Friday, August 31, 2018

आम आदमी के लिए जी एस टी धोखा है ?

आम आदमी के लिए जी एस टी धोखा है ?

30 जून 2018 को जी एस टी अर्थात वस्तु एवं सेवा कर को लागू हुए एक वर्ष का समय पूरा हो गया पहली जुलाई को जी एस टी की पहली वर्ष गाठं मनाई गयी | इस अवसर पर केंद्र सरकार एवं जी एस टी परिषद द्वारा इसकी सफलता का बखान करते हुए बताया गया कि इस वित्तीय वर्ष 2018-19 के तीन महीने में जी एस टी संग्रह में तीव्र वृद्धि हुई है | अप्रैल 2018 में संग्रह 1 लाख करोड़ से अधिक था , जबकि मई व जून में वह संग्रह क्रमश 940 अर्ब एवं 956 अरब रूपये रहा | वित्त मंत्री ने चालू वित्त वर्ष में कुल जी एस टी का संग्रह 12 लाख करोड़ रूपये का अनुमान बताया है | यह भी बताया गया कि जी एस टी के रूप में अप्रत्यक्ष कर बढ़ोत्तरी के साथ प्रत्यक्ष कर , खासकर आयकर के दायरे और मात्रा में भी विस्तार हुआ है | इस विस्तार का कारण जी एस टी लागू होने से बहुतेरे कारोबारियों के कारोबारी रिकार्ड का आनलाइन होना और उनकी आय का खुलासा होना रहा है | इसलिए इस प्रत्यक्ष कर के दायरे एवं मात्रा में वृद्धि को जी एस टी के दूसरे लाभ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है | जी एस टी के बढ़ते कर संग्रह के आंकड़ो बयानों प्रचारों से देश की केन्द्रीय सरकार के मंत्रियों अधिकारियो का खुश होना लाजिमी है | वे इसे अपनी सफलता के रूप में पेश कर रहे है | स्वभावत: सत्तासीन भाजपा उसका चुनावी लाभ लेने कि कोशिश भी जरुर करेगी | जहाँ तक विपक्षी पार्टियों की बात है तो वे जी एस टी को नही बल्कि भाजपा सरकार द्वारा लागू किये गये जी एस टी के मौजूदा प्राविधानो से साधारण कारोबारियों की बढती असुविधाओ व संकट को अपने विरोध का प्रमुख मुद्दा बनाती रही है , कांग्रेस पार्टी तो जी एस टी को अपना ही टैक्स या कर एजेंडा कहकर उसका समर्थन करता रहा है साथ ही वह और भाजपा द्वारा जी एस टी के कई स्तर के करो का विरोध भी करती रही है | इसलिए आने वाले दिनों में भी विपक्षी पार्टियों जी एस टी का नही बल्कि भाजपा द्वारा उसे लागू करने की पद्धिति का ही विरोध करती नजर आएगी और उसका चुनावी लाभ उठाने का भी प्रयास करेगी | फिर जी एस टी लागू होने और उसके बढ़ते कर संग्रह से सबसे ज्यादा ख़ुशी तो देश - विदेश की उन धनाढ्य कम्पनियों को होना है , जिनके राष्ट्रव्यापी बाजार के लिए जी एस टी को ''एक राष्ट्र एक बाजार , एक कर '' की प्रणाली के रूप में लाया व लागू किया गया है | कम्पनियों के मालो - सामानों सेवाओं के क्षेत्रीय प्रांतीय अवरोध को दूर किया गया है | इनकी ख़ुशी का दूसरा कारण जी एस टी से अप्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्ष करो का बढ़ता दायरा एवं बढ़ता कर संग्रह है | कयोकी इस बढ़ते कर दायरे व मात्रा का वास्तविक लाभ दरअसल प्रत्यक्ष कर खासकर निगम कर ( कारपोरेट टैक्स ) एवं उच्च स्तर का आयकर व अन्य कर देते रहे धनाढ्य कम्पनियों को मिलना है | धनाढ्य कम्पनियों अपने उपर लगने वाली इन्ही करो को घटाने की मांग हमेशा करती रही है | सरकारों पर इसके लिए दबाव भी लगातार बनती रही है | उसका लाभ भी उन्हें मिलता रहा है | 1991 के पहले 40% से उपर तक लगने वाला निगम कर अब 25-39% पर अगया है
फिर उसमे छूटो एवं मामलो मुकदमो को भी जोड़ दिया जाए तो उसकी वास्तविक देनदारी 23% से कम ही रहती है | बढ़ते जी एस टी अप्रत्यक्ष कर संग्रह एवं छोटे एवं मझोले स्तर के कारोबारियों के बढ़ते प्रत्यक्ष कर संग्रह से अब धनाढ्य कम्पनियों को अपना निगम कर एवं उच्चस्तरीय आयकर घटाने के लिए सरकारों पर दबाव डालने का एक बड़ा आधार मिल जाएगा | जी एस टी के बढ़ते सग्रह से बढ़ते राजस्व आय के चलते सरकारे इसका लाभ धनाढ्य कम्पनियों को सहर्ष देने के लिए तैयार भी हो जायेगी | आखिर वे यही काम दशको से करती आ रही है | प्रोत्साहन पैकजो के जरिये धनाढ्य कम्पनियों को टैक्सों करो में छूट देती रही है | खासकर पिछले 10 सालो से तो वे यह काम खुलेआम कर रही है | इसके अलावा देश के मझोले कारोबारियों के एक हिस्से को खासकर बड़ी कम्पनियों की सहायक या अधीनस्थ मझोली या छोटी कम्पनियों को भी उनके बढ़ते कारोबारों के रूप में जी एस टी का लाभ जरुर मिलना है |
पर उनके अलावा तमाम अन्य मझोले व छोटे स्तर के कारोबारियों पर जी एस टी के बढ़ते भार के चलते भी बड़ी कम्पनियों के एवं उनके सहयाक कम्पनियों के कारोबारी प्रतियोगिता में पिछड़ना टूटना निश्चित है | दूसरे जी एस टी कर प्रणाली और कर चुकता करने की जटिलता भी उनके कारोबार को धक्का पहुचाती रही है |
इसका यह मतलब कदापि नही है कि तमाम छोटे मझोले स्तर के उत्पादक व कारोबारी जी एस टी ( एवं नोट बंदी ) के कुपरिणामो के चलते ही टूटते रहे है | दरअसल वर्तमान दौर में उनमे टूटन की प्रक्रिया पहले से , खासकर 1991 - 95 के बाद से निरंतर बढती चली आ रही है | देश विदेश की बड़ी कम्पनियों को मिलते रहे उदारवादी निजिवादी छुटो अधिकारों के साथ आम उपभोग के विदेशी मालो सामानों के बढ़ते आयात के साथ उनके टूटन की प्रक्रिया बढती रही है | कयोकी उन उदारवादी छूटो अधिकारों के साथ किसानो समेत कुटीर एवं लघु उद्योगों के उत्पादन व बिक्री बाजार में मिलते रहे सरकारी सहायता एवं सरक्षण को लगातार घटाया जाता रहा है | अब वर्तमान सरकार द्वारा लागू की गयी नोट बंदी व जी एस टी ने उनके टूटन की प्रक्रिया को और बढा दिया है | स्वभावत: इन छोटे स्तर के उद्यमियों एवं कारोबारियों में जी एस टी के ज्यादा कर संग्रह से ख़ुशी का माहौल बनने बढने की कोई गुंजाइश नही है | फिर समाज में नीचे के व्यापक जनसाधारण में खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरो किसानो तथा अन्य शारीरिक एवं मानसिक श्रमजीवियो में भी जी एस टी के बढ़ते संग्रह से खुश होने की कोई जरूरत नही है |
कयोकी जी एस टी कर बोझ से आम उपभोग की वस्तुओ सेवाओं की महगाई के बोझ का और
ज्यादा बढ़ना निश्चित है | उसी तरह से अधीनस्थ क्षेत्र के उत्पादन व कारोबार की संकटग्रस्त होती स्थितियों के फलस्वरूप बेरोजगारी भी तेजी से बढती रही है | इसीलिए आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर अभी चंद दिन पहले कई वस्तुओ को जी एस टी से बाहर कर दिया गया और सम्भवत: जी एस टी के ऊँची दर ( 28% ) को खत्म करने का भी प्राविधान किया जा रहा है | लेकिन जी एस टी में इन सुधारों बदलावों से बढती महगाई बेरोजगारी पर कोई प्रभाव अंतर नही पड़ना है | कयोकी महगाई में तीव्र वृद्धि का वास्तविक कारण देश विदेश की धनाढ्य कम्पनियों को बिना किसी नियंत्रण के उन्हें अपने मालो - सामानों के मूल्य निर्धारण का छूट का अधिकार का दिया जाना है | मूल्य निर्धारण के उनके इसी छूट व अधिकार को 1991 से लगातार और तेजी के साथ बढ़ाया जाता रहा उनके मुकाबले में सस्ते दर पर उपभोक्ता सामानों का उत्पादन करने वाले सरकारी व सहकारी क्षेत्रो को घाटे का क्षेत्र बताते हुए समाप्त किया जाता रहा है | जी एस टी ने टैक्स वृद्धि के जरिये इन मालो सामानों के मूल्य को और ज्यादा बढा दिया है | इसके अलावा पेट्रोल डीजल एवं बिजली आज भी जी एस टी से बाहर है | बताने की जरूरत नही है कि पेट्रोल डीजल पर 30% से अधिक पड़ने वाला केन्द्रीय व प्रांतीय टैक्स उत्पादन व यातायात की बढती लागत के चलते मालो समानो सेवाओं का मूल्य और ज्यादा बढा दिया है |
बेरोजगारी में तीव्र बढ़ोत्तरी का सिलसिला भी जी एस टी से पहले से तेजी से चल रहा है | इसलिए 22 सालो से तेजी से बढ़ते वैश्वीकरण निजिवादी तथा उदारवादी आर्थिक नीतियों एवं डंकल प्रस्ताव के प्राविधानो को लागू किये जाने के बाद से देश के आर्थिक वृद्धि व विकास को रोज्गार्हीं वास्तविक एवं स्थायी रोजगार के अवसरों के लगातार घटने के रूप में सामने आती रही है |इसलिए महगाई व बेरोजगारी की बढती मार झेलता देश की आबादी का 70% हिस्सा जी एस टी के बढ़ते कर संग्रह से तथा बढ़ते अप्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर के दायरे की सूचनाओं से खुश नही हो सकता | जीवनयापन का बढ़ता संकट एवं दुख उसे खुश रहने की कोई गुंजाइश नही देता|
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - आभार चर्चा आजकल की

Thursday, August 23, 2018

किसानो के लिए आंतक का पर्याय बने छुट्टा पशु

किसानो के लिए आंतक का पर्याय बने छुट्टा पशु
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कृषि क्षेत्र सदियों से प्राकृतिक आपदा का शिकार बनता रहा है | कभी सुखा कभी अति वृष्टि कभी ओला व तूफानी हवाओं के साथ बाढ़ की त्रासदी का निवाला बनता रहा है | प्राकृतिक आपदाओं का भुक्त भोगी किसान भी इसे ईश्वरीय प्रकोप मानकर चुपचाप सहन करता आ रहा है | आधुनिक वैज्ञानिक व तकनिकी युग में इन प्राकृतिक प्रकोपों एवं उसके दुष्परिणामो को पूरी तरह से भले ही खत्म न किया जा सके पर उसको मद्धिम जरुर किया जा सकता है | उसके विनाशकारी परिणामो से कृषि व किसान को किसी हद तक सुरक्षा अवश्य प्रदान किया जा सकता है | विडम्बना है की देश के 70 साला आधुनिक विकास और पिछले 27 साल के बहुप्रचारित तीव्र आधुनिक तकनिकी विकास ने कृषि व किसान को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित करने का कोई गंभीर प्रयास नही किया गया | सुखा अकाल से कृषि को बचाने की वस्तुस्थिति यह है की अभी तक देश की कुल कृषि क्षेत्र का 50% से कम रकबा ही सिंचित रकबा माना जाता है |
इन प्राकृतिक आपदाओं से अलग वन्य एवं छुट्टा पशुओ की आपदा अब कृषि व किसान की एक नयी व बड़ी समस्या बनती जा रही है | यह प्राकृतिक आपदा की तरह कभी कभार घटने वाली आपदा नही है बल्कि 24 घंटे फसलो पर हमला बोलने वाली आपदा है | नील गाय , बन सूअर तथा छुट्टा सांड , बछडा , भैसा जैसे पशुओ का झुण्ड खेती को हर समय चरने और बर्बाद करने के लिए तैयार है | किसान अपनी तमाम चौकसी और रखवाली के बावजूद भी इनसे अपनी खेती की रक्षा नही कर पा रहा है | प्राकृतिक आपदाओं के चलते तो किसानो ने कभी खेती नही छोड़ी थी | इन आपदाओं से पूरी तरह बर्बाद खेती को पुन: बिना किसी डर भय के चालू रखा था | पर वन्य एवं छुट्टा पशुओ के आक्रमण अतिक्रमण ने किसानो को बुरी तरह से आतंकित कर दिया है | वह इन पशुओ के प्रकोप से सब्जी , दलहन आदि की खेती को छोड़ता या कम करता जा रहा है | अगर यही स्थिति रही तो आम किसान इन खेतियो को पूरी तरह छोड़ने पर मजबूर हो जाएगा |

क्या इन पशु आपदा को देश की केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारे नही जानती ? खूब जान रही है , पर वे इस समस्या को अन्य कृषि समस्याओं - संकटों की तरह उपेक्षित करती रहती है | इसलिए वन्य पशुओ का फसलो पर आक्रमण दशको से , खासकर पिछले 30 - 35 सालो से लगातार बढ़ता जा रहा है | इन सालो में लगभग सभी प्रमुख पार्टियों की सरकारे केंद्र से लेकर प्रांत तक सत्तासीन होती रही है | लेकिन किसी ने उस पर कोई रोक लगाने का कारगर प्रयास नही किया | वन्य पशु सुरक्षा के अंतर्गत उन पशुओ को तो सुरक्षित करने का नारा प्रोग्राम दिया जाता रहा , लेकिन इस पशु आपदा से किसान और उसकी खेती को सुरक्षित करने का कोई गंभीर प्रयास आज तक नही किया गया |
इक्का - दुक्का छुट्टा सांड भैसा गाँवों में पहले भी रहा करते थे | जिन्हें गाँव वाले अपने गाँव की सिवान से बहार खदेड़ते रहते थे | लेकिन उसका आज जैसा झुण्ड पहले नही नजर आता था | भैसा तो आम तौर पर किसान मवेशी व्यापारियों को बेच देता था और बछड़े को बैल के रूप में कृषि कार्य के लिए रख लेता था , पर खेती के आधुनिकीकरण एवं मशीनीकरण ने बछड़ो को भी छुट्टा पशु बना दिया | इनकी संख्या घटाने हटाने की कोई सुनिश्चित व्यवस्था अभी तक नही बन पाई थी | उपर से गोवंश सरक्षण के नाम पर उन्हें छुट्टा पशु बने रहने और फसले चरने की सुरक्षा प्रदान कर दी गयी है |

वन्य जीवो तथा छुट्टा पशुओ से खेती की सुरक्षा की जगह इन पशुओ को मिलती रही सुरक्षा इस बात को उजागर करती है की अब सरकारे कृषि व किसान की सुरक्षा में काम करने वाली नही है | तब तक तो करने वाली नही ही है , जब तक उन पर किसानो का व्यापक दबाव न पड़े | इसी दबाव के लिए स्थानीय स्तर पर किसानो द्वारा वन्य एवं छुट्टा पशुओ से फसलो की सुरक्षा की मांग को बार बार उठाने , पशुओ द्वारा फसलो के नुक्सान की क्षति पूर्ति की मांग करने के साथ इन पशुओ को कृषि क्षेत्र से हटाने की मांग भी उठाने की आवश्यकता है | इन पशुओ को हटाने के लिए सरकार कोई रणनीति अपनाए पर किसान पर किसान को फसलो को चरने व् नष्ट करने की खुली छुट न दें | अन्यथा किसान अपने फसलो की सुरक्षा के लिए पशुओ सुरक्षा के निर्देशों की अवहेलना के लिए आज नही तो कल बाध्य होगा - यह पूरी जिम्मेदारी सरकारों की होगी |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक

Sunday, August 5, 2018

कृषि भूमि का बढ़ता विखंडन

कृषि भूमि का बढ़ता विखंडन
भूमिहीन या लगभग भूमिहीन खेतिहर मजदूरो दस्तकारो अत्यंत छोटे जोतो से लेकर एक हेक्टेयर से कम जोतो के सीमान्त किसानो तथा एक से दो हेक्टेयर भूमि की जोत वाले छोटे किसानो में भूमि के बढ़ते विखण्डन के साथ ही भूमिहीनता बढती जा रही है | उन्हें अधिकाधिक संख्या में भूमिहीन एवं साधनहीन बनाती जा रही है यह सत्ता | 2010-2011 में देश में मौजूद औसत जोत का आकार 1.16 हेक्टेयर था देश में सभी जोतो वाले किसानो के मुकाबले एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानो की संख्या सबसे ज्यादा थी ( 67%थी ) जबकि एक से दो हेक्टेयर वाले किसान 17.9% दो से चार हेक्टेयर वाले किसान 10% 4 से 10 हेक्टेयर वाले किसान 4.2% और दस हेक्टेयर से अधिक जोत वाले किसान 0.7% थे | यह भी कहा जाता है कि एक हेक्टेयर से कम खेती अर्थात सीमांत किसानो की खेती अलाभकर खेती होती है | कृषि जोतो के पारिवारिक विभाजन एवं बढ़ते कृषि संकटो के कारण कृषि जोतो का बढ़ता विखण्डन बहुसंख्यक किसानो को अलाभकर खेती करने के लिए बाध्य करने के साथ अधिकाधिक संख्या में भूमि हीन बनाता जा रहा है | क्या इस भूमि के बढ़ते विखण्डन और बढती भूमिहीनता को रोका नही जा सकता ? क्या अलाभकर खेती को किसानो की साधारण व औसत बचत वाली खेती में बदला नही जा सकता ?
यह ऐसा सवाल है किजिसका समाधान मुख्यत: खेती पर जीवन टिकाये और विखंडित होती खेतियो के मालिक किसानो को ही सोचना होगा | फिर इस सवाल का समाधान खेतिहर मजदुर या अन्य ग्रामीण भूमिहीनों को भी सोचना होगा | इन हिस्सों के लिए इस सवाल को सोचना इसलिए जरूरी हो गया है कि अब देश - प्रदेश की सरकारे भूमिहीन या आम किसानो की खेती किसानी को बचाने व् बढाने का कोई प्रयास नही करती | उल्टे वे खेती के संकटो को बढाने उन्हें अलाभकर बनाने एवं संकटग्रस्त करने का ही काम कर रही है | वे किसानो से कृषि भूमि छीन लेने की प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रक्रियाओं को बढ़ाती जा रही है | बताने की आवश्यकता नही है कि 1950 के जमींदारी उन्मूलन कानून को लागू करने के बाद बहुतेरे जोतदार किसानो को जमीनों का मालिकाना देने तथा भूमिहीनों में सार्वजनिक भूमि एवं सीलिंग से निकली जमीन के थोड़े बहुत आवटन से उन्हें भी जमीन का एक छोटा सा टुकडा दिए जाने की प्रक्रिया चलाई गयी थी | इसके अलावा आधुनिक कृषि की योजनाओं एवं सरकारी सहायताओ छुटो अधिकारों के साथ जोतदार किसानो में खेती किसानी को प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया भी चलाई गयी थी | यह प्रक्रिया 1952-53 से खासकर 1960 से लेकर 1985 - 90 तक चलती रही | पर 1990 के बाद से उस प्रक्रिया को सभी सरकारों द्वारा उलटाया जाता रहा | 1991 से लागू की गयी आर्थिक नीतियों के जरिये उद्योग वाणिज्य व्यापार के धनाढ्य देशी - विदेशी मालिको को अधिकाधिक छूटे देने के साथ ही आम किसानो के आवश्यक हितो को भी घटाने का प्रक्रिया को बढाया गया | इसी प्रक्रिया के अंतर्गत गैर कृषि भूमि के साथ - साथ कृषि भूमि को भी विशिष्ठ आर्थिक जों विशिष्ठ निवेश जों आदि के नाम पर अधिग्रहण किये जाने की प्रक्रिया बढाई गयी | इसके अलावा औद्योगिक मालो - सामानों के व्यापार बाजार के विस्तार हेतु 4-6-8- या फिर उससे भी अधिक लेंन की सडको के निर्माण हेतु कृषि भूमि अधिग्रहण करने के सिलसिले को लगातार चलाया जा रहा है | स्वाभाविक है कि अब सरकारे सीमान्त एवं छोटे किसानो को तथा भूमिहीनों मजदूरो दस्तकारो को जमीन देने कृषि भूमि मालिको बनाने का काम नही कर सकती | वे तो उन पर बढ़ते कृषि समस्याओं संकटो का दबाव डालकर कृषि व कृषि को छोड़ने के लिए मजबूर
करती जा रही है | फिर सरकारों द्वारा तथा निजी क्षेत्रो के मालिको द्वारा किये जा रहे कृषि भूमि अधिग्रहण को शहरीकरण औद्योगिकीकरण एवं बाजारीकरण हेतु निरंतर बढ़ावा दिया जा रहा है | इस भूमि अधिग्रहण का किसानो द्वारा सालो - साल से किये जाते रहे विरोध के फलस्वरूप अब सरकारों द्वारा किसानो को मुंहमांगा दाम देकर जमीन ले लेने की नई रणनीति अपनाई गयी है | हालाकि यह बात निश्चित है कि जमीन के बदले मिल रहा अधिकाधिक रुपया किसानो एवं उनके सन्ततियो को जिवोकोपार्जन का पुश्त दर पुश्त स्थायी संसाधन या रोजगार मुहैया नही कर पायेगा | उनका धन बैंक या बाजार के रास्ते उद्योग व्यापार के धनाढ्य मालिको के पास ही वापस चला जाएगा |

इन परिस्थितियों में भूमि देकर अधिकाधिक पैसा पाने की आशा लगाये किसानो से तो फिलहाल कुछ भी कहना निर्थक है | पर खेती किसानी में लगे समस्याग्रस्त किसानो से उनकी अन्य समस्याओं के साथ पारिवारिक विभाजन से कृषि भूमि के लगातार विखंडित होने की समस्या पर चर्चा जरुर की जा सकती है यह चर्चा अत्यंत छोटे भूमिहीनों खेतिहर मजदूरो एवं दस्तकारो आदि से कृषि भूमि का मालिकाना बचाने और जोत का रकबा बढाने के सन्दर्भ में जरुर की जा सकती है | यह उन्ही की अनिवार्य आवश्यकता से जुदा मुद्दा है | यह काम किसानो से उनकी जमीन लेने की निति एवं प्रक्रिया अपनाई हुई सरकारे और उसमे आने वाली राजनितिक पार्टिया नही कर सकती |1955 से 1970 के दौर में सरकारों ने आधे आधुरे मन से सहकारी खेती के नाम पर इसकी कुछ शुरुआत भी की थी |सहकारिता व सामूहिकता को किसानो में लगातार बढ़ावा देने का कम एकदम नही किया गया | फिर आधुनिक खेती में श्रम एवं लगत का हिसाब करना तथा जोत के आकार के अनुपात में उत्पादन का बटवारा कर्न्ना कटती मुश्किल नही है | यह सहकारी या सामूहिक खेती किसानो की स्वेच्छिक पहल पर पहले एक या दो फसल के लिए फिर बाद में सभी फसलो के लिए आगे बढ़ाया जा सकता है | इसके अलवा वर्तमान युग में और वर्तमान व्यवस्था में किसानो के पास अपनी खेती बचाने और कोई रास्ता नही है | फिर सामूहिक खेती का ऐसा प्रयास ही उन्हें भावी समाज व्यवस्था का रास्ता भी दिखाएगा | उसके लिए उन्हें प्रेरित करना होगा |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक

Saturday, August 4, 2018

जब दर्द नही था सीने में तब ख़ाक मजा था जीने में -------

जब दर्द नही था सीने में तब ख़ाक मजा था जीने में --------
---इन गीतों को सुर देने वाले किशोर दा का ----
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सपनो के शहर ,हम बनायेगे घर पल भर में ये बनाके गिरा .............चल सपनो के शहर में तुझे ले जाता हूँ , तेरी राहो में मैं सितारे बिखराता हूँ ....जैसे गीतों से इस भौतिकता वादी दुनिया में चन्द सकूं देते यह गीत मनमौजी , अंदाज मस्ताना सूर के बेताज बादशाह किशोर कुमार अपने फन में एक माहिर इन्सान थे वो गीतकार ,कलाकार , निर्देशक , संगीतकार तो थे ही वो एक ऐसे प्यारे और हर दिल अजीज इन्सान थे जिनमे रूमानियत थी उसके साथ एक प्यार और मासूम से दिल के मालिक थे किशोर दा उनकी आवाज ने संगीत की सारी सीमाओं को तोड़ दिया था उनके गाये गीतों के अल्फाजो से दर्शन और सुर को जोड़ा की उन्होंने पूरी दुनिया में अपने संगीत से हर दिल में बस गये | किशोर दा चार अगस्त 1929 को मध्य प्रदेश के खंडवा में एक कुलीन ब्राम्हण बंगाली परिवार में पैदा हुए थे किशोर अपने माता -- पिता के सबसे छोटे संतान थे उनके पिता खंडवा में नामी गिरामी बैरिस्टर थे ||किशोर के बड़े भाई अशोक कुमार की तरह उन्हें अभिनय रास नही आया किशोर का मन ज्यादा सुर साधना में रहता | उनके गायन क्षेत्र में आने की एक दिलचस्प घटना है | अशोक कुमार ने एक बार कहा था की किशोर जब दस साल के थे तब उनकी आवाज कर्कश थी लेकिन उन्हें गायन से जबर्दस्त प्यार था | एक दिन जब उनके माँ रसोई में सब्जी काट रही थी तो किशोर दौड़ते हुए रसोई में आये और उनका पैर कट गया | पैर में इतना दर्द हुया की किशोर वेकल हो उठे और एक महीने तक हर दिन घंटो रोते रहे थे | इतना ज्यादा रोने से उनकी आवाज साफ़ हो गयी और किशोर जो की प्रशिक्षित गायक नही थे पर अब वो मधुर स्वर में आये |तो फिर कभी नही थमे और वो सुर इस दुनिया का सबसे बेहतरीन सुर बना |
ब्रिटिश गायक और गीतकार डेविड कर्टनी ने किशोर कुमार पर अपनी आनलाइन बायोग्राफी '' बायोग्राफी आफ किशोर कुमार '' में लिखा है की जहा बालीवुड सिनेमा में गायकों को शीर्ष पर पहुचने और वहा अपनी जगह बनाये रखने में संघर्ष करना पड़ता था वही किशोर कुमार को आसानी से यह प्रवेश मिल गया और वह संगीत की अलग -- अलग धारा ( शैलियों ) में महारत हासिल कर संगीत को एक नया आयाम दिया बल्कि वो उस बुलंदी को अपने जीवन के अन्त तक कायम भी रखा | कर्टनी के अनुसार गायक के रूप में किशोर कुमार जैसे कोहिनूर हीरे को एक संगतराश सचिन देव बर्मन ने तराश कर एक नया किशोर बना दिया | किशोर पहले के एल शगल की तरह गाते थे , बर्मन दा ने उनसे अपनी खुद की शैली का विकास करने को प्रेरित किया | इसके बाद किशोर दा ने अपनी आवाज का जो झंडा गाड़ना शुरू किया वो उनके जीवन के अन्त तक बरकरार रहा |
किशोर दा ने उस दौर के लहर संगीतकार के साथ काम किया और अनगिनत हिट गाने गाये | 70 के दशक में किशोर दा को पहली बार सुपरस्टार राजेश खन्ना के लिए गाये गीत फिल्म '' अराधना '' के इस गीत '' रूप तेरा मस्ताना '' से मिली | इस गाये गीत से किशोर की आवाज पूरे देश में छा गयी और किशोर को पहली बार फिल्म फेयर अवार्ड मिला
किशोर दा मस्त मौला तबियत के बेहद लापरवाह और फक्कड इन्सान थे | उन्हें इस दुनिया का तीन पांच का आकडा समझ में नही आता था |इसीलिए कई बार वह न चाहते हुए भी कई विवादों से जुड़े रहे| व्यक्तिगत जीवन में कई निर्माता -- निर्देशकों ने उन्हें सनकी तक कहा | कुछ पत्रकारों और लेखको के अनुसार किशोर ने वार्डन रोड स्थित अपने बंगले के बाहर '' किशोर से सावधान '' का बोर्ड टांग रखा था | किशोर जितने सनकी थे उतने ही उदार हृदय के भी थे उनके मित्र अरुम मुखर्जी की मौत के बाद किशोर नियमित रूप से भागाल्प्र में उनके परिवार को पैसे भेजते थे | निर्माता विपिन गुप्ता की तंगी के दिनों में किशोर कुमार ने ही उनकी मदद की | आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने उनसे काब्ग्रेस की एक रैली में गाने के लिए कहा , जिसे उन्होंने इनकार कर दिया | इससे गुस्सा होकर कांग्रेस सरकार ने आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उनके गाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया | अमिताभ और मिथुन चक्रवर्ती के साथ व्यक्तिगत समस्याओं के कारण किशोर ने कुछ समय तक उनके लिए अपनी आवाज नही दी | किशोर दा ने जब अपने गीत के माध्यम से एक दर्शन दिया '' जिन्दगी का सफर है ये कैसा सफर , कोई समझा नही कोई जाना नही या ओ माझी रे अपना किनारा नदिया की धारा है ' या अपने साथी के लिए बोला ओ साथी रे तेरे बिना क्या जीना ज, ओ मेरे दिल के चैन चैन आये दिल को दुआ कीजिये ,चिंगारी कोई भडके सावन उसे नुझाये सावन जो आग लगाए उसे कौन बुझाए ,कुछ तो लोग कहेंगे लोगो का काम है कहना , छोडो बेकार की बातो में कही बीत ना जाए रैना जैसे सुपरहिट गीत देने वाले किशोर कुमार ने रिकार्ड आठ बार सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्म फेयर पुरूस्कार जीता | किशोर ने अपने जीवन में लोगो को बहुत प्यार दिया मधुबाला का जब दिल टुटा तो किशोर ने ही उनको संभाला मधुबाला की मृत्यु के बाद लीना से शादी की | 13 अक्तूबर 1987 को किशोर की मृत्यु हुई | किशोर आज हमारे बीच नही है लेकिन उनकी आवाज सदा हमारे दिल में गुजती है , किशोर सदा ही किशोर ही रहेंगे .किशोर की तरह .....
-सुनील दत्ता ------------- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Friday, August 3, 2018

हरि ॐ --- मन तरपत हरि दर्शन को आज , मोरे तुम बिन बिग्रे सब काज -- शकील बदायूनी

आज है उनका जन्म दिन



हरि ॐ --- मन तरपत हरि दर्शन को आज , मोरे तुम बिन बिग्रे सब काज -- शकील बदायूनी


जीवन के दर्शन को अपने कागज के कैनवास पर लिपिबद्द करने वाले मशहूर शायर और गीतकार शकील बदायूनी का अपनी जिन्दगी के प्रति नजरिया उनके शायरी में झलकता है | शकील साहब अपने जीवन दर्शन को कुछ इस तरह बया करते है |
'' मैं शकील दिल का हूँ तर्जुमा कि मोहब्बतों का हूँ राजदान
मुझे फ्रख है मेरी शायरी मेरी जिन्दगी से जुदा नही |

शकील अहमद उर्फ़ शकील बदायूनी का जन्म 3 अगस्त 1916 को उत्तर प्रदेश के बदायु जिले में हुआ था | शकील साहब ने अपनी शिक्षा बी ए तक की उसके बाद 1942 में वो दिल्ली चले आये | उस वक्त देश स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर से गुजर रहा था | शकील का शायर दिल भी देश के हालात का जायजा ले रहा था तभी तो शकील का शायर बोल पडा

'' जिन्दगी का दर्द लेकर इन्कलाब आया तो क्या
एक जोशिदा पे गुर्बत में शबाब आया तो क्या ''

शकील साहब अपनी रोजी रोटी के लिए दिल्ली में आपूर्ति विभाग में आपूर्ति अधिकारी के रूप में नौकरी करनी शुरू कर दी उसके साथ ही उन्होंने अपनी शायरी को बदस्तूर जारी रखा | शकील बदायूनी की शायरी दिन बी दिन परवान चढने लगी और वो उस वक्त मुशायरो के जान ( दिल ) हुआ करते थे उनकी शायरी से मुशायरो में एक अजीब शमा बंध जाया करती थी |
'' शायद आगाज हुआ फिर किसी अफ़साने का
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने को ''

शकील की शायरी ने पूरे देश में अपना एक मुकाम हासिल किया इसके साथ उस समय शकील साहब की शोहरत बुलन्दियो पर थी | अपनी शायरी से बेपनाही कामयाबी से प्रेरित हुए उन्होंने दिल्ली छोड़ने का मन बना लिया और नौकरी से त्याग पत्र देकर 1946 में वो दिल्ली से मुम्बई चले आये | मुम्बई में उनकी मुलाक़ात उस समय के मशहूर फिल्म निर्माता ए आर कारदार उर्फ़ कारदार साहब और महान संगीतकार नौशाद से हुई | नौशाद साहब के कहने पर शकील बदायूनी ने पहला गीत लिखा ----
'' हम दिल का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे
हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे '' |

यह गीत नौशाद साहब को बेहद पसन्द आया इसके बाद शकील साहब को कारदार साहब की '' दर्द '' के लिए साइन कर लिया गया | वर्ष 1947 में अपनी पाहली ही फिल्म

' दर्द के गीत '' अफसाना लिख रही हूँ दिले बेकरार का '' कि अपार सफलता से शकील बदायूनी फ़िल्मी दुनिया में कामयाबी के शिखर पर पहुच गये | उसके बाद शकील साहब ने कभी ता उम्र पीछे मुड़कर नही देखा उसके बाद वो सुपर हिट गीतों से फ़िल्मी दुनिया को सजाते रहे |

'' रूह को तडपा रही है उनकी याद
दर्द बन कर छा रही है उनकी याद ||
शकील बदायूनी के फ़िल्मी सफर पर अगर गौर करे तो उन्होंने सबसे ज्यादा गीत संगीतकार नौशाद साहब के लिए लिखा जो अपने जमाने में सुपर हिट रहे वो सारे गीत देश के हर नौजवानों के होठो के गीत बन गये इश्क करने वालो के और इश्क में नाकाम होने वालो के उनकी जोड़ी नौशाद साहब के साथ खूब जमी उनके लिखे गीत '' तू मेरा चाँद मैं तेरी चादनी , सुहानी रात ढल चुकी , शकील साहब ने भारतीय दर्शन से जुड़े अनेको गीत लिखे जो आज भी हर सुनने वालो के दिल और दिमाग को बरबस ही एक ऐसी दुनिया में लेकर चला जाता है जहा उसे सकूं का एहसास होता है | ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले , मदर इण्डिया के गीत ''दुनिया में हम आये है तो जीना ही पडेगा जीवन है अगर जहर तो पीना पडेगा '' ऐसे गीतों से उन्होंने जीवन के संघर्षो को नया आयाम दिया प्रेम के रस में डुबोते हुए उन्होंने कहा कि ''दो सितारों का जमी पे मिलन आज की रात सारी दुनिया नजर आती दुल्हन आज की रात , दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूढ़ रहा है , तेरे हुस्न की क्या तारीफ़ करु , दिलरुबा मैंने तेरे प्यार में क्या - क्या न किया , कोई सागर दिल को बहलाता नही जैसे गीतों के साथ फ़िल्मी दुनिया की मील का पत्थर बनी फिल्म मुगले आजम में शकील बोल पड़ते है '' इंसान किसी से दुनिया में एक बार मुहब्बत करता है , इस दर्द को ले कर जीता है इस दर्द को ले कर मरता है
'' प्यार किया तो डरना क्या प्यार किया कोई चोरी नही की प्यार किया छुप छुप आहे भरना
क्या जैसे गीतों को कागज और फ़िल्मी कैनवास पे उतार कर अपने गीतों को ता उम्र के लिए अमर कर दिया जब तक ये कायनात रहेगी और जब तक यह दुनिया कायम रहेगी शकील बदायूनी को प्यार करने वाले उनके गीतों से अपने को महरूम नही पायेंगे | शकील बदायूनी को उनके गीतों के लिए तीन बार उन्हें फिल्म फेयर एवार्ड से नवाजा गया 1960 में चौदवही का चाँद हो या आफताब हो , 1961 में फिल्म '' घराना '' हुस्न वाले तेरा जबाब नही , 1962 में फिल्म ''बीस साल बाद '' में 'कही दीप जले कही दिल जरा देख ले आ कर परवाने तेरी कौन सी है मंजिल कही दीप जले कही दिल मेरा गीत मेरे दिल की पुकार है जहा मैं हूँ वही तेरा प्यार है मेरा दिल है तेरा महफिल ---आज उनका जन्म दिन है बस इतना ही कहूँगा शकील बदायूनी ने अपने गीतों के साथ हर पल याद किये जायेंगे |


सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार -- समीक्षक

Thursday, August 2, 2018

ब्राह्मण -- भाग - पाँच

ब्राह्मण -- भाग - पाँच

ननदों के बाद पिछले शुद्र ( नव ) ननदों के साथ मैंने राजनीति में साझा किया और सारे क्षत्रिय राजाओं का उच्छेद कर डाला | परन्तु मेरा यह सौभाग्य बहुत दिनों न चल सका | शुद्र के भावी उत्कर्ष के भय से अंग ने अंग पर प्रहार किया और चाणक्य -- रक्षित चन्द्रगुप्त ने ननदों का सर्वनाश कर डाला | मैंने फिर अवकाश पा और आवश्यकता देख शुद्र के विरुद्ध अपने अर्थशास्त्र में अनन्त विधान बनाये | मौर्यों का शासन शीघ्र मेरे मंत्रित्व के बाद ब्राह्मण विरोधी और सर्वथा क्षत्रिय - बौद्ध समर्थक हो उठा था | अशोक ने तो यज्ञो पर अनेक प्रतिबन्ध भी लगा दिए | फिर तो मेरे लिए षड्यंत्र के सिवा और कोई अपनी रक्षा का साधन ही नही दिख पडा मेरे भाग्य से अशोक के वंशधर दुर्बल हुए , और विदेशी आक्रमणों की रक्षा न कर सके | जब देमित्रियस न बाख्त्री से आकर मगध के हृदय पाटलिपुत्र पर प्रहार किया , तब मौर्य राजा ने राजगिरी की पहाडियों में शरण ली , और जब ब्राह्मण खारवेल ने उड़ीसा से बढ़कर मगध पर आक्रमण किया , तब न तो ग्रीक रह गये , न मौर्य | पर मौर्य फिर लौटे अब तक मेरी शक्ति भीतर - ही - भीतर दृढ होती जा रही थी और प्रजा की रक्षा न कर सकने का आरोप मैं बराबर मौर्य राजा पर लगाता गया | फिर मैंने राजा के विरुद्ध 'प्रतिज्ञा दौर्बल्य का नारा बुलंद किया और अपने पौरोहित्य पद से उचक कर मगध का राजदंड शीघ्र ही अपने हाथ में ले लिया | पुष्यपित्र के रूप में मैंने खुले आम वृहद्रथ की हत्या कर मगध का साम्राज्य स्वायत्त कर लिया | तब मेरी रक्षा महर्षि पंतजलि कर रहे थे | अब मैंने बौद्धों पर प्रतिबन्ध लगाये | श्रमणों की तो जान पर ही आ बनी | ब्राह्मण के यज्ञादि और संस्कृत भाषा का पुनरुद्धार किया | स्वंय दो - दो अश्वमेध किये और ग्रीकराज बौद्ध मिनान्दर को मार कर ग्रीको को सिन्धु के पार निकल दिया | तब तक भारत में मेरे तीन साम्राज्य प्रतिष्ठित हो चुके थे -- दक्षिण में सातवाहनो का , पूर्व में खारवेल का , मध्यदेश में शुंगो का , और शुंगो के बाद काँ
काण्डवायन और और फिर सातवाहन | सभी ब्राह्मण | इस बीच मैंने मनुस्मृति की रचना की | ब्राह्मण को भूसुर कहा और राजा को देवोत्तर संज्ञा से विभूषित किया , कयोकी इस समय राजा स्वंय मैं था | यदि कभी राजा क्षत्रिय भी हुआ , तो मुझे उससे आपत्ति न थी , कयोकी मुझे राज - लोभ इतना न था जितना शासन और विधान - लोभ | जब तक राजा कानून का उद्गम न था , जब तक उसकी दंडनीति और दाय आदि पर मेरे सिद्धांतो की मुहर थी , तब तक मुझे इसकी परवाह न थी की राजा कौन होता है | राजा मैं बार बार केवल शक्ति - तुला के दंड को यथावत सम करने के निमित्त बना करता था | हाँ , इसी समय शक आम्लाट के आक्रमण हुए , जिसने मेरे वर्णधर्म पर प्रबल आघात किया | सारा देश लहुलुहान हो गया | अनीति सर्वत्र उग्र रूप धारण करने लगी | सध्योज्त शिशुओ का वर्ण स्थिर करना कठिन हो गया | ब्राह्मण के आचरण शुद्र हो गये और शुद्र ब्राह्मण के | फिर जब शान्ति हुई शक मेरे प्रभाव में आकर आज्ञाकारी हो गये , तब मैंने अपनी लेखनी फिर धारण की और विधानों का पुन: सृजन किया | मैंने सूत्रों के अनेक ग्रन्थ की रचना की यद्दपि उनका आरम्भ सदियों पहले मैंने शुरू कर दिया था | मैंने मनुष्यों को संस्कारों से जकड़ दिया | संस्कार उसके पूर्व जन्म के पूर्व से और मरण के पश्चात तक उसके सर हो गये |
शको , कुषाणों आदि के आगमन से निश्चय ही मेरी व्यवस्था को बड़ी हानि हुई | यद्दपि शक सर्वथा हिन्दू हो गये , मेरी भाषा तक उन्होंने अपना ली , फिर भी मुझे उन्हें अपनी व्यवस्था में सम्मलित कर विशेष संतोष न हुआ | मैं उन्हें उनके विजित प्रान्तों से निकाल बाहर करने की तदवीर सोचने लगा | नागो से अति प्राचीन काल से मेरा सदभाव था | अब उनमे से कुछ पद्द्याव्ती के पास आ बसे थे और झांसी के आसपास उन्होंने अपने अपनी शक्ति केन्द्रित की थी | मैंने शीघ्र ही उनमे प्राण फूंके और उन्हें धर्मातुर बना डाला | वे शिव के तो इतने पुजारी बन गये कि शालिग्राम सदा उनकी पीठ पर बना रहता जिससे उनकी संज्ञा तक भारशिव - नाग हो गयी | परन्तु उन पर भरोसा होते हुए भी मैंने उन्हें उस क्षेत्र में अकेला न छोड़ा |
उनके दक्षिणी - पश्चिमी पड़ोस में ही मैंने अपने ब्राह्मण - वाकाटक - कुल की स्थापना की , जो शुंगो का इतिहास फिर से दुहरा दे ; पर उसकी आवश्यकता न पड़ी | भारशिव - नाग पर्याप्त स्वामिभक्त निकले | उन्होंने मेरी व्यवस्था को सर्वथा निजी समझा और विदेशियों पर निरंतर अपने हमले जारी रखे | प्रत्येक हमले और जीत के बाद उन्होंने काशी में गंगा तट पर एक अश्वमेध किया | जब इन्ही अश्वमेधो की परम्परा दस की हो गयी , तब काशी के उस घाट का नाम दशाश्वमेध पडा | काशी मेरी नही थी , न शिव ही मेरे थे | दोनों अनाथो के थे , परन्तु किस प्रकार मैंने दोनों को अपना बनाया , यह प्राचीन कथा है | उसका वर्णन यहाँ विषयांतर होगा | नागो , वाकाटाको ने कुषाणों का अन्त कर दिया | डर यह था कि दोनों विदेशी राजकुल कहीं मिल न जाए |
अब मध्य - देश में एक नयी शक्ति का उदय हुआ , जो सर्वथा मेरे अनुकूल थी | वास्तव में विदेशी आक्रमण छोड़ ऐसी कोई राजनितिक शक्ति न थी , जो मेरी अनुमति और आशीर्वाद के बिना प्रतिष्ठित हो सकती हो | नागो की बढती हुई कीर्ति भी मेरी आँखों में खटकी | यद्दपि वाकाटक उनके उपर सबल प्रतिबन्ध थे , फिर भी मैंने अपनी व्यवस्था को एक नया रूप दे अपनी राजनीति सशक्त की | ब्राह्मणों और क्षत्रियो का परस्पर विवाह मुझे प्राचीनकाल से ही सम्मत न था
और बार - बार मैंने उसका विरोध किया था ; पर अब आवश्यकतावश स्वंय मैंने उसकी व्यवस्था दी | नागो और वाकाटक के पुत्र ने व्याहा प्रवरसेन वही , जो पुराणों का प्रवीर है और जिसने ब्राह्मण - परम्परा के अनुरूप अनेक अश्वमेध , वाजपेय , वृहस्पति आदि यज्ञ किये | यह कोई साधारण बात न थी , और मैंने वाकाटाको के अभिलेखों में इसका जो बार बार उल्लेख्य कराया , वह इसलिए नही कि यह सुन्दर व्यवस्था थी , वरन इसलिए कि इसे बार बार पढ़ कर लोग इस सम्बन्ध को स्वाभाविक समझने लगे | विदेशियों के विरोध में इसकी आवश्यकता थी और मैंने समाज को राजनीति के उपर नही रखा | सिकन्दर के समय जब प्राचीन काल से मालव और क्षद्र्क गण - राज्य में वैर चला आता था , तब मैंने क्या किया ? देश की राजनितिक आवश्यकता के अनुसार दोनों के हजारो तरुण तुरुणीयो को मैंने विवाह सम्बन्ध में बाँध दिया और इस प्रकार नागो वाकाटको का सम्बन्ध संपादित किया | वाकतको से एक और सम्बन्ध भी करना था -- मगध में उठती हुई उस गुप्त शक्ति का जिसका हवाला मैंने अभी अभी दिया है |
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
आभार 'खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर -
लेखक - भगवत शरण उपाध्याय
साभार चित्र गूगल से

Wednesday, August 1, 2018

अतीत के झरोखे से आजमगढ़ -

अतीत के झरोखे से आजमगढ़ -

चकलेदारो का शासन - विकास का नया दौर
मुगलकाल के गिरते हुए राज्य में चकलेदारी की नई प्रथा शुरू हुई जो पहले से प्रचलित कृषि कार्य में ''कूत'' 'अधिया ' प्रथा पर आधारित थी | कूत में रबी और खरीब की फसल में उभय पक्ष की सहमती से अन्न का निश्चित कोटा तय कर देता ''अधिया '' में नफा - नुक्सान का ख्याल करते हुए आधा - आधा बाट होती थी , यह आज भी प्रचलित है || इसी का व्यापारिक शासकीय विकसित रूप ठेका था | अवध के नवाब ने 1771 ई० में इसे आजमगढ़ में लागू कर दिया | ये चकलेदार नियुक्त अफसर होते थे जिनके जिम्मे सीमांकित क्षेत्र की मालगुजारी वसूल करने का अधिकार था An Officer who charge to collect revenirt in landed property
यह शासन की एक यूनिट होती थी जिसके नियम - कानून के अंतर्गत राजस्व वसूल होता था | राजस्व की नियत राशि से अतिरिक्त उपलब्द्धि दान बरामद या अन्य स्रोतों से प्राप्त को प्रजा के विकास में खर्च करने का उन्हें अधिकार था | सामान्य स्थित में शाही फ़ौज का इस्तेमाल नही स्वीकृत था सुरक्षा व्यवस्था उन्हें स्वंय करनी पड़ती थी , एक प्रकार से ये चकलेदार ''छोटे राजा '' कहे जाते थे |
आजमगढ़ में 1777 ई० से 1801 तक 24 वर्षो में 14 चकलेदारो ने शासन किया ये सभी प्राय फैजाबाद - अकबरपुर के रईस जमींदार और अवध के शुभचिंतक थे | इनमे से केवल दो चकलेदार आताबेग राजा भवानी प्रसाद के समय शान्ति व्यवस्था ठीक रही , शेष सभी के शासन में खोट रही और वे झिडकी सहित हटाए गये |
पहले चकलेदार मिर्जा आताबेग खा काबुली थे तारीखे विन्द्वल में में मोहम्मद रजी चौधरी ने लिखा है -- '' कुछ दिनों बाद नवाब अवधिया के वजीर एलीच खा ने इस इलाके
को जहाँ यार खा से छिनकर नवाबी में शामिल कर लिया था यह आजमगढ़ अवधिया हुकूमत का एक चकला बन गया और नवाब की तरफ से एक ''आमिल '' रहने लगा | नवाब आशिफुद्दौला के जमाने में मिर्जा आताबेग खा काबुली ''आमिल'' थे | लखनऊ और जौनपुर के बीच में तब जौनपुर सूबे की सीमा पूरब में बक्सर के करीब तक थी आजमगढ़ इलाका पड़ता था इसलिए आजमगढ़ के ''आमिल'' इसकी हिफाजत करते थे | इन चकलेदारो ने अपने निवास के लिए किले के पश्चिम
की तरफ भूमि का चुनाव किया ( जो चकला मुहल्ले के रूप में आज बिख्यात है | यहाँ से पश्चिमी हिस्से की देखरेख और वसूली की जाती थी |पूरबी हिस्से की चकलेदारी की यूनिट अमिला में रहती थी |
जिस समय 1717 ई० में आताबेग काबुली की नियुक्ति हुई आजमगढ़ का जनमानस अप्रसन्न था | आजम शाह द्दितीय ने जिस गंगा जमुनी परिवेश की रचना की थी उसके नब्बे प्रतिशत लोग उनके पक्ष में थे | जहाँयार खा ने उस परम्परा को अपने स्वभाव के नाते कमजोर किया लेकिन राज्य के प्रति जनता का मोह बरकरार था | बिन्द्वल के इतिहास के ही मुताबिक़ जहाँ यार खा के बेटे नादिर खा को जो आमिलो के बरसरे पैकार साथी समर्थक था डेढ़ सौ माहवार की पेंशन और 12 गाँव की जमींदारी देकर किले में अमनो कायम किया | ये राजा की पदवी सहित जमींदार हो गये | यह एक प्रकार से राजघरानो की अवमानना थी | लेकिन आता बेग बहुत समझदार थे | उन्होंने पुरे राज्य का दौरा किया सभा और पंचायते की | अपनी और राज्य की मजबूरियों को बताया कि मालगुजारी ही एक मात्र आमदनी है जिससे शासन का खर्च चलता है इसके लिए उन्होंने आमदनी बढाने के लिए व्यापार पर जोर दिया और बाहर के व्यापारियों को बहुत सारी सुविधाए देने का एलान किया | इससे बहुत से मारवाड़ी खत्री और अग्रवाल लोग पश्चिम से यहाँ व्यापार हेतु आ गये और बस गये | चकलेदारो के पहले आजमगढ़ मुश्किल कस्बाई स्वरूप के रूप में अंकुरित हो रहा था | व्यापारिक संचेतना ग्राम आधारित थी - आवागमन के साधन के कारण | भूमि की भौगोलिक रचना जलवायु और साधन के परिप्रेक्ष्य में यहाँ मुख्य व्यापार अन्न ,गुड और हस्त निर्मित कपडे का था | रानी की सराय में सुतली - गुड सरायमीर में चमडा तथा कपडे का कारोबार फूलपुर पुर्वनाम खुरासो में लोहा बर्तन, पान और लाल मिर्च तथा गोठा दोहरीघाट में लकड़ी के व्यापार की प्रमुखता थी | तत्कालीन परिवेश में दूर न जाकर
निकटवर्ती सीमा क्षेत्रो में ही छोटी - छोटी बाजारे लगती | इन्हें अस्थायी स्थानीय बाजार कहना ज्यादा उचित होगा आज भी वह परम्परा कायम है |
इनके लगने का दिन सप्ताह में निश्चित रहता था | यह परम्परा आज भी बरकरार है जिले की प्राय: सभी तहसीलों में इस प्रकार के स्थानीय बाजारों को देखा जा सकता है | इन बाजारों में दुकानों की तुलना में श्रष्ट और कम दरो पर कृषि गृहस्ती की अस्थायी दुकाने लगती लेकिन 18वी शाताब्दी के अंतिम दौर में कुछ अंतरजिला बाजार भी थे | दक्षिण में लालगंज इसे लाल खा बलूच ने बसाया था पश्चिम में फूलपुर - सरायमीर उत्तर में दोहरी - बधाल्ग्न्ज पूरब में मऊ और पश्चिमोत्तर में टांडा - बिडहर बड़ी बाजारे थी | इस प्रकार के बाजारों में दूसरे जिले पड़ोसी आकर खरीद फरोख्त करते थे | सिक्को का प्रचलन था अवश्य साठ प्रतिशत व्यापर अदल - बदल प्रणाली से होता | ग्रामीण जनता तो बहुतायात से अन्न गुड सुतली तम्बाकू इत्यादि अदल - बदल करते | अनाज देकर वस्तुओ की खरीद बहुत प्रचलित थी भारतीय इतिआहास संकलन समिति उत्तर प्रदेश 1982 की स्मारिका में बिडहर का इतिहास लिखते हुए स्व रामऋषि त्रिपाठी ने पश्चिमोत्तर बाजार के विषय में लिखा है ''यह स्थान बिडहर घाघरा के उस पार और इस पार के व्यापर संचालन का प्रमुख केंद्र रहा है यहाँ व्यापारियों का मेला सा लगता था गोरखपुर देवरिया बस्ती गोंडा तथा बहराइच के भू भाग फैजाबाद आजमगढ़ सुल्तानपुर और प्रतापगढ़ के भू क्षेत्रो से जुड़े हुए थे | यहाँ से होकर इलाहाबाद का सीधा रास्ता था | 1857 में जो उथल पुथल हुई उसमे ये सारे बाजार नष्ट हो गये | व्यापारिक क्षेत्र में तौल को लेकर समस्या खड़ी हो गयी थी जिनसे जूझने में चकलेदार आता बेग बहुत ही उलझन में थे | नाजिम फतह अली के जमाने में माल गुजारी में अन्न वसूली में गाजीपुर सेर की चलन चलाई गयी डयौढा या बड़का सेर कहा जाता था | यहाँ तौल के लिए चालीस सेर का एक मन होता , लेकिन गाजीपुरी सेर का एक मन तब होता जब प्रचलित सेर का डयौढा अर्थात डेढ़ मन होता | नाजिम अली के कारिंदे जबरन इसी तौल से मालगुजारी लेते | जब बिडहर का व्यापारी एक मन तिलहन तौलकर गोरखपुर के व्यापरी एक मन तम्बाकू माँगता तो वह प्रचलित मन से देता |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
सन्दर्भ - आजमगढ़ का इतिहास - राम प्रकाश शुक्ल निर्मोही
सन्दर्भ - विस्मृत पन्नो में आजमगढ़ - हरिलाल शाह

दानबहादुर सिंह 'सूँड़ फैजाबादी'' ''आज जन्मदिन है उनका ''

दानबहादुर सिंह 'सूँड़ फैजाबादी'' ''आज जन्मदिन है उनका ''
हरे - हरे नोटों में लगता प्यारा पेड़ खजूर का |
बनिया तो बदनाम बेचारा किसे नही दरकार है ||
हास्य का नाम लेते ही मेरे सामने प्रख्यात संचालक सूँड़ फैजाबादी का चेहरा सामने आ जाता था , मेरा सौभाग है कि मैंने उनके संचालनो में अनेक कवि सम्मेलनों में कविताओं का आनन्द लिया है , अदभुत व्यक्तित्व के धनी सूँड़ अपने ही मिजाज में जीते थे , जिसे मान लिया उसके वो हो लिए जिन्दगी के अंत तक साथ निभाया , सूँड़ जी की घनिष्टता किस्से नही थी , वो जनपद के ही नही पुरे देश के गौरव थे |
1 अगस्त सन 1928 में गाँव अलऊपुर , फैजाबाद में जन्मे थे पिता श्री रामकरन सिंह के यहाँ सूँड़ फैजाबादी बचपन से ही मेधावी रहे उन्होंने अपने हाई स्कूल की शिक्षा श्याम सुन्दर सरस्वती विद्यालय , फैजाब से पूरी करने के बाद वो आजमगढ़ चले आये और यहाँ आकर उन्होंने शिबली नेशनल कालेज आजमगढ़ से इंटर पास किया उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए सूँड़ फैजाबादी आगरा विश्व विद्यालय में दाखिला लिए वहाँ से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त किया सूँड़जी अपने संस्मरण में लिखते है जब मैं कक्षा 9 का छात्र था तो उस समय हिंदी के मेरे गुरु पंडित बलभद्र द्दिवेदी की प्रेरणा से मेरा हास्य रस की तरफ झुकाव हुआ और जब मैं 1947 में एस के पी इंटर कालेज में अध्यापक बना उसके बाद मेरी भेंट कविवर ''विश्वनाथ लाल शैदा'' जी से हुई वही मेरे काव्यगुरू बने | सूँड़ फैजाबादी एक ऐसा नाम जो अपने सारे दर्दो को अपने अन्दर समाहित करके दुनिया को हास्य परोसते थे ठीक उसी तरह उनके संचालन का बड़ा ही अनोखा अंदाज रहा उनकी प्रकाशित रचनाओं में ''मियाँ की दौड़'' - हास्यरस का खंडकाव्य , 1949 में हिंदी साहित्य का सर्व प्रथम हास्य प्रबंध 1951 में ''फुँकार'' 1953 में अंग्रेजी गीतों का अनुवाद
1956 में ''लपेट'' , हास्यरस की फुटकल रचनाये
''चपेट'' हास्यरस 1971 में प्रकाशित हुई | सूंड फैजाबादी इसके साथ ही जनपद हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे साथ ही हरिऔध कलाभवन के संस्थापक सदस्य थे इसके साथ ही 1957 से 1971 तक नगर पालिका परिषद के सदस्य भी रहे सूँड़ फैजाबादी कविसम्मेलनो के संचालक के रूप में बेताज बादशाह रहे |
सूँड़ फैजाबादी के लिए पूर्व रक्षा मंत्री आदरणीय जगजीवन राम जी ने लिखा है कि ' सूँड़ फैजाबादी विद्वानों से लेकर आम आदमी तक के कविता की भूमिका बनाने में माहिर थे' , वासुदेव सिंह ( पूर्व मंत्री ) 'सूँड़ की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने जीवन की वास्तविकता को हास्य से जोड़ा है ' , ठाकुर प्रसाद सिंह - 'सूँड़ ने अपनी प्रतिभा से जो स्थान अर्जित किया है उससे उनके बहुत से समकालीनो को इर्ष्या हो सकती है | तत्कालीन जिलाधिकारी कृपा नरायन - चुभती भाषा में व्यग्य चहचहाती जबान में हँसी का आलम इकठ्ठा करना सूँड़जी का ही कमाल है | तत्कालीन जिलाधिकारी बालकृष्ण चतुर्वेदी '' सूँड़जी का हास्य साहित्य में जो स्थान है वह सर्वविदित है | डा धर्मवीर भारती ''बेमिसाल हाजिर जबाब' डा विश्वनाथ प्रसाद सूँड़ जी ने कवि सम्मेलन की जड़ो को सामान्य जन की माटी तक पहुचा दिया | भारत भूषण ' सूँड़ के काव्य के हास्य का सस्तापन नही है | रूपनारायण त्रिपाठी सूँड़ की रचनाओं से मेरी सहमती का कारन यह है कि मुझे उनमे आत्मा की मुस्कान मिलती है | डा विवेकी राय सूंड फैजाबादी का हाथ कुंडलिया छंद पर बहुत सधा हुआ है |
चन्द्रशेखर मिश्र ' हास्य और व्यंगकार के रूप में सूँड़ जी देश के अग्रिम पंक्ति में है | हल्दीघाटी के रचनाकार श्याम नरायन पाण्डेय सूँड़ जी में एक विलक्षण पैनी प्रतिभा है ,उमाकांत मालवीय वो मंचो के जादूगर है विश्वनाथ लाल शैदा सूँड़ जी के व्यंग्य को मैं ऊँचे दर्जे का हास्य मानता हूँ | श्रीपाल क्षेम पूर्वांचल के काव्य मंच को अनेको रूपों से प्रभावित किया है डा त्रिभुवन सिंह सूँड़ का काव्य जीवन सम्प्रत्ति का काव्य है | ऐसे थे हम सबके सूंड जी इसी माटी के होकर रह गये आज उनका जन्मदिन है | उनको शत शत नमन करता हूँ |
प्यारे , मैं पशु अंग हूँ , कवि मंडल की नाक ,
लटका हूँ , गिरता नही , ऐसी अपनी धाक
ऐसी अपनी धाक , फूंक कर पद धरता हूँ ,
पहुँचू जिसके द्वार वही शोभा करता हूँ |
कहे सूँड़ फटकार , रो रहे कुत्ते सारे ,
मस्त करूँ फुँकार आप हँसते है प्यारे |
अपने रंग में झूमता झन्झट सभी समेत ,
मुझको जो प्यार लगा उसको लिया लपेट |
उसको लिया लपेट प्यार के सबसे नाता ,
धन है केवल मित्र , सदा उनके गुण गाता |
कहूँ सूँड़ फटकार , मौज मस्ती के सपने ,
प्यार मैं पशु अंग रंग में झूमूँ अपने ||
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

चालीस साल लम्बी दर्द की कविता खत्म ----------गुलजार

आज मीना जी का जन्म दिन है ------------------
चालीस साल लम्बी दर्द की कविता खत्म ----------गुलजार
मीना जी ने अपनी डायरी गुलजार को सौपी | गुलजार ने उनकी मृत्यु पर कहा था की चालीस साल लम्बी दर्द की कविता खत्म हुई |
गुलजार ने मीना जी की भावनाओं की पूरी इज्जत की | उन्होंने उनकी नज्म , गजल
, कला और शेर की एक किताब का कलेवर दिया | जिसमे एक जगह उन्होंने मीना जी
पर लिखा है ----
शहतूत की डाल पे बैठी मीना ,
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -- लम्हा खोल रही है ,
पत्ता -- पत्ता बिन रही है ,
एक -- एक सांस बजाकर सुनती है
सौदायन,
अपने तन पर लिपटाती जाती है , अपने ही तागो की कैदी ,
रेशम की यह शायद एक दिन
अपने ही तागो में घुटकर मर जायेगी |
इसे सुनकर दरिया में उठते ज्वार की तरह मीना जी का दर्द छलक गया | उनकी
गहरी हंसी ने उनकी हकीकत बया कर दी ....................जानते हो न , वे
तागे क्या है ? उन्हें प्यार कहते है | मुझे तो प्यार से प्यार है | प्यार
के एहसास से प्यार है , प्यार के नाम से प्यार है |इतना प्यार कोई अपने तन
से लिपटाकर मर सके और क्या चाहिए ?
सावंकुमार टाक ने मीना जी के बारे में लिखा मीना जी बहुत अच्छी इन्सान थी
...................आज सावन कुमार जो कुछ भी है मीना जी के वजह से है ---
मैं न केवल उनसे इंस्पायर्डहुआ हूँ बल्कि उन्होंने मुझे तीच भी किया है |
मार्गदर्शन दिया है |
सच बात तो यह है की मैंने किसी हद तक उनकी जिन्दगी का मतलब समझा है | वे
जितनी बड़ी अदाकारा थी कही उससे बड़ी भी बड़ी बहुत अच्छी इंसान थी | वे
कहती थी की मुझे थोड़ी ख़ुशी चाहिए बहुत ज्यादा नही | उनका प्यार हमेशा
निश्छल और पवित्र रहा | यदि उनकी सबसे अच्छी बात थी की वे बहुत संवेदनशील
थी तो सबसे बुरी बात यह थी की वे बहुत जल्दी किसी पर यकीं कर लेती थी और वह
उन्हें चोट करके चला जाता था | आज सिर्फ यही कह सकता हूँ मैं
''तेरी याद धडकती है मेरे सीने में |
जैसे कब्र के सिरहाने शमा जला करती है || ''
मीनाजी के एक नज्म ....................
चाँद तन्हा है , आसमा तन्हा ,
दिल मिला है ,कहा कहा तन्हा ,
बुझ गयी आस , छुप गया तारा ,
थरथराता रहा , धुँआ तन्हा ,
जिन्दगी क्या इसी को कहते है ,
जिस्म तन्हा है और जा तन्हा ,
हमसफर कोई गर मिले भी कही
दोनों चलते रहे यहा तन्हा
जलती बुझती सी रौशनी के परे
सिमटा -- सिमटा सा एक मका तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे यह जहा तन्हा ||
ये दर्द का समन्दर उनमे उठते ज्वार का एहसास दिलाते मीना की नज्मे अपने आप
में एक बेमिशाल धरोहर है
.................................................कबीर