किसान आन्दोलन की शुरुआत ब्रिटिश गुलामी के समय से हुई थी | वह आन्दोलन बदलते रूप एवं चारित्रिक विशेषताओं के साथ 1947 - 50 के बाद भी चलता रहा | बीते समय के साथ किसान आन्दोलन के बदलते मुद्दों मांगो एवं समस्याओं के साथ किसान सगठनों के भी रूप बदलते रहे | किसान आंदोलनों एवं सगठनों के इतिहास के बारे में फिलहाल यहाँ हम एक मोटी रूपरेखा प्रस्तुत कर रहे है , ताकि आम किसान उससे प्रेरणा लेकर वर्तमान समय की अपनी समस्याओं को लेकर किसान समुदाय को सगठित करने का काम कर सके | साथ ही अपनी मांगो एवं आंदोलनों का निर्धारण भी कर सके |
ब्रिटिश शासन काल में किसान आन्दोलन मुख्यत" जमींदारों व महाजनों के अधिकाधिक लगान और अधिकाधिक सूदखोरी के विरोध में चलते रहे थे | साथ ही ये आन्दोलन इन जमींदारों महाजनों के साथ खड़े ब्रिटिश शासन - व्यवस्था के दमन उत्पीडन के विरुद्ध भी चलते रहे थे | इसके अलावा वे आन्दोलन आदिवासी क्षेत्र के भूमि पर ब्रिटिश शासन और उनके जमींदारों के अतिक्रमण व कब्जे के विरोध में तथा नील , चाय जैसी नयी खेती के मालिको द्वारा उसमे श्रम करने वाले किसानो व श्रमिको के भारी शोषण दमन के विरुद्ध भी चले | 1850 से लेकर 20 वी शताब्दी के शुरूआती वर्षो में ये सभी किसान एवं भूमि आंदोलनों क्षेत्रीय आन्दोलन ही बने रहे | इन आंदोलनों मव 1855-56 का स्थल विद्रोह 1857 के महा विद्रोह में किसानो की सबसे व्यापक भागीदारी 1860 में बंगाल में नील किसानो का विद्रोह 1875 में दक्षिण भारत में किसानो द्वारा मारवाड़ी एवं गुजराती साहुकारो के विरुद्ध विद्रोह के साथ ही साथ महाराष्ट्र में कपास किसानो का महाजनों व्यापारियों के विरुद्ध किया गया विद्रोह प्रमुख था 1895 में पंजाब के किसान समुदाय द्वारा बढती ऋणग्रस्तता के परिणाम स्वरूप उनकी जमीनों का सूदखोर महाजनों एवं अन्य गैर कृषक हिस्सों के पास हस्तांतरण के विरोध में सगठित विरोध किया गया | इसके फल स्वरूप ब्रिटिश हुकूमत को ''पंजाब भूमि अन्याकरण अधिनयम ' पास करना पडा |
बाद के सालो में कांग्रेस पार्टी ने भी किसानो के दमन अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठायी पर उसने रियाया व प्रजा किसानो के हितो के लिए कानून बनाने की मांग नही की | 1915 में गांधी जी के आगमन के बाद उन्होंने और कांग्रेस पार्टी ने बिहार के चम्पारण के नील किसानो के शोषण - दमन के विरोध में तथा महाराष्ट्र के खेडा क्षेत्र के किसानो के साथ भारी सूखे के बावजूद महाराष्ट्र सरकार द्वारा भारी कर वसूली के विरोध में सत्याग्रह आन्दोलन के जरिये भागीदारी निभाई | इससे कृषक समुदाय को थोडा बल जरुर मिला था | पर गांधी जी और कांग्रेस ने किसान आन्दोलन को अपने राष्ट्रीय एवं जनांदोलन का हिस्सा कभी नही बनाया | बाद में कांग्रेस के सोशलिस्ट धड़े ने तथा कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वत: स्फूर्त ढंग से उठते किसान आन्दोलन का समर्थन करने के साथ उसे संगठित करने का भी काम किया | उसके फलस्वरूप जमींदारी , महाजनी तथा उसके सरक्षक बने ब्रिटिश राज के विरुद्ध 1920 के बाद से बंगाल , पंजाब , उत्तर प्रदेश बिहार में किसान सभाओं का गठन किया |
1928 में आंध्र प्रांतीय रैयत सभा और 1936 में बिहार जमींदारों के अपनी काश्त कही जाने वाली कृषि भूमि पर रियाया के शोषण के विरुद्ध 'बाकाश्त भूमि विरुद्ध आन्दोलन '' शुरू किया गया | वहाँ की किसान सभा ने जमींदारों द्वारा बेदखल किये गये किसानो को सगठित व आंदोलित करने में अग्रणी भूमिका निभायी | अखिल भारतीय किसान सभा के 1936 में लखनऊ अधिवेशन में कृषको पर चढ़े कर्ज की वसूली स्थगित करने , कम उपजाऊ जमीनों पर भूमि कर हटाने , कृषि मजदूरो का न्यूनतम वेतन निश्चित करने , गन्ना व अन्य व्यापारिक फसलो का उचित मूल्य भाव तय करने सिंचाई के साधनों को मुहैया करने आदि की मांग की गयी | इसके साथ ही किसान सभा किसानो से स्वतंत्रता आन्दोलन में भी भाग लेने का भी आव्हान किया |
किसान सभाओं के गठन एवं आन्दोलन के दबाव में कांग्रेस ने भी 1936 के बाद के अधिवेशनो में खासकर करांची एवं फैजपुर अधिवेशनो में लगान कम करने का , पुराने चढ़े लगान व ऋण को समाप्त करने का , कृषि मजदूरो के लिए न्यूनतम वेतन की मांग का प्रस्ताव किया | जमींदारों के भूमि बेदखली के विरोध में किसानो के चल रहे मांगो आंदोलनों के दबाव में कांग्रेस पार्टी ने जोतने वालो को जमीन का मालिकाना देने का नारा जरुर दिया पर तब तक जमींदारी उन्मूलन को उन्होंने कृषि कार्यक्रम का हिस्सा नही घोषित किया था | 1847 से ठीक पहले के सालो में तीन बड़े आन्दोलन के रूप में बंगाल का ''तेभागा आन्दोलन'' , हैदराबाद का ''तेलगाना आन्दोलन'' पश्चिमी भारत का ''वरली आन्दोलन'' प्रमुख थे |
तेलगाना आन्दोलन तो 1947 के बाद तक चलता रहा | वह आन्दोलन वहां के शासक निजाम और बड़े भूस्वामियो के विरुद्ध 1945 से शुरू हुआ था | इसके फलस्वरूप वहाँ भूमि हदबंदी पहले 500 एकड़ फिर 100 एकड़ का निर्धारण करने के बाद निकली जमीनों को भूमिहीन एवं गरीब किसानो में बाटा गया | उस समय की अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी इस आन्दोलन की अगुवा शक्ति थी | इसके अलवा पटियाला के रियाया किसान का आन्दोलन भी 1945 से शुरू हुआ था | इसने रियाया कृषको एवं भूस्वामियो के बीच होते रहे लम्बे एवं कटु संघर्ष को पटियाला ''मुजरा आन्दोलन'' के रूप में जाना गया | नक्सलबाड़ी आन्दोलन के नाम से विख्यात आन्दोलन भी मुल्त: किसान आन्दोलन ही था | वह आन्दोलन दरअसल भूस्वामियो के विरुद्ध भूमिहीन एवं छोटे किसानो का सगठित एवं सशक्त आन्दोलन था , भारी दमन के चलते तथा आन्दोलन के नेतृत्व में बढ़ते फूट के चलते यह आन्दोलन किसान आन्दोलन के रूप में कमजोर पड़ता गया और ग्रामीण एवं कृषक आन्दोलन की जगह शहरी प्रगतिशील एवं मध्यमवर्गीय आन्दोलन के रूप में सीमित हो गया | आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में भी बड़े भूस्वामियो के विरुद्ध नक्सलबाड़ी जैसा सशत्र कृषक आन्दोलन शुरू हुआ था , जिसे बाद में दबा दिया गया | इन आंदोलनों में आधुनिक खेती के खड़े हो रहे नए पूजीवादी शोषको का विरोध नही हो पाया | आधुनिक खेती को अपनाए जाने के साथ ही नए किसान आन्दोलन का जन्म हुआ 1980 में महाराष्ट्र के ''शेतकारी सगठन'' ने प्याज व गन्ने के बेहतर मूल्य को लेकर किसानो को सगठित व आंदोलित किया | 1986 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन , तमिलनाडू में ''विवसगल संगम आन्दोलन'' ने लाखो किसानो को आन्दोलन में उतारा | इन सगठनों ने विभिन्न कृषि उत्पादों के मूल्य भाव बढाने बिजली सिंचाई के दर रेट घटाने कृषि ऋण माफ़ करने आदि की मांग को आगे करके किसानो को सगठित व आंदोलित करने का काम किया था | विडम्बना यह है कि इन किसान आंदोलनों को गैर राजनीतिक कहते और प्रचारित किये जाने के वावजूद सभी सगठन विभिन्न राजनीतिक दलों व नेताओं के समर्थक बनते गये |साथ ही इन सगठनों के किसान सगठन और किसान आन्दोनो में गिरावट आई |
1991 में लागू की गयी आर्थिक नीतियों एवं 1995 में स्वीकार किये गये डंकल प्रस्ताव के बाद ये सभी किसान सगठन एवं आन्दोलन लगातार कमजोर पड़ते गये या कमजोर किये जाते रहे | इस दौर में किसान सगठन एवं आन्दोलन को ही नही बल्कि मजदूरो एव अन्य जनसाधारण के आंदोलनों एवं सगठनों को भी कमजोर किया गया | उसमे सागठनिक टूटन को विभिन्न रूपों में बढ़ावा दिया गया | क्योकि इन आर्थिक नीतियों तथा डंकल प्रस्ताव में देश विदेश के धनाढ्य वर्गो के दबाव में सभी पार्टियों की सरकारों द्वारा जनविरोधी नीतियों को लागू करने तथा बढाने हेतु जन आंदोलनों व सगठनों को तोड़ना जरूरी हो गया था जैसा आज भी हो रहा है इसका परीलक्षण सभी प्रमुख राजनीतिक दल के अपने ट्रेड यूनियनों एवं किसान सगठनों के कमोवेश निष्क्रिय होते जाने के रूप में भी सामने आ रहा है | अब उनका मुख्य कार्य पार्टी के लिए किसानो को उनके वोट बैंक को जोड़ना रह गया है | किसानो की बढती समस्याओं संकटो के विरुद्ध किसानो को सगठित एवं आंदोलित करना उनका कार्यभार कदापि नही रह गया है | वर्तमान समय में बहुप्रचारित किसान आन्दोलन कई बार तो विपक्षी पार्टियों या फिर गैर सरकारी सगठनों द्वारा या कही कही स्थानीय किसानो द्वारा चलाए गये छोटे - छोटे आंदोलनों के रूप में सामने आ रहा है | कृषि भूमि के अधिग्रहण के विरुद्ध 3 - 4 साल पहले विभिन्न क्षेत्रो में खड़ा होता आन्दोलन भी अब सरकारों द्वारा दिए जा रहे मुआवजे की भारी एवं अप्रत्याशित काम के जरिये धाराशायी कर दिया जा रहा है | ऐसी स्थित में समस्याग्रस्त किसानो उनके समर्थको को किसान सगठन व आन्दोलन की नयी शुरुआत करने की जरूरत है | अपनी समस्याओं मांगो को लेकर सभी धर्मो जाति के श्रमजीवी किसानो को स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर किसान सगठनों समीतियो के रूप में सगठित होने की अनिवार्य आवश्यकता खड़ी हो गयी है |कारण है कि अब विभिन्न पार्टियों के उच्च नेतागण प्रचार माध्यमो के उच्च स्तरीय प्रवक्ता किसान विरोद्शी नीतियों को लागू करने के साथ अपने आप को किसान हितैषी के रूप में प्रचारित करने के साथ किसानो को धर्म जाति क्षेत्र की परस्पर विरोधी गोलबन्दियो में बाटने तोड़ने में लगातार लगे हुए है | इसीलिए अब किसानो को उनकी समस्याओं के कारणों को जानने समझने तथा किसानो को जागृत संगठित एव आंदोलित करने का दायित्व सक्रिय प्रबुद्ध किसानो तथा किसान समर्थको का ही है | याद रखने की जरूरत है कि वे यह काम किसान की पहचान को प्रमुखता देकर ही कर सकते है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक ''चर्चा आजकल ''
आपका आभार पूज्यवर की आपने मुझे चर्चामंच पर स्थान दिया
ReplyDelete