Saturday, June 2, 2018

गरीब मेधावी छात्रो को उच्च शिक्षा से वंचित करने की साजिश --- 2-6-18

गरीब मेधावी छात्रो को उच्च शिक्षा से वंचित करने की साजिश

केंद्र सरकार के मानव ससाधन विकास मंत्रालय द्वारा मार्च 2018 में उच्च शिक्षा के 62 संस्थानों को स्वायत्त यानी अपने आप में अधिकार सम्पन्न घोषित कर दिया है | इसमें जे.एन यू , बी एच यू , अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय तथा यूनिवर्सिटी आफ हैदाराबाद जैसे केन्द्रीय विश्व विद्यालयो , प्रांतीय सरकारों के कार्य क्षेत्र के 21 विश्व विद्यालयों को स्वायत्त घोषित किया गया है | यह अधिकार इन सस्थानो की शैक्षिक गुणवत्ता को बढ़ावा देने हेतु इन्हें सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त रखने के नाम पर दिया गया है | अब इन शिक्षण सस्थानो को अपने यहाँ छात्रो का प्रवेश लेने अपना पाठ्यक्रम तय करने स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम चलाने शैक्षणिक फीस निर्धारित करने , शिक्षाविदो विशेषज्ञों को प्रोत्साहन आधारित पारिश्रमिक पर नियुक्त करके का अधिकार दे दिया गया है | इसके अलावा इन सस्थानो को विदेशी छात्रो के प्रवेश के नियम बनाने विदेशी शिक्षक नियुक्त करने , अन्य देशो के विश्व विद्यालयो के साथ समझौता करने दूरस्थ शिक्षा के पाठ्यक्रम चलाने का भी अधिकार दे दिया गया है | प्रचार माध्यमो में केंद्र सरकार के इस निर्णय का कोई उल्लेखनीय विरोध होता दिखाई नही पडा | इस निर्णय पर कुछ किन्तु - परन्तु के साथ इसके समर्थन में सम्पादकीय टिपण्णीयाँ और लेख जरुर प्रकाशित हुए | इस निर्णय की सबसे दिलचस्प बात यह है कि शैक्षणिक गुणवत्ता बढाने के नाम पर दी गयी स्वायत्ता उन विद्यालयो को दी गयी है , जिन्हें शैक्षणिक गुणवत्ता वाले विद्यालयों , कालेजो के रूप में पहले से ही जाना जाता है | अभी हाल में पहले देश के विभिन्न विश्व विद्यालयों की शैक्षणिक गुणवत्ता के आकलन में जे एन यू को पहला और बी एच यू को दूसरा स्थान मिला था | इसलिए इस निर्णय पर यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि क्या इन अन्य नामी गिरामी विश्व विद्यालयो , कालेजो को स्वायत्तता देने का उद्देश्य सरकार की घोषणा के अनुसार उनकी शैक्षणिक गुणवत्ता को बढाना है ? अथवा इसका वास्तविक लक्ष्य उच्चस्तरीय शिक्षण सस्थानो को सरकारी नियंत्रण एवं सर्वजन के शैक्षणिक अधिकार क्षेत्र से हटाकर उनके निजीकरण , व्यापारीकरण और अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देना है ? स्वायत्ता के इस अधिकार से यह बात कोई भी समझ सकता है कि इन विश्व विद्यालयो पर सरकार यूनिवर्सिटी ग्रान्ट कमिशन के नियंत्रण को समाप्त करना ही नही है , बल्कि सरकारी खजाने से इन विश्व विद्यालयों के वित्त पोषण को घटाना और फिर समाप्त कर देना है , साथ ही इन विश्व विद्यालयो को अपने वित्तीय पोषण का स्वायत्त अधिकार मिलने का सीधा मतलब , उन्हें देश व विदेश के निजी धनाढ्य मालिको के वित्त पोषण पर निर्भर बनाना भी है | इस निजी वित्त पोषण के साथ इन विश्व विद्यालयों पर तथा उसके सचालन नियंत्रण पर धनाढ्य मालिको के प्रभाव दबाव का बढना एकदम स्वाभाविक है |
उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के नाम पर लिया गया यह निर्णय दरअसल 1986 से लागू की गयी नई शिक्षा नीति और उसके बाद के शैक्षणिक सुधारों की अगली कड़ी है | 1990 के बाद शिक्षा और स्शिक्ष्ण संस्थाओं का व्यापारीकरण निजीकरण करने अर्थात उन्हें सरकारी नियंत्रण से बाहर करके निजी मालिको के लाभ कमाने वाले सस्थानो के रूप में बदल देने वाले तथाकथित शैक्षणिक सुधारों की वर्तमान कड़ी है | सार्वजनिक शिक्षा के व्यापारीकरण और निजीकरण वाले शैक्षिक सुधारों की प्रक्रिया को खासकर 1995 में डंकल प्रस्ताव को स्वीकार करने के साथ तेज कर दिया गया | उस प्रस्ताव की एक प्रमुख धारा के रूप में मौजूद ''सेवा क्षेत्र में व्यापार का अधिकार '' को अस्वीकार करने के साथ इसके अंतर्गत जनसेवाओ के अन्य क्षेत्रो के साथ शैक्षणिक सेवाओं संस्थानों को भी सरकारी नियंत्रण से हटाने तथा उन्हें निजी क्षेत्र के उद्यम या व्यापार का हिस्सा बनाने की प्रक्रिया तेज की जाती रही है | शिक्षा व अन्य सेवाओं में विदेशी सस्थानो को भी अधिकार देने के साथ इसके अंतराराष्ट्रीय करण की प्रक्रिया को भी निरंतर आगे बढाया जाता रहा है | इसी का सबूत है कि 1986 - 1995 के दौरान थोड़ी धीमी गति से और 1995 - 1996 के बाद से शिक्षा के व्यापारीकरण , निजीकरण व अंतराराष्ट्रीय करण की प्रक्रिया तेजी से आगे बढती रही | इन नीतियों प्रक्रियाओं को केंद्र व प्रांत की सभी सरकारों द्वारा तथा उन पर सत्तासीन रही सभी प्रमुख पार्टियों द्वारा इसे आगे बढ़ाया गया | इसके फलस्वरूप देश - प्रदेश के हर क्षेत्र में महानगरो , नगरो कस्बो यहाँ तक की ग्रामीण स्तर पर भी बड़े छोटे निजी शिक्षण संस्थाओं की संख्या तेजी से बढ़ी | अंग्रेजी शिक्षा तथा बेहतर शिक्षा के नाम पर निजी लाभ के लिए संचालित प्राथमिक , माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के निजी सस्थानो की बाढ़ आती रही | इन या ऐसे ज्यादातर विद्यालयों में मनमानी फीस के साथ शैक्षणिक लूट की प्रक्रिया भी तेज होती रही |
इस सन्दर्भ में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि 1986 से पहले खासकर 1970 के दशक में तमाम निजी प्रबन्धन के विद्यालयों खासकर जूनियर हाई स्कूल से लेकर माध्यमिक विद्यालयों कालेजो का सरकारीकरण किया गया था | वहां पर नियुक्त अध्यापको को सरकारी खजाने से वेतन देने के साथ वहां के प्रबंधको के मनमानेपन पर एक हद तक सरकारी नियंत्रण स्थापित करने की नीति व प्रक्रिया को अपनाया गया था | वह प्रक्रिया 1985 - 86 तक चलती रही | शिक्षा पर सरकारी नियंत्रण को बढ़ावा देने के साथ न केवल ऐसे शैक्षणिक संस्थानों का विकास विस्तार हुआ अपितु उसकी गुणवत्ता में भी सुधार हुआ | 1986 के बाद से शिक्षा के बाजारीकरण व्यवसायीकरण और निजीकरण को बढ़ावा देते हुए उस प्रक्रिया को उलटाया जाता रहा | शिक्षा को व्यापक एवं गुणवत्ता बनाने के नाम पर उसे व्यापारिक लाभ कमाने का और उससे मनमानी लुट का माध्यम बनाया जाता रहा है | इसी निजीवादी और व्यापारवादी प्रक्रिया को अब नामी - गिरामी शिक्षण संस्थाओं को स्वाय्य्त्ता दिए जाने के नाम पर आगे बढाया जा रहा है | इन स्वायत्त शिक्षण संस्थानों के प्रमुख लोगो को अर्थात उनका वित्तीय पोषण व सचालन करने वाले धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों की फीस आदि को निर्धारित एकं सचालित करने का स्वायत्त अधिकार दिया जा रहा है | इसका परिणाम शिक्षा की गुणवत्ता में कितना व कैसा आयेगा यह तो भविष्य की गर्भ में छुपा है , लेकिन उसके पहले की एक प्रमुख सामजिक गुणवत्ता में तत्काल बदलाव जरुर आ जाएगा अभी तक केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारों के नियंत्रण वाले इन विश्व विद्यालयो में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थी पर पढ़ाई का खर्च ज्यादा नही आता था | आम समाज में औसत मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे भी प्रतियोगिताओं में सफल होकर अपनी उच्च शिक्षा पूरी कर लेते थे | लेकिन अब स्वाय्य्त्ता पाए हुए विश्व विद्यालय कालेजो की मनमानी फीस के आगे ऐसे छात्र उच्च शिक्षा से उसी तरह बाहर हो जायेंगे , जैसे समाज के निम्नं हिस्से अपनी कम या अत्यंत कम आय की वजह से आमतौर पर शिक्षा पाने में असमर्थ रहे है | इन विश्व विद्यालयों की उच्च शिक्षा अब दरअसल बेहतर आय एवं सुविधा वाले मध्य वर्गीय के छात्रो के लिए सुरक्षित हो जायेगी | उन्हें विश्व विद्यालय शिक्षा पाने का स्वायत्त अधिकार मिल जाएगा पर औसत या निम्न माध्यम वर्गीय हिस्सों को अब तक मिलता रहा अधिकार छीन जाएगा |इसकी सामाजिक गुणवत्ता में दूसरा महत्वूर्ण बदलाव इन विश्व विद्यालयो को विदेशी विश्व विद्यालयो के साथ समझौता करने , दूरस्थ शिक्षा के नये पाठ्यक्रम तैयार करने , विदेशी शिक्षको को बढावा देने के साथ विदेशी छात्रो को प्रवेश का अधिकार बढाने आदि के फलस्वरूप भी जरुर आयेगा | इस अधिकार से अभी तक अत्यंत सीमित मात्रा में आते रहे विदेशी छात्र की संख्या में वृद्धि के फलस्वरूप इस देश के छात्रो की संख्या में अपेक्षाकृत कमी जरुर आएगी | अपने ही देश में शिक्षा पाने के उनके अवसरों अधिकारों की कटौती हो जायेगी | निचोड़ के रूप में कहें तो 1986 से लेकर 1995 और उसके बाद के दौर में निरंतर बढाये जा रहे नीजिवादी व्यापारवादी अधिकारों से तथा उसी कड़ी में अब उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता के इस निर्णय से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में आम समाज के हितो के विरुद्ध उपरोक्त बदलाव आना अवश्यम्भावी है | इसके अलवा शिक्षा व्यवस्था के बढ़ते अंतर्राष्ट्रीयकरण या वैश्वीकरण के फलस्वरूप पहले की राष्ट्रीय शिक्षा के जरिये छात्रो को इस राष्ट्र के प्रति कृतज्ञ नागरिको के रूप में शिक्षित दीक्षित करने का उद्देश्य भी 1986-91 के बाद लागू की गयी शिक्षा नीति के जरिये धूमिल पड़ता रहा है | वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में छात्रो में मंहगी होती शिक्षा व्यवस्था के जरिये अपना निजी कैरियर बनाने की सीख दी जाती रही है | उनमे राष्ट्रीय हितो , भावनाओं , लगावो के प्रति उपेक्षा को अप्रत्यक्ष रूप में बढ़ावा दिया जाता रहा है |
अब स्वायत्तता के नाम पर उच्च शिक्षा में बढाये जा रहे वैश्वीकरण के जरिये इस उपेक्षा को और ज्यादा बढ़ा दिया जाएगा | यह बात भी याद रखी जानी चाहिए कि ये शैक्षणिक सुधार 1991 में लागू की गयी वैश्वीकरणवादी एवं निजीकरणवादी आर्थिक नीतियों के साथ बढाये जाते रहे | इन आर्थिक एवं शैक्षणिक नीतियों सुधारों को बढाये जाने के एक जैसी परिणाम भी आते रहे | जिस तरह से आर्थिक नीतियों के जरिये जनसाधारण के आर्थिक हितो को घटाया और देश दुनिया के धनाढ्य एवं उच्च वर्गो के हितो को खुलेआम बढाया जाता रहा है | अर्थ व्यवस्था में बाजारीकरण व निजीकरण के साथ उसके वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया जाता रहा है | उसी तरह शिक्षा , चिकित्सा आदि के क्षेत्र में देश दुनिया के धनाढ्य वर्ग के पूंजी निवेश के साथ उसे निजी लाभ व मालिकाने वाले क्षेत्र में बदला जाता रहा है | 1995 के बाद डंकल प्रस्ताव को स्वीकार करने के साथ इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया | वर्तमान सरकार द्वारा विश्व विद्यालयो की गुणवत्ता बढाने के नाम पर उसी प्रक्रिया को तेज कर दिया गया |स्वभावत: इसका विरोध राष्ट्र व समाज का धनाढ्य व उच्च वर्ग नही करेगा | विभिन्न पार्टियों के नेताओं उच्च स्तरीय प्रचार माध्यमि विद्वान् बुद्धिजीवियों द्वारा इस स्वायत्ता का विरोध न करना तथा उसे शैक्षणिक सुधार के नाम पर समर्थन देना भी इसी का सबूत है | अत: इन जनविरोधी शैक्षिक नीतियों का तथा उच्च शिक्ष्ण संस्थाओं में दिए जा रहे स्वायत्ता का विरोध शिक्षा और उच्च शिक्षा से व्यवहारिक रूप से वंचित किये जा रहे बहुसंख्यक जनसाधारण को ही करना है और वही इसे कर भी सकता है |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक -

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-06-2018) को "मत सीख यहाँ पर सिखलाओ" (चर्चा अंक-2991) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

    ReplyDelete
  2. आभार राधा जी आपका

    ReplyDelete