ब्रिटिश राज से अब तक के चुनाव भागीदारी से महत्वपूर्ण सबक -
ब्रिटिश राज में चुनावी भागीदारी की शुरुआत 1857 के महान आन्दोलन के बाद शुरू किये गये सवैधानिक सुधारों के जरिये हुई थी | यह शुरुआत 1857 के संग्राम और उसके बाद हिन्दुस्तानियों द्वारा अपने अधिकारों की मांगो के साथ चलाए जा रहे आंदोलनों के साथ 1905 के बाद स्वराज एवं स्वतंत्रता की मांगो के साथ खड़े आंदोलनों संघर्षो के चलते ही 1903 , 1919 और फिर 1935 के सवैधानिक सुधार लाये गये | इन सवैधानिक सुधारों के जरिये ही सम्पत्तिवान , सुशिक्षित एवं पद - पदवी प्राप्त भारतीयों को मतदाता एवं शासकीय प्रतिनिधि बन्ने के अधिकार मिलते रहे | इस प्रक्रिया की परिणिति 1950 में देश को गणतंत्र घोषित किये जाने के बाद से देश के सभी व्यस्क लोगो को मिले मताधिकार के रूप में आया |
चुनावी भागीदारी बढ़ने और उसका जनसाधारण समाज तक विस्तारित होने के इस इतिहास से यह सबक निकालन मुश्किल नही है कि चुनाव में भागीदारी के अधिकार का मिलना ब्रिटिश राज्विरोधी आंदोलनों संघर्षो का परिणाम था | चुनावी भागीदारी बढ़ने के साथ हिन्दुस्तानियों के , खासकर धनाढ्य एवं उच्च वर्ग के हिन्दुस्तानियों के अधिकारों में वृद्धि होती रही है | जनसाधारण के लिए अधिकारों में वृद्धि की एक बड़ी परिणिति 1950 के तुरंत बाद लागू किये गये जमींदारी उन्मूलन कानून एवं कई अन्य सवैधानिक अधिकारों के रूप में हुई | इसके वावजूद 1950 के बाद चुनावी भागीदारी के साथ बढती समस्याओं को लेकर ज्नान्दोअलन का सिलसिला कमोवेश चलता रहा | जिसके फलस्वरूप भी जनसाधारण के जीविकोपार्जन के अवसरों को कुछ बढ़ावा मिलने के साथ शिक्षा , चिकित्सा जैसे आवश्यक सेवाओं में भी वृद्धि होती रही | पर 1980 - 85 के बाद लगातार घटते जन आंदोलनों के साथ जनसाधारण के उपरोक्त जनतांत्रिक अधिकारों में लगातार कटौती होती रही | हालाकि उसके मतदान के अधिकारों में अभी प्रत्यक्ष कटौती नही हुई है , पर उसमे भी अचानक कटौती का परिलक्षण 1975 में लगे आपातकाल के दौरान हो चूका है | फिर अब उसका एक दुसरा परिलक्षण , धर्म , जाति के पहचानो के मुद्दों पर मताधिकार को संकुचित सक्रीण बनाये जाने के रूप में लगातार किया जा रहा है | 1947-50 से पहले और उसके बाद के जन आंदोलनों के अभाव में जन साधारण को मिले मतदान के अधिकार को भी को संकुचित बनाया जाना या कभी आवश्यकता पड़ने पर खत्म किया जाना लगभग निश्चित है | इसलिए जन साधारण को अपने व्यापक एवं बुनियादी हितो में मांगे उठाना और उसके लिए आन्दोलन करना आवश्यक हो गया है || साथ ही मतदान के अधिकार को भी अपने बुनियादी एवं व्यापक समस्याओं के साथ जोड़ना आवश्यक हो चूका है ||
इसके लिए पहली आवश्यकता तो यह है की जनसाधारण किसान , मजदुर एवं अन्य समस्याग्रस्त श्रमजीवी अपने शारीरिक एवं मानसिक श्रमजीवी पहचानो मुद्दों को प्रमुखता देते हुए मतदान करें | अगर कोई पार्टी प्रत्याक्षी जनहित का प्रतिनिधित्व करता नही मिल पाता तो वे सभी पार्टियों के विरुद्ध मतदान करें | इस विरोध को घोषित करने के साथ ''नोटा ''पर मतदान जनविरोध का व्यक्त करने का एक विकल्प बन सकता है | फिर कल मतदान के रूप में खड़े जनविरोध को जनसमस्याओ के विरुद्ध जनांदोलन में बदला जा सकता है और बदल देना चाहिए | जनहित के लिए जनांदोलन को बहुआयामी बनाने की शुरुआत अगर ब्रिटिश काल में ब्रिटिश राज विरोधी आंदोलनों से हुई थी तो आज की शुरुआत चुनाव में जनविरोधी नीतियों के जनविरोध की अभिव्यक्ति के साथ ''नोटा '' पर मतदान के रूप में की जा सकती है |
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