Tuesday, February 26, 2019

साझी विरासत - ऐतिहासिक दृष्टिकोण

साझी विरासत - ऐतिहासिक दृष्टिकोण

{अंग्रेजी शासन से पहले इस देश के मुसलमानों में शासक होने और हिन्दुओ में शासित होने के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण के साथ अन्य कई ऐतिहासिक मुद्दे पर ऐसे ही भिन्न व् विरोधी दृष्टिकोण मौजूद है | उन पर पुनर्विचार की आवश्यकता है | यह पुनर्विचार वर्तमान समय में हिन्दुओ मुसलमानों के बीच मौजूद धार्मिक साम्प्रदायिक अंतरविरोधो को घटाने - मिटाने के लिए नितांत आवश्यक है }---

जहाँ तक इस देश के मुसलमानों में देश का शासक होने और हिन्दुओ में शासित होने की बात है , तो यह दोनों बाते सही नही है | वास्तविकता यह है कि इस देश के मुसलमान जो हिन्दू से मुसलमान बने , और जिनमे मुसलमान बनने के बाद भी जातीय विभाजन मौजूद रहा है . वे इस देश के कभी भी सर्वोच्च शासक या बड़े क्षेत्रीय शासक भी नही रहे | अगर उस समय छोटे - मोटे - राज्यों जागीरो के रूप में कुछ हिन्दुस्तानी मुसलमान शासक थे , तो ऐसे हिन्दू राजा जागीरदार भी मौजूद थे . और वे दोनों ही बाहर से आये अफगानी , तूरानी एवं इरानी सरदारों के अधीन थे | उनसे विद्रोह करके हिन्दू राज्य या सिख राज्य बनाने या फिर मुग़ल सरदारों के बीच के झगड़ो का लाभ उठाकर हिन्दुस्तानी मुसलमान कहे जाने वाले सैयद बंधुओ का मुग़ल शासन पर प्रभाव - प्रभुत्व खड़ा करने का इतिहास बाहरी मुस्लिम शासको के विरुद्ध संघर्ष का इतिहास रहा है और यह इतिहास देश के सभी धर्मावलम्बियों का रहा है |
देश के मुसलमानों द्वारा बाहरी मुसलमानों से अपने धर्म के आधार पर जोड़ने का या हिन्दुओ द्वारा दोनों मुसलमानों को एक करके देखने का दृष्टिकोण न ही इतिहास की तथ्यगत सच्चाई है और न ही उचित है | वस्तुत: यह दृष्टिकोण , धर्म को आगे करके समूचे इतिहास को सतही धार्मिक दृष्टिकोण से देखने का द्योतक है | इस दृष्टिकोण के चलते देश के हिन्दुओ मुसलमानों में एक दुसरे के प्रति शासित ( हिन्दू ) और शासक ( मुसलमान ) होने का पूर्वाग्रही धारणा बनी रही है | यह धारणा भी हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बढ़ने का एक बड़ा आधार बना है |
जहाँ तक देश के मुस्लिम समुदाय में बाहर से आये मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासको के प्रति धार्मिक आधार पर लगाव का मामला है , तो यह लगाव भी सभी मुस्लिम शासको के साथ एक जैसा नही है | उसमे भिन्नता मौजूद है | उदाहरण सुन्नी मुसलमानों में अकबर को इस्लाम धर्म से विचलित शासक मानने और औरंगजेब को इस्लाम का प्रतिनिधि शासक मानने की धारणा आज तक मौजूद है | इसके विपरीत हिन्दू समुदाय में धार्मिक तथा शासकीय आधार पर अकबर को बेहतर एवं औरंगजेब को बदतर शासक मानने की धारणा बनी हुई है | दोनों समुदायों के इस विरोधी दृष्टिकोण को घटाने - मिटाने का एक मात्र रास्ता है कि दोनों समुदायों में इस ऐतिहासिक तथ्य को समझा व समझाया जाए कि सभी मुस्लिम शासक बाहरी मुस्लिम एवं सामन्ती शासक थे और देश के हिन्दू मुसलमान उनके शासित प्रजा थे | इस सन्दर्भ में यह ऐतिहासिक तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि बाहरी शासक मुसलमान भी एक दुसरे के साथ एकजुटता नही , बल्कि एक दुसरे के प्रति कट्टर विरोधी प्रदर्शित करते रहे है | अफगानी और तूरानी ( यानि मुग़ल ) एक दुसरे के कट्टर विरोधी बने रहे | उसी तरह शिया व सुन्नी मुसलमानों के बीच मौजूद ऐतिहासिक विरोध का परिलक्षण सुन्नी मुग़ल शासको तथा उनके शासन में मौजूद शिया धर्मावलम्बी सरदारों के बीच होता रहा |
बाहरी मुस्लिम शासको में यह विरोध सत्ता के विरोध के साथ - साथ उनके बीच मौजूद धार्मिक क्षेत्रीय एवं नस्ली विरोध को भी प्रदर्शित करती रही है |इसीलिए भी दुसरे देशो से आये मुसलमानों एवं मुस्लिम शासको के साथ इस देश के मुसलमानों में धार्मिक लगाव एवं एकजुटता को उचित नही कहा जा सकता | उसी तरह से हिन्दुओ में देश के मुसलमानों को बाहरी मुस्लिम शासको की पीढिया मानना या फिर बाहरी और देशी मुसलमानों को एक जैसा मानना भी ठीक नही है |
इस सन्दर्भ में यह बात महत्वपूर्ण जिसे याद रखना चाहिए कि इस देश के हिन्दू से मुसलमान बने और जातियों में बटे हिन्दुस्तानी मुसलमानों तथा अफगानी तूरानी और इरानी मुसलमानों के साथ सामजिक समरसता एवं एक जुटता की कोई जगह नही थी | उदाहरण - बाहरी मुसलमानों में जातीय विभाजन नही था | फिर उन्होंने इस देश पर सदियों तक शासन करने के वावजूद जाति व्यवस्था को अपनाया भी नही था | इसलिए जातिव्यवस्था के साँचे में पड़े रहे हिन्दुस्तानी मुसलमान बाहरी मुसलमानों से सामजिक , सांस्कृतिक संरचना को थोड़े सुधार बदलाव के साथ अपनाए रहे | इसलिए भी देश के मुसलमानों द्वारा अपने को सामाजिक रूप से बाहरी मुसलमानों के साथ जोड़कर देखना और हिन्दुओ द्वारा उन्हें वैसा ही मानना कही से ठीक नही है |
क्षेत्र , नस्ल .राज व समाज व्यवस्था में लगाव के वावजूद धार्मिक आधार पर बाहरी मुसलमानों के साथ एकजुटता का नजरिया देश के ज्यादातर मुसलमानों में आज भी बाहरी मुस्लिम शासको द्वारा किये जाते रहे भेदभाव एवं उत्पीडन को स्वीकार नही करने देता | उन्हें यह मानने ही नही देता कि बाहरी मुसलमानों द्वारा बहुदेववादी हिन्दुओ के प्रति भेदभाव व धार्मिक सामाजिक उत्पीडन का व्यवहार किया जाता रहा है | कई बार तो मुस्लिम शासको के ऐसे कृत्यों को देश के मुस्लिम बुद्धिजीवी विभिन्न रूप में उचित ठहराने लग जाते है | जबकि पुरे मध्य युग की यह विशेषता रही है कि किसी राजा या आद्शाह का राज रहा या बादशाह के धर्म अनुसार संचालित राज रहा है . कही का किसी धर्म का राजा बादशाह रहा हो , उसके शासन के नियमो कानूनों का प्रमुख आधार उस राजा द्वारा अपनाया गया धर्म ही होता था | इस देश के हिन्दू धर्म , बौद्ध धर्म और इस्लाम धर्म के शासको के दौर में यह प्रत्यक्ष विद्यमान था | स्वभावत: उस राजा द्वारा दुसरे धर्म , सम्प्रदाय के लोगो के साथ खुलेआम भेदभाव एवं धार्मिक उत्पीडन भी जरुर हुआ होगा | इससे इनकार करना मध्य युग के धर्म आधारित राज्य के तथा विभिन्न धर्म शासको के ऐतिहासिक एवं तथ्यगत क्रिया - कलापों से इंकार करना हैं | दुसरे धर्म के पूजास्थलो को तोड़ना , उन पर धार्मिक - आर्थिक कर लगाना या उनकी धार्मिक सामजिक चलन पर जबरिया रोक लगाना , मध्य युग का आम नियम था | यह हो सकता है कि थोड़ा उदार शासक इसे कुछ कम कड़ाई या कुछ उदारता के साथ लागू करता रहा हो दृष्टिकोण मध्य युग से लेकर वर्तमान आधुनिक युग में चले आ रहे हैं | मुस्लिम समुदाय में बाहरी मुस्लिम शासको के प्रति प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष पक्षधरता ने इस विरोध की तीव्रता को बनाये रखने में अहम भूमिका निभाई है कारना या फिर उसे ये सांगत बनता कही से उचित नही ई | समझा जा सकता है की देश के हिन्दू मुसलमानों में इस तरह के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण मध्य युग से लेकर वर्तमान आधुनिक युग में हले आ रहे | मुस्लिम समुदाय में बाहरी मुस्लिम हासको के प्रति प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष पक्षधर्ता ने इस विरोध की तीव्रता को बनाये रखने में हम भूमिका निभाई है | साथ ही हिन्दू समुदाय में बाहरी मुस्लिम शासको के प्रति विरोध को देश के मुसलमानों के प्रति वैसे ही विरोध ने भी वही भूमिका निभाई है | देश का बहुसंख्यक धार्मिक सामाजिक समुदाय होने के आवजूद हिन्दू समुदाय ने इस इस विरोध को घटाने - मिटाने में अपनी अग्रणी भूमिका का निर्वहन नही किया है | वर्तमान दौर में बढाई जा रही धार्मिक , साम्प्रदायिक राजनीति और उसके चलते अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते साम्प्रदायिक विवाद व संघर्ष ने इसे और ज्यादा बढाने का काम किया हैं | इसलिए अब यह आवश्यक हो गया है कि इतिहास के तथ्यगत सच्चाई को उस मध्य युग की सच्चाई मानकर न तो उसका अंधपक्षधरता दिखाई आये और न ही धार्मिक दृष्टिकोण से उसका प्रतिकार ही किया जाय | इस सच्चाई को कबूला जाय कि विभिन्न धर्मो को मानते हुए ही हम मध्य युग के कूप - मण्डूक प्रजा नही , बल्कि आधुनिक युग के फैलते बढ़ते सामाजिक ज्ञान - विज्ञान की कम या ज्यादा सोच - व्यवहार रखने वाले नागरिक समाज के अंग हैं | इसलिए हमे अपने आप को उस युग से अलग करके देखना होगा | विभिन्न धर्म के जनसाधारण की जनतांत्रिक एवं राष्ट्रीय अधिकार को स्वीकार करते हुए ही मध्ययुग के बारे पूर्वाग्रही दृष्टिकोण को छोड़ना पडेगा | लेकिन यह याद रखनी चाहिए कि देश - विदेश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से , उच्च प्रचार माध्यमि विद्वान् बुद्धिजीवी हिस्से , सत्ताधारी पार्टियों के उच्चस्तरीय नेता अपने आर्थिक एवं राजनीतिक लाभ के लिए हिन्दुओ - मुसलमानों के बीच बैठे परस्पर विरोधी विचारो एवं व्यवहारों को बढाने में मशगुल है | इसलिए अब अपने देश के आम आदमी हिन्दू - मुसलमान समुदाय को ही अपने जनतांत्रिक एवं राष्ट्रीय पहचानो सम्बन्धो को प्रमुखता देकर साझी विरासत को बचाना होगा |

सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक


साभार -- चर्चा आजकल की