Monday, June 27, 2016

निर्भीक लेखनी को सलाम 27-6-16

निर्भीक लेखनी को सलाम
आजमगढ़ जहा लोग भूख का भूगोल और विद्रोह का इतिहास पढ़ते है -
---- बाबू गुजेशवरी प्रसाद
मैं 1982 में रैदोपुर कालोनी में रहने लगा था मेरा सौभाग्य था कि बिलकुल मेरे बगल में समाजवादी चिन्तक व विचारक बड़े भाई श्री विनोद श्रीवास्तव जी के यहाँ राष्ट्रीय फलक पर सिद्दांतो पर दृढ रहने वाले प्रखर समाजवादियो का आना जाना लगा रहता था |
डा लोहिया के अनन्य मित्र किशन पटनायक , प्रखर समाजवादी नेता मोहन सिंह , स्वतंत्रता सेनानी ,समाजवादी विचारक विष्णु देव गुप्ता जी पूर्वांचल के गांधी बाबू विश्राम राय , समाजवादी नेता रामसुंदर पाण्डेय , युवा तुर्क और तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को आपातकाल में चुनौती देने वाले रामधन जी , इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता को नया आयाम देने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह , जिले के सर्वमान्य अध्यक्ष जी श्री त्रिपुरारी पूजन प्रताप सिंह ( उर्फ़ बच्चा बाबू ) अन्तराष्ट्रीय समाजवादी नेता व् चिन्तक जार्ज फर्नाडिस व देश के समाजवादियो के एक मात्र दादा देवव्रत मजुमदार जिनको कहा जाता था कि वो स्वंय में एक राजनैतिक संस्था थे |
काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के पूर्व अध्यक्ष मोहन प्रकाश पूर्व विधयाक जगदीश लाल , पूर्व सांसद हर्षवर्धन , पत्रकार से नेता बने योगेन्द्र यादव पूर्व सांसद और पूना के मेयर रहे भाई वैद्य , बडौदा डाइनामाईट केस के अभियुक्त व श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष के विक्रम राव ,आजादी बचाव आन्दोलन के नेता रामधीरज जी के साथ ही जार्ज फर्नाडिस के अनन्य सहयोगी व परम मित्र समाजवादी चिन्तक - विचारक विजय नरायण जी के साथ ही बाबू गुजेशवरी प्रसाद का आना - जाना लगा रहता था | विनोद भाई के करीबी होने के नाते हम लोगो को सौभाग्यवश इन महान चिंतको का सानिध्य प्राप्त हुआ |
1984 में बाबू गुजेशवरी प्रसाद जी जो मधुलिमये और लोहिया जी के सानिध्य में कार्य कर चुके थे उन्होंने उस समय की पत्रिका दिनमान के लिए
आजमगढ़ की गौरवशाली परम्परा को रेखांकित करते हुए एक क्रांतिकारी लेख लिखा जिसका शीर्षक था '' आजमगढ़ जहा लोग भूख का भूगोल और विद्रोह का इतिहास पढ़ते है '' उसी समय मैंने आज़मगढ़ में प्रेस छायाकार के रूप में पत्रकारिता में अपना कैरियर शुरू किया था | मुझे उनके साथ 15 दिनों तक अविभाजित आजमगढ़ के ग्रामीण अंचलो को देखने व समझने का मौका मिला | गुजेशवरी बाबू का वह लेख सारे देश में चर्चा का विषय बना |
आज सुबह यह जानकारी मिली की पत्रकारिता के शिखर पुरुष गुजेशवरीबाबु का महाप्रयाण हो गया मन व्यथित और उदिग्न गया वे हम सब के प्रेरक व सम्बल थे |एक सप्ताह उनके साथ मऊ , बलिया आदि स्थानों पे घुमने का अवसर प्राप्त हुआ वैसे यह कहा जा सकता है कि वही से मेरे पत्रकारिता के जीवन की शुरुआत हुई | उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र के तरफ से विनम्र श्रद्धाञ्जलि --

Thursday, June 23, 2016

चमचमाती दिल्ली का सच 23-6-16

चमचमाती दिल्ली का सच
गांवों की लगातार उपेक्षा के कारण रोजगार के जो भी अवसर थे खत्म होते जा रहे हैं। खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। किसानों की जमीन विभिन्न योजनाओं की तहत छीना जा रहा है। शासक वर्गों
द्वारा यह सोची-समझी साजिश के तहत किया जा रहा है जिससे शहरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पी चिदम्बरम जैसे लोग चाहते हैं कि भारत क जनसंख्या का 80 प्रतिशत हिस्सा शहरों में आ जाये (गांव
की उपजाऊ जमीन पूंजीपतियों के हो जायें)। जब गांव का किसान उजड़कर बेहतर जिन्दगी की तलाश में
शहर को आता है तो शहर में आकर वह अपने को ठगा सा पाता है और उसके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता है। अगर उसके जीवन में कुछ बदलाव आता है तो यह कि जहां वो गांव के खुली स्वच्छ चमचमाती दिल्ली की असलियत हवा में सांस लेते थे शहरों में आकर कबूतरखाने जैसे दरबे में
बदहाल जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं। गांव वापस टीबी, जोंडीस (पीलिया), चर्मरोग जैसी बीमारियों को लेकर जाते हैं और असमय काल के मुंह में समा जाते हैं। शहरों में इनका निवास स्थान झुग्गी-झोपड़ी या
फूट-पाथ होता है। इन स्थानों पर रहने वाले लोगों को अपमानजनक जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं उनको चोर, पाॅकेटमार, बलात्कारी, मूर्ख इत्यादि की उपाधि दी जाती है। 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की जनसंख्या 16,753,235 है। दिल्ली की 25 प्रतिशत जनसंख्या झुग्गियों में रहती है जो कि दिल्ली के क्षेत्रफल का मात्र आधे प्रतिशत ():) में स्थित हैं। दिल्ली शहर 1,48,400 हेक्टेअर क्षेत्र में फैला हुआ है। दिल्ली शहरी विकास बोर्ड के अनुसार दिल्ली में 700 हेक्टेअर जमीन पर 685 बस्तियां बनी हुई हैं। इन 685 बस्तियों में 4,18,282 झुग्गियां
हैं। सरकारी आंकड़े के अनुसार भारत में झुग्गी-झोपडि़यों में रहने वालों की ज न स ं ख् य ा 4,25,78,150 है
जिसमें दिल्ली में झुग्गी-बस्तियों की जनसंख्या 20,29,755 (सही आंकड़े 40 लाख से अधिक है) है।
यूएनडीपी के ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2009 में कहा गया है कि मुम्बई में 54.1 प्रतिशत लोग 6 प्रतिशत जमीन पर रहते हैं। दिल्ली में 18.9 प्रतिशत, कोलकता में 11.72 प्रतिशत तथा चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं।
अम्बेडकर बस्ती डाॅ. अम्बेडकर कैम्प झिलमिल इंडस्ट्रीयल दिल्ली के अम्बेडकर बस्ती जैसी अन्य बस्तियां; इन बस्तियों मे रहने वालों ने शहर को बनाया है और उन्हीं के बदौलत ये साफ-सफाई के काम, कल-कारखानें, मोटर-गाडि़यां चलते हैं। जब इनके द्वारा एक हिस्से का विकास हो जाता है तो इनको उठा कर नरेला, बावना और भलस्वा जैसे कुड़ेदान में फेंक दिया जाता है कि अब
वहां का कूड़ा साफ करो। मानो इनकी नियति ही यही है कि कूड़े की जगह को साफ-सुथरा करो फिर दूसरी जगह जाओ, जैसा कि भलस्वा में पुर्नवास बस्तियों को मात्र 10 साल का ही पट्टा दिया गया है और बी ब्लाॅक के बीच में बसा हुआ है। सरकारी आंकड़ों में इस बस्ती में 850 झुग्गियां हैं और यह 8175 वर्ग मीटर में बसा हुआ है, यानी एक झुग्गी 10 वर्ग मीटर से भी कम जगह में। यह कैम्प सन् 1975 में बसा था लेकिन इस बस्ती का व पटना के रहने वाले सहाजानन्द यादव (55 वर्ष) काॅपर की फैक्टीª में काम करते हैं। उनकी 6 ग् 6 फीट की झुग्गी है जिसकी उंचाई 7-8 फीट है। उनके कमरे में के एक कोने में 5 लीटर गैस का चुल्हा और दो-चार बर्तन है। गर्मी से राहत पाने के लिए एक छोटा सा पंखा है और मनोरंजन का कोई साधन नहीं। उनके घर में 3 ग् 6 फीट की एक तख्त (चैकी) रखा हुआ है जो कई जगह जला हुआ है। तख्त जलने के कारण पूछने पर बताये कि पहले यहां गड्ढा होता था और बारिश होने पर पानी झुग्गियों के अन्दर आ जाता था तो लोग तख्त पर रख कर खाना बनाते थे खाना बनाते समय उनकी तख्त जल गई है।
उन्होंने बताया कि शुरू में चटाई से घेर कर झुग्गियां बनाये थे।

जब वो ईंट की झुग्गी बनाने लगे तो एक सिपाही आकर पैसा मांगने लगा। सिपाही को पैसे का झूठाआश्वासन देकर उन्होंने अपनी झुग्गी बना ली। धीरे-धीरे मिट्टी भर कर जगह को ऊंचा किया और अब पानी नहीं लगता है। उन्होंने बताया कि 1975 में नेपाली मूल के लोगों द्वारा सबसे पहले झुग्गी डाला गया और उनकी
झुग्गी 1990 से वहां पर है। संजित कुमार (32 वर्ष) बिहार के जहानाबाद जिले के रहने वाले हैं। वे दस वर्ष से अम्बेडकर बस्ती में रहते हैं। पहले वे काॅपर की फैक्ट्री में काम करते थे, अब वे बस्ती में ही दुकान चलाते हैं।
दुकान तो उनकी अपनी झुग्गी में है और रहने के लिए दूसरी झुग्गी किराये पर ले रखी है। 10 वर्ष में
कई बार राशन काॅर्ड बनवाने की कोशिश की लेकिन दिल्ली सरकार ने आज तक उनका राशन काॅर्ड नहीं बनाया। जबकि उनके पास मतदान पहचान पत्र हैं और वे वोट भी डालते हैं।
शौचालय के लिए ज्यादातर लोग बाहर रेलवे पटरी पर जाते हैं।
बस्ती में एक शौचालय है जिसमें 2 रु. देकर शौच के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है।
भोला प्रसाद (42 वर्ष) बिहार के जहानाबाद के रहने वाले हैं। 1992 में इन्होंने झुग्गी खरीदी थी। इनकी भी झुग्गी 6 ग् 7 फीट की है। अभी इन्होंने अपनी झुग्गी के उपर एक और झुग्गी बना ली है जिसमें दोनों भाई रहते
हैं। इनका परिवार गांव पर रहकर मजदूरी करता है। भोला काॅपर फैक्ट्री में काम करते हैं जहां पर इनकी मजदूरी 6000 रु. मासिक है। शौचालय के लिए बाहर रेलवे लाईन पर जाते हैं। घर में कोई मनोरंजन के साधन नहीं है। पानी के लिए दो बाल्टी हैं जिन्हें कि सुबह ही भर कर रख देते हैं ताकि रात में आने के बाद खाना बना
सकें और पानी पी सकें। अधिकांश झुग्यिां 6 ग् 6 फीट की हैं लेकिन कुछ बड़ी झुग्गियां 8 ग् 6 फीट की हो सकती है। ज्यादातर घरों में परिवार है। ज्यादातर घरों में ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी है और किसी-किसी घर
में कलर टीवी भी होती है। महिलाएं सुबह जल्दी उठ कर शाचै क े लिए बाहर जाती हंै दिन के समय वे शौचालय का इस्तेमाल करती हैं। बाहर शौच की हालत है कि तेज बारिश होने से ही उसकी सफाई होती
है, नहीं तो शौच के ऊपर बैठ कर ही शौच करना पड़ता है।
बस्तियों में रोजमर्रा के कामों में शौचालय जाना और पानी भरना
एक बड़ी समस्या है। महिलाओं को अंधेरे में इसलिए जागना पड़ता है कि वो पुरुषों के जागने से पहले शौचालय से लौट कर आ जायें। उसके बाद पानी की समस्या आती है। अगर किसी दिन पानी नहीं आये तो नहाना नहीं हो पाता है। ज्यादातर पुरुष काॅपर की फैक्ट्रियों में काम करते हैं। वहीं कुछ महिलाएं फैक्ट्रियों
में जाती हैं। ज्यादातर महिलाएं घर पर ही पीन लगाने, स्टीकर लगाने जैसे काम करती हैं जो पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी 40-50 रु. ही कमा पाती हैं।
बस्ती से कुछ लड़कियां स्कूल-काॅलेज जाती हैं तो कुछ परिवार के कामों में हांथ बंटाती हैं। बस्ती की जिन्दगी सुबह 4-5 शुरू होती है और रात के 12-1 बजे तक चलती रहती है।
दिल्ली के बस्तियों (झुग्गियों)में आधे प्रतिशत जमीन पर 25प्रतिशत जनसंख्या निवास करती हैं। अगर अनाधिकृत कालोनियों (कच्ची कालोनियो) को मिला दिया जाये तो जनसंख्या करीब 65 प्रतिशत
पहुंचती है। दिल्ली नगर निगम द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिये गये हलफनामे के अनुसार 49 प्रतिशत लोग अनाधिकृत कालोनियों व बस्तियों में रहते हैं जबकि 25 प्रतिशत लोग ही योजनाबद्ध तरीके से बसाये
कालोनियों में रहते हैं।
मुम्बई का धारावी हो, कोलकता का नोनाडांगा या दिल्ली के अम्बेडकर बस्ती जैसी
अन्य बस्तियां; इन बस्तियों मे रहने वालों ने शहर को बनाया है और उन्हीं के बदौलत ये साफ-सफाई के काम,
कल-कारखानें, मोटर-गाडि़यां चलते हैं। जब इनके द्वारा एक हिस्से का विकास हो जाता है तो इनको उठा कर नरेला, बावना और भलस्वा जैसे कुड़ेदान में फेंक दिया जाता है कि अब वहां का कूड़ा साफ करो। मानो इनकी नियति ही यही है कि कूड़े की जगह को साफ-सुथरा करो फिर दूसरी जगह जाओ, जैसा कि भलस्वा में पुर्नवास
बस्तियों को मात्र 10 साल का ही पट्टा दिया गया है। इन इलाकों में इनको पीने के लिए पानी, बच्चों के लिए स्कूल तथा कोई रोजगार तक नहीं है। इनको रोजगार के लिए अपने पुराने क्षेत्र में ही जाना पड़ता है जहां
पर इनको आने-जाने में ही 4 घंटे का समय लगता है और इनकी मजदूरी का आधा पैसा किराये में चला जाता है। जब ये घर में ताला लगाकर चले जाते हैं तो इनके घरों के बर्तन तक ‘चोर’ उठा ले जाते हैं।
बाल श्रम मुक्त दिल्ली का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार बाल श्रम करने के लिए मजबूर कर रही है। पुनर्वास बस्तियों के बच्चे कबाड़ चुनने, मंडी, चाय की दुकान, फैक्ट्रियों में काम करते हुए मिल जायेंगे- आप चाहें तो
आजादपुर, जहांगीरपुरी जैसे क्षेत्रों में जाकर देख सकते हैं। इनकी बस्तियों के ऊपर कभी भी बुलडोजर चला दिया जाता है। चाहे बच्चों की परीक्षा हो, बारिश हो या कड़कड़ाती ठंड, इनको उठा कर फेंक दिया जाता
है जैसे कि इनके शरीर में हाड़-मांस न हो। इन बस्तियों को तोड़कर अक्षरधाम मंदिर, शापिंग काम्प्लेक्स बनाये जा रहे हैं। जिन लोगों के घरों पर बुलडोजर चलाया जाता है उनसे बहुत कम लोगों (शासक वर्ग
की जरूरत के हिसाब से) को ही पुनर्वास की सुविधा मुहैय्या कराई जाती है। जिन लोगों को पुनर्वासित किया भी जाता है तो कम जमीन का रोना रो कर 12 गज का प्लाट (इससे बड़ा तो ‘लोकतंत्र के चलाने वालों का
बाथरूम होता है) दिया जाता है, जबकि मास्टर प्लान 2021 में कहा गया है कि 40-45 प्रतिशत जमीन पर रिहाईशी आवास होंगे। अगर इन 25 प्रतिशत अबादी को 2 प्रतिशत भी जमीन दे दिया जाये तो ये कबूतरखाने से बाहर आकर थोड़ा खुश हो सकते हैं।
इतनी बड़ी आबादी को आधे प्रतिशत जमीन पर रहना भी
शासक वर्ग को नागवार गुजरता है। उनकी अनुचित कार्रवाई का जनपक्षीय संगठनों द्वारा जब विरोध किया जाता है तो दिल्ली हाईकोर्ट अपमानजनक टिप्पणी करते हुए कहता है- ‘‘इनको प्लाॅट देना जेबकतरों को ईनाम देना जैसा है।’’ कुछ तथाकथित सभ्य समाज के लोग कहते हैं कि इन बस्ती वालों के पास फ्रीज, कूलर, टीवी, अलमारियां हैं- जैसा की बस्ती में रहने वाले इन्सान नहीं हैं; उनको इन सब वस्तुओं की जरूरत नहीं
है। बस्ती में इस्तेमाल की जाने वाली ज्यादातर वस्तुएं सेकेण्ड हैंड (पुरानी) होती हैं। पुरानी वस्तुओं का इस्तेमाल कर ये लोग पर्यावरण को ही बचाते हैं। अगर आधे प्रतिशत जमीन का इस्तेमाल करने वाले पाॅकेटमार है तो कई एकड़ में फैले फार्म हाउस के मालिक क्या हैं? क्या दिल्ली हाई कोर्ट को उनके लिए भी कोई उपनाम है? जिस बस्ती में दो पीढि़यां समय गुजार चुकीं बस्ती में ही बच्चे पैदा हुए, पले-बढ़े और
उनकी शादी तक हो रही है तो क्या हम उनको वहां का निवासी नहीं मानते? कागज के टुकड़े (नोट) जिसके पास हैं चाहे वे विदेशी भी हों तो उनके लिए यह देश है! जिस विकास को लेकर रात-दिन सरकार
चिल्लाती है, जिसे सरकारी भाषा में जीडीपी कहते हैं वह मुख्यतः इन्हीं मेहनतकश जनता के बल पर होता है। इनके परिवार का एक सदस्य गांव में खेती-मजदूरी करता है तो दूसरा शहर में आकर मजदूरी का काम करता है। जब देश की आधी आबादी दो जून की रोटी की मोहताज है तो यह कैसा विकास है? मेहनतकश जनता, जो हमें रोटी से लेकर हर सुविधायें देती है, को हम इन्सान कब समझेंगे? क्या उनको सम्मानपूर्वक, इन्सान की
जिन्दगी जीने को कोई अधिकार नहीं है?

Saturday, June 18, 2016

रहस्यदर्शी कबीर 18-6-16

रहस्यदर्शी कबीर


कबीर जीवन के लिए बड़ा सूत्र हो सकते है इसे तो पहले स्मरण कर ले | इसीलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूँ |
महावीर सम्राट के बेटे है ; - कृष्ण भी , राम भी , बुद्द भी ; वे सब महलो से आये है कबीर बिलकुल सडक से आये है ; महलो से कोई भी नाता नही है |
कबीर अनूठे है और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है | कयोकी कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है | और अगर कबीर पंहुच सकते है , तो सभी पहुच सकते है |

कबीर निपट गंवार है , इसलिए गवार के लिए भी आशा है ; बे - पढ़े - लिखे है , इसलिए पढ़े - लिखे होने से सत्य का कोई भी सम्बन्ध नही है | जाति - पांति का कुछ ठिकाना नही कबीर की , शायद मुसलमान के घर पैदा हुए , हिन्दू के घर बड़े हुए | इसलिए जाति - पाति से परमात्मा का कुछ लेना - देना नही है |

कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे जुलाहे ; बुनते रहे कपडे और बेचते रहे ; घर छोड़ हिमालय नही गये | इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है , हिमालय जाना आवश्यक नही | कबीर ने कुछ भी न छोड़ा और सभी कुछ पा लिया | इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नही हो सकती |

और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नही है | इसलिए विशिष्टता अंहकार का आभूषण होगी ; आत्मा का सौन्दर्य नही |

कबीर न धनी है , न ग्यानी , न स्मादुत है , न शिक्षित है , न सुसंकृत है , कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया , तो तुम्हे भी निराश होने की कोई भी जरूरत नही |
इसलिए कबीर में बड़ी आशा है |


कबीर गरीब हैं , और जान गये यह सत्य कि धन व्यर्थ है | कबीर के पास एक साधारण - सी पत्नी है और जान गये कि सब राग - रंग , सब वैभव - विलास , सब सौन्दर्य मन की ही कल्पना है ||
कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए | बुद्द के पास तो तो अनुभव से आ जाती है बात ; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी |

कबीर सडक पर बड़े हुए | कबीर के माँ - बाप का कोई पता नही | कोई कुलीन घर से कबीर आये नही
सडक पर ही पैदा हुए जैसे , सडक पर ही बड़े हुए जैसे |
कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से कागज और स्याही छुई नही '' मसी कागज छुओ न हाथ '' |

ऐसा अपढ़ आदमी , जिसे दस्तखत करने भी नही आता , इसने परमज्ञान को पा लिया -- बड़ा भरोसा बढ़ता है | ----- साभार -- सुनो भई साधो -- ओशो

Monday, June 13, 2016

रजिया बेगम के बाद दिल्ली की राजगद्दी पर बलबन का आधिपत्य हुआ | 14-6-16

रजिया बेगम के बाद दिल्ली की राजगद्दी पर बलबन का आधिपत्य हुआ |
पिता और पुत्र -------- दूसरा भाग
इस मनमौजी सुलतान का मन दिल्ली से ऊब गया , यहाँ भीड़ -- भाड़ , छोटे -- बड़े मकानों और टेडी - मेढ़ी गलियों के भूलभुलैया को देखकर उस का मन कुढ़ जाता | उस की समझ में यह बात बैठती ही नही थी कि जितने लोग है , ये भी क्यों नही कच्चे मकानों की जगह महलो में रहना शुरू कर देते | ये दिल्ली वासी सुलतान और उसके अमीरों की तरह क्यों नही अच्छा पहनते और खाते ? सुलतान का दिल करता कि इन '' असभ्य '' लोगो के झोपड़ो में आग लगा दे , उसे इन '' जाहिलो और जंगली '' लोगो के बीच रहना भी मंजूर न था |
इसीलिए उसने दिल्ली छोड़कर अन्यत्र अपनी राजधानी बसाने का निश्चय किया इसके लिए पास ही किलोखड़ी में यमुना किनारे सुन्दर रमणीक स्थान चुना गया | जहा बादशाह के लिए आलीशान महल , ऐशगाह और बाग़ -- बगीचे हो | जहा उसके अमीरों के लिए भी आसमान को छूने वाली हवेलियों की कतारे हो , महलो और हवेलियों के सिवा और कुछ भी न हो |
सुलतान यह भूल गया कि उस के साम्राज्य में 95% व्यक्ति ऐसे ही है जो उसकी नई दिल्ली ( किलोखड़ी ) में रहने योग्य नही है | उसकी नई राजधानी को महल , हवेली , बाग़ - बगीचों से सजाने वाले यही वे '' जाहिल '' थे | जिन्हें इस सुन्दर नगरी में रहने की आज्ञा न थी | यदि वे न होते तो कौन अपना खून पसीना बहाकर इस आलीशान नगरी को बनाता ? यदि वे न होते तो कौन अपना पसीना बहाकर उसके लिए साम्राज्य स्थापित करता ? लेकिन उस घोर सामन्तवादी युग में ऐसी बाते सोचने की बुद्धि ही किस में थी ?
नवयुवक सुलतान ने दिल्ली के लाल महल को छोड़कर किलोखड़ी शहर के बीच यमुना तट पर ( जो अब दिल्ली का एक छोटा सा गाँव है ) अपने लिए सुन्दर -- सुन्दर रंगमहल और ऐशगाह बनवाये जिन में विषय , भोग , ऐश आराम और सुख के हजारो साधन मौजूद थे | यही यमुना किनारे उसने एक सुन्दर बाग़ लगवाया | सुलतान की देखादेखी उसके दूसरे अमीरों ने भी यहाँ अपने अपने महल बनवाये , धीरे -- धीरे दिल्ली की रौनक खीच कर किलोखड़ी में पहुच गयी | यहाँ आकर सचमुच सुलतान के साम्राज्य की कील उखड़ गयी | जिससे सारी की सारी दिल्ली सल्तनत डगमगा उठी और इससे पैदा होने वाले तूफ़ान में स्वंय सुलतान कैकुबाद सूखे पत्ते की तरह उड़ गया , कौन था उसके तख्त की कीले उखाड़ने वाला ?
वह व्यक्ति था --- मलिक निजामुद्दीन ? यह दिल्ली के कोतवाल मलिक कुल उमरा का भतीजा था , सुलतान ने इस धूर्त व्यक्ति के स्वभाव को परखे बिना ही उसे राज्य का सर्वेसर्वा बना दिया | पहले इसे दादबक ( महान्यायवादी ) और बाद में नायब ए मुल्क ( साम्राज्य का उपप्रधान ) बना दिया , साम्राज्य उसी के हाथो में थी |
सुलतान को तो सुरा और सुंदरी के उपभोग से ही समय नही मिलता था , विषय भोगो के अत्यंत सेवन से उसका योवन पुष्प खिलने से पहले ही कुम्हला गया | दिन पर दिन उसका स्वास्थ्य गिरने लगा | शरीर दुर्बल होकर पिला पद गया | लेकिन इसकी विषय लिप्सा में किसी प्रकार की कमी नही होने पाई |
मलिक निजामुद्दीन उन व्यक्तियों में से था , जिनके विषय में कहा जा सकता है कि वे जिस थाली में खाते है , उसी में छेद करते है | राज्य की बागडोर अपने हाथो में आते ही उसने अपने विरोधियो को रास्ते से हटाना शरू कर दिया , उसने सोचा , '' बूढ़े सुलतान बलबन ने 60 वर्षो तक दिल्ली साम्राज्य की देखभाल करके इसकी जड़े बहुत गहरी जमा दी थी | लोग उसके फौलादी शासन में विद्रोह न कर सके | उसके मरने से साम्राज्य में शक्ति शुन्यता आ गयी है | युवराज खाने सुलतान मर चुका है | बुगराखान लखनौती को लेकर ही मगन है | सुलतान कैकुबाद विश्यास्क्त्त होकर दीन दुनिया से बेखबर है | ऐसी दशा में मैं यदि शहजादे खानेमुलतान
के पुत्र कैखुसरु को मार डालू तो यह राज्य मेरी गोदी में पके हुए आम की तरह आ टपकेगा |
मन में इस प्रकार की दुर्भावना जमा कर इस विश्वासघाती कृतघ्न मलिक ने समय पाकर अनाडी सुलतान कैकुबाद से कहा , '' आपके दादा बलबन ने मरते वक्त कैखुसरु को सुलतान नियुक्त किया था लेकिन हमने चतुराई से आप को ही सुलतान बनाना उचित समझा | कैखुसरु आपके हिन्द साम्राज्य का हिस्सेदार है , वह कितने ही मलिक और अमीरों से मिलकर आपको मारने का षड्यंत्र रच रहा है जिससे आपका पूरा साम्राज्य ही उसका हो सके | विषयों में अंधे बने सुलतान ने सच्चाई जाने बिना ही कैखुसरु की हत्या करने के फरमान पर अपने हस्ताक्षर कर दिए | इसके बाद मलिक निजामुद्दीन ने कैखुसरु को दिल्ली आने का फरमान भेजा जब अभागा शहजादा मुलतानस से रोहतक पहुंचा तो मलिक के भेजे हुए हत्यारों ने उसे कत्ल कर दिया |
इस हत्या से दिल्ली ही नही सारे साम्राज्य में हलचल मच गयी | मलिक निजामुद्दीन का हौसला और बढ़ा , वह किसी बात पर सुलतान के एक वजीर ख्वाजा खतीर से नाराज हो गया | इस पर उसने वजीर को गधे पर चढा कर सारी दिल्ली और किलोखड़ी के बाजारों में घुमाया |
वजीर के इस घोर अपमान से राजधानी में आतंक छा गया | अब उसकी दृष्टि नये मुसलमानों पर पड़ी , वस्तुत: ये मंगोल थे जो बलबन के समय इस्लाम धर्म स्वीकार कर यही राजधानी में बस गये थे | इन नये मुसलमानों में बहुत एकता थी | और इनका एक बहुत शक्तिशाली गुट था | मलिक ने इन्हें अपनी योजना की पूर्ति में बाधक जानकार उखाड़ फेकने का निश्चय किया |
एक दिन नशे में मदहोश सुलतान से इनकी चुगली करते हुए कहा कि ये सुलतान के खिलाफ साजिश कर रहे है , इसी नशे की हालत में उसने इनकी हत्या करने के फरमान पर दस्तखत करा लिया और अचानक ही एक बहुत बड़ी सेना के सहायता से इन नये मुसलमानों की बस्ती को घेर लिया और सब को स्त्री बच्चो समेत कैद कर लिया | इन सभी कैदियों को पकड़कर निर्दयी मलिक यमुना किनारे ले गया और वह इन सब को क़त्ल कर डाला , यहाँ तक कि स्त्रियों और बच्चो को भी मार डाला हजारो मुसलमानों और उनके स्त्री बच्चो की इस सामूहिक हत्या से सारी दिल्ली में आतंक फ़ैल गया |
इस जघन्य हत्याकांड के बाद मलिक ने इन अभागो की सुनी बस्ती को लुट लिया और उसमे आग लगा दी | इसके नबाद उसने मुलतानके अमीर शेख और बरन के जागीरदार मलिक तुजकी
को मरवा डाला | ये दोनों ही बलबन के बड़े प्रसिद्ध और शक्तिशाली मलिक थे |
सुलतान कैकुबाद राजनीति और प्रशासन की कला में बिलकुल कोरा था , विषय लिप्सा ने उस के शरीर और मन बहुत दुर्बल बना दिया | मलिक निजुआमुद्दीन का उस के उपर बहुत प्रभाव था |यदि उसका कोई स्वामिभक्त अमीर मलिक निजामुद्दीन के अत्याचार और आतंक के विषय में सुलतान से कुछ कहता तो वह मूर्खतावश सारी बाते मलिक से कह देता कि अमुक आदमी तुम्हारे विषय में यह कह रहा था अथवा कभी -- कभी तो वह इन शुभचिंतक सेवको को सीधा यह कहकर मलिक के हवाले कर देता , '' ये लोग हमारे -- तुम्हारे बेच फूट डालना चाहते है ; '' |
मलिक निजामुद्दीन इन लोगो को तडपा - तडपा कर मार देता , नतीजा यह हुआ कि सुलतान से सच्ची बात कहने का किसी में साहस न रहा | मलिक का हौसला और बढ़ गया |
मलिक निजामुद्दीन का सुलतान के साम्राज्य व शासन प्रबंध में ही नही अपितु ख़ास रंगमहलो तक में भारी दबदबा था | मलिक की बेगम नवयुवक सुलतान की '' धर्ममाता '' बनी हुई थी ||
सुलतान के हरम का संचालन इसी कर्कशा और खूसट औरत के हाथ में था |
कामुक सुलतान इस कुटिल दम्पत्ति के हाथो की कठपुतली बन गया | मलिक के इस प्रभाव को देखकर बहुत से अमीर अपने प्राण बचाने अथवा अधिक लाभ पाने की आशा में उसके झंडे के नीचे आ गये | इस तरह उसकी शक्ति और भी बढ़ गयी | शक्ति बढ़ने के साथ उसका दिमाग भी सातवे आसमान पर रहने लगा |
एक दिन मलिक के चाचा एवं ससुर मलिक कुल उमरा फकरुद्दीन ने , जो दिल्ली के कोतवाल थे | उसे एकांत में समझाया , '' बेटा , मैंने और तेरे पिता ने अस्सी वर्ष तक दिल्ली की कोतवाली की है | हम लोग कभी राजनितिक हथकंडो में नही पड़े | इसीलिए अब तक सुरक्षित रहे | तुम भी इन राजनितिक कुचक्रो षडयंत्रो , हत्याओं , लूटमार और उखाड़ पछाड़ से दूर रहो , इसी में तुम्हारा कल्याण है | यदि तुमने राजगद्दी के लोभ से विषयान्ध दुर्बल सुल्तान को मार भी दिया तो उसके अमीर तो तुम्हारी जान के ग्राहक हो ही जायेंगे | मरने के बाद भी इस पाप का जबाब खुदा को देना होगा |
बूढ़े और अनुभवी कोतवाल की इस शिक्षा का मलिक पर कोई असर नही हुआ | वह उसी खोटी चल पर चलता रहा |
मलिक निजामुद्दीन के आतंक , अत्याचार , और सुलतान के विषय भोगो में लिपटे रहने की कहानिया सारे देश में फ़ैल चुकी थी | सुलतान कैकुबाद का पिता बुगराखान लखनौती का सूबेदार था | बलबन की मृत्यु के बाद उसने स्वंय को स्वतंत्र सुलतान घोषित कर के फतवा पढवाया था | जब से उसके कानो में दिल्ली की ये घटनाए पहुची तो वह अपने पुत्र की प्राण रक्षा के लिए चिंतित हो उठा | पिता और पुत्र के बीच संदेशो और भेटो का आदान प्रदान चलता रहता था | उसने बार बार अपने बेटे को शिक्षाए लिख कर भेजी कि वह विषय भोगो में न फंस कर अपने राज्य की देखभाल में मन लगाये , लेकिन सुल्तान पर इन उपदेशो का असर नही हुआ |
पत्रों से कोई प्रभाव न पड़ता देखकर बुगराखान ने अब स्वंय अपने पुत्र से मिलने का विचार किया और इस आशय का एक पत्र दिल्ली भेजा | जिसे पढ़कर सुलतान का सोया हुआ पितृ प्रेम
जाग उठा | और वह अपने पिता से मिलने को उत्सुक हो उठा | दिल्ली और लखनौती के बीच कई सन्देश और पत्रों का आदान प्रदान होने के बाद यह तय हुआ कि पिता और पुत्र अवध में सरयू नदी के तट पर मिलेंगे |
सुलतान ने प्रसन्न मन से अवध यात्रा की तैयारी करने का आदेश दिया | सुलतान के उत्साह और धूमधाम से यात्रा की तैयारी ने मलिक निजामुद्दीन के कण खड़े कर दिए | उसने सोचा , '' कही ऐसा न हो कि बुगराखान अपने पुत्र को उसके विरुद्ध भडका दे , '' उसने पहले तो सुलतान को जाने से रोकना चाहा पर जब सुलतान के हठ के आगे उसकी एक न चली तो उसे सेना साथ ले जाने की सलाह दी | कैकुबाद ने यह सलाह मान ली | दिल्ली का सुल्तान अपने पिता से मिलने के लिए जल्दी से जल्दी पड़ाव पर पड़ाव डालता हुआ सरयू नदी के किनारे जा पहुचा |
बुगराखान कोजब अपने पुत्र सुलतान के सेना सहित आगमन का पता चला तो वह समझ गया कि दुष्ट मलिक ने उसके बेटे को उलटी -- पट्टी पढाई है | फिर भी मिलने की तैयारिया की | उसने जंगी हाथी , सवार तथा फौजे सजा कर धूमधाम से सरयू के पूर्वी तट पर डेरा डाल दिया | पिता और पुत्र की छावनिया सरयू नदी के किनारे आमने -- सामने पड़ गयी | दो तीन दिन तक संदेशो का आदान -- प्रदान चलता रहा | अन्त में निश्चय हुआ कि बुगराखान नदी पार करके अपने पुत्र के दरबार में कदमबोसी के लिए आयेगा |
जब दिल्ली के अमीरों का यह सन्देश बुगराखान को मिला तो उसने कहा , '' भले ही कैकुबाद मेरा बेटा है , फिर भी वह दिल्ली का सुलतान है | मैं पिता होते हुए भी उसका छोटा सा सूबेदार हूँ | मैं दिल्ली सुलतान के कदम चूमने दरबार में अवश्य जाउंगा इसी में दिल्ली के सुलतान और सल्तनत की इज्जत है | मैं इस इज्जत को कायम रखूंगा | दूसरे दिन सुलतान कैकुबाद की छावनी में दरबार सजाया गया , पिता और पुत्र के ऐतिहासिक मिलन की इस घटना को अमर बनाने के लिए दरबार की शानशौकत और साज सजावट खूब तडक भड़क के साथ हुई | दिल्ली का नवयुवक सुलतान कैकुबाद अपने खान मलिक , अमीर और दूसरे अधिकारियों सहित शाही गौरव के साथ दरबार में राजगद्दी पर बैठा था | थोड़ी देर बाद उसका पिता बुगराखान अपने चुने हुए अमीरों के साथ सुलतान के आगे कदमो में अपना सिर झुकाने आया | उसने दरबार में घुसते ही ऊँचे मंच के उपर रत्नजटित राज सिहासन पर अपने भाग्यशाली पुत्र को बैठे देखा तो उस का हृदय आनंद से खिल गया | उसने पिता पुत्र के सम्बन्ध को भुलाकर दिल्ली सुलतान के सामने धरती पर तीन बार अपना माथा रगडा और फिर सिहासन की ओर बढ़ा | सुलतान कैकुबाद पत्थर के एक बुत की तरह अपलक नेत्रों से इस सारे कार्यक्रम को देख रहा था | उसका वृद्ध पिता उसके सामने धरती पर माथा रगड़ रहा था | वह अब और अधिक न सारे चिन्ह एक ओर हटा दिए और सिहासन से उठ खड़ा हुआ , वह एक क्षण के लिए झिझका और फिर '' अब्बाजान '' कहता हुआ दौड़ कर उसकी छाती से जा लगा |
पिता और पुत्र दोनों के इस मिलन को देखकर उस समय बड़े -- बड़े पत्थर दिल वाले सभी अमीर तुर्क रो पड़े | सारे दरबार में भावुकता का दौर बह चला | जिसे देखो वही आँसू भा रहा था |
कुछ समय बाद पिता और पुत्र ने धैर्य धारण किया | सुलतान कैकुबाद सादर अपने पिता को राज सिहासन तक ले गया और उसे अपने बराबर बैठाया | दोनों ओर से भेटो का आदान -- प्रदान हुआ | औपचारिक राजनितिक वार्तालाप हुआ और फिर एकांत में दोनों कुछ समय बाते करते रहे | वातावरण बड़ा ही सुखद आह्लादकारी था | राज्य को लेकर पिता और पुत्र में प्रेम तथा सौहार्द उत्पन्न होना -- यह सरयू तट की शाश्वत विशेषता है |
इसी प्रकार कई दिनों तक पिता और पुत्र की भेटे होती रही , एक दिन बुगराखान ने सुलतान को जमशेद के कहानी सुनाई '' मेरे लाडले बेटे ' इस प्रकार विषय भोगो में डूब कर तुम अपना स्वास्थ्य और साम्राज्य तो नष्ट कर ही लोगे , उन महान सम्राटो के उपदेशो का भी अनादर कर डोज ' |
भावना में बहकर वह रो पडा , ममता ने उसके हृदय पर अधिकार जमा लिया \ सुलतान ने पिता के चरणों में सिर रखकर कहा '' अब्बा हुजुर , इस बार आप माफ़ कर दे , दोबारा आपको कोई शिकायत सुनने को नही मिलेगी , मैं इन बुरे कामो से तौबा करता हूँ |
सुलतान ने कहा , '' बेटा तुम तब तक सफल नही हो सकते जब तक दुष्ट निजामुद्दीन का तुम पर प्रभाव है '' |
'' मैं मलिक को भी चतुराई से ठिकाने लगा दूंगा , '' सुलतान ने आश्वासन दिया |
बुगराखान ने आह भरकर कहा , '' बेटा बहुत सोच समझकर फूंक -- फूंक कर कदम रखना , तुम ने न जाने कितने आस्तीन के साँप पाल रखे है |
यह उन दोनों की अंतिम भेट थी | दोनों ने आँसू भरी आँखों से एक दूसरे को विदा किया | पिता से मिलने के बाद विषय लोलुप्त सुलतान कैकुबाद के जीवन में एकदम परिवर्तन आ गया | उसने शारब से पूरी तरह तौबा कर ली | सुन्दरियों के जमघट को दूर हटा दिया अब वह एक कर्मठ युवक की तरह राजकाज देखने लगा था | सुलतान के इस परिवर्तन से मलिक निजामुद्दीन का माथा ठनका , उसे अपने हाथ से साम्राज्य की बागडोर खिसकती दिखाई दी | उसने सुलतान के मन और सयम को विचलित करने के लिए षड्यंत्र रचा | वह किसी अद्दितीय अल्हड युवती की तलाश में व्यस्त हुआ जिसमे सहज आकर्षण हो | उसकी खोज सफल हुई और उसने एक बेश्या की अति सुन्दर , चतुर , वाचाल अल्हड बछेडी की तरह मदमस्त एक नवयुवती लड़की को ले लिया और पड़ाव के आगे बीच रास्ते में खेतो की मेड़ो पर एक ऐसी जगह बैठा दिया , जहा सुलतान की नजर उस पर पड़ कर ही रहे , साथ ही ऐसा हो कि वह उस स्थान पर सुलतान को अकस्मात मिलती सी जान पड़े |
अगले दिन सुलतान की सवारी उस रास्ते से निकली तो उसने खेत की मेड पर एक सुन्दर ग्राम्य गीत गाती हुई उस आकर्षक कन्या को देखा जिसके रोम -- रोम से सौन्दर्य और लावण्य का स्रोत फूट रहा था | सुलतान इस अल्हड युवती के मधुर आवाज , रूप माधुरी अदा , शोखी हाजिर जबाबी और कविता पर सौ जान से कुर्बान हो गया | वह सुंदरी कविता में ही बाते करती थी | उसकी वेश भूषा बड़ी भव्य और आकर्षक थी | उसके हाव - भाव किसी भी जितेन्द्रिय का धैर्य और सयम डिगाने के लिए पर्याप्त थे |
सुलतान का मन उस सुन्दरी बाला के रूप जाल और हाव - भाव पर बुरी तरह रीझ गया | वह एक बार गिरा तो बस गिरता ही चला गया | उस अल्हड , मस्तानी लड़की के एक कटाक्ष पर ही वह अपने पिटा की सारी शिक्षा भूल गया | शराब और सुंदरी से बचने की सारे प्रतिज्ञाए पानी में बह गयी | उसकी जिन्दगी फिर उसी पुराने ढर्रे पर चलने लगी | मलिक अपनी सफलता पर फुला न समाया | लेकिन अब उसके पापो का घडा भर चुका था | एक दिन अचानक सुलतान की मोह निद्रा टूटी | उसे अपने पिता के वाक्य याद आये , उसने बड़ी कुशलता से इस दुष्ट मलिक को विष देकर मरवा दिया | इस तरह उसने इस महत्वाकांक्षी निर्कुश व्यक्ति से अपनी प्राण रक्षा कर ली |
मलिक निजामुद्दीन में यदि राजद्रोह व अमीरों के प्रति द्वेषभाव न होता तो वह सोने का आदमी था , वह कुशल प्रशासक , परिश्रमी , धुन का पक्का था | उसके मरते ही सारा प्रशासनिक ढाचा चरमरा कर गिर पडा | अति विषय सेवन से दुर्बल होकर सुलतान को अर्धांग ने धृ पकड़ा | अब वह खात पर पडा पडा कराहने के अलावा और कुछ नही कर सकता था | दिन प्रतिदिन उसकी दशा बिगडती जा रही थी | इधर राज्य में बड़ी अराजकता फैलने लगी | इस भयंकर स्थिति को देखते हुए बलबनी अमीरों ने कैकुबाद के नन्हे से पुत्र को शम्सुद्दीन का खिताब देकर दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया | देश में अशांति और अराजकता के बादल गहरे होते जा रहे थे |
इस अराजकता का लाभ जलालुद्दीन खिलजी ने उठाया | वह समाना का नायब और बरन का जागीरदार था | उसने अपने सरदारों को एकत्रित करके विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया | जलालुद्दीन खिलजी के साहसी पुत्रो ने पांच सौ सवार लेकर एक दिन अचानक महल पर हल्ला बोल दिया और नन्हे सुलतान को उठा ले गये | इसी बीच खिलजियो ने एक मलिक को सुन्ल्तान कैकुबाद की हत्या करने भेजा सुलतान ने पहले कभी इस मलिक के पिता को मरवा डाला था | यह मलिक एक शक्तिशाली सैनिक दस्ते के साथ महल में घुस गया |
सुलतान अर्धांग रोग से अपंग और लाचार होकर पलंग पर पडा था वह फटी फटी आँखों से इन हत्यारों को देखता रहा | मलिक ने सुलतान को तीन -- चार ठोकरे मारी , फिर उसे उठाकर यमुना में फेंक दिया | ठोकरों और बीमारी से अधमरे सुलतान की दुर्बल काया को यमुना की लहरों ने अपनी बाहों में समेत लिया |
सुलतान कैकुबाद के इस करूं अंत के साथ दिल्ली पर तुर्कों का शासन समाप्त हो गया और खिलजियो की पताका फहराने लगी |
सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक आभार -- स . विश्वनाथ

Saturday, June 11, 2016

शून्य से शिखर की ओर 12 - 6- 16

एक मुलाक़ात
शून्य से शिखर की ओर

अगर मनुष्य दृढ संकल्पि हो तो वो अपना मुकाम हासिल कर सकता है , यह अपने कर्म क्षेत्र में सचिन सक्सेना ने कर दिखाया है | श्री बिहारी लाल सक्सेना के तीन पुत्रो में सबसे छोटे सचिन के बड़े भाई डॉक्टर रवि सक्सेना जी जो सूरत मेडिकल कॉलेज में प्रफ़ेसर के पद से रिटायर्ड हों कर अब भोपाल एम॰पीं में चिरायु मेडिकल कॉलेज में डीन के पद पर कार्यरत हैं , उनके बाद के भाई रायपुर छत्तीसगढ़ में हाउज़िंग बोर्ड में कमिश्नर रहे है |
सचिन अपने जीवन के सफर की बात कुछ शायराना अंदाज में शुरू करते है जिन्दगी जिन्दा दिली का नाम है , जब मैं इंजीयरिंग करके इंदौर लौटा तो उस वक्त मेरे जेहन में सरकारी नौकरी करने का था मैं एक दिन बड़े भाई के यहाँ बैठा हुआ था उन्होंने पूछा अब क्या करना है ? मैंने तुरंत जबाब दिया कि मर्सडीज पे चलना है बड़े भाई साहब ने उत्तर दिया सरकारी नौकरी से तो नही कर सकते मैंने कहा देखते है तब मैंने अपने मित्र श्री ओम् प्रकाश विजयवेर्गिय के साथ सीता कन्स्ट्रक्शन & सीता होम्स प्रा. लि. कम्पनी बनाई | उसके बाद सफर हुआ लक्ष्य तय था धुन का पक्का हूँ इस सफर में बहुत से आंधी व तूफ़ान का सामना हुआ फिर भी उन रास्तो में निर्विघ्न आज तीस सालो से हम दोनों मित्र कदम से कदम मिलाकर बढ़ते चले जा रहे है | बात को मैंने रोका पूछा कि तब के समय में और आज के समय में अन्तर सचिन मुस्कुराये और जबाब दिया समय लगातार बदलता है | सबसे जरूरी है समय के हिसाब से अपने को ढालना अपनी सोच को वृहद् करना तभी सफलता मिलेगी |
आई डी एल के बारे में कहना है हर चीज के लिए अलग - अलग आई . डी एल . होता है साहित्य की बात करते हुए कहते है कि माता - पिता से वरासत में मिली है साहित्य पढने का शौक है मुझे संगीत में रूचि रखता हूँ | अपने शगल के बारे में चर्चा करते हुए कहते है किलांग ड्राइव वो भी तेज गाड़ी चलना साथ में कार के अन्दर तेज आवाज में संगीत सुनना आने वाली पीढियों के लिए कहते है कि आज की पीढ़ी ज्यादा समझदार हो गयी है आदमी अपने कर्मो से सिख लेता है अपने स्वत: के विचारो से व्यक्ति को आगे बढना चाहिए | सचिन को अपने बेस्ट वर्क ( पुलिस हाउजिंग ) को समय के अन्दर मानक के अनुसार काम करने पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा वेस्ट वर्क एवार्ड दिया गया है हम उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते है |

इंदौर जहा लोग खाने के शौक़ीन है -- 11-6-16

इंदौर जहा लोग खाने के शौक़ीन है
रात दस के बाद जमती है महफिल भोर पांच बजे तक


रात भर सराफे बाजार में रहती है हलचल
इंदौर एक खुबसूरत शहर इस शहर को होलकर वंश ने बसाया था इसे सवारा था अहिल्याबाई होलकर ने यह शहर देश में अलग किस्म का है |


 यहाँ के लोग आज भी अपने को मालवा से जोड़कर देखते है मालवा संस्कृति में जहा यह शहर मेहमान नवाजी में आगे है वही पर यहाँ के लोग खाने के बड़े शौक़ीन है | इस शहर में एक ख़ास जगह है जिसे सराफा बाजार बोलते है , सचिन जी से इस बाजार की मैंने खूब चर्चा सुनी मन में कौतुहल था देखना है वो अपने परिवार के साथ उस बाजार में ले गये मुझे जब मैं उस गली के अन्दर पहुचा तो रात के करीब 10 बज रहे थे और मेला जैसी भीड़ मुझे नजर आई सचिन बताने लगे हमारा शहर खाने और स्वाद का बड़ा शौक़ीन है मैंने वह पाया की सराफे के दुकाने बंद है और वहा पर पारम्परिक जैसे दही बड़ा ,भुट्टे का किस, गरॉडू जो मालवा में ही मिलता है ,साबुड़ने की खिचड़ी, चाट ,गोलगप्पे,मावाकीजलेबी, मालपुआ गुलाबजमुन आदि ख़ास तौर पर भुट्टे और साबूदाने की खिचड़ी का मैंने जबरदस्त आनन्द लिया | 


आभार सचिन जी आपका |

Sunday, June 5, 2016

उज्जैन में विश्व की अदभुत राम प्रतिमा - 5-6-2015

उज्जैन में विश्व की अदभुत मूर्ति शिल्प इस मंदिर में श्रीराम व लक्ष्मण के मुछे है साथ ही इन तीनो के एक पैर सीधा है दूसरा उत्तर की तरफ मुडा हुआ है |
सिंहस्थ में महेश यादव जी के बाबु जी के साथ अन्य जगहों को देखने का अवसर मिला उसी में एक मंदिर है रामजानकी मंदिर पुरातत्वीय प्रमाणों के आधार पर प्रतीत होता कि इन मंदिरों का निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह जी द्वारा 17 वी शताब्दी में कराया गया था |
इसके चारो ओर परकोटा तथा कुण्ड मराठो के समय 18 वी शताब्दी में निर्मित किये गये थे |
इन मंदिरों के बहार मराठा कालीन चित्रों की विशेषता है भित्तियों पर बने बोद्ल्या बुआ महाराज धोलिबा संत तुकोबा आदि के चित्र है |
इस मदिर की सबसे बड़ी विशेषता कि यहाँ मंदिर में श्रीराम , लक्ष्मण व सीता की मूर्तियों के पैर टेढ़े है साथ ही श्रीराम व लक्ष्मण की मुछे भी है | वह के लोगो के कथानुसार श्रीराम जब वन गमन में ही इस तरफ आये थे तब उनके दाढ़ी - मोछ थे साथ ही यहाँ से उत्तर की तरफ वे जब पहाडो की तरफ गये तो उनका एक पाँव सीधा था दुसरा उत्रर की ओर था |

Wednesday, June 1, 2016

आदिवासी इतिहास के -- सन्दर्भ में 1- 6 - 2016

उज्जैन यात्रा के दौरान अन्य जगहों पर कुछ साथियों से मुलाक़ात हुई , उनसे कुछ आदिवासियों पर जानकारी प्राप्त की उसका थोड़ा सा अंश
आदिवासी इतिहास के -- सन्दर्भ में
आदिवासियों का इतिहास विशिष्ठ है | यहाँ के आदिवासी कबीलों के छोटे - छोटे खुद के राज्य थे | आदिम जीवन - यापन कर रहे थे | गणतांत्रिक सौहाद्ररूप , शान्तिपूर्ण तरीके से इनके समाज की सत्ता चल रही थी | खासकर आलीराजपुर क्षेत्र के आदिवासी राजाओं के अधीन 12 गाँव हुआ करते थे , अभी भी यहाँ के आदिवासी समाज में '' 12 गावीया पटेल '' का बहुत महत्व है | आपस में चोरी , डकैती , अपराध प्रवृत्ति का कोई स्थान नही था |
कन्नौद ........... से आये राजपूत वर्ग ने आदिवासियों के सैकड़ो राजाओं की राज्य सत्ता को छीन लिया | इस संघर्ष में लाखो आदिवासी मारे गये अकेले आदिवासी राजा ज्म्बुरा होडिया के 13.000 साथी मारे गये थे | अब अंदाजा लगाओ कि सैकड़ो आदिवासी राजाओं के राज्य छींटे समय कितने आदिवासियों ने कुर्बानी दी होगी | आली के राजा अलिया भील के नाम से आलीराजपुर नाम पडा था , ऐसा कई जगह पर हमे जान्ने को मिला | काठिया भील से कट्ठीवाड़ा , मोतिया भील से मथवाड़ा , झबु नाइक से झाबुआ , थाना नाइक से थान्दला , बासिया भील से बांसवाडा ( राजस्थान ) मान्या भील से मानगढ़ ( राजस्थान ) सोन्या भील से चोनगढ़ ( गुजरात ) अदि .
भीली स्थान के पुरे क्षेत्र में आदिवासी राजाओं का पूर्ण आधिपत्य था किन्तु इस धरती पर ऐसी कुछ जातिया है , उनका उद्देश्य केवल राज करने का रहता है | ऐसी ही राठौर जाति राज करने के लिए सबसे पहले आलीराजपुर क्षेत्र पे आई थी , हम पहले स्वतंत्रत थे , किन्तु आवेला राठौर वंशो के अधीन यहाँ के आदिवासी गुलाम बन गये . 1357 से 1947 ई. तक 30 शासको ने आलीराजपुर क्षेत्र के आदिवासियों पर राज्य किया , आदिवासियों ने औनिवेशिक जीवन बिताया |
इस दौरान आदिवासियों की अर्थ व्यवस्था , समाज व्यवस्था , रीती रिवाज , तेज त्योहार परम्पराओं में आवेल राजाओं ने खूब हस्तक्षेप किया , सब कुछ अपना जो समाज व्यवस्था थी , नियम एवं कायदे - कानून थे | उन्हें भुला दिए गये , आपस में जब अतिथियों - अजनबियों से हम मिलते थे , तो जुद्दार बोला जाता था , किन्तु अब केवल शादी - विवाह के समय लड़की या लड़के को देव स्थान पर ले जाते है , केवल वहा ही जुहार करने का बच गया है , कुछ लोग ' अवल से के ' ऐसा अभी भी बोलते है |
यह सब भुलाने के पीछे राठौर वंशी राजाओं के 639 वर्ष तक राज करने का मुख्य कारण रहा है , जिन्होंने हमे मार - मर कर राम - राम करना सिखाया असहनीय वेथ - बेबार , मुफ्त के श्रम में बड़े - बड़े किले , राज महल , मंदिर , इमारते खड़ी कर लिई जमीन का लगान इतना था कि , जमीन के के बिना जंगलो पर आधी रात जीवन गुजारना पडा या चोरी छिपे जंगलो में खेती करनी पड़ी , अकाल , भुखमरी के समय में भी जमीन को हड़प कर राजाओ ने अपने सगे सम्बन्धियों ( ठाकुरों ) को दे दी , जो किसान लगान नही दे पाता, उसकी जमीन छिनकर ठाकुरों को दे दी जाती थी , छापरिया , पिपल्यावाट सोंडवा , फुलमाल , अकलवा इसके ज्वलंत उदाहरण है |
इन राजाओ की जेल में इन्हें जानवरों जैसा खाना मिलता था , पुराना कडवा अनाज खुद पीस कर खाते थे , डीएसटी - उलटी से अधिकतर कैदी जेल में ही मर कर खत्म हो जाते थे | 1908 में प्रति कैदी वार्षिक व्यव 30 रूपये था राजवंशियो द्वारा आदिवासी समाज के लोगो के साथ भारी अत्याचार , योनाचार , दमन करने का पूरा सत्य इतिहास ने छुपा रखा है |
आर्यों के आगमन के समय से इस देश के मूल निवासी के साथ धोखा ही धोखा हुआ है | ऋग्वेद काल , महाभारतकाल में असुर , दुष्ट , राक्षस कह कर आदिवासियों को मारा गया | धनुर्विद्या सिखने गये भील एकलव्य द्रोणाचार्य के पास गया तो अंगूठा काट लिया , समुद्र गुप्त , अशोक महान के समय कलिंग युद्द में आदिवासी सरदारों सहित लाखो आदिवासी मारे गये |
हल्दीघाटी की लड़ाई में हल्दू नाम की भील लड़की सबसे पहले मारी जाती है , बिरसा मुण्डा के विद्रोह में भी सैकड़ो आदिवासी मारे गये , खाज्या नैक की लड़ाई में 57 आदिवासी को गोली से भुन दिया जाता है | मानगढ़ पर्वत पर गुरुगोविंद गिरी के मेले में 3500 आदिवासी कत्लेआम कर दिए गये थे | मेवाड़ के राणाप्रताप के उपर जब जन का खतरा आया तो आदिवासी ही उन्हें अपने घरो में छुपा कर रखते थे खतरा टलने के बाद राणाप्रताप रजा बनते है और उनका सेनापति आदिवासी भिल्लू राना बनता है | सरदारपुर के राजपूत राजा बख्तावर सिंह के राज सिंघासन पर खतरा आता है , तो आदिवासी सैनिक ही लड़ाई में अपनी कुर्बानी देकह्र राजस्ता को बचाती है |