानता था जबकि आम लोग ईसाई मत को नैतिक विश्वास के रूप में मानते थे और उस हद तक सगुण सत्य को स्वीकार करते थे। हिंदू धर्म ने कभी जीवन की असलियतों से बिल्कुल इनकार नहीं किया बल्कि वह उन्हें एक घटिया किस्म का सत्य मानता है और आज तक हमेशा ऊँचे प्रकार के सत्य की खोज करने की कोशिश करता रहा है। यह लोगों के साधारण विश्वास का अंग है। एक बड़ा अच्छा उदाहरण मुझे याद आता है। कोणार्क के विशाल लेकिन आधे नष्ट मंदिर में पत्थरों पर हजारों मूर्तियाँ खुदी हुई मिलती हैं। जिंदगी की असलियतों की तस्वीरे देने में कलाकार ने किसी तरह की कंजूसी या संकोच नहीं दिखाया है। जिंदगी की सारी विभिन्नताओ को उसने स्वीकार किया है। उसमें भी एक क्रमबद्ध व्यवस्था मालूम पड़ती है। सब से नीचे की मूर्तियों में शिकार, उसके ऊपर प्रेम, फिर संगीत और फिर शक्ति का चित्रण है। हर चीज में बड़ी शक्ति और क्रियाशीलता है। लेकिन मंदिर के अंदर कुछ नहीं है, और क्रियाशीलता से अंदर की खामोशी और स्थिरता, मंदिर में बुनियादी तौर पर यही अंकित है। परम सत्य की खोज कभी बंद नहीं हुई। चित्रकला की अपेक्षा वास्तुकला और मूर्तिकला के अधिक विकास की भी अपनी अलग कहानी है। वस्तुत: जो प्राचीन चित्र अब भी मिलते हैं, वास्तुकला पर ही आधारित हैं। संभवत: परम सत्य के बारे में अपने विचारों को व्यक्त करना चित्रकला की अपेक्षा वास्तुकला और मूर्तिकला में ज्यादा सरल है।
अत: हिंदू व्यक्तित्व दो हिस्सों में बँट गया है। अच्छी हालत में हिंदू सगुण सत्य को स्वीकार कर के भी निर्गुण परम सत्य को नहीं भूलता और बराबर अपनी अंतर्दृष्टि को विकसित करने की कोशिश करता रहता है, और बुरी हालत में उसका पाखंड असीमित होता है। हिंदू शायद दुनिया का सबसे बड़ा पाखंडी होता है, क्योंकि वह न सिर्फ दुनिया के सभी पाखंडियों की तरह दूसरों को धोखा देता है बल्कि अपने को धोखा दे कर खुद अपना नुकसान भी करता है। सगुण और निर्गुण सत्य के बीच बँटा हुआ उसका दिमाग अक्सर इसमें उसे प्रोत्साहन देता है। पहले, और आज भी, हिंदू धर्म एक आश्चर्यजनक दृश्य प्रस्तुत करता है। हिंदू धर्म अपने माननेवालों को, छोटे-से-छोटे को भी, ऐसी दार्शनिक समानता, मनुष्य और मनुष्य और अन्य वस्तुओ की एकता प्रदान करता है जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती। दार्शनिक समानता के इस विश्वास के साथ ही गंदी से गंदी सामाजिक विषमता का व्यवहार चलता है। मुझे अक्सर लगता है कि दार्शनिक हिंदू खुशहाल होने पर गरीबों और शूद्रों से पशुओं जैसा, पशुओं से पत्थरों जैसा और अन्य वस्तुओ से दूसरी वस्तुओ की तरह व्यवहार करता है। शाकाहार और अहिंसा गिर कर छिपी हुई क्रूरता बन जाते हैं। अब तक की सभी मानवीय चेष्टाओ के बारे में यह कहा जा सकता है कि एक न एक स्थिति में हर जगह सत्य क्रूरता में बदल जाता है और सुंदरता अनैतिकता में, लेकिन हिंदू धर्म के बारे में यह औरों की अपेक्षा ज्यादा सच है। हिंदू धर्म ने सच्चाई और सुंदरता की ऐसी चोटियाँ हासिल कीं जो किसी और देश में नहीं मिलतीं, लेकिन वह ऐसे अँधेरे गढ़ों में भी गिरा है जहाँ तक किसी और देश का मनुष्य नहीं गिरा। जब तक हिंदू जीवन की असलियतों को, काम और मशीन, जीवन और पैदावार, परिवार और जनसंख्या वृद्धि, गरीबी और अत्याचार और ऐसी अन्य असलियतों को वैज्ञानिक और लौकिक दृष्टि से स्वीकार करना नहीं सीखता, तब तक वह अपने बँटे हुए दिमाग पर काबू नहीं पा सकता और न कट्टरता को ही खत्म कर सकता है, जिसने अक्सर उसका सत्यानाश किया है। इसका यह अर्थ नहीं कि हिंदू धर्म अपनी भावधारा ही छोड़ दे और जीवन और सभी चीजों की एकता की कोशिश न करे। यह शायद उसका सबसे बड़ा गुण है। अचानक मन में भर जानेवाली ममता, भावना की चेतना और प्रसार, जिसमें गाँव का लड़का मोटर निकलने पर बकरी के बच्चे को इस तरह चिपटा लेता है जैसे उसी में उसकी जिंदगी हो, या कोई सूखी जड़ों और हरी शाखों के पेड़ को ऐसे देखता है जैसे वह उसी का एक अंश हो, एक ऐसा गुण है जो शायद सभी धर्मों में मिलता है लेकिन कहीं उसने ऐसी गहरी और स्थायी भावना का रूप नहीं लिया जैसा हिंदू धर्म में। बुद्धि का देवता, दया के देवता से बिल्कुल अलग है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर है या नहीं है, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि सारे जीवन और सृष्टि को एक में बाँधनेवाली ममता की भावना है, हालाँकि अभी वह एक दुर्लभ भावना है। इस भावना को सारे कामों, यहाँ तक कि झगड़ों की भी पृष्ठभूमि बनाना शायद व्यवहार में मुमकिन न हो। लेकिन यूरोप केवल सगुण, लौकिक सत्य को स्वीकार करने के फलस्वरूप उत्पन्न हुए झगड़ों से मर रहा है, हिन्दुस्तान केवल निर्गुण, परम सत्य को ही स्वीकार करने के फलस्वरूप निष्क्रियता से मर रहा है। मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि मुझे सड़ने की अपेक्षा झगड़े से मरना ज्यादा पसंद है। लेकिन विचार और व्यवहार के क्या यही दो रास्ते मनुष्य के सामने हैं ? क्या खोज की वैज्ञानिक भावना का एकता की रागात्मक भावना से मेल बैठाना मुमकिन नहीं है, जिसमें एक दूसरे के अधीन न हो और समान गुणोंवाले दो कर्मों के रूप में दोनों बराबरी की जगह पर हों। वैज्ञानिक भावना वर्ण के खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में काम करेगी और धन पैदा करने के ऐसे तरीके निकालेगी जिससे भूख और गरीबी दूर होगी। एकता की सृजनात्मक भावना वह रागात्मक शक्ति पैदा करेगी जिसके बिना मनुष्य की बड़ी-से-बड़ी कोशिशें लोभ, इर्ष्या , शक्ति और घृणा में बदल जाती हैं। यह कहना मुश्किल है कि हिंदू धर्म यह नया दिमाग पा सकता है और वैज्ञानिक और रागात्मक भावनाओं में मेल बैठ सकता है या नहीं। लेकिन हिंदू धर्म दरअसल है क्या ? इसका कोई एक उत्तर नहीं, बल्कि कई उत्तर हैं। इतना निश्चित है कि हिंदू धर्म कोई खास सिद्धांत या संगठन नहीं है न विश्वास और व्यवहार का कोई नियम उसके लिए अनिवार्य ही है। स्मृतियों और कथाओं, दर्शन और रीतियों की एक पूरी दुनिया है जिसका कुछ हिस्सा बहुत ही बुरा है और कुछ ऐसा है जो मनुष्य के काम आ सकता है। इन सब से मिल कर हिंदू दिमाग बनता है जिसकी विशेषता कुछ विद्वानों ने सहिष्णुता और विविधता में एकता बताई है। हमने इस सिद्धांत की कमियाँ देखीं और यह देखा कि दिमागी निष्क्रियता दूर करने के लिए कहाँ उसमें सुधार करने की जरूरत है। इस सिद्धांत को समझने में आम तौर पर यह गलती की जाती है कि उदार हिंदू धर्म हमेशा अच्छे विचारों और प्रभावों को अपना लेता है चाहे वे जहाँ से भी आए हों, जबकि कट्टरता ऐसा नहीं करती। मेरे खयाल में यह विचार अज्ञानपूर्ण है। भारतीय इतिहास के पन्नो में मुझे ऐसा कोई काल नहीं मिला जिसमें आजाद हिंदू ने विदेशों में विचारों या वस्तुओ की खोज की हो। हिन्दुस्तान और चीन के हजारों साल के संबंध में मैं सिर्फ पाँच वस्तुओ के नाम जान पाया हूँ जिनमें सिंदूर भी है, जो चीन से भारत लाई गई। विचारों के क्षेत्र में कुछ भी नहीं आया। आजाद हिंदुस्तान का आम तौर पर बाहरी दुनिया से एकतरफा रिश्ता होता था जिसमें कोई विचार बाहर से नहीं आते थे और वस्तुए भी कम ही आती थीं, सिवाय चाँदी आदि के। जब कोई विदेशी समुदाय आ कर यहाँ बस जाता और समय बीतने पर हिंदू धर्म का ही एक अंग या वर्ण बनने की कोशिश करता तब जरूर कुछ विचार और कुछ चीजें अंदर आतीं। इसके विपरीत गुलाम हिन्दुस्तान और उस समय का हिंदू धर्म विजेता की भाषा, उसकी आदतों और उसके रहन-सहन की बड़ी तेजी से नकल करता है। आजादी में दिमाग की आत्म निर्भरता के साथ गुलामी में पूरा दिमागी दीवालियापन मिलता है। हिंदू धर्म की इस कमजोरी को कभी नहीं समझा गया और यह खेद की बात है कि उदारवादी हिंदू अज्ञानवश, प्रचार के लिए इसके विपरीत बातें फैला रहे हैं। आजादी की हालत में हिंदू दिमाग खुला जरूर रहता है, लेकिन केवल देश के अंदर होनेवाली घटनाओं के प्रति। बाहरी विचारों और प्रभावों के प्रति तब भी बंद रहता है। यह उसकी एक बड़ी कमजोरी है और भारत के विदेशी शासन का शिकार होने का एक कारण है। हिंदू दिमाग को अब न सिर्फ अपने देश के अंदर की बातों बल्कि बाहर की बातों के प्रति भी अपना दिमाग खुला रखना होगा और विविधता में एकता के अपने सिद्धांत को सारी दुनिया के विचार और व्यवहार पर लागू करना होगा। आज हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिंदू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है लेकिन हर ऐसा हिंदू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित है, उन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्यान देगा जो पाँच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए। कोई हिंदू मुसलमानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और संपत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे। उदार और कट्टर हिंदू धर्म की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुँच गई है और संभव है कि उसका अंत भी नजदीक ही हो। कट्टरपंथी हिंदू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो, भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे न सिर्फ हिंदू-मुस्लिम दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रांतों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिंदू ही राज्य को कायम कर सकते हैं। अत: पाँच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई अब इस स्थिति में आ गई है कि एक राजनैतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिंदुस्तान के लोगों कीहस्ती ही इस बात पर निर्भर है कि हिंदू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो। धार्मिक और मानवीय सवाल आज मुख्यत: एक राजनैतिक सवाल है। हिंदू के सामने आज यही एक रास्ता है कि अपने दिमाग में क्रांति लाए या फिर गिर कर दब जाए। उसे मुसलमान और ईसाई बनना होगा और उन्हीं की तरह महसूस करना होगा। मैं हिंदू-मुस्लिम एकता की बात नहीं कर रहा क्योंकि वह एक राजनैतिक, सगठनात्मक या अधिक से अधिक सांस्कृतिक सवाल है। मैं मुसलमान और ईसाई के साथ हिंदू की रागात्मक एकता की बात कर रहा हूँ, धार्मिक विश्वास और व्यवहार में नहीं, बल्कि इस भावना में कि मैं वह हूँ। ऐसी रागात्मक एकता हासिल करना कठिन मालूम पड़ सकता है, या अक्सर एक तरफ हो सकता है और उसे हत्या और रक्तपात की पीड़ा सहनी पड़ सकती है। मैं यहाँ अमरीकी गृह-युद्ध की याद दिलाना चाहूँगा जिसमें चार लाख भाइयों ने भाइयों को मारा और छह लाख व्यक्ति मरे लेकिन जीत की घड़ी में अब्राहम लिंकन और अमरीका के लोगों ने उत्तरी और दक्षिणी भाइयों के बीच ऐसी ही रागात्मक एकता दिखाई। हिन्दुस्तान का भविष्य चाहे जैसा भी हो, हिंदू को अपने आप को पूरी तरह बदल कर मुसलमान के साथ ऐसी रागात्मक एकता हासिल करनी होगी। सारे जीवों और वस्तुओ की रागात्मक एकता में हिंदू का विश्वास भारतीय राज्य की राजनैतिक जरूरत भी है कि हिंदू मुलसमान के साथ एकता महसूस करे। इस रास्ते पर बड़ी रुकावटें और हारें हो सकती हैं, लेकिन हिंदू दिमाग को किस रास्ते पर चलना चाहिए, यह साफ है। कहा जा सकता है कि हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की इस लड़ाई को खत्म करने का सब से अच्छा तरीका यह है कि धर्म से ही लड़ा जाए। यह हो सकता है लेकिन रस्ता टेढ़ा है और कौन जाने कि चालाक हिंदू धर्म, विरोधियों को भी अपना एक अंग बना कर निगल न जाए। इसके अलावा कट्टरपंथियों को जो भी अच्छे समर्थक मिलते हैं, वह कम पढ़े-लिखे लोगों में और शहर में रहनेवालों में। गाँव के अनपढ़ लोगों में तत्काल चाहे जितना भी जोश आ जाए वे उसका स्थाई आधार नहीं बन सकते। सदियों की बुद्धि के कारण पढ़े-लिखे लोगों की तरह गाँववाले भी सहिष्णु होते हैं। कम्युनिज्म या फासिज्म जैसे लोकतंत्रविरोधी सिद्धांतों से ताकत पाने की खोज में, जो वर्ण और नेतृत्व के मिलते-जुलते विचारों पर आधारित हैं, हिंदू धर्म का कट्टरपंथी अंश भी धर्म-विरोधी का बाना पहन सकता है। अब समय है कि हिंदू सदियों से इकट्ठा हो रही गंदगी को अपने दिमाग से निकाल कर उसे साफ करे। जिंदगी की असलियतों और अपनी परम सत्य की चेतना, सगुण सत्य और निर्गुण सत्य के बीच उसे एक सच्चा और फलदायक रिश्ता कायम करना होगा। केवल इसी आधार पर वह वर्ण, स्त्री , संपत्ति और सहिष्णुता के सवालों पर हिंदू धर्म के कट्टरपंथी तत्वों को हमेशा के लिए जीत सकेगा जो इतने दिनों तक उसके विश्वासों को गंदा करते रहे हैं और उसके देश के इतिहास में बिखराव लाते रहे हैं। पीछे हटते समय हिंदू धर्म में कट्टरता अक्सर उदारता के अंदर छिप कर बैठ जाती है। ऐसा फिर न होने पाए। सवाल साफ हैं। समझौते से पुरानी गलतियाँ फिर दुहराई जाएँगी। इस भयानक युद्ध को अब खत्म करना ही होगा। भारत के दिमाग की एक नई कोशिश तब शुरू होगी जिसमें बौद्धिक रागात्मक से मेल होगा, जो विविधता में एकता को निष्क्रीय नहीं बल्कि, सशक्त सिद्धांत बनाएगी और जो सब कुछ लौकिक खुशियों को स्वीकार कर के भी सभी जीवों और वस्तुओं की एकता को नजर से ओझल न होने देगी।

(जुलाई, 1950)

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Wednesday, September 18, 2019

चम्पारण बगावत

लहू बोलता भी हैं -- सैय्यद शाहनवाज कादरी

चम्पारण बगावत

12 वी रेजिमेंट के सिपाही रंगी खान को 4 जून 1857 को होम्स ने फांसी पर लटका दिया | 23 जुलाई 1857 की शाम से चम्पारण जिले के सुगौली में घुड़सवार पलटन ने बगावत शुरू कर दिया | बागी सैनिको के साथ मेजर होम्स ने चूँकि बहुत जुल्म किये थे , इसलिए घुड़सवार रेजिमेंट के सिपाहियों ने होम्स को ठिकाने लगाने के लिए कसम खा ली थी | 23 जुलाई शाम को जब मेजर होम्स अपनी बीबी दी नासेल और दोस्त डा गार्नर्र के अलावा डाक्टर के लड़के और पोस्टमास्टर विनीट के साथ अपने घर पर चाय पी रहे थे , तभी बागी सिपाहियों ने अचानक हमला करके सभी अंग्रेजो को मौत के घाट उतार दिया | वहां मौजूद लोगो में सिर्फ होम्स की बेटी ही बच पायी थी | इस हमले में होम्स की बीबी उनके लड़के डा गार्नर और उनके लड़के के आलावा विनीट भी मारा गया | बागी सैनिक होंम्स का सर काटकर अपने साथ ले गये | होम्स और गार्नर के कत्ल के बाद अंग्रेज अफसर बौखला गये और बागी सैनिको को अलावा उनके घर खानदान और मददगारो को ठिकाने लगाने की तैयारी शुरू कर दिया
अंग्रेज अफसरों ने आसपास के अपने मददगार जमींदारों और राजाओं से मदद लेकर अपने घरवालो की कड़ी हिफाजत का बन्दोबस्त किया | सच तो यह है कि होम्स और गार्नर के कत्ल के बाद अंग्रेज डर गये थे और अपना डर छुपाने के लिए पुरे जिले में जानबूझकर आतंक फैला रहे थे | सरकार ने 30 जुलाई 1857 को पटना शाहाबाद , सारण , चम्पारण और तिरहुत में माशर्ल ला लगा दिया |
मेजर होम्स सहित दुसरे सभी अंग्रेज के कत्ल और विद्रोह के लिए घुड़सवार बटालियन को मुजरिम माना गया | कत्ल के बाद चले केस में समद खान नजीबुल्लाह ताम्बे खान , सूबेदार खान और दूसरी बटालियन कालपी के दुलाल खान की पहचान कर ली गयी | मगर इन सभी का ट्रायल होना ताल दिया गया | बाद में 27 अगस्त 1857 को मुरादाबाद के कमिश्नर जो स्पेशल मजिस्ट्रेट की ड्यूटी में थे के सामने ट्रायल हुआ और घुड़सवार बटालियन के इन पांच बागियों को फांसी पर लटका दिया गया |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Tuesday, September 17, 2019

गजब बनारस

गजब बनारस
जितनी निराली बनारस है .उतने निराले यहाँ के मकान भी .किस गली को किस मकान के अन्दर से पार करना है .वह तो बस बनारसी जान सकता है ।
बनारस के मकान
.....................बनारस के मकानों पर कुछ लिखने से पहले एक बात साफ़ कर देना चाहता हूँ | मेरा मकसद यह नही है की बनारस में कहा ,किस मुहल्ले में कितने किराए पर ,कौन -सा मकान या फ़्लैट खाली है अथवा बिकाऊ है ,इन सब बातो की रिपोर्ट पेश करू | काफी जोर -शोर के साथ अगर तलाश की जाए तो भगवान मिल जायेंगे ,पर नौकरी और मकान नही | आजकल इन बातो का ठेका अखबारों के विज्ञापन मैनजरो ने और हथुआ कोठी के रेंट कंट्रोलर साहब ने ले रखा है |आपके दिमाग में यह ख्याल पैदा हो गया हो की आपका भी बनारस में 'इक बंगला बने न्यारा ' और इस मामले में मैं आपकी मदद करूंगा (मसलन मकान बनवाने के नाम पर सरकार से किस प्रकार कर्ज लिया जा सकता है ,यह सब तिकड़म बताउंगा ) तो आप को गहरा धोखा होगा | मैं तो सिर्फ बनारस के मकानों का भूगोल और इतिहास बताउंगा |
अब आप शायद चौके की मकानों का भूगोल -इतिहास कैसा ? मकान माने मकान |चाहे वह बम्बई में हो या बनारस में | लेकिन दरअसल बात यह नही है | मकान माने महल भी हो सकता है और झोपड़ी भी हो सकती है | बम्बई में एक मकान अपने लिए जितनी जमीन घेरता है ,बनारस में उतनी जमीन में पचास मकान बन सकते है | यह बात अलग है की बम्बई के एक मकान की आबादी बनारस के पचास मकान के बराबर है | दूसरी जगह आप मकान देखकर मकान मालिक के बारे में अंदाजा लगा सकते है | मसलन वह बड़ा आदमी है ,सरकारी अफसर है ,दूकान दार है ,जमीदार है ,अथवा साधारण व्यवसायी है | लेकिन बनारस के मकानों की बनावट के आधार पर मकान -मालिक के बारे में कोई राय कायम करना जरा मुश्किल काम है | मान लीजिये आपने एक मकान देखा ,जिसमे मोटर रखने का गैरेज भी है | खामख्वाह यह ख्याल पैदा हो ही जाएगा की मकान मालिक बड़े शान से रहता है | रईस आदमी है |लेकिन जब आपकी उससे मुलाक़ात हुई तो नजर आया ,गलियों में 'रामदाना के लडुवा,पइसा में चार ' की चलती फिरती दूकान खोले है | राह चलते की शक्ल देखकर आपने नाक सिकोड़ ली ,पर वही आदमी शहर का सबसे सज्जन और कई मकानों का मालिक निकला | इसके विरुद्ध टैक्सी पर चलने वाले सफारी का सूट पहने सज्जन खपरैल के मकान में किराए पर रहते मिलेंगे | बनारस में अन्नपूर्णा मन्दिर की बगल में राममंदिर के निर्माता श्री पुरुषोत्तम दास खत्री जब बाहर निकलते थे तब उनके एक पैर में बूट और दूसरे में चप्पल रहता था | बाहर से भव्य दिखने वाला महल भीतर से खंडहर हो सकता है और बाहर से कण्डम दिखने वाला मकान भीतर महल भी हो सकता है | इसीलिए बनारस के मकानों का भूगोल -इतिहास जानना जरूरी है |
भूगोल ........................
अगर आपने आगरे का स्टेशन बाजार ,लाहौर का अनारकली ,बम्बई का मलाड ,कानपुर का कलक्टरगंज ,लखनऊ का चौक ,इलाहाबाद का दारागंज ,कलकत्ते का नीमतल्ला घाट और पुरानी दिल्ली देखा है तो समझ लीजिये उनकी खिचड़ी बनारस में है | हर माडल के ,हर रंग के और ज्युमेट्री के हर अंश -कोण के मकान यहा है | बनारस धर्मिक दृष्टि से और एतिहासिक दृष्टि से दो भागो में बटा हुआ है |धार्मिक दृष्टि से केदार खंड ,विश्वनाथ खंड और एतिहासिक दृष्टि से भीतरी महाल और भरी अलंग | प्राचीन काल में लोग गंगा किनारे बसना अधिक पसंद करते थे ताकि टप से गंगा में गोता लगाया और खट से घर के भीतर |सुरक्षा -की सुरक्षा और पुन्य मुनाफे में |नतीजा यह हुआ की गंगा किनारे आबादी घनी हो गयी | आज तो हालत यह है की भीतरी महाल शहर का नग न होकर पूरा तिलस्म -सा बन गया है |बहुत मुमकिन है 'चन्द्रकान्ता ' उपन्यास के रचयिता बाबू देवकीनंदन खत्री को भीतरी महाल के तिलस्मो से ही प्रेरणा मिली हो | काश !उन दिनों इम्प्रुमेंट ट्रस्ट होता ,तो हमारे बाप -दादे मकान बनवाने के नाम पर हमारे लिए तिलस्म न बनाते | छड़ी सडको को तंग गलियों का रूप न देते | यदि इम्प्रुमेंट ट्रस्ट जैसी संस्था उन दिनों बनारस में होती तो संभव था बनारस लन्दन या न्यूयार्क जैसा न सही ,मास्को अथवा मेलबोर्न जरुर बन जाता |बुजुर्गो का कहना है की काशी की तंग गलिया और ऊँचे मकान मैत्री भावना के प्रतीक है |भूत-प्रेत की नगरी में लोग पास -पास बसना अधिक पसंद करते थे ताकि वक्त जरूरत पर एक दूसरे की मदद कर सके | मसलन ,आज किसी के घर आटा नही है तो पडोस से हाथ बदाकर माँग लिया ,रुपया उधार माँग लिया ,नया पकवान बना है तो कटोरे में रखकर पडोसी को दे दिया ,कोई सामान मंगनी में मांगना हुआ अथवा सूने घर का केलापन दूर करने के लिए अपने -अपने घर में बैठे -बैठे गप्प लडाने की सुविधा की दृष्टि से भीतरी महाल के मकान बनाये गये है | इससे लाभ यह होता है की चार -पांच मंजिल नीचे न उतरकर सब काम हाथ बढाकर सम्पन्न कर लिए जाते है | कही -कही पड़ोसियों का आपस में इतना प्रेम बढ़ गया की गली के उपर पुल बनाकर आने -जाने का मार्ग भी बना लिया गया है | यही वजह है की भीतरी महाल के मकानों में चोरी की घटनाए नही होती | इस इलाके में रहना गर्व की बात मानी जाती है | बनारस के अधिकाश:रईस -सेठ और महाजन इधर ही रहते है | बाकी कुली - कबाड़ी और उच्क्को के लिए बाहरी अलंग है | लेकिन जब से बनारस की सीमा वरुणा -असी की सीमा को तोडकर आगे बढ़ गयी है | भले ही गर्मी में शिमले का मजा मिले ,पर आधुनिक युग के लोग उधर रहना पसंद नही करते |
इसका मुख्य कारण है यातायात के साधनों में कमी | आधी रात को आपके यहा बाहर से कोई मेहमान आये अथवा सपत्नी बाढ़ बजे रात -गाडी से सफर के लिए जाना चाहे तो बक्सा बीवी के सर पर और बिस्तर स्वंय पीठ पर रखकर सडक तक आइये ,तब कही रिक्शा मिलेगा | भीतरी महाल में रात को कौन कहे ,दिन में भी कुली नही मिलते | गलिया इतनी तंग है की कोई भी गाडी भीतर नही जाती |दुर्भाग्यवश आग लगने अथवा मकान गिरने की दुर्घटना होने पर तत्काल सहायता नही मिलती | हाँ ,यह बात अलग है की मरीज दिखाने के लिए डाक्टरों को ले जाने में सवारी का खर्च नही देना पड़ता |जिस प्रकार एक ही शक्ल के दो आदमी नही मिलते ,ठीक उसी प्रकार बनारस के दो मकान एक ढंग के नही है | कोई छ: मंजिला है तो उसकी बगल एक मंजिला मकान भी है | किसी मकान में काफी बरामदे है तो किसी में एक भी नही है | भीतरी महाल के मकानों का निचला हिस्सा सीलन ,अन्धकार और गंदगी से भरा रहता है पुराने जमाने में बाप -दादों के पास धुआधार पैसा रहा ,औलाद के लिए एक महल बनवा गये | बेचारे औलाद की हालत यह है की राशन की दूकान में गेंहू तौल रहा है | उसे इतनी कम तनख्वाह मिलती है की मरम्मत कराना तू दूर रहा दीपावली पर पूरे मकान की सफेदी तक नही करा पाता |
बनारस में छोटे -बड़े सभी किस्म के म्कान्दारो की इज्जत एक -सी है | कोई बड़ा मकान वाला छोटे मकान वाले की ओर उपेक्षा की दृष्टि से नही देखता | यहा तक की बड़े मकान में रहने वाले अपने मकान से पड़ोस के छोटे मकान झाकर कुछ नही देख सकते | अगर आपने ऐसी गलती की तो दूसरे दिन पूरा परिवार लाठी लेकर आपके दरवाजे पर आ डटेगा ,और सबसे पहले तो शब्दकोश के तमाम शब्दों के द्वारा आपका स्वागत करेगा | अगर आप ताव में आकर बाहर चले आये तो खैरियत नही | इसके बाद भले ही आप 100 पर फोन कीजिये ,थाने में रिपोर्ट लिखवाइए और दावा कीजिये | छोटे मकान -मालिको की इस हरकत से आज -कल लोगो ने उंचा मकान बनवाना छोड़ दिया है | बनारस में दुसरो के मकान में झाकना शराफत के खिलाफ काम समझा जाता है | एक कानून है --हक सफा | अन्य शहरों में यह कानून लागू है या नही ,यह तो नही मालूम ,पर बनारस में इस कानून के जरिये कमजोर पडोसी को परेशान किया जा सकता है | अगर कोई कमान बेच रहा है तो उसे अपने पीछे ,अगल बगल तीनो को इत्त्लाक्र उनसे सलाह लेकर बेचना होगा | वह चुपचाप यह काम नही कर सकता अन्यथा अडगा लगा देने पर वह मकान किसी भी कीमत में नही बिक सकता ...............................इतिहास
काशी के प्राचीन इतिहास से पता चलता है की काशी पहले वरुणा नदी के तट पर थी | इसका निरिक्षण फाह्यान ,हेनच्यांग और अलबैहाकी तक कर गये है | काशी कितना प्राचीन है ,यह तो राम जाने | लेकिन यहा का प्रत्येक मुहल्ला इतिहास से सम्बन्धित है और प्रत्येक मकान ऐतिहासिक है | इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है की सरकार ने जिन मकानों को महत्वपूर्ण समझा है उनके लिए आदेश दिया है की वे मकान गिरने न पावे ,अगल -बगल ,इधर -उधर चारो तरफ से चांड लगाकर उन्हें गिरने से रोका जाए | आज अधिकाश मकान इस हुकम के कारण अपनी जगह पर खड़े है , उन्हें गिरने से रोका जाए | बनारस के दस प्रतिशत मकान जिन्हें नीद आ रही थी ,चांड लगवाने के कारण सुरक्षित है | कुछ भाई लोगो के मकान इस किस्म के है की अगर उनके तीनो तरफ का मकान गिर जाए तो उनका मकान नगा हो जाएगा | कहने का मतलब पडोसी के मकान से ही भाई साहब अपना काम चला लेते है और उनके दबाव में इनके मकान का लिफाफा खड़ा है | बनारस का प्रत्येक मुहल्ला ऐतिहासिक है | मसलन जब दाराशोख यहा पढने आया था तब जहा ठहरा उसका नाम दारानगर हो गया | औरंगजेब आया तो औरंगाबाद बसा गया | नबाब सआदतअली खा बनारस में आकर जहा ठहरे उस स्थान का नाम नबाबगंज हो गया | बुल्ला सिंह डाकू के नाम पर बुलानाला महाल बस गया | मानमंदिर ,मीरघाट ,राजघाट और तुलसीघाट के बारे में सभी जानते है | डाक्टर सम्पूर्णानन्द के मतानुसार अगस्तकुंडा में महामुनि अगस्त्य रहते थे | इस प्रकार देखा जाए तो बनारस का प्रत्येक स्थान पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व रखता है | चेतगंज मुहल्ला चेतसिंह के नाम पर बसा तब जगतसिंह को अपने नाम पर मुहल्ला बसाने की सूझी | नतीजा यह हुआ की सारनाथ के धर्मराजिक स्तूप को उखाडकर उन्होंने जगतगंज मुहल्ला बसा डाला |कुछ लोग कहते है ,इसे जगतसिंह ने नही बसाया है ,वे सिर्फ यहा रहते थे |यह मुहल्ला तो बौद्धकालीन वाराणसी की बस्ती है | अब इसका ठीक-ठीक निर्णय तभी हो सकता है जब जगतगंज को खुदवाकर उसकी जांच पुरातत्व वाले करे | बनारस में तीन किस्म के मकान बने है |पथ्थर के बने मकान बौद्धकाल के बाद के है; लखवरिया ईटोवाले मकान बौद्ध युग के पूर्व से मुगलकाल तक के है |नमबरिया ईटो के बने मकान ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर 14अगस्त सन 1947 ई. तक बने है | आजकल नमबरिया ईटो की साइज नौ गुणा साढ़े चार इंच की हो गयी है | इस साइज की ईटो के बने मकान कांग्रेसी शासनकाल के है | यद्यपि काशी में मुहल्ले और मकान काफी है ,पर हवेली साढ़े तीन ही है | महल कई है | हवेलियों में देवकीनंदन की हवेली ,काठ कि ह्वेली ,कश्मीरीमल की हवेली और विश्वम्भरदास की हवेली काशी में प्रसिद्ध है | इनमे आधी हवेली कौन है ,इसका निर्णय आजतक नही हुआ | पांडे हवेली को हवेली क्यों नही माना जाता ,यह बताना मुश्किल है ,जब की इस नाम से भी एक मुहल्ला बसा हुआ है | यदि आपको भ्रमण का शौक है और पैसे या समय के अभाव से समूचा हिन्दुस्तान देखने में असमर्थ है तो मेरा कहना मानिए ,सीधे बनारस चले आइये | यहा हिन्दुस्तान के सारे प्रांत मुहल्ले के रूप में आबाद है |हिन्दुओं के तैतीस करोड़ देवता काशी वास करते मिलेंगे ,गंगा उत्तर वाहिनी है ,तिलस्मी मुहल्ला है ,ऐतिहासिक मकान है और जो कुछ यहा है ,वह दुनिया के सात पर्दे में कही नही है | बनारस दर्शन से भारत दर्शन हो जाएगा | यहा एक से एक दिग्गज विद्वान् और प्रकांड पंडित है |प्रत्येक प्रांत का अपना -अपना मुहल्ला भी है | बंगालियों का बंगाली टोला ,मद्रासियो तथा दक्षिण भारतीयों का हनुमान घाट ,केदार घाट पंजाबियों का लाहोरिटोला,गुजरातियों का सुतटोला , मारवाड़ियो की नंदनसाहू गली ,कन्नडियो का अगस्तकुंडा ,नेपालियों का बिन्दुमाधव,ठाकुरों का भोजुवीर ,राजपूताने के ब्राह्मणों की रानीभवानी गली ,सिंधियो का लाला लाजपतराय नगर ,मराठियों का दुर्गाघाट,बालाघाट ,मुसलमानों का मदनपुरा अलईपूर ,लल्लापुर और काबुलियो का नयी सडक -बेनिया मुहल्ला प्रसिद्ध है |इसके अलावा चीनी ,जापानी ,सिहली ,फ्रांसीसी ,भूटानी ,अंग्रेज और अमेरिकन भी यहा रहते है | सारनाथ में बौद्धों की बस्ती है तो रेवड़ी तालाब पर हरिजनों की |व्यवसाय के नाम पर भी अनेक मुहल्ले आबाद है |
बनारस की चौपाटी
काशी को दुनिया से न्यारी कहा जाता है और यह सारा 'न्यारापन ' बनारसी चौपाटी -दशाश्वमेध घाट पर खीच आया है ,यह निस्संदेह कहा जा सकता है |
जो बम्बई की चौपाटी की चाट खा आये है ,उन्हें दशाश्वमेध घाट की चौपाटी कहते ज़रा झिझक होती है |ऐसे लोगो को असली बनारसी 'गदाई ' के विशेषण से युक्त करने में कभी कोई संकोच नही होगा |किसी बनारसी को अगर बम्बई में छोड़ दिया जाए तो वह अपने को 'पागल 'समझने को विवश हो जाएगा बस कुछ ही दिनों में | बम्बई में पाश्चात्य चमक भले ही हो ,पर भारतीयता की झलक तो अपने बनारस में ही मिलती है| खैर | यह निश्चित मन से स्वीकारा जा सकता है की बम्बई की चौपाटी का दशाश्वमेध घाट से कोई मुकाबला नही | एक में बाजारू सौन्दर्य है तो दूसरे में शाश्वत |
मुलाहजा फरमाइए ---
सुबह होते ही ,घाट पर मालिश का बाजार गरम हो जाता है | बनारसी के लिए स्नान के पूर्व मालिश का वही महत्व है ,जो आधुनिको के लिए स्नो करीम -पाउडर का | एक रुपया की दक्षिणा में कपड़ो की चौकीदारी ,स्नानोपरांत आईने -कघी की व्यवस्था से लेकर तिलक लगाने तक की सेवा आप यहा उपस्थित घाटिये से ले सकते है | ब्राह्मण का आशीर्वाद फ़ोकट में मिल जाएगा | जरा सामने निगाह उठाइये तो गंगा की छाती पर धीरे -धीरे उस पार की ओर सरकती नौकाये आपका ध्यान तुरंत आकर्षित कर लेंगी | बनारस के 'गुरु 'और रईस शहर में भले मॉल -त्यागना अपराध समझते है ,सो उस पार निछ्द्द्म में निपटान को जाते हुए बनारसी की दिव्य छटा से आपकी आत्मा तृप्त हो जायेगी | ये निपटान -नौकाये ,अधिकतर पर्सनल होती है और इनका दर्शन शाम को भी किया जा सकता है | स्नानार्थियो में कम -से कम सत्तर परसेंट महिलाये होती है ,इसलिए कुछ बीमार किस्म के 'आँख -सकते 'भी दिखाई पड़ेंगे | बनारस की महिलाये जरा मर्दानी किस्म की होती है ,सो ऐसे बीमारों की कत्तई परवाह नही करती | अस्सी और वरुणा -संगम के मध्य में होने के कारण यहा से सम्पूर्ण बनारस की परिक्रमा आप कर सकते है ,इसलिए की काशी का 'रस 'यहा के घाटो में ही सन्निहित है | अब घाट से उपर आइये और देखिये की बनारस कितना कंगाल है ---सडक पर अपनी गृहस्थी जमाए भिखमंगो को देखकर स्वाभाविक है की बनारस के प्रति आपका आइडिया खराब हो जाए , यह अनभिज्ञता और भ्रम का परिणाम है |काशी के भिखमंगो की माली हालत आफिस में कलम रगड़ने वाले सफ़ेद पोश बाबुओं से उन्नीस नही होती | मरने के बाद उनके लावारिस गुदड़ के अन्दर से सरकार को अच्छी -खासी आमदनी हो जाती है | एक बार चितरंजन पार्क के पास एक बूढी भिखारिन जब मरी तब उसके गुदड़ से सात सौ अठ्ठासी रूपये साधे तेरह आने की मोती रकम प्राप्त हुई थी | मेरे कहने का यह मतलब नही की आप उन्हें 'छिपा रईस ' समझ कर उनका जायज हक़ हड़प कर ले | भीख माँगा उनका पेशा है और पेशे का सम्मान करना आपका धर्म है |
शाम को इस बनारसी चौपाटी का वास्तविक सौन्दर्य दिख पड़ता है | कराची की फैश्नप्र्स्ती ,लाहौर की शोखी ,बंगाल की कलाप्रियता ,मद्रास की शालीनता ,गुजरात -महाराष्ट्र सब उमड़ पड़ता है यद्यपि दशाश्वमेध का क्षेत्र बहुत ही सीमित है तथापि गागर में सागर का समा जाना आप खूब अनुभव कर लेंगे | विश्वनाथ गलिवाली नुक्कड़ से सिलसिलेवार स्थित तीन रेस्तरा आपको सर्वाधिक आकर्षित करेंगे | उनके अनुचर मोची से लेकर श्रीमान तक को बिना किसी भेदभाव के भाईसाहब ,चचा ,दादा ,और बहन जी आदि पुनीत संबोधनों से निहाल कर देंगे :भले ही आपकी जेब में एक कप चाय तक की कीमत न हो |उपयुक्त तीनो जलपान घरो का ऐतिहासिक महत्व है | बनारस के इकन्नी ब्रांड से लेकर रूपये ब्रांड तक के साहित्यकार ,शाम को इन्हें अपने आगमन से पवित्र करना अपना कर्तव्य समझते है |थोड़ा प्रयत्न करे तो घाट के किसी अँधेरे कोने में साहित्यकारों की मण्डली किसी गम्भीर साहित्य की समस्या में उलझी मिल जायेगी | यो काशी का ऐसा कोई साहित्यकार आपको नही मिलेगा जो दशाश्वमेध में न जमता हो | अनेक साहित्यक वादों का प्रसार और उनके आपरेशन का थियेटर भी दशाश्वमेध ही है | अधिकतर साहित्य की गोष्ठिया भी यही आयोजित होती है घाट पर शाम को धर्मो की जो धारा लहराती है ,वह अन्यत्र दुर्लभ ही है | कथावाचक रामायण ,महाभारत ,चैतन्य चरितावली ,भागवत आदि की पुनीत कथा से वातावरण को गमका देते है |
इस स्थान की प्रशंसा भारतीयों ने की ही है ,दूसरे देशवालो ने भी इसका गुणगान किया है | प्रसिद्ध पर्यटक श्री जे.बी .एस .हाल्डेन की पत्नी ने कहा है की मुझे यह जगह न्यूयार्क से अच्छी लगती है | एक रुसी पर्यटक ने इसे पेरिस से सुन्दर नगरी कहा है | विश्व स्वास्थ्य संघ के एक अधिकारी ने इसे सारे जहा से अच्छा स्थल माना है | मेरे एक मित्र ,जो लन्दन गये हुए है ,उन्होंने जब स्वेज नहर का दृश्य देखा तब उन्हें बनारस के घाटो के दृश्य याद आ गये | प्राचीन काल में दशाश्वमेध का नाम 'रूपसरोवर 'था | इसके बगल में घोड़ा घाट है | पहले इसका नाम गऊघाट था | काशी की गाये यहा पानी पीने आती थी | गोदावरी -गंगा का संगम -स्थल आज घोड़ाघाट बन गया है | त्रेता युग में दिवोदास ने यहा दस अश्वमेध यज्ञ करवाए थे ,तभी से इस स्थान का नाम दशाश्वमेध घाट हो गया है | आज भी उपर द्शाश्व्मेधेश्वर की मूर्ति है | शायद ही ऐसी कोई राजनितिक पार्टी होगी जिसकी सभा इस घाट पर न हुई हो |खासकर सन 42 के आन्दोलन के पूर्व सभी उपद्रव इसी घाट से प्रारम्भ किए जाते थे | शहर का प्रत्येक जलूस इसी स्थान से सज -धजकर चलता है | शहर की सबसे बड़ी सत्ती (तरकारी बाजार )यही है और महामना मालवीय ने हरिजन -शुद्धि का आन्दोलन इसी घाट से प्रारम्भ किया था | अब प्रदेश के मुखिया की कृपा से इस घाट का पुननिर्माण शुरू हुआ है | निर्माण करे समाप्त हो जाने पर यह निश्चित है की यह स्थान काशी का सर्वाधिक आकर्षक केद्र्स्थल बन जाएगा | बम्बइया चौपाटी को मात देने के लिए उत्तर प्रदेशीय सरकार ने भी एक मार्व्लेस प्लान तैयार करने का निश्चय किया है | राजघाट -सारनाथ सडक के पुल के फाटक बंद करके वरुणा नदी से विशाल ज्झिल निर्मित होगी |शांत वातावरण में इस झील में जल- विहार कितना मनोरम होगा अनुमान ही मन में स्फुरण भर देता है |
बनारस की सीढ़िया
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रांड ,सांड ,सीढ़ी ,सन्यासी |
इनसे बचे तो सेवे काशी ||
पता नही ,कब किस दिलजले ने इस कहावत को जन्म दिया की काशी की यह कहावत अपवाद के रूप में प्रचलित हो गयी | इस कहावत ने काशी की सारी महिमा पर पानी फेर दिया | मुमकिन है की उस दिलजले का इन चारो से कभी वास्ता पडा हो और काफी कटु अनुभव हुआ हो | खैर जो हो , पर सत्य है की काशी आनेवालों का इन चारो से परिचय हो ही जाता है | फिर भी आश्चर्य का विषय यह है की काशी आनेवालों की संख्या बढती जा रही है और जो एक बार यहा आ बसता है ,मरने के पहले टलने का नाम नही लेता ,जबकि पैदा होने वालो से कही अधिक श्मशान में मुर्दे जलाए जाते है | यह भी एक रहस्य है |
इन चारो में सीढ़ी के अलावा बाकी सभी सजीव प्राणी है | बेचारी सीढ़ी को इस कहावत में क्यों घसीटा गया है ,समझ में नही आता| यह सत्य है की बनारस की सीढ़िया (चाहे वे मन्दिर ,मस्जिद ,गिजाघर अथवा घर या घाट -किसी की क्यों न हो ) कम खतरनाक नही है ,लेकिन यहा की सीढियों में दर्शन और आध्यात्म की भावना छिपी हुई है | ये आपको जीने का सलीका और जिन्दगी से मुहब्बत करने का पैगाम सुनाती है | अब सवाल है की कैसे ? आँख मूंदकर काम करने का क्या नतीजा होता है ,अगर आपने कभी ऐसी गलती की है ,तो आप स्वंय समझ सकते है | सीढ़िया आपको यह बताती रहती है की आप नीचे की जमीन देखकर चलिए ,दार्शनिको की तरह आसमान मत देखिये ,वरना एक अरसे तक आसमान मैं दिखा दूंगी अथवा कजा आई है -जानकर सीधे शिवलोक भिजवा दूंगी | काशी की सीढ़िया चाहे कही की क्यों न हो ,न तो एक नाव की है और न उनकी कोई बनावट में कोई समानता है ,न उनके पथ्थर एक ढंग के है ,न उनकी उंचाई -निचाई एक सी है ,अर्थात हर सीढ़ी हर ढंग की है | जैसे हर इंसान की शक्ल जुदा -जुदा है ,ठीक उसी प्रकार यहा की सीढ़िया जुदा -जुदा ढंग से बनाई गयी है | काशी की सीढियों की यही सबसे बड़ी खूबी है | अब आप मान लीजिये सीढ़ी उपर है ,नीचे तक गौर से सारी सीढ़िया आपने देख ली और एक नाप से कदम फेकते हुए चल पड़े ,पर तीसरी पर जहा अनुमान से आपका पैर पढ़ना चाहिए नही पडा ,बल्कि चौथी पर पड़ गया | आगे आप ज़रा सावधानी से चलने लगे तो आठवी सीढ़ी अंदाज से कही अधिक नीची है ,ऐसा अनुभव हुआ | अगर उस झटके से अपने को बचा सके तो गनीमत है ,वरना कुछ दिनों के लिए अस्पताल में दाखिल होना पडेगा | अब आप और भी सावधानी से आगे बड़े तो बीसवी सीढ़ी पर आपका पैर न गिरकर स्थ पर ही पड़ जाता है और आपका अंदाजा चुक जाता है | गौर से देखने पर आपने देखा यह सीढ़ी नही है चौड़ा फर्श है |
खतरनाक सीढ़िया क्यों ?
अब सवाल यह है की आखिर बनारस वालो ने अपने मकान में ,मन्दिर में ,या अन्य जगह ऐसी खतरनाक सीढ़िया क्यों बनवाई ?इसमें क्या तुक है ? तो इसके लिए आपको जरा काशी का इतिहास उलटना होगा | बनारस जो पहले सारनाथ के पास था ,खिसकते -खिसकते आज यहा आ गया है | यह कैसे खिसककर आ गया ,यहा इस पर गौर करना नही है | लेकिन बनारस वालो में एक ख़ास आदत है ,वह यह की वे अधिक फैलाव में बसना नही चाहते ,फिर गंगा ,विश्वनाथ मन्दिर और बाजार के निकट रहना चाहते है | जब भी चाहा दन से गंगा में गोता मारा और उपर घर चले आये | बाजार से सामान खरीदा ,विश्वनाथ -दर्शन किया ,चटघर के भीतर | फलस्वरूप गंगा के किनारे -किनारे घनी आबादी बस्ती गयी | जगह संकुचित ,पर धूप खाने तथा गंगा की बहार लेने और पड़ोसियों की बराबरी में तीन -चार मंजिल मकान बनाना भी जरूरी है | अगर सारी जमीन सीढ़िया ही खा जायेगी तो मकान में रहने की जगह खा रहेगी ? फलस्वरूप ऊँची -नीची जैसे पथ्थर की पटिया मिली , फिट कर दी गयी -लीजिये भैया जी की हवेली तैयार हो गयी | चूँकि बनारसी सीढियों पर चढने -उतरने के आदि हो गये है ,इसलिए उनके लिए ये खतरनाक नही है ,पर मेहमानों तथा बाहरी अतिथियों के लिए यह आवश्यक है |
........................................काशी के घाट
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विश्व की आश्चर्य वस्तुओं में बनारस के घाटो को क्यों नही शामिल किया गया -- पता नही ,जब की दो मील लम्बे पक्तिवार घाट विश्व में किसी नदी -तट पर कही नही है | ये घाट केवल बाढ़ से बनारस की रक्षा नही करते ,बल्कि काशी के प्रमुख आकर्षण केंद्र है | जैन ग्रंथो के अध्ययन से पता चलता है की प्राचीन काल में काशी के घाटो के किनारे -किनारे चौड़ी सड़के थी ,यहा बाजार लगते थे | वर्तमान घाटो की निर्माण -कला देखकर आज भी विदेशी इंजीनियर यह कहते है की साधारण बुद्धि से इसे नही बनाया गया है | रामनगर ,शिवाला ,दशाश्वमेध ,पंचगंगा ,और राजघाट का निर्माण पानी के तोड़ को दृष्टि में रखते हुए किया गया है ताकि रामनगर तट से धक्का खाकर शिवाला में नदी का पानी टकराए ,फिर वह से दशाश्वमेध से मोर्चा ले ,पंचगंगा और अन्त में राजघाट से टक्कर ले और फिर सीढ़ी राह ले | इस कौशलपूर्ण निर्माण का एक मात्र श्रेय राजा बलवंत सिंह को है ,जिन्होंने अपने समकालीन राजाओं की सहायता से बनारस को बाधो से मुक्ति दिला दी ,अन्यथा अन्य शहरों की तरह बनारस को भी बाढ़ बहा ले जाती |
घाटो की सीढियों की उपयोगिता
सीढियों का दृश्य काशी के घाटो में ही देखने को मिलता है चूँकि काशी नगरी गंगा की स्थल से काफी ऊँचे धरातल पर बसी है इसलिए यहा सीढियों की बस्ती है | काशी के घाटो को आपने देखा होगा ,उन पर टहले भी होंगे | लेकिन क्या आप बता सकते है की केदारघाट पर कितनी सीढ़िया ?
सिंधिया घाट पर कितनी सीढिया है ? शिवाले से त्रिलोचन तक कितनी बुर्जिया है ? साफालाने लायक कौन सा घाट अच्छा है ? आप कहेंगे की यह बेकार का सरदर्द कौन मोल ले |
लेकिन जनाब ,हरिभजन से लेकर बीडी बनाने वालो की आमसभा इन्ही घाटो पर होती है | हजारो गुरु लोग इन घाटो पर साफा लगाते है ,यहा कवि- सम्मलेन होते है ,गोष्ठिया करते है ,धर्मप्राण व्यक्ति सराटा से माला फेरते है ,पण्डे धोती की रखवाली करते है ,तीर्थयात्री अपने चदवे साफ़ करवाते है | यहा भिखमंगो की दुनिया आबाद रहती है और सबसे मजेदार बात यह है की घर के उन निकलुओं को भी ये घाट अपने यहा शरण देते है ,जिनके दरवाजे आधीरात को नही खुलते | ये घाट की सीढिया बनारस का विश्रामगृहहै ,झा सोने पर पुलिस चालान नही करेगी | नगरपालिका टैक्स नही लेगी और न कोई आपको छेड़ेगा | ऐसी है बनारस की सीढिया |
सुनील दत्ता ......................भार विश्वनाथ मुखर्जी '' बना रहे बनारस से ""