आयात निर्यात का एक दिलचस्प
उदाहरण देश के कुल निर्यात में पिछले 17
महीनों से कमोवेश लगातार कमी आ रही है | यह गिरावट और ज्यादा
होती अगर भेड़ , बकरी , भैस , मुर्गी
तथा बैल आदि के निर्यात ( जीवित प्राणियों के रूप में निर्यात ) में 400% की
वृद्दि नही होती मवेशिवो के निर्यात में
सबसे ज्यादा वृद्दि भेड़ो के निर्यात में हुई है | 2014- 15 में 10 हजार
डालर की भेड़ो का निर्यात 2015 - 16 में
बढ़कर 205 करोड़ डालर पहुच गया | भेड़ो
और फिर बकरियों का सबसे ज्यादा निर्यात खाड़ी देशो को और उससे भी सर्वाधिक निर्यात
संयुक्त अमीरात को हुआ | मवेशियों के इस निर्यात से भी
अधिक वृद्दि भारतीय छतरियो के निर्यात में हुई | पिछले एक साल में छतरियो
के निर्यात में 900% की वृद्दि हुई है | मूल्य के रूप में 2.3 करोड़
डालर ( 150 करोड़ रूपये ) से अधिक मूल्य की
छतरियो का निर्यात हुआ | छतरियो के इस निर्यात के साथ
दिलचस्प विरोधाभास तथ्य है कि इस देश में छतरियो का घरेलू बाजार लगभग 5000 करोड़
रूपये का है और इस देशी बाजार में चीन की आयातित छतरियो का बोलबाला है | यह
स्थिति देश की छतरी उद्योग के देशी बाजार को घटाकर उसे महज अंतरराष्ट्रीय एवं
अपेक्षाकृत छोटे बाजार पर निर्भर बना देने का द्योतक है | देश के
टिकाऊ भरोसेमंद एवं आत्मनिर्भर बाजार को छोड़कर विदेश के अस्थायी एवं परनिर्भर
बाजार को अपनाते जाने का द्योतक है | साथ ही यह देश में छतरी
उद्योग के उत्पादन को मुख्यत: निर्यात के लिए उत्पादन के रूप में उसके विकास
विस्तार को सीमित कर देने की साजिश है |
चीन से सालो साल से उपभोक्ता सामानों के बढ़ते आयात ने इस देश में वहा के मालो
सामानों के बाजार को तो बढ़ा दिया है |
देश में खिलौनों से लेकर छतरियो आदि के देशी उत्पादन व
बाजार को घटा दिया है | देश के आम उपभोक्ताओं को भी चीनी सामानों पर निर्भर बना
दिया है | चीन भी इस देश की बड़ी कम्पनियों के पूजी निवेश को छुट तभी देता है या
कोई कूटनीतिक समझौता तभी करता है जब उसे मालो , सामानों के बाजार को इस देश में बढाने की छुट मिलती है |
भारत और चीन की कुटनीतिक दोस्ती के पीछे भारतीय कम्पनियों का
चीन से सुविधापूर्ण निवेश के लिए तथा चीन में उत्पादित मालो सामानों के इस देश में
बढ़ते बाजार के लिए होता रहा आर्थिक समझौता ही प्रमुख रहा है | हालाकि उसके परिणाम
स्वरूप देश के अपने लघु उत्पादक संकटग्रस्त होते रहे है | इन क्षेत्रो के उत्पादक
अपना रोजी रोजगार छोड़ने के लिए विवश है | विदेशीपूजी तकनीक के अंधाधुंध आयात के
साथ विदेशी मालो मशीनों और अब आम उपभोक्ता सामानों का भी अंधाधुंध आयात बढ़ता रहा
है बढ़ते आयात के चलते ( और निर्यात के घटते के चलते ) विदेशी देनदारी का बोझ भी
कमोवेश निरंतर बढ़ रहा है | इसके वावजूद अंतर्रराष्ट्रीय पूजी तकनीक व निवेश का लाभ उठाती देश की धनाढ्य कम्पनिया
सरकारों के जरिये विदेशी आयात को अंधाधुंध बढ़ावा दे रही है | देशी उत्पादन व बाजार
को हतोत्साहित करती है |
दरअसल देश की जरुरतो के अनुसार उत्पादन व बाजार को किसी हद
तक नियंत्रित व संचालित करने का काम भी पिछले 20 सालो
से लगातार और नीतिगत रूप से छोड़ा जाता रहा है | विदेशी मालो सामानों के देश में
आयात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबन्ध को 1997 से
घोषित रूप से हटाया जाता रहा है | इन्ही नीतियों की घोषणाओं और उनके बढ़ते
क्रियान्वयन के फलस्वरूप आम उपभोक्ता सामानों से देश का घरेलू उत्पादन प्रभावित
होता रहा है इसके साथ ही घरेलू उत्पाद संकट में है | इस काम को देश की सभी सरकारों
आयातकों निर्यातको द्वारा संचालित किया जाता रहा है |
देश में छतरियो का उत्पादन और उसका घटता देशी बाजार तो
मात्र एक उदाहरण है | हाँ देश के निर्यात में महीनों से चल रही गिरावट के साथ
मवेशियों एवं छतरियो के निर्यात में भरी वृद्दि इस बात का सबूत पेश करती है की
यहाँ के बड़े औद्योगिक कम्पनियो के उत्पादों का विदेशी बाजार में मांग नही है या है
तो बहुत कम है | यही कारण है की विदेशो को किये जाने वाले निर्यात में सूती ऊनी कपड़ो
छतरियो तथा चावल चीनी चाय गोश्त मसाले सब्जी फल एवं जानवरों को खिलाने वाली खली
आदि ही प्रमुख है | तेज आधुनिक विकास से पहले यानी 25 – 30 साल
पहले भी इस देश के निर्यात में यही वस्तुए प्रमुखता से शामिल थी | जाहिर सी बात है
वैश्वीकरणवादी निजीकरणवादी एवं उदारीकरणवादी नीतियों को लागू किये जाने के
प्रचारित तीव्र विकास ने देश के निर्यात में किसी अन्य प्रमुख आधुनिक उत्पादन की
मान और उसके देशी उत्पादन में बढ़ोतरी तो नही की पर देश के उस उत्पादन को क्षति
जरुर पहुचाई जिस पर देश के घरेलू उत्पादक – खासकर
लघु एवं कुटीर उद्योगों के उत्पादक टिके हुए थे |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-08-2016) को "तिरंगा बना देंगे हम चाँद-तारा" (चर्चा अंक-2428) पर भी होगी।
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मित्रतादिवस और नाग पञ्चमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'