Saturday, April 28, 2018

दैनिक जागरण जो कर रहा है, वो प्रो-रेपिस्ट पत्रकारिता है --- सुशील मानव

दैनिक जागरण जो कर रहा है, वो प्रो-रेपिस्ट पत्रकारिता है


जम्मू के कठुआ रसाना में आठ वर्षीय बकरवाल समुदाय की बच्ची से हुए गैंगरेप को लेकर जिस तरह की असंवेदनशील झूठी और शर्मनाक रिपोर्टिंग हिंदी अख़बार दैनिक जागरण ने की है वे पत्रकारिता का बेहद ही अश्लील नमूना है। इसे प्रो-रेपिस्ट पत्रकारिता कहना ज्यादा मुनासिब होगा।
बता दें कि दिल्ली की फोरेंसिक लैब एफएसएल ने अपनी रिपोर्ट में बच्ची संग मंदिर में बलात्कार की पुष्टि की है। रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि मंदिर के अंदर जो खून के धब्बे मिले थे वो पीड़िता के ही हैं। मंदिर में और लड़की लाश के पास जो बालों का गुच्छा मिला था जाँच में वो एक आरोपी शुभम संगारा के होने की पुष्टि लैब ने किया है। पीड़िता के कपड़ों पर मिले खून के धब्बे उसके डीएनए प्रोफाइल से मैच करते हैं। साथ ही पीड़िता की वजाइना पर खून मिलने की पुष्टि लैब ने की हैं।
बावजूद इतने सारे वैज्ञानिक सबूतों, प्रमाणों, तथ्यों को झुठलाते हुए दैनिक जागरण ने उस मिथ्या बात को हाइलाइट करके फ्रंट पेज पर छापा जो लगातार भाजपा और संघ के लोग दुष्प्रचारित करते चले आ रहे हैं। दैनिक जागरण ने पहले 20 अप्रैल 2018 को चंड़ीगढ़, पटना, दिल्ली, लखनऊ, जम्मू जैसे मेट्रो शहरों के संस्करणों में फ्रंटपेज की हेडलाइन बनाते हुए मोटे मोटे अक्षरों में बच्ची से नहीं हुआ था दुष्कर्म जैसे जजमेंटल हेडलाइन के साथ खबर छापी। और फिर उसके अगले दिन 21 अप्रैल 2018 को फिर से वही आधारहीन मिथ्या खबर को उसी जजमेंटल हेडलाइन बच्ची से नहीं हुआ था दुष्कर्म के साथ इलाहाबाद, कानपुर वाराणसी समेत जैसे छोटे शहरों और ग्रामीण अंचलों के सभी संस्करणों में उसी बर्बरता और निर्लज्जता के साथ दोहराया। साफ जाहिर है दैनिक जागरण अखबार पत्रकारिता के बुनियादी बातों, उसूलों और मूल्यों को त्यागकर सत्ता के मुखपत्र की तरह कार्य करते हुए बलात्कार के पक्ष में मानस को उन्मादित करके जनदबाव बनाने का कार्य कर रहा है जो न सिर्फ अनैतिक अमानवीय व हिंसक है अपितु आपराधिक भी।
दैनिक जागरण हमेशा से ही मिथ्या रिपोर्टिंग करता आया है। लेकिन इधर फासीवादी शक्तियों के सत्तासीन होने के बाद से तो ये अखबार लगभग निरंकुश भाव से  रिपोर्टिंग के नाम मिथ्याचार,दुष्प्रचार और बलात्कार पर उतर आया है। हिंदी है हम जैसे फासीवादी टैगलाइन के साथ मैंथिली मगही, अंगिका और भोजपुरी जैसी समृद्ध भाषाओं वाले बिहार में बिहार संवादी के बहाने दैनिक जागरण भाषाई वर्चस्वाद स्थापित करने के फासीवादी एजेंडे पर काम कर रहा है। एक भाषा एक विचार फासीवादी राष्ट्रवाद के मूल विचारों में से एक है।

आज से दशकों पहले दैनिक जागरण के मालिक नरेन्द्र मोहन ने अखबार के प्रधान संपादक कथाकार कमलेश्वर और दिल्ली के वरिष्ठ सहयोगियों के साथ नोएडा स्थित कार्यालय में मीटिंग की। उस मीटिंग में नरेन्द्र मोहन ने स्पष्ट कहा था कि जिस तरह उर्दू अखबार मुसलमानों की पत्रकारिता करता है उसी तरह मेरा अखबार हिन्दू पत्रकारिता करेगा। अगर मेरी बातों से किसी को कोई असहमति है तो वे अखबार छोड़कर जा सकते हैं।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिन्दू पत्रकारिता’ कर रहे दैनिक जागरण को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया’ ने मुसलमानों के खिलाफ तथ्यात्मक रूप से गलत व भड़काने वाली ख़बरें छापने का दोषी माना था। नरेन्द्र मोहन ने इसके जवाब में कुछ ऐसा कहा कि- प्रेस काउंसिल को जो करना हो करेहमारी भावना प्रकट करने पर कैसे रोक लगा सकता है। इसके बदले में बीजेपी ने नरेन्द्र मोहन को राज्यसभा भेजकर उपकृत किया। बीजेपी का यह कदम अप्रत्याशित नहीं था। बीजेपी को यह पता था कि सांप्रदायिक विचारधारा के चलते भविष्य में दैनिक जागरण उनके कितना काम आनेवाला है।

इसी बीच बिहार संवादी के नाम से पटना बिहार में दैनिक जागरण ने दो दिवसीय साहित्य के उत्सव का आयोजन किया। साहित्यकार अरुण कमल आलोक धन्वा, अरुण शीतांष कर्मेंदु शिशिर, ध्रुव गुप्त, तारानंद वियोगी, प्रेम कुमार मणि, संजय कुमार कुंदन कवयित्री निवेदिता शकील, सुजाता चौधरी व युवा कवि राकेश रंजन ने दैनिक जागरण की प्रो-रेपिस्ट पत्रकारिता के विरोध में  उसके इस कुकृत्य की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हुए बिहार संवादी” कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया।
वहीं दूसरी ओर दिल्ली में दैनिक जागरण के प्रो-रेपिस्ट पत्रकारिता से नाराज़ होकर प्रतिरोध स्वरूप उसके द्वारा दिल्ली में दैनिक जागरण के मुक्तांगन कार्यक्रम का भी साहित्यकारों ने बहिष्कार कर दिया है। मुक्तांगन का बहिष्कार करने वालों में वरिष्ठ कवयित्री सविता सिंह, विपिन चौधरी, कवयित्री सुजाता, दिल्ली जलेस के सचिव प्रेम तिवारी और मिहिर पांड्या शामिल थे। साहित्यकारों द्वारा दैनिक जागरण मुक्तांगन के बहिष्कार से तिलमिलाई मुक्तांगन की मालकिन ने कार्यक्रम के पोस्टर में उन पाँचों साहित्यकारों के नाम पर काली स्याही लगाकर क्रॉस कर दिया। सिर्फ इतना नहीं कार्यक्रम के पहले सत्र में वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव, राकेश वैद और शरद दत्त जैसे भाड़े के लोगो को बुलाकर मुक्तांगन की मालकिन ने बहिष्कार करनेवाले साहित्यकारों पर हमले बुलवायेइन लोगो ने एक स्वर में कहा कि - "मंच छोड़कर जाने के बाद वे ही लोग बाद में सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकालते हैं। यह सोच निश्चित तौर पर पलायनवादी है।"  हिंदुत्ववादी पत्रकार राहुल देव ने साहित्य जगत को सहनशीलता का पाठ पढ़ाते हुए सीधे साहित्यकार की वैचारिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया। ये कहकर कि- "जागरूकता फैलाने की जगह विरोध करना अनुचित है। हम सिर्फ कहेंगेलेकिन सुनेंगे नहींयह कोई विचारशील व्यक्ति कैसे कर सकता है।" शरद दत्त ने मुक्तांगन का बहिष्कार करने वालों को गिरोहबंदी की संज्ञा देते हुए अपनी फासिस्ट सोच को ही उजागर किया। जब उसने कहा कि - "साहित्य का मंच छोड़कर भागना बुद्धिमता नहीं है। मंच का बहिष्कार गलत है।" फिर तीनों ने सामूहिक हमला करते कहा कि – संवाद का मंच छोड़कर भागना अपराध है। इस तरह साहित्यकारों के बहाने इन्होंने महात्मा गाँधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन से लेकर संसद में विपक्ष के वाकआउट तक को अपराध घोषित कर डाला! बहिष्कार जैसे लोकतांत्रिक प्रतिरोध को अपराध कहना फासीवादी सोच नहीं तो और क्या है।
लेखक संगठनों में से जन संस्कृति मंच ने साहित्यकारों से जागरण संवादी के बहिष्कार की अपील की। इलाहाबाद जलेस के सचिव संतोष चतुर्वेदी ने जलेस इलाहाबाद अनदह, व पहली बार साहित्यिक पत्रिका की ओर से साहित्यकारों से अपील की कि वो जागरण संवादी का हिस्सा न बनें। दिल्ली जलेस के सचिव व साहित्यकार प्रेम तिवारी ने दैनिक जागरण के बलात्कारी पत्रकारिता की घोर भर्त्सना करते हुए कहा,- मैंने मुक्तांगन के कार्यक्रम में जाना स्थगित कर दिया है। दैनिक जागरण की पत्रकारिता जनतांत्रिक और सेक्युलर मूल्यों और मर्यादाओं की हत्या करने वाली साबित हुई है। वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने दैनिक जागरण कठुआ गैंगरेप मामले में दैनिक जागरण की उस खबर को सीधा सीधा फासिज्म को प्रमोट करने वाला बताते हुए दैनिक जागरण की इस अमानीय व बर्बर हरकत की भर्त्सना की और कहा कि अखबार द्वारा बलात्कारियों के पक्ष में इस हद तक की गलतबयानी करना उस बच्ची के साथ बलात्कार करने जैसा ही है। कवि मदन कश्यप ने कहा कि दैनिक जागरण हमेशा से ऐसा ही अखबार रहा है, सांप्रदायिक आधार पर खबरों व तथ्यों को तोड़ मरोड़कर पेश करने वाला। खबरों को तो छोड़िए लेखों को भी हद से ज्यादा इडिटिंग करता है ये, इसीलिये मैंने कभी कुछ नहीं लिखा इस अखबार के लिए। मदन कश्यप जी कहते हैं कि वो शुरू से ही दैनिक जागरण के कार्यक्रमों का बहिष्कार करते रहे हैं। उन्होंने सख्त लहजे में कहा कि मैं दैनिक जागरण और बिहार संवादी कार्यक्रम का बहिष्कार करता हूँ तब तक जब तक कि अखबार अपनी मिथ्या खबर का खंडन करके पाठकों से माफी नहीं माँगता। और साहित्यकारों से भी अपील करता हूँ कि वो जागरण संवादी का बहिष्कार करें।
आलोक धन्वा ने फोन पर बताया कि सुबह से पच्चीसों लड़कियों का फोन आ चुका है। वो सब बार बार गुजारिश कर रहीं हैं कि दादा प्लीज आप बलात्कार को प्रमोट करनेवाले बिहार संवादी का हिस्सा मत बनिए। वो आगे कहते हैं कि, यही नन्हीं लड़कियाँ ही तो मेरा बल हैं उनके अनुनय की अनदेखी करके भले मैं कैसे किसी इसके कार्यक्रम में शामिल हो सकता हूँ।
बतौर वक्ता शामिल किये गए लेखक ध्रुव गुप्त ने बिहार संवादी का बहिष्कार करते हुए कहा- 'जागरणने निष्पक्ष पत्रकारिता के मूल्यों की कीमत पर अपने ख़ास राजनीतिक एजेंडे के तहत देश में बलात्कार के पक्ष जो माहौल बनाने की कोशिश की हैउसकी जितनी भी भर्त्सना की जाय कम होगी। 'जागरणके इस अनैतिकअमानवीय और आपराधिक चरित्र के ख़िलाफ़ मैं आज और कल पटना के तारामंडल में आयोजित बिहारियों के तथाकथित साहित्य उत्सव 'बिहार संवादीका बहिष्कार करता हूं।
युवा कवि राकेश रंजन जी बिहार संवादी का बहिष्कार करते हुए कहते हैं-“ कठुआ में सामूहिक बलात्कार के बाद जिस बच्ची की निर्मम हत्या हुईउसे लेकर दैनिक जागरण की कल की रपट बेहद संवेदनहीनदायित्वहीन तथा अनैतिक है। यह रपट नहींकपट हैजिस परिवार का सब कुछ लुट चुका हैउसकी बेचारगी और तकलीफ के साथ किया जानेवाला मजाक है। दैनिक जागरण की जैसी प्रवृत्ति रही हैउसके आधार पर मुझे लगता है कि ऐसा जान-बूझकर किया गया है। मैं इसका विरोध करते हुए आज से आरंभ हो रहे 'बिहार संवादीनामक आयोजन में नहीं जा रहा।
साहित्यकार तारानंद वियोगी ने भी बिहार संवादी का बहिष्कार करते हुए कहा-एक लेखक के रूप में 'बिहार-संवादीमें शामिल होने की सहमति मैंने दी थी। वे मुझसे सीता पर बात करनेवाले थे। मैं भी उत्साह में था कि बोलूंगा। खासकरराम से परित्यक्त होने के बाद सीता की जो दशा थीउनका जो भयानक जीवनसंघर्ष थाउसपर रचे मिथकों के हवाले से कुछ बात करूंगा। मिथिला में प्रचलित सीता की लोकगाथा 'लवहरि कुसहरिको लेकरकि कैसे उस दुखियारी औरत ने जंगल में रहकरलकड़ी चुनकरकंद-फल बीनकर अपने दो बालकों का प्रतिपाल कियाउन्हें लायक बनाया। ध्यान दीजिएगामिथिला में लोकगाथाएं बहुत हैं पर वे या तो दलितों की हैं या वंचितों की। लेकिनसीता और उसके दो बच्चों की लोकगाथा है।
       लेकिनमैं क्या करूं! दुनिया जानती है कि सीता का एक नाम 'मैथिलीभी है।
       और यह भी कि कठुआ की बेटी आसिफा भी एक छोटी-मोटी सीता ही थी।

वरिष्ठ साहित्यकार कर्मेन्दु शिशिर जी बिना किसी लाग लपेट के कहा कि मेरा प्रसंग यह है कि बिना मुझसे बात किये ही उन लोगों ने नाम दे दिया था। कल शाम को पहली बार उनका फोन आया। वैसे भी मैं ऐसे आयोजनों में एकदम नहीं जाता। ऐसे में मेरे जाने का सवाल ही नहीं था। न जाने का निर्णय तो था ही। वह अखबार भी मैं नहीं लेता। कल फेसबुक पर यह प्रकरण देखा। अब यह कि पहले से न जाने के निर्णय को मैं इस विरोध से जोड़ दूँयह बात लगे हाथ क्रांतिकारी बन जाने जैसा होता। न जाना था न गया लेकिन विरोध प्रसंग में भी चुप रहा। झूठ मुझे पसंद नहीं।
कवयित्री निवेदिता ने बिहार संवादी का बहिष्कार करते हुए कहा- “17 जनवरी 2018 की कठुआ बलात्कार मामले  को लेकर जागरण की ख़बर से गहरे आक्रोश में हूँ।

Friday, April 27, 2018

संघर्ष करता दरभंगा --27-4-18

संघर्ष करता दरभंगा --


प्रकाश भाई ने यह एहसास दिलाया की दरभंगा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के आयोजको ने अपने बुलाये गेस्टो का जहां बिलकुल ध्यान नही रखा , उपेक्षित रखा वही पर प्रकाश बंधू ने आखरी दिन यह बता दिया की अभी मैथली का आथित्य ज़िंदा है |



दरभंगा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के दौरान मेरी नजर एक व्यक्तित्व पर पड़ी बंदे के अस्त व्यस्त कपडे बाल बिखरे कुछ समय के अंतराल पर वो बन्दा आडोटोरियम की सीढियों पर अकेला बैठकर अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट निकालता और अपनी साँसों से वो सिगरेट को एक अंदाज देता धीरे धीरे सुलगती सिगरेट व चारो तरफ घुमती उसकी आँखे जैसे कुछ खोज रही हो , उसको देखते हुए मुझे फैज़ की नज्म मेरे जेहन में घुमने लगी |
'' शफ़क़ की राख में जल-बुझ गया सितारा-ए-शाम
शबे-फ़िराक़ के गेसू फ़ज़ा में लहराये

कोई पुकारो कि इक उम्र होने आयी है
फ़लक़ को क़ाफ़िला-ए-रोज़ो-शाम ठहराये

ये ज़िद है यादे-हरीफ़ाने-बादा पैमां की
कि शब को चांद न निकले, न दिन को अब्र आये

सबा ने फिर दरे-ज़िंदां पे आ के दी दस्तक
सहर क़रीब है, दिल से कहो न घबराये
मेरी उत्सुकता बढ़ चली आखरी दिन उससे परिचय हुआ उस समय मेरे साथ राज त्रिपाठी , फिल्म अभिनेता रफी खान व चम्बल पे काम करने वाले साथी शाह आलम , वरिष्ठ साहित्यकार बड़े भाई श्याम स्नेही जी थे | मेरा कैमरा इन लोगो पर चला वही प्रकाश बंधू से मैं रूबरू हुआ और मैं उनको लेकर एक तरफ हुआ , सिनेमा - थियेटर पे बात करने को हाजिर हूँ सिनेमाटोग्राफर और रंग निर्देशक प्रकाश बन्धु से बातचीत के कुछ अंश -

कबीर -- आप रंगमंच से कैसे जुड़े , और आपकी शिक्षा ?

प्रकाश बन्धु -- प्रकाश बन्धु को रंगमंचीय संस्कार विरासत में मिली। माता-पिता दोनों ही भारत सरकार के सुचना एवं प्रसारण मंत्रालय के गीत और नाटक प्रभाग में बतौर कलाकार थे और बड़े भाई दीपक बन्धु राष्ट्रिय
नाट्य विद्यालय अभिनय में स्नातक। नई दिल्ली बचपन में पढ़ाई
के दौरान बड़े भाई के दिशा- निर्देश पर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित बाल रंग शिविर में रंग निर्देशक शुरेश शेट्टी के निर्देशन में पहली बार मंच से रिश्ता क़ायम किया। स्नातक के दौरान अलग- अलग नाट्य कार्यशालाओं में भाग लेकर अपने आपको रंग-तकनीकों से समृद्ध किया।

कबीर -- किस तरह का रंगमंच करते है आप ? आपने नाटको में कितने प्रयोग किये है ?

प्रकाश बन्धु -- 2001 में दरभंगा भ्रमण के दौरान शहर में वर्षों से चली आ रंगमंचीय खामोशी को तोड़ते हुए "थिएटर यूनिट, दरभंगा" की स्थापना कर दरभंगा को ही अपनी कर्म भूमि बनाया। इस दौरान प्रकाश के सामने कई चुनौतियाँ भी आई जिनमे पहली समस्या थी रंगमंच के लिए दर्शक वर्ग तैयार करना और दूसरी सबसे बड़ी चुनौती थी शहर में एक भी प्रेक्षागृह का न होना। उन दिनों सिर्फ एक चबूतरा नुमा मुक्ताश मंच हुआ करता था जो पुरे दरभंगा का सांस्कृतिक केंद्र था जिसे उस समय के तात्कालिक कुलपति द्वारा
तोड़वा दिया गया और उसके स्थान पर विश्वविद्यालय द्वारा एक घटिया सा सामुदायिक भवन का निर्माण करवा दिया गया जो नाटकों के मंचन के लीये बिलकुल भी उचित नहीं है। तत्पश्चात प्रकाश बन्धु ने नाटकों के मंचन के लिए अलग अलग उपयुक्त स्थानों का चयन किया। कभी भारत सरकार के गीत एवं नाटक प्रभाग के कार्यालय का बरामदा तो कभी दरभंगा का किला या कोई अन्य पौराणिक ईमारत तो कभी टेंट हाउस द्वारा स्टेज बनवाकर। पर ये अत्याधिक खर्चीला होता। प्रकाश बताते हैं कि पिछले तीन वर्षों में मिथिला विश्वविद्यालय द्वरा एक बार पुनः नाट्य विधा के स्नातकोत्तर की पढ़ाई आरम्भ की गयी। विभाग के पास अपना एक छोटा सा प्रेक्षागृह है जो बहुत बेहतर तो नहीं है पर किसी तरह नाटक तो किया ही जा सकता है। नाट्य विभाग ने रंगकर्मियों के लिए इसे पंद्रह सौ रुपय प्रतिदिन पर देना भी शुरू किया पर इसमें भी कई समस्याएं आती ही रहती हैं। पिछले दिनों "रुस्तम सोहराब" नाटक के मंचन के दौरन तो विभागाध्यक्ष ने तो हद ही कर डाला। इस पर हंसी के सिवा अब कुछ और नहीं आती। हाँ वहां पढने वाले छात्रों को लेकर चिंता अवश्य होती है। बहरहाल, अभी प्रकाश बन्धु स्थानीय समाज सेवी मित्र श्री नारायण जी के साथ मिलकर दरभंगा में रंगमंच के लिये एक उचित प्रेक्षागृह के निर्माण की योजना में लगें हुए है। "साधन की अल्पता से महती इक्षाएं कभी अवरुद्ध नहीं होतीं" को अपना मूलमन्त्र मानने वाले प्रकाश बन्धु ने दरभंगा रंगमंच को आधुनिकता के साँचे ढाल एक नई दिशा देने का काम किया है। पिछले चौदाह-पंद्रह वर्षों में प्रकाश बन्धु ने नाटकों की संख्या बढ़ने से ज़्यादा दरभंगा के रंगमंच को तकनिकी,रूप से समृद्ध बनाने और रंगमंच में दर्शकों की भूमिका पर ज़्यादा ज़ोर दिया है। जिसका असर दरभंगा रंगमंच पर साफ़-साफ़ दीखता है। आज बिहार की राजधानी पटना हो या देश की राजधानी दिल्ली, गैर व्यावसायिक नाट्य संस्थाओं के लीये महंगे और बड़े
नाटक(ताम-झाम वाले) बिना सरकारी अनुदान के संभव नहीं है। वहीँ प्रकाश बन्धु बिना किसी सहायता और अनुदान के वर्ष भर अलग-अलग नाट्य प्रस्तुतियाँ देते रहते हैं। आपको बताते चलें कि दरभंगा जैसे शहर में विपरीत परिस्थितियों में भी प्रकाश एक से डेढ़ लाख के बजट का नाटक करते हैं,वो भी टिकट राशि के दम पर जिसका हालिया उदहारण है "आठवाँ सर्ग" और
"रुस्तम सोहराब"। पिछले पंद्रह वर्षों में प्रकाश बन्धु अपनी संस्था के साथ दरभंगा को दर्जनों देसी-विदेशी नाटकों जैसे- अनहद चेहरें, महामहीम, जो घर जारै अपना, बिच्छू, बर्थडे प्रेजेंट, नींद क्यों रात भर नहीं आती, मरणोपरांत, अभिनव जयदेव विद्ध्यापति, अंधा युग, आठवाँ सर्ग, बादशाहत का ख़ात्मा इत्यादि जैसे पूर्णकालिक प्रस्तुतियों के साथ नाट्य कार्यशाला, तीन दिवसीय नाट्य महोत्सव "रंग पेठिया"दिवसीय ( a heart of art and culture), रंगमंच विषयक संगोष्ठी, का भी आयोजन करते हैं।

कबीर आप लम्बे समय से रंगमंच से जुड़े रहने के बाद दरभंगा से निकल कर मुंबई की हुई आपने वहाँ पर क्या क्या कार्य किये है ?

प्रकाश बंधू -- मुम्बई में बतौर अस्सिस्टेंट कैमरामैन प्रकाश बन्धु ने प्रसिद्द कैमरामैन अमित रॉय (जिन्होंने सरकार,निशब्द,आग जैसी कई महत्वपूर्ण सिनेमा का फिल्मांकन किया है।) के साथ काम किया। तत्पश्चात बतौर इंडीपेंडेंट freelance कैमरामैन काम करना शुरू किया। The Awakening,
Angela's Self Requiem, Miyaan Kal Aana, Akhiri Decision(2nd. Unit), Ata Pata Lapata (2nd. Unit) जैसी फिल्मों के टेलीविज़न धारावाहिक जैसे- अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो, विजय देश की आँखें, बाबा ऐसा वार ढूंढो, प्रतिज्ञा, क्राइम पेट्रोल, धरमवीर, बालिका वधु, पृथ्वीराज चौहान इत्यादि का फिल्मांकन किया। प्रकाश बन्धु रंगमंच के लिए पूरी तरह समर्पित है , फिलहाल अपनी तंगहाली में भी प्रकाश भाई ने यह एहसास दिलाया की दरभंगा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के आयोजको ने अपने बुलाये गेस्टो का जहां बिलकुल ध्यान नही रखा , उपेक्षित रखा वही पर प्रकाश बंधू ने आखरी दिन यह बता दिया की अभी मैथली का आथित्य ज़िंदा है |

Thursday, April 26, 2018

बैंको की दोहरी नीति ---26-4-18

बैंको की दोहरी नीति ---

किसानो को आत्महत्या करने पर मजबूर करती है |


कारपोरेटो को दामाद की तरह रखवाली करता है बैंक



किसानो को दिए जाते रहे कृषि ऋण और धनाढ्य कारोबारियों को दिए जाने वाले ''कारपोरेट ऋण '' के सन्दर्भ में कृषि मामलो के ज्ञाता लेखक देविंदर शर्मा के दो लेख 23 जनवरी और 1 मार्च के हिंदी दैनिक 'अमर उजाला ' में प्रकाशित हुए है | 23 जनवरी के लेख में ''किसानो की दयनीयता का उत्सव '' शीर्षक के साथ लिखे लेख में उन्होंने यह रोचक तथ्य उजागर किया है कि ''-- जब भी सरकारे किसानो का ऋण माफ़ करती है या उन्हें कोई सब्सिडी देती है तो उसका जोर - शोर से प्रचार और दिखावा किया जाता है | लाभार्थी किसानो को चेको को बड़े - बड़े कटआउट दिए जाते है | मंत्री , सांसद , विधायक ऋण माफ़ी के आयोजित समारोहों में यह संदेश देने के लिए शिरकत करते है कि उनकी सरकार किसानो की बड़ी हितैषी है |
लेकिन जब जब बड़े उद्योगों की बात आती है , तब भारी कर रियायत देने , बैंको द्वारा उनके बड़े कर्जो -- को बट्टेखाते में डालने और खैरात देने के काम को चुपचाप किया जाता है | विकास को प्रोत्साहन देने के नाम पर उन्हें भारी सब्सिडी गुपचुप तरीके से दे दी जाती है | इसके लिए किसी समारोह का आयोजन नही होता | इन बड़े कारोबारियों को वित्तमंत्री या वाणिज्यमंत्री से बट्टेखाते का प्रमाणपत्र पाने की लाइन नही लगानी पड़ती | इसके साथ यह धारणा भी पनपाई जाती है कि कारपोरेट जगत के बट्टे खाते के कर्ज से भी आर्थिक विकास होता है | जबकि किसानो की ऋण माफ़ी से वित्तीय अनुशासनहीनता बढती है और राष्ट्रीय धन का लेखा - जोखा गडबडाता है |

पंजाब , उत्तर प्रदेश कर्नाटक सरकार द्वारा घोषित ऋण माफ़ी के आयोजित समारोहों की चर्चा करते हुए उन्होंने यह सूचना भी दिया है कि 'विभिन्न राज्यों द्वारा कई वर्षो बाद घोषित फसल ऋण माफ़ी की कुल राशि 75.000 करोड़ रूपये की है | --- जबकि राष्ट्रीयकृत बैंको ने वर्ष 2017 - 18 की पहली तिमाही में ही 55 हजार करोड़ से अधिक राशि के कारपोरेट कर्ज को चुपचाप बट्टेखाते में अर्थात वापस न मिल सकने वाले खाते में डाल दिया --- एक साल पहले 2016 - 17 में बैंको ने 77 हजार करोड़ रूपये के कारपोरेट कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिया था - पिछले 10 सालो में कुल 3 लाख 60 हजार के कारपोरेट कर्ज को बट्टेखाते में डाला गया है - लेकिन इसका लाभ उठाने वाली डिफाल्टर कम्पनियों का नाम तक उजागर नही किया गया | वित्त मंत्रालय के साथ - साथ रिजर्व बैंक ने बार - बार सुप्रीमकोर्ट से अपील किया कि इन कम्पनियों के नामो का खुलासा न किया जाए | क्योकी यह पूंजीनिवेश एवं आर्थिक विकास के लिए वांछनीय नही है |
इसी तरह से 1 मार्च के समाचार पत्र में ''कारपोरेट और किसान में फर्क क्यो '' शीर्षक के साथ लिखे लेख में उन्होंने किसानो को न्यायालय द्वारा दण्डित किये जाने और धनाढ्य कारोबारियों को चुपचाप छोड़े रखने पर चर्चा किया है | उन्होंने पंजाब हरियाणा के किसानो को 50 हजार से लेकर 2 लाख तक के कर्ज न चुका पाने के फलस्वरूप जिला न्यायालय द्वारा उनको दण्डित करने तथा बैंको द्वारा अपना कर्ज निर्ममता पूर्वक वसूले जाने का उदाहरण दिया है | बैंकिंग व्यवस्था के दोहरेपन को उजागर करते हुए उन्होंने लिखा है कि 'गरीब व वंचित तबके के लोगो के साथ बैंकिंग व्यवस्था बड़ी बेहरमी से पेश आती है जबकि धनी , दिवालिया लोगो के लिए उसने अलग नियम बना रखे है | - खबरों के मुताबिक़ 30 सितम्बर 2017 तक अपनी मर्जी से दिवालिया होने वालो की कुल संख्या 9 हजार से अधिक थी | उन्होंने बैंको के कुल 1.1 लाख करोड़ का कर्ज लौटाने से इंकार कर दिया |' उन्हें दण्डित किये जाने की कौन कहे उनका नाम तक उजागर नही किया गया | लेखक ने इस लेख में भी इस बात को पुन दोहराया है कि वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक सर्वोच्च न्यायलय से जान बुझकर दिवालिया होने वाले बड़े कारोबारियों का नाम उजागर न करने का आग्रह कर चुके है | क्योकि उससे निवेशको में गलत संदेश जाएगा |
इसके फलस्वरूप भी धनाढ्य डिफाल्टरो को इसका फायदा बिना किसी विरोध के मिलता रहा है और बैंको का बट्टेखाते वाला कर्ज भी बढ़ता रहा है | उन्होंने आगे लिखा है कि बैंकिंग नियामक का भय सिर्फ आम आदमी के लिए हैं | किसानो के बकाये की वसूली के लिए हर तरह के अमानवीय हथकंडे अपनाये जाते है | लेकिन उन्ही बैंको के द्वारा कारपोरेट कर्जदार के प्रति बहुत उदार रवैया अपनाया जाता है | संसद की लेखा जोखा समिति ने अनुमान लगाया था कि मार्च 2017 तक बैंको का 6 लाख 80 हजार करोड़ का कर्ज बकाया है | इसमें 70% कर्ज कारपोरेट जगत का है और सिर्फ 1 % कर्ज किसानो से सम्बन्धित है | बैंको ने पिछले दस सालो के 3.6 लाख करोड़ की बट्टेखाते की रकम को माफ़ कर दिया है | इन तथ्यों को सुनाने के पश्चात लेखक ने अंत में एक अजीब सा बयाँन भी दिया है की मैं नही समझ पा रहा हूँ की बकाये कर्ज वसूली के लिए कारपोरेट प्रमुखों के साथ वैसा ही व्यवहार क्यो नही किया जाता जैसा की किसानो के साथ किया जाता है - लेखक का बयाँन इसलिए अजीब है कि वे इस बात से अनजान नही हो सकते की सरकारों को , उनके मंत्रियों को किसानो की कर्ज माफ़ी का ढिढोरा एवं समारोही प्रदर्शन करने की आवश्यकता इसलिए पडती है कि उन्हें सत्ता स्वार्थी राजनीति के लिए देश की सबसे बड़ी आबादी के रूप में मौजूद किसानो के चुनावी समर्थन व वोट की आवश्यकता है - जबकि अल्पसंख्या में मौजूद धनाढ्य कारोबारियों के लिए उन्हें ऐसा करने की कोई जरूरत नही है - इस राजनीतिक मजबूरी के अलावा लेखक इस बात से भी अनजान नही हो सकते की राष्ट्र के धन व पूंजी तथा उद्योग - व्यापार के धनाढ्य मालिको और बहुसंख्यक किसानो के हितो में हल न किया जा सकने वाला अंतर मौजूद है | किसानो को महँगे लागत में सामान बेचकर तथा कृषि उत्पादों को न्यूनतम मूल्य पर खरीदकर ही उद्योग व्यापार के मालिक अपने लाभों पूंजियो को बढ़ा सकते है | इसी तरह से सरकारी खजाने से कृषि क्षेत्र में किये जाते रहे निवेश को घटाकर ही धनाढ्य खजाने का अधिकाधिक हिस्सा पा सकती है ऐसा किये बगैर उन्हें सरकारी खजाने से अपने निजी लाभ बढाने के लिए हजारो करोड़ो की टैक्स माफ़ी , कर्ज माफ़ी तथा अन्य प्रोत्साहनो को पाने का अवसर नही मिल,सकता | इसलिए देश विदेश के धनाढ्य कारोबारियों के लिए उदारवादी एवं निजिवादी छुटो , अधिकारों को बढावा देने के साथ किसानो एवं जनसाधारण हिस्सों के छुटो अधिकारों को काटने उन्हें सरकारी एवं गैरसरकारी कर्ज के संकटो में धकेलने उन्हें उसकी अदायगी के लिए मजबूर करते रहने और कभी - कभार ऋण माफ़ी की घोषणा के साथ उनका चुनावी समर्थन लेने के सिवा और कोई दूसरा रास्ता नही है | इन परस्पर विरोधी आर्थिक सामाजिक स्थितियों में देश के विद्वान् बुद्धिजीवी के पास केवल तीन ही रास्ते बचे है | एक तो यह है कि वे खुलकर धनाढ्य कारोबारियों के पक्ष में खड़े हो जाए | उन्ही के विकास को देश का विकास बताये उनके लिए कर्ज माफ़ी और प्रोत्साहन पैकेजों को देश के विकास के लिए उचित बताये | उनके द्वारा किये बैंको की भारी रकम को न देने के वावजूद उनके नाम को उजागर करने को निवेश और विकास के लिए हानिकारक बताये | देश के उच्चस्तरीय अर्थशास्त्री प्रचार माधय्मी हिस्सा यही कह भी रहा है और उसी की आवाज प्रचार माध्यमो में सुनाई भी पड़ रही है | इसके अलावा दूसरी श्रेणी के विद्वान् बुद्धिजीवी में वे लोग शामिल है जो किसानो श्रमजीवियो जनसाधारण के व्यापक हितो के लिए धनाढ्य वर्गो कारोबारियों पर उनके लाभों छुटो एवं अधिकारों पर अधिकाधिक नियंत्रण एकं कटौती को आवश्यक मानते है | विडम्बना है कि इनकी संख्या बल और इनकी आवाज फिलहाल बहुत कमजोर है और वह सुनाई भी नही पड़ती है
तीसरी तरह के विद्वान् वे लोग है जो किसानो एवं जनसाधारण के हितो की कुछ सूचनाये तो प्रस्तुत करते है मगर वे किसानो के हितो के लिए धनाढ्य कारोबारियों के निजी स्वार्थो हितो पर अंकुश व नियंत्रण नही चाहते | वे उसे बरकरार रखते हुए और बढाते हुए किसानो के हितो की बात करते है | उनके साथ सरकारों तथा बैंको की नियामक संस्थाओं द्वारा की जाती रही ज्यादती या नाइंसाफी पर प्रचार माध्यमो में सवाल भी उठाते रहते है | किसानो एवं धंधी कारोबारियों के बीच अपनाए जा रहे भेदभाव पूर्ण व्यवहार पर आश्चर्य दुःख क्षोभ व्यक्त करते रहते है | बताने की जरूरत नही उनका वह दुःख निर्थक साबित होता है |


सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

Tuesday, April 24, 2018

किसानो को हर पार्टी छलती है | 24 - 4-18

किसानो को लामबंद होना जरूरी
किसानो को हर पार्टी छलती है |
इनके सपनों को हर कोई रौदा है |

कोई भी किसान इस तथ्य से इन्कार नही करेगा कि खाद , बीज , बिजली , डीजल तथा कृषि के अन्य आधुनिक ससाधन की बढती महगाई के कारण खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है | हालाकि सरकारों एवं प्रचार माध्यमो ने यहाँ तक कि कृषि विशेषज्ञ एवं किसान समर्थक कहे जाने वाले बौद्धिक हिस्सों ने कृषि लागत घटाने की मांग को कभी उठने ही नही दिया | इसे चर्चा से बाहर रखकर बिना कुछ कहे ही यह साबित करने का प्रयास किया है कि कृषि लागत के सामानों का मूल्य दाम घटाना सम्भव नही है | कृषि लागत मूल्य में बढ़ोत्तरी को एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया मानकर उनके द्वारा कृषि उत्पादों के बेहतर मूल्य- भाव की मांग को ही प्रमुखता से पेश किया जाता रहा है | प्रचार माध्यमो में किसानो की आय बढाने उसे डेढ़ गुना या दो गुना करने आदि के प्रचारों के साथ किसानो की उपज के बेहतर समर्थन मूल्य की , कृषि उत्पादों की बेहतर बिक्री के लिए मंडी के विकास विस्तार आदि की मांग व चर्चा प्रमुखता से उठती रही है |

वास्तविकता यह है कि किसानो द्वारा बेहतर मूल्य भाव की मांग मुख्यत: इसलिए उठायी जाती है कि कृषि लागत खर्च में लगातार वृद्धि होती रहती है | अगर यह वृद्धि कम हो जाए और खाद बीज , डीजल , बिजली तथा कृषि के के मूल्य घटा दिए जाए तो कृषि उत्पादों के मूल्य को बढाने के लिए बारम्बार की जाने वाली मांग की जरूरत ही नही रहेगी | बस लागत और किसान के जीवन के अन्य आवश्यक खर्च के अनुसार कृषि उत्पादों के एक संतुलित मूल्य भाव के मांग की ही आवश्यकता रहेगी | फिर कृषि उत्पादों के मूल्य भाव को एक सीमा से अधिक बढाया भी नही जा सकता | क्योकी खाध्य प्रदार्थ के रूप में कृषि उत्पाद समस्त आबादी के लिए ग्रामीण एवं शहरी आबादी के लिए आवश्यक है | अत: कृषि उत्पादों के मूल्यों में अधिक वृद्धि और कृषि उत्पादों की बढती महगाई का विरोध गैर कृषक आबादी से उठना स्वाभाविक है , जैसा की आम तौर पर होता भी रहा है | फलस्वरूप कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि को एक सीमा तक नियंत्रित रखना भी आवश्यक है |
लेकिन कृषि लागत के बीज , खाद , डीजल ,एवं अन्य ससाधनो के मूल्य को अधिकाधिक घटाने से देश के जनसाधारण आबादी के किसी भी हिस्से को घाटा नही होना है | | वस्तुत: कृषि लागत मूल्य घटाने से इन औद्योगिक एवं तकनीकी मालो , मशीनों , उन्नत बीजो , खादों आदि के उत्पादन व व्यापार की मालिक धनाढ्य कम्पनियों को मिलते रहे उच्च मुनाफो , लाभों में कमी आ जायेगी | उन्हें भी घाटे में नही जाना है | पर इससे आम किसानो को घाटे की स्थितियों से निकलने तथा गैर कृषक हिस्सों को खाद्यानो का संतुलित मूल्यों पर उपलब्ध कराने का सटीक रास्ता जरुर निकल आयेगा | इसीलिए लागत घटाने के लिए धनाढ्य कम्पनियों के लाभों - मुनाफो का घटाया जाना आवश्यक एवं न्यायसंगत है | फिर महगाई कम किये जाने के लिए भी कृषिगत उत्पादों के मूल्यों को ही नही बल्कि औद्योगिक मालो - मशीनों के मूल्यों को भी नियंत्रित किया जाना आवश्यक एवं सर्वथा न्याय संगत है |

फिर महगाई कम किये जाने के लिए भी कृषिगत उत्पादों के मूल्यों को ही नही बल्कि औद्योगिक मालो - मशीनों के मूल्यों को भी नियंत्रित किया जाना आवश्यक है | इसीलिए कृषि उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले बीज खाद एवं अन्य ससाधनो को घटाए जाने की मांग आम किसानो द्वारा एवं गैर कृषक हिस्सों द्वारा भी उठाया जाना चाहिए | इस सम्बन्ध में किसानो को इस महत्वपूर्ण तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए कि कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण एवं नियंत्रण के लिए कृषि लगत एवं मूल्य आयोग पहले से ही बना हुआ है और वह निरंतर सक्रिय भी रहता है | कृषि उत्पादों के लागत खर्च को जोड़कर वह कृषि उत्पादों के मूल्य को निर्धारित करने के साथ सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य बढाने की सलाह देता रहता है | लेकिन यह आयोग भी कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण व नियंत्रण के लिए कृषि में प्रयुक्त औद्योगिक एवं तकनीकी मालो - मशीनों के मूल्य को नियंत्रित करने और घटाने की कोई सलाह नही देता है \ दिलचस्प बात यह है कि इस आयोग का नाम ही कृषि लागत एवं मूल्य आयोग है ?
फिर इससे भी ज्यादा दिलचस्प तथा ध्यान देने वाली बात यह है कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की तरह औद्योगिक लगत - मूल्य आयोग सम्भवत: बनाया ही नही गया है | अगर कोई ऐसा आयोग बना है तो उसके नाम काम का कभी कोई समाचार देखने को नही मिला | क्या औद्योगिक मालो - सामानों का मूल्य नियंत्रण आवश्यक नही है ? अवश्य है सही कहा जाए तो महगाई कम करने के लिए तथा कृषि लागत के सामानों को कम मूल्य पर मुहैया करने के लिए औद्योगिक मालो समानो तकनीको मशीनों के मूल्य नियंत्रण लगाया जाना आवश्यक है | ऐसा किया जाना आवश्यक है कि औद्योगिक सामानों की मालिक कम्पनिया इन उत्पादों और उनके अधिकाधिक मूल्य एवं बिक्री बाजार से करोड़ो अरबो के मुनाफो एवं पूंजियो की मालिक बनती जा रही है | जबकि उन मालो सामानों की बढती महगाई से जनसाधारण समाज के सभी या बहुसंख्यक हिस्से उसके आवश्यक उपभोग और उपयोग से वंचित हो रहे है | जनसाधारण के सभी हिस्सों को एक अधिकार प्राप्त एवं कारगर औद्योगिक लागत एवं मूल्य आयोग के गठन की और उसके द्वारा औद्योगिक ममालो सामानों के मूल्य नियंत्रण व निर्धारण की मांग उठाना आवश्यक है | खासकर समस्याग्रस्त एवं संकटग्रस्त किसानो को तो कृषि लागत के औद्योगिक एवं तकनिकी मालो सामानों ( खाद , बीज , दवा , डीजल , मशीन उपकरण आदि ) के निर्धारण व नियंत्रण की मांग के साथ ऐसे स्वायत्त आयोग की मांग उठाना आवश्यक है | दोनों मागो को किसान आन्दोलन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मांग बनाया जाना आवश्यक है | लेकिन इस मूल्य निर्धारण व नियंत्रण का वास्तविक समर्थन उन्हें किसी सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी नेताओं तथा उच्चस्तरीय प्रचार माध्यमि विद्वानों कृषि वैज्ञानिको एवं बहुचर्चित किसान हिमायतियो से नही मिल सकता | लेकिन क्यो ? क्योकि इससे कृषि लागत के औद्योगिक मालो सामानों की मालिक धनाढ्य कम्पनियों के ऊँचे लाभ मुनाफो में गिरावट का आना निश्चित है | इसलिए धनाढ्य कम्पनियों इसे स्वीकार नही करेंगी और न ही उनको शासन सत्ता के जरिये नीतिगत योजनाबद्ध रूप में बढ़ावा देने में लगी सत्ताधारी पार्टियों के उच्चस्तरीय राजनेता अधिकारी व् विद्वान् इसे स्वीकार कर सकते है | वे स्वंय भी इन्ही धनाढ्यो की धन पूंजी के बूते आय - व्यय सुख सुविधा का उपभोग करते है | अपनी सम्पत्तियों सुविधाओं को बढाते रहते है | इसलिए कृषि लगत के खर्च को घटाने की मांग को स्वं की किसानो को ही करना होगा अब फिर से किसानो को लामबंद होना पड़ेगा तभी वो अपनी खेती किसानो को बचा सकता है अन्यथा .........

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक --

Thursday, April 19, 2018

बाजारीकरण ने नारी के जननी होने की युगों पुरानी गरिमा को कलंकित करने का काम किया है ? 19-4-18

बाजारीकरण ने नारी के जननी होने की युगों पुरानी गरिमा को कलंकित करने का काम किया है ?


पिछले 15-20 सालो से महिला सशक्तिकरण एक बहुचर्चित मुद्दा बना हुआ है | महिलाओं में सुन्दर दीखने - दीखाने का चलन बढ़ता चला जा रहा है | इन सालो में शहरों से लेकर कस्बो तक में व्यूटी पार्लर के बढ़ते सेंटर के साथ नये - नये किस्म के और हर रंग रोगन वाले प्रसाधन के मालो - सामानों का बढ़ता बिक्री बाजार सुन्दर दिखने - दिखाने के इसी चलन को परीलक्षित करता है | इस सन्दर्भ में 8 मार्च के दैनिक जागरण में महिला लेखिका क्षमा शर्मा जी का ''सौन्दर्य केन्द्रित स्त्री विमर्श '' शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ था | लेखिका का कहना है कि महिला सशक्तिकरण के नाम पर औरतो को सुन्दर दिखने और बालीवुड को आदर्श बनाये जाने के कारण भी इन दिनों तमाम उम्र दराज महिलाए भी अपने हाथो , चेहरे और गर्दन की झुरिया मिटवा रही है | औरतो की यह छवि बनाई गयी है कि अगर वे सुन्दर नही है तो किसी काम की नही है | उनका जीवन व्यर्थ है | खुबसूरत दिखने की चाहत कोई बुरी बात नही है , लेकिन सब कुछ भूलकर सिर्फ खुबसूरत दिखने की बात ही अब प्रमुख हो गयी है | ---
महिलाओं को सौन्दर्य के इन उल जुलूल मानको को चुनौती देनी चाहिए थी , मगर ऐसा होते हुए कही दीखता नही | दीखता तो वह है , जिसे स्त्रीवादी नारों में लपेटकर बेचा जाता है और मुनाफ़ा कमाया जा रहा है | --
औरतो का असली सशक्तिकरण उसकी बुद्धि और कौशल से ही हो सकती है , लेकिन जब तक लडकियों को यह सिखाया जाता रहेगा कि तुम्हारे जीवन का मूलमंत्र सुन्दर दिखना भर है , तब तक महिलाओं के सशक्तिकरण की राह आसान होने वाली नही है |
लेखिका ने महिलाओं , लडकियों में सुन्दर दिखाने की बढती प्रवृति को अपने लेख में कई ढंग से उठाया है और उस पर सही व सटीक टिपण्णी तथा आलोचना भी किया है | पर उन्होंने इस प्रवृति व चलन के कारणों व कारको पर लेख में कोई चर्चा नही किया है | फिर उन्होंने इस अंध सौन्दर्यबोध एवं प्रचलन को रोकने के किसी कारगर तरीके को भी नही सुझाया - या बताया है | हाँ यह बात जरुर कही है कि औरत का असली सशक्तिकरण उनके बुद्धिकौशल से ही हो सकता है , न की सौन्दर्य के प्रतिमानों पर खरा उतर कर '|
लेखिका की इस बात में बुद्धि और कौशल के साथ श्रम को भी अनिवार्य रूप से जोड़ा जाना चाहिए | सही बात तो यह है कि पुरुषो व महिलाओं के श्रम ने ही उन्हें और पूरे समाज को सशक्त बनाने का काम किया है | उनके श्रमबल ने ही परिवार और समाज को बुद्धि एवं कौशल के क्षेत्र में भी सशक्त बनाया है | इसके बावजूद श्रम , बुद्धि एवं कौशल को खासकर श्रम व श्रमिक वर्ग की महिला एवं पुरुष को महत्व नही दिया जाता | अधिकाधिक पैसा पाने ,कमाने वाली को कही ज्यादा महत्व मिलता है , जबकि अधिकाधिक श्रम से घर परिवार व समाज को खड़ा करने महिलाओं व पुरुषो को आमतौर पर कोई महत्व नही मिल पाता | वास्तविकता है कि आधुनिक युग में धन - सम्पत्ति , पैसे - पूंजी के साथ उनके द्वारा बढावा दिए जाने वाले मुद्दों - मसलो को ही प्रमुखता मिलती रही है | पैसे , पूंजी तथा उत्पादन बाजार के धनाढ्य मालिको द्वारा नारी सुन्दरता के विज्ञापन प्रदर्शन को बाजार व प्रचार का प्रमुख मामला बना दिया गया है | इसी के फलस्वरूप नारी की दैहिक सुन्दरता और उसके प्रतिमान लडकियों , महिलाओं के आदर्श बनते जा रहे है |
मध्ययुग में सामन्ती मालिको ने नारी और उसकी दैहिक सुन्दरता को अपने भोग - विलास के रूप में अपनाने का काम किया था | उनके चारणों ने वैसे ही वर्णन लेखन को प्रमुखता से अपनाया था | हालाकि उसका असर जनसाधारण पर बहुत कम पडा | लेकिन आधुनिक उद्योग व्यापार के धनाढ्य मालिको ने नारी सुन्दरता को अपने मालो - सामानों के प्रचार विज्ञापन का प्रमुख हथकंडा बना लिया है | उन्होंने पुरुष समाज में नारी की दैहिक सुन्दरता के प्रति बैठे सदियों पुरानी भावनाओं , प्रवृत्तियों का इस्तेमाल अपने मालो - सामानों के विज्ञापनों एवं प्रचारों को बढाने में कर लिया है | बढ़ते माल उत्पादन तथा उसके बिक्री बाजार के साथ नारी सुन्दरता के इस इस्तेमाल का , उसके अधिकाधिक प्रदर्शन का चलन भी बढ़ता जा रहा है | नारी सौन्दर्यबोध के लिए प्रतिमानों के , उन्हें बढाने वाले प्रतिष्ठानों तथा प्रसाधन के ससाधनो की बाढ़ आती गयी है | इसी के साथ नए धंधे के रूप में उच्चस्तरीय फैशनबाजी माडलबाजी को लगातार बढ़ाया जाता रहा है | अंतर्राष्ट्रीय , राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर ब्यूटी क्वीन चुने जाने की चलन सालो साल बढ़ता रहा है | विकसित साम्राज्यी देशो में यह चलन काफी पहले से शुरू हो गया था | इस देश में भी इसका चलन 1980 - 85 के बाद जोर पकड़ता गया है | जैसे - जैसे देश - विदेश की धनाढ्य कम्पनियों को अधिकाधिक छूटे व अधिकार देने के साथ उनके मालिकाने के उत्पादन व बाजार को बढ़ावा दिया जाता रहा है , वैसे - वैसे उन मालो - सामानों के विज्ञापन प्रचार में नारी की दैहिक सुन्दरता का प्रचार बढ़ता रहा है | अर्द्धनग्न रूप में नारी सुन्दरता का प्रचार बढ़ता रहा है | पुरुषो की तुलना में नारियो को माडलों , फिल्मो सीरियलों से लेकर अब आम समाज में कम से कम वस्त्रो के साथ पेश किया जाता है | उपर से नीचे तक फ़ैल रहे या कहिये फैलाए जाते रहे नारी देह की बहुप्रचारित सुन्दरता का इस्तेमाल अब लडकियों , लडको की युवा पीढ़ी को फँसाये रखने के लिए तथा उन्हें जीवन की तथा समाज की गंम्भीर समस्याओं से विरत करने के लिए भी किया जा रहा है | नारी सुन्दरता के साथ यौन सम्बन्धो का खुले रूप में बढाये जाते रहे प्रोनोग्राफी आदि के बढ़ते प्रचारों के जरिये खासकर अल्पव्यस्क एवं युवा वर्ग के लोगो में ''सेक्स का नशा '' बढ़ाया जा रहा है | शराबखोरी एवं ड्रग्स एडिक्शन की तरह इसे एक नशे की तरह आम समाज में उतारा गया है | यह महिला उत्पीडन एवं बलात्कार को बढाने का एक अहम् कारण बनता जा रहा है | इस बात में कोई संदेह नही है कि आधुनिक बाजारवादी जनतांत्रिक युग ने घर परिवार के दायरे में सीमित नारियो को उससे बाहर निकलने का अवसर प्रदान किया है | आधुनिक उत्पादन बाजार , यातायात , संचार , शिक्षा , ज्ञान शासन प्रशासन के क्षेत्रो में तथा अन्य प्रतिष्ठानों कामो , पेशो में भी लडकियों महिलाओं को भागीदारियो करने का अवसर प्रदान किया है | पिता, पति , पुत्र की पहचान से जोड़कर देखी जाने वाली नारी समुदाय को अपने पैरो पर अपनी पहचान के साथ खड़ा होने का गौरव प्रदान किया है | नारी को सशक्त बनाने का काम किया है | लेकिन इसी के साथ आधुनिक युग के बाजारवाद ने उसके अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर के धनाढ्य मालिको संचालको ने नारी के जननी होने की युगों पुरानी गरिमा को गिराने और कलंकित करने का भी काम किया है | उसको मातृत्व की गरिमामयी आसन से उतारकर बाजारी विज्ञापन का वस्तु बनाने का काम किया है | उसकी दैहिक सुन्दरता को कम से कम वस्त्रो में प्रदर्शित करके उस देह में विद्यमान उसकी श्रमशीलता और मातृत्व को महत्वहीन करने का भी काम किया है | ''भोग्या नारी '' के रूप में उस पर हमलोवरो से घिरे समाज की असुरक्षित नारी बनाने का काम किया है |
यह स्थिति आधुनिक युग के विभिन्न क्षेत्रो में महिलाओं की बढती भागीदारी के फलस्वरूप उनके बढ़ते अशक्तिकरण का भी ध्योतक है | ज्यादातर महिलावादी संगठन और नारी स्वतंत्रता समर्थक सगठन आधुनिक युग में महिलाओं के बढ़ते अशक्तिकरण पर , उसके दैहिक सौन्दर्य के बाजारवादी एवं धनाढ्य वर्गीय इस्तेमाल पर और इसे बढावा देने वाली बाजारवादी उपभोक्तावादी संस्कृति पर एकदम नही बोलते | उस पर बढ़ रहे हमलो तथा यौन उत्पीडन के लिए कुछ अराजक तत्वों को ही दोषी मानकर मामले को रफा दफा कर देते है | हालाकि यह मामला आधुनिक युग की बाजार व्यवस्था का तथा उसकी उपभोक्तावादी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है | इस संस्कृति और नारी स्वतंत्रता के नाम पर उसे बढ़ावा देने वाले धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों का विरोध किये बिना नारियो का वास्तविक सशक्तिकरण सम्भव नही है |नारी देह की सुन्दरता के बढाये जा रहे बाजारीकरण के साथ नारी सशक्तिकरण सम्भव नही है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - साभार चर्चा आजकल

Wednesday, April 18, 2018

लगातार छले जा रहे है किसान 18-4-18

लगातार छले जा रहे है किसान
14 मार्च के दैनिक जागरण में प्रकाशित अपने ब्यान में केन्द्रीय जल ससाधन मंत्री श्री नितिन गडकरी ने कहा है कि बड़े बाँध बनाने में मंत्री से लेकर नौकर शाह तक बहुत खुश होते है , लेकिन कमांड एरिया डेवलपमेंट यानी सिचाई के लिए बाँध का पानी खेतो तक पहुचाने के लिए नहर प्रणाली में किसी की रूचि नही है | श्री गडकरी ने आगे कहा कि ''वे बाँध के खिलाफ नही है | लेकिन वे चाहते है कि इससे मिलने वाला शत प्रतिशत जल कृषि उत्पादन को बढाने के काम आये | इसके लिए नहर से लेकर खेतो की नालियों तथा जल के वैज्ञानिक प्रबन्धन पर काम किया जाए ताकि कृषि उत्पादन का बढ़ना निश्चित है | अपने इस ब्यान में उन्होंने अपने मंत्रालय द्वारा त्वरित सिचाई लाभ प्रोग्राम और उसके लिए आवंटित 78000O करोड़ रूपये की 99 परियोजनाओं का भी जिक्र किया | बताने की जरुरत नही है कि सिचाई के लिए घोषित त्वरित एवं दूरगामी परियोजनाए सालो - साल तक लंबित पड़ी रहती है | उनके लिए आवंटित धन को अंशत: व पूर्णत: हजम कर लिया जाता है , मगर वे परियोजनाए आगे नही बढ़ा पाती | इसका सबूत श्री गडकरी के ब्यान में स्पष्ट झलकता है | उन्होंने उसे सिंचाई के लिए बाँधो से कमांड एरिया की नहरों नालियों के विकास में रूचि न लेने की बात कही है | हालाकि यह रूचि लेने का या न लेने का मामला नही है और न ही मामला प्रान्तों के मंत्रियो अधिकारियों तक सीमित ही है | वस्तुत: मंत्रियों , अधिकारियो में सिचाई के विकास विस्तार के प्रति अरुचि व निष्क्रियता कृषि विकास और उसके लिए सरकारी निवेश एवं सार्वजनिक योजनाओं के क्रियान्वन में की जाती रही नियोजित कम - कटौती का नतीजा है | इसे केन्द्रीय जल ससाधन मंत्री बेहतर जानते है उनके लिए यह बात अनजानी नही हो सकती कि 1990 के दशक से ही सार्वजनिक सिंचाई योजनाओं , प्रोग्रामो को हतोत्साहित करते हुए किसानो को सिचाई के लिए स्वंय अपना निजी ससाधन ( अर्थात निजी पम्प सेट ) लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है | नहरों एवं सरकारी ट्युबेलो को विस्तार देने या उसे बनाये रखने का काम भी ठप्प या लगभग खत्म कर दिया गया है | बजट और बजट से इतर घोषित सार्वजनिक सिचाई योजनाओं को मुख्यत: कागजी या बयानबाजी की घोषणाओं में बदल दिया गया है | इन तथ्यों के बाद श्री गडकरी के यह कहने कि गुंजाइश कहाँ रह जाती है कि सिचाई के लिए कमांड एरिया डेवलपमेंट में मंत्रियों एवं नौकरशाहों को कोई रूचि नही है | अगर केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारे पहले की तरह सार्वजनिक सिचाई योजनाओं को बढावा देने में लगी रहती तो मंत्रियों व अन्य नौकर शाहों को उसे आगे बढ़ाना पड़ता | उसके विकास में रूचि लेनी पड़ती | बशर्ते की पहले से निर्मित नहर प्रणाली को कारगर बनाये रखा जाता | खेती के सूखने से पहले ही नहरों का सूखापन खत्म किया जाता |
लेकिन जब कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश घटाने के साथ सार्वजनिक सिचाई को काटने घटाने का नीतिगत एवं योजनागत काम किया जाता रहा तब शासकीय प्रशासकीय हिस्सों से तब नहरों एवं सार्वजनिक नलकूपों का कारगर बनाने की कोई उम्मीद नही की जा सकती | सार्वजनिक सिचाई और कमांड एरिया विकास के प्रति मंत्रियों अधिकारियो में रूचि पैदा नही की जा सकती | श्री गडकरी जी के ब्यान में इस अरुचि को आगे करके सभी सरकारों द्वारा पिछले 20 - 25 सालो से कृषि व सार्वजनिक सिचाई में निरंतर की जाती राजी कटौती की सुनियोजित नीतियों व योजनाओं पर पर्दा डालने का कम किया गया है |

बड़ा कौन ? अमेरिका या विश्व व्यापार सगठन ? 18-4-18

बड़ा कौन ?
अमेरिका या विश्व व्यापार सगठन ?
अम्रीका की पाली - पोसी बिल्ली ( डब्लू टी ओ ) पर गुर्राने की हिम्मत कैसे कर सकती है ?
अमेरिका ने चन्द दिन पहले ही दूसरे देशो से अमरीका में होने वाले स्टील व अलमुनियम पर आयात शुल्क बढ़ाकर उस पर लगाम लगाने की घोषणा किया | फलस्वरूप इन देशो के स्टील व अलमुनियम के अमरीकी व्यापार बाजार में कमी आनी स्वाभाविक है | अमरीका ने यह घोषणा अपने देश के स्टील व अलमुनियम उद्योग को सरक्षंण देने के नाम पर किया है | उसकी घोषण से चीन , भारत जैसे देशो के स्टील , अलमुनियम उद्योग और उसका अंतर्राष्ट्रीय निर्यात भी जरुर प्रभावित होगा | इस देश के प्रचार माध्यमो में इस पर चिंता भी की जा रही है | अमरीका के सरक्षणवादी कदम पर इस देश द्वारा तथा कई अन्य देशो द्वारा विरोध जताया गया है | इसे विश्व व्यापार सगठन ( डब्लू टी ओ ) की बैठक में उठाने की बात भी की गयी है | लेकिन अमेरिका और वहाँ के शासन प्रशासन ने उसे अनसुना करते हुए डब्लू टी ओ को ठेंगा दिखा दिया | अमरीका प्रशासन ने डब्लू टी ओ पर यह कहकर हमला कर दिया कि डब्लू टी ओ एक अप्रभावी व्यवस्था है | अमरीका ने डब्लू टी ओ के नियमो , करारो की परवाह किये बिना भारत सहित कई देशो के विरुद्ध कारोबारी जंग की धमकी दी है | 19 मार्च को विश्व व्यापार सगठन के महानिदेशक श्री अजवेदों भारत द्वारा आयोजित दो दिवसीय लघु मंत्री मंडलीय सम्मेलन में भाग लेने दिल्ली आये हुए थे | भारतीय बड़े उद्योगों के सगठन (सी आई आई) द्वारा आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने अमरीका द्वारा डब्लू टी ओ की अवहेलना तथा आलोचना की चर्चा पर कहा कि अमरीका डब्लू टी ओ का समर्थन करता है | उन्होंने कहा कि सगठन की कार्य प्रणाली को लेकर अमरीका की कुछ चिंताए है | उन्होंने उसे रेखांकित करते हुए कहा कि'अमरीका का कहना है 1995 में डब्लू टी ओ के वजूद में आने के बाद दुनिया में तमाम अहम् बदलाव हुए है | उन्हें देखते हुए इस सगठन में कुछ उन्नयन व सुधार की जरूरत है
ध्यान देने लायक बात है कि डब्लू टी ओ में उन्नयन व सुधार की बात खुद डब्लू टी ओ के महानिदेशक व अन्य पदाधिकारियों ने तथा अन्य सदस्य देशो ने नही बल्कि अमरीका ने ही कहा है | अमरीका ने यह बात डब्लू टी ओ को निष्प्रभावी कहते हुए तथा उसके न्यायाधिशो की नियुक्तिमें व्यधान डालते कही है |
यह है अमरीका और सभी देशो से बराबर का बर्ताव का दावा करने वाले वैश्विक सगठन डब्लू टी ओ में अंतर | विश्व व्यापार सगठन अगर मिमियाता हुआ अमरीका की चिंता को स्वीकार कर रहा है तो अमरीका गुर्राने के अंदाज में उसे निष्प्रभावी बता रहा है | स्वाभाविक है कि इसमें दबना डब्लू टी ओ को ही है | उसे ही अमरीका सुझाव के अनुसार डब्लू टी ओ के न्यायाधिशो की नियुक्ति करना और फिर सगठन के तथा कथित उन्नयन का प्रस्ताव देना है | फिर उसे बहुसंख्यक देशो से स्वीकार करवाना है |
डब्लू टी ओ नाम की संस्था 1995 से पहले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सगठन को सचालन के लिए बने एक ढीले - ढाले सगठन - गाट ( व्यापार एवं चुंगी पर आम समझौता ) थी उसी सगठन को 1995 से पहले विश्व व्यापार सगठन में बदल दिया गया था | इस सगठन के महानिदेशक के जरिये दिए गये डंकल प्रस्ताव पर सदस्य देशो की सहमती लेने का भी काम किया गया था | क्या यह काम मुख्यत: डब्लू टी ओ के पधाधिकारियो ने किया था ? नही , इस सगठन को आगे करके यह यह काम अमरीका के नेतृत्व में सभी विकसित साम्राज्यी देशो ने किया था | 1989 में सोवियत रूस के पतन के बाद अपने वैश्विक व्यापार एवं वैश्विक प्रभाव प्रभुत्व को बढाने के लिए किया था | फलस्वरूप अमरीका को डब्लू टी ओ पर गुर्राने और डब्लू टी ओ के मिमियाने पर कोई आश्चर्य नही होना चाहिए | आखिर अमरीका की पाली पोसी बिल्ली उसी पर गुर्राने की हिम्मत भला कैसे कर सकती है ?

Monday, April 16, 2018

गिलोटिन प्रणाली से बजट पास -- 16-4-18

गिलोटिन प्रणाली से बजट पास --
देश के प्रधान को आम आदमी की कोई चिन्ता नही -
मार्च के दूसरे सप्ताह में लोक सभा ने केन्द्रीय बजट को बिना किसी चर्चा - बहस के 30 मिनट में पास कर दिया | इसके अंतर्गत 89 .23 लाख करोड़ रूपये की व्यय योजना के साथ वित्त विधेयक एवं विनियोग विधेयक को पास कर दिया गया | बजट में 99 केन्द्रीय मंत्रालयों और विभागों की बजट माँगो के साथ लगभग 200 सशोधनो को भी पास कर दिया | सरकार का नेतृत्व कर रही भाजपा को सदन में बजट के विभिन्न पहलुओ पर किसी चर्चा - माँग तथा सवाल - जबाब का सामना नही करना पडा | क्योकी विपक्ष द्वारा पंजाब नेशनल बैंक घोटाला को लेकर तथा आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने जैसे मुद्दे को लेकर की जाती रही माँगो , हंगामो तथा सत्ता पक्ष द्वारा उसे अनसुना करते रहना के फलस्वरूप लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाई लगातार बाधित होती रही | दोनों सदनों के अध्यक्ष सदन की बैठको को बार - बार स्थगित करते रहे |
सरकार ने इस स्थिति का लाभ उठाकर लोकसभा अध्यक्ष की सहमती के साथ बिना किसी बहस चर्चा के ही बजट पास करवा दिया | हालाकि इसके लिए अभी 5 अप्रैल तक का वक्त था | बिना किसी बहस के संसद में बजट पास करने की इस प्रणाली को गिलोटिन प्रणाली का नाम दिया गया है इस प्रणाली के जरिये इस बार के बजट को लेकर तीन बार का बजट पास किया जा चूका है | 2003 - 2004 भाजपा नेतृत्व की राजग सरकार के कार्यकाल के दौरान तथा 2013-14 में कांग्रेस के नेतृत्व के कार्यकाल के दौरान भी ऐसा ही किया गया था | बिना किसी चर्चा या बहस के या कम से कम चर्चा - बहस के साथ बजट पास करने की यह प्रणाली अचानक नही खड़ी हुई है | यह प्रणाली पिछले 20 - 25 सालो में लगातार चलने वाली एक परिपाटी का रूप धारण कर चुकी है | जबकि इससे पहले खासकर 1990 से पहले बजट के मुद्दों पर , उसमे किये गये सशोधनो पर कई दिनों तक चलते चर्चाओं समाचारों - सूचनाओं के साथ बजट के मुद्दे साधारण पढ़े - लिखे लोगो में भी चर्चा - बहस का मुद्दा बना करता था | लेकिन 1991 - 95 के बाद से इस चलन में बदलाव आता गया | प्रश्न है कि यह बदलाव क्यो आया ? थोड़ी मांग व चर्चा के साथ आनन - फानन में बजट पास करने का चलन क्यो चलाया गया ? क्या इसके लिए लिए सदन में पक्ष विपक्ष के बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर आये दिन खड़ी होती रही हठधर्मिता , विभिन्न मुद्दों को लेकर मचता शोर शराबा आदि ही जिम्मेदार है | निसंदेह: ऐसी स्थितियाँ तथा सता पक्ष और विपक्ष के सासंदों का अराजकतापूर्ण रवैया भी इसके लिए जिम्मेदार है | लेकिन इसका आसली कारण दूसरा है |
वह कारण देश में 1991 में लागू की गयी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नीतियों और 1995 में लागू किये गये विश्व व्यापार सगठन के अंतरराष्ट्रीय प्रस्ताव ( डंकल प्रस्ताव के प्राविधानो ) में निहित है | 1995 के बाद से सभी सरकारों द्वारा इन नीतियों एवं प्रस्तावों एवं उसके अगले चरणों अनुसार ही बजटीय प्राविधानो को बनाया व पास किया जाता रहा है | डंकल प्रस्ताव को भी संसद में बिना चर्चा बहस के ही लागू किया गया था | नई आर्थिक नीतियों एवं डंकल प्रस्ताव को देश के आधुनिक विकास हेतु वैश्विक सम्बन्धो को अधिकाधिक बढाये जाने की आवश्यकता को बताते हुए लागू किया गया था | उसके अनुसार ही देशी व विदेशी निदेशको को अधिकाधिक छूट व अधिकार देने तथा जनसाधारण के हितो को निरंतर काटने घटाने के बजटीय एवं गैरबजटीय प्राविधानो को आगे बढ़ाया जाता रहा है | इन नीतियों तथा प्रस्तावों के प्राविधानो और उसे आगे बढाने के बजटीय एवं गैरबजटीय निर्धारण में मोटे तौर पर सभी सत्ताधारी पार्टिया एक जुट रही है | हालाकि वामपंथी पार्टिया इनको साम्राज्यी एवं पूंजीवादी नीतियों और उसी के अनुसार किये गये बजटीय प्राविधानो कहकर उसका जबानी विरोध करती रहती है | लेकिन उनके वाममोर्चे की सरकार उसे अपने शासन के प्रान्तों में लागू करने में पीछे नही रही | उसे वे अपनी मज़बूरी बताकर नही बल्कि अन्य पार्टियों की तरह ही प्रांतीय क्षेत्र विकास के लिए आवश्यक बताकर लागू करती रही | इन स्थितियों में बजट के मुद्दों को लेकर खासकर बड़े मुद्दों को लेकर चर्चा - बहस का कोई मामला अब नही रह जाता | मुख्यत: इसीलिए बजट पर अब संसद से लेकर समाचार पत्रों एवं अन्य प्रचार माध्यमो में बजट पेश होने के बाद एक दो दिन तक ही चर्चा चलती है , फिर उस पर कोई चर्चा नही चलती | लोगो के बजट में जनहित के मुद्दों की निरंतर की जाती रही उपेक्षा से लोगो का ध्यान हटाने के लिए भी बजटीय प्राविधानो पर चर्चा नही किया जाता है | यही कारण है कि संसद में बजट पेश होने से पहले या पेश होने के तुरंत बाद दुसरे मुद्दों को लेकर हंगामा खड़ा कर दिया जाता है | उसी हंगामे के बीच थोड़ी - बहुत चर्चा के साथ या बिना चर्चा किये ही बजट पास करने और उसके लिए प्रयुक्त की गयी गिलोटिन प्रणाली का प्रमुख कारण संसद का हल्ला हंगामा नही ,, बल्कि बजट पास करने उसकी चर्चाओं से जनसाधारण का ध्यान हटाने के लिए चलाई जा रही वर्तमान परिपाटी है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार

Saturday, April 14, 2018

लामबंद होता किसान 14-4-18

लामबंद होता किसान

महाराष्ट्र में लगभग 40.000 किसानो ने नासिक से मुंबई तक की 200 किलोमीटर की पदयात्रा करके 11 मार्च को मुंबई की सडको पर मार्च किया | उन्होंने अपनी मांगो को लेकर महाराष्ट्र विधान सभा को घेरने का निश्चय किया था | लेकिन वैसी स्थिति आने से पहले ही महाराष्ट्र सरकार के मुख्यमंत्री ने उनकी कुछ मांगो को मानते हुए और कुछ पर सहानुभूति पूर्वक विचार करके उन्हें मनाने का आश्वाशन देकर वहाँ से विदा किया |
किसानो की इस पदयात्रा आन्दोलन को हिंदी व अंग्रेजी समाचार पत्रों ने कम जगह दी | ज्यादातर समाचार पत्रों ने 11 मार्च को मुंबई में किसानो के पहुचने के बाद ही उसे समाचार के रूप में प्रकाशित किया | यह बड़े प्रचार माध्यमो द्वारा किसानो और उनके आंदोलनों के प्रति उपेक्षा पूर्ण रवैये को ही प्रदर्शित करता है | उनका यह उपेक्षा पूर्ण रवैया इस रूप में भी प्रदर्शित हुआ है कि किसी भी समाचार पत्र ने उनकी सभी मांगो को प्रकाशित नही किया है | इसीलिए उनकी मांगो के बारे में भी पूरी जानकारी नही मिल पाई | मोटे तौर पर उनकी मांगो में हर तरह के कृषि ऋण की माफ़ी , वन अधिकार अधिनियम लागू किये जाने , कृषि उद्पादों के लिए लाभप्रद मूल्य तय किये जाने , स्वामीनाथन आयोग के सुझावों को लागू करने की , नदी जोड़ योजना के जरिये सार्वजनिक सिंचाई को बढावा देने की , विभिन्न परियोजनाओं के लिए कृषि का अधिग्रहण रोकने आदि की मांगे शामिल है | महाराष्ट्र सरकार ने इन मांगो पर विचार कर उसे पूरा करने के लिए छ: माह का समय लिया है | ध्यान देने वाली बात है कि महाराष्ट्र पिछले 7 - 8 सालो से किसानो की आत्महत्या का सबसे अग्रणी प्रान्त बना हुआ है | पर वहाँ की सरकारे इस बात की अनदेखी करती रही है | देश की केन्द्रीय व अन्य प्रांतीय सरकारे भी किसानो के बढ़ते संकटो , समस्याओं की तथा 1995 से उनमे बढ़ते रहे आत्महत्याओं की अनदेखी करती रही है | इन स्थितियों एवं उपेक्षाओ को देखते हुए अब विभिन्न पार्टियों एवं मोर्चो सरकारों द्वारा किसानो को दिए आश्वासन विश्वसनीय नही रह गये है | अभी पिछले साल महाराष्ट्र सरकार द्वारा कर्जमाफी योजना के तहत 340 अर्ब रूपये का पॅकेज घोषित किया गया था | लेकिन उसमे से अब तक केवल 138 करोड़ रूपये के ही कर्जो का माफ़ होना भी इसी का परीलक्षण है |

इसे देखते हुए इस बात की उम्मीद नही कि अगले छ: माह में महाराष्ट्र की सरकार या देश - प्रदेश की अन्य सरकारे किसानो की समस्याओं एवं उनकी मांगो का कोई भी संतोषप्रद समाधान प्रस्तुत करेगी | इसकी उम्मीद इसलिए भी नही है कि देश के तीव्र आर्थिक वृद्धि व विकास के नाम पर कृषि क्षेत्र के महत्व को लगातार घटाया जा रहा है | कृषि भूमि शहरीकरण करने तथा ढाँचागत परियोजनाओं एवं निजी औद्योगिक व्यापारिक क्षेत्र को विकसित करने के नाम पर उसको संकुचित किया जा रहा है | वनों की भूमि पर भी उद्योग व्यापार के धनाढ्य मालिको , माफियाओं द्वारा कानूनी व गैरकानूनी तरीको से कब्जा किया जाता रहा है | कृषि लागत मूल्य को अनियंत्रित रूप से बढने की छुट देते हुए तथा कृषि उद्पादों के मूल्यों पर अधिकाधिक नियन्त्रण करते हुए सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी मुख्यत: घोषणाओं तक ही सीमित किया जा चूका है | फलस्वरूप खेती - किसानी के लागत की और जीवन की अन्य आवश्यक आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए किसानो का सरकारी व् महाजनी कर्ज के संकटो में फसना इनकी नियति बन गयी है | इस कर्ज संकट से और कभी - कभार की कृषि ऋण माफ़ी से उन्हें कर्ज की निरंतर बढती आवश्यकता और फिर उसमे बढ़ते फसांन से मुक्ति नही मिल सकती है | कई प्रान्तों में कर्ज माफ़ी की घोषणाओं और उनके थोड़े या ज्यादा क्रियान्वयन के वावजूद किसानो की आत्महत्या जारी है | स्वामीनाथन आयोग भी किसानो के बढ़ते लागत खर्च को घटाने का कोई सुझाव नही प्रस्तुत करता | इसलिए आयोग के सुझावों को मान लेने के बाद भी किसानो का संकट कम होने वाला नही है | यह इसलिए भी कम होने वाला नही है कि कृषि विकास की योजनाओं की नीतियों को आगे बढाने और उसके लिए सरकारी धन के निवेश की प्रक्रिया को 1990 के दशक से ही घटाया जा रहा है | कृषि ऋण की मात्रा को बढाते और उसे लाखो करोड़ में पहुचाते हुए सरकारी निवेश को निरंतर घटा रही है सरकारे | इसलिए किसानो को अब अपने हितो के प्रति कहीं ज्यादा सजग और सगठित व आंदोलित होने की आवश्यकता है | महाराष्ट्र के किसानो ने अपनी पदयात्रा आन्दोलन में इसे प्रदर्शित कर दिया है | लेकिन अभी उसे वहाँ की अखिल भारतीय किसान सभा का एक तात्कालिक प्रयास ही माना जाएगा | हाँ ! यह प्रयास घनात्मक है | क्योकि इसने किसानो की पहचान को जाति - धर्म की पहचान के आगे खड़ा कर उन्हें अपनी मांगो के लिए लामबंद कर दिया है | इसके पीछे कोई राजनीतिक या गैर राजनीतिक सगठन हो या न हो लेकिन अगर यह प्रक्रिया चलती रही तो किसान स्वत: एक व्यापक एक प्रभावकारी आन्दोलन के रास्ते आगे बढ़ जाएगा | लेकिन यह काम निरंतर चलने वाले किसान आन्दोलन का रूप तब तक नही ले सकता , जब तक किसानो की स्थानीय स्तर पर स्थायी समितिया नही बनती | उनमे अपनी समस्याओं पर विचार - विमर्श के साथ उनके समाधान की मांगे नही खड़ी की जाती | अन्य क्षेत्रो की किसान समितियों के साथ उनके अधिकाधिक जुड़ाव व सहयोग को निरंतर बढाते हुए किसान आन्दोलन की रणनीतियो को निर्धारित नही किया जाता | उन रणनीतियो कार्यनीतियो को लेकर आगे बढने का प्रयास होना जरूरी है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - आभार चर्चा आजकल की