Saturday, March 28, 2015

एक मुलाक़ात छोटी बहन आशा पाण्डे ओझा --- सिरोही --------- 28-3-15

बड़ा दादाभाई बनकर गया था - बड़ा बेटा बनकर लौटा हूँ ---------------- सुनील दत्ता
एक परिचय -----------
आशा पाण्डे ओझा ----- शिक्षा - एम् . ए ( हिंदी साहित्य ) एलएलबी
प्रकाशित कृतियाँ --- '' दो बूंद समुद्र के नाम '' एक कोशिश रोशनी की ओर '' ( काव्य ) '' विश्व कविता '' त्रिसुगधि '' का सम्पादन '' ज़र्रे-ज़र्रे में वो है ''
प्रकाशन में -- वक़्त की शाख से ( काव्य ) पाँखी ( हाइकु ) देश के विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं व ई - पत्रिकाओं में कविताएं , मुक्तक , ग़ज़ल , कतआत , दोहा ,हाइकु , कहानी , आलेख , निबन्ध , व्यंग्य एवं शोधपत्र निरंतर प्रकाशित
सम्मान - पुरूस्कार -------
कवि तेज पुरस्कार जैसलमेर ,राजकुमारी रत्नावती पुरस्कार जैसलमेर ,महाराजा कृष्णचन्द्र जैन स्मृति सम्मान एवं पुरस्कार पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग (मेघालय ) साहित्य साधना समिति पाली एवं राजस्थान साहित्यअकादमी उदयपुर द्वारा अभिनंदन ,वीर दुर्गादास राठौड़ साहित्य सम्मानजोधपुर ,पांचवे अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन ताशकंद में सहभागिताएवं सृजन श्री सम्मान ,प्रेस मित्र क्लब बीकानेर राजस्थान द्वारा अभिनंदन,मारवाड़ी युवा मंच श्रीगंगानगर राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,साहित्य श्रीसम्मान संत कवि सुंदरदास राष्ट्रीय सम्मान समारोह समिति भीलवाड़ा राजस्थान ,सरस्वती सिंह स्मृति सम्मान पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग मेघालय ,अंतराष्ट्रीय साहित्यकला मंच मुरादाबाद के सत्ताईसवें अंतराष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन काठमांडू नेपाल में सहभागिता एवं हरिशंकर पाण्डेय साहित्य भूषण सम्मान ,राजस्थान साहित्यकार परिषद कांकरोली राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,श्री नर्मदेश्वर सन्यास आश्रम परमार्थ ट्रस्ट एवं सर्व धर्म मैत्री संघ अजमेर राजस्थान के संयुक्त तत्वावधान में अभी अभिनंदन ,राष्ट्रीय साहित्य कला एवं संस्कृति परिषद् हल्दीघाटी द्वारा काव्य शिरोमणि सम्मान ,राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुरएवं साहित्य साधना समिति पाली राजस्थान द्वारा पुन: सितम्बर 2013 में अभिनंदन
रूचि :लेखन,पठन,फोटोग्राफी,पेंटिंग,पर्यटन स्वतंत्र लेखन
रंगों और मिटटी से आकृति गढने वाली शिल्पी साथ ही कागज के कैनवास पर शब्दों की अभिव्यक्तियां , कविता हो कहानी या एक ऐसी गृहणी जिसमे सारे वो गुण भरे है | मेरी छोटी क्या खाना बनाती है उसके हाथ से बने व्यंजन अपने जीवन में पहली बार खाये। सारे राजस्थानी व्यंजन ख़ास तौर से हल्दी की बनी सब्जी हो देशी घी में डूबे गुड की छोटी - छोटी डली के साथ बाजरे की रोटी का मिश्रण वो स्वाद कभी भूला नही जा सकता इसके साथ ही माँ के मातृत्व भरा साअधिकार भइया इसको भी खाओ उसको भी लो आंवले की सब्जी और करेला की सब्जी उसकी बात ही क्या ऐसे सर्वगुण सम्पन्न छोटी बहन का प्यार और स्नेह मिलना मेरे लिए सौभाग्य है मैं यह कह सकता हूँ ऐसी छोटी बहन की कल्पना बचपन से रही है कुदरत ने इसे सार्थक कर दिया मैं आशा का बिग बी हूँ यह मेरा सौभाग्य है ---- अपनी छोटी की दृश्य रचनाशीलता देखा क्या कैमरा चलाती है सच में हमारे बहनोई श्री जितेन्द्र पाण्डे भाग्शाली है वो भी बहुत ही प्यारे इंसान है धीर - गंभीर और चिन्तनशील व्यक्तित्व उनसे भी मिलना अपने आप में सौभाग्य है |
अपनी छोटी का एक परिचय -----
उपन्यास , कविता चित्रकला छायाचित्र कला के साथ अनेको विषय पर बात किया उसके कुछ अंश आपको साझा कर रहा हूँ |
अपनी छोटी बहन से कुछ बातो पर चर्चा की ---
सुनील दत्ता --- साहित्य में रूचि कब से हुई - किन - किन विधाओं पर दखल है पहली कविता ---------------- कहानी कब लिखी ?
आशा पाण्डे ओझा -------- कक्षा 9th से ही अपने स्कूल के पुस्तकालय से किताबे लेकर पढ़ना शुरू कर दिया था | जहा तक साहित्य के विधाओं में दखल की बात है , कहानी आलेख , हाइकू,दोहा , ग़ज़ल - नज़्म कविता इन सब पर समान रूप से कार्य कर रही हूँ | पहली कविता में '' दहेज का दैत्य '' और पहली कहानी '' बेबस बुढापा लिखी '' |
सुनील दत्ता -- साहित्य क्या है ?
आशा पाण्डे ओझा --- वर्तमान सामाजिक संक्रमण में साहित्य एक प्रकार की प्रति जैविक औषधि का कार्य करती है |
सुनील दत्ता ---- लेखन के साथ मिट्टी कब गढ़ने लगी ?
आशा पाण्डे ओझा ---- बचपन से ही मेरे अन्दर कुछ चल रहा था मुझे कोई स्वंय प्रेरणा दे रहा था और मेरी उंगलियां स्वत: ही मिटटी से खेलने लगी मैं सेरेमिक वर्क , क्ले पाउडर , पेंटिंग्स , टेराकोटा , पाटरी एवं वेस्ट मैटिरियल से आर्ट एवं क्राफ्ट में काम शुरू कर दिया | अपने इस शौक को अपने तक ही सिमित नहीं रखा बल्कि अलग अलग शेरोन गांवों में जहाँ जहाँ पतिदेव की पोस्टिंग रही बच्चियों महिलाओं को नि:शुल्क सिखाया भी
सुनील दत्ता ---- पहले का हिन्दी साहित्य व वर्तमान हिन्दी साहित्य के लेखन में अन्तर ?
आशा पाण्डे ओझा ----- छात्र जीवन में जो पढ़ा था उस समय के लेखन में आदरणीय साहित्यकार लोग बहुत ही मर्यादित भाषा का प्रयोग करते थे | किसी भी तरह की बात को कहने के लिए भाषा की मर्यादा का उल्लघन नही करते थे -- किसी भी सच्चाई को एक आवरण में लपेट कर में प्रस्तुत किया जाता था ताकि पढने वाला झिझके ना आज के साहित्य में सच्चाई को प्रस्तुत करने के नाम पर जो नंग - धडंग शब्दों में परोसा जाता है उससे लगता है कहीं ना कहीं भारतीय सभ्यता व संस्कृति का ह्रास हो रहा है | सच कहना और सच के नाम पर संस्कारों के कपड़े उतारना में बहुत फर्क है आप देखे निराला , महादेवी वर्मा - प्रेमचन्द्र - इलाचंद्र जोशी, जैनेन्द्र , महादेवी जी और अन्य तमाम बड़े साहित्यकार सच के नाम पर उन्होंने कभी भी भारतीय संस्कृति और उसकी मर्यादा को नष्ट नही होने दिया। ना ही सच के नाम वाहियात शब्दों का प्रयोग किया। आज के लेखक रातों - रात प्रसिद्दी पाने की लालच में ,शर्म और हया की सारी सीमाओं को लांघ जाते हैं | लाज हाय न होना -और बोल्ड होना एक बेसिक अंतर है , बोल्डनेस के नाम पर बिल्कुल बेशर्म होना दूसरी बात है सच लिखा जाए पर नैतिकता का झीना आवरण बहुत जरूरी है |
सुनील दत्ता ---- सोशल मीडिया के इस दौर में लेखकों - कवियों की भरमार सी है ऐसे में लोग लिख तो रहे है परन्तु वे भाषा - विज्ञान से अछूते है आपकी राय ?
आशा पाण्डे ओझा --- कविता आत्मा की संतुष्टि है , विचारों का प्रवाह है, भावनाओं की अभिव्यक्ति है जो शिल्प से जुड़कर कविता लिख रहे है जिन्हें शिल्प का ज्ञान नही है वो अपनी आत्म संतुष्टि के लिए लिख रहे है . कविता का दूसरा अर्थ ही आत्मसंतुष्टि है, कविता - कला ऐसी चीज है जो व्यक्ति के मनोविकारो को समाप्त करता है आदमी को संवेदनशील बनाता है | आदमी में आदमियत को जिन्दा रखता है। आदमी के बचे रहने के लिए संवेदनाओं का बचा रहना जरूरी है . कविता संवेदनाओं का प्रवाह है कविता वही है जो लोग पढ़े तो लगे कि उसकी आप बीती बयां हुई है,और उस कविता से उनके ह्रदय में स्वंय कविता का प्रवाह चलने लगे। हालाँकि आधुनिक कविता के नाम पर कविता को कहीं सीधा सपाट रख दिया जाता है टेढ़ी हो जाती है कि कवि खुद ही भटक कटा है की उसका मूल उद्देश्य व विषय क्या था |
सुनील दत्ता ---- राजस्थान की लोक कला - लोक संस्कृति क्या पहले जैसी ही है या भूमंडलीयकरण से इस पर प्रभाव पडा है ?
आशा पाण्डे ओझा ------ भूमंडलीकरण की इस आंधी ने संस्कारों की नींव हिलाई है पर आज भी राजस्थान दूसरे राज्यों की अपेक्षा अपनी कला - संस्कृति - खान - पान भाषा व संस्कारों को बचाए हुए है यहाँ की जो ख़ास बात है अन्य राज्यों से बेहतर यहाँ की संस्कृति में शर्म-हाय लाज-लिहाज आज भी है मन की कुत्सिता जब सारे संसार में चरम पर है ,यहाँ आज भी स्त्री सुरक्षित है व नारी का आदर है आज भी यहाँ नारी का सम्मान बना हुआ है |
सुनील दत्ता -- साहित्य में वर्चस्व की लड़ाई है आप मानती हैं ?
आशा पाण्डे ओझा --- आदमी नाम का भूखा है अपनी पहचान वजूद जल्दी कायम करना चाहता है | येन- केन प्रकारेण कामयाब होना चाहता है लेकिन एक बात है पीढ़ियां यह तय करेगी कौन साहित्यकार है एक बात और है सोशल मीडिया ने बहुत सा काम किया है - साहित्य के मठाधीशो का पूरा वर्चस्व खत्म कर दिया जो लोग अपने को साहित्य में बड़ा मानते थे उनका भ्रम टूट गया अब वो भी जान गये है उनका तिलस्म खत्म हो चूका है वही नहीं उनसे लाखों हैं जो बेहतर लिख सकते हैं। . बेहतर दे सकते हैं |
सुनील दत्ता --- कुछ अपनी बाते ? जो शब्दों में ढल कर कविता बन गई ?
आशा पाण्डे ओझा हर वो दिल में उतरी कविता बनी, हर वो बात जो दिल को चुभी कविता बनी हर वो बात जो बात ना बना सकी बनी --- अपने मरने के बाद किसी को दान में दे जाना चाहती थी अपनी आँखे ताकि मेरे मरने के बाद भी देख सके इस खुबसूरत जहान को मेरी आँखे पर अब नही देना चाहती किसी को किसी भी कीमत पर अपनी आँखे ये बहता लहू - सुलगते मंजर क्यु देखती रहे - मेरे मरने के बाद भी बेचारी आँखे -----------
----------मन की एक बलिस्त जमीं पर कभी रोपे थे मैंने अपने सपनो के बीज
नहीं दिया तुमने सहमती का पानी बल्कि दी तुमने वर्जनाओं की धूप
रोक ली गई थी बीच में ही मैं उन्हें रोपते हुवे
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तुमने कहा तुम अपनी रिक्तता मुझे दे दो भर दूँगा उसे नहीं मानी मैं क्योंकि रिक्त नहीं थी मैं नस- नस मैं थी उसकी याद हृदय में था उसका कंपन कानों में थी उसकी गूँज होठों पर था उसका नाम आत्मा में था उसका संचार मुझमें था वो रिक्त नहीं थी मैं।"
-----तमाम उम्र मेरे सीने में खंकारती रही तेरी याद बूढी देह की छाती में जमी बलगम सी लाइलाज
-----थक गया दर्द एकल अभिनय करते करते ऐ ख़ुशी तू भी अपना किरदार निभा जरा "

Friday, March 27, 2015

कूका विद्रोह और उसके नायक रामसिंह ........भगत सिंह --------------- 28-3-15

कूका विद्रोह और उसके नायक रामसिंह ........भगत सिंह

शहीद भगत सिंह ने राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन के नायको के जीवन और उनके क्रांतिकारी  क्रिया कलाप , त्याग व बलदान पर श्रृखलाबद्ध लेख लिखा था | कूका विद्रोह और उसके महानायक राम सिंह पर उन्होंने दो लेख लिखे थे | पहला लेख फरवरी 1928 में उन्होंने बी . ए. सिधु के नाम से दिल्ली से प्रकाशित '' महारथी '' और दूसरा लेख अक्तूबर 1928 में विद्रोही के नाम से किरति '' नामक पत्रिका में लिखा था | एक और बात -- कूका विद्रोह के महानायक राम सिंह से देश के धर्मज्ञो और धर्म गुरुओं से लेकर नए पुराने धर्म के अनुयायियों को भी सीख  लेनी चाहिए और वह भी वर्तमान राष्ट्रीय व सामाजिक संदर्भो में | आज विदेशी शक्तिया पुन: देश के हर क्षेत्र में अधिकाधिक व आधिकारिक रूप से घुसपैठ करती जा रही है | इसके फलस्वरूप देश के बहुसंख्यक जनसाधारण का जीवन निरंतर तबाही व बर्बादी की दिशा में बढ़ता जा रहा है | इस दिशा में उसे विदेशी साम्राज्यी शक्तियों के अलावा देश के हर धर्म सम्प्रदाय के धनाढ्य व उच्च हिस्सों द्वारा ढकेला जा रहा है | इसीलिए वर्तमान दौर में कूका विद्रोह और गुरु राम सिंह के बारे में भगत सिंह का लेख  पढने के लिए ही नही पढ़ा जाना चाहिए , बल्कि उसे अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसे देशो और उनकी पूंजी तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चंगुल से राष्ट्र व समाज की मुक्ति संघर्ष के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए ............................
आज हम पंजाब के तख्ता पलटने के आन्दोलन और राजनितिक जागृति का इतिहास पाठको के सामने रख रहे है | पंजाब में सबसे पहली राजनितिक हलचल कूका आन्दोलन से शुरू होती है | वैसे तो वह आन्दोलन साम्प्रदायिक -- सा नजर आता है , लेकिन जरा गौर  से देखे तो वह बढा भारी राजनैतिक आन्दोलन था , जिसमे धर्म भी मिला था जिस तरह कि सिक्ख आन्दोलन में पहले धरम और राजनीति मिली -- जुली थी | खैर हम देखते है कि हमारी आपस की साम्प्रदायिक और तंगदिली का यही परिणाम निकलता है कि हम अपने बड़े -- बड़े महापुरुषों को इस तरह भूल जाते है जैसे कि वे हुए ही न हो | यही स्थिति हम हम अपने बड़े भारी महापुरुष '' गुरु राम सिंह के सम्बन्ध में देखते है | हम '' गुरु नही कह सकते और वे गुरु कहते है , इसीलिए हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नही -- आदि बाते कहकर हमने उन्हें दूर फेंक रखा है | यही पंजाब का सबसे बड़ा घाटा है | बंगाल के जितने भी बड़े -- बड़े आदमी हुए है , उनकी हर साल बरसिया मनाई जाती  है , सभी अखबारों में उन पर लेख दिए जाते है , यह समझा जाता है कि मौक़ा मिला तो इस पर विचार करेंगे |
पंजाब को सोए थोड़े ही दिन हुए थे , लेकिन नीद बड़ी गहरी आई | हालाकि अब फिर होश आने लगा है | बड़ा भारी आन्दोलन  उठा | उसे दबाने की कोशिश की गयी | कुछ ईश्वर ने स्थिति भी ऐसी ही पैदा कर दी --- वह आन्दोलन भी कुचल दिया गया | उस आन्दोलन का नाम था'' कूका आन्दोलन'' | कुछ ध्रामिक , कुछ सामाजिक रंग -- रूप रखते हुए भी वह आन्दोलन एक तख्ता पलटने का नही , युग पलटने का था | चूकी अब इन सभी आंदोलनों का इतिहास यह बताता है कि आजादी के लिए लड़ने वाले लोगो का एक अलग ही वर्ग बन जाता है , जिनमे न दुनिया का मोह होता है और न पाखंडी साधुओ -- जैसा दुनिया का त्याग ही | जो सिपाही तो होते थे लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नही , बल्कि सिर्फ अपने फर्ज के लिए या किसी काम के लिए कहे , वे निष्काम भाव से लड़ते और मरते थे | सिक्ख इतिहास यही कुछ था | मराठो का आन्दोलन भी यही कुछ बताता है | राणा प्रताप के साथी राजपूत भी इसी तरह के योद्धा थे | बुन्देलखंड के वीर छत्रसाल के साथी भी ऐसे थे |
ऐसे ही लोगो का वर्ग पैदा करने वाले बाबा रामसिंह ने प्रचार और संगठन शुरू किया | बाबा रामसिंह का जन्म 1824 में लुधियाना जिले के भैणी गाँव में हुआ | आपका जन्म बढ़ई घराने में हुआ था | जवानी में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की | ईश्वर  -- भक्ति अधिक होने से नौकरी -- चाकरी छोड़कर गाँव जा रहे | नाम का प्रचार शुरू  कर दिया |
1857 के गदर में जो जुल्म हुए वे सब देखकर और पंजाब की गद्दारी देखकर कुछ असर जरुर हुआ होगा | किस्सा यह है कि बाबा रामसिंह जी ने उपदेश शुरू करवा दिया | साथ -- साथ बताते गये कि फिरंगियों से पंजाब की मुक्ति जरूरी है | उन्होंने तब उस असहयोग का  प्रचार किया , जैसे वर्षो बाद 1920 में महात्मा गांधी ने किया | उनके कार्यक्रम में अंग्रेजी राज की शिक्षा , नौकरी अदालतों आदि का और विदेशी चीजो का बहिष्कार तो था ही , साथ में रेल और तार का भी बहिष्कार किया गया |
पहले -- पहले सिर्फ नाम का ही उपदेश होता था | हां यह जरुर कहा जाता था कि शराब -- मांस का प्रयोग बिलकुल बंद कर दिया जाए | लडकिया आदि बेचने जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी प्रचार होता था , लेकिन बाद में उनका प्रचार राजनितिक रंग में रंगता गया |
पंजाब सरकार के पुराने कागजो में एक स्वामी रामदास का जिक्र आता है , जिसे कि अंग्रेजी सरकार एक राजनितिक आदमी समझती थी और जिस पर निगाह रखी जाती थी |  1857 के
बाद जल्द ही उसके रूस की ओर जाने का पता चला है | बाद में कोई खबर नही मिलती | उसी आदमी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसने एक दिन बाबा रामसिंह से कहा कि अब पंजाब में राजनितिक कार्यक्रम और प्रचार की जरूरत है | इस समय देश को आजाद करवाना बहुत जरूरी है | तब से आपने स्पष्ट रूप से अपने उपदेश में इस असहयोग को शामिल कर लिया
1863 में पंजाब सरकार के मुख्य सचिव रहे टी .डी. फार्सिथ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 1863 में ही मैं समझ गया था कि यह धार्मिक -- सा आन्दोलन किसी दिन बड़ा गदर मचा देगा | इसीलिए मैंने भैणी के उस गुरुद्वारे में ज्यादा आदमियों का आना -- जाना और इकठ्ठे होना बन्द कर दिया | इस पर बाबा जी ने भी अपना काम का ढंग बदल लिया | पंजाब प्रांत को 22 जिलो में बाट लिया | प्रत्येक जिले में एक -- एक व्यक्ति प्रमुख नियुक्त किया गया , जिसे '' सूबा  '' कहा जाता था | अब उन्होंने '' सूबों '' में प्रचार और संगठन का काम शुरू किया | गुप्त तरीको से आजादी का भी प्रचार जारी रखा | संगठन बढ़ता गया , प्रत्येक नामधारी सिक्ख अपनी आय का दसवा हिस्सा अपने धर्म के लिए देने लगा | बाहर का हंगामा बंद हो जाने से सरकार का शक दूर हो गया और 1869 में सभी बंदिशे हटा ली गयी | बंदिशे हटते ही खूब जोश बढ़ा |
एक दिन कुछ कूके अमृतसर में से जा रहे थे | पता चला कि कुछ कसाई हिन्दुओं को तंग करने के लिए उनकी आँखों के सामने गोहत्या करते है | गाय के तो वे बड़े भक्त थे | रातो -- रात सभी कसाइयो को मार डाला गया और रास्ता पकड़ा | बहुत से हिन्दू पकडे गये | गुरु जी ने पूरी कहानी सुनी | सबको लौटा दिया कि निर्दोष व्यक्तियों को छुडाये और अपना अपराध स्वीकार करे | यही हुआ और वे लोग फांसी चढ़ गये | ऐसी ही कोई घटना फिरोजपुर जिले में भी हो गयी थी | फांसियो से जोश बढ़ गया | उस समय उन लोगो के सामने आदर्श था पंजाब में सिख -- राज स्थापित करना और गोरक्षा को वे अपना सबसे बढ़ा धर्म मानते थे | \इसी आदर्श की पूर्ति के लिए वे प्रत्यन करते रहे |
13 जनवरी  1872 को भैणी में माघी को मेला लगने वाला था | दूर -- दूर से लोग आ रहे थे | एक कूका मलेर कोटला से गुजर रहा था | एक मुसलमान से झगड़ा हो जाने से वे उसे पकड़कर कोतवाली में ले गये और उसे बहुत मारा पिटा व एक बैल की हत्या उसके सामने की गयी | वह बेचारा दुखी हुआ भैणी पंहुचा | वह जाकर उसने अपनी व्यथा सुनाई | लोगो को बहुत जोश आ गया | बदला लेने का विचार जोर पकड गया | जिस विद्रोह का भीतर -- भीतर प्रचार किया गया था , उसे कर देने का विचार जोर पकड़ने लगा , लेकिन अभी मनचाही तैयारी भी नही हुई थी | बाबा रामसिंह ऐसी स्थिति में क्या करते ? यदि उन्हें मना करते है तो वे मानते नही और यदि  उनका साथ देते है तो सारा किया -- धरा तबाह होता है | क्या करे ? आखिर जब 150 आदमी चल ही पड़े तो आपने पुलिस को खबर भेज दी कि यह व्यक्ति हंगामा कर रहे है और शायद कुछ खराबी करे मैं जिम्मेदार नही हूँ | ख्याल था कि हजारो आदमियों के संगठन में से सौ---- डेढ़ सौ आदमी मारे गये और बाकी संगठन बचा रहे तो यह कभी तो पूरी हो जायेगी और जल्द ही फिर पूरी तैयारी होने से विद्रोह हो सकेगा | लेकिन हम यह देखते है कि परिणाम से तय होता है कि तरीके जायज थे या नाजायज का सिद्धांत राजनीति के मैदान में प्राय: लागू होता है | अर्थात यदि सफलता मिल जाए तब तो चाल नेकनीयती से भरी और सोच -- समझकर चली गयी कहलाती है और यदि असफलता मिले तो बस फिर कुछ भी नही | नेताओं को बेवकूफ , बदनीयत आदि खिताब मिलते है | यही बात यहाँ हम देखते है | जो चाल बाबा रामसिंह ने अपने आन्दोलन से बचने के लिए चली , वह कयोंकि सफल नही हुई , इसीलिए अब कोई उन्हें कायर और बुजदिल कहता है और कोई बदनीयत व कमजोर बताता है | खैर
हम तो समझते है कि वह राजनीति के एक चाल थी | उन्होंने पुलिस को खबर कर दी ताकि वे कोई ऐसा इलाज कर ले जिससे कोई बड़ी खराबी पैदा न हो , लेकिन सरकार उनके इस भारी आन्दोलन से डरती थी और उसे पीस देने का अवसर खोज रही थी | उसने कोई ख़ास कार्यवाही न की और उन्हें मर्जी अनुसार जाने दिया |
लेकिन 11 जनवरी के पात्र में डिप्टी  कमिश्नर लुधियाना मि कावन कमिशनर को लिख भेजी कि रामसिंह ने उन लोगो से अपने सम्बन्ध न होने की बात जाहिर की है और उनके सम्बन्ध में हमे सावधान भी कर दिया है | खैर वे 150 नामधारी सिंह बड़े जोश -- खरोश में चल पड़े |
जब वे 150 व्यक्ति वह से बदला लेने के विचार से चल पड़े तो पुलिस को पहले से बताया जा चुका था , लेकिन सरकार ने कोई इंतजाम नही किया | क्यों ? कयोकी वे चाहते थे कि कोई छोटी -- मोटी गड़बड़ हो जाए , जिससे कि वे उस आन्दोलन को पीस दे | सो वह अब मिल गया | वे कूके वीर उस दिन तो पटियाला राज्य की सीमा पर एक गाँव रब्बो में पड़े रहे | अगले दिन भी वही टिके रहे | 14 जनवरी 1872 की शाम को उन्होंने मलोध के किले पर धावा बोल दिया | यह किला कुछ सिक्ख सरदारों का था , लेकिन इस पर हमला क्यों किया ? इस सम्बन्ध में डिस्ट्रिक गजेटियर में लिखा है कि उन्हें उम्मीद थी कि मलोध सरकार उनके विरोध की नेता बनेगी , लेकिन उन्होंने मना कर दिया और इन्होने हमला कर दिया | बहुत संभव है कि बाबा रामसिंह की बड़ी भारी तयारी में मलोध सरकार ने मदद देने का वादा किया हो , लेकिन जब उन्होंने देखा कि विद्रोह तो पहले से ही हो गया है और बाबा रामसिंह भी साथ नही है और पूरी संगत भी नही बुलाई गयी है तो उन्होंने मना कर दिया होगा | खैर! जो भो वह लड़ाई हुई | कुछ घोड़े हथियार और तोपे ले वे वह से चले गये | दोनों ओर के दो -- दो आदमी मारे गये और कुछ घायल हुए |
अगले दिन सवेरे 7 बजे वे मलेर कोटला  पंहुचे गये |
अंग्रेजी सरकार ने मलेर कोटला सरकार को पहले सूचित कर रखा था | उपर बड़ी तैयारिया की गयी थी | सेना हथियार लिए कड़ी थी लेकिन इन लोगो ने इतने बहादुरी से हमला किया कि सेना और पुलिस में कुछ वश न रहा | हमला कर वे शहर में घुस गये और जाकर महल पर हमला कर दिया | वह भी सेना उन्हें नही रोक पायी | वे जाकर खजाना लूटने की कोशिश करने लगे | लूट ही लिया जाता , लेकिन दुर्भाग्य से वे एक और दरवाजा तोड़ते रहे जिससे कि उनका बहुत -- सा समय नष्ट हो गया और भीतर से कुछ भी न मिला | उधर से सेना ने बड़े जोर से धावा बोल दिया | आखिर लड़ते -- लड़ते वहा  से लौटना पडा | उस लड़ाई में उन्होंने 8 सिपाही मारे और 15 को घायल हो गये | उनके सात आदमी मारे गये | वहा  से भी कुछ हथियार और घोड़े लेकर भाग निकले | आगे -- आगे वे और पीछे -- पीछे मलेर कोटला की सेना |
वे भागते जा रहे थे | और लड़ते जा रहे थे | उनके और कई आदमी घायल हो गये और वे उन्हें भी साथ ही उठा ले जाते थे | आखिर कार पटियाला राज्य के रुड गाँव में ये पहुंचे और जंगल में छिप गये | कुछ घंटो के बाद शिवपुर के नाजिम ने फिर हमला बोल दिया | लड़ाई छिड़ गयी पर बेचारे कूके थके -- हारे थे | आखिर 68 व्यक्ति पकड लिए गये | उनमे  से दो औरते थी , वे पटियाला राज को दे दी गयी |
अगले दिन मलेर कोटला लाकर तोप  गाड दी गयी और एक -- एक कर 50 कूके वीर तोप के आगे बाँध -- बंद कर उड़ा दिए गये | हरेक बहादूरी से अपनी -- अपनी बारी पर  तोप के आगे झुक जाता और सतत श्री अकाल कहता हुआ तोप से  उड जाता | फिर कुछ पता नही चलता कि वह किस संसार में चला गया | इस तरह 49 व्यक्ति उड़ा दिए गये | पचासवा एक तेरह साल का लड़का था | उसके पास झुकर डीपटी   कमिशनर ने कहा कि बेवकूफ रामसिंह का साथ छोड़ दे , तुम्हे माफ़ कर दिया जाएगा | लेकिन वह बालक यह बात सहन  नही कर सका और उछलकर उसने कावन की दाढ़ी पकड ली और तब तक नही छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ न काट दिए गये | बाकी 16 आदमी अगले दिन मलोध जाकर फांसी पर लटका दिए गये | उधर बाबा रामसिंह को उनके चार सूबों के साथ गिरफ्तार करके पहले इलाहाबाद और बाद में रंगून भेज दिया गया | यह गिरफ्तारी ( रेगुलेशन  ) 1818 के अनुसार हुई |
जब यह खबर देश में फैली तो और लोग बहुत हैरान हुए कि यह क्या बना | विद्रोह शुरू करके बाबा जी  ने हमे भी क्यों न बुलाया और सैकड़ो  लोग  घर -- बार छोड़कर भैणी की ओर चल पड़े | एक गिरोह जिसमे १७२ आदमी थी , कर्नल वायली से मिला | वह अधीक्षक था | उसने झट उन्हें भी गिरफ्तार करवा लिया | उनमे से 120 को तो घरो को लौटा दिया , लेकिन 50 ऐसे थे कि कोई घरबार नही था | वे सब सम्पत्ति आदि बेचकर लड़ने -- मरने के लिए तैयार थे | उन्हें जेल में डाल  दिया | इस तरह वह आन्दोलन दबा दिया गया और बाबा रामसिंह का पूरा यत्न निष्फल हो गया | बाद में देश में जितने कूके थे वे सभी एक तरह से नजरबंद कर दिए गये | उनकी हाजरी ली जाती थी | भैणी साहिब में आम लोग का आना -- जाना बंद कर दिया गया | ये बंदिशे 1920 में आकर हटाई गयी | यही पंजाब की आजादी  के लिए दी गयी सबसे  पहली कोशिश  का संक्षित इतिहास है |



प्रस्तुती    -सुनील दत्ता ------  स्वतंत्र पत्रकार- समीक्षक

Wednesday, March 25, 2015

भगत सिंह का पिता के नाम पत्र ------------------------ 25-3-15

भगत सिंह का पिता के नाम पत्र
..........................
30 सितम्बर ,1930 को भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह ने ट्रिबुनल को एक अर्जी देकर बचाव पेश करने के लिए अवसर की मांग की |सरदार किशनसिंह स्वय देशभक्त थे और रास्ट्रीय आन्दोलन में जेल जाते रहते थे |..............
पिता द्वारा दी गयी अर्जी से भगत सिंह की भावनाओ को भी चोट लगी थी ,लेकिन अपनी भावनाओ को नियंत्रित क्र अपने सिधान्तो पर जोर देते हुए उन्होंने 4 अक्टूबर 1930 को यह पत्र लिखा जो उसके पिता को देर से मिला | 7 अक्टूबर ,1930 को मुकदमे का फैसला सुना दिया गया |    4 अक्टूबर 1930
पूज्य पिताजी ,
मुझे यह जानकर हैरानी हुई की आप ने मेरे बचाव -पक्ष के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल को एक आवेदन भेजा हैं | यह खबर इतनी यातनामय थी कि मैं इसे ख़ामोशी से बर्दाश्त नही कर  सका | इस खबर ने मेरे भीतर कि शांति भंग कर दिया है और  उथल -पुथल मचा दी हैं |मैं यह नही समझ सकता कि वर्तमान स्थितियो में और इस मामले पर आप किस तरह का आवेदन दे सकते हैं ?
आप का पुत्र होने के नाते मैं आपकी पैतृक भावनाओ का पूरा सम्मान करता हूँ कि आप को
 मेरे साथ सलाह -मशविरा किये बिना ऐसे आवेदन देने का कोई अधिकार नही था |आप जानते हैं कि राजनैतिक क्षेत्र में मेरे विचार आप से काफी अलग हैं | में आप कि सहमती या असहमति का ख्याल किये बिना सदा स्वतंत्रता पूर्वक काम करता रहा हूँ |
मुझे यकीन हैं कि आपको यह बात याद होगी कि आप आरम्भ से ही मुझसे यह बात मनवा लेने की कोशिश करते हैं कि में अपना मुकदमा संजीदगी से लडू और अपना बचाव ठीक से प्रस्तुत करू| लेकिन आपको यह भी मालूम है कि में सदा इसका विरोध करता रहा हूँ | मैंने कभी भी अपना बचाव करने की इच्छा प्रकट नही की और न ही मैंने कभी इस पर संजीदगी से गौर किया हैं |...
मेरी जिन्दगी इतनी कीमती नही जितनी कि आप सोचते हैं |कम -से कम मेरे लिए तो इस जीवन की इतनी कीमत नही कि इसे सिद्धांतो को कुर्बान करके बचाया जाये |मेरे अलावा मेरे और साथी भी हैं जिनके मुकदमे इतने ही संगीन है जितना कि मेरा मुकदमा | हमने सयुक्त योजना पर हम अंतिम समय तक डटे रहेंगे |हमे इस बात कि कोई परवाह नही कि हमे व्यक्तिगत रूप में इस बात के लिए कितना मूल्य चुकाना पड़ेगा |
पिता जी में बहुत दुःख का अनुभव कर रहा हूँ | मुझे भय हैं ,आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बडकर आप के इस काम कि निन्दा करते हुए में कंही सभ्यता कि सीमाए न लाघ जाऊ और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जाये |लेकिन में स्पस्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूँगा |यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो में इसे गददारी से कम न मानता |लेकिन आप के सन्दर्भ में में इतना ही कहूँगा कि यह एक कमजोरी है -निचले स्तर की  कमजोरी |
यह एक ऐसा समय था जब हम सब का इम्तहान हो रहा था | में यह कहना चाहता हूँ कि आप इस इम्तहान में नाकाम रहे है | में जनता हूँ कि आप भी उतने  ही देश प्रेमी है जितना कि कोई और व्यक्ति हो सकता हैं |में जनता हूँ कि आपने अपनी पूरी जिन्दगी भारत की आज़ादी के लिए लगा दी हैं | लेकिन इस अहम मौड़ पर आपने ऐसी कमजोरी दिखाई ,यह बात में समझ नही सकता |
अन्त में में आपसे ,आपके अन्य मित्रो व मेरे मुकदमे में दिलचस्पी लेने वालो से यह कहना चाहता हूँ कि में आपके इस कदम को नापसंद करता हूँ |में आज भी अदालत अपना बचाव प्रस्तुत करने के पक्ष में नही हूँ |अगर अदालत हमारे कुछ साथियों की ओर से स्पष्टीकरण आदि के लिए प्रस्तुत किये गये आवेदन को मंजूर कर लेती , तो भी में कोई   स्पष्टीकरण प्रस्तुत न करता |..................
में चाहूँगा की इस समबन्ध में जो उलझने पैदा हो गयी हैं ,उनके विषय में जनता को असलियत का पता चल जाये | इसलिए में आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप जल्द से जल्द यह चिठ्ठी प्रकाशित कर दें |
..................................... आप का आज्ञाकारी पुत्र ----------- भगत सिंह
प्रस्तुती ----- .सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार -- समीक्षक

Saturday, March 21, 2015

एक्स रेज के अविष्कारक -------- विल्हेलम कानराड रौटजन 21-3-15

एक्स रेज के अविष्कारक -------- विल्हेलम कानराड रौटजन




एक्स रेज ( यानी एक्स किरणों ) का नाम जनसाधारण भी जानता है | इसका उपयोग चिकित्सा शास्त्र से लेकर अन्य दुसरे क्षेत्रो में भी बढ़ता जा रहा है | इसका आविष्कार प्रोफ़ेसर विल्हेलम कानराड रौटजन  अपनी प्रयोगशाला में वैकुअम ट्यूब ( हवा निकालकर पूरी तरह से खाली कर दिए ट्यूब ) में बिजली दौड़ाकर उसके वाहय प्रभावों को देखने के लिए प्रयोग कर रहे थे | खासकर वे इस ट्यूब से निकलने वाले कैथोड किरणों का अध्ययन करनी चाहते थे | इसके लिए उन्होंने ट्यूब को काले गत्ते से ढक रखा था | जिससे उसकी रौशनी बाहर न जाए | प्रयोग के पूरे कमरे में अन्धेरा कर रखा था , ताकि प्रयोग के परिणामो को स्पष्ट देखा जा सके | ट्यूब में बिजली पास करने के बाद उन्होंने  यह देखा कि मेज पर ट्यूब से कुछ दुरी पर रखा प्रतिदीप्तीशील  पर्दा चमकने लगा |
 रौटजन के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा | उन्होंने ट्यूब को अच्छी तरह से देखा | वह काले गत्ते से ढका हुआ था | साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि ट्यूब के पास दूसरी तरफ पड़े बेरियम प्लेटिनोसाइनाइड के कुछ टुकड़े भी ट्यूब में विद्युत् प्रवाह के साथ चमकने लग गये है | रौटजन ने अपना प्रयोग  कई बार दोहराया | हर बार नलिका में विद्युत् प्रवाह के साथ उन्हें पास रखे वे टुकड़े और प्रतिदीप्ती  पर्दे पर झिलमिलाहट नजर आई | वे इस नतीजे पर पहुचे कि ट्यूब में से कोई ऐसी अज्ञात किरण निकल रही है , जो गत्ते की मोटाई को पार कर जा रही है | उन्होंने इस अज्ञात किरणों को गणितीय चलन के अनुसार एक्स रेज  का नाम दे दिया | बाद में इसे रौटजन की अविष्कृत किरने रौटजन   रेज का नया नाम दिया गया | लेकिन तब से आज तक रौटजन  द्वारा दिया गया ' एक्स रेज ' नाम ही प्रचलन में है | बाद में रौटजन ने एक्स रेज पर अपना प्रयोग जारी रखते हुए फोटो वाले  खीचने वाले फिल्म पर अपनी पत्नी अन्ना बर्था -- का हाथ रखकर एक्स रेज को पास किया | फोटो धुलने पर हाथ की हड्डियों का एकदम साफ़ अक्स फोटो फिल्म पर उभर आया | साथ में अन्ना बर्था के उंगलियों की अगुठी का भी अक्स आ गया | मांसपेशियों  का अक्स बहुत धुधला था | फोटो देखकर हैरान रह गयी अन्ना ने खा कि मैंने अपनी मौत देख ली ( अर्थात मौत के बाद बच रहे हड्डियों के ढाचे को देख लिया |
एक्स रेज के इस खोज के लिए रौटजन को 1901में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के लिए निर्धारित पहला नोबेल पुरूस्कार मिला | रौटजन ने वह पुरूस्कार उस विश्व विद्यालय को दान कर दिया | साथ ही उन्होंने अपनी खोज का पेटेन्ट कराने से भी स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि वे चाहते है कि इस आविष्कार के उपयोग से पूरी मानवता लाभान्वित हो | रौटजन का जन्म 27 मार्च 1845 में जर्मनी के रैन प्रांत के लिनेप नामक स्थान पर हुआ था | उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हालैण्ड में हुई तथा उच्च शिक्षा स्विट्जरलैंड के ज्युरिच विद्यालय में हुई थी | यही पर उन्होंने 24 वर्ष की आयु में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की | वह से निकलकर उन्होंने कई विश्व विद्यालय में अध्ययन का कार्य किया | 1888 में वे बुर्जवुर्ग विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफ़ेसर नियुक्त किये गये | यही पर 1895 में उन्होंने एक्स रेज का आविष्कार किया | 1900 में वह म्यूनिख विश्वविद्यालय चले गये |
वह से सेवा निवृत्त  होने के बाद म्यूनिख में 77वर्ष की उम्र में इस महान वैज्ञानिक की मृत्यु हो गयी | जीवन के अंतिम समय में उन्हें ऑटो का कैंसर हो गया था | आशका जताई जाती है कि उन्हें यह बीमारी एक्स रेज के साथ सालो साल प्रयोग के चलते हुई थी |

=सुनील दत्ता

ताज 21-3-15

ताज

आहिस्ता बोलो ! आहिस्ता ! भारत की दो विभूतियां  सोयी हुई है | उनको सोये आज तीन सदियां  हो गयी है | तीन सदियों से लगातार सुगन्धित द्रव्यों का धुँआ उठता और उस सफेद चदोवो से टकरा - टकरा कर लौटा रहा है , उन उछ्वासो के साथ जो वहा के हवा के साथ घुले - मिले है जिन्हें किसी ने कभी न देखा , '' न तब न अब |
आहिस्ता बोलो !
आहिस्ता बोलो ! वरना तुम्हारी ही आवाज तुम्हे काटने लगेगी जैसे वह आज सदियों से जोर से बोलने वालो को काटती रही है | दो विभूतिया यहाँ सोयी है , दोनों पत्थर से दबी हुई , दोनों जिनकी शान के सामने खुदा की शान पानी भर्ती थी | दो दिल अश्वेत पत्थरों के नीचे दबे पड़े है | एक में शेर को दहला देने की ताब थी दुसरे में कोयल के कुक सुन गुलाब की पंखुडियो -- सी काँप जाने की नजाकत | धीरे बोलो !
धीरे -- धीरे दस्तक दो | इस शांतिमय वातावरण को क्षुब्ध न करो | शांति , श्मशान की शान्ति है यह , समाधियो की जिनमे विभूतिया सोयी है | यह ताज है , ताजमहल , ताज का हृदय , अन्तस्तला मुमताज महल की कब्र है यह , आर्जुमन्द बानू बेगम की |
उस कमनीय रमणीयता की जिसके अन्दर -- बाहर को ईरान के अभिजात्य कुल के सर्वस्य ने सिरजा और निखारा था , बिगड़े अमीरजादा ग्यास के अरमानो ने , बने एतामादुद्लौला की वजीरी दौलत ने आसफ के लाड ने |
अल्हड मुमताज की मजार है यह जिसकी हल्की नजरो ने संगदिल खुर्रम के अन्तर में दरार दाल दी थी | संगदिल खुर्रम जिसके आगमन से क्या देशी क्या फिरंगी सभी दरबारियों में एक सर्द लहर दौड़ जाती थी | उसी मुमताज ने उस कठोर सैनिक के हृदय में आंधी उठा दी थी जो माँ बाप तक को कैद में दाल देने से न चुका था , जिसकी तलवार की चमक ने फरगना से दक्कन तक चकाचौध पैदा कर दी थी |
इस समाधि गृह में इसकी रहस्यमय चुप्पी में एक पुकार है , एक मिली -- जुली चीत्कार | इसकी से -- से में एक बोझिल आवाज उठती है जो इन मजारो में सोने वाले शहंशाह और आर्जुमन्द बानू की नही , उन भूतो की है जो अपनी मौत से नही मरे , जो कयामत के रोज भी न उठेगे , जो गुम्बद से गिर कर दरगोर हो गये थे , नव में दब गये थे , जिनकी चीख इमारत की ईट - ईट से निकल रही है |
फिर भी समाधि गृह में शान्ति है | शान्ति , कि मधुर कोमल आवाज गूंज सके | मधुर कोमल आवाज ही वहा प्रतिध्वनित होती है , हो सकती है , अशिष्ट , वल्गर नही | हल्का कोमल स्वर धीरे धीरे उठाकर पसर चलता है निरंतर पसरता जाता है उसकी प्रतिध्वनी कोने -- कोने से उठकर वितान तक पहुचती है , फिर जैसे उतर आती है , फिर चद्ती है फिर उतरती है , पसर -- पसर | फिर -- फिर | यह गूंज अविराम जारी रहती है सोयी विभूतियों को अपने साए में करती , उनकी सुप्त चेतना को जगाती |
समाधियो का यह गर्भगृह मध्यवर्ती कमरे के ठीक नीचे है उसके चारो और आठ कमरे है कुरान का पाठ करने वाले मुल्लो के लिए , कोमल स्वर में भारतीय और ईरानी राग ध्वनित करने वाले गायकों के लिए और यह मध्यवर्ती कमरा -- यह प्रशांत विश्रामगृह शब्द नही जो इसके सयत सौन्दर्य का ब्यान कर सके मान भाषा में शक्ति नही जो दूर के अधखुले वातायनो से आते दबे आलोक की कोमल छाया में बिखरती छवि का वर्णन कर सके | कब्रों के चतुर्दिक दौड़ती संगमरमर की जाली स्वय कला का आश्चर्य है | साम्रज्य के अनन्त साधनों के वावजूद यह जाली दस साल में कट कर तैयार हुई थी | दस साल , देहलवी सल्तनत के दस जिसके साए में पूरब -- पश्चिम समुंदर टकराते थे , काबुल और दौलताबाद की दौलत बरसती थी | दस्तकारो की उस चुनी दुनिया के कुशल कलावन्तो ने कला के उस चमत्कार को प्रस्तुत किया था , दस साल में | मुमताज की समाधि बीच में है , ठीक बीच में और मजार का सफेद पत्थर कभी न मुरझाने वाले ईरानी फूलो का बाग़ बन गया है | शाश्वत विकसित वाटिका का यह सौन्दर्य , ईरानी बाग़ का यह सदाबहार , मुग़ल कलम का जादू ही ईजाद कर सकता था | जिस खूबी के साथ मुग़ल कलम का जादूगर अपने चित्रों का हाशिया लिखता था उसी बारीकी से संगतराश ने अपनी छेनी से यह फूलो का बाग़ उगा दिया है | और इस मजार पर कभी न मलिन न होने वाले मनोरम अक्षरों में खुदा है -- '' आर्जुमन्द बानू बेगम मुमताज महल की मजार '' मृत्यु 1040 हिजरी |
बहरी मेहराबी दरवाजा जो करवा -- सराय से घिरा है , नितान्त सुन्दर है , सिकन्दरा के अकबरी मकबरे के दरवाजे से भी सुन्दर | उसके बिचले मेहराब पर संगमूसा के बारीक हर्फो में खुदा है --- '' पाक दिल बहिश्त के बाग़ में प्रवेश करे '' |
इस दरवाजे से ताज का सर्वांग पंख फैलाए उठता -- सा दिखता है -- नीचे सामने के जल में उसकी छाया झिलमिल करती है | सफेद , चांदी की परि -- सी इमारत जमीन पर ऐसी हल्की -- फुलकी बैठी है कि लगता है , क्षण भर में एक साथ पर मार कर उड़ जायेगी | सादगी का सौन्दर्य दुनिया ने और नही देखा | इतने कम विस्तार में इतना घना सौन्दर्य | फिर भी कही कुछ कम नही , कही कुछ ज्यादा नही ; जैसे तोल कर प्रकृति ने रख दिया है | कुछ घटाया -- बढाया नही जा सकता , कुछ बदला नही जा सकता |
बागीचा भी इमारत का एक अंश था | इसके वास्तु के प्रभाव को सरो के वृक्ष निरंतर बढाये थे | सामने उपर एक चबूतरा है , नीचे दुसरा | एक के फैले मैदान में फूलो का बाग़ कधा है , दुसरे पर ताज की मीनारे है | उनके बीच ताज ऐसा लगता है जैसे चार लम्बी सहेलियों के बीच सुघड़ शाहजादी | दर्शक ठग जाता है |
दोनों और मस्जिदे खड़ी है लाल पत्थर की | खुशनुमा चित्रित ताज का सारा आकार जनाना है , उसके खम -- तेवर जनाने है | बुनियाद से उंचाई तक सारा कलेवर जनाना है | जैसे वह स्वय मुमताज महल हो , ईरानी साहबजादी , कोमल , सुकुमार , अल्हड | किसी ने उसे ' संगमरमर की आकृति में स्वपन ' कहा है , किसी ने ' फरिश्ते का जाहिर अफसाना ' | कुछ भी कहा जा सकता है , और जो कुछ खा जाएगा वह सारा सही होगा | कयोकि उस कला की परिभाषा कठिन है , उसका विश्लेषण असम्भव जो ताज में मूर्तिमान हो उठा है |
ताज जो सामने है कुछ ऐसा है जो अजब है | देखने वाले की नजरे ' फोकस ' कर लेता है | देखने वाला कहता है -- काश आँखों को जबान होती और जबान को आँखे ! और देखने वाला कही इतिहास का विद्यार्थी हुआ तो वह ताज की बुर्जियो के पीछे देखता है , उसकी बुनियाद के पहले | उसके निर्माण के पहले | सामने उस इतिहास के विद्यार्थी के ताज है उसका मध्यवर्ती गुम्बज है उसकी पाशर्वव्रती मीनारे है , नाजुक बुर्जियो और उनके पीछे एक दुनिया है | दुनिया , पृष्ठभूमि के आकाश की नही , जमुना से उठते कुहासे की नही ; दुनिया दुःख -- दर्द की जो अब बीत चुकी है , मर चुकी है , पर जो कभी ज़िंदा थी , जिसने इस ताज का निर्माण किया था , इसका अनुपम आकर्षण अभिसृष्ट किया था |
उन बुर्जियो के पीछे है वह दुनिया जिसकी कराह मात्र अब ताज की मध्यवर्ती समाधियो में गर्भगृह के ताबूतो के उपर उठती है और छत से टकरा -- टकरा कर गूंजती है , फिर धीरे -- धीरे भीतर हवा के साथ बाहर निकल जाती है बुर्जियो की ऊँचाई के उपर उठ जाती है , गुम्बज के चतुर्दिक मडरा -- मडरा कर एक उफ़ करती है , उस पर छा जाती है |
पर ऐसा क्यों ? इतिहास का विद्यार्थी सोचता है , गुनता है और फिर बुर्जियो के पीछे इतिहास के विगत चित्रों को देखने लग जाता है | ताज मुहब्बत का मूर्तिमान कलेवर है , भाव बन्धन प्रेम का प्रतीक , शाहजहा और मुमताज महल के सुकुमार प्रणय का सम्मोहक स्थापत्य अवतरण | उसकी विचार धाराए उसे पीछे लौटा ले जाती है स्माधिग्रिः में जहा दो आत्माए सोयी हुई है , जिनके मरणान्तर आवास के हित दुनिया का यह अचरज खड़ा किया गया |
शाहजहा के लिए नही , मुमताज महल के लिए , आर्जुमन्द बानू बेगम के लिए | आर्जुमन्द बानू बेगम | एत्मादुददौला की पोती आसफ खा की इकलौती बेटी , नुरजहा की भतीजी |विद्यार्थी के सामने से ताज , उसकी बुर्जिया , उसकी मस्जिदे , उसके मेहराबी दरवाजे हटते जा रहे है | उसकी आँखों के सामने एक नयी , पर जी कर मरी हुई दुनिया उठ रही है ----
आर्जुमन्द बनू बेगम | अमीरजादा बिगड़ा ग्यास बेग | उसके ईरानी प्रासाद के टूटे कगूर , उसके बागीचे की गुलाबभरी क्यारिया , उसके प्यालो के दौर , जुए की झंकार | काफिले के साथ मजबूर होकर हिन्दुस्तान में किस्मत आजमाने आगरे की और बियाबा की मुसाफिरी | और बियाबा में मेहरुन्निसा का जन्म , नूरमहल , नुरजहा का जन्म |
फिर आगरे में अकबर की फैयाजी | दरबार में पनाह | बाप - बेटे को खिलअत | हुमायु ने कभी ईरानी दरबार में पनाह ली थी | उपकृत बेटे में ईरान के भिखमंगे को भी शाह बना देने का अरमान था | दर -- दर का भिखारी ग्यास जहागीर की हुकूमत में जब मेहरुन्निसा '' नूरमहल '' हो गयी
एत्मादुददौला बना वजीर आजम वह नूरमहल का पिता था और उसका पुत्र , नूरमहल का भई , आसफ मनसबदार | आर्जुमन्द बनू बेगम उसी आसफ की बेटी थी , एत्मादुददौला की पोती | विद्यार्थी इतिहास के स्वत: खुलते पन्नो पर निगाह गडा देता है ----
खुर्रम -- वही शाहजहा , मुमताज महल का प्रणयी और पति | खुर्रम -- जहागीर का तीसरा बेटा , दिल्ली की सल्तनत का तीसरा हकदार | खुर्रम जो शाहजहा होने के पहले भी शानो - शौकत का पर्याय था , जीकी ऊंचाई सर टामसरो को कभी गौरव और मर्यादा की ऊंचाई लगी थी ; वही खुर्रम जो अपने सख्ती , गम्भीरता , तेजी के कारन बाप के दरबार की भडैती के बीच अकेला , सर्वथा एकाकी , पर भय का स्थान जन पड़ता था , वही जो बाप के इसरार पर शराब की एकाध घुट जब -- तब पी लेता पर जिससे वह उसके सामने तोबा करने से नही चुकता था |
खुर्रम -- जिसकी तलवार एक बार हेरात में चमकी थी , फिर बलख में , फिर दक्कन और बंगाल में फिर बलख में | विद्यार्थी के सामने ताज का धूमिल धुधला आकर तक नही | उसकी लेने कब की निराकार हो चुकी है | उनके स्थान पर एक श्वेत पट खड़ा है जिस पर रंग बिरंगे चित्र , वफादारी के चमकते नमूने एहसान फरामोशी के काले कारनामे , औदार्य और क्रूरता के अभिराम अंकन एक के बाद एक चले जा रहे है ---
खुर्रम के अतिरिक्त पिता के तीन पुत्र थे -- खुसरू , परवेज , सहरयार | खुसरू ने बाप से बगावत की , कैद कर लिया गया | खुर्रम ने उसे चुपचाप दूसरी दुनिया में भेज दिया | यह नम्बर एक था ; अभि दो और थे , एक राह का काटा दूसरा संभावित शत्रु |
कुछ ही साल बाद परवेज भी मर गया | कैसे , यह कौन जाने ? खुर्रम अब इस दुनिया में नही जो इस मौत पर प्रकाश डाले | खुर्रम ने शादी कर ली , फिर | यह दूसरी शादी थी | एतमादुददौला की पोती से , वजीर आसफ की बेटी आर्जुमन्द बानू बेगम से |
सहरयार नुरजहा का दामाद था | नुरजहा जहागीर की पत्नी थी , उसकी स्वामिनी , सल्तनत की वास्तविक जिम्मेदार और मलिका | सहरयार उसका दामाद था | खुर्रम ने सहरयार को देखा , नुरजहा को , बाप को देखा और करणीय स्थिर कर लिया | बगावत का झंडा खड़ा कर उसने बाप से लोहा लिया | फिर असफल हो दक्कन भगा , मलिक अम्बर की शरण में | पर वहा वह रुक न सका | बंगाल -- बिहार की और जा पहुचा , दोनों पर उसने कब्जा कर लिया | फिर शाही फ़ौज की मार खा वह फिर भागा |
और एकाएक वह जहागीर -- नुरजहा दोनों को कैद कर खुद गद्दी पर जा बैठा |
सहरयार को उसने तलवार के घाट उतार दिया | बाप अपने आप खुदा की राह लगा | अब उसने अपनी सल्तनत की माप - तौल शुरू की | तेरह साल के बाबर ने फरगना के मैदानों में किस्मत से लोहा लिया था | तेरह साल के अकबर ने पानीपत के मैदान में अपनी किस्मत आजमाई थी | दोनों के ताप और त्याग ने दिल्ली -- आगरे का क्षितिज - चुम्बी साम्राज्य खड़ा किया था | जहागीर ने उसे नशे के धुएं में देखा था | पर शाहजहा ने निश्चय किया , वह उसे भोगेगा |
दिल्ली किले के दीवाने आम और ख़ास , जमा मस्जिद , आगरे की मोती मस्जिद -- एक - एक कर खड़े हुए एक से एक आला , एक से एक कीमती जिन्हें जिन्नात ने बनाया , शाहजहा की दरियादिली के सबूत में , उसकी ख्याल बुलंदी की यादगार में | फिर तख़्त टॉस बना , ठोस सोने का जिसके पाए पन्नो के मोरो के थे , किनारे नीलम के जमीन नक्काशीदार वैदूर्य की थी | करोड़ो लगे इनमे पर इसकी शाहजहा को क्या परवाह थी , करोड़ो प्रान्तों से आते थे , अहमदनगर उसके सरहद के युद्दो में लग गये थे | बीस करोड़ | और ये करोड़ प्रान्तों से आते थे |, अहमदनगर से , गोलकुंडा से , बीजापुर से | दूर -- पास के सौदागर व्यापार के जादू से सल्तनत की राजधानी में धन बरसाते थे , फिरंगी अपनी भेटो से दौलत की मीनार खड़ी करते थे , दूर पास के किसान अपने पसीने की कमाई अपनी रक्षा के बदले अपने बादशाह को देते थे |
रक्षा के बदले | निश्चय उस रक्षा के बदले जिसमे मुगलों की उत्तर दक्खिन दौड़ती फौजों के घोड़ो की खुराक भी शामिल थे , मराठो की चौथ भी जातो की लुट भी | पर इससे शाजहा को क्या करना था ? शाहजहा फैयाज था ; कहते है , दयावान भी था | तभी तो उसने भयंकर अकाल में ढेढ़ लाख रूपये प्रजा के लिए अन्न पर खर्च किये थे -- उस भयंकर अकाल में ढेढ़ लाख का खर्च जिसमे सदके लाशो से पट गयी थी , बेटे ने माँ को खाया था , माँ ने बाप को |
ढेढ़ लाख , जब नुरजहा को शाहजहा पच्चीस लाख सालाना खर्च के लिए देता था , अठ्ठासी लाख वह अपने गुलामो पर खर्चता था , तेरह लाख अपनी पोशाक पर और जब केवल अपने तख़्त -- ताउस बनाने वाले फ्रेंच सुनार -- मिस्त्री उसिन बोडो को पन्द्रह लाख उसने इनाम में दे दिए थे |
इस शानो शौकत के बादशाह ने उस ईरानी हर को व्यहा था जिसका नाम आर्जुमन्द बानू बेगम था | व वह उसके तेरह बच्चो की माँ बनी और चौदहवे के प्रसव में उसने अपनी जान खोयी | १६३३ का साल था || शाहजहा जहा लोदी के विरुद्द अपनी सेना लिए दक्कन की चढाई पर गया हुआ था | शाहजहा कभी मुमताज को अपनी नजरो से दूर न्क्र्ता | वह भी उसके साथ द्द्क्कन गयी हुई थी | बुरहानपुर में मलिका ने शाहजहा की गोद में दम तोड़ दिया |
शाहजहा पर जैसे वज्र टूट गया | मुमताज के साथ बीस बरस के अपने वैवाहिक जेवण में उसने कभी विछोह जाना ही नही था | उसे गुमान भी न था कि उसे कभी अपनी प्रेयसी से अलग होना पड़ेगा | दिन रात के साथ ने कुछ ऐसा विश्वास दिला दिया था कि जैसे उसे कभी उसे अलग नही होना है |
पर अब उसकी आँखों के सामने आसमान घूम गया | हफ्तों उसने किसी वजीर तक को अपने पास न आने दिया | खाना पीना छुट गया , गद्दी तक छोड़ देने की ख्वाहिश उसने जाहिर की | दरबार ने दो साल मातम न्माया | नाच - रंग , गाना - बजाना , उत्सव - समारोह सब बंद हो गये | जेवर - जवाहारात , इतर इत्यादि सब कुछ विसर्जित कर दिए गये | मुमताज जीकाद के महीने में मरी थी | जीकाद का महीना सदा के लिए मातम का महीन करार दिया गया | महरूम की लाश आगरे के ताज के ब्घिचे में तब तक रखी गयी जब तक रखी गयी जब तक कि वह इमारत तैयार न हो गयी जिसके लिए शाहजहा ने अपने दिल में जगह कर ली थी |
मलका के दफनाने के लिए ऐसा मकबरा बनना था जो दुनिया में लामिसाल हो जिसे देख फरिश्ते हैरत में अ जाए | इंजीनियरों की कमी न थी | अकबर के ही जमाने से आगरे के दरबार में दूर - दूर के इंजीनियरों की भीड़ लगी रहती थी -- हिन्दुस्तान , ईरान के , ईराक , आर्मीनिया के , मध्य एशिया के |
शाहजह ने '' माडल '' मांगे | दुनिया में सबसे सुन्दर बनने वाली इमारत के लासानी मकबरे के माडल आये -- चीन से , मंगोलिया से , समरकंद -- फरगना से , ईरान - खुरासान से , ईराक -- आर्मीनिया से , काहिरा - अल्ह्म्रा से , वेनिस - वर्साई से , कुस्तुन्तुनिया -- बाईजेनित्यम से |
एक से एक माडल आये , इतने कि दीवाने खास भर गया , ऐसे कि आख नही ठहरती , चुनना मुश्किल हो गया | शाहजहा खुद हैरत में था , उसके इंजिनियर दांग थे | कैसे क्या चुने ?
योरप का सबसे चतुर कलावन्त वेनिस का गेरोनियो विश्वकर्मा को भी अचरज में दाल देने वाला अपना माडल लिए जमा था | उधर बाईजेनिय्म का तुर्क शिराज का उस्ताद ईसा अपनी उज्जवल मुकताध्वल कारीगरी लिए चुप बैठा था , उस अंधे कारीगर के पास जिसकी सलाह से वह अदभुत नमूना तैयार हुआ था | और शाहजहा की आँखे दोनों पर -- वेरोनियो से ईसा पर , ईसा से वेरोनियो पर -- लगातार फिर रही थी | उस्ताद ईसा का शिराजी नमूना शाहजहा को जम गया | उसकी सादगी ने उसे मोह लिया | शाहजहा ने अपने मुख्य स्थपित से कहा -- दुनिया में जहा कही राज और कारीगर हो बुला लो , हर अपने फन में उस्ताद हो | फिर खजांची को बुलाकर उसने कहा -- इस नायाब इमारत के लिए खजाने के किमिति से कीमती जवाहरात हाजिर करो | दुनिया में जो रतन , जो कीमती पथ्थर काम का हो , माँगा लो , कीमत की प्रवाह न करो | दौलत बेशुमार शाही खजाने में पड़ी है , कमी हो तो सल्तनत के सुबो से वसूल करो | दोनों ने सिर झुका लिए , दोनों हुकम की तामिल में लगे |
मुख्य स्थपित अपने कम में लगा | स्थपतियो की कौंसिल प्लान को समझने लगी | संसार की सुन्दरतम इमारतो की ड्राइंग उस प्लान में दाखिल हुई | हिन्दुस्तान के कलावन्त , फारस के रंगसाज , अर्ब के संगतराश , आर्मीनिया के पच्चीकार , कुस्तुन्तुनिया के गुमब्जकार , वेनिस के सुनार आगरे में आ जमे | पर शाहजहा संतुष्ट न हुआ | उसने फिर हुकम जारी किया -----
बगदाद , देहली , और मुल्तान से राज बुलाओ , एशियाई , तुर्की और समरकंद से गुमब्जकार . कन्नौज -- बगदाद से पच्चीकार बुलाओ , शिराज से हरूफ नक्काश | हुकम की देर थी | आ गये बगदाद , देहली और मुल्तान से राज , एशियाई , तुर्की और समरकंद से गुमब्जकार , कन्नौज -- बगदाद से पच्चीकार शिराज से हरूफ नक्काश | सल्तनत का खजांची भी हुकम की तामिल में लगा | हिन्दुस्तान और मध्य एशिया से कीमती पत्थर मगाने में उसने पानी की तरह तैमूरिया खजाने का धन भाया | जयपुर से संगमरमर आया , सिकरी से संग्सुख , पंजाब से सूर्यकांत | चीन से जमरूद और स्फटिक आये तिब्बत से नीलमणि अर्ब से मूंगा और संगमुसा | पन्ना से हीरे आये , ईरान से बिल्लौर और याकुत , शहर पूजां से गोमेद | अब जगह चाहिए थी , तातारीउसूलो के अनुकूल जगह -- जहा रवा आब हो , जिन्दगी का प्रतीक फूलो का बाग़ हो मौत का प्रतीक सरो का साया हो , जमीन जिसकी लुटी - चुराई हुई न हो | जमीन अम्बर के राजा जै सिंह ने दी , शाही जमीन के बदले ; वह जमुना का रवा पानी था , फूलो का बाग़ था , सरो का साया था |
इतिहास का विद्यार्थी देख रहा है -- बुर्जियो के पीछे , जमुना के किनारे उठती हुई ताज की इमारत को और सुन रहा है संगतराशो की खटखट , छेनी की चोट , और दूर - पास से आती हुई एक कराह जो संगतराशो की खटखट , छेनी की चोट पर छा जाती है , उनमे घुलमिल जाती है |
वह देख रहा है उस आलम को जो शाहजहा का स्वपन सच्चा कर रहा है , जिसमे हिन्दुस्तान के क्ल्वांत , फारस के रंगसाज , अर्ब के संगतराश , आर्मीनिया के पच्चीकार , कुस्तुन्तुनिया के गुमब्जकार , वेनिस के सुनार लगे है , फर बगदाद , देहली और मुल्तान के राज लगे है एशियाई , तुर्की और समरकंद के गुमब्जकार , कन्नौज -- बगदाद के पच्चीकार लगे है , शिराज के हरूफ नक्काश और उनके इशारो पर दौड़ने वाले , मोटे काम करने वाले बीस हजार मजूर | ताज की नीव पद गयी है उसका आकार उठ चला है |

ताज का निर्माण कुछ मजाक नही | तैमूरिया सल्तनत के सारे साधन , हिन्दुस्तान की जनता की समूची प्रतिभा , उसका कुल ' जीनियस ' उसके निर्माण में लगा | जनता ने पहले भी बहुत कुछ दिया था -- सरहदी लड़ाइयो के लिए धन , तख़्त ताउस के लिए दौलत | सब कुछ दे सकती है |
पहले शाहजहानाबाद , फिर दरबारे आम और ख़ास , फिर जामा मस्जिद , फिर मोती मस्जिद और अब ताज , सारा देश एक सांस से ताज के लिए काम कर रहा था | किसान उसी के लिए खेत जोत रहा था , फसल काट रहा था , काफिर , पंडित उसी की निर्विघन समाप्ति के लिए पूजा कर रहा था , सौदागर उसी के लिए व्यापार कर रहा था | सूबेदार किसानो से जूझ रहे थे | दोनों में होड़ लगी थी , सुबेदारी पलटन की क्रूरता में और किसानो के बर्दाश्त और पसीने में |  आसाम से गिरनार तक , काबुल से गोलकुंडा तक -- सारा देश ताज के ही नाम सोता , ताज के ही नाम जागता था | दौलताबाद और दक्कन , गुजरात और मालवा , बंगाल और बिहार , सिंध और पंजाब , काबुल और कश्मीर से दिल्ली आने वाली सदके निरंतर श्रृखलाबद्द खजाना लदी गाडियों से भरी रहती |

एक कतार गाडियों से दूसरी कतार मजदूरों से | रोज बीस हजार मजदूर लगते थे |  ताज के निर्माण की अवधि बीस वर्ष कुतीगयी थी | बीस वर्ष , बीस हजार मजदूर , तीस करोड़ रूपये | बीस हजार मजदूर बैस वर्ष तक -- कम से कम दो पिधिया | फ़ौज का सिपाही कमजोर हो सकता था , उसके कमजोर होने से कम चल सकता था पर मजदूर कमजोर नही हो सकता था | उसे बदन की ताकत भरपूर खर्च करनी थी | पत्थर की चट्टाने उसे उठानी थी , हाँ चट्टाने और दूर तक , चट्टाने चाहे संगमरमर की ही क्यों न हो , उनकी नसे चाहे ही क्यों न हो , है तो वे चट्टाने ही ; उन्ही चट्टानों को इन मजदूरों को उठाना है |
बैस वर्ष तक बीस हजार नित्य | दो पिधिया , एक -- एक पीढ़ी के दस - दस वर्ष -- आयु के सुन्दरतम , शक्तिमय वर्ष , पच्चीस से पैतीस वर्ष तक की आयु -- जब एक - एक पीढ़ी का एक - एक मजदूर अपने परिवार के उस काफिले को खिलाने के लिए पूरा न्पद्ता जो वावजूद उसके गिडगिडाने के भगवान छप्पर फाड़ कर दिए ही जाता था |
मजदूर -- दूर काठियावाड़ के मजदूर , अहमदनगर - गोडवाना के मजदूर बंगाल - बिहार के मजदूर , गुजरात - सिंध के मजदूर काबुल -- पंजाब के मजदूर गंगा -- जमुना पार के मजदूर | मुफ्त -- बेगार मजदूर उपर दूर तक चट्टान चढाने वाले चढाते -- चढाते गिर कर मर जाने वाले मजदूर , गोर गेहुए , काले मजदूर - गरज कि सारा हिन्दुस्तान |
ताज की इमारत उठती चली आ रही थी , खुशनुमा फूलो के बाग़ में प्रशांत सरो की सेवा में , रवा दरिया के किनारे | उठती आ रही थी इमारत हाथो हाथ उठती मजदूरों पर कोड़े बरस रहे थे , राजपुरुष इधर - उधर कोड़े फटकारते घूम रहे थे और हाथोहाथ सम्मिलित शक्ति से जैसे पत्थरों की श्रृखला बंध जाती थी , नीचे से उपर तक | गोर -- गेहुए - काले हाथ ! क्यों न लगे ये गोर -- गेहुए - काले हाथ कही और -- क्या न कर सकते थे ये हाथ एक साथ ?
मजदूरों की तीन - तीन रिजर्व पार्टिया थी -- बराबर नयी होने वाली दस - दस हजार की | बीस हजार से कई गुनी संख्या जयसिंह के उस आरामगाह में पड़ी रहती थके हुओ को फुर्सत देने के लिए | और जमुना पार से बेगारो की जमात . रोज आती रहती चीखते , -- बिलखते मजदूरों की जमात साथ ही बीबी से बिछुड़े , माँ अकेली बेसहारे , बच्चो की उम्मीद !
इमारत का धड खड़ा हो गया | कंधे नगे खड़े है -- इतिहास का विद्यार्थी देखता है -- मस्तक अभि गायब है बनना है | एशियाई , तुर्की और समरकंद के गुम्ब्जकर अपनी कारगुजारी दिखा रहे है हाथ की सफाई | उन्हें हजरत अली के मजार शरीफ के मकबरे का गुम्बज सर करना है , समरकंद में गुर अमीर वाली तैमूरी कब्र का गोलाम्बर जितना है , इस्फ़हानी मस्जिदेशाही का गुम्बज झुका देना है | वे अपने कम पर लट्टू की तरह नाच रहे है | ताज उठता आ रहा है |
ताज उठता आ रहा है | पर अब इमारत का ताज बन रहा है , मकबरे का मस्तक |
और उसका बनना आसान नही | मामूली दाख की बेल के लिए खून की जरूरत होती है , दाख की बेल जो साल में बस एक बार आती है | इसे सदियों खड़े रहना है , धूप में , बरसात में , आँधी और बवंडर में | बड़े बलिदानों की इसे जरूरत होगी |
पर बलिदान के पशु तैयार है | मजदूरों की तादाद रोज बढाई जा रही है | बलिदान सदा अपनी इच्छा से नही होते | यदि अपनी इच्छा से ही सदा बलिदान होते तो मिस्र के पिरामिड कैसे बनते , दजला -- फरात के जग्गुरत कैसे खड़े होते , चीन की दीवार कैसे दौड़ती , रोम का कोलोसिस्यम कैसे बनता ? सारे बलिदान बलि - पशु की इच्छा से ही नही होते | बलि -- पशु की इच्छा से कौन बलिदान होते है ?
पर जो हो , बलिदान की आवश्यकता यहाँ है -- इतिहास का विद्यार्थी साफ़ -- साफ़ देखता है -- शाहजहा -- मुमताज की मुहब्बत की बेल -- ताज का मकबरा -- चढानी है | उसकी जड़ में जब इंसान का गरम खून रसेगा तब कही यह इमारत सदियों टिकेगी | बेजबान मजदूर अपने बादशाह की इस नन्ही मांग को नही ठुकरा सकते |  गुम्बज बनने लगा | ढोके लेकर कइयो को एक साथ चढना है , चढना होगा उस गोल कटाव के पास तक पतली सीढ़ी के सहारे | और इतिहास का विद्यार्थी देख रहा है ----------- पतली सीढ़ी के सहारे | और यह हड - हड आवाज भी सुनता है | हड - हड -- तड़ - तड़ | कहा गये ये मजदूर ? चट्टाने तो ये है , ढोके वहा जा गिरे है , चाहे संगमरमर के ढोके -- पर मजदूर कहा है जिन्होंने इन्हें सीढ़ी की उस पतली आसमानी राह पर उठाया था ? पूछता है इतिहास का विद्यार्थी और जब वह नही कुछ देख पाता , सुनता निश्चय है एक आवाज पर अकेली आवाज नही , मिली -- जुली अनेको की एक साथ -- एक चीत्कार , चीख -- पुकार जो गिरी चट्टानों की धमक की बार -- बार उठती गूंज को दबा देती है , ताज के अधबने मस्तक पर छा जाती है !
पर चट्टानों का चढना नही रुक सकता क्योकि गुम्बज का बनना नही रुक सकता , क्योकि ताज का बनना नही रुक सकता , क्योकि शाहजहा -- मुमताज की मुहब्बत का मान यह मकबरा बन कर ही रहेगा , क्योकि सारी सल्तनत के साधन , सारे देश के ''जीनियस '' इसके निर्माण में लगे है , क्योकि ये बेजबान हजारो मील दूर से जो आये है , लाये गये है , इनका क्या होगा ?
देख रहा है वह विद्यार्थी मजदूरों का बार -- बार गुम्बज की ओर पतली राह से चट्टानों को लेकर चढना इनका उलट कर गायब हो जाना , फिर सुनता है चट्टानों की धमक और गूंज , फिर अनजानी भयावनी आवाज का -- चीख -- चीत्कार -- उच्छ्वास का -- उठना , चट्टानों की गूंज को दबा देना , उपर गुम्बज पर छा जाना फिर और फिर | और दूर के काठियावाड़ -- मालवा में गोलकुंडा - गोडवाना में , बंगाल -- बिहार में , काबुल - पंजाब में और पास के दिल्ली -- आगरे के गाँवों में झोपड़ो सायबानो की देहली में खड़े माँ - बाप , बीबी बच्चे राह देख रहे है थकी उम्मीदों के सहारे लम्बे इन्तजार से लडखडाते पैर | और उन्हें पता नही उन कोड़ो का चट्टानों के उठने - गिरने का उन प्रेतों की सेना की उठती -- फैलती आवाज का , जो गिरती चट्टानों की धमक की गूंज को दबा देती है , उठते गुम्बज पर छा जाती है |
और इतिहास का वह बेहया विद्यार्थी अभी सुनता ही जाता है यद्यपि कभी वह कानो पर हाथ फेरता है कभी मुँह पर कभी आँखों पर | और गुम्बज उठता ही आता है | उधर प्रधान स्थपति मशगुल है , नितांत व्यस्त | नीचे मजार की छत बन रही है पच्चीकारी में कीमती पत्थर जड़े जा रहे है , देश - विदेश के | मजार की जाली सोने की है जवाहारात जड़ी | और ये चांदी के उसके दरवाजे है जिनमे कीमती पत्थर लगे है जिन्हें फ्रेंच सुनार आसीन द बोर्दो ने तैयार किया है , बोर्दो जिसने तख़्त ताऊस बनाकर पन्द्रह लाख पाए थे |
खजांची भी अपनी खरीदारी में व्यस्त है | फारस के गलीचे वह खरीद रहा है , सोने के चिराग , कीमती शमाहजार और मजार को ढकने के लिए मोतियों की चादर लाखो फेंक रहा है वह | देश की सारी ताकत लगाये हुए है , रूपये फेंकता जा रहा है पर लाश अभी दफनाई नही जा सकती -- वह चट्टानों की धमक है छेनियो की खट - खट है और उससे बढ़कर उन बुर्जियो का बनना अभी बाकी है जो गुम्बज से कही ऊँची जायेगी , जो उससे कही पतली होगी जिनकी राह कही अधिक संकरी होगी , जो शहजादी के चारो ओर लम्बी सहेलियों - सी खड़ी होगी |
फिर वही शोरेमातंम | बुर्जिया बन रही है , जाने चीख रही है | इतिहास का विद्यार्थी देख -- सुन रहा है | बुर्जिया बन चली , गिरती चट्टानों से गिरती चट्टानों के उपर चढ़ चली , दबी -- चीखती जानो के उपर |
अब समझ पाया वह इतिहास का विद्यार्थी '' आहिस्ता बोलो '' का राज '' धीरे दस्तक ' देने का मतलब | श्मशान की शान्ति में आर्जुमन्द बानू बेगम की मजार की रहस्यमय चुप्पी की पुकार अब वह सुनता और समझता है | उसकी सांय - साय में जो एक बोझिल आवाज उठती है , वह जानता है है , उन भूतो की है जो अपनी मौत से नही मरे , जो कयामत के रोज भी न उठेगे , जो गुम्बज और बुर्जियो से गिर कर बगैर दफनाये दरगोर हो गये , जिनकी चीख इमारत की ईट -- ईट से निकल रही है |
वह भागता है , उस समाधि -- गृह से , मजार की चुप्पी से जहा हजारो भूतो की आवाजे हवा में घुली - मिली थी , उन भूतो की जिनके मरने पर उन्हें न किसी ने तेल - इत्र लगाया , न किसी ने कफन ओढाया -- जो ऊँचे आसमान से गिर कर नीव में दब गये थे |
वह फिर कर देखता है , भागता है , फिर देखता है ताज की ओर , उसकी गुम्बज और बुर्जियो की ओर - और ! सोचता है -- क्यों नही ! यह निश्चय प्रतीक है इमारत ! पर शाहजहा और मुमताज की मुहब्बत की नही , बल्कि देश की एकत्र प्रतिभा की , किसानो के उस पसीने की जिनका उल्लेख्य किसी इतिहास में नही |
और वह बुर्जियो को जो देखता है तो उसे कुछ नही दिखता , न बुर्जियो , न गुम्बज , न इमारत पर उनकी जगह पर छायी -- छायी वह दर्द भरी आवाज सुनता है जिससे समाधि -- गृह का वातावरण क्षुब्द था , हवा बोझिल थी और जो अब उपर उठकर आसमान में छायी हुई है , जो उन भूतो की है जो सदा के लिए सो गये है , जो कभी न उठेगे , कयामत के रोज भी नही |
और दूर के काठियावाड़ -- मालवा में गोलकुंडा -- गोडवाना में बंगाल -- बिहार में और पास के दिल्ली -- आगरे के गाँवों में झोपड़ो , सायबानो की देहली में खड़े माँ -- बाप , बीबी - बच्चे राह देख रहे है थकी उम्मीदों के आसरे , लम्बी इन्तजार से लडखडाते पैरो -- उनके लिए जो सदा के लिए सो गये है , जो कभी न उठेगे , कयामत के रोज भी नही |

sunil kumar dutta's profile photo -सुनील दत्ता
 स्वतंत्र पत्रकार 
आभार - बुर्जियो के पीछे लेखक - भगवत शरण उपाध्याय

Thursday, March 19, 2015

हौसलों को उड़ान देती है माँ 20-3-15

हौसलों को उड़ान देती है माँ
ब्रह्माण्ड और प्रकृति की रचना के बाद ईश्वर ने मनुष्य की जब सृष्टि की तो उसने स्त्री को पुरुष से सर्वश्रेष्ठ बनाया | उसे सौन्दर्य दिया , सृजन का अधिकार दिया | यही नही माँ की भूमिका निभाने के साथ उसे कुदरत से बड़ा दर्जा देते हुए उसे गुरु से भी बड़ा बनाया |
यही वजह है कि दुनिया के किसी कोने में वह हो , माँ सदैव एक जैसी रही | सूरत भले अलग - अलग हो मगर सीरत एक जैसी रहती है | सदिया बीत गयी , मगर माँ और बच्चे का सम्बन्ध नही बदला | किसी भी रिश्ते में बेशक बदलाव आ जाए मगर माँ - बच्चे के सम्बन्ध में हमेशा गर्मजोशी रहती है | अपने बच्चो को हमेशा पलको की छाँव में रखने वाली माँ आज भी यही चाहती है कि उसके बच्चो पर किसी बुरे व्यक्ति का साया न पड़े | उसे अपने आँचल में छुपा कर रखती है | बच्चो को अच्छे - बुरे का ज्ञान तो वही देती है | माँ को गुरु का दर्जा यो ही नही मिला | बच्चो को अनुशासन का पहला पाठ वही तो पढाती है |
नवजात के जन्म से लेकर नर्सरी में जाने तक माँ वस्तुत: एक आदर्श पुरुष या नारी को ही तैयार कर रही होती है | अक्षर ज्ञान से लेकर रंगों का ज्ञान प्रकृति से रूबरू करने से लेकर अपने आसपास के बारे में इस तरह बताती - सिखाती चलती है कि बच्चा जब घुटनों के बल खड़ा होता है या दौड़ता है तो वह अपनी माँ की नसीहतों को अवचेतन में रखता है | नसीहत देने की आदत माओ की पुरानी आदत रही है | अब इसमें भी बदलाव आया है |
हालाकि बेटिया आज भी अपनी माँ से सलाह लिए बिना कभी कोई कदम नही उठती | मगर बेटे अब बदल रहे है | बच्चो को अपने आँचल से बांधे रखने का दौर अब खत्म हो चुका है | ज्यादातर आधुनिक माये इस बात को समझ चुकी है कि नसीहत देने से अच्छा है की बच्चो की वे मार्गदर्शक बने | वे अपने बेटे -- बेटियों को ज्ञान के पंख देकर उन्हें उड़ान भरने देना चाहती है | कामकाजी ही नही घरेलू महिलाये भी बच्चो के भविष्य की चिंता करती है |

Tuesday, March 17, 2015

मजबूत किला ------------------------------------- ओशो 18-3-15

मजबूत किला ------------------------------------- ओशो
एक साधु से उसके मित्रों ने पूछा, "यदि दुष्ट लोग आप पर हमला कर दें तो आप क्या करेंगे?"
वह बोला, "मैं अपने मजबूत किले में जाकर बैठ रहूंगा।"
यह बात उस साधु के शत्रुओं के कान तक पहुंच गई। उन्होंने एक दिन एकांत से साधु को घेर लिया और कहा, "यह बताइये कि आपका मजबूत किला कहां है?"
साधु खूब हँसने लगा। फिर अपने हृदय पर हाथ रखकर बोला, "यह है मेरा किला। इसके ऊपर कभी कोई हमला नहीं कर सकता। शरीर तो नष्ट किया जा सकता है, पर जो उसके भीतर है, उसके रास्ते को जानना ही मेरी सुरक्षा है।"
जो व्यक्ति इस मजबूत किले को नहीं जानता, उसका पूरा जीवन असुरक्षित है। प्रति क्षण शत्रुओं से घिरा हैं

Monday, March 16, 2015

क्रांतिकारी वीरांगना प्रीतिलता वादेदार 15-315

क्रांतिकारी वीरांगना प्रीतिलता वादेदार

देश के क्रांतिकारी वीरो और वीरांगनाओ का इतिहास महज उनके गौरवशाली शाहदत का ही नही है , अपितु यह 1947 में राष्ट्र को प्राप्त "समझौतावादी स्वतंत्रता " के विपरीत 'क्रांतिकारी - स्वतंत्रता ' के लक्ष्यों , उद्देश्यों का भी इतिहास है | उनके ये लक्ष्य इस राष्ट्र को ब्रिटिश राज से मुक्ति के साथ - साथ उसकी आर्थिक , शैक्षणिक , सांस्कृतिक परनिर्भरता व परतंत्रता के संबंधो से भी मुक्ति के लिए निर्धारित किए गये थे |इन्ही लक्ष्यों के अनुरूप वे अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को चलाते भी रहे थे |यह हिंसा और अहिसा का प्रश्न नही है , बल्कि क्रांतिकारी स्वतंत्रता के उद्देश्यों और लक्ष्यों का सवाल है |
लेकिन इतिहास की बिडम्बनापूर्ण कटु सच्चाई यह है की भगत सिंह जैसे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारियो तक के प्रमुख लक्ष्य व उद्देश्य देशवासियों के लिए आज भी अज्ञात है | वर्तमान दौर में राष्ट्र की और राष्ट्र की बहुसख्यक जनसाधारण की निरन्तर बढती और घहराती समस्याओं में इन क्रान्तिकारियो और उनके उद्देश्यों लक्ष्यों को जानना नितांत प्रासंगिक है |इसकी प्रासंगिकता इसलिए भी है कि अमेरिका ब्रिटेन जैसी साम्राज्यी ताकते और उसका इस राष्ट्र पर बढ़ता जा रहा प्रभुत्व -प्रभाव ही वर्तमान दौर कि समस्याओं का सर्वप्रमुख कारण व कारक बना हुआ है |
इसलिए उनसे मुक्ति के वास्ते इतिहास में क्रान्तिकारियो द्वारा घोषित उद्देश्य व लक्ष्य तथा उनके क्रांतिकारी संघर्ष , त्याग और बलिदान वर्तमान दौर में न केवल स्मरणीय है , अपितु अनुकरणीय भी है | लेकिन अब यह बात केवल देश के जनसाधारण हिस्से के लिए सच है | देश के धनाढ्य व उच्च हिस्सों के लिए नही हैक्योंकि देश का यह अल्पसख्यक पर साधन सम्पन्न व प्रभुत्व सम्पन्न हिस्सा इन लुटेरी व प्रभुत्वकारी साम्राज्यी ताकतों के साथ एकजुट हो गया है |निरन्तर एकजुट होता जा रहा है | इसलिए भी वह राष्ट्र के क्रान्तिकारियो कि जीवनियो व संघर्षो को खासकर उनके उद्देश्यों व लक्ष्यों को आम जनता से छिपाने का प्रयास भी करता रहा है |
इसीलिए राष्ट्र के आम जन को उन उद्देश्यों व लक्ष्यों के प्रति सजग व सक्रिय बनाने के लिए क्रान्तिकारियो के संघर्षो को जानने बताने में प्रबुद्ध जनसाधारण कि भूमिकाये अब आवश्यक एवं अपरिहार्य बन गयी है |
प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 को तब के पूर्वी हिन्दुस्तान और अब बंगला देश में स्थित चटगाँव के एक गरीब घर में हुआ था | उनके पिता नगरपालिका के क्लर्क थे | स्कूली जीवन में ही वे बालचर - संस्था की सदस्य हो गयी थी |वहा उन्होंने सेवाभाव और अनुशासन का पाठ पढ़ा |बालचर संस्था में सदस्यों को ब्रिटिश सम्राट के प्रति एकनिष्ट रहने की शपथ लेनी होती थी | संस्था का यह नियम प्रीतिलता को खटकता था | उन्हें बेचैन करता था | यही उनके मन में क्रान्ति का बीज पनपा था | बचपन से ही वह रानी लक्ष्मी बाई के जीवन - चरित्र से खूब प्रभावित थी इंटर नेट से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार उन्होंने 'डॉ खस्तागिर गवर्मेंट गर्ल्स स्कूल चटगाँव से मैट्रिक की परीक्षा उच्च श्रेणी में पास किया | फिर इडेन कालेज ढाका से इंटरमिडीएट की परीक्षा और ग्रेजुएशन नेथ्यून कालेज कलकत्ता से किया | यही उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियो से हुआ | शिक्षा उपरान्त उन्होंने परिवार की मदद के लिए एक पाठशाला में नौकरी शुरू की | लेकिन उनकी दृष्टि में केवल कुटुंब ही नही था , पूरा देश था | देश की स्वतंत्रता थी | पाठशाला की नौकरी करते हुए उनकी भेट प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्य सेन से हुई |प्रीतिलता उनके दल की सक्रिय सदस्य बनी | पहले भी जब वे ढाका में पढ़ते हुए छुट्टी में चटगाँव आती थी तब उनकी क्रान्तिकारियो से मुलाक़ात होती थी और अपने साथ पढने वाली सहेलियों से तकरार करती थी कि वे क्रांतिकारी अत्यंत डरपोक है | लेकिन सूर्यसेन से मिलने पर उनकी क्रान्तिकारियो के विषय में गलतफहमी दूर हो गयी | एक नया विश्वास कायम हो गया | वह बचपन से ही न्याय के लिए निर्भीक विरोध के लिए तत्पर रहती थी | स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने शिक्षा विभाग के एक आदेश के विरुद्ध दूसरी लडकियों के साथ मिलकर विरोध किया था | इसीलिए उन सभी लडकियों को स्कूल से निकाल दिया गया |प्रीतिलता जब सूर्यसेन से मिली तब वे अज्ञातवास में थे | उनका एक साथी रामकृष्ण विश्वास कलकत्ता के अलीपुर जेल में था | उनको फांसी की सज़ा सुनाई गयी थी | उनसे मिलना आसान नही था |लेकिन प्रीतिलता उनसे कारागार में लगभग चालीस बार मिली |और किसी अधिकारी को उन पर सशंय भी नही हुआ | यह था , उनकी बुद्धिमत्ता और बहादुरी का प्रमाण | इसके बाद वे सूर्यसेन के नेतृत्त्व कि इन्डियन रिपब्लिकन आर्मी में महिला सैनिक बनी | पूर्वी बंगाल के घलघाट में क्रान्तिकारियो को पुलिस ने घेर लिया था घिरे हुए क्रान्तिकारियो में अपूर्व सेन , निर्मल सेन , प्रीतिलता और सूर्यसेन आदि थे |सूर्यसेन ने लड़ाई करने का आदेश दिया |अपूर्वसेन और निर्मल सेन शहीद हो गये |सूर्यसेन की गोली से कैप्टन कैमरान मारा गया | सूर्यसेन और प्रीतिलता लड़ते - लड़ते भाग गये |क्रांतिकारी सूर्यसेन पर 10 हजार रूपये का इनाम घोषित था |दोनों एक सावित्री नाम की महिला के घर गुप्त रूप से रहे | वह महिला क्रान्तिकारियो को आश्रय देने के कारण अंग्रेजो का कोपभाजन बनी |सूर्यसेन ने अपने साथियो का बदला लेने की योजना बनाई | योजना यह थी की पहाड़ी की तलहटी में यूरोपीय क्लब पर धावा बोलकर नाच - गाने में मग्न अंग्रेजो को मृत्यु का दंड देकर बदला लिया जाए |प्रीतिलता के नेतृत्त्व में कुछ क्रांतिकारी वह पहुचे | 24 सितम्बर १९३२ की रात इस काम के लिए निश्चित की गयी |हथियारों से लैस प्रीतिलता ने आत्म सुरक्षा के लिए पोटेशियम साइनाइड नामक विष भी रख लिया था | पूरी तैयारी के साथ वह क्लब पहुची |बाहर से खिड़की में बम लगाया | क्लब की इमारत बम के फटने और पिस्तौल की आवाज़ से कापने लगी | नाच - रंग के वातावरण में एकाएक चीखे सुनाई देने लगी |13 अंग्रेज जख्मी हो गये और बाकी भाग गये |इस घटना में एक यूरोपीय महिला मारी गयी |थोड़ी देर बाद उस क्लब से गोलीबारी होने लगी | प्रीतिलता के शरीर में एक गोली लगी |वे घायल अवस्था में भागी लेकिन फिर गिरी और पोटेशियम सायनाइड खा लिया | उस समय उनकी उम्र 21 साल थी | इतनी कम उम्र में उन्होंने झांसी की रानी का रास्ता अपनाया और उन्ही की तरह अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वंय ही मृत्यु का वरण कर लिया
प्रीतिलता के आत्म बलिदान के बाद अंग्रेज अधिकारियों को तलाशी लेने पर जो पत्र मिले उनमे छपा हुआ पत्र था | इस पत्र में छपा था की " चटगाँव शस्त्रागार काण्ड के बाद जो मार्ग अपनाया जाएगा , वह भावी विद्रोह का प्राथमिक रूप होगा | यह संघर्ष भारत को पूरी स्वतंत्रता मिलने तक जारी रहेगी |"
इतनी छोटी उम्र में प्रीतिलता ने महान कार्य की नीव रखी |वे क्रांतिकारी के साथ एक निर्भीक लेखिका भी थी | वे निडर होकर लेख लिखती थी |कुमारी प्रीतिलता का यह बलिदान भावी पीढ़ी तक युवतियों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेगा |साभार राजेन्द्र पटोरिया की ५० क्रांतिकारी पुस्तक और इंटर नेट से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर लिखा गया लेख

-सुनील दत्ता
पत्रकार

Friday, March 13, 2015

आस्था ----- 14-3-15

आस्था -----


भगवान बुद्द ने अपने शिष्यों को आस - पास के क्षेत्र में धर्मचक्र - प्रवर्तन के लिए भेजा परन्तु  किसी को भी विशेष सफलता नही मिली | उल्टे उन्हें कई जगह उपेक्षा , अवमानना का शिकार होना पडा | उन्होंने लौटकर तथागत के समक्ष अपनी व्यथा व्यक्त की |  बुद्द ने अपने मुख्य शिष्यों  को पास बुलाया और कहा -- क्या तुममे से किसी के पास इस समस्या का समाधान है ? इस पर महाकश्यप ने कहा -- ' भगवान , यदि उचित समझे तो मुझे इस सत्कार्य की आज्ञा दे | बुद्द ने प्रसन्न भाव से हामी भर दी | इसके बाद महाकश्यप अपने कुछ विश्वस्त  सहयोगियों को लेकर उन गाँवों की ओर चल दिए , जहा पहले सभी को उपेक्षा मिली थी | इस बात को महीनों बीत गये | महाकश्यप की कोई खोज - खबर नही मिली | एक दिन जब भगवान बुद्द अपने शिष्यों के साथ जैतवन में बैठे हुए थे , तभी ग्रामीणों का एक समूह उनके समक्ष उपस्थित हुआ | उन्होंने फूलो के हार   पहने महाकश्यप को अपने कन्धो पर उठा रखा था | गांववालों ने बुद्द से कहा -- भगवान , आपके द्वारा उपदेशीय  धर्म कितना श्रेष्ठ , महान व जीवनदायी है , यह हमे महाकश्यप के कारण पता चला | तब बुद्द ने उनसे पूछा ' इन्होने किस विधि से तुम्हे उपदेश दिया ? इस पर गाँव के मुखिया ने कहा -- जब ये हमारे गाँव आये तो सभी ने इनकी उपेक्षा की , कटु वचन बोले | परन्तु ये अविचलित रहे | इन्होने अपने साथियो  के साथ वही एक मंदिर में डेरा जमाते हुए हमारी समस्याए जानी , फिर धर्म की सीख  देने के बजाए हमारे गाँव की साफ़ - सफाई में लग गये | घर - घर जाकर इन सबने बीमार लोगो के हाल - चाल पूछे , उनके लिए औषधि की व्यवस्था की | बच्चो की शिक्षा की स्थिति जान उसके बारे में समुचित इंतजाम किया | दिन में ये सभी करते और रात में अपनी साधना में लग जाते | धीरे - धीरे हमारा विश्वास इन पर जागा | हां में बदला और आस्था सहयोग में बदल गयी | फिर सहयोग अपने आप ही श्रद्दा में बदल गयी | हम सबके आग्रह से धर्मोपदेश आरम्भ किया |

Monday, March 9, 2015

सांसदों के विकास निधि में भारी वृद्धि , लेकिन क्यों ? 9-3-15

2011 का लेख ---

सांसद निधि में 150 % की वृद्धि कर दी गयी है | इसे दो करोड़ रुपया प्रतिवर्ष से बढाकर पांच करोड़ रूपये प्रतिवर्ष कर दिया गया है |इससे सरकारी खजाने पर प्रतिवर्ष 2370 करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा | सांसद निधि में इतनी भारी वृद्धि का कारण विकास कार्यो के लागत में वृद्धि को पूरा करना और उन कार्यो और और ज्यादा बढावा देना बताया गया है | प्रश्न है कि क्या अभी तक तक के सांसद निधि से हो रहे विकास कार्यो की छानबीन की गयी ? वैसे इसकी समीक्षा के लिए बहुत खोजबीन नही करनी थी | इसका पता संसदीय क्षेत्र की जनता से जानकारी प्राप्त करके आसानी से किया जा सकता था | यह बात जग जाहिर है की ज्यादातर सांसदों , विधायकों के विकास निधि से उनके क्षेत्र में इधर -उधर के विकास से कंही ज्यादा सांसदों के भारी कमीशन का भ्रष्टाचार विकास से जुड़ा है | सांसदों के अपने निर्वाचन क्षेत्र में सडक , नाली , खडंजा , पेयजल , शिक्षा एवं चिकित्सा का विकास भले ही कम हुआ हो पर सांसदों और उनके करीबियों का भरपूर विकास एकदम साफ़ नजर आयेगा |
आम जनता में वर्षो से उजागर इस सच्चाई को सरकार न जानती हो , यह सम्भव नही है |वह भी तब जब बिहार में नितीश कुमार की सरकार ने इसी को कारण बताकर प्रांत कि विधायक निधि पर रोक लगा दी है | जहा तक विकास और वह भी वर्तमान दौर के विकास का मामला है तो यह बात भी जग जाहिर है , विकास और भ्रष्टाचार में चोली - दामन का साथ हो गया है | अब तो यह बात डंके कि चोट पर कही जा सकती है जहा जितना विकास है ,वहा भ्रष्टाचार का उतना ही विकास है | चाहे वह सडक यातायात का विकास हो या मोबाइल फोन के 2 जी , 3 जी जैसे पीढियों का विकास विस्तार या फिर राष्ट्र मंडल जैसा खेल तमाशे का विकास विस्तार .......फिर आधुनिक अस्त्र - शस्त्र आदि की खरीद बिक्री का विकास . आप को हर जगह भ्रष्टाचार का निरंतर बढ़ता विकास देखने को मिल जाएगा | सांसद निधि के जरिये विकास और उसमे बढ़ते भ्रष्टाचार पर चुप्पी की एक और बड़ी वजह है की इसकी बुनियाद में विकास नही राजनितिक भ्रष्टाचार निहित है |1993 में जब इसकी शुरुआत तब की गयी थी जब नई आर्थिक नीतियों को लेकर केंद्र में कांग्रेस की अल्पमत सरकार का विरोध हो रहा था |उस वक्त यह विकास निधि के नाम, से शुरू की गयी , निधि वस्तुत:सांसदों को इन नीतियों का विरोध छोडकर समर्थन के लिए दिया गया था |इसलिए इसे विकास निधि की बदले समर्थन निधि कहना ज्यादा उचित होगा इसीलिए उसका नतीजा भी क्षेत्रो के बढ़ते विकास के रूप में नही अपितु नीतियों के बढ़ते समर्थन के रूप में आया और आता रहा | फिर इन नीतियों के आगे बढाने उसके अधिकाधिक समर्थन के लिए तथा बढती जन समस्याओं को नजर अंदाज़ करने के लिए भी इसे बधया जाता रहा | इसके लिए जन - प्रतिनिधियों को और ज्यादा भ्रष्ट बनाने का काम किया जाता रहा | अब बढ़ते भूमि अधिग्रहण तथा छोटे कम्पनियों , कारोबारियों और खुदरा व्यापार आदि के बढ़ते अप्रत्यक्ष अधिग्रहण के दौर में इन इन नीतियों के समर्थन की तथा ग्रामीणों किसानो व अन्य जन - साधारण हिस्सों को उनकी समस्याओं , आंदोलनों आदि को नजर अंदाज़ करने के लिए भी विकास निधि को बधया जा रहा है | जन प्रतिनिधियों को और ज्यादा भ्रष्ट किया जा रहा है | उनके वेतनों सुविधाओं और विकास निधियो में वृद्धि करते हुए उन्हें जनसाधारण के प्रतिनिधित्व से पूरी तरह अलग किया जा रहा है | अब उन्हें खुलेआम धनाढ्य कम्पनियों एवं उच्च सुविधाभोगी हिस्से का ही का ही प्रतिनिधि बनाया जा रहा है | जो देश के आम आवाम के लिए खतरनाक है |
सांसदों के विकास निधि में भारी वृद्धि , लेकिन क्यों ?
सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Sunday, March 8, 2015

दिल्ली की अदालत में ------------ भगत सिंह 9-3-15

दिल्ली की अदालत में ------------ भगत सिंह
'' समाज का वास्तविक पोषक मजदुर है | जनता का प्रभुत्व मजदूरो का अंतिम भाग्य है | इन आदर्शो और विश्वास के लिए , हम हर उस कष्ट का स्वागत करेगे जिसकी हमे सजा दी जायगी | हम अपनी तरुनाई को इसी क्रान्ति की वेदी पर होम करने लाये है , क्योकि इतने गौरवशाली उद्देश्य के लिए कोई भी बलिदान बहुत बड़ा नही है ...
'' समाज का सबसे आवश्यक तत्व होते हुए भी उत्पादन करने वालो या मजदूरो से ,, उनके शोषक उनकी मेहनत का फल लूट लेते है , और उनको प्रारम्भिक अधिकार से भी वंचित कर देते है | एक ओर तो ,, सभी के लिए अनाज पैदा करने वाले किसानो के परिवार भूखो मरते है ; सारे संसार के बाजारों को सूत जुटाने वाला जुलाहा अपना और अपने बच्चो का तन ढकने के लिए भी पूरा कपड़ा नही जुटा पाता ; शानदार महल खड़े करने वाले राज , लुहार और बढ़ई झोपड़ियो में ही बसर करते और मर जाते है , और दूसरी ओर , पूंजीपति , शोषक अपनी संको पर ही करोड़ो बहा देते है | ...
क्रान्ति से हमारा अर्थ है -- अंत में समाज की एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना , जिसमे इस प्रकार के हडकम्प का भय न हो , और जिसमे मजदुर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाय और उसके फलस्वरूप विश्व संघ पूंजीवाद के बन्धनों , दुखो तथा युद्दो की मुसीबतों से मानवता का उद्दार कर सके | ''