अतीत के झरोखो में - आजमगढ़ - vol -1
कल बड़े भाई साहब के घाट कार्यक्रम के अवसर पर गौरीशंकर घाट जाना हुआ , वो घाट मेरे लिए स्मृतियों का पन्ना है , वहाँ पर पीपल की छाँव के नीचे बैठकर पंडित जी द्वारा वैदिक कार्यो को देखता रहा और स्मृतियों में खो गया , मैं अक्सर डा शान्ति स्वरूप जी से मिलने जाता रहता था कला के क्षेत्र में नई जानकारियाँ लेने के सन्दर्भ में एक बार मैंने उनसे पूछा कुछ इस शहर के बारे में बताये तो उन्होंने चर्चा के दौरान बताया कि एक बार मेरे मारीशस के चित्रकार मित्र ' तुलसी ' जी मेरे पास आये वे लैंड स्केप के एक सफल चित्रकार थे वे किला का दृश्य बनाना चाहते थे लेकिन उन्हें किले का चित्र बनाने की अनुमति नही मिली मगर किला घुमने की इजाजत मिल गयी | चर्चा आगे बढती है वे बताते है कि राजा आजमशाह ने अपने दोनों सेनापतियो को अपनी छत्रछाया में ही बसाया था | आज उन मुहल्लों का नाम बाज बहादुर एवं जालंधरी है | किले के अगल बगल को कोट मुहल्ला कहा जाने लगा बाद में यह भी एक मुहल्ले में परिवर्तित हो गया | किला बन जाने और जागीर का मुख्यालय बनने के बाद स्वाभाविक था कि यहाँ बस्ती फिर बाजार बसने थे | आजमशाह ने किला के सामने के पुल का विचार त्याग दिया लेकिन पश्चिम तरफ एक बड़ी मस्जिद और उसके बगल में घाट सहृदयता से बनवाया | मस्जिद शाही मस्जिद कही जाती थी , बाद में इसे दलालघाट की मस्जिद कहा जाने लगा | घाट के किनारे शंकर जी का मंदिर बनवाया गया और पुरोहित गौरीशंकर पाण्डेय के नाम पर इसे गौरीशंकर घाट कहा जाने लगा | सीताराम सेठ किला निर्माण के दौरान राशन की सप्लाई करते थे बाद में उनकी सेवाओं को देखते हुए राजकर्मचारी का दर्जा दिया गया वहाँ वे भंडार अधिकारी जीवन पर्यंत बने रहे | उन्ही की कृषि भूमि और निवास के आधार पर यह बाद में मुहल्ला सीताराम हुआ , जो आज भी है | मुंशी अन्नत प्रसाद मुल्त: फतेहपुर के कायस्थ थे , उनके पुरखे यहाँ मुंशीगिरी में आये थे | वे राज के खर्चा का लेखा जोखा रखते थे , उन्हें अनन्तपुरा मुहल्ले में निवास के साथ जमीन दी गयी थी | राजा के सलाहकार गुरु पंडित बलदेव मिश्र को गुरुटोला में निवास हेतु भूमि दी गयी थी | गुरुघाट और वहाँ के मंदिर जो अजमतशाह के समय में बने उनके लिए बनवाये गये थे |पंडित दयाशंकर मिश्र ने कुछ पुराने लोगो के आधार पर पता लगाया था और भौगोलिक पर्यवेक्षण से भी कुछ तथ्य सामने आई कि तीन चार सौ वर्ष पहले तमसा का घाट पश्चिम में बिहारी जी के मदिर तक था | गौरीशंकर घाट के शिव मंदिर के पुजारी शुरू से ही गिरी लोगो के हाथो में रहा | मच्छरहट्टा के पास शिव कुमार गिरी के घर तक तमसा बहती थी | सारा कालीनगंज एलवल जलमय था वेस्ली स्कुल आज भी उंचाई पर है , तब भी उंचाई पर था ; उससे पश्चिम ही बस्ती थी , बाद में नदी पूरब को गहरी होती गयी और ये जमीन रिहाइशी हो गयी | मुख्य बस्ती बदरका से मातबरगंज तक थी | बीच में बच्छराज खत्री एक बड़े व्यापारी थे उन्होंने कई पक्के कुंए खुदवाए और सदाव्रत चलाते थे | इस आधार पर इस मुहल्ले को सदावर्ती कहा गया उन्होने बाजार बसाने की दृष्टि से व्यापारियों को सुविधाओं का एलान किया फलत: पश्चिम से बहुत मारवाड़ी और अग्रवाल लोग यहाँ आकर अपना व्यापार करने लगे | मिश्र जी के अनुसार ये लोग दूकान नही बल्कि खेती का व्यापर करते थे | आजमशाह के ही समय में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के रहने तथा भरण पोषण के लिए उत्तरी हिस्से में जमीन दी गयी उस समय के प्रचलन के अनुसार वे ''गुलाम '' कहे जाते थे और उनके गाँव को गुलामी का पूरा नाम दिया गया | राजा आजमशाह एक आदर्श राजा थे विचार उदार तथा हृदय विशाल उनके समन्वयवादी स्वभाव के नाते हिन्दू - मुसलमान सभी उन्हें अपूर्व आदर करते थे | वे सचमुच प्राचीन राजाओं की तरह पूज्यनीय थे | वे कानून सुरक्षा एवं न्याय के पर्याय थे | यदि कोई विवाद होता तो स्वंय त्वरीत फैसला कर देते थे | अठठेसी का विद्रोह भी मद्धिम पड़ गया कयोकि बहुत से ठाकुरों का दल उन्हें आदर करने लगा | उनकी न्यायप्रियता जौनपुर गोरखपुर फैजाबाद तक प्रसिद्ध हो गयी थी ,यह प्रसिद्धि दिल्ली तक पहुची बादशाह औरंगजेब तकउसने आजमशाह को बुला भेजा और महत्वपूर्ण सलाहकार मंडल का सदस्य बनाया मिर्जा राजा जयसिंह से संधि प्रस्ताव के दल में आजमशाह को भी शिवाजी के पास भेजा गया - इस संधि के बाद आजमशाह को संदेह ही नही विशवास भी हो गया कि धोखे से शिवाजी को कैद कर लिया जाएगा | इन्साफ पसंद आजमशाह को यह बात बुरी लगी वे कन्नौज में ही रुक गये - इस बात से औरंगजेब सशंकित हो उठा | इसके पहले कि औरंगजेब आजमशाह को सफाई देने के लिए बुलाता शिवाजी अपने बुद्धिबल से फरार हो गये इस पर औरंगजेब और कुंठित हो गया | उसने कन्नौज में ही आजमशाह को कैद करा लिया जहाँ उन्हें भीषण यातनाये दी गयी | अपनी जन्मभूमि और राजभूमि से बहुत दूर आजमशाह एकांत में घुट घुट कर दिन काटते रहे यातना गृह में ही उनकी मृत्यु हो गयी | बाद में उनका शव यहाँ लाया गया और जनता ने पुरे सम्मान के साथ राजघाट से उस पार बाग़ लाखरांव में उनको दफन कर दिया | भाग्य में जो लिखा रहता है वही होता है | आदमी वक्त के हाथो का खिलौना भर है |आजमगढ़ की स्थापना के साथ ही सुरक्षा की दृष्टि से आजमशाह - अजमत शाह ने औरंगजेब से सहमती लेकर अपने क्षेत्र बाट लिए थे | आजमशाह ने पूर्वी हिस्से में अपनी देख रेख बनाया और अजमत शाह ने पश्चिमी | इसकी वजह कुंडलाकार तमसा नदी है | बिरली नदियों में इतनी कुंडली मिलती है | नगर को उसने बाहुपाश में ऐसे जकड़ रखा है जैसे कोई सर्पनी अपनी नागमणि को | नगर के चौक पर खड़े हो जाइए उत्तर को छोड़कर आप किसी भी दिशा पूरब पश्चिम दक्षिण में भागे तो यह नदी आपको रोक लेगी | नदी पार कर इन तीनो दिशाओं से आप आकर अपराध कर भाग भी सकते है यदि तैरना जानते हो तो नरौली रोड पर गिरजाघर मोड़ पर पूरब पश्चिम मार्ग का मिलन बिंदु है | यही स्थिति कदाचित सत्रहवी शताब्दी के मध्य में भी थी तभी आजमशाह मुख्य सड़क जो शेरशाह ने बनवाई थी से पूरब हिस्से में देखभाल करते थे | पश्चिम में नदी कोदर क्म्हैनपुर से दक्षिण वर्तमान ज्योति स्कुल से आगे जाकर कोल पाण्डेय गुरुटोला होती नगरपालिका कचहरी होते रैदोपुर कालोनी होती नदी की मुख्य धारा आकर पूर्व धारा से मिल जाती थी | इसलिए बीच के पश्चिमी हिस्से के देखरेख के लिए अजमत शाह ने कोडर में अपना निवास बनवाया इसे आज अजमतपुर कोडर कहते है | अजमत शाह ने भी कुछ महत्वपूर्ण कार्य किये उन्होंने नदी के किनारे घाट और आवागमन के लिए फेरी बनवाया | इसे राजघाट कहा गया | बाद में यहाँ एक मंदिर बनवाया गया लेकिन अजमत शाह के जमाने में नही | उन्होंने तो राजघाट से पश्चिम एक मंदिर बनवाने की स्वीकृति दी थी | यह राज मन्दिर खा जाता है इसमें विष्णु की मूर्ति थी इसे विशुनपुर राजमंदिर कहा जाने लगा इस क्षेत्र के लीलाधर उपाध्याय महावत खा के समय 1703 इ में बहादुर सेनापति थे जिन्होंने मिर्जा शेरवां को हराया था तब से इस गाँव का नाम लीलाप[उर प्रसिद्ध हो गया \ राजघाट लम्बे समय तक उपेक्षित पड़ा रहा 1750 इ के करीब गुलाल साहब यहाँ आये तो राजघाट में रुके तबसे यह उदासीन सम्प्रदाय के लोगो का एक प्रमुख मठ हो गया इसकी पुरानी शैली पर और अपित सुरंगे आज भी मौजूद है |
अतीत के झरोखो में आजमगढ़ -- vol - 2
इतिहास लेख सत्य - असत्य हो सकता है किन्तु मानव मनोविज्ञान के मापदंड अडिग विश्वनीय एवं तर्क सम्मत होते है , इसके दर्पण से कहा जा सकता है कि श्रेष्ठ ऋषियों के देहावसान के बाद ये आश्रम और भूमि उनके अयोग्य शिष्यों के हाथ में आ गये , वहाँ वदाचार भी पलने लगा फलत: क्षेत्रीय जनता ने बाहुबलियों से गुहार लगाईं होगी | उद्धार के बाद सुरक्षा के नाम पर इन बाहुबलियों ने उस पर कब्जा कर लिया होगा , यही राज्यों का प्रारम्भिक रूप जमींदारी थी | एक जमींदारी से दूसरी जमींदारी की टक्कर से युद्ध का जन्म हुआ इससे बचाव के लिए कुछ समन्वय वादियों ने सुलह - समझौते के माध्यम से राज्यों की मेडबंदी कर दी ईसा पूर्व 7वी शताब्दी में इस तरह के बटे हुए सोलह जनपदों का उल्लेख्य मिलता है | इस प्रखंड के चार मुख्य जनपद थे 1 - कोशल 2- काशी 3- मगध 4- मल्ल | इनमे भी बराबर युद्ध होते रहते थे और आजमगढ़ की भूमि इन चारो में टुकड़े - टुकड़े बटी रहती थी | इस बात बखराव् से कई भयंकर परिस्थितियों उत्पन्न हो जाती थी | घर में अगर सुन्दर लड़की उत्पन्न हो गयी तो फांसी का फंदा थी - सयानी होने के बाद वह घर के लिए विपत्ति हो जाती थी | तत्कालीन राजतंत्र में राजा कुट्निया पालते थे जो परिवारों में पैठ बनाकर सुन्दरियों की सुचना पहुचाती थी और उनके अपहरण के बाद इनाम इकराम पाती थी | इसीलिए लडकियों को पैदा होते ही गला दबा कर जमीन में गाड दिया जाता था | केवल दो तरह के लोग बेटियों को नही मारते थे 1- जो शक्ति बल में समर्थ थे 2- जो अनैतिक कार्यो के लिए लडकियों को बेच दिया करते | पुरुष भी त्रस्त थे | जब दो राज्यों के बीच युद्ध होता तो घरो के नौजवानों को जबरन पकड़कर सेना में शामिल किया जाता और दूसरे राज्यों के बीच युद्ध के लिए भेजा जाता था | तब हर आदमी की दशा कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तरह सी हो जाती , कोशल के नौजवानों को मगध के अपने ससुर पर हाथ उठाना पड़ता | काशी के लोगो को न चाहते हुए भी मल्ल जनपद के अपने मामा फूफा पर शस्त्र चलाना पड़ता | इन युद्धों को रोकने की महत्वपूर्ण भूमिका तब इश्क निभाता था | एक राज्य की राजकुमारी से दूसरे राज्य के राजकुमार से आँख लड़ गयी आँखों की लड़ाई से तलवार की लडाईया रुक सी जाती | 543 ईसा पूर्व में बिम्बसार ( मगध ) की शादी कोशल नरेश प्रसेनजित की बहन कोशला से हुआ | राज्य की वार्षिक आय मगध में चली गयी , बाद में फिर विवाद -युद्ध हुआ | राज्य पर राज्य बदलते रहे बिम्बसार के बाद अजातशत्रु - चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और अशोक मृत्यु 232 ई पू लेकिन जनता की दशा नही बदली , वही विपत्तिया आर्थिक विपन्नता और शोषण | गाँवों के पास आत्मनिर्भरता के सिवा क्या चारा था | समाजोपयोगी जातियों का संकुलन बसाया गया , बढई,- लोहार - कुम्हार ब्राह्मण और अन्य सेवक जातिया | राज्य के कुचक्र अत्याचार हत्या बलात्कार की खबर आम जनता तक नही पहुचती पहुचती भी थी तो गुप -चुप फुसफुस और वही दफन कर दी जाती | बड़ी घटनाए ही सामने आती | बाद के शुंग - देववंश मित्रवंश और कुषाण वंश राज्य था | डा शान्ति स्वरूप जी ने अपने लेख में सर्वहितकारी 17 अक्तूबर 1977 में लिखा है कि पिछली शताब्दी में कर्निघम और कारलाइल ने जो इस परिक्षेत्र में खुदाई कराई थी उसमे कुछ प्राचीन सिक्के मिले थे जिसे मौर्यकालीन काल घोषित किया गया था | इसी खुदाई में अतरौलिया के पास देवराही में मौर्यकालीन सिक्के भी प्राप्त हुए थे इससे सिद्ध होता है कि मौर्यकाल में यह जनपद व्यवस्थित दशा में था | डा ईश्वरी प्रसाद करीब सौ वर्ष का यह अंतराल आजमगढ़ अविभाजित की भूमि सनातन बनाम बौद्ध धर्म युद्ध क्षेत्र मानते है | जनपद की उत्तरी बैल्ट गोरखपुर देवरिया बलिया सनातन ब्राह्मणों की थी जो वेद - पुराण कर्मकांड और लोकाचार से बंधी हुई जिन्दगी जीते थे शैवमत के कारण हिंसा बलि तन्त्र मन्त्र टोना टोटका के ग्रामीण - नागर रूप जनता को पकडे थे | बुद्ध ने इन अन्धविश्वासो लोकाचारो का विरोध किया तब मुख्यत: पूर्वीकोशल और मल्ल गणराज्य गोरखपुर देवरिया पश्चिमी बिहार के ब्राह्मणों ने प्रतिक्रिया स्वरूप मांस भक्षण अपनाया | एक और वे वर्णित विधियों के अनुसार दोनों कानो पर जनेऊ लपेट कर शौच जाते इक्कीस बार मिटटी से हाथ साफ़ करते बगैर सिला वस्त्र पहनते गाय के खुर बराबर चुटिया रखते कई घंटे पूजा विधान का निर्वाह करते लेकिन भोजन में मछली चिड़िया और गोश्त खाते थे | यह प्रवृत्ति मिश्रान ,मलान में घुस आई | लेकिन फूंक से जंगल में लगी आग बुझाई नही जा सकती | अनैतिक धोखेबाज ठग कर्मकांडीयो ने सनातन धर्म का रूप बिगाड़ दिया था कि जनता अन्दर - अन्दर ज्वालामुखी बन गयी और बौद्ध धर्म इस जनपद में प्रतिष्ठित हो गया | अंचल का पूर्वी छोर जहाँ सनातनीगढ़ था वही महागोठ ( महगोठ + गोठा +गोठा )में विशाल बौद्धगढ बन गया | आज इस स्थल की बौद्ध प्रतिष्ठा मान्य है वहाँ एक होटल तथागत स्थापित हो चूका है | कुशीनगर के पास एक गाँव सठियांव है और आजमगढ़ में भी सठियांव है ये दोनों श्रेष्ठिग्राम के तदभव रूप है | यहाँ बौद्धों को आर्थिक सहायता देने वाले बड़े - बड़े सेठ थे उस समय यह सठियांव मुहम्मदाबाद से फूलपुर तक फैला हुआ था सठियांव में गन्ने तिलहन हथकरघा के व्यापार संकुल थे , रानी की सराय - सेठवल सेठअवली + सेठो की परिवृति में गुड फूलपुर में धातु उद्योग चलते थे | देवलास में कुछ मुर्तिया मिली थी जिन्हें बुद्ध से संयुकत किया गया | जिले के अन्य क्षेत्रो में माहुल तक मूर्तिखंड मिले है और तो और लालगंज के पास प्ल्मेहशवरी मन्दिर की मूर्ति को भी राहुल जी ने बुद्ध की मूर्ति कहा | महराजगंज के पास भैरो स्थान के बड़े कुओं को जबकि दक्ष के यज्ञ विध्वंश से जोड़ा जाता रहा है या दशरथ द्वारा खुदवाए कुपो का नाम दिया जाता रहा है राहुल जी ने बौद्ध बिहार के संडास बताये | बौद्ध धर्म ने पूरे संसार में इतनी व्यापकता हासिल की की सनातनी धर्म ने भी बुद्ध का एक अवतार स्वीकार कर लिया | उस समय आजमगढ़ का नजारा क्या रहा होगा ? लोग क्या पहनते ओढ़ते रहे होंगे ? कैसी सवारिया पर आते जाते रहे होंगे ? मनोरंजन व्यापार बाजार दृश्य कैसा रहा होगा ? चन्द्रगुप्त 320 ई.पू के बाद कुमारगुप्त स्कन्दगुप्त इत्यादि हुए जिनका विवरण आजमगढ़ की विभिन्न पुस्तको में दिया गया है | इसी बीच 410 ईस्वी के समय में फाहियान ने भारत यात्रा की थी अपनी यात्रा में वह रामजानकी मार्ग से होता जनपद के पूर्वी भाग से गुजरता सारनाथ गया था उसने तत्कालीन समाज का चित्रण किया है | 465 ई में हूणों के आक्रमण हुआ और हिन्दू साम्राज्य की उपसाहरित कड़ी के रूप में सम्राट हर्षवर्धन का साम्राज्य हुआ जिसकी पूर्वी राजधानी कुडधानी ( कुडधानी - कुडाकुचाई ) आदि थी यही एक खेत में उसका तामपत्र मिला था जिसका विवरण दयाशंकर मिश्र के इतिहास में है | उस तामपत्र की भाषा संस्कृत में है लेकिन संस्कृत जनभाषा नही रही होगी कारण यह कि पाली के प्रभाव से बौद्ध युग से ही भाषा में बदलाव आने लगे थे , फिर प्राकृत और फिर अपभ्रंश भाषा बनती गयी | नागर भाषा से काटकर जनभाषा की अपनी बोली में बोलने के प्रयास में अपभ्रंश की ग्राम्य शाखा भी पूरब पश्चिम के स्टाइल में बात गयी | प्छुअहिया बोली मथुरा तक सिमट कर शौर सेनी और पूरबहिया कोशल - काशी - पटना मगध तक फैलकर मागधी हो गयी | भौगोलिक सांस्कृतिक और स्थानीय प्रभावों के कारण और स्थानीय के कारण कोशल के आसपास की अवधि | काशी पश्चिम बिहार बलिया आरा छपरा की स्टाइल भोजपुरी और पटना और उसके अगल बगल की मागधी मैथली इत्यादि हो गयी | 997 ई में महमूद गजनवी के आक्रमण से लेकर 1024 ई में सोमनाथ मंदिर के आक्रमण तक इन बोलियों ने तुरकाना मेल मिलावट से बचने के लिए अपनी बोली को अपने में सिमटाकर स्वरूप को मजबूत कर लिया | ग्यारहवी शताब्दी में भोजपुरी इस क्षेत्र में बोली जाती थी | गुरु गोरखनाथ की रचनाओं में प्रबल भोजपुरी की झलक है | संत वाणी के कारण उसका रूप बदल गया है |
इतिहास के झरोखे से आजमगढ़ --- vol - 3
आजमगढ़ के संस्थापक राजा आजमशाह जरुर थे , किन्तु इसका जन्मदाता शेरशाह सूरी था , उसी ने यहाँ नीव की ईट रखने का कार्य किया | उसके व्यक्तित्व का निखार जौनपुर में हुआ था इस कारण वह जौनपुर को बहुत प्यार करता था , तब आजमगढ़ जौनपुर राज्य के अधीन था और उजाड़ था , अविकसित बस्तिया थी , चारो और जंगल जैसा परिवेश था | चूँकि शेरशाह की पुत्री मानो बीबी मीरा शाह की मुरीद थी और घोसी के पास उनकी दरगाह में पवित्र जीवन जीते हुए खुदा ही इबादत में लींन रहती थी , अतएव उससे सम्पर्क बनाये रखने के लिए के लिए उसने जौनपुर से दोहरीघाट तक की सडक बनवाई , बीच में पुलों को निर्मित कराया और सडक के किनारे वृक्ष लगवाया | सम्पर्क सूत्र तथा डाक व्यवस्था की दृष्टि से उसने बीच - बीच में कच्ची - पक्की सराए बनवाई | जौनपुर दोहरीघाट के बीच आजमगढ़ में उसके डाक व्यवस्था के सदर फत्तेह खा के नाम से एक सराय बनवाई गयी जहां धीरे धीरे छोटी सी बाजार भी बस गयी | नगर के मध्य बड़ादेव नगरपालिका मार्केट के पीछे स्थित सराय फत्ते खा ही इसका प्राचीनतम चिन्ह है |
जौनपुर - आजमगढ़ में पक्की सराए थे पर उसने दोहरीघाट में कोई पक्की सराय नही बनवाई इसका कारण यह था कि तब सरयू नदी की धारा मीलो दक्षिण होकर बहती थी जिसके किनारे सगोष्ठ ( गोठा ) ग्राम था जहां कृषि एवं गृहस्थी की बड़ी मंडी थी | बौद्धकाल की चर्चा में लिखा जा चुका है कि कभी यह स्थल बड़ा महत्वपूर्ण था और यहाँ विशाल संघाराम था ( आज इस स्थल पर भव्य 'मोटल - तथागत ' है ) सप्ताह में दो दिन आज भी यहाँ बाजार लगती है | सोलहवी शताब्दी तक यह संघाराम नष्ट हो चूका था पर व्यापारियों को रुकने के लिए कच्चे भवनों की श्रृखला जरुर थी | कार्तिक पूर्णिमा और गंगा दशहरा पर भव्य मेला लगता था | इसलिए यहाँ यात्रियों व्यापारियों के ठहरने के लिए पर्याप्त व्यवस्था बनाई गयी थी | यहाँ सराय की आवश्यकता नही थी | आजमगढ़ के अंकुरण की कथा भी बड़ी अनोखी है | कहा जाता है कि आदमी कठपुतली है | उसकी डोर से भवितव्यता नचाती है | बाबर से पहले के आक्रमणकारियों ने यहाँ कारगुजारियो का उद्देश्य ''लूट ' रखा | वे आये लूटा और वापस चले गये | लेकिन बाबर ने राज्य करने के सपने से मुग़ल साम्राज्य की नीव रखी | पानीपत के युद्ध में बारूद के प्रयोग से उसने ऐसा सिक्का जमाया की लोदी वंश समाप्त होने के बाद लोगो की टक्कर लेने की हिम्मत नही रही | परन्तु उसकी मृत्यु के बाद हुमायूँ के शासनकाल में यहाँ के राजाओं - जागीरदारों में साम्राज्य को उलट देने की ललक पैदा हो गयी | हुमायूँ को टक्कर देकर धराशायी करने की शक्ति इन राजाओं ने शेरशाह सूरी में देखा और बहुतेरे उसके साथ हो गये | इनमे फतेहपुर की अर्गल जागिदारी के गौतम वंशीय ठाकुर हरबरन देव भी थे | 1537 ई0 में शेरशाह ने चुनार में युद्ध करके जो किला जीता उसमे हरबरन देव प्रमुख सहायक थे | दुर्भाग्य से शेरशाह का राजकाल कुल 5 वर्षो का रहा , वह दिल्ली का सम्राट 1540 में हुआ था और 1545 में अपने ही अस्त्र में बारूद फटने से शेरशाह बुरी तरह झुलस कर मर गया | हरबरन देव को कोई इनाम इकराम न मिल सका | हुमायूँ भी इनकी शत्रुता को भुला नही था | उसने इनका पता लगाना शुरू किया - यह खबर लगते ही जागीदार हरबरन देव की मृत्यु करीब दिखाई देने लगी | वे भागे भागे जौनपुर आये शेरशाह के पुत्र सलीमशाह की शरण में | सलीमशाह ने इनके एहसानों का ख्याल करते हुए राज के बीच खुट्वा गाँव प्रदान किया - सलीम की योजना थी कि खुट्वा में बसकर हरबरन देव पोशीदगी में किसान जमींदार बनकर वेश बदल कर रहे | गाँव वालो से भी उनकी पहचान छिपी रहे फिर हुमायूँ के सिपाही नही पहचान पायेंगे | लेकिन हर बरन देव अपनी और अर्गल राज में रह रहे अपने विपत्ति से घिरे परिवार की चिंता में घुल घुल कर मृत्यु को प्राप्त हुए | फतेहपुर से उनके बड़े पुत्र सग्राम देव और चन्द्रसेन सिंह जौनपुर आये जहाँ गोमती तट पर उनका दाह संस्कार किया | रविन्द्र सतान ने लिखा है कि आजमगढ़ नगर में एक अभिलेख संस्कृत में एक पथरिया पर पाया गया जो संवत 1609 ( सलीम शाह काल का है )
जब अकबर सिंहासन पर बैठा उसने अपने बल - बुद्धि - विवेक से दृढ मुग़ल सल्तनत स्थापित किया | वह जितना समझदार था उतना ही चालाक भी था लेकिन अपनी चालाकी को उसने हमेशा जनसेवा , मेल - मिलाप समन्वय का रूप दिया | वह न कभी खुदा को भूलता था न अपने दुश्मनों को |हुमायूँ जैसे सरल हृदय वाले शासक को शेरशाह सूरी के कारण ऐसा दुर्दिन भी देखना पडा की चौसा के युद्ध में हारने के बाद जान बचाने के लिए उसे नदी में घोड़े सहित कूद जाना पडा ,ईश्वर की कृपा से एक भिश्ती ने अपनी मशक फेंककर उसकी जिन्दगी बचाई उसे ठोकर खाते हुए भागना पडा | हुमायूँ के भाइयो कामरान और हिन्दाल ने भी धोखा दिया फलत: उसे सिंध के रेगिस्तान की तरफ भागना पडा | जहाँ अमरकोट में अकबर का जन्म हुआ | अकबर ने पिता का बदला लेने के लिए गोपनीय तरीके से हुमायूँ के दुश्मनों को चिन्हित करना शुरू किया जिसमे प्रमुख नाम हर बरन देव का भी था जब तक इनसे बदला लेता उनकी मौत हो चुकी थी | सोलहवी शताब्दी के छठे दशक में सम्राट अकबर अलिकुली खा विद्रोही को दबाने की मंशा से बंगाल की तरफ चला और जौनपुर में रुककर वहाँ उसने सूफी संत निजामुद्दीन का बखान सूना जो पहुचे हुए फकीर थे और निजामाबाद में गद्दी बनाये हुए थे | उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध हिन्दू धर्मस्थल शीतलाधाम के पास अपना डेरा जमाया और मानवतावादी दृष्टिकोण से पूरे जनमानस पर असीम श्रद्धा के साथ | उसमे जनमानस की श्रद्धा की भी थी अतेव उस निजामाबाद परिक्षेत्र में युद्ध की थकान मिटाने का निश्चय किया | चूँकि उसकी जन्मतिथि भी इसी बीच पड़ती थी इसलिए यहाँ जन्मदिन का विशाल महोत्सव मनाया गया ''आईने अकबरी'' में इसका संक्षित उल्लेख्य है चन्दाभारी जो निजामाबाद के अत्यंत निकट है वहाँ पर तुलादान का जलसा मना सम्राट को मुहरो से तुला गया | बीबीपुर में रानियों का डेरा था और खुटौली में घोड़ो को बाधने के लिए विशाल घुडसाल थी | टिकापुर के लोगो ने मुगल बादशाह को विजय हालिस करने का आशीर्वाद से टिका किया |कैफ़ी का गाँव मिजवांन से मिजवा हो ग्या | बताते चले कि अकबर इस महोत्सव से बड़ा प्रसन्न था उसने जब सुबो का पुनर्निर्माण किया तो इस अंचल को सूबे इलाहाबाद में करके जौनपुर सरकार के अधीन किया और सात परगनों में बात दिया 1- चिरैयाकोट 2- सगड़ी 3- घोसी 4- कौडिया 5- गोपालपुर 6- मऊ 7-निजामाबाद | अब्दुर रहीम खानखाना के पुत्र मुनीर खा को जागीरदार बनाया और निजामुद्दीन औलिया के नाम पर निजामाबाद का नामकरण किया | इसी महोत्सव के दौरान कुछ चापलूसों ने खुट्वा गाँव के उत्तराधिकारी के बारे में भी कान भरा यह कहकर की ये लोग हुमायूँ के शत्रु हरबरन देव के पुत्र है दोनों भाई संग्राम सिंह चन्द्रसेन सिंह वहाँ से भाग गये | उनकी शनाख्त कालपी युद्ध के दौरान हुई जहां संग्राम देव पर आक्रमण हुआ वे बुरी तरह घायल हो गये और गुमनामी में मारे गये | चन्द्रसेन सिंह भूमिगत हो गये लाख खोजबीन के बाद भी उनका पता नही चला | सत्रहवी शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षो में जब सलीम ने बगावत की तो अकबर के शासन का सिक्का घिसने लगा था वह बीमार और टूटा भी था तब संग्राम के चन्द्रसेन सिंह पुन: खुट्वा आ गये और मुग़ल शासन से असंतुष्ट ठाकुरों को मिलाकर एक नामवर सरदार बन बैठे | निजामाबाद और उसके निकटवर्ती इलाको में घनी मुस्लिम बस्ती थी , आज भी है ( फूलपुर सरायमीर फरिहा मग्रवा ) इसीलिए चन्द्रसेन सिंह को बहुत विरोध भी सहना पडा | इससे पूरब मेहनगर लालगंज की और श्रीनेत कौशिक बिसेन ठाकुरों का बाहुल्य था पश्चिम में पालीवाल ठाकुरों का आधिपत्य था इसलिए चन्द्रसेन सिंह खुट्वा से हटने की सोचने लगे ! उन्होंने मेहनगर का चुनाव भी किया जो खुट्वा से तीन चार किमी दक्षिण है |
जौनपुर - आजमगढ़ में पक्की सराए थे पर उसने दोहरीघाट में कोई पक्की सराय नही बनवाई इसका कारण यह था कि तब सरयू नदी की धारा मीलो दक्षिण होकर बहती थी जिसके किनारे सगोष्ठ ( गोठा ) ग्राम था जहां कृषि एवं गृहस्थी की बड़ी मंडी थी | बौद्धकाल की चर्चा में लिखा जा चुका है कि कभी यह स्थल बड़ा महत्वपूर्ण था और यहाँ विशाल संघाराम था ( आज इस स्थल पर भव्य 'मोटल - तथागत ' है ) सप्ताह में दो दिन आज भी यहाँ बाजार लगती है | सोलहवी शताब्दी तक यह संघाराम नष्ट हो चूका था पर व्यापारियों को रुकने के लिए कच्चे भवनों की श्रृखला जरुर थी | कार्तिक पूर्णिमा और गंगा दशहरा पर भव्य मेला लगता था | इसलिए यहाँ यात्रियों व्यापारियों के ठहरने के लिए पर्याप्त व्यवस्था बनाई गयी थी | यहाँ सराय की आवश्यकता नही थी | आजमगढ़ के अंकुरण की कथा भी बड़ी अनोखी है | कहा जाता है कि आदमी कठपुतली है | उसकी डोर से भवितव्यता नचाती है | बाबर से पहले के आक्रमणकारियों ने यहाँ कारगुजारियो का उद्देश्य ''लूट ' रखा | वे आये लूटा और वापस चले गये | लेकिन बाबर ने राज्य करने के सपने से मुग़ल साम्राज्य की नीव रखी | पानीपत के युद्ध में बारूद के प्रयोग से उसने ऐसा सिक्का जमाया की लोदी वंश समाप्त होने के बाद लोगो की टक्कर लेने की हिम्मत नही रही | परन्तु उसकी मृत्यु के बाद हुमायूँ के शासनकाल में यहाँ के राजाओं - जागीरदारों में साम्राज्य को उलट देने की ललक पैदा हो गयी | हुमायूँ को टक्कर देकर धराशायी करने की शक्ति इन राजाओं ने शेरशाह सूरी में देखा और बहुतेरे उसके साथ हो गये | इनमे फतेहपुर की अर्गल जागिदारी के गौतम वंशीय ठाकुर हरबरन देव भी थे | 1537 ई0 में शेरशाह ने चुनार में युद्ध करके जो किला जीता उसमे हरबरन देव प्रमुख सहायक थे | दुर्भाग्य से शेरशाह का राजकाल कुल 5 वर्षो का रहा , वह दिल्ली का सम्राट 1540 में हुआ था और 1545 में अपने ही अस्त्र में बारूद फटने से शेरशाह बुरी तरह झुलस कर मर गया | हरबरन देव को कोई इनाम इकराम न मिल सका | हुमायूँ भी इनकी शत्रुता को भुला नही था | उसने इनका पता लगाना शुरू किया - यह खबर लगते ही जागीदार हरबरन देव की मृत्यु करीब दिखाई देने लगी | वे भागे भागे जौनपुर आये शेरशाह के पुत्र सलीमशाह की शरण में | सलीमशाह ने इनके एहसानों का ख्याल करते हुए राज के बीच खुट्वा गाँव प्रदान किया - सलीम की योजना थी कि खुट्वा में बसकर हरबरन देव पोशीदगी में किसान जमींदार बनकर वेश बदल कर रहे | गाँव वालो से भी उनकी पहचान छिपी रहे फिर हुमायूँ के सिपाही नही पहचान पायेंगे | लेकिन हर बरन देव अपनी और अर्गल राज में रह रहे अपने विपत्ति से घिरे परिवार की चिंता में घुल घुल कर मृत्यु को प्राप्त हुए | फतेहपुर से उनके बड़े पुत्र सग्राम देव और चन्द्रसेन सिंह जौनपुर आये जहाँ गोमती तट पर उनका दाह संस्कार किया | रविन्द्र सतान ने लिखा है कि आजमगढ़ नगर में एक अभिलेख संस्कृत में एक पथरिया पर पाया गया जो संवत 1609 ( सलीम शाह काल का है )
जब अकबर सिंहासन पर बैठा उसने अपने बल - बुद्धि - विवेक से दृढ मुग़ल सल्तनत स्थापित किया | वह जितना समझदार था उतना ही चालाक भी था लेकिन अपनी चालाकी को उसने हमेशा जनसेवा , मेल - मिलाप समन्वय का रूप दिया | वह न कभी खुदा को भूलता था न अपने दुश्मनों को |हुमायूँ जैसे सरल हृदय वाले शासक को शेरशाह सूरी के कारण ऐसा दुर्दिन भी देखना पडा की चौसा के युद्ध में हारने के बाद जान बचाने के लिए उसे नदी में घोड़े सहित कूद जाना पडा ,ईश्वर की कृपा से एक भिश्ती ने अपनी मशक फेंककर उसकी जिन्दगी बचाई उसे ठोकर खाते हुए भागना पडा | हुमायूँ के भाइयो कामरान और हिन्दाल ने भी धोखा दिया फलत: उसे सिंध के रेगिस्तान की तरफ भागना पडा | जहाँ अमरकोट में अकबर का जन्म हुआ | अकबर ने पिता का बदला लेने के लिए गोपनीय तरीके से हुमायूँ के दुश्मनों को चिन्हित करना शुरू किया जिसमे प्रमुख नाम हर बरन देव का भी था जब तक इनसे बदला लेता उनकी मौत हो चुकी थी | सोलहवी शताब्दी के छठे दशक में सम्राट अकबर अलिकुली खा विद्रोही को दबाने की मंशा से बंगाल की तरफ चला और जौनपुर में रुककर वहाँ उसने सूफी संत निजामुद्दीन का बखान सूना जो पहुचे हुए फकीर थे और निजामाबाद में गद्दी बनाये हुए थे | उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध हिन्दू धर्मस्थल शीतलाधाम के पास अपना डेरा जमाया और मानवतावादी दृष्टिकोण से पूरे जनमानस पर असीम श्रद्धा के साथ | उसमे जनमानस की श्रद्धा की भी थी अतेव उस निजामाबाद परिक्षेत्र में युद्ध की थकान मिटाने का निश्चय किया | चूँकि उसकी जन्मतिथि भी इसी बीच पड़ती थी इसलिए यहाँ जन्मदिन का विशाल महोत्सव मनाया गया ''आईने अकबरी'' में इसका संक्षित उल्लेख्य है चन्दाभारी जो निजामाबाद के अत्यंत निकट है वहाँ पर तुलादान का जलसा मना सम्राट को मुहरो से तुला गया | बीबीपुर में रानियों का डेरा था और खुटौली में घोड़ो को बाधने के लिए विशाल घुडसाल थी | टिकापुर के लोगो ने मुगल बादशाह को विजय हालिस करने का आशीर्वाद से टिका किया |कैफ़ी का गाँव मिजवांन से मिजवा हो ग्या | बताते चले कि अकबर इस महोत्सव से बड़ा प्रसन्न था उसने जब सुबो का पुनर्निर्माण किया तो इस अंचल को सूबे इलाहाबाद में करके जौनपुर सरकार के अधीन किया और सात परगनों में बात दिया 1- चिरैयाकोट 2- सगड़ी 3- घोसी 4- कौडिया 5- गोपालपुर 6- मऊ 7-निजामाबाद | अब्दुर रहीम खानखाना के पुत्र मुनीर खा को जागीरदार बनाया और निजामुद्दीन औलिया के नाम पर निजामाबाद का नामकरण किया | इसी महोत्सव के दौरान कुछ चापलूसों ने खुट्वा गाँव के उत्तराधिकारी के बारे में भी कान भरा यह कहकर की ये लोग हुमायूँ के शत्रु हरबरन देव के पुत्र है दोनों भाई संग्राम सिंह चन्द्रसेन सिंह वहाँ से भाग गये | उनकी शनाख्त कालपी युद्ध के दौरान हुई जहां संग्राम देव पर आक्रमण हुआ वे बुरी तरह घायल हो गये और गुमनामी में मारे गये | चन्द्रसेन सिंह भूमिगत हो गये लाख खोजबीन के बाद भी उनका पता नही चला | सत्रहवी शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षो में जब सलीम ने बगावत की तो अकबर के शासन का सिक्का घिसने लगा था वह बीमार और टूटा भी था तब संग्राम के चन्द्रसेन सिंह पुन: खुट्वा आ गये और मुग़ल शासन से असंतुष्ट ठाकुरों को मिलाकर एक नामवर सरदार बन बैठे | निजामाबाद और उसके निकटवर्ती इलाको में घनी मुस्लिम बस्ती थी , आज भी है ( फूलपुर सरायमीर फरिहा मग्रवा ) इसीलिए चन्द्रसेन सिंह को बहुत विरोध भी सहना पडा | इससे पूरब मेहनगर लालगंज की और श्रीनेत कौशिक बिसेन ठाकुरों का बाहुल्य था पश्चिम में पालीवाल ठाकुरों का आधिपत्य था इसलिए चन्द्रसेन सिंह खुट्वा से हटने की सोचने लगे ! उन्होंने मेहनगर का चुनाव भी किया जो खुट्वा से तीन चार किमी दक्षिण है |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
सन्दर्भ -- आजमगढ़ का इतिहास - राम प्रकश शुक्ल निर्मोही
सन्दर्भ आज़मगढ़ का इतिहास हरी लाल शाह
सन्दर्भ -- आजमगढ़ का इतिहास - राम प्रकश शुक्ल निर्मोही
सन्दर्भ आज़मगढ़ का इतिहास हरी लाल शाह
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