आखिर जीवन का वास्तविक प्रयोजन क्या है ?
छत्रपति शिवाजी अपने कौशल के जरिये दिल्ली के बादशाह के चंगुल से छुट कर लौटे थे | रास्ते में उन्होंने अपना जीवन दाँव पर लगाते हुए एक गाँव को दस्युओ के हाथो लुटने से भी बचाया था | लौटकर आने के बाद उनका यह पहला दरबार था | सिंहासन के दाई ओर अष्ट प्रधानो के ऊँचे और भव्य आसन थे | बायीं ओर सामन्तो की पक्ति थी |
सभी सभासद अपना - अपना स्थान ग्रहण किये हुए थे | शिवाजी के लौटकर आने के बाद कोई गम्भीर समस्या नही आई थी | शत्रु का समाचार न था और नवीन आक्रमण की भी कोई योजना अभी नही थी | यो इन सबके होने पर भी शिवाजी की निष्काम कर्म - वृत्ति उनके मानस पटल पर चिंता की लकीरे नही खीचने देती थी |
सभासदों के बीच चर्चा चल रही थी |
तभी तानाबा ने एक प्रशन पूछा --- ' आखिर जीवन का वास्तविक प्रयोजन क्या है ? ' शिवाजी इस प्रश्न का उत्तर देने वाले थे , तभी उन्हें द्वार पर समर्थ गुरु रामदास के आने की सुचना मिली | छत्रपति तुरंत द्वार की ओर दौड़ पड़े | सभासद भी उनके पीछे हो लिए | शिवाजी ने द्वार पर पहुचकर गुरु को प्रणाम किया , उन्हें सम्मानपूर्वक भीतर लेकर आये और अपने राजसिंहासन पर बिठाया | इसके बाद शिवाजी ने समर्थ गुरु से कहा -- ' प्रभु तानाबा जानना चाहते है कि जीवन का असली मतलब क्या है ? अब आप ही इस प्रश्न का समाधान करे | ' समर्थ गुरु ने शांत स्वर में जबाब दिया -- ' गति और शक्ति ! इन दोनों का संयुकत ही जीवन है और उसका मतलब है सतत जागरूकता | ' दरबार में सभी के नेत्र अब भी समर्थ गुरु के मुख पर इस तरह लगे थे कि वे अभी तृप्त नही हुए है | मूक नेत्र भाषा में सबने कुछ और सुनने की प्रार्थना की | समर्थ गुरु उन सबका मंतव्य समझ गये और बोले -- ' जिज्ञासा , पर्यटन , विचार और त्याग का अविरल प्रवाह ही जीवन है | इनमे से किसी के भी मूर्क्षित होने का मतलब है जीवन की रुग्णावस्था | इनकी निवृत्ति में मृत्यु है और पूर्णता में मोक्ष |
छत्रपति शिवाजी अपने कौशल के जरिये दिल्ली के बादशाह के चंगुल से छुट कर लौटे थे | रास्ते में उन्होंने अपना जीवन दाँव पर लगाते हुए एक गाँव को दस्युओ के हाथो लुटने से भी बचाया था | लौटकर आने के बाद उनका यह पहला दरबार था | सिंहासन के दाई ओर अष्ट प्रधानो के ऊँचे और भव्य आसन थे | बायीं ओर सामन्तो की पक्ति थी |
सभी सभासद अपना - अपना स्थान ग्रहण किये हुए थे | शिवाजी के लौटकर आने के बाद कोई गम्भीर समस्या नही आई थी | शत्रु का समाचार न था और नवीन आक्रमण की भी कोई योजना अभी नही थी | यो इन सबके होने पर भी शिवाजी की निष्काम कर्म - वृत्ति उनके मानस पटल पर चिंता की लकीरे नही खीचने देती थी |
सभासदों के बीच चर्चा चल रही थी |
तभी तानाबा ने एक प्रशन पूछा --- ' आखिर जीवन का वास्तविक प्रयोजन क्या है ? ' शिवाजी इस प्रश्न का उत्तर देने वाले थे , तभी उन्हें द्वार पर समर्थ गुरु रामदास के आने की सुचना मिली | छत्रपति तुरंत द्वार की ओर दौड़ पड़े | सभासद भी उनके पीछे हो लिए | शिवाजी ने द्वार पर पहुचकर गुरु को प्रणाम किया , उन्हें सम्मानपूर्वक भीतर लेकर आये और अपने राजसिंहासन पर बिठाया | इसके बाद शिवाजी ने समर्थ गुरु से कहा -- ' प्रभु तानाबा जानना चाहते है कि जीवन का असली मतलब क्या है ? अब आप ही इस प्रश्न का समाधान करे | ' समर्थ गुरु ने शांत स्वर में जबाब दिया -- ' गति और शक्ति ! इन दोनों का संयुकत ही जीवन है और उसका मतलब है सतत जागरूकता | ' दरबार में सभी के नेत्र अब भी समर्थ गुरु के मुख पर इस तरह लगे थे कि वे अभी तृप्त नही हुए है | मूक नेत्र भाषा में सबने कुछ और सुनने की प्रार्थना की | समर्थ गुरु उन सबका मंतव्य समझ गये और बोले -- ' जिज्ञासा , पर्यटन , विचार और त्याग का अविरल प्रवाह ही जीवन है | इनमे से किसी के भी मूर्क्षित होने का मतलब है जीवन की रुग्णावस्था | इनकी निवृत्ति में मृत्यु है और पूर्णता में मोक्ष |
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