Tuesday, July 31, 2018

ब्राह्मण - भाग - चार 31-7-18

ब्राह्मण - भाग - चार

मैंने भी इसके विरुद्ध अपनी आवाज उठायी | 'धिग्बल क्षत्रियबल ब्रम्हतेजोबल बलम ' का सबल नाद किया | यजमान को निरस्त करने का सब प्रकार से प्रण किया परीक्षित ने मेरे गले में मरा नाग डाल मेरी समाधि का उपहास किया , उसे ढोंग कहा | मैंने भी सीमा प्रांत के उन नागो को भडका दिया , जिनके देवता उरग थे | परीक्षित को तो सात दिनों में मार डालने की घोषणा कर नागो ने अवधि के भीतर मार ही डाला और अर्जुन का साम्राज्य उसकी रक्षा न कर सका | फिर प्रतिशोध की भावना से उतप्त हो जन्मेजय ने तक्षशिला का दारुण और नृशंस नर - यज्ञ किया - नाग - यज्ञ युद्ध में धोखे से , खुले आम पकड - पकड नाग वीर लाये जाते और उन्हें आग में डाल दिया जाता कुभाकुमु की घाटी और निषध की उपत्यका में बसने वाले नागो की जन्मेजय की साम्राज्य - शक्ति के सामने विसात ही क्या थी ? वे पकड़ कर लाये जाते और जलती शिला पर तक्षक परिवार जला डाले जाते | निश्चय ही मैं उस नाग यज्ञ नरमेध - का ऋतिव्ज था , परन्तु उस दारुण क्रूरता में मेरा मन न था | मैंने वह यज्ञ भय के कारण कराया कयोकी मैं जानता था कि आपत्ति करते ही मुझे भी शिला के उपर अग्नि की लपेटो का आलिंगन करना होगा | फिर भी मैंने युक्ति और सावधानी से नागो के राजा तक्षक को निकल भागने दिया | जन्मेजय ने अश्वमेध भी किया | और मैंने अबकी उसे अपावन कर देने की प्रतिक्रिया की | उसे अपावन कर भी दिया | वह कथा साहस की है और रहस्य की , जिसे मैंने अपने ब्राह्मणों में सुरक्षित किया | मेरे आचरण से जन्मेजय के भाई - राजन्य - श्रुतसेन और भीमसेन अत्यंत कुपित हुए और उन्होंने वहाँ उपस्थित सारे ऋषि समुदाय को तलवार से मौत के घाट उतार दिया | अश्वमेध अपावन होगा , इसकी गंध ब्राह्मणों को लग चुकी थी और वे जन्मेजय का पराभाव देखने अधिक - से अधिक संख्या में आये | प्राय: साठ हजार की संख्या में उनका वध हुआ |
जो बचे उन्हें जन्मेजय ने भारत से बाहर निकाल दिया मेरे अभाव में क्षत्रियो को अपनी क्षति का पता चला | मेरी व्यवस्था में वैश्य , शुद्र सभी अपने स्थान पर थे | अब उनका स्खलन होने लगा | सबकी महत्वाकाक्षा प्रबल हो उठी | सारे जप - तप यम- नियम यज्ञानुष्ठान बंद हो गये और उनको कराने वाला कोई न रहा | पौरोहित्य के लिए क्षत्रियो ने प्रयास किया था परन्तु उसके विस्तृत कार्यक्षेत्र को सभालना उनके वश की बात न थी और उन्होंने अपने कंधे नीचे डाल दिए | हारकर राजन्यो को मुझे फिर बुलाना पडा | उन्होंने मुझसे लौटने की बड़ी मिन्नते की , और मैं लौट भी आया , कयोकी आखिर मैं कब तक दर - ब- दर फिर सकता था , जब मेरा सारा साम्राज्य भारत में अराजक स्थिति धारण कर रहा था , कर चूका था| , मैं लौटा और मुझे अपनी शक्ति का अंदाज लगा | देश में प्रत्येक कार्य रुका हुआ था | और उसे अपने अभाव में और पंगु कर देने के लिए मैंने ब्राह्मणों - ग्रंथो का निर्माण किया | अपने क्रियानुष्ठान और कर्मकांड की विधिया विधानत: लिख डाली और उनको ब्राह्मण कहा | ये ही ब्राह्मण मेरी सन्तान की सम्पत्ति हुए उनके मूल ग्रन्थ , उनकी शक्ति के रहस्य और व्यापार की कुंजी | अब उनके व्यापार में कोई अन्य हिस्सा नही लेता | कर्मकांड और पौरोहित्य अब सर्वथा उनका था और उनमे अब किसी की गति न हो सकती थी | हाँ , यदि कोई पौरोहित्य तथा कर्मकांड पर ही आघात किया , तो बात दूसरी थी | और उन्होंने पौरोहित्य तथा कर्मकांड पर आघात किया | क्षत्रियो ने भी अपने ब्राह्मण रचे जिनके नाम उपनिषद हुए | उपनिषदों में उनके उत्कर्ष की कथा कही गयी | गीता उसकी अंतिम श्रृखला थी , जिसमे क्षत्रिय को ईश्वर का स्थानापन्न किया गया | उपनिषदों में एक नये ब्रम्ह और आत्मा का वर्णन आया | ये ब्रम्ह और आत्मा दोनों अनादि और अनंत थे अजन्मा | आत्मा शरीर के अन्दर रहकर भी अजर - अमर और शरीर के कार्यो से उदासीन रहती है | पशुमारण - धर्म व्यर्थ - बेजा है | यज्ञ निन्ध्य है | पौरोहित्य निम्न स्तर की वस्तु है | ज्ञान बड़ी चीज है | ब्रम्ह ज्ञान ही मोक्ष का साधन है | शरीर दुःख है | आवागमन उसका बड़ा प्रतिबन्ध है | जनपद राज्यों के खड़े हो जाने पर राजाओं को अब ब्राह्मणों की आवश्यकता विशेषत: न रही | क्षत्रिय या तो राजकर्मचारी और सैनिक थे या भूस्वामी | अपनी आय के सम्बन्ध में इस प्रकार निश्चिन्त हो राजा और क्षत्रिय उस दर्शन - वितन्वन में लगे जो अवकाश का पूरक है | उन्होंने जिस काल्पनिक सत्य के दर्शन किये , उसे ही सब कुछ मान कर मुझे चुनौती दी | मैं भी घबरा उठा कयोकी जिस शब्दजाल का उन्होंने वितन्वन किया वह मेरा जाना न था | दर्प के साथ राजन्य ने मुझे मेरा ही शब्दकोश सुनाया -- समित्पाणी भव!
पंजाब में , पांचाल में , काशी में , विदेह में - सर्वत्र राजन्यो की सांस्कृतिक और दार्शनिक शक्ति बढ़ी -- अश्वपति कैकेय , प्रवाहन, जैवलि , अजातशत्रु , जनक विदेह प्रबल हुए | परन्तु मैंने भी आत्म - समर्पण नही किया | उपनिषद का उत्तर दर्शन से दिया , दर्शन का दर्शन से | लोहे को फौलाद से काटा | उनका ब्रम्ह निष्काम , निर्गुण और शरीरहीन था | मैंने कहा कि फिर इसकी काल्पनिक स्थिति को ही क्यो माना जाए ? मैंने ईमानदार और सच्चे सांख्य की अनीश्वरवादी पद्धति का दर्शन किया | वैशेषिको ने प्रकृति के साघातिक ( प्रयोग निजी है ) अणु- मार्ग का निरूपण किया | ब्रम्ह को न्याय की तर्क प्रणाली से सर्वथा उखाड़ फेंका | तब क्षत्रिय ने मुझे जेर करने का एक दूसरा तरीका अपनाया | उसने सही समझा कि मेरी शक्ति के दो प्रबल पाए है _ पर्णव्यवस्था और संस्कृत भाषा | दोनों पर आघात किये - पार्श्व ने , महावीर ने , बुद्ध ने | तीनो ने वर्णों पर आक्रमण कर मनुष्य की प्राकृतिक समानता घोषित की | तीनो ही जन - भाषा में ही अपने उपदेश कहे | इनमे बुद्ध का प्रचार तो निश्चय ही असाधारण हुआ | उसने जो संघ का सगठन किया , वह कालान्तर में मेरा सतत शत्रु बना , यद्दपि अनत में मैं उसे निगल गया | अब मुझ पर खुले रूप में चोटें हुई | मैं भी अपनी रक्षा और शत्रु के नाश के लिए स्पष्ट: मैदान में उतर आया |
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

आभार - खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर ,
लेखक - भगवत शरण उपाध्याय
चित्र साभार गूगल से

Monday, July 30, 2018

ब्राह्मण भाग - तीन 30-718

ब्राह्मण भाग - तीन

मैंने अधिकतर उन दासो को अपने घरो में रखा , जो अपनी सभ्यता में पुरोहित रह चुके थे | उनमे झाड - फूंक की बड़ी मान्यता और प्रभुता थी | मैंने उनसे मन्त्र पूछ लिए | फिर मैंने उनका समुचित प्रयोग किया | मैंने उन्हें अपनी भाषा में लिख डाला और उनकी संहिता अथर्ववेद बना | यह एक नया रहस्य - भंडार था , जिसे आर्य नही समझते थे , और चूँकि मैंने उसे अपनी पुरातन भाषा में लिखा , उन्होंने उसे मेरा ही समझा | इस प्रकार मेरी प्रभुता उन पर और बढ़ी | मैं अब सब प्रकार से सुखी था , शक्तिमान | अनेक दास - दासिया मेरी परिचर्या करती | राजा मुझे दान में दास - दासिया प्रदान करता | गोधन मेरे पास अन्नत था और शत्रु - नगरो की लूट से मेरे भंडार भरे थे | अब सुमुखियो के प्रति अपने अनुग्रह को भी मैंने वैधानिक करार दिया | कक्षीवान और कवष उसी के मूर्त रूप थे | यद्धपि अभी तक मेरे अनेक कुल बन गये थे , जो केवल पौरोहित्य करते थे , मेरे वृति में प्रवेश असम्भव न था परन्तु इस क्षत्रिय - कुलो के पौरोहित्य को मैं भय की दृष्टि से देखता था | विश्वामित्र ने मेरा दुर्ग छीनने का बड़ा प्रयत्न किया | क्रोध से परशुराम को फरसा दे मैंने क्षत्रियो का नाश कर उनसे वैर साधा | प्रयत्न बराबर यही था कि किसी प्रकार मेरे पेशे में कोई और दाखिल न हो सके , देवापी के - से कुछ महत्वाकाक्षी मेरी पंक्ति में जब तब घुस ही आते थे |
अब मैंने निश्चय किया कि इससे काम न बनेगा और मुझे इस आवागमन पर कड़े प्रतिबन्ध डालने होगे | मेरे कुल तो अनेक अवश्य खड़े हो चुके थे , परन्तु क्षत्रिय राजकुल में अभी अस्थिरता थी | उनका अभी तक चुनाव होता था , और यद्धपि कुल विशेषत: राजन्यो के ही होते थे , निर्वाचन का क्षेत्र सिद्धांत बड़ा था | मैंने देखा कि अपने कुलो को स्थायित्व देने के पहले राजसत्ता को कुलागत करना होता और मैंने उसे कुलागत कर दिया | अब मुझे एक अत्यंत प्रबल मित्र लाभ हुआ -- क्षत्रिय का | अपने कुलागत की रक्षा के लिए उसका मेरे कुलागत पौरोहित्य की रक्षा करना आवश्यक हो गया | इस समय मैंने अदभुत सूझ से काम लिया | मैंने पुरुषसूक्त की अभिसृष्टि कर डाली | इसमें ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रम्ह ( पुरुष ) के मुख से , क्षत्रिय की भुजाओं से वैश्य की जांघो से और शुद्र की उसके चरणों से बताई | इनके वर्णों को यथास्थान रख दिया | और यह व्यवहार ईश्वरीय - अपौरुषेय - मान ली गयी | अब वर्णों में आदान - प्रदान नही हो सकते इस प्रकार जो अपूर्व धन मेरे हिस्से में आता था , उसकी रक्षा हुई |
अब भी जब - तब इस वर्ण - धर्म में स्खलन होते थे | मेरे पौरोहित्य में हिस्सा बटवारा के लिए निश्छल राजन्य प्रयत्न करते थे , परन्तु अब पौरोहित्य भी कुछ साधारण कार्य न था | पहले मैं केवल चार ऋतिव्जो से यज्ञ का काम चला लेता था , परन्तु अब निरंतर यज्ञ की विधि - क्रियाओं में जो मैंने विकास किया , उसके पेंचो को ऐसा कोई व्यक्ति नही सभाल सकता था जो जन्मना ब्राह्मण न हो और जिसने वर्षो मेरी शागिर्दी न की हो |
मैंने अपने यज्ञ के कर्मकांडीयो की संख्या चार से बढ़ाकर सत्रह कर दी | जैसे - जैसे राजन्य का राज्य विस्तार बढ़ा वैसे वैसे मेरे यज्ञो के आकार प्रकार में भी अभिवृद्धि हुई | जनपद राज्यों के साथ साथ मैंने भी अपने सत्रों का विस्तार बढ़ा दिया और उनके अनुष्ठान सौ - सौ वर्ष तक होने लगे |
वैदिक काल में ही मेरा विरोध होने लगा था | राजाओं के पास शक्ति और वैभव सब कुछ था , फिर भी वे मेरा उत्कर्ष नही देख सकते थे | मेरे पास घर में अन्न निश्चय काफी था , पत्निया थी , दास - दासी थे
, रथ - अश्व थे ,चौपाये थे ; परन्तु साधारण जीवन मेरा तप और त्याग का था | अपने लिए सिवा दूसरो के दिए दान के मैंने कुछ और न रखा | फिर लगोटी वाले मुझे विरागी का राज्यादी के मामले में दखल देना उन्हें अच्छा नही लगता था | मैं ही जब प्रजा की तरफ से राजदंड और अन्य लाछन देता , उन्हें प्रजापालन की शपथ दिलवाता तब कही उनकी राजसत्ता दृढ होती थी | इससे निश्चय ही मैं उनकी ईर्ष्या का कारण बन गया | फिर भी मैं उनके समक्ष अपनी शक्ति बनाये रहा | राजा तो अनेक प्रकार से मेरे अधिकार में था , परन्तु राजन्य -- राजा से अन्य उसके भाई बन्धु अधिकतर उसके छोटे भाई - मुझसे डाह करते थे , यद्धपि समाज के विविध वर्गो के कर्तव्य मैंने बाट दिए थे और उनकी आयुध जीविका अक्षुण बनी थी फिर भी वे प्रमादी मेरा ही व्यवसाय छीन कर सहसा धनी हो जाने के प्रत्यंन में थे |
परन्तु यह एक ऐसा क्षेत्र था जिसमे मैं उन्हें पाँव नही रखने दे सकता था | महाभारत काल में भी अनेकाश में यह संघर्ष चला | परशुराम ने तो यहाँ तक प्रण किया कि अपने अस्त्र - प्रहार का रहस्य वे किसी क्षत्रिय को न बतायेंगे | कुछ अंश में इस राजनितिक झगड़े के अतिरिक्त क्षत्रियो से मेरा एक सामजिक झगड़ा भी था | मैंने पुत्राभाव् में और सुपुत्र के अभिजंनक के अर्थ ''नियोग ' - विधि का विधान किया , जिसमे पति के अभाव या क्लैव्य में पत्नी देवर से और उसके अभाव में गुरु - पुरोहित के संयोग से पुत्र प्रसव करती थी | क्षत्रियो के लिए यह कुछ कसक की बात न थी क्षत्रिय इस व्यवस्था के कारण झल्लाते तो बहुत थे परन्तु कोई चारा न था | इस प्रथा में मुझे सिवाय एकाश में कामुकता - तृप्ति के कुछ विशेष लाभ न था | लाभ वास्तव में उन्ही का था | देवर से पुत्र उत्पन्न कराने की प्रथा से अलग यदि क्षत्रिय औरत किसी अन्य क्षत्रिय द्वारा तनय प्रसव करती तो 'दाय ' में कठिनाइया उत्पन्न हो जाती , पैतृक सम्पत्ति में दूर के हिस्से लगने लगते | इससे मेरा उपयोग विशिष्ठ राजन्यो अथवा राजकुलो में उन्हें उचित जान पड़ने लगा था , यद्धपि यह विधान मेरा ही था | फल यह हुआ की महाभारत के महान पुरुष अधिकतर मुझ से ही उत्पन्न हुए | धृतराष्ट्र पांडू - विदुर सब मेरी सन्तति थे | फिर भी मेरे क्षत्रियो का विरोध बढ़ता ही गया | उन्होंने शीघ्र ही मेरे देवता इंद्र और मेरी वृति के साधक यज्ञानुष्ठानो के शत्रु कृष्ण को देवोत्तर स्थान दिया | उन्होंने उसे - जो क्षत्रिय भी न था यद्धपि क्षत्रिय बनने का निरंतर प्रयत्न कर रहा था , विष्णु अवतार मान और अधिकतर क्षत्रिय ही उसे देवदुर्लभ पद के उपयुक्त समझे गये | उनके चरितो की गाथाये गाये जाने लगी | इतिहास - पुराण बनने लगे | कुछ ब्राह्मणों को प्रलोभन दे उन्होंने अपनी सहकारी और अपनी सभा में पंडित बना लिए जिनका काम उनकी प्रशस्ति लिखना था , उनके चरित और पराक्रम का बखान करना था | रामायण - महाभारत की अभिसृष्टि इसी प्रकार हुई | फिर तो क्षत्रिय का साहस इतना बढ़ा की उसने गीता में अपने संसार की सारी सुन्दर श्रेष्ठ वस्तुओ का सार कहा और सारे देवताओं के उपर रखा | अन्य देवताओं की पूजा वर्जित की , केवल अपनी पूजा उचित कही | निश्चय ही क्षत्रियो की यह मेरे उपर पहली महत्वपूर्ण विजय थी |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

आभार - खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर -
लेखक ---- भगवत शरण उपाध्याय

Friday, July 27, 2018

ब्राह्मण -- भाग -- दो 27-7-18



ब्राह्मण ---- भाग -- दो


मैं तब गायक था | अपने जाने हुए आर्ष रहस्य का मैं गानपूर्वक विस्तार करता था | पार्थिव शक्तियों को मैं देवत्व प्रदान करना मुर्खता समझता था | मेरे हितैषी देव सोम , अग्नि और पृथ्वी , इंद्र , वायु , मरुत और पर्जन्य , और वरुण ,धौस, अशिवन, सूर्य , मित्र , पूषन तथा विष्णु थे | धीरे - धीरे मैंने अपने हितैषी देवताओं का परिवार बढ़ा लिया | अनेक देविया , स्थूल और सूक्ष्म , सदय और निर्दय , मेरे मानस से निकली | अनन्त- अनन्त देवताओं का मैंने सृजन किया -- विश्वेदेवा: का , फिर नदियों , पहाडो का |इसके अतिरिक्त मैं इनकी भीम मूर्तियों का भी ऋषि और द्रष्टा हुआ | बादलो की गडगडाहट और नदियों के शक्तिम प्रवाह का भी मैंने अर्थ लगाया और भाव व्यक्त किया उनके तथ्य और कथन को एकमात्र समझने वाला मैं था | प्रकृति की हिंस्र तथा द्रव प्रवृतियों को मैंने मुखरित किया जिह्वा दी | मैंने ही उनके गूढ़ मंतव्यो का रहस्य अपनी स्पष्ट समझ में आने वाली भाषा में व्यक्त किया |
रूद्र की मारक शक्ति का उदघाटन मैंने ही किया , और मैंने ही उसके क्रोध और आंतक से मानव जाति की रक्षा के प्रबंध किये | करुण और हिस्त्र दोनों प्रकार के देवताओं के यजन - पूजन - प्रसादन के अनेक और अनन्त उपाए मैंने ही सोचे , वरना मानव - योनि रसातल को चली जाती | जन - कल्याण की भावना ने मुझे उस और प्रवृत किया , मैं स्वंय तो सारे सुखो से निवृत था | मेरी कामना एक मात्र जन - कल्याण की थी |
जब मैं भारत आया तब भी कई कुलो में विभक्त था | भरद्दाज . आंगिरस वसिष्ठ , अत्री , कण्व आदि अनेक पुरोहित के कुल तब भी आर्यों की पारलौकिक आवश्यकताओ का प्रबंध करते थे | इहलोक के बाद परलोक की कल्पना मैंने ही कि परन्तु यह केवल भारतीय जगत की न थी , सारे विश्व की थी | मैंने जब इसका आविष्कार किया तब इसकी मोहकता ने लोगो को अत्यंत आकर्षित किया | फिर तो लोग इसकी माया में ऐसे फँसे की उन्होंने इहलोक की परवाह न कर उसी लोक के स्वपन देखे और उन्हें प्राप्त करने की तैयारी शुरू कर दी | कालान्तर में मेरे इस प्रयास में क्षत्रिय दार्शनिको ने भी योग दिया |
जीवन से स्वाभाविक ही सबको प्रेम होता है और दीर्घकाल का रोगी भी और यातना सहता है , फिर भी अपने शरीर को रखना चाहता है | इस लोक में जीवित रहने की जो हविस पूरी न हो पाती , तो दूसरे लोक में भी , इस जीवन से परे भी जीने की लालसा करता है | और कल्पना में जो विलास की वस्तु उसे इस लोक में प्राप्त नही होती , उसके लिए जीवन भर तरसता और हाय - हाय करता रहता है , उसके भोग की प्रबल कामना करता है , और मैं उसकी इसी लोलुपता को शक्ति और रीढ़ देता हूँ |
फिर भी मेरा ऋग्वैदिक परिवार अभी इसी पारलौकिक सुख की कल्पना और कामना में इतना व्यग्र न था , जितना वह पीछे हुआ | अभी तो वह दुखी , दरिद्र आवश्यकताहीन घुमक्कड़ परिस्थितियों से होकर आया था और उसे इहलौकिक वस्तुओ की ही कामना थी | अभी वह आहार , वस्त्र , धन , धान्य , दास , गो , अश्व , श्वान आदि की ही मांग करता था | उसका जीवन कठिन संघर्ष से होकर गुजरा था , सदा जीवन के लाले पड़े रहे इससे अपनी आकस्मिक और युद्ध की मृत्यु से घबराकर वह सौ वर्ष जीवित रहने की कामना किया करता था | उसकी विपत्तियों के शमन के निमित मैंने अनेक प्रकार के यज्ञो
की अभी सृष्टि की नरमेध , गोमेध , अश्वमेध आदि की | मेरे लिए तब कोई प्रदार्थ , कोई जीव अभक्ष्य न था -- गाय , घोड़ा , कुछ भी नही | गाय - विशेषकर बछडा तो अतिथियों को विशेष प्रिय था | मुझे यह किसी प्रकार भी मान्य न था कि संसार में सुरा और आमिष - से - स्वादु आहार के रहते भी केवल शाक और वनस्पति पर गुजर की जाए | परन्तु धर्मप्राण होने के कारण जीव - हनन को सर्वथा मान्य भी नही बता सकता था | इससे उन्हें दीवार्पित कर खाने का मैंने विधान बांधा | यज्ञादि करके देवऋण से उऋण होना ही था | और उसके लिए यज्ञाप्रित वस्तु को मैंने सेवी और खाद्य घोषित किया | सभी स्वाद खाध्य और पेय प्रदार्थ देवार्थक थे --- सूरा - आमिष तो विशेषत: यद्दपि पायस का उपयोग भी यज्ञो में अब बढ़ चला था | यज्ञ में अर्पित प्रत्येक वस्तु प्रसाद के रूप में अत्याज्य ही नही अवश्य ग्राह्य थी और इस प्रकार सोम की मर्यादा बढ़ी | मेरे सारे देवता हिंस्र और आमिष - भोजी थे | इंद्र सोम पीता और गोमांस खाता था , वज्र धारण करता था वरुण और यम भी अपने अपने पाश धारण करते थे |
जब मैं भारत आया , तब यहाँ का वैभव , शस्य - श्यामला भूमि , अदीभुत सूर्योदय और सूर्यास्त देख स्तम्भित - मुखरित हो उठा | उषा की लाली देख मुझे रोमांच हो आया | परन्तु उस सप्तसिंधु देश में ठहरना कुछ आसान न था | उसमे एक अद्भुत सभ्यता का निवास था , जैसी मैंने कही नही देखि थी | उसके निवासी थे तो कृष्णकाय , अनास , मुध्र वाक् , दास -दस्यु अयज् वन , अकर्मन , अदेव्यु , शिश्नदेव और मुझे उनसे अमित घृणा थी ; परन्तु उनकी सभ्यता देख मैंने दांतों तले ऊँगली दबा ली | वे कृष्णकाय दस्यु श्वेत वस्त्र धारण करते , कई - मंजिले स्वच्छ मकानों में रहते वृषभो के रथ पर चलते और छतो पर सोते थे | उनके गृह दुर्ग थे , नगर दुर्ग थे मुहल्ले दुर्ग थे | वे प्रसन्न वदन फिरते | उनके बाजारों में संसार की सारी वस्तुओ का सौदा होता | उनके कृतिम सुन्दर तालाबो में नित्य जलक्रीडा होती | उनके नगरो की सफाई आश्चर्यजंक थी | परन्तु मुझे तो उस सभ्यता का अंत करना था | बिना उसका अंत किये , न तो उस स्वर्णभूमि पर हमारा अधिकार हो सकता था और न उस जादू के देश पर स्वंय मेरे प्रभुत्व का साका चल सकता था | मैंने अपनी विशो को , विविध जनों को शत्रुओ के नाश के निमित ललकारा | और मुझे क्या सचमुच उन्हें इसके लिए कुछ अधिक बढ़ावा देने की आवश्यकता पड़ी ? उन्होंने क्या अपना दर - ब- दर - फिरने वाला बनेला जीवन विस्मृत कर दिया था ? उन्हें क्या पता न था कि जान पर खेलकर भी सप्तसिंधु के उस प्रशांत भूखंड को स्वायत्त करना होगा ? उनके नगर मैंने जला कर भस्म कर डाले , उनकी बखारे उनके ढोर उनके वस्त्र हमने छीन लिए | उनको सर्वथा नष्ट कर डाला | जो बच रहे वे या तो दक्षिण - पूर्व की राह भागे या हमारे दास हुए | हमारे दासो की संख्या अब बढ़ चली | और ये दास भी क्या थे ? हमने उनसे विशेष कृषि - कर्म सीखा, मकान और नगर - निर्माण सीखा , मोहन - उच्चाटन सीखे | उनके पुरोहितो और ब्राह्मणों की सत्ता भी कुछ असाधारण न थी | मुझे उनका रहस्य सीखने की बड़ी लगन थी | मेरे यजमान मेरी नित्य की युक्तियो से अब उब गये थे | उनको एक नए सिलसिले में बाँधना आवश्यक था | मेरे यजमानो में एक बड़ी अच्छी बात यह थी कि वे अपने को संसार में सबसे उच्च और श्रेष्ठ समझते थे और उन्हें यह कोई किसी प्रकार नही समझा सकता था कि ब्राह्मणों से अधिक बुद्धिमान उनके ऋषियों से अधिक रहस्य का जानकार कोई कही हो सकता है | फिर भी अपने ज्ञान को नित्य नया करते रहना अत्यंत आवश्यक था |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
आभार- खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर - लेख भगवत शरण उपाध्याय

Thursday, July 26, 2018

ब्राह्मण 26-7-18

ब्राह्मण

आज जो मुझे गाँवों में दिन - हीन अवस्था में देखता है , उसे गुमान भी नही हो सकता कि सदियों की कुछ में मैंने साम्राज्यों का संचालन किया है और अविरल जनसंख्या मेरे संकेतो पर नाचती रही है | ना , मैं अब - सा दीन कभी न था | यह मेरे चरम उत्कर्ष का वैषम्य है | गाँव में वस्तुत: मेरे प्रेत की छाया डोल रही है | मैं ब्राह्मण हूँ , मेरी कहानी ब्राह्मण की है -- दृप्त ,उद्दंड , ज्ञानपर |
मैं केवल भारत का ही नही हूँ | सारे संसार की प्राचीन सभ्यताओं का मैं संचालक समर्थ अंग रहा हूँ | मिसरी राजाओं का मैं विशेष सुहृद था | उस अदुत अनुलेप का आविष्कार मैंने ही किया था , जिसके कारण मिस्र के पिरामिडो के विख्यात ममी सुरक्षित रखे जा सके | पिरामिडो की चट्टाने तो बिखर चली , पर उनके भीतर रखे शरीर को किसी प्रकार की क्षति न हुई ईसा से प्राय: आठ हजार वर्ष पहले ही मैंने उस अनुलेप - द्रव्य की खोज कर ली थी | निश्चय ही कि इस रहस्य की जानकारी से मेरी शक्ति मिस्र की जनता पर असाधारण मात्र में बढ़ गयी थी | इसी प्रकार दक्षिण - बाबुल की प्रारम्भिक सभ्यता के केंद्र सुमेर में भी मैंने ईसा से प्राय: पाँच हजार वर्ष पूर्व ही अपनी शक्ति प्रदर्शित कर दी थी | केंगी के शाह के रूप में तब मेरा नाम एन -शाग -कुश - अन्ना था ; परन्तु तभी मैं एन - लिल अथवा बेल्का 'पतेसी'( पुरोहित ) भी था -- ठीक उसी प्रकार , जैसे पिछले काल में तुर्की का सुल्तान खलीफा था | तब की मेरी शक्ति का अंदाज नही लगाया जा सकता | तभी तो मैं अपनी मृत्यु पर दफनाये जाने के समय अनेक दास दासियों को जीवित दरगोर कर पाता था | अनेक रानियों और दास - दासियों को विष के घूँट पीकर दम तोड़ना पड़ता था , जिससे परलोक में उनका मेरा साथ हो सके और मुझे किसी प्रकार की असुविधा न होने पाए | इसी कारण घोड़े , खच्चर , गधे , रथ और अनेकानेक आवश्यक वैभव और अनिवार्य वस्तुओ के साथ मैं समाधि लेता था |
और इस सम्बन्ध में मैं अकेला न था | प्राचीन चीन और भारत में भी मेरी शक्ति का बोलबाला था | सैन्धव सभ्यता में भी मैं अनेक प्रकार से अपने प्रताप का अर्जन करता था और यद्दपि वहाँ मैं अपना बाबुली वैभव प्राप्त न कर सका , कयोकी वहाँ राजा और पुरोहित भिन्न - भिन्न थे , फिर भी पुजारी होने के नाते मेरा तेज यहाँ भी कुछ कम न था | मैं अपने उसी प्राचीन भारतीय रूप की कहानी कहने जा रहा हूँ , जिसने मोहनजो -दड़ो, झुकार -दड़ो, कान्हू - दड़ो, हडप्पा आदि में अवतार लेकर अपने यश और प्रभुता का विस्तार किया था और जिस की पराकाष्ठा वास्तव में ऋग्वेद द्वारा प्रसुत परम्परा के उत्कर्ष में हुई थी | इस प्रकार मेरी कहानी , जो इस देश में विशेत: ऋग्वैदिक सभ्यता से प्रारम्भ होती है , अत्यंत रोचक है |
मैं पहले कह चूका हूँ कि मैं केवल भारत का नही हूँ और मेरा आरम्भ अत्यंत प्राचीन काल में हुआ था -- शायद तब , जब आदिम मनुष्य ने पहले पहल वन्य पशुओ की और छलांग मारी थी और झरने का अविरल स्वर सुना था | परन्तु उसकी कथा बड़ी पुरानी है , मैं नही कहूंगा , कम से कम इस प्रसंग में नही | ऋग्वैदिक परम्परा में मैं भारतीय नही हूँ | जिस देश से प्राचीन ऋग्वैदिक आर्य आये थे , मैं वही से आया था , कयोकी मैं ही उनका नेता , उनका मंत्रदाता था | और जहाँ जहाँ उनकी बेले गयी - इरान -ईराक ग्रीस -रोम- फ्रांस इंग्लैण्ड -जर्मनी और लिथुआनिया में - सर्वत्र मैं आर्य टोलियों के आगे था -- उनके देवताओं को प्रसन्न करने वाला , उनके भविष्य का प्राक्कथन करने वाला , वस्तुत: उनके देवताओं का अपने मानव रूप में प्रजनक |
भारत में मैं भी अपनी शक्तिम हिंस्र टोलियाँ लिए आया | मैं चला तो भूख से आहार की तलाश में था , परन्तु मेरा नारा था -- कृण्वन्त विश्वमार्यम | मैं गायक और द्रष्टा न होता तो भविष्यवक्ता कैसे बनता ? रहस्य में , अज्ञात में झाँककर देखना मेरा काम था | यही मेरी शक्ति का आधार था | मैंने धर्म से साक्षात्कार किया -- उस धर्म का , जिसे कोई और नही जानता था , जान ही नही सकता था | अन्य के जानते ही मेरी शक्ति बट जाती और शक्ति बट जाने पर मैं पंगु हो जाता | शिरकत में शक्ति मारी जाती है | मैं साझीदार स्वीकार नही करता | मैं अपना रहस्य अपने तक ही सीमित रखता हूँ -- न किसी की शक्ति में हाथ बटाता हूँ , न अपनी हिस्सा बटने देता हूँ | इसी विचार से मैंने राजा को भी परिमित शक्ति का भरसक न होने दिया सर्वदा उसकी ठोस , अविभाजित अपरिमित शक्ति का प्रजनन , विकास और पोषण किया | यही रहस्य - ऋषि - धर्म , दृष्टि की द्रष्टा का - मेरी शक्ति की आधार शिला था और जैसा कि पहले कह आया हूँ इसमें मैं कोई साझीदार नही चाहता था | इसीलिए मैंने विश्वामित्र से रण ठाना , इसीलिए सदियों के दौरान मैं दूसरो के रक्त का प्यासा हो गया और अन्य मेरे रक्त के ग्राहक हो गये | क्रमश : भाग - एक

प्रस्तुती सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

आभार -- खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर -- भगवत शरण उपाध्याय

Saturday, July 14, 2018

देश का किसान है बेहाल --- 14-7-18

किसानो के सब्सिडी की असलियत

कृषि सब्सिडी अर्थात खाद , बीज , सिंचाई आदि पर दी जाने वाली सरकारी सहयाता को कृषि व किसानो को दी जाने वाली बड़ी सहायता के रूप में प्रचारित किया जाता है | रासायनिक खादों पर दी जाने वाली सब्सिडी केंद्र सरकार द्वारा और सिंचाई , बिजली पर सब्सिडी प्रांतीय सरकारों द्वारा दी जाती रही है | नि:संदेह कृषि क्षेत्र में मिल रही सब्सिडी से किसानो को उनके लागत के महंगे सामानों की खरीद में कुछ राहत मिलती है | हालांकि उन्हें सब्सिडी के प्रचारों से धोखा भी दिया जाता रहा है | इसमें पहला धोखा तो यही है कि यह सब्सिडी किसानो को खाद , बिजली , सिंचाई को कम मूल्य पर उपलब्द्ध कराने के लिए ही दी जाती है | जाहिर तौर पर यह बात ठीक भी लगती है | हालाकि सब्सिडी वाले मालो - सामानों के मालिको बाजारी दाम और उन मालो - सामानों के मालिको के लाभ में कोई कमी नही आती है | उन्हें न केवल सब्सिडी का पैसा मिल जाता है बल्कि सब्सिडी के चलते उन मालो - सामानों का बिक्री बाजार भी बढ़ जाता है | यह मालो के मालिको के लाभ मुनाफे का एक और स्रोत बन जाता है | अत: कृषि सब्सिडी , किसानो से कही ज्यादा धनाढ्य कम्पनियों को सहयाता पहुचाने का काम करता है | उनके लाभ एवं बाजार को बढाने का काम होता है |
सब्सिडी के सम्बन्ध में सरकारों और प्रचार माध्यमो द्वारा एक दूसरा धोखा रासायनिक खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी की मात्रा के बारे में दिया जाता रहा है | उदाहरण - केंद्र सरकार द्वारा रासायनिक खाद पर 1999-2000 में दी गयी - 13 हजार 244 करोड़ रूपये की सब्सिडी 2008 -2009 में 76 हजार करोड़ 609 करोड़ रूपये तथा 2015 - 16 में 72 हजार 438 करोड़ हो गयी | स्पष्ट है कि अब उसकी मात्रा में पहले जैसा बढाव नही हो रहा है | फिर बढती मात्रा बढती मात्रा में दी जाती रही सब्सिडी भी किसानो के लिए दरअसल राहतकारी नही हो पा रही है | उसका प्रमुख कारण 1991 - 92 के बाद से रासायनिक खादों के मूल्य पर लगे हुए सरकारी नियंत्रण का हटाना हो रहा है | उसके फल स्वरूप खादों के दामो में अचानक वृद्धि हुई जो लगातार बढती रही है | उदाहरण - 24 जुलाई 1991 को तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा रासायनिक खादों खासकर पोटाश , दाई पर मूल्य नियंत्रण हटाने के साथ उसके थोक मूल्य में 40% की वृद्धि कर दी गयी थी | बाद के सालो में भी रासायनिक खादों के बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों का बहाना लेकर देश में खादों के दामो में वृद्धि की जाती रही है | फलत: खादों पर दी जाने वाली 25% से 35% की सब्सिडी निष्प्रभावी ही नही बल्कि ऋणात्मक भी साबित होती रही | कयोकी सब्सिडी के मुकाबले खादों के मूल्य में वृद्धि कही ज्यादा हुई |
तीसरा धोखा कृषि सब्सिडी में खाद बिजली सिंचाई पर दी जाने वाली सब्सिडी के साथ खाध्ययान्न सुरक्षा योजना के अंतर्गत दी जाने वाली खाद्ययान सब्सिडी को मिलाकर कृषि सब्सिडी के प्रचारों द्वारा दिया जाता रहा है | असलियत यह है कि खाद्ययान सुरक्षा योजना के तहत दी जाने वाली सब्सिडी से कृषि उत्पादन वृद्धि में अथवा कृषि उत्पादों के बिक्री बाजार में कोई मद्दद नही मिलती | जबकि खाद्यान्न सुरक्षा के लिए दी जाने वाली सब्सिडी का लगभग आधा है | 2015-16 में कृषि क्षेत्र को कुल मिलाकर दी गयी लगभग 2.5 लाख करोड़ की सब्सिडी में खाद्ययान योजनाओं की सब्सिडी 1.35 लाख करोड़ थी | फिर खाद्यान सुरक्षा योजना के अंतर्गत भरी सब्सिडी के जरिये अत्यंत कम मूल्य पर गेंहू - चावल की व्यापक वितरण प्रणाली से खाद्यान्नो के बाजार मूल्य भाव पर किसानो की दृष्टि से नकारत्मक असर पड़ता रहा है | उसके मूल्य भाव से अप्रत्यक्ष रूप में कमी आती रही है | स्वभावत: इसका घाटा आम किसानो पर ही पड़ता रहा है और पड़ रहा है | सब्सिडी के बारे में उपरोक्त धोखाधड़ी भरे प्रचारों को जान्ने - समझने के साथ आम किसानो को यह जरुर जानना चाहिए की किसान के लिए सब्सिडी से कही ज्यादा आवश्यक मामला खाद - बीज - बिजली - सिंचाई आदि के मूल्य नियंत्रण का है | उनकी कीमतों को उच्चतम लाभ देने वाली कीमतों से घटाकर औसत लाभ देने वाली कीमत पर लाने व नियंत्रित करने का है | अगर सरकारे खाद , बिजली , सिंचाई से जुडी कम्पनियों को अधिकतम लाभ कमाने के लिए उच्च मूल्य निर्धारण की छूटे व अधिकार न देती तो कृषि लागत के उपरोक्त मालो - सामानों पर सब्सिडी देने की दरअसल कोई जरूरत ही नही पड़ती | वस्तुत: किसानो को लागत के मालो - सामानों के बेहिसाब बढ़ते मूल्यों पर नियंत्रण चाहिए | सब्सिडी की किसानो को तभी तक जरूरत है , जब तक लगत के औद्योगिक मालो - सामानों के दाम को न्यूनतम स्तर पर नही ला दिया जाता |
इन मांगो को अगर किसान सगठित तौर पर नही उठाते है तो किसानो को मिलती रही सब्सिडी को काटा घटाया जाना निश्चित है | अत: किसानो को न केवल सब्सिडी देने बढाने की ही मांग करनी चाहिए अपितु खाद , बीज सिंचाई बिजली आदि मूल्यों को नियंत्रित किये जाने की मांग प्रमुखता से उठाना चाहिए |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - चर्चा आजकल

Friday, July 13, 2018

किसान आन्दोलन व किसान सगठन की ऐतिहासिक - दशा - दिशा 14-7 -18

किसान आन्दोलन व किसान सगठन की ऐतिहासिक - दशा - दिशा

किसान आन्दोलन की शुरुआत ब्रिटिश गुलामी के समय से हुई थी | वह आन्दोलन बदलते रूप एवं चारित्रिक विशेषताओं के साथ 1947 - 50 के बाद भी चलता रहा | बीते समय के साथ किसान आन्दोलन के बदलते मुद्दों मांगो एवं समस्याओं के साथ किसान सगठनों के भी रूप बदलते रहे | किसान आंदोलनों एवं सगठनों के इतिहास के बारे में फिलहाल यहाँ हम एक मोटी रूपरेखा प्रस्तुत कर रहे है , ताकि आम किसान उससे प्रेरणा लेकर वर्तमान समय की अपनी समस्याओं को लेकर किसान समुदाय को सगठित करने का काम कर सके | साथ ही अपनी मांगो एवं आंदोलनों का निर्धारण भी कर सके |
ब्रिटिश शासन काल में किसान आन्दोलन मुख्यत" जमींदारों व महाजनों के अधिकाधिक लगान और अधिकाधिक सूदखोरी के विरोध में चलते रहे थे | साथ ही ये आन्दोलन इन जमींदारों महाजनों के साथ खड़े ब्रिटिश शासन - व्यवस्था के दमन उत्पीडन के विरुद्ध भी चलते रहे थे | इसके अलावा वे आन्दोलन आदिवासी क्षेत्र के भूमि पर ब्रिटिश शासन और उनके जमींदारों के अतिक्रमण व कब्जे के विरोध में तथा नील , चाय जैसी नयी खेती के मालिको द्वारा उसमे श्रम करने वाले किसानो व श्रमिको के भारी शोषण दमन के विरुद्ध भी चले | 1850 से लेकर 20 वी शताब्दी के शुरूआती वर्षो में ये सभी किसान एवं भूमि आंदोलनों क्षेत्रीय आन्दोलन ही बने रहे | इन आंदोलनों मव 1855-56 का स्थल विद्रोह 1857 के महा विद्रोह में किसानो की सबसे व्यापक भागीदारी 1860 में बंगाल में नील किसानो का विद्रोह 1875 में दक्षिण भारत में किसानो द्वारा मारवाड़ी एवं गुजराती साहुकारो के विरुद्ध विद्रोह के साथ ही साथ महाराष्ट्र में कपास किसानो का महाजनों व्यापारियों के विरुद्ध किया गया विद्रोह प्रमुख था 1895 में पंजाब के किसान समुदाय द्वारा बढती ऋणग्रस्तता के परिणाम स्वरूप उनकी जमीनों का सूदखोर महाजनों एवं अन्य गैर कृषक हिस्सों के पास हस्तांतरण के विरोध में सगठित विरोध किया गया | इसके फल स्वरूप ब्रिटिश हुकूमत को ''पंजाब भूमि अन्याकरण अधिनयम ' पास करना पडा |

बाद के सालो में कांग्रेस पार्टी ने भी किसानो के दमन अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठायी पर उसने रियाया व प्रजा किसानो के हितो के लिए कानून बनाने की मांग नही की | 1915 में गांधी जी के आगमन के बाद उन्होंने और कांग्रेस पार्टी ने बिहार के चम्पारण के नील किसानो के शोषण - दमन के विरोध में तथा महाराष्ट्र के खेडा क्षेत्र के किसानो के साथ भारी सूखे के बावजूद महाराष्ट्र सरकार द्वारा भारी कर वसूली के विरोध में सत्याग्रह आन्दोलन के जरिये भागीदारी निभाई | इससे कृषक समुदाय को थोडा बल जरुर मिला था | पर गांधी जी और कांग्रेस ने किसान आन्दोलन को अपने राष्ट्रीय एवं जनांदोलन का हिस्सा कभी नही बनाया | बाद में कांग्रेस के सोशलिस्ट धड़े ने तथा कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वत: स्फूर्त ढंग से उठते किसान आन्दोलन का समर्थन करने के साथ उसे संगठित करने का भी काम किया | उसके फलस्वरूप जमींदारी , महाजनी तथा उसके सरक्षक बने ब्रिटिश राज के विरुद्ध 1920 के बाद से बंगाल , पंजाब , उत्तर प्रदेश बिहार में किसान सभाओं का गठन किया |
1928 में आंध्र प्रांतीय रैयत सभा और 1936 में बिहार जमींदारों के अपनी काश्त कही जाने वाली कृषि भूमि पर रियाया के शोषण के विरुद्ध 'बाकाश्त भूमि विरुद्ध आन्दोलन '' शुरू किया गया | वहाँ की किसान सभा ने जमींदारों द्वारा बेदखल किये गये किसानो को सगठित व आंदोलित करने में अग्रणी भूमिका निभायी | अखिल भारतीय किसान सभा के 1936 में लखनऊ अधिवेशन में कृषको पर चढ़े कर्ज की वसूली स्थगित करने , कम उपजाऊ जमीनों पर भूमि कर हटाने , कृषि मजदूरो का न्यूनतम वेतन निश्चित करने , गन्ना व अन्य व्यापारिक फसलो का उचित मूल्य भाव तय करने सिंचाई के साधनों को मुहैया करने आदि की मांग की गयी | इसके साथ ही किसान सभा किसानो से स्वतंत्रता आन्दोलन में भी भाग लेने का भी आव्हान किया |
किसान सभाओं के गठन एवं आन्दोलन के दबाव में कांग्रेस ने भी 1936 के बाद के अधिवेशनो में खासकर करांची एवं फैजपुर अधिवेशनो में लगान कम करने का , पुराने चढ़े लगान व ऋण को समाप्त करने का , कृषि मजदूरो के लिए न्यूनतम वेतन की मांग का प्रस्ताव किया | जमींदारों के भूमि बेदखली के विरोध में किसानो के चल रहे मांगो आंदोलनों के दबाव में कांग्रेस पार्टी ने जोतने वालो को जमीन का मालिकाना देने का नारा जरुर दिया पर तब तक जमींदारी उन्मूलन को उन्होंने कृषि कार्यक्रम का हिस्सा नही घोषित किया था | 1847 से ठीक पहले के सालो में तीन बड़े आन्दोलन के रूप में बंगाल का ''तेभागा आन्दोलन'' , हैदराबाद का ''तेलगाना आन्दोलन'' पश्चिमी भारत का ''वरली आन्दोलन'' प्रमुख थे |
तेलगाना आन्दोलन तो 1947 के बाद तक चलता रहा | वह आन्दोलन वहां के शासक निजाम और बड़े भूस्वामियो के विरुद्ध 1945 से शुरू हुआ था | इसके फलस्वरूप वहाँ भूमि हदबंदी पहले 500 एकड़ फिर 100 एकड़ का निर्धारण करने के बाद निकली जमीनों को भूमिहीन एवं गरीब किसानो में बाटा गया | उस समय की अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी इस आन्दोलन की अगुवा शक्ति थी | इसके अलवा पटियाला के रियाया किसान का आन्दोलन भी 1945 से शुरू हुआ था | इसने रियाया कृषको एवं भूस्वामियो के बीच होते रहे लम्बे एवं कटु संघर्ष को पटियाला ''मुजरा आन्दोलन'' के रूप में जाना गया | नक्सलबाड़ी आन्दोलन के नाम से विख्यात आन्दोलन भी मुल्त: किसान आन्दोलन ही था | वह आन्दोलन दरअसल भूस्वामियो के विरुद्ध भूमिहीन एवं छोटे किसानो का सगठित एवं सशक्त आन्दोलन था , भारी दमन के चलते तथा आन्दोलन के नेतृत्व में बढ़ते फूट के चलते यह आन्दोलन किसान आन्दोलन के रूप में कमजोर पड़ता गया और ग्रामीण एवं कृषक आन्दोलन की जगह शहरी प्रगतिशील एवं मध्यमवर्गीय आन्दोलन के रूप में सीमित हो गया | आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में भी बड़े भूस्वामियो के विरुद्ध नक्सलबाड़ी जैसा सशत्र कृषक आन्दोलन शुरू हुआ था , जिसे बाद में दबा दिया गया | इन आंदोलनों में आधुनिक खेती के खड़े हो रहे नए पूजीवादी शोषको का विरोध नही हो पाया | आधुनिक खेती को अपनाए जाने के साथ ही नए किसान आन्दोलन का जन्म हुआ 1980 में महाराष्ट्र के ''शेतकारी सगठन'' ने प्याज व गन्ने के बेहतर मूल्य को लेकर किसानो को सगठित व आंदोलित किया | 1986 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन , तमिलनाडू में ''विवसगल संगम आन्दोलन'' ने लाखो किसानो को आन्दोलन में उतारा | इन सगठनों ने विभिन्न कृषि उत्पादों के मूल्य भाव बढाने बिजली सिंचाई के दर रेट घटाने कृषि ऋण माफ़ करने आदि की मांग को आगे करके किसानो को सगठित व आंदोलित करने का काम किया था | विडम्बना यह है कि इन किसान आंदोलनों को गैर राजनीतिक कहते और प्रचारित किये जाने के वावजूद सभी सगठन विभिन्न राजनीतिक दलों व नेताओं के समर्थक बनते गये |साथ ही इन सगठनों के किसान सगठन और किसान आन्दोनो में गिरावट आई |

1991 में लागू की गयी आर्थिक नीतियों एवं 1995 में स्वीकार किये गये डंकल प्रस्ताव के बाद ये सभी किसान सगठन एवं आन्दोलन लगातार कमजोर पड़ते गये या कमजोर किये जाते रहे | इस दौर में किसान सगठन एवं आन्दोलन को ही नही बल्कि मजदूरो एव अन्य जनसाधारण के आंदोलनों एवं सगठनों को भी कमजोर किया गया | उसमे सागठनिक टूटन को विभिन्न रूपों में बढ़ावा दिया गया | क्योकि इन आर्थिक नीतियों तथा डंकल प्रस्ताव में देश विदेश के धनाढ्य वर्गो के दबाव में सभी पार्टियों की सरकारों द्वारा जनविरोधी नीतियों को लागू करने तथा बढाने हेतु जन आंदोलनों व सगठनों को तोड़ना जरूरी हो गया था जैसा आज भी हो रहा है इसका परीलक्षण सभी प्रमुख राजनीतिक दल के अपने ट्रेड यूनियनों एवं किसान सगठनों के कमोवेश निष्क्रिय होते जाने के रूप में भी सामने आ रहा है | अब उनका मुख्य कार्य पार्टी के लिए किसानो को उनके वोट बैंक को जोड़ना रह गया है | किसानो की बढती समस्याओं संकटो के विरुद्ध किसानो को सगठित एवं आंदोलित करना उनका कार्यभार कदापि नही रह गया है | वर्तमान समय में बहुप्रचारित किसान आन्दोलन कई बार तो विपक्षी पार्टियों या फिर गैर सरकारी सगठनों द्वारा या कही कही स्थानीय किसानो द्वारा चलाए गये छोटे - छोटे आंदोलनों के रूप में सामने आ रहा है | कृषि भूमि के अधिग्रहण के विरुद्ध 3 - 4 साल पहले विभिन्न क्षेत्रो में खड़ा होता आन्दोलन भी अब सरकारों द्वारा दिए जा रहे मुआवजे की भारी एवं अप्रत्याशित काम के जरिये धाराशायी कर दिया जा रहा है | ऐसी स्थित में समस्याग्रस्त किसानो उनके समर्थको को किसान सगठन व आन्दोलन की नयी शुरुआत करने की जरूरत है | अपनी समस्याओं मांगो को लेकर सभी धर्मो जाति के श्रमजीवी किसानो को स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर किसान सगठनों समीतियो के रूप में सगठित होने की अनिवार्य आवश्यकता खड़ी हो गयी है |कारण है कि अब विभिन्न पार्टियों के उच्च नेतागण प्रचार माध्यमो के उच्च स्तरीय प्रवक्ता किसान विरोद्शी नीतियों को लागू करने के साथ अपने आप को किसान हितैषी के रूप में प्रचारित करने के साथ किसानो को धर्म जाति क्षेत्र की परस्पर विरोधी गोलबन्दियो में बाटने तोड़ने में लगातार लगे हुए है | इसीलिए अब किसानो को उनकी समस्याओं के कारणों को जानने समझने तथा किसानो को जागृत संगठित एव आंदोलित करने का दायित्व सक्रिय प्रबुद्ध किसानो तथा किसान समर्थको का ही है | याद रखने की जरूरत है कि वे यह काम किसान की पहचान को प्रमुखता देकर ही कर सकते है |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक ''चर्चा आजकल ''