{ अंग्रेजो ने भारत के कपडे उद्योग को बर्बाद किया था }
क्या आज के दौर में देशी व विदेशी कम्पनियों के लूट ने ठीक वही काम नही किया है ? क्या वर्तमान समय में ये कम्पनिया लागत बढाने के साथ -- साथ बड़े उद्योगों के देशी व आयातित विदेशी मालो सामानों से बुनकरों का उत्पादन व बाजार नही छीन रही है ? बुनकरों एवं अन्य दस्तकारो को साधनहीन नही बना रही है ? बिलकुल बना रही है क्या आज बुनकर व अन्य मेहनतकश समुदाय बुनकरों के उस संघर्ष से प्रेरणा लेगा ? क्या वह वैश्वीकरणवादी नीतियों , संबंधो का विरोध भी संगठित रूप में करने का प्रयास करेगा ? जिसकी आज तात्कालिक पर अनिवार्य आवश्यकता सामने खड़ी हो चुकी है |
अंग्रेज सौदागरों ने आकर इस देश के उद्योग -- धंधो को खासकर कपड़ा उद्योग को बुरी तरह से नष्ट किया , यह जग जाहिर है | भारत के बुनकरों ने , जिनके हाथ का बना कपड़ा , दुनिया में मशहूर था , इन सौदागरों के शोषण -- उत्पीडन का संगठित मुकाबला करने का भरसक प्रयत्न किया | सन्यासी विद्रोह के दौरान इन कारीगरों के एक हिस्से ने फ़ौज से बर्खास्त सैनिको और किसानो के साथ मिलकर अंग्रेज सौदागरों का सशत्र मुकाबला किया था | इस सशत्र प्रतिरोध के अलावा उन्होंने संघर्ष के कई हथियार अपनाए | सूबा बंगाल ( अर्थात आज का प. बंगाल बंगलादेश , बिहार , ओड़िसा ) की जमीन पर पैर रखते ही अंग्रेज सौदागरों ने खासकर यहाँ के सूती और रेशमी कपडे के कारीगरों को लूटना आरम्भ किया | वह लघु उद्योगों का जमाना था , आजकल की तरह बड़े -- बड़े कारखाने उस वक्त न थे | शोषण तो देशी सौदागर भी करते थे ,पर वे उद्योग को ज़िंदा रखते थे | इन कारीगरों को मनमाने ढंग से लूटने के लिए अंग्रेज सौदागर उन्हें बंगाल के विभिन्न हिस्सों से लाकर कलकत्ता के आसपास रखना चाहते थे | प्रलोभन यह दिया जाता था कि कम्पनी बागियों ( मराठो ) और अन्य आक्रमणकारियों से उनकी रक्षा करेगी | बागियों के आक्रमण के वक्त बहुत से धनी लोग अंग्रेजो का संरक्षण स्वीकार कर कलकत्ता में आ बसे | लेकिन इन कारीगरों ने उस वक्त भी यह संरक्षण स्वीकार नही किए | वे उत्तर बंगाल चले गये और वहाँ अपनी बस्तिया स्थापित की | स्वंय ब्रिटिश सौदागर विलियम बोल्ट्स ने अपनी रचना '' भारत के मामलो पर विचार '' में उल्लेख्य किया है कि अंग्रेज सौदागरों के शोषण -- उत्पीडन के कारण मालदह के जंगलबाड़ी अंचल के 700 जुलाहे परिवार बस्ती छोडकर चले गये और अन्यत्र जाकर बस्ती स्थापित की |18 वी सदी के अंतिम भाग में पूर्व भारत के जिन केन्द्रों से ईस्ट इंडिया कम्पनी सूती कपडे इस देश से ले जाती थी , वे थे ढाका 19 जुलाई 1786 में 21 नियमो ( रेगुलेशन ) की एक तालिका पास की गयी | इसके जरिये हुक्म दिया गया कि हर जुलाहे को एक टिकट दिया जाएगा जिस पर उसका नाम निवास स्थान उस कोठी का नाम जिसके मातहत वह काम करता है लिखा रहेगा | उस पर यह भी दर्ज रहेगा कि उसे कितनी रकम अग्रिम और कितने समय के लिए दी गयी है तथा उसने कितना कपडा कम्पनी को दिया है | रेगुलेशन 11 में कहा गया था कि अगर कोई जुलाहा निश्चित अवधि के अन्दर कपड़ा न दे सका , तो कम्पनी के एजेंट को उस पर पहरेदारी के लिए अपने आदमी बैठाने की स्वतंत्रता होगी | ये पहरेदार निगरानी रखते की जुलाहा और उसके परिवार वाले कोई कपड़ा तैयार कर दूसरे के हाथ न बेच सके | इन पहरेदारो का खाना पीना जुलाहे के ही मथ्थे जाता था |
रेगुलेशन 12 में कहा गया कि कम्पनी का काम करने वाला कोई जुलाहा कम्पनी को निश्चित कपड़ा देने के पहले अगर किसी दूसरे व्यापारी के हाथ कपडा बेचेगा तो उसे अदालत दंड देगी | रेगुलेशन 14 में हुक्म दिया गया कि हर परगने की कचहरी में कम्पनी द्वारा नियुक्त जुलाहों की तालिका टांग दी जाए | कम्पनी के गुमाश्ते जुलाहों को अग्रिम पैसा लेने और कम्पनी के लिए कपड़ा तैयार करने को मजबूर करते | उनसे जबरदस्ती समझौते पर दस्तखत कराते या अंगूठे निशान लगवाते | इन कानूनों ने इन समझौतों को न मानना अपराध करार देकर जुलाहों को खरीदे गुलाम की हालत में पहुचा दिया |
30 सितम्बर , 1789 में पूरक नियम पास करके ये कानून और भी कठोर बना दिए गये | अब व्यवस्था की गयी कि जुलाहा निश्चित अवधि के अन्दर कपडा नही दे सकेगा तो , उसे पेशगी वापस करने के अलावा जुर्माना भी देना होगा | जिस जुलाहे के पास एक से ज्यादा करघे थे और मजदूर रखता था , वह अगर लिखित समझौते के अनुसार कपड़ा नही दे पाता तो उसे बकाया थानों की पेशगी वापस करने के साथ --साथ हर थान पर 35 प्रतिशत जुर्माना देना पड़ता और ऐसे ही बाद के बने कानून खुद इस बात के गवाह है कि भारत के जुलाहे अपनी मर्जी से ईस्ट इंडिया कम्पनी का काम नही करना चाहते थे | उनको कम्पनी का काम करने को मजबूर करने की गरज से ये सारे नियम बनाये गये थे | टिकट की व्यवस्था गुलामी के पटटे को तोड़ फेकने की चेष्ठा इन लोगो ने अपनी शक्ति के अनुसार की | कम्पनी ने नियम बनाकर जुलाहों पर जो प्रतिबन्ध लगा दिए थे , उससे उनमे बड़ा असंतोष फैला | नए रेगुलेशन पास होते ही उन्होंने टिकट लेने से इनकार कर दिया | जार्ज उदनी ने मालदा से रिपोर्ट भेजी कि वहाँ के जुलाहे 30 अक्तूबर 1789 के कानून के सख्त विरोधी है और दंड देने वाली धारा को मानकर चलने को कतई तैयार नही है | जुलाहों ने निश्चय किया कि वे कम्पनी से अग्रिम न लेंगे , क्योंकि समझौते के अनुसार समय पर माल देने में बीमारी सूत का अभाव , जमीदारो के साथ झगड़ा आदि कितनी ही बाते बाधक बन सकती है | ठीक समय पर कपड़ा देना चाहने पर भी हो सकता है कि वे ऐसा न कर सके | वैसी हालत में कानून के अनुसार उन्हें जुर्माना देना होगा | इससे बेहतर है कि वे कम्पनी का माल ही न बनाये | इन जुलाहों के नेताओं के नाम भी हमें मिलते है | ढाका के तीताबाड़ी केंद्र के कारीगर गौतम दास ने अंग्रेज सौदागरों के शर्तनामे पर दस्तखत करने से इनकार किया , तो मैककुलुम ने उन्हें अपनी कोठी में कैद कर इतना अत्याचार किया की वे मर गये | इस घटना से तीताबाड़ी के जुलाहों में असंतोष फैला | यह अत्याचार बंद कराने के लिए व्यापक आन्दोलन चलाए | शांतिपुर के जुलाहों का एक प्रतिनिधि मंडल पैदल चलकर कलकत्ता आया था और लार्ड साहब की काउन्सिल के सामने अर्जी पेश कर कम्पनी के ठेकेदार के जुल्मो को बंद करने की माँग की थी | नि:संदेह शांतिपुर के इन कारीगरों ने लम्बे समय तक संगठित प्रतिरोध का प्रदर्शन किया था राजशाही जिले के हरीयाल आड्ग के कामर्शियल रेजिडेंट सैमुएल बीचक्राफ्ट ने बोर्ड आफ ट्रेड को 31 जुलाई 1794 को सूचित किया की खाद्यान्न और रुई की कीमत बढ़ जाने के कारण इस आड्ग के जुलाहे कपडे की ज्यादा कीमत माँग रहे है | उन्होंने अंग्रेजो के लिए एकदम बारीक कपड़ा बनाना बन्द कर दिया और देश के गरीबो की जरूरत व माँग अनुसार मोटा - मझोला कपड़ा बना रहे है | बीचक्राफ्ट , बल का प्रयोग आदि सब उपाय करके भी कारीगरों को अपने फैसले से नही हटा सके |1799 में हुगली के हरिपाल आड्ग के द्वारा हट्टा शाखा के जुलाहों ने आड्ग के रेजिडेन्ट को साफ़ सूचित किया की वे अब कम्पनी के लिए कपड़ा तैयार न कर सकेंगे | रेजिडेन्ट बहुत चेष्टा करने पर भी उनकी एकता तोड़ न सका | भारत के कपड़ा कारीगरों ने इस प्रकार अपनी शक्ति भर अंग्रेज सौदागरों का मुकाबला किया | पर अंग्रेज सौदागरों के पीछे कम्पनी की राजसत्ता थी | इस राजसत्ता के प्रयोग से वे कारीगरों का प्रतिरोध कुचल देने में समर्थ हुए | प्रतिरोध करना असम्भव देख कारीगरों ने अपना काम छोड़ दिया | भारत का वस्त्र उद्योग इस तरह नष्ट होता गया | जो भारत पहले सारी दुनिया को वस्त्र देता था , वह क्रमश: ब्रिटेन के और फिर दूसरो के वस्त्र का बाजार बन गया | ब्रिटिश साम्राज्यी द्वारा खासकर 1810 के बाद शुरू की गयी यह रणनीति तबसे आज तक चलती आ रही है | राष्ट्र के आत्मनिर्भर उत्पादन को तोडकर उसे साम्राज्यी देशो पर निर्भर बनाने की प्रक्रिया निरन्तर चलती जा रही है | इसके फलस्वरूप बुनकरों के समेत विभिन्न कामो पेशो में स्थाई रूप से और पुश्त -- दर पुश्त से लगे जनसाधारण के जीविका के साधन टूटते जा रहे है | उनकी बड़ी संख्या अब गरीबी , बेकारी आदि की शिकार होती जा रही है , आत्म हत्याए तक करने के लिए बाध्य होती जा रही है | देश का वर्तमान दौर इसका साक्षी है |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
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