Tuesday, March 27, 2018

बम का दर्शन -- भगत सिंह 27-3-18

बम का दर्शन -- भगत सिंह


हाल की घटनाए ! विशेष रूप से 23 दिसम्बर , 1929 को वायसराय की स्पेशल ट्रेन को उड़ाने का जो प्रयत्न किया गया था , उसकी निंदा करते हुए कांग्रेस द्वारा पारित किया गया प्रस्ताव तथा ''यंग इंडिया '' में गांधी जी द्वारा लिखे गये लेखो से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राष्ट्रीय काग्रेस ने गांधी जी से साठ- गाठ कर भारतीय क्रान्तिकारियो के विरुद्ध घोर आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया है | जनता के बीच भाषणों तथा पत्रों के माध्यम से क्रान्तिकारियो के विरुद्ध बराबर प्रचार किया जाता रहा है | या तो जानबूझकर किया गया या फिर केवल अज्ञान के कारण उनके विषय में गलत प्रचार होता रहा और उन्हें गलत समझा जाता रहा , परन्तु क्रांतिकारी अपने सिद्धांतो तथा कार्यो की ऐसी आलोचना से नही घबराते है | बल्कि वे ऐसी आलोचना का स्वागत करते है ,क्योकि वे इस बात को स्वर्ण अवसर मानते है कि ऐसा करने से उन्हें उन लोगो की क्रान्तिकारिरो के मूल - भूत सिद्धांतो तथा उच्च आदर्शो को , जो उनकी प्रेरणा तथा शक्ति के अनवरत स्रोत है , समझने का अवसर मिलता है आशा की जाती है कि इस लेख द्वारा आम जनता को यह जानने का अवसर मिलेगा की क्रांतिकारी क्या है ? और उनके विरुद्ध किये गये भ्रामक प्रचार से उत्पन्न होने वाली गलतफहमिया से उन्हें बचाया जा सके |

हिंसा या अंहिसा


पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर विचार करे | हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया हैं , और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है , क्योकि इन शब्दों से दोनों ही दलो के सिद्धांतो का स्पष्ट बोध नही हो पाता | हिंसा का अर्थ है अन्याय के लिए किया गया बल प्रयोग , परन्तु क्रान्तिकारियो का तो यह उद्देश्य नही है , दूसरी और अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है , वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धांत | उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है | अपने - आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अन्त में अपने विरोधी का ह्रदय परिवर्तन सम्भव हो सकेगा | एक क्रांतिकारी जब कुछ बातो को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी माँग करता है , अपनी उस माँग के पक्ष में दलीले देता है , समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है , उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है , इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल भी प्रयोग भी करता है | उसके इन प्रयत्नों को आप चाहे जिस नाम से पुकारे , परन्तु आप इन्हें हिंसा नाम से सम्बोधित नही कर सकते , क्योकी ऐसा करना कोष में दिए इस शब्द के अर्थ के साथ अन्याय होगा सत्याग्रह का अर्थ है सत्य के लिए आग्रह | उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों ? इसके साथ - साथ शारीरिक बल - प्रयोग भी क्यों न किया जाए ? क्रांतिकारी स्वतंत्रता - प्राप्ति के लिए अपना शारीरिक एवं नैतिक शक्ति दोनों बल - प्रयोग को निषिद्ध मानते है | इसीलिए अब सवाल यह नही है कि आप हिंसा चाहते है या अहिंसा , बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपने उद्देश्य - प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते है , या केवल आत्मिक बल का ? आदर्श क्रांतिकारियों का विशवास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतंत्रता मिलेगी | वे जिस क्रान्ति के लिए प्रयत्न शील है और जिस क्रान्ति का रूप उनके सामने स्पष्ट है उसका अर्थ केवल यही नही है कि विदेशी शासको तथा उसके पिट्ठुओ से क्रान्तिकारियो का केवल सशस्त्र संघर्ष हो , बल्कि इस सशत्र संघर्ष के साथ - साथ नई सामजिक व्यवस्था के द्वारा देश के लिए मुक्त हो जाये | क्रान्ति पूंजीवाद , वर्गवाद तथा कुछ लोगो को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी | यह राष्ट्र को अपने पैरो पर खडा करेगी उससे नये राष्ट्र और नए समाज का जन्म होगा | क्रान्ति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मजदूर तथा किसानो का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनितिक शक्ति को हथियाए बैठे है |

आतंकवाद

आज की तरुण पीढ़ी को जो मानसिक गुलामी तथा धार्मिक रुढ़िवादी बंधन पकडे है और उससे छुटकारा पाने के लिए तरुण समाज की जो बेचैनी है , क्रांतिकारी उसी में प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है | नवयुवक जैसे - जैसे मनोविज्ञान को आत्मसात करता जाएगा वैसे - वैसे राष्ट्र की गुलामी का चित्र उसके सामने स्पष्ट होता जाएगा तथा उसकी देश को स्वतंत्र करने की इच्छा प्रबल होती जायेगी | और उसका यह कर्म तब तक चलता रहेगा जब तक की युवक न्याय क्रोध और क्षोभ से ओरोत -प्रोत हो ये करने वालो की हत्या न प्रारम्भ कर देगा | इस प्रकार देश में आंतकवाद का जन्म होता है | आत्ब्क्वाद सम्पूर्ण क्रान्ति नही और क्रान्ति भी आतंकवाद के बिना पूर्ण नही | यह जो क्रान्ति का एक आवश्यक और अवश्यभावी अंग है | इस सिद्धांत का समर्थन इतिहास की किसी भी क्रान्ति का विश्लेष्ण कर जाना जा सकता है | आतंकवाद आततायी के मन में भय पैदा कर पीड़ित जनता में प्रतिशोध की भावना जागृत कर उसे शक्ति प्रदान करता है | अस्थिर भावना वाले लोग को इससे हिम्मत बढती है तथा उनमे आत्मविश्वास पैदा होता है | क्योकी ये किसी राष्ट्र की स्वतंत्रता की उत्कृष्ट महत्वाकाक्षा का विशवास दिलाने वाले प्रमाण है | जैसे दूसरे देशो में होता आया है , वैसे ही भारत में भी आतंकवाद क्रांति का रूप धारण कर लेगा और अन्त में क्रान्ति से ही देश को सामाजिक राजनितिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी |


क्रांतिकारी तौर तरीके
तो यह है क्रांतिकारी के सिद्धांत जिनमे वह विशवास करता है और जिन्हें देश के लिए प्राप्त करना चाहता है | इस तथ्य की प्राप्ति के लिए वह गुप्त तथा खुलेआम दोनों ही तरीको से प्रयत्न कर रहा है | इस प्रकार एक शताब्दी से संसार में जनता तथा शासक वर्ग में जो संघर्ष चला आ रहा है वही अनुभव उसके लक्ष्य पर पहुचने का मार्ग दर्शक है | क्रांतिकारी जिन तरीको में विशवास करता है वे कभी असफल नही हुए |

कांग्रेस और क्रांतिकारी

इस बीच कांग्रेस क्या कर रही थी ? उसने अपना ध्येय स्वराज्य से बदलकर पूर्ण स्वतंत्रता घोषित किया | इस घोषणा से कोई भी व्यक्ति यही निष्कर्ष निकालाएगा की कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा न कर क्रान्तिकारियो के विरुद्ध ही युद्ध की घोषणा कर दी है | इस सम्बन्ध में कनाग्रेस का पहला वार था उसका यह प्रस्ताव जिसमे 23 दिसम्बर 1929 को वायसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने के प्रयत्न की निंदा की गयी | इस प्रस्ताव का मसविदा गांधी जी ने तैयार किया था और उसको पारित कराने के लिए गांधी जी ने अपनी सारी शक्ति लगा दी | परिणाम यह हुआ की 1913 की सदस्य संख्या में वह केवल 31 मतो से पारित हो सका | क्या इस अत्यल्प बहुमत में भी राजनितिक ईमानदारीi थी ? इस सम्बन्ध में हम सरलादेवी चौधरानी का मत ही यहाँ उद्घृत करे | वे तो जीवन भर कांग्रेस की भक्त रही है | इस सम्बन्ध में प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा है -- मैंने महात्मा गांधी के अनुयायियों के साथ इस विषय में जी बातचीत की , उसमे मुझे मालूम हुआ कि वे इस सम्बन्ध में अपने स्वतंत्र विचार महात्मा जी के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा के कारण प्रगट न कर सके , तथा इस प्रस्ताव के विरुद्ध मत देने में असमर्थ रहे , जिसके प्रणेता महात्मा जी थे | जहाँ तक गाँधी जी की दलील का प्रश्न है , उस पर हम बाद में विचार करेंगे | उन्होंने जो दलीले दी है वे कुछ कम या अधिक इस सम्बन्ध में कांग्रेस में दिए गये भाषण का ही वृस्त्रित रूप है |

क्या जनता अंहिसा में विशवास करती है ?

इस दुखद प्रस्ताव में एक बात मार्के की है जिसे हम अनदेखी नही कर सकते वह यह है कि यह सर्वविदित है कि कांग्रेस अहिंसा का सिद्धान्त मानती है और पिछले दस वर्षो से वह उसके समर्थन में प्रचार करती रही है | यह सब होने पर भी प्रस्ताव के समर्थन में , भाषणों में गाली गलौज की गयी | उन्होंने क्रान्तिकारियो को बुजदिल कहा और उसके कार्यो को घृणित | उनमे से एक वक्ता ने धमकी देते हुए यहाँ तक कह डाला की यदि वे ( सदस्य ) गांधी जी का नेतृत्व चाहते है तो उन्हें इस प्रस्ताव को सर्वसम्मती से पारित करना चाहिए | इतना सब कुछ किये जाने पर भी यह प्रस्ताव बहुत थोड़े मतों से ही पारित हुआ यह बात निशंक प्रमाणित हो जाती है , कि देश की जनता पर्याप्त संख्या में क्रान्तिकारियो का समर्थन कर रही है | इस तरह से इसके लिए गांधी ही हमारे बधाई के पात्र है उन्होंने इस प्रश्न पर विवाद खड़ा किया और इस प्रकार संसार को दिखा दिया की कांग्रेस , जो अहिंसा का गढ़ माना जाता है , वह सम्पूर्ण नही तो एक हद तक तो कांग्रेस से अधिक क्रान्तिकारियो के साथ है | इस विषय में गांधी जी ने जो विजय प्राप्त की वह एक प्रकार की हार के बराबर थी और वे ''दिकल्ट आफ दी बम '' लेख द्वारा क्रान्तिकारियो पर दूसरा हमला कर बैठे है | इस सम्बन्ध में आगे कुछ कहने से पूर्व इस लेख पर हम अच्छी तरह विचार करेंगे | इस लेख में उन्होंने तीन बातो का उल्लेख्य किया है | उनका विशवास , उनके विचार और उनका मत | हम उनके विशवास के सम्बन्ध में विश्लेष्ण नही करेंगे , क्योकी विशवास में तर्क के लिए स्थान नही है | गांधी जी जिसे हिंसा कहते है और जिसके विरुद्ध उन्होंने जो तर्क संगत विचार प्रकट किये है ; हम उनका सिलसिलेवार विश्लेष्ण करे |प्रेम का सिद्धांत गाँधी जी सोचते है कि उनकी धारणा सही है कि अधिकतर भारतीय जनता को हिंसा की भावना छू तक नही गयी है और अहिंसा उनका राजनितिक शस्त्र बन गया है | हाल ही में उन्होंने देश का जो भ्रमण किया है , उस अनुभव के आधार पर उनकी यह धारणा बनी है , परन्तु उन्हें अपनी इस यात्रा के इस अनुभव में इस भ्रम में नही पड़ना चाहिए | यह बात सत्य है कि कांग्रेस नेता अपने दौरे वही तक सीमित रखता है जहाँ तक डाकगाड़ी उसे आराम तक पहुचा सकती है , जबकि गाँधी जी ने अपनी यात्रा का दायरा वहां तक बढा दिया है जहाँ तक की मोटरकार द्वारा वे जा सके | इस यात्रा में वे धनी व्यक्तियों के ही निवास स्थानों पर रुके | इस यात्रा का अधिकतर समय उनके भक्तो द्वारा आयोजित गोष्ठियों में की गयी उनकी प्रशंसा सभाओ में यदा - कदा अशिक्षित जनता को दिए जाने वाले दर्शनों में बीता , जिसके विषय में उनका दावा है कि वे उन्हें अच्छी तरह समझते है परन्तु यही बात इस दलील के विरुद्ध है कि वे आम जनता की विचारधारा को जानते | कोई व्यक्ति जन साधारण की विचारधारा को केवल मंचो से दर्शन और उपदेश देकर नही समझ सकता | वह तो केवल इतना ही दावा कर सकता है कि उसने विभिन्न विषयों पर अपने विचार जनता के सामने रखे | क्या गांधी जी ने इन वर्षो में आम जनता के सामाजिक जीवन में भी कभी प्रवेश करने का प्रयत्न किया ? क्या कभी उन्होंने किसी संध्या को गाँव के किसी चौपाल के अलाव के पास बैठकर किसी किसान के विचार जानने का प्रयत्न किया ? क्या किसी कारखाने के मजदुर के साथ एक भी शाम गुजारकर उसके विचार समझने की कोशिश की है ? पर हमने यह किया है और इसलिए हम दावा करते है कि हम आम जनता को जानते है | हम गांधी जी को विशवास दिलाते है कि साधारण भारतीय साधारण मानव के समान ही अंहिसा तथा अपने शत्रु से प्रेम करने की आध्यात्मिक भावना को बहुत कम समझता है | संसार का तो यही नियम है - तुम्हारा एक मित्र है , तुम उसे स्नेह करते हो कभी कभी तो इतना अधिक की तुम उसके लिए प्राण भी दे देते हो | तुम्हारा शत्रु है तुम उससे किसी प्रकार का सम्बन्ध नही रखते हो | क्रान्तिकारियो का यह सिद्धांत नितांत सत्य सरल सीधा है और यह ध्रुव सत्य आदम और हौवा के समय से चला आ रहा है तथा इसे समझने में कभी किसी को कठिनाई नही हुई | हम यह बात स्वंय के अनुभव के आधार पर कह रहे है | वह दिन दूर नही जब लोग क्रन्तिकारी विचारधारा को सक्रिय रूप देने के लिए हजारो की संख्या में जमा होंगे | गांधी जी घोषणा करते है कि अहिंसा के सामर्थ्य तथा अपने आपको पीड़ा देने की प्रणाली से उन्हें यह आशा है कि वे एक दिन विदेशी शासको का ह्रदय परिवर्तन कर अपनी विचारधारा का उन्हें अनुयायी बना लेंगे | अब उन्होंने अपने सामजिक जीवन की इस चमत्कार की 'प्रेम संहिता ' के प्रचार के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया है | वे अडिग विशवास के साथ उसका प्रचार कर रहे है , जैसा कि उनके कुछ अनुयाइयो ने भी किया है | परन्तु क्या वे बता सकते है कि भारत में कितने शत्रुओ का ह्रदय परिवर्तन कर उन्हें भारत का मित्र बनाने में समर्थ हुए है ? वे कितने ओडायरो , डायरो तथा रीडिंग और इरविन को भारत का मित्र बना सके है ? यदि किसी को भी नही तो भारत उनकी इस विचारधारा से कैसे सहमत हो सकता है कि वे इंग्लैण्ड को अंहिसा द्वारा समझा बुझाकर इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार कर लेंगे कि वह भारत को स्वतंत्रता दे दें | यदि वायसराय की गाडी के नीचे बमो का ठीक से विस्फोट हुआ होता तो दो में से एक बात अवश्य हुई होती या तो वायसराय अत्यधिक घायल हो जाते या उनकी मृत्यु हो गयी होती | ऐसी स्थिति में वायसराय तथा राजनितिक दलों के नेताओं के बीच मंत्रणा न हो पाती यह प्रयत्न रुक जाता और उससे राष्ट्र का भला होता | कलकत्ता कांग्रस की चुनौती के बादभी स्वशासन की भीख मागने के लिए वायसराय भवन के आस पास मडराने वालो के ये घृणास्पद प्रयत्न विफल हो जाते | यदि बमो का ठीक से विस्फोट हुआ होता तो भारत का एक शत्रु को उचित सजा दे पाता | 'मेरठ ' तथा लाहौर षड्यंत्र और ''भुसावल काण्ड'' का मुकदमा चलाने वाले केवल भारत के शत्रुओ का ही मित्र प्रतीत हो सकती है | साइमन कमिशन के सामूहिक विरोध से देश में जी इकाई स्थापित हो गयी थी , गांधी नेहरु की राजनितिक 'बुद्धिमत्ता ' के बाद ही इरविन उसे छिन्न भिन्न करने में समर्थ हो सका | आज कांग्रेस या उसके चाटुकारों के सिवा कौन जिम्मेदार हो सकता है | इस पर भी हमारे देश में ऐसे लोग है जो उसे भारत का मित्र कहते है |


सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - आभार प्रकाशक _लोक प्रकाशन गृह

Monday, March 26, 2018

इण्डिया विन्स फ्रीडम - 26-3-18

इण्डिया विन्स फ्रीडम

भारत विभाजन के गुनहगार -- डा राम मनोहर लोहिया
भारत की आजादी के साथ जुडी देश - विभाजन की कथा बड़ी व्यथा - भरी है | आजादी के सुनहरे भविष्य के लालच में देश की जनता ने देश -विभाजन का जहरीला घूंट दवा की तरह पी लिया , लेकिन प्रश्न आज तक अनुत्तरित ही बना हुआ है कि क्या भारत - विभाजन आवश्यक था ही ? इस सम्बन्ध में मौलाना अबुलकलाम आजाद ने अवश्य लिखा है और उन्होंने विभाजन की जिम्मेदारी तत्कालीन अन्य नेताओं पर लादी है | डा राम मनोहर लोहिया ने विभाजन के निर्णय के समय होने वाली सभी घटनाओं को प्रत्यक्ष देखा था और उन्होंने देश विभाजन के कारणों और उस समय के नेताओं के आचरण पर बड़ी निर्भीकता से विश्लेष्ण किया है |
इंडिया विन्स फ्रीडम -
विश्लेषण - डा लोहिया
मौलाना आजाद की किताब , थोडा - थोड़ा करके ही शै , पर मैंने पूरी पढ़ी है | उसके परिक्षण के समय , | जिससे बड़े पैमाने पर लाभ ही हो सकता है |
एक खूब स्थायी प्रभाव जो पुस्तक ने मुझ पर छोड़ा है , वह है समुदायों और राष्ट्रों के आचरण के सम्बन्ध में | समुदाय और राष्ट्र अक्सर अपनी ही वास्तविकता और व्यापक हितो को समझ पाने में असमर्थ रहते है और सहज रूप में वे सम्वेदनशील तथा अल्प फलदायक नतीजो के पीछे बह जाते है | मौलाना आजाद ने कही भी स्पष्ट रूप से इसकी चर्चा नही की है | जब वे बोल कर किताब लिखवा रहे थे , तब वे इसके प्रति सतर्क न रहे होंगे | लेकिन इस बात में कोई शंका नही कि मौलाना आजाद एक बढ़िया मुसलमान थे और मिस्टर जिन्ना इतने बढ़िया मुसलमान न थे फिर भी भारत के मुसलमानों ने ऐसे व्यक्ति की अगुवाई के लिए चुना जो उनके हितो को अच्छी तरह साध न सका | गोयाकि उस समय एक और मुसलमान था जो इन दोनों से महान था , लेकिन वह जन्म व विशवास से मुसलमान न था न कि राजनीति में | मौलाना आजाद ने उसकी चर्चा लगभग नीचता पूर्वक की है और यह कोई आश्चर्य की बात नही | मौलाना आजाद को मिस्टर जिन्ना से बढ़िया मुसलमान कहने में , मेरा तात्पर्य उनकी धार्मिकता से तनिक भी नही है , न इससे की इस्लाम के सिद्धांतो को किस सीमा तक उन्होंने समझा है या अपने जीवन में - आचरण में उनको उतरा है | मेरा सम्बन्ध केवल इसी हद तक है जहां तक उन्होंने भारत के मुसलमानों का हित - साधन किया है | दोनों ने बाहर से बहुत मुखर होकर , खुलकर और शायद आंतरिक लालसा से भी समस्त भारतीय जन के हितो से अलग हटकर मुस्लिम हितो को समझने का प्रयत्न किया | मौलाना मुस्लिम हितो के मिस्टर जिन्ना से अधिक अच्छे सेवक थे | लेकिन मुसलमानों ने उनकी सेवा को ठुकरा दिया | यह बात मुझे तब कौधि जब मैंने अंतिम समय से पहले वाले ब्रिटिश प्रस्ताव पर मौलाना आजाद के वक्तव्य को दूसरी बार पढ़ा और जो पुस्तक में अन्यत्र उद्घृत है | तब ब्रिटेन ने एक विधान प्रस्तावित किया था जिसमे प्रान्तों को अधिकतम स्वायत शासन स्वीकृत था | असल में , तब भारत की केन्द्रीय सरकार के पास केवल प्रतिरक्षा , विदेश निति और यातायात तथा ऐसे ही अधिकार जो प्रांत उसे सौपना पसंद करते , के अलावा और कुछ न रहता | फिर प्रान्तों को विभिन्न श्रेणियों में पुनर्गठित किया जाता जैसे उत्तर - पूर्वी या उत्तर - पश्चिमी | श्री आजाद स्वंय भी ब्रिटिश वायसराय के साथ इस प्रस्ताव का जनक होने का दावा करते है | अन्ततोगत्वा प्रस्ताव ठुकरा दिया गया था | इस पर श्री आजाद का वत्क्तव्य और अभिव्यक्ति दोनों की स्पष्टता का आदर्श नमूना है | वह दृढ़ता पूर्वक कहते है कि भारत में विभाजन की योजना मुस्लिम हितो के लिए हानिकारक होगी | जिन प्रान्तों में मुसलमानों का बहुमत है वहाँ उन्हें इससे कुछ ठोस न मिल सकेगा , मुकाबले उसके जो अधिकतम प्रांतीय स्वायत्त शासन के विधान के अंतर्गत उन्हें मिल सकेगा | इससे भारत के बड़े भाग के मुस्लमानो से बहुत कुछ छीन जाएगा और वहाँ वे प्रभावपूर्ण आवाज के बिना ही रह जायेंगे | बाद की घटनाओं ने उनकी बात को सत्य साबित किया है | भारत के विभाजन ने यदि अधिक नही तो मुसलमानों का उतना ही अहित किया है जितना हिन्दुओ का | यद्दपि मौलाना आजाद का वक्तव्य कुछ अधिक तर्कपूर्ण , कुछ अधिक स्पष्ट है जो सम्भवत ऐसे आदमियों की पहचान है जो दुसरे रूपों में तो प्रतिभा सम्पन्न होते है पर इतने बड़े नही होते की घटनाओं को मोड़ दे सके | अधिकतम प्रांतीय स्वायत्त का यह प्रस्ताव निश्चित रूप से मुसलमानों के हितो की रक्षा आश्चर्यजनक सीमा तक करता | सम्भवत इससे उनके अंहकार या महानता की लालसा को भी संतोष न मिलता , जो दो ऐसे आवेग है जिनमे परस्पर एक दुसरे से भेद कर पाना कठिन है | इसके परिणाम स्वरूप हिन्दुओ और मुसलमानों के बीच काफी संघर्ष भी हो सकता था और दोनों में किसी एक की स्थित नैराश्य की भी हो सकती थी यद्दपि आवश्यक नही कि वह इतनी अधिक होती की जिस पर विजय पाना असम्भव होता | अपने वक्तव्य में श्री आजाद न तो मनुष्य की निर्बलता के प्रति सतर्क है और न स्थिति की वास्तविकता के ही ! वे विलक्ष्ण रूप से मुस्लिम हित की सुरक्षा की अपनी कामना के प्रति विवेकशील है | भारत के मुसलमान अपने इस विवेकशील नेता का अनुसरण करके अपने हितो के लिए अच्छा करते , किन्तु न कर सके , यही तो मानव का अभिशाप है | मनुष्य सदा ही सारहीन महानता के पीछे दौड़ता है जो उसे छलती है वह लगातार स्वंय निर्मित झूठे भय से व्याकुल रहता है | काल्पनिक भय और सारहीन महानता की चक्की के इन दो पाटो के बीच वह पीस कर दुर्घटना का शिकार होता है जो प्राय शानदार नही होती | भारत का विभाजन एक जघन्य दुर्घटना थी | यद्दपि परिणाम भयानक था और अनेक महान दुर्घटनाओ की अपेक्षा अधिक ही प्राणियों को इसमें नष्ट होना पडा | यदि भारत का मुस्लिम अपने स्वार्थ - हित को समझने में असमर्थ था तो हिन्दू समुदाय या समस्त भारतीय जन की बात ही क्या ? इसमें कोई शक नही कि हिन्दुओ में भी विवेक की उतनी ही कमी थी और इसलिए समस्त जनता में भी | बहुत बड़ी तादात में लोगो में यह तो आज भी कम है | यह एक साधारण भ्रान्ति फैली है कि यदि एक योजना द्वारा मुस्लिम हितो की रक्षा हो जाती है तो स्वाभाविक रूप से वह हिन्दुओ और दुसरे हितो को आघात पहुचायेगी | जनता के बीच बने विभिन्न समुदाय बहुधा इस भ्रान्ति के शिकार होते है | वे सिद्धांत रूप में मानते है कि एक समुदाय के हित दुसरो के विपरीत होते है | अवश्य ही यह कुछ स्थलों पर सत्य भी हो सकता है ? पर दुसरो के लिए आंशिक सत्य और पूर्णत: असत्य | देश के विभाजन के पूर्व वास्तव में हिन्दू या मुस्लिम हित क्या था , और आज तक क्या है ? घनिष्ठ जांच के लिए की हिन्दू या मुसलमान हित जैसा तब था या जैसा आज है , संसदीय सरकारी या व्यापारी हितो के क्षेत्र से और साधारण आर्थिक एवं सामूहिकता के कुछ उदाहरण कोई भी चुन सकता है निसंदेह किसी एक गणतंत्र राज्य के दो राष्ट्रपति नही हो सकते , न एक चुनाव क्षेत्र के दो संसद सदस्य इस झगड़े के हल के लिए रास्ता खोजने के निश्चय ही दुनिया के कुछ राष्ट्रों में प्रयत्न किये गये है | उनका सविधान जिम्मा लेता है , जैसे राष्ट्रपति का पद एक समुदाय का और प्रधानमन्त्री का पद दुसरे समुदाय का , लेकिन ऐसा हल एक या दुसरे समुदाय को असंतुष्ट रखेगा और एक दुसरे के अधिकार प्रभावकारी होने से एक या दुसरे के मन में जलन भी पैदा हो सकती है | कोई भी निर्भीकता से कह सकता है की श्री आजाद के सुझाव से कम से कम शुरू की स्थिति में हिन्दुओ के इस सीमित और संसदीय हित को नुक्सान पहुच सकता है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Sunday, March 25, 2018

भारत विभाजन के गुनहगार -- भाग दो - डा राम मनोहर लोहिया

भारत विभाजन के गुनहगार -- भाग दो - डा राम मनोहर लोहिया

जमातो और सामाजिक गुटों के अंतर्गत राजनितिक , आर्थिक और सामाजिक कारणों का मूल स्रोत कही और से आता है , धार्मिक प्रतिको व कल्पनाओं से | निश्चित रूप से ऐसे सामजिक सुधार सामूहिक भोजो या अंतरजातीय विवाहों द्वारा होने चाहिए और आर्थिक सुधार सर्व - रोजगार या राष्ट्रीयकरण या समानता द्वारा राजनितिक सुधार पिछड़ी जातियों व जमातो के निश्चित प्रतिनिधित्व द्वारा | इन सुधारों के बिना पृथकवादी भावना की समस्या का अंत न होगा , बल्कि यह समस्या किसी न किसी रूप में बनी रहेगी | धर्म तथा इतिहास के तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक गौर करना होगा | यही वे तथ्य है जो आदमी के दिमाग व मन को सत्ता बनाते है | धर्म के पैगम्बरों और ईश्वरो में पूर्ण समानता तब तक नही लाई जा सकती जब तक नास्तिकवाद और धार्मिक अराधना को न तोड़ा जाए | जो भी प्राप्त होगा वह समानता के निकट होगा | विभिन्न धार्मिक ज्ञान के लिए पर्याप्त शिक्षा और मानसिक स्तर को बढाने के बाद ही राम और मोहम्मद को एक जैसी उंचाई पर रखना सम्भव होगा | इसके लिए एक दुसरे के विश्वासों के प्रति आदरभाव और समझदारी पैदा करना होगा | इस जागरण के लिए ऐतिहासिक और धार्मिक ज्ञान आवश्यक तथा सर्वश्रेष्ठ साधन है | जो शक्ति पृथकता में महत्वपूर्ण है वह है इतिहास के प्रति ख़ास दृष्टि | गुट और जमात का निर्माण मूलरूप से इस कारण होता है कि वे घटनाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण रखते है | भारत के हिन्दू व मुसलमान एक ही इतिहास के प्रति भिन्न - भिन्न दृष्टिकोण रखते है | ऐसे हिन्दू विरले ही है जो एक मुसलमान शासक या इतिहास पुरुष को अपने पुरखे के रूप में स्वीकार करे | उसी तरह ऐसा मुसलमान भी विरला ही होगा जो किसी हिन्दू इतिहास - पुरुष को अपना पुरखा माने , इतिहास के ऐसे शोधकर्ता की भी कमी नही है जिन्होंने सभी मुस्लिम शासको और आक्रमणकारियों की सूचि एक साथ इतिहास के एक पन्ने पर लिख दी है |
 शायद आज या जब भारत का बटवारा हुआ था , तब हिन्दू - मुस्लिम जैसी कोई समस्या न होती यदि हिन्दू और मुसलमान एक साथ इतिहास की एक जैसी व्याख्या करने में समर्थ होते और शान्ति से रहना सीखे होते | ब्रिटिश राज ने ऐसा कुछ नही किया जो पहले न रहा हो | एक ही इतिहास के प्रति हिन्दू और मुसलमान - दृष्टिकोण भिन्न रहे है , अतीत में भी आज भी और उनके स्वरूप तथा चरित्र में पृथकता का यही मुख्य कारण रहा है | भारत के मुसलमान अपनी उत्पत्ति गजनवी और गोरी जैसे लुटेरो से समझते है | ऐसी गलती समझ के भीतर एक झूठी आत्म संतुष्टि का तत्व होता है , वही इतिहास के तत्व - ज्ञान द्वारा और भी पुष्टि पा जाता है जब हर बार आक्रमण को प्रगति का बढ़ा हुआ कदम समझा जाता है | निश्चित रूप से समाज में ठहराव या घोर पतन हो रहा होगा जब कोई आक्रमण हुआ होगा | उसी तरह निश्चय ही हर नई शक्ति में चाहे वह किसी आक्रमणकारी द्वारा लाई गयी हो , बुराई के साथ मिली कोई अच्छाई रही होगी | किसी भी आक्रमण के नतीजे की जाँच , कमजोरी पर शक्ति की विजय के साथ अच्छाई व बुराई के बीच पैदा हुई हलचल और नयेपन से की जानी चाहिए | कोई भी राष्ट्र जो इस दृष्टि के भिन्न किसी अन्य दृष्टि से इतिहास का अध्ययन करता है वह सतत आक्रमणों का शिकार होता है और इस रूप में भारत विश्व में सबसे उपर है |
मुसलमानों ने चूँकि गजनवी और गोरी को अपना पूर्वज माना है वे स्वंय अपनी आजादी और अपने राज्य की रक्षा करने में असमर्थ रहे है | भारत का मध्यकालीन इतिहास जितना हिन्दू और मुसलमानों के युद्ध का इतिहास रहा है , उतना ही वह मुसलमान और मुसलमान के युद्ध का भी है | आक्रमणकारियों ,मुसलमान , देशी मुसलमान से लड़ा और उन पर विजयी हुआ | पाँच बार देशी मुसलमान अपनी आजादी की रक्षा करने में असमर्थ रहे | वे लोग नादिरशाह और तैमुर जैसो द्वारा कत्लेआम के शिकार हुए | मुग़ल तैमुर ने देशी पठानों को क़त्ल किया और ईरानी नादिरशाह ने देशी मुगलों को कत्ल किया | ऐसी कौम जो आक्रमणकारियों और कत्ल करने वालो को अपना पूर्वज माने वह स्वतंत्रता की अधिकारी नही और उसका आत्मगौरव झूठा है क्योकि उनकी धारावाहिक एक रूपता नही रही न उन्होंने उसे बना कर रखा ही | आक्रमणकारी जो समय के फैलाव के साथ देशवासी बन जाते है , वे राष्ट्र का एक अंग बन जाते है और इस सत्य को मान्यता मिलनी चाहिए | एक की माँ के प्रति किये गये बलात्कार को न मानना एक चीज है और उसके परिणाम को स्वीकार करने से इन्कार करना दूसरी चीज , मुसलमानों ने बलात्कार और उसके नतीजे दोनों को मानने की भूल की है और हिन्दुओ ने किसी को न मानने की भूल की है | हिन्दू अपनी माँ की रक्षा करने में असमर्थ रहा और उसने अपनी दुर्बलता पर आये अपने क्रोध को अपने सौतेले भाई पर लादने का आसन रास्ता खोज निकला | फिर कालान्तर में वही सौतेला भाई देशवासी बन जाता है और भविष्य में इसी रोग का शिकार बनता है | मानसिक रूप से वह इतना अधम हो जाता है कि अपनी दुर्बलता को पराक्रम समझने की गलती कर बैठता है इतिहास के अध्ययन का एक और ढंग है , जो वस्तु स्थित को अधिक स्पष्ट करता है | वह रजिया , शेरशाह , जायसी और रहीम के साथ विक्रमादित्य , अशोक , हेमू और प्रताप को मुसलमान व हिन्दू समान रूप से पूर्वज बताता है | इसी तरह हिन्दू और मुसलमान समान रूप से गजनवी , गौरी और बाबर को लुटेरे और अत्याचारी आक्रमणकारी के रूप में पहचानेगे और पृथ्वीराज , सांगा और भाऊ को भारत की भूल व दुर्बलता के प्रतीक के रूप में देखेंगे | मैंने जानबूझकर ऐसे लोगो का नाम चुने है जो व्यक्तिगत रूप से बहादुर थे पर सामूहिक रूप से निर्बुद्धि , जिनके कारण देश में हार और समर्पण की लम्बी परम्परा कायम हुई | व्यक्तिगत रूप में कायर लोग देश की आजादी के लिए इतने खतरनाक नही होते जितने ऐसे बहादुर और मुर्ख योद्धाओं में मैं भामा शाह जैसे लोगो के नाम लूंगा और लुटेरो तथा अत्याचारियों में अमीरचंद जैसो का | इतिहास के वास्तविक अध्ययन से सांगा एक बहुत छोटे और मनबुद्धि दरबारियों के नायक के रूप में दिखेगा जिनके कमजोर हाथो में देश की स्वतंत्रता की रक्षा का भार था और प्रताप ने बुझते अंगारों से आजादी की मशाल जलाने का प्रयत्न किया था | मानसिंह और अकबर ऐसे क्षेत्र के थे जहाँ आजादी और गुलामी का मिलन होता है , जहां एक आक्रामक देशवासी बनने का प्रयत्न करता है और जिसकी धूर्तता को महानता कहा जाता है |अकबर और जहाँगीर के अलावा लगभग सभी मुगलों के समय पृथकवाद पनपा जब कि पठान हिन्दुओ के अधिक निकट आये | हिंदी काव्य क्षेत्र में जायसी और रहीम किसी भी हिन्दू से अधिक चमकदार नक्षत्र थे | वास्तव में रहिमन ऐसा नाम है जो इस्लाम के भारतीयकरण का प्रतीक है | यह रुसी मुसलमानों जैसा नाम है जिनका नाम ''ओव '' या ''इन'' जोड़ कर परम्परागत रूप में बदला गया अथवा इंडोनेशिया मुसलमान जिनका हिन्दू नाम धर्म परिवर्तन के बाद भी बना ही रहा | मैं नही कह सकता कि अपने व्यक्तिगत परिवेश में जोधाबाई कहाँ तक राष्ट्रीय समीपता की प्रतीक बन सके | मुझे 1857 के लगभग हुई एक कवित्री ''ताजू'' का नाम सुनाई पडा है जो जन्म से मुसलमान और पेशे से रंगरेज थी , जिसकी कृष्ण भक्ति की कविताएं मीरा के भक्ति - गीतों के जोड़ की थी | इससे लगता है कि यह जैसे इतिहास का नियम हो कि समीपता के काम छोटी जाति व अर्द्धशिक्षित लोगो ने ही किये है और पृथकता का काम शासको तथा अधिक शिक्षित उच्च जाति के लोगो ने |अक्सर मैंने हिन्दू चोटी और मुस्लिम दाढ़ी हटाने तथा धार्मिक प्रतीक वाले कपड़ो , नाम और रहन - सहन से दूर हटने की बात कही है , क्योकि इसे मैं समीपता लाने का प्रथम प्रयास मानता रहा हूँ | प्रथम प्रयास के रूप में भी यह काम लगभग असम्भव है , जब तक मानसिक बदलाव का भी प्रयत्न न किया जाए | किसी व्यक्ति का बाहरी स्वरूप उसके आंतरिक चरित्र की प्रतिछवि है | विचार आदत और आत्मगौरव के आधार का प्रतिबिम्ब उसका बाह्य रूप ही है | यदि इतिहास को अधिक ईमानदारी और समझदारी से पढ़ा गया होता या धार्मिक पैगम्बरों को अच्छी तरह समझा गया होता तो इसके चमत्कारी परिणाम होते और हिन्दू - मुसलमान अपने बाह्य रूपों में इतने एक होते कि अलग अलग पहचाने तक न जाते , साथ ही उनके दिमाग भी बहुत मिले होते |दिमाग की बनावट से ही शान्ति और एकता तथा इतिहास और धर्म के प्रति सही समझदारी , साथ ही झगड़े भी जन्म लेते है | ऐसी शान्ति तथा एकता की दिमागी बनावट में मस्जिद के सामने बाजे और गोहत्या जैसे प्रश्न अपने आप सुलझ जाते |निश्चय ही मैं समझता हूँ आशा करता हूँ दुनिया लम्बे अरसे तक अनिश्चित काल तक दुराचारी नही बनी रहेगी | भारत केभीतर हिन्दू व मुसलमान के बीच शारीरिक व सांस्कृतिक एकता होगी और इसके सद्प्रिनाम स्वरूप अथवा साथ ही साथ पाकिस्तान और भारत मिलकर हिन्दुस्तान बनेगा , यही कामना है और प्रार्थना है और सम्भावना भी _ राम मनोहर लोहिया
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Saturday, March 24, 2018

भारत विभाजन के गुनहगार -- डा लोहिया 24-3-18

जन्मदिन पर विशेष --

भारत विभाजन के गुनहगार - डा राम मनोहर लोहिया ----- भाग एक


मौलाना आजाद कृत 'इंडिया विन्स फ्रीडम ' के परीक्षण की जो बात मेरे मन में उठी , उसे जब मैंने लिखना शुरू किया तो वह देश के विभाजन का एक नया वृत्तांत बन गया | यह वृत्तांत हो सकता है वाह्य रूप में , संगतवार व कालक्रमवार न हो , जैसा कि दूसरे लोग इसे चाहते , लेकिन कदाचित यह अधिक सजीव व वस्तुनिष्ट बन पड़ा है | इसको लिखते वक्त इसमें स्पष्ट हुए दो लक्ष्यों के प्रति मैं सतर्क हुआ | एक , गलतियों और झूठे तथ्यों को जड़ से धोना और कुछ विशेष घटनाओं और सत्य के कुछ पहलुओ को उजागर करना और दूसरा उन मूल कारणों को रेखांकित करना जिनके कारण विभाजन हुआ | इन कारणों में मैंने आठ मुख्य - कारण गिनाये है | एक - ब्रितानी कपट ,दो- , कांग्रेस नेतृत्व का उतारवय तीन -, हिन्दू - मुस्लिम दंगो की प्रत्यक्ष परिस्थिति चार - जनता में दृढ़ता और सामर्थ्य का अभाव , पांच - , गांधी जी की अहिंसा छ : - मुस्लिम लीग की फूटनीति , सात - आये हुए अवसरों से लाभ उठा सकने की असमर्थता और आठ - , हिन्दू अंहकार |
श्री राजगोपालाचारी अथवा कम्यूनिस्टो की विभाजन समर्थक नीति और विभाजन के विरोध के कट्टर हिंदूवादी या दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नीति को विशेष महत्व देने की आवश्यकता नही | ये सभी मौलिक महत्व के नही थे | ये सभी गंभीर शक्तियों के निर्थक और महत्वहीन अभिव्यक्ति के प्रतीक थे | उदाहरण विभाजन के लिए कट्टर हिन्दुवाद का विरोध असल में अर्थहीन था , क्योकि देश को विभाजित करने वाली प्रमुख शक्तियों में निश्चित रूप से कट्टर हिन्दुवाद भी एक शक्ति थी | यह उसी तरह थी जैसे हत्यारा , हत्या करने के बाद अपने गुनाह मानने से भागे |
इस सम्बन्ध में कोई भूल या गलती न हो | अखण्ड भारत के लिए सबसे अधिक व उच्च स्वर में नारा लगाने वाले , वर्तमान जनसंघ और उसके पूर्व पक्षपाती जो हिन्दुवाद की भावना के अहिंदू तत्व के थे , उन्होंने ब्रिटिश और मुस्लिम लीग की देश के विभाजन में सहायता की , यदि उनकी नियत को नही बल्कि उनके कामो के नतीजो को देखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा | एक राष्ट्र के अंतर्गत मुसलमानों को हिन्दुओ के नजदीक लाने के सम्बन्ध में उन्होंने कुछ नही किया | उन्हें एक दूसरे से पृथक रखने के लिए लगभग सब कुछ किया | ऐसी पृथकता ही विभाजन का मूल - कारण है | पृथकता की नीति को अंगीकार करना साथ ही अखण्ड भारत की भी कल्पना करना अपने आप में घोर आत्मवंचना है , यदि हम यह भी मन ले कि ऐसा करने वाले ईमानदार लोग है | उनके कृत्यों को युद्ध के सन्दर्भ में अर्थ और अभिप्राय माना जाएगा जब कि वे उन्हें दबाने की शक्ति रखते है जिन्हें पृथक करते है | ऐसा युद्ध असम्भव है , कम से कम हमारी शताब्दी के लिए और यदि कभी यह सम्भव भी हुआ तो इसका कारण घोषणा न होगी | युद्ध के बिना , अखंड भारत और हिन्दू मुसलमान पृथकता की दो कल्पनाओं का एकीकरण विभाजन की नीति को समर्थन और पाकिस्तान को संकट कालीन सहायता देने जैसा है | भारत के मुसलमानों के विरोधी पकिस्तान के मित्र है | जनसंघी और हिन्दू नीति के सभी अखण्ड भारतवादी वस्तुत पाकिस्तान के सहायक है | मैं एक असली अखंड भारतीय हूँ | मुझे विभाजन मान्य नही है | विभाजन की सीमा रेखा के दोनों और ऐसे लाखो लोग होंगे , लेकिन उन्हें केवल हिन्दू या केवल मुसलमान रहने से अपने को मुक्त करना होगा , तभी अखण्ड भारत की आकाक्षा के प्रति वे सच्चे रह सकेंगे | दक्षिण राष्ट्रवादिता की दो धाराए है , एक धारा ने विभाजन के विचार को समर्थन दिया , जबकि दूसरी ने इसका विरोध किया | जब ये घटनाए घटी तब उनकी नाराज व खुश करने की शक्ति कम न थी , लेकिन वे घटनाए फलहीन थी | महत्वहीन | दक्षिण राष्ट्रवादिता केवल शाब्दिक या शब्दहीन विरोध कर सकती थी , इसमें सक्रिय विरोध करने की ताकत न थी | अत: इसका विरोध समर्पण अथवा राष्ट्रवादी विचार जिसने विभाजन में मदद की , उसने थोड़ी भिन्न भूमिका भी अदा की , इस सत्य के वावजूद कि इसके भाषणों में असली राष्ट्रवादी बुरी तरह उब चुके थे | इस भाषण बाजी में प्रभाव की शक्ति न थी | दोष उसमे इसी का न था भारतीय जनता व भारतीय राष्ट्रवाद की पलायन वृत्ति , पंगुत्व , भग्नता और आत्मशक्ति की कमी का भी दोष था | दक्षिण राष्ट्रवादिता ने विभाजन का समर्थन और विरोध दोनों किया , यह उनके मूल - वृक्ष की निष्पर्ण शाखाए थी | मुझे कभी - कभी आश्चर्य होता है कि क्या देशद्रोही लोग भी कभी इतिहास बनाने में कोई मौलिक भूमिका अदा करते है | ऐसे लोग
तिरस्करणीय होते है , इसमें कोई संशय नही , लेकिन वे क्या महत्वपूर्ण लोग हैं , मुझमे इसमें शक है | ऐसे देशद्रोहियों के काम अर्थहीन होंगे , यदि उन्हें पूरे समाज के गुप्त विश्वासघात का सहयोग न मिले|- तर्क के रूप में | मैं तो कम्युनिस्ट - विश्वासघात के इस कपटी पहलू को क्षणिक मानता हूँ जिसका लोगो पर कोई प्रभाव नही है लेकिन दूसरे देशद्रोही ऐसे भाग्यशाली नही है | अच्छा तो यह होगा की कम्यूनिस्टो की अन्दुरुनी जांच कर के पता लगाया जाए कि जब उन्होंने विभाजन का समर्थन किया तब उसके मन में क्या था | सम्भवत भारतीय कम्यूनिस्टो ने विभाजन का समर्थन इस आशा से किया था की नवजात राज्य पकिस्तान पर उनका प्रभाव रहेगा , भारतीय मुसलमानों में असर रहेगा और हिन्दू मन दुर्बलता के कारण उनसे मन फटने का की भारी खतरा न होगा , लेकिन उनकी योजना गलत सिद्ध हुई सिवा थोड़े क्षेत्र को छोड़कर जहाँ की उन्होंने भारतीय मुसलमानों में कुछ छिटपुट प्रभाव स्थल बनाये और हिन्दुओ में अपने लिए क्रोध न उबरने दिया | इस तरह उन्होंने अपने साथ अधिक धूर्तता नही की और साथ ही देश के लिए भी कोई लाभदायक काम नही किया | अपने स्वभाव से कम्यूनिस्टो दावपेंच का स्वरूप ऐसा है कि यह तभी जनता में शक्ति ला सकता है जब उनकी सफलता हो अन्यत्र लाजिमी तौर पर यदि सफलता न मिले तो जनता को कमजोर करने में ही वे सहयाक होते है | राष्ट्रीयता में आत्मविश्वास रूस के लिए निर्थक है , इसका प्रचार - महत्व तो जारकालीन रूस में ही समाप्त हो गया था | साम्यवाद तो पृथकवाद है जब यह शक्तिहीन रहता है अपने शत्रु को कमजोर करने के लिए सशक्त राष्ट्रीयता का सहारा लेता रहता है जब यह राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है तब वह पृथकवादी नही रहता साम्यवाद कोरिया और वियतनाम में एकतावादी है और जर्मनी में पृथकवादी अधिकतर लोग प्रत्यक्ष उदाहरण देखते है अनुमान पर राय नही बनाते | जब साम्यवाद के एकतावादी शक्तिदायक उदाहरण दिखाने की आवश्यकता होती है तब सोवियत रूस और वियतनाम के उदाहरण रखे जाते है और जब स्वतंत्रता की भावना का उदाहरण रखना होता है तब भारत और जर्मनी का उदाहरण रखा जाता है | इस बात का पेंच कही और है | साम्यवाद के लिए कामगार राज्य के सिद्धांत के अलावा कोई अन्य सिद्धांत माने नही रखता , ऐसा सिद्धांत लाजिमी तौर पर किसी भी राष्ट्र को कमजोर करता है कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर | इसी सिद्धांत ने भारतीय राष्ट्र को सदैव कमजोर बनाया है | लेकिन आशामय भविष्य की आशा में इनके अनुचर इस तथ्य के प्रति अंधे बने रहे , साथ ही भारतीय जनता भी अंधी बनी रही हैं , जिसका कारण साम्यवादी कपट नही , बल्कि राष्ट्रवादी या लोकसत्तवादी शक्तियों की मूल भूत कमजोरी रही है | मैं नही समझता कि जो कराण मैंने गिनाये है इनके अलावा भी देश विभाजन के अन्य कोई मौलिक कारण रहे है | हिन्दू - मुस्लिम प्रश्न को लेकर देश की जिस परिस्थिति का निर्माण हुआ है उससे दो महत्व के तथ्य सामने आये है | हिन्दू - मुस्लिम रिश्तो के पिछले आठ सौ वर्षो में हिन्दू और मुसलमान दोनों लगातार पृथक भाव और समीपता के लुका - छिपी खेल के शिकार हो रहे है जिससे एक राष्ट्र के प्रति उनकी भावनात्मक एकाग्रता खंडित रही है , साथ ही भारतीय जन का यह स्वभाव भी परिस्थिति के साथ घुलने - मिलने और सहनशीलता तथा समर्पण की कला को इस हद तक सीख गया है कि दुनिया में कहीं भी परतंत्रता को विश्व - भाईचारे या राजनीतिक कपट का इस प्रकार पर्याय नही माना गया | मूलरूप से इन्ही दो तथ्यों द्वारा हिन्दू - मुस्लिम समस्या को प्रेरित किया गया है | इनके बिना , ब्रिटिश कुटिल नीति अथवा कांग्रेस नेतृत्व के उतारवय का कारण इतिहास की दृष्टि से महत्वहीन होता और उसका जो कडुवा फल मिला वह कदापि नही मिलता | स्वतंत्र भारत में भी हिन्दू - मुसलमानों में पृथक - भावना बनी रही है | मुझे शक है कि विभाजन - पूर्व के मुकाबले आज यह पृथक - भाव अधिक है | पृथक - भावना ने ही विभाजन को जन्म दिया और इसलिए अपने आप यह भावना पूरी तरह नही मिट सके | परिणाम में ही कारण भी घुल मिल गया | आजादी के इन वर्षो में मुसलमानों को हिन्दुओ के निकट लाने का कोई न कोई प्रयत्न किया गया न उनकी आत्मा से पृथकता का बीज समाप्त करने का ही प्रयत्न किया गया | कांग्रेसी सरकार के अक्षम्य अपराधो में विशेष उल्लेखनीय अपराध यही है -- पृथक - भावना वाली आत्माओं को निकट लाने में असफलता - बल्कि इस काम के प्रति बेमन से किया गया असफल प्रयास | इस अपराध के पीछे भावना रही - वोट - प्राप्ति की इच्छा और बहुरंगी समाज ( कास्मोपालिटन ) का तत्वज्ञान | देश के लगभग सभी राजनितिक तत्व विशेषकर वे जो धर्म - निरपेक्ष का दंभ भरते है , इसके शिकार रहे | वोट प्राप्ति का यह धंधा दीर्घकाल तक चल सकता है | जो भी इस दिशा में सफलता के लालची है वे पतन की प्रतियोगिता से बच नही सकते | एक समय के बाद सुबुद्धि आ सकती है , लेकिन अभी न तो वह समय आया है न वह सुमार्ग ही स्पष्ट है | अभी तक धर्म निरपेक्ष पार्टियों ने भी हिन्दू व मुसलमान का अलग - अलग आव्हान करने की हिम्मत नही दिखाई जो उन्हें कुविचारो व बुरी आदतों से मुक्त कर सके | ऐसी स्वार्थी लालच के लिए बहुरंगी समाज - ज्ञान सहारा बनता है | ऐसे लोग समस्या के अलग समाधान व प्रयत्न की कभी आवश्यकता नही समझे | उन्होंने समझ रखा है कि औद्योगीकरण और आधुनिक अर्थ - नीति , हिन्दू - मुस्लिम पृथक भावना को समाप्त कर देगी , यह मूर्खतापूर्ण विश्वास उद्योगीकरण और वोट - प्राप्ति की लालच का मिला जुला परिणाम है जिसने विभाजन व आजादी के इतने वर्षो के बाद यह स्थिति बनाई है कि तथाकथित राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक पार्टिया भी मुस्लिम लीग से गठबंधन कर बैठी और समस्त देश में मुस्लिम लीगी तथा पृथकवादी रोग से मुक्त होकर फिर रोगी होने की दशा बन गयी है | देश विभाजन के बारह वर्ष बाद भी कांग्रेसवाद और प्रजा - समाजवाद ने फिर एक दुसरे पृथक वादी दुष्करम को अंगीकार करने की विवशता का अनुभव किया |
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

साभार भारत विभाजन के गुनहगार - लेख डा राम मनोहर लोहिया
अनुवादक --- ओंकार शरद

Monday, March 19, 2018

स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिम भागीदारी - भाग छ:

स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिम भागीदारी - भाग सात

अंग्रेजो ने राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन को कमजोर करने के लिए फूट डालने का खेल खेला -
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के तुरंत बाद भारतीय मामलो के तत्कालीन मंत्री लार्ड वुड ने लन्दन में बैठकर भारत में अंग्रेजी शासन के प्रमुख लार्ड एलगिन को लिखे पत्र में स्वीकार किया -- '' हमने एक पक्ष को दूसरे पक्ष के खिलाफ खडा करके भारत में अपनी सत्ता को बनाये रखा है और हमे ऐसा करते रहना चाहिए | लिहाजा , हमे सभी लोगो में मौजूद साझे अहसास को रोकने के लिए वह हर काम करना चाहिए , जिसे हम कर सकते है "| इस रणनीति को प्रभावी रूप से अमल में लाने के लिए औपनिवेशिक शासक और उनके भारतीय पिठ्ठूओ ने यह बताते हुए दो राष्ट्रों का सिद्धांत दिया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग - अलग राष्ट्रों से सम्बन्ध रखते है , क्योंकि उनका अलग - अलग धर्मो से ताल्लुक है | ''बाटो और राज करो'' की अपनी नीति को आगे बढाते हुए उन्होंने साम्प्रदायिक और अलगाववादी रुझानो को बढ़ावा दिया , जिससे की विभिन्न धर्मो के लोगो को एक दूसरे के साथ भिड़ाया जा सके | उन्होंने प्रांतवाद को बढ़ावा दिया , जातीय ढाँचे का दोहन किया और इसके अलावा उर्दू के उपर हिंदी के आधिपत्य के मुद्दे को उठाया | इससे हिन्दुओ और मुस्लिमो के बीच साम्प्रदायिक कटुता और मनमुटाव की शुरुआत हुई | उन्होंने ऐसे इतिहासकारों को तरजीह दी , जिन्होंने भारतीय इतिहास को इस रूप में प्रस्तुत किया जिससे साम्प्रदायिक भावनाओं को बढ़ावा मिले | इलियट , डासन, मैलकाम, ब्रिग्स और एलफिस्टन जैसे ब्रिटिश इतिहासकारों और नौकरशाहों को इस काम पर लगाया गया और उन्हें इतिहास की ऐसी पुस्तके लिखने के लिए निर्देशित किया गया जो अंग्रेजो के पक्ष में जनमानस तैयार कर सके और यह बताये कि उनका शासन 'अत्याचारी मुस्लिम शासन " के मुकाबले बहुत अच्छा था | उदाहरण के तौर पर जेम्स मिल कि "' हिस्ट्री आफ ब्रिटिश इंडिया '' जिसे तीन भागो -- हिन्दू सभ्यता , मुस्लिम सभ्यता और ब्रिटिश काल -- में बात गया है को सरक्षण प्रदान किया गया मिल ने तर्क पेश किया कि हिन्दू सभ्यता गतिहीन और पिछड़ी थी , मुस्लिम मामूली रूप से बेहतर थे और ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता प्रगति की चालक शक्ति थी यह भारत में सुधार के लिए परिवर्तन को कार्यान्वित कर सकती थी | ठीक इसी समय विलियम हन्टर जैसे अधिकारियो ने ''इन्डियन मुस्लिम्स '' लिखी जिसमे मुस्लिमो को पृथक राष्ट्रीयता के रूप में वर्गीकृत किया गया , और उनके विकास के लिए उठाये जानेवाले कदमो को विस्तार से स्पष्ट किया गया | इन किताबो ने मुस्लिमो और मुस्लिम शासको के बारे में गलतफहमी पैदा करने और गलत धारणाये फैलाने के लिए विभाजनकारी भूमिका अदा की | इसी प्रकार वे भारतीय इतिहास - लेखन को इस कदर प्रभावित करने में सफल रहे , जिसके चलते डा यदुनाथ सरकार को नाईट की उपाधि दी गयी | उसने चार जिल्दो के अध्ययन ''मुग़ल साम्राज्य का पतन '' में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ध्येय की भलीभांति सेवा की | इतिहास के रुढ़िवादी सम्प्रदाय की अलगाववादी सोच पर प्रकाश डालते हुए आर सी मजुमदार लिखते है -- '' इन इतिहासकारों को इस बात का एहसास न था कि प्राचीन और मध्ययुग के दौरान भारत की राजनीति किसी अन्य जगह की राजनीति जैसी ही थी तथा शासको के आर्थिक और राजनीतिक हितो की पूर्ति करने का काम करती थी .. विशिष्ठ और पृथक हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियो की झूठी अवधारणा प्रस्तुत करके इतिहास के प्रति साम्प्रदायिक सोच ने विभाजनकारी रुझानो को जन्म दिया | धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भी ऐसा असर डाला .. कुछ नेताओं ने हिन्दू राष्ट्रवाद के बारे में , विदेशियों '' के रूप में मुस्लिमो के बारे में , हिन्दू हित की रक्षा करने के बारे में बात करना शरू कर दिया .. इस प्रकार से हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने एक दूसरे पर असर डाला और एक दूसरे को सहारा दिया ''| इस साम्प्रदायिक सिद्धांत ने आगे उस समय और भी ठोस रूप ग्रहण कर लिया जब 1906 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई | दूसरी तरफ , अंग्रेजो ने मौजूदा भारतीय जनता पार्टी ,आर एस एस बजरंग दल व अन्य के पुरखे ''हिन्दू महा सभा '' जैसे अतिवादियो की मदद की | इस सब ने लोगो की दो पृथक भावनाओं को जन्म दिया | इसके बाद इसने प्रांतीयता फैलाने के लिए भी अधिक समय नही लिया | इस प्रकार अंग्रेजो ने भारतीयों को दो हिस्सों हिन्दुओ - एवं मुस्लिमो में बाट दिया | वी.डी महाजन कहते है ''भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान ही हिन्दू - मुस्लिम दंगे हुए और वह भी उन इलाको में जहाँ पर राष्ट्रवादी आन्दोलन मजबूत था | 1889 और 1894 के बीच तक़रीबन 90 हिन्दू हिन्दू - मुस्लिम दंगे हुए | उनमे से अकेले बंगाल में इस प्रकार के 44 दंगे हुए उत्तर -पश्चिमी प्रान्तों एवं अवध में 9 दंगे , मद्रास में 17 और पंजाब में एक दंगा हुआ | जहां कही भी ज्यादा राजनितिक गतिविधि थी ब्रिटिश सरकार ने वही इन दंगो को बढ़ावा दिया , ताकि हिन्दू और मुस्लिम झगड़ा शुरू कर सके और राष्ट्रवादी आन्दोलन के लिए संघर्ष को धक्का लगे | ऐसी निराशाजनक स्थिति के वावजूद इस बात का उल्लेख्य करना जरूरी है कि तत्कालीन बंगाल प्रांत के मुस्लिमो ने अच्छी - खासी संख्या में बंगाल विभाजन का विरोध किया था - जिसे हिन्दुओ और मुस्लिमो में आगे और भी फूट डालने के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की तरफ से उठाये गये एक और चालाकी भरे कदम के रूप में लिया गया | '' बंगाल विभाजन के खिलाफ आन्दोलन से सम्बन्धित सरकारी अभिलेखागार के दस्तावेज साबित करते है कि समूचे पूर्वी बंगाल के विभिन्न जिलो में बड़ी संख्या में जन - समुदाय की बैठके आयोजित की गयी थी " 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता में एक बड़ी सभा में एक प्रस्ताव पारित किया गया , जिसका मौलवी हिसीबुबुद्दीन अहमद ने अनुमोदन किया | इसके फलस्वरूप , तथ्यात्मक प्रमाण के वावजूद एकांगी इतिहास लेखन ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतीय मुस्लिमो की गौरवशाली भूमिका को काफी हद तक दरकिनार कर दिया |
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
लेखक डा पृथ्वी राज कालिया - अनुवादक - कामता प्रसाद

Friday, March 16, 2018

देश खतरनाक स्थिति में खड़ा है ? 15-3-18

धनकुबेरो उनके समर्थको द्वारा राष्ट्रीय हितो के साथ खिलवाड़

धनकुबेरो उनके समर्थको द्वारा राष्ट्रीय हितो के साथ खिलवाड़

देश खतरनाक स्थिति में खड़ा है !

समाचार पत्रों में यह सुचना प्रकाशित हुई है की 2017 में 7000 धनकुबेर इस देश से पलायन कर विदेशो में बस गये | वही के नागरिक बन गये | इससे पहले 2016 में पलायन करने वाले धनकुबेरो की संख्या 6000 और 2015 में उनकी संख्या 4000 थी | इससे पहले के सालो में भी यह पलायन जारी था | देश के धनकुबेरो का यह पलायन साल दर साल बढ़ता रहा है | न्यूवर्ल्ड रिपोर्ट में भारत से धनकुबेरो के पलायन को विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान दिया गया है | यहाँ के धनकुबेरो का यह पलायन मुख्यत: अमेरिका , कनाडा , आस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड तथा संयुक्त अरब अमीरात में हो रहा है | रिपोर्ट में एक बड़ी दिलचस्प बात यह कही गयी है कि '' भारत से अमीरों के पलायन पर चिंता करने की कोई बात नही है | क्योकि इस देश को जितने लोग छोड़कर जाते है ,उससे ज्यादा संख्या में नये अमीर बन जाते है |' बात तो चिंताजनक है , लेकिन न्यूवर्ल्ड रिपोर्ट इस पर चिंता न करने का एक अजीब सा तर्क दे रही है | उसके तर्क का यह मतलब है कि यह देश धनी बनने में लगे लोगो को राष्ट्रीय ससाधनो अधिक अमीर बनाता रहे और फिर उन्हें अपना धन - पूंजी विदेश जाने की छूट देता रहे | उस पर नियंत्रण न लगाये , चिंता ना करे | यही हो रहा है | देश के धनाढ्यो और उच्च हिस्सों के लिए तो यह चिंता की बात है भी नही | क्योकि ये हिस्से शासन सत्ता के सहयोग से विदेशो में पलायन करने वाली की कतार में हैं | वे अपनी पुन्जियाँ विदेशी कारोबार और विदेशी सम्पत्तियों में पहले से लगाये हुए है | अगर वहाँ उनका कारोबार - बाजार बढ़ता है तो इस देश की कमाई लेकर आसानी से विदेश चले जायेंगे और वही पर बस जायेंगे | पलायन की इस प्रक्रिया को रोकने का काम कोई सरकार नही कर रही है | यह पलायन सरकारों द्वारा अपनाई जाती रही वैश्वीकरणवादी नीतियों , कानूनों से मिलती रही छूटो तथा मंत्रियो , अधिकारियों के हर तरह के सहयोग से बढ़ता रहा है | इस 1991 से पहले लगे ''फेरा ' व अन्य रोक नियंत्रण वाली नीतियों को हटाते हुए बढ़ाया गया है | विदेशी ताकतों के साथ - साथ देश के उच्च स्तरीय विद्वानों बुद्धिजीवियों , कलाकारों द्वारा इस पलायन का भरपूर समर्थन किया जाता रहा है | लेकिन देश का जनसाधारण हिस्सा धनकुबेरो के इस पलायन पर धनाढ्यो ,उच्च तबको एवं सरकारों जैसा रवैया नही अपना सकता | क्योकि देश की श्रम सम्पदा से अर्जित पूंजी सम्पत्ति के इस बढ़ते पलायन से व्यापक जनसाधारण के राष्ट्रीय एवं सामाजिक हितो में कमी कटौती का होना निश्चित है | क्योकि धनकुबेरो की यह धनाढ्यता उन्हें अपने उत्पादन व बाजार को बढाने की मिलती रही छूटो के जरिये राष्ट्र के श्रम व ससाधन के शोषण दोहन के फलस्वरूप बढती रही है | इसीलिए उनके मालिकाने की धन - पूंजी केवल उनकी ही धन पूंजी नही है , बल्कि वह राष्ट्रीय धन पूंजी भी है | उसे लेकर विदेशो में पलायन करना भी है एवं निजीवादी लूट है | इस धन पूंजी की वृद्धि में लगे राष्ट्र के श्रमजीवी लोगो की श्रम शक्ति और राष्ट्र के प्राकृतिक ससाधनो की लूट है | इसके फलस्वरूप भी राष्ट्र में पूंजी की अभावग्रसता और राष्ट्र की विदेशी पूंजी पर निर्भरता में और ज्यादा वृद्धि होती रही है | राष्ट्रीय धन को विदेशी पूंजी द्वारा बढती सूदखोरी मुनाफाखोरी की लूट के साथ अब राष्ट्र के हजारो की संख्या में बढ़ते धनकुबेरो के धन पूंजी के विदेशो में पलायन के जरिये भी विदेशो में पहुचाया जा रहा है | बिडम्बना यह है कि ये धनाढ्य हिस्से तथा विदेशो में उनके पलायन को छूट देने वाले राजनीतिक प्रशासनिक हिस्से तथा उन्हें समर्थन देने वाले बौद्धिक एवं सांस्कृतिक हिस्से ही अपने आपको सबसे बड़े राष्ट्रवादी के रूप में प्रचारित करते रहे है | जन साधारण समाज भी उन्हें विभिन्न नामो वाले राष्ट्रवाद का अलमबरदार मानता रहा है | ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय धन का यह पलायन रुकने वाला नही है | न तो धनकुबेरो को धन - पूंजी बढाने की छूटे ही रुक पानी है और न ही उनके द्वारा और विदेशियों के द्वारा कमाए या लूटे गये धन के साथ उनका पलायन रुक पाना है | क्योकि विदेशो में पलायन कर चुके इन धनकुबेरो को कल अनिवासी भारतीय के रूप में छूटे मिलने का सिलसिला जारी रहेगा | इन परिणामो से सबक सीखते हुए देश के जन साधारण को ही यह बात समझनी पड़ेगी की राष्ट्र के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों से राष्ट्रीय हितो की और राष्ट्र की बहुसंख्यक शारीरिक एवं मानसिक श्रमजीवी जन सध्रान के हितो की उम्मीद नही की जा सकती , फिर उन्हें अधिकाधिक उदारवादी निजीवादी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय छूटे व अधिकार देने वाली सत्ता सरकारों से विदेशो में राष्ट्रीय धन के साथ धनकुबेरो के पलायन को रोकने की भी कोई उम्मीद नही की जा सकती | यह काम सरकारों पर राष्ट्रीय धन का पलायन रोकने के लिए व्यापक जन दबाव के जरिये ही बन सकता है | इसलिए जन साधारण और उसके प्रबुद्ध हिस्से को सचेत एवं सक्रिय होना होगा | 1947 से पहले चले स्वतंत्रता आन्दोलन जैसा जज्बा लेकर जनसाधारण को सचेत एवं सगठित करना होगा | दुसरा कोई रास्ता नही दिख रहा है | क्योकि देश के धनकुबेरो और राष्ट्रीय एवं जनहित की मांग है कि विदेशी निवेशको के जरिये देश की बढती लुट पर अधिकाधिक अन्क्य्श लगाने के साथ देश की पूंजी के पलायन पर सखत से सखत नियंत्रण लगाया जाना आवश्यक है | अगर देश का आम आदमी इसपर ध्यान नही देता तो हमको कंगाल बनने में देर नही |

चित्र साभार गूगल बाबा से
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - आभार चर्चा आजकल की

समाचार पत्रों में यह सुचना प्रकाशित हुई है की 2017 में 7000 धनकुबेर इस देश से पलायन कर विदेशो में बस गये | वही के नागरिक बन गये | इससे पहले 2016 में पलायन करने वाले धनकुबेरो की संख्या 6000 और 2015 में उनकी संख्या 4000 थी | इससे पहले के सालो में भी यह पलायन जारी था | देश के धनकुबेरो का यह पलायन साल दर साल बढ़ता रहा है | न्यूवर्ल्ड रिपोर्ट में भारत से धनकुबेरो के पलायन को विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान दिया गया है | यहाँ के धनकुबेरो का यह पलायन मुख्यत: अमेरिका , कनाडा , आस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड तथा संयुक्त अरब अमीरात में हो रहा है | रिपोर्ट में एक बड़ी दिलचस्प बात यह कही गयी है कि '' भारत से अमीरों के पलायन पर चिंता करने की कोई बात नही है | क्योकि इस देश को जितने लोग छोड़कर जाते है ,उससे ज्यादा संख्या में नये अमीर बन जाते है |' बात तो चिंताजनक है , लेकिन न्यूवर्ल्ड रिपोर्ट इस पर चिंता न करने का एक अजीब सा तर्क दे रही है | उसके तर्क का यह मतलब है कि यह देश धनी बनने में लगे लोगो को राष्ट्रीय ससाधनो अधिक अमीर बनाता रहे और फिर उन्हें अपना धन - पूंजी विदेश जाने की छूट देता रहे | उस पर नियंत्रण न लगाये , चिंता ना करे | यही हो रहा है | देश के धनाढ्यो और उच्च हिस्सों के लिए तो यह चिंता की बात है भी नही | क्योकि ये हिस्से शासन सत्ता के सहयोग से विदेशो में पलायन करने वाली की कतार में हैं | वे अपनी पुन्जियाँ विदेशी कारोबार और विदेशी सम्पत्तियों में पहले से लगाये हुए है | अगर वहाँ उनका कारोबार - बाजार बढ़ता है तो इस देश की कमाई लेकर आसानी से विदेश चले जायेंगे और वही पर बस जायेंगे | पलायन की इस प्रक्रिया को रोकने का काम कोई सरकार नही कर रही है | यह पलायन सरकारों द्वारा अपनाई जाती रही वैश्वीकरणवादी नीतियों , कानूनों से मिलती रही छूटो तथा मंत्रियो , अधिकारियों के हर तरह के सहयोग से बढ़ता रहा है | इस 1991 से पहले लगे ''फेरा ' व अन्य रोक नियंत्रण वाली नीतियों को हटाते हुए बढ़ाया गया है | विदेशी ताकतों के साथ - साथ देश के उच्च स्तरीय विद्वानों बुद्धिजीवियों , कलाकारों द्वारा इस पलायन का भरपूर समर्थन किया जाता रहा है | लेकिन देश का जनसाधारण हिस्सा धनकुबेरो के इस पलायन पर धनाढ्यो ,उच्च तबको एवं सरकारों जैसा रवैया नही अपना सकता | क्योकि देश की श्रम सम्पदा से अर्जित पूंजी सम्पत्ति के इस बढ़ते पलायन से व्यापक जनसाधारण के राष्ट्रीय एवं सामाजिक हितो में कमी कटौती का होना निश्चित है | क्योकि धनकुबेरो की यह धनाढ्यता उन्हें अपने उत्पादन व बाजार को बढाने की मिलती रही छूटो के जरिये राष्ट्र के श्रम व ससाधन के शोषण दोहन के फलस्वरूप बढती रही है | इसीलिए उनके मालिकाने की धन - पूंजी केवल उनकी ही धन पूंजी नही है , बल्कि वह राष्ट्रीय धन पूंजी भी है | उसे लेकर विदेशो में पलायन करना भी है एवं निजीवादी लूट है | इस धन पूंजी की वृद्धि में लगे राष्ट्र के श्रमजीवी लोगो की श्रम शक्ति और राष्ट्र के प्राकृतिक ससाधनो की लूट है | इसके फलस्वरूप भी राष्ट्र में पूंजी की अभावग्रसता और राष्ट्र की विदेशी पूंजी पर निर्भरता में और ज्यादा वृद्धि होती रही है | राष्ट्रीय धन को विदेशी पूंजी द्वारा बढती सूदखोरी मुनाफाखोरी की लूट के साथ अब राष्ट्र के हजारो की संख्या में बढ़ते धनकुबेरो के धन पूंजी के विदेशो में पलायन के जरिये भी विदेशो में पहुचाया जा रहा है | बिडम्बना यह है कि ये धनाढ्य हिस्से तथा विदेशो में उनके पलायन को छूट देने वाले राजनीतिक प्रशासनिक हिस्से तथा उन्हें समर्थन देने वाले बौद्धिक एवं सांस्कृतिक हिस्से ही अपने आपको सबसे बड़े राष्ट्रवादी के रूप में प्रचारित करते रहे है | जन साधारण समाज भी उन्हें विभिन्न नामो वाले राष्ट्रवाद का अलमबरदार मानता रहा है | ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय धन का यह पलायन रुकने वाला नही है | न तो धनकुबेरो को धन - पूंजी बढाने की छूटे ही रुक पानी है और न ही उनके द्वारा और विदेशियों के द्वारा कमाए या लूटे गये धन के साथ उनका पलायन रुक पाना है | क्योकि विदेशो में पलायन कर चुके इन धनकुबेरो को कल अनिवासी भारतीय के रूप में छूटे मिलने का सिलसिला जारी रहेगा | इन परिणामो से सबक सीखते हुए देश के जन साधारण को ही यह बात समझनी पड़ेगी की राष्ट्र के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों से राष्ट्रीय हितो की और राष्ट्र की बहुसंख्यक शारीरिक एवं मानसिक श्रमजीवी जन सध्रान के हितो की उम्मीद नही की जा सकती , फिर उन्हें अधिकाधिक उदारवादी निजीवादी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय छूटे व अधिकार देने वाली सत्ता सरकारों से विदेशो में राष्ट्रीय धन के साथ धनकुबेरो के पलायन को रोकने की भी कोई उम्मीद नही की जा सकती | यह काम सरकारों पर राष्ट्रीय धन का पलायन रोकने के लिए व्यापक जन दबाव के जरिये ही बन सकता है | इसलिए जन साधारण और उसके प्रबुद्ध हिस्से को सचेत एवं सक्रिय होना होगा | 1947 से पहले चले स्वतंत्रता आन्दोलन जैसा जज्बा लेकर जनसाधारण को सचेत एवं सगठित करना होगा | दुसरा कोई रास्ता नही दिख रहा है | क्योकि देश के धनकुबेरो और राष्ट्रीय एवं जनहित की मांग है कि विदेशी निवेशको के जरिये देश की बढती लुट पर अधिकाधिक अन्क्य्श लगाने के साथ देश की पूंजी के पलायन पर सखत से सखत नियंत्रण लगाया जाना आवश्यक है | अगर देश का आम आदमी इसपर ध्यान नही देता तो हमको कंगाल बनने में देर नही |

चित्र साभार गूगल बाबा से
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - आभार चर्चा आजकल की

Wednesday, March 14, 2018

कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के 14-3-18

कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के

घोटालो की हकीकत

सम्पादकीय

चर्चा आजकल की



हीरे और आभूषण के अरबपति कारोबारी द्वारा पंजाब नेशनल बैंक की मुंबई शाखा से अरबो रूपये के फ्राड की सुचना 15 फरवरी के समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई है | फरद की कुल रकम का प्राथमिक आकलन 11 हजार 500 करोड़ रूपये किया गया है | यह फ्राड कुछ महीनों से नही बल्कि पिछले सात सालो यानी 2011 से चल रहा था | पंजाब नेशनल बैंक के अधिकारियो द्वारा दिए गये लेटर आफ अंडरटेकिंग नाम के प्रमाण पत्र के फलस्वरूप इस कारोबारी को नियमो और आवश्यक प्रक्रियाओं की अनदेखी कर देश के कई बड़े बैंको तथा विदेशी बैंको ने करोड़ो की रकम का ऋण दे रखा है | इस फ्राड के आरोप में पी एन बी द्वारा 31 जनवरी को ऍफ़ आई आर दर्ज कराए जाने के दो दिन पहले ही यह कारोबारी किसी दूसरे देश को प्रस्थान कर चुका था | उसके विरुद्ध कार्यवाई के रूप में उसकी सम्पत्तियों की जब्ती के साथ पी एन बी के कुछ अधिकारियो - कर्मचारियों के विरुद्ध भी कारवाई जारी है | इसी बीच कानपुर में रोटोमेक पेन के बड़े कारोबारी द्वारा बैंक आफ इंडिया और बैंक आफ बडौदा सहित पांच अन्य बैंको से महज 12 करोड़ की सम्पत्ति गिरवी रखकर 2129 करोड़ रुपयों का कर्ज लिया गया | इस समय इसका व्याज समेत आकलन 3695 करोड़ का किया गया है | इन बैंको द्वारा गिरवी रखी गयी सम्पत्ति के वास्तविक मूल्य एवं नियमो की अनदेखी करते हुए 2007 - 2008 से ही उक्त कारोबारी को लोंन देने का सिलसिला जारी रहा | बैंक अधिकारियों द्वारा इस पर चुप्पी साधकर लोंन को बढाया जाता रहा है |
हो सकता है आने वाले कुछ दिनों , महीनों में बैंको के ऐसे फ्राड व भ्रष्टाचार की और घटनाए उजागर हो | इनके अलावा ये बात तो पहले से बताई जा रही है कि बैंको से लिए गये कर्ज के लाखो करोड़ की रकम गैर निष्पादित सम्पत्ति [एन .पी ए ] अर्थात ऐसे कर्ज वाली सम्पत्ति बनती जा रही है जिसके वापस मिलने की कोई उम्मीद नही है | [एन पी ए] का 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा धनाढ्य औध्योगिक व्यापारिक कम्पनियों का ही है | स्पष्ट है कि इस रकम का बड़ा हिस्सा भी लोन - फ्राड की रकम साबित हो जाना है | हम यहाँ बैंको के इन फ्राडो की प्रक्रिया पर कोई चर्चा नही करने जा रहे है | क्योकि उसका महत्व उस प्रक्रिया में नही , बल्कि सालो - साल से हजारो करोड़ के लोन या फ्राड की अनदेखी करने और फिर उसके आने वाले नीतिगत परिणाम में निहित है | इस सन्दर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि आखिर बैंको द्वारा कई स्तरों वाली जांच की स्थापित प्रणाली के वावजूद ऐसे फ्राड हो क्यो रहे है ? धनाढ्य कम्पनियों द्वारा लिए गये कर्जो की अदायगी क्यो रुकी है ?
इसका सीधा जबाब है कि बैंको , खासकर सरकारी बैंको द्वारा तथा अन्य नियामक वित्तीय संस्थानों द्वारा इस प्रक्रिया को जानबूझकर कर चलाया - बढ़ाया जा रहा है | फिर उसके आते रहते परिणामो को दिखाकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको और उसके प्रबंध तंत्र को नकारा साबित किया जा रहा है | उसके समाधान के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको के निजीकरण का रास्ता साफ़ किया जा रहा है | इसका स्पष्ट परिलक्षण 10 फरवरी के समाचार पत्रों में उध्योग जगत की संस्था ''एसोचेम'' के इस ब्यान में है कि सरकार को सार्वजनिक बैंको में अपनी हिस्सेदारी 70 % से घटाकर 50% कम कर देनी चाहिए | ''एसोचेम'' ने चेतावनी देते हुए कहा कि सार्वजनिक बैंको की बेहतरी इसी में है कि उन्हें निजी बैंको की तरह काम करने दिया जाए | -- सार्वजनिक बैंको के कुप्रबंधन के बारे में संस्था का कहना है कि इन बैंको के शीर्ष पदों का इस्तेमाल 'सरकारी अधिकारियों की सेवान्रिवृत के बाद सेवा विस्तार के लिए किया जाता रहा है | ऐसे अधिकारी अपना ज्यादातर समय बात - बात पर सरकार के वरिष्ठ बित्तीय अधिकारियो से राय लेने और उनके अपने हितो की रक्षा में लगाते है | उनके पास प्रबन्धन व बैंको के जोखिम से जुड़े बुनियादी मसलो के लिए समय ही नही बचता | - सरकार की हिस्सेदारी 50% से नीचे आने के बाद बैंको को ज्यादा स्वायत्तता मिलेगी और उसका वरिष्ठ प्रबन्धन ज्यादा जिम्मेदारी और निष्ठा के साथ काम करेगा | इसी तरह 20 फरवरी के समाचार पत्रों में प्रमुख उध्योग के सगठन ''पिक्की '' ने यह ब्यान जारी किया कि 'सरकारी बैंको का निजीकरण कर दिया जाना चाहिए | पिछले 11 सालो से सरकार इन बैंको का पुनपुनर्जीकरण करती आ रही है | इन सालो में 2.6 लाख करोड़ बैंको को दे चुकी है , फिर भी इन बैंको का प्रदर्शन कमजोर पड़ता रहा है | एसोचेम और पिक्की द्वारा बैंको के निजीकरण की वकालत पर बैंक कर्मचारी यूनियन का यह बयान भी प्रकाशित हुआ है कि अगर उध्योग जगत कर्ज की वापसी समय पर कर देता है तो ऐसे हालात पैदा नही होते | अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी एसोसिएशन ने बैंको के निजीकरण की एसोचेम की मांग को निंदनीय बताते हुए कहा कि उध्योग सगठन को अपने सदस्यों को बैंक ऋण का भुगतान करने की सलाह देनी चाहिए | --- बैंक कर्मचारी सगठन ने यह भी कहा कि उध्योग जगत के सगठन निजी बैंको के रिकार्ड भूल गये है | अगर निजी बैंक वास्तव में सक्षम होते तो कई बैंक बंद क्यों हुए ? और दूसरे बैंको के साथ उनका विलय क्यो हुआ ?
ध्यान देने वाली बात है कि बड़े उध्योगो के सगठन द्वारा दिए गये निजीकरण के प्रस्ताव के विरोध में दिया गया उपरोक्त जबाब एकदम सही जबाब , सार्वजनिक बैंको के प्रमुख अधिकारियो के सगठन द्वारा दिया गया है | स्पष्ट है कि बैंको के बड़े अधिकारी और सार्वजनिक बैंको के आला मालिक सरकार के वित्तमंत्री एवं बड़े वित्तीय अधिकारी , एसोचेम और पिक्की के निजीकरण के सुझाव को शांतिपूर्वक सुन रहे है | इसका कोई जबाब नही दे रहे है | लेकिन क्यो ? क्योकी बड़े कारोबारियों द्वारा पी एन बी या किसी अन्य बैंक से लिया जाता रहा करोड़ो का लोन और बैंको द्वारा देश - विदेश के दूसरे नामी - गिरामी बैंको से उन्हें दिलवाया जाता रहा करोड़ो का लोन बैंको के छोटे अधिकारियों या साधारण कर्मचारियों के बूते के बाहर है | यह काम बड़े अधिकारी ही कर सकते है और वे यह काम अपेक्षाकृत छोटे अधिकारियो द्वारा लेटर आफ अंडरटेकिंग जारी करवा भी सकते है | बैंको के बड़े अधिकारियो की अनुशंसा - आज्ञा के बिना ऐसा होना असम्भव है | यह उद्योगपतियों और बैंको के बड़े अधिकारियो के बीच बढती साठ- गाठ का स्पष्ट परिलक्ष्ण है | इस साथ - गाठ से ही अरबो का फ्राड और बड़े कारोबारियों द्वारा लोन की अदायगी न करने का काम सालो - साल से होता रहा है | इनके साथ - गाठ के बिना लाखो करोड़ो का [एन पी ए] या अन्य वित्तीय भ्रष्टाचार का चल पाना असम्भव है | इसी कारण बैंको के बड़े अधिकारियों एवं उनके सगठनों द्वारा एसोचेम और पिक्की को जबाब नही दिया गया है | जहां तक सरकार और उसके बड़े वित्तीय अधिकारियो मंत्रियो का सवाल है तो वे उद्योगपतियों के सगठनों का सुझाव दबाव 26-27 सालो से बिना किसी गंभीर प्रतिवाद के सुनते और मानते रहे है | क्योकि इन वर्षो में सभी सरकारे स्वंय निजीकरणवादी नीतियों को लागू करती रही है | देश - विदेश के धनाढ्य मालिको के छूटो , अधिकारों को खुले आम बढाती रही है | सार्वजनिक क्षेत्रो के संस्थानों को निजी हाथो में सौपती रही है | साल दर साल इन सस्थानो के विनिवेश का लक्ष्य निर्धारिय करती रही है | स्पष्ट है कि बैंको के इन घोटालो तथा उनकी बढती गैर निष्पादित सम्पत्तियों को आगे करने और उसके फलस्वरूप रुगण होते सार्वजनिक क्षेत्रो के बैंको की रुग्णता , पूंजी की अभावग्रसता तथा कुप्रबन्धन का हल्ला ह्गामा मचाने का एक ही लक्ष्य है कि इन बैंको का निजीकरण कर दिया जाए | राष्ट्रीय धन पूंजी से बढाये गये सार्वजनिक क्षेत्रो के इन बैंको को देश व विदेश के निजी मालिको को सौप दिया जाए | उदारीकरण , वैश्वीकरण , निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाती रही सभी सरकारे ऐसे मौको की तलाश में रही है , ताकि वे बैंको के निजीकरण की प्रक्रिया को नीतिगत एवं व्यवहारिक रूप से आगे बढ़ा दे | सार्वजनिक बैंको को भ्रष्टाचार एवं कुप्रबन्धन आदि से बीमार होते संस्थान प्रचारित कर इनके निजीकरण के लिए जनगण का समर्थन भी हासिल कर ले |
निकट भविष्य में सार्वजिनक बैंको की यह प्रक्रिया आगे बढ़ जानी है | उसके फलस्वरूप पूंजी के बड़े मालिको को सार्वजनिक बैंको का मालिकाना मिलने के साथ उन्हें सचालन व नियंत्रण का अधिकार मिल जाना है | जबकि इन्ही धनाढ्य वर्गो ने उच्च स्तरीय अधिकारियो से मिलकर बैंको को संकट ग्रस्त करने का काम किया है | फिर निजीकरण के बढ़ने के साथ बैंको का यही उच्च प्रबन्धकीय हिस्सा उनके साथ काम करने लग जाएगा और कुप्रबन्धन से सुप्रबन्धन भी बन जाएगा | यही काम सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के साथ भी पहले से हो रहा है | बैंको के कर्मचारी सगठन द्वारा दिए गये जबाब में एक प्रमुख बात रह गयी | पिक्की द्वारा 11 वर्षो से सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको को राजकोष से 2.6 लाख करोड़ की वित्तीय सहायता देने की आलोचना के जबाब में कर्मचारी संघ द्वारा बैंको से इस घाटे के लिए उद्योगपतियों को एवं बड़े कारोबारियों को जिम्मेदार ठहराना तो एकदम सही है | साथ ही उन्हें यह बात भी जरुर कहनी चाहिए कि उद्योगपति वर्ग निगम कर व अन्य करो में तमाम छूटो के साथ 2008 से ही लाखो करोड़ का प्रोत्साहन पॅकेज लेता रहा है | बैंको को कर्ज का घाटा पहुचाने के साथ - साथ सरकारी खजाने का राजस्व घाटा भी बढाता रहा है | अत: बड़े उद्योगपतियों , कारोबारियों को तो किसी भी क्षेत्र में सरकारी कोष से दी जाती रही सहयाता व सब्सिडी की आलोचना का कोई अधिकार नही है | सही बात तो यह है कि धनाढ्य वर्गो के बढ़ते छूटो- लाभों के फलस्वरूप ही जनहित के सभी क्षेत्रो में संकट बढ़ते रहे है | इसीलिए इन क्षेत्रो के संकटो के लिए स्वंय उन्हें जिम्मेदार ठहराने और उनका निजीकरण करने की जगह धनाढ्य मालिको के मालिकाने के लाभ पर सख्त नियंत्रण लगा देना उनका सार्वजनिककरण किया जाना आवश्यक है |


प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Tuesday, March 13, 2018

साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय संघर्ष 1857 और उसके बाद भाग छ: 13-3-18

स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिम भागीदारी -
भाग छ:

साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय संघर्ष 1857 और उसके बाद

प्रथम स्वाधीनता सग्राम -- 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह ने , जिसमे लाखो करोड़ो किसानो , सैनिको , दस्तकारो . जमींदारों ने हिस्सा लिया , वास्तव में अंग्रेजो के 100 वर्षो के शासन को उसकी जड़ो से हिलाकर रख दिया | जन उभार से पहले कि राज्य - हरण की निति ने तमाम रियासतों के शासको को घबराहट से भर दिया | विशेष रूप से , इसने नाना साहेब , झाँसी की रानी और बहादुर शाह जफर को प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजो का दुश्मन बना दिया | देशी - विदेशी शासको के विदृद्ध गहरे और व्यापक असंतोष के जन उभार का गवाह बना | बड़े पैमाने पर उथल - पुथल की उन दशाओं में चर्बी वाले कारतूसो के प्रकरण ने चिंगारी का काम किया | सिपाहियों के विद्रोह ने भारतीय समाज के अन्य तबको को विद्रोह करने के लिए भड़काया | यह विद्रोह 10 मई 1857 को मेरठ में शुरू हुआ और कमोवेश पूरे देश में फ़ैल गया | इसने विदेशी आधिपत्य की एक सदी के बाद आजादी के लिए संघर्ष की शुरुआत की थी | कुछ समय के लिए ऐसा लगा की ब्रिटिश नियंत्रण खत्म हो गया है | ''1857 के विद्रोह की शक्ति का एक महत्वपूर्ण तत्व हिन्दू - मुस्लिम एकता में निहित था , सभी विद्रोहियों ने एक मुस्लिम , बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह स्वीकार किया , एक वरिष्ठ अधिकारी ने आगे चलकर शिकायत की -'इस मामले में हम मुस्लिमो को हिन्दुओ के खिलाफ नही भिड़ा सके |' दरअसल ,1857 की घटनाओं ने इस देश बात को साफ़ तौर पर स्पष्ट कर दिया कि मध्य युग में और 1858 के पहले भारत की जनता और राजनीति मूलत: साम्प्रदायिक नही थी | लेकिन , भारतीय राजाओं और सरदारों के द्वारा समर्थित ब्रिटिश साम्राज्यवाद विद्रोहियों के लिए अत्यधिक सशक्त था , जिनके पास शस्त्र , सगठन और नेतृत्व का अभाव था | 20 सितम्बर 1857 को दिल्ली पर काबिज होने और बहादुर शाह के पकडे जाने के बाद अन्य नेता एक - एक करके पराजित हुए | 1859 के आखरी तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लिया | लेकिन विद्रोह व्यर्थ नही गया | यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भारतीय अवाम का प्रथम स्वाधीनता संग्राम साबित हुआ | राष्ट्रीय विद्रोह में , नान साहब , तात्या टोपे , झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई और मंगल पाण्डेय की तरह के शूरवीर नायको के अलावा , हम मौलवी अह्मददुल्ला , अजीमुल्ला खान और हजरत महल बेगम को सगर्व याद करते है , जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह को सगठित करने में प्रमुख भूमिका निभायी |

कुछ गुमनाम नायको की भूमिका --

फैजाबाद के शेरिफ मौलवी अह्मददुल्ला प्रथम स्वतंत्रता के महानतम नायको में से एक थे | वे शानदार गुणों ,अविचलित साहस , दृढ निश्चय और इस सबसे बढ़कर विद्रोहियों के बीच सर्वश्रेष्ठ सैनिक थे | मौलवी लेखक और योद्धा का विरल संयोग थे | उन्होंने विदेशी दासता के विरुद्ध जनता को जागृत और गोलबंद करने के लिए अपनी तलवार का वीरतापूर्वक और अपनी कलम का सहज ढंग से प्रयोग किया | अंग्रेजो ने उन्हें काबिल शत्रु और महान योद्धा के रूप में लिया | उनके उपर राजद्रोह का मुकदमा चला और फांसी की सजा दी गयी | लेकिन इस आदेश के क्रियान्वित होने से पहले विद्रोह शुरू हो गया | मौलवी फैजाबाद जेल से भाग गये , जहाँ से उन्हें बंदी बनाया गया था और उपनिवेशवादियो के विरुद्ध लड़ाई में अवध की जेल में बंद नवाब वाजिद अली शाह की बीबी बेगम हजरत महल से मिल गये | बेगम और मौलवी दोनों ने युद्ध के मैदान में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोही सैनिको का नेतृत्व किया | साम्राज्यवादियों ने उन्हें ज़िंदा पकड़ने के लिए 50 हजार रुपयों के इनाम की घोषणा की | वे 5 जून 1858 तक उन्हें चकमा देते रहे , आखिरकार भरी - भरकम रकम के लालच में पवई के राजा ने धोखा दे दिया और उन्हें गोली मार दी | इस प्रकार देशभक्त की गाथा का आकस्मिक अन्त एक कायर भीतरघाती के हाथो हो गया | विद्रोह से पहले और उसके दौरान उनके कार्यो और व्यवहार को हिन्दू पुनरुथानवादी विनायक दामोदर सावरकर से भी सराहना मिली "" इस बहादुर मुस्लिम का जीवन दर्शाता है कि इस्लाम की शिक्षाओं में तर्कपरक आस्था भारतीय धरती से भी गहरे एवं सर्व शक्तिमान प्रेम से किसी भी तरह असंगत या शत्रुतापूर्ण नही है |''

लेकिन बदकिस्मती से इतिहास की पाठ्य पुस्तको में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इस महान गुमनाम नायक का नाम शायद ही हमारे सामने आता हो | क्रान्ति का राजदूत समझे जाने वाले चालाक और दृढ राजनीतिक अजीमुल्ला खान 1830 - 1859 ने कानपुर में नाना साहब के प्रतिनिधि के रूप में काम किया | विद्रोह के फूट पड़ने से पहले उसने नाना साहब के लिए पेंशन हासिल करने की कोशिश करने के क्रम में लन्दन की यात्रा की | उन्होंने मित्र बनाये , लेकिन इसके साथ ही वह उन तारीको पर गौर कर रहे थे कि अंग्रेजो को कैसे नष्ट किया जाए | भारत वापस लौटते समय वे क्रिमियाई युद्ध अक्तूबर 1853 फरवरी 1856 को देखने के लिए रुके और यह देखकर उन्हें ख़ुशी हुई कि अंग्रेज अपने रुसी शत्रुओ के द्वारा बहुत बुरी तरह से पराजित हुए | अंग्रेज वहाँ भूखे , जख्मी और लगभग नष्ट हो चुके थे | यह उनके लिए सबक था | वह अपने नेता के रूप में नाना साहब के साथ अपने शत्रुओ को नष्ट करने की प्रतिज्ञा करते हुए भारत लौटे | उन्होंने विद्रोह में सक्रिय हिस्सा लिया | विद्रोह कुचल दिए जाने के बाद वह नाना साहब के साथ नेपाल चले गये , जहाँ 1859 में भूटवल में उनकी मृत्यु हो गयी | उत्तर प्रदेश के लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी हजरत बेगम महल को अवध की बेगम के नाम से भी जाना गया | ईश्वर के दिए अत्यंत सम्मोहक शारीरिक सौन्दर्य के अलावा उनके अन्दर सगठन और नेतृत्व की जन्मजात प्रतिभा थी पति को निर्वासन में कलकत्ता भेज दिए जाने के बाद उन्होंने सराफा - उद - दौला , महाराज बाल कृष्ण ,राजा जय लाल और इन सबसे बढ़कर मैंमन खान जैसे उत्साही समर्थको के समूह की सहयाता से अवध के भाग्य को पुनर्जीवित करने के लिए निरंतर प्रयास किया | उन्होंने क्रांतिकारी ताकतों के साथ मिलकर लखनऊ को अपने कब्जे में ले लिया और अपने शहजादे बिरजिस कादिर को अवध का नवाब घोषित किया | हजरत महल ने नाना साहब के साथ मिलकर काम किया लेकिन बाद में लखनऊ से निकल कर शाहजहापुर पर हमले में फैजाबाद के मौलवी से मिल गयी | वह अपना ठिकाना बदलती रहती लेकिन धीरज के साथ पीछे हटती | उन्होंने भत्ते और खुद को दिए जाने वाले दर्जे के अंग्रेजो के वादों को नफरत के साथ खारिज कर दिया जिनके विरुद्ध उनकी नफरत समझौता - विहीन थी | प्रतिरोध के समूचे दौर में दुर्भाग्य और गरीबी झेलने के बाद आखिर में उन्हें नेपाल में शरण मिली जहां 1979 में उनकी मौत हो गयी | इस प्रकार रानी लक्ष्मी बाई की तरह उनकी याद अवाम के गीतों और लोकगीतों में अभी भी बनी हुई है | सांतिमोये रे ने अपनी पुस्तक ''फ्रीडम मूवमेंट एवं इन्डियन मुस्लिम '' में ऐसे 224 मुस्लिमो की सूची दर्ज की है , जिन्होंने 1857 में भारत की आजादी के प्रथम संग्राम में लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी | तक़रीबन 40 मुस्लिम देश्भ्कतो को उम्रकैद की सजा सुनाई गयी और उन्हें सेलुलर जेल में डाल दिया गया , जिसे काला - पानी भी कहा जाता है | विद्रोह के बाद जहां भारतीयों के प्रति अंग्रेजो के रवैये में आमचुल परिवर्तन आया वही उन्होंने मुस्लिम समुदाय के लिए सर्वाधिक कटु और घोर शत्रुता जारी रखी | अंग्रेजो ने उनके उपर विरोधी गतिविधियों को बड़े पैमाने पर संचालित करने के आरोप लगाये जिन्हें अंग्रेजो ने मुग़ल बादशाह की सत्ता को बहाल करने के प्रयास के रूप में देखा |



प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्रत पत्रकार - समीक्षक -

आभार लेखक - डा पृथ्वी राज कालिया - अनुवादक कामता प्रसाद