महाराष्ट्र में जनवरी 2015 से लेकर अक्तूबर 2015 के दस महीनों में 2590 किसानो की तथा दिसम्बर तक के 12 महीनों में 3228 किसानो के आत्महत्याओं का समाचार प्रकाशित हुआ है | ये समाचार अक्तूबर तक के दस महीनों में औसतन 259 किसान प्रतिमाह तथा बाद के दो माह में औसतन 319 किसान प्रतिमाह की आत्महत्याओं को दर्शाता है | स्पष्ट है कि साल के अनत में किसानो की आत्महत्याओं में काफी तेजी आई है |
वैसे तो पिछले कई सालो से महाराष्ट्र और उसका विदर्भ क्षेत्र किसानो की सर्वाधिक आत्महत्याओ का क्षेत्र रहा है |
लेकिन तीन सालो से लगातार पड़ रहे सूखे और अन्य कारणों के चलते फसलो की चौतरफा बर्बादी ने आत्महत्या करने वालो किसानो की संख्या में और ज्यादा वृद्दि कर दी है |
इससे एक साल पहले यानी 2014 में महाराष्ट्र में कुल 1611 किसानो द्वारा आत्महत्या की गई थी | 2005 से 2014 तक के नौ सालो में 17.276 किसानो द्वारा ( प्रतिवर्ष औसतन 1916 किसानो द्वारा ) आत्महत्या की गयी है | 2015 के पहले 2006 में सर्वाधिक संख्या में ( 2376 किसानो द्वारा ) आत्महत्या की गयी थी | इस बार वह संख्या से काफी आगे निकल गयी है |
21 दिसम्बर के अंग्रेजी दैनिक ‘ दि हिन्दू ‘ ने उपरोक्त सुचना देते हुए विदर्भ के यवतमाल जिले के आत्महत्या करने वाले एक किसान – विशाल पवार के बारे में यह सुचना भी प्रकाशित किया है कि विशाल ने आत्महत्या से पहले जिले के सरक्षक मंत्री संजय राठौर के नाम लिखे गये सुसाइड नोट में लिखा है कि वह फसल की बर्बादी के चलते आत्महत्या कर रहा है | उसकी अंतिम इच्छा है कि किसानो पर चढ़े कर्ज को महाराष्ट्र सरकार माफ़ कर दे |
महाराष्ट्र सरकार ने आत्महत्या करने वाले विशाल पवार तथा पिछले तीन – चार सालो से मौसम की मार झेल रहे किसानो की मांगो पर कोई ध्यान नही दिया | उनको कृषि उत्पादन जारी रखने में सहयाता पहुचाने का कोई काम नही किया | बैंको का पुराना कर्ज चुकाए बिना नया फसली कर्ज पाने के लिए भी कोई सहायता नही की गयी |
फलस्वरूप किसान प्राइवेट महाजनों के कर्ज के जाल में फसने के लिए बाध्य हुए | साथ ही फसल की पुन: बर्बादी के साथ कर्ज चुकाने और आगे खेती करने के सारे रास्ते बंद हो जाने के चलते आत्महत्या करने के लिए बाध्य हुए |
महाराष्ट्र सरकार ने इतनी आत्महत्याओं के बाद भी किसानो के सरकारी कर्ज माफ़ी की राहत देने से साफ़ इंकार कर दिया है | मुख्यमंत्री फडनवीस का कहना है की कर्ज माफ़ी से किसानो को नही बल्कि बैंको को लाभ होता है | कर्ज माफ़ी की जगह किसानो को स्थायी राहत देने के नाम पर उन्होंने 10.512 करोड़ रूपये के सरकारी पैकेज की घोषणा की है | मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि पिछले साल भी सरकार ने इतने ही रूपये के पैकेज की घोषणा की थी |
लेकिन विडम्बना है कि पिछले साल की पैकेज घोषणा का किसानो की आत्महत्या पर कोई असर नही पडा | उनकी आत्महत्याओं की संख्या में पिछले साल के मुकाबले वृद्दि हुई है | स्पष्ट है कि सरकारी पैकेज किसानो के लिए राहतकारी साबित नही हुआ |
जहा तक कर्ज माफ़ी का सवाल है तो महाराष्ट्र की कांग्रेस पार्टी भी उसी की मांग कर रही है | निश्चित रूप से कर्ज माफ़ी से किसानो को पुन: बैंक से सस्ते दर पर कर्ज मिलने और उससे प्राइवेट महाजनों की कुछ देनदारी चुकता करने और कुछ खेती में लगाने का तात्कालिक रास्ता मिल जाता |
आत्महत्याओं का सिलसिला कुछ थम जाता | कर्जमाफी की इस उपयोगिता के वावजूद किसान संकटग्रस्त होने और पुन कर्ज में फसने से बच नही सकते | क्योकि बीज , खाद दवा आदि के रूप में खेती की बढती लागत और सार्वजनिक सिचाई की सुविधाओं का अभाव उसे कर्ज में फसने तथा फसल की बिक्री – बाजार घटने या फसलो पर मौसम की मार से पुन बर्बादी की तरफ धकेल देता है 2008 में में केंद्र सरकार द्वारा की गयी कर्ज माफ़ी के बाद किसानो में कई बार फसल अच्छी होने के वावजूद हुए घाटे का संकट का बढ़ते रहना इसके सबूत है | कर्ज माफ़ी के बाद एक – दो साल तक किसानो की आत्महत्याओं में कुछ कमी आने के वावजूद वह पुन: स्फ्तार पकडती रही है | फिर अब तो किसानो की आत्महत्याओं का विस्तार देश के अन्य क्षेत्रो में होता जा रहा है |
विडम्बना यह है कि किसानो की आत्महत्याओं में उपरोक्त बढ़ोत्तरी एवं विस्तार के वावजूद वह राजनितिक एवं प्रचार माध्यमि चर्चाओं से बाहर है | लेकिन क्यो ? क्योकि उस पर चर्चा करने से वर्तमान दौर की धर्मवादी सम्प्रदायवादी जातिवादी व क्षेत्रवादी राजनीति परवान नही चढ़ पाती | नाम किसान का आता है , इस या उस धर्म जाति के किसान का नही आ पाता | इसलिए वह विशिष्ठ धर्म जाति का समर्थन व वोट पाने का हथकंडा भी नही बन पाता | अन्यथा हैदराबाद विश्व विद्यालय में दलित छात्र रोहित बेमुला की आत्महत्या पर पक्ष – विपक्ष की देशव्यापी राजनीति करने वाली राजनितिक पार्टिया महाराष्ट्र में विशाल पवार की आत्महत्या व उसके सुसाइड नोट को लेकर इसी तरह आपस में भीड़ जाती और प्रचारतंत्र उन्हें हाथो में उठा लेती |
उसका प्रचार करने में दिन – रात एक कर देता | पर चूँकि किसानो कि आत्महत्याओं का मुद्दा उठाने से समाज को बाटने की सत्तावादी राजनीति परवान नही चढनी है इसीलिए सभी राजनितिक पार्टिया इससे अपना किनारा कसे रहती है | उस पर कभी कभार बयानबाजी कर के उसे उपेक्षित करने का ही काम कर रही है |
इसे उपेक्षित करने का एक दूसरा कारण एव महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि कमोवेश देश के हर प्रांत में हो रही किसानो की आत्महत्याओं को प्रमुखता से उठाने का मतलब उन आत्महत्याओं के कारणों – कारको को किसानो के सामने लाना | किसानो को उसके विरोध के लिए जागृत संगठित एवं आंदोलित करना | खतरनाक यह है कि सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य से राजनीति कर सभी राजनितिक पार्टिया एवं उनके नेताओं के लिए खतरनाक होगा | क्योकि किसानो का संघर्ष उनके चुनावी राजनितिक दायरे तक ही सीमित रहने वाला नही है बल्कि वह उनकी सत्ता के लिए चुनौती बनने वाला भी है | क्योकि किसी पार्टी की सत्ता सरकार ने इसे रोकने की कोई कोशिश नही की है | हर प्रमुख पार्टी की केन्द्रीय या प्रांतीय शासन के दौरान देश व प्रदेश में किसानो की आत्महत्याए बढती रही है |
किसानो की आत्महत्याओं को न उठाने का दुसरा प्रमुख एवं आर्थिक कारण यह है कि किसानो के बढ़ते आर्थिक संकट और बढती आत्महत्याओं के पीछे कृषि क्षेत्र के बीजो ,खादों, दवाओं ,पम्पसेटो ट्रेक्टरों आदि जैसी मशीनों में धनाढ्य मालिको ने भारी शोषण के साथ अनाज व्यापार में लगे धनाढ्य आढतियो आदि की भारी लुट मौजूद रहती है | अत: किसानो को जागृत व आंदोलित करने का मतलब उद्योग व्यापार के धनाढ्य मालिको के शोषण का विरोध करना है | जबकि सभी पार्टिया अपने केन्द्रीय व प्रांतीय शासन में भागीदारी के जरिये इन्ही वर्गो को वैश्वीकरणवादी , उदारीकरणवादी एवं निजीकरणवादी नीतियों – सुधारों का लाभी पहुचाती रही है | मजदूरो किसानो एवं अन्य जनसाधारण हिस्सों के छुटो – अधिकारों को काटते – छाटते हुए उनके शोषण व लुट को बढाती रहती है |
स्पष्ट है कि किसानो की आत्महत्याओं को उठाना और उन्हें आंदोलित करना न केवल धनाढ्य वर्गो का विरोध करना करवाना है बल्कि उनके साथ खड़ी होती रही राजनितिक पार्टियों के किसान विरोधी कारगुजारियो का भी विरोध करना है | फिलहाल यह काम कोई भी प्रमुख राजनितिक पार्टी नही करने वाली है | इसीलिए किसानो को जागृत एवं आंदोलित करने का अब स्वंय किसानो एवं किसानो के समर्थको का बनता है |
सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-03-2016) को "आवाजों को नजरअंदाज न करें" (चर्चा अंक-2279) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'