विदेशो में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन –
‘’
अप्रवास की परिधि से बाहर , राजनितिक कार्यो के कारण मुकदमो के शिकार , निष्कासन
की धमकियों से त्रस्त , नागरिकता से वंचित , भूमि के स्वामित्व से विहीन , यहाँ तक
कि उन राज्यों द्वारा , जहा अधिकांशत: वे रहते थे , जीवन – साथी के चयन में भी बंधित – भारतीय अब उस लघु – समुदाय के अंग रह गये थे , जो
अमेरिकनों से एक विशाल श्वेत दीवार से अलग कर दिए गये थे ‘’| - जोंन जैसन
“
पैसेज फ्राम इंडिया “
दिन – रात बढती रही भारतीयों
अप्रवासियो की त्रासदी | संचार यंत्रो का विष – वमन , संस्थाओं का उनके विरोध में धुँआधार प्रचार , उनके
तथा जन – प्रतिनिधियों के द्वारा
निरंतर भारतीयों के निष्कासन की माँग , कानूनों द्वारा नये भारतीय अप्रवासियो के
कनाडा और अमेरिका में प्रवेश करने पर प्रतिबन्ध | देश से दस हजार मील दूर संख्या में इतने कम ,
जहा उनको सुनने वाला न अपना देश , न उनके देश पर शासन करने वाली फिरंगी सरकार और न
वह इंग्लैण्ड , जिसके साम्राज्यों की आधी संख्या ने सैनिको के रूप में किया निष्ठा
भरा समर्पित बलिदान |
उन्हें यह समझते देर न लगी कि गोर साम्राज्य को अपनी सेवाए अर्पित कर यह समझना
कि उन्हें उस साम्राज्य के हर उपनिवेश को अपना घर बनाने का अधिकार मिल गया था ,
मात्र एक भ्रम था वे कनाडा , आस्ट्रेलिया आदि की रक्षा में अपने प्राण तो गंवा
सकते थे , पर उन गोरो के प्रदेशो में बसकर उनकी शुद्दता को नष्ट करने की कल्पना भी
साम्राज्य को स्वीकार न थी | पग – पग पर अपमानित करके यह अहसास उन्हें दिन – रात दिलाया जाता था | अपनी
सुरक्षा और अल्पमत अधिकारों की माँग को रखने के लिए उन्होंने कनाडा और अमेरिका में
अलग – अलग नीतिया अपनाई |
जहा तक कनाडा में आये भारतीयों का प्रश्न है , उन्होंने प्रतिवेदनो और कानूनों
का सहारा लेने का प्रयास किया | उन्होंने कनाडा की सरकार द्वारा प्रस्तावित इस
योजना पर भी गंभीर विचार किया कि भारतीय लोग कनाडा न आकर अंग्रेजो के अधीन टापू
हाण्डूरस में जाकर बसे |
इसकी सम्भावना को अमली जामा पहनाने से पहले उन्होंने मिस्टर हारकिन नाम के
अंग्रेज की छत्रछाया में सरदार नागर सिंह कोटली और सरदार शामसिंह डोगरा नामक दो
व्यकियो का प्रतिनिधि मंडल हाण्डूरस भेजा | 1908 में गये इस प्रतिनिधि मंडल ने हाण्डूरस को नारकीय पाया , जहा बसे कुछ भारतीय गुलामो से
भी बत्तर जीवन जी रहे थे | कनाडा में आये भारतीयों को वहा जाकर नर्क का जीवन
बिताना किसी भी अवस्था मे स्वीकार न था |
अपने उपर लगे पाबन्दिया के विरोध में 16 अप्रैल 1911 में वैनकुअर गुरुद्वारे में हुई एक विशाल सभा में उन्होंने
कई प्रस्ताव पास किये , जिनकी प्रतिलिपिया कनाडा और भारत की सरकारों को भेजी गयी |
इसी सभा में भी यह तय किया गया कि दो व्यक्ति भारत जाकर अपने परिवार को लाने का प्रयतन
करे | उनके प्रवेश न पाने के आधार पर मुकदमा दायर किया जाए |
खालसा दीवान सोसायटी के प्रधान भाई भागसिंह और गुरुद्वारे के मुख्य ग्रन्थि
बलवंत सिंह पंजाब गये | परिवार के साथ वापस वैनकुअर आने पर अधिकारियों ने उन्हें
उतरने न दिया | इस पर सारे कनाडा में भारतीयों में रोष फ़ैल गया | प्रस्तावों ,
पत्रों तारो का अम्बार लग गया | प्रेस ने भी साथ दिया | भारत में और कनाडा में
अनेक संस्थाओं ने इस अमानवीय व्यवहार कि निंदा की |
अंत में परिवारों को जमानत देकर प्रवेश मिला और अदालत की शरण ली गयी |
उसी वर्ष 25 नवम्बर
को खालसा दीवान सोसायटी और युनैतेद इंडिया लीग ने कनाडा की केन्द्रीय सरकार के पास
अपना प्रतिनिधि मंडल ओटावा भेज दिया |
डाक्टर सुन्दर सिंह , संत तेजासिंह , राजासिंह एवं पादरी एल डब्ल्यू हाल का यह
मंडल प्रधानमन्त्री से मिला | न्याय का भरोसा दिलाने पर भी मई 1912 में इन परिवारों को देश
छोड़ने का आदेश मिला | हाईकोर्ट के हस्तक्षेप से सरकार ने ‘ विशेष रियात ‘ कर परिवारों को रहने दिया |
कानून नही बदला |
1911 में
ही समस्त ब्रिटिश उपनिवेशों का सम्मेलन लन्दन में हुआ | वहा ‘ भारतीयों ने सब देशो के प्रधानमन्त्रियो से न्याय की असफल
अपील की | इससे अंग्रेजो की नियत और नीतियाओ का भंडाफोड़ तो हुआ ही |
22
फरवरी 1913
में आयोजित
कनाडा और अमरीका में रहने वाले भारतीयों की विशाल सभा ने निर्णय लिया कि भाई
नन्दसिंह बलवंत सिंह और नारायण सिंह का एक प्रतिनिधि मंडल लन्दन और भारत भेजा जाए
| उन्होंने लन्दन में और भारत के अनेक नगरो में अधिकारियो से भेट की और जनसभाओ को
सम्बोधित किया | भारतीयों की त्रासदी पर लेख लिखे समाचार पत्रों को साक्षात्कार
दिया | सब धर्मो और राजनितिक दलों के नेताओं से मिले | सब और से जनसमर्थन पर भी
परिणाम शून्य ही रहा | यहाँ तक की 24 नवम्बर 1913 को ब्रिटिश कोलम्बिया राज्य की हाई कोर्ट द्वारा भारतीयों
के पक्ष में निर्णय दिए जाने पर कनाडियन सरकार की नीतियों में जरा भी अंतर नही पडा
|
यही नही , धीरे – धीरे भारतीयों की समझ में यह
आने लगा कि ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा / सेवा में चाहे वे अपना तन – मन धन सब कुछ न्यौछावर कर दे ,
तो भी कभी भी किसी गोरो के उपनिवेश में आदर नही पा सकते |
इसी चिंतन ने इन ब्रिटिश सरकार परसत लोगो के मन में राष्ट्रीयता और एकता की
भावना को जन्म दिया | विदेशो की धरती पर |
1909
में ‘ हिन्दुस्तान एसोसिएशन ‘ की स्थापना हुई | बदलती
परिस्थितियों में यह संस्था न केवल भारतीयों के हितो की रक्षा के लिए कटिबद्द थी ,
वरन अंग्रेजो के विरुद्द भारतीय
स्वतंत्रता की पक्षधर भी होती गयी |
इस प्रकार जो लोग राजनीति के प्रति पूर्णत: उदासीन थे , ब्रिटिश साम्राज्य को
अपना हितैषी समझते थे , रोजी – रोटी कमाना मात्र ही जिनका ध्येय था , जीवन की पाठशाला में
शिक्षा पाकर राजनितिक चेतना के अग्रदूत बन गये | बस उन्हें दिशा देने वाले किसी
ज्योति स्तम्भ की तलाश थी | अपमानित और आहात होकर एक दिन उन्होंने ब्रिटिश सेना
में किये कामो के लिए पाए अलंकरण और वीरता के प्रशस्ति – पत्र / तमंचे – जिन्हें वे अपने जीवन की अमूल्य
उपलब्धि/ निधि मानते थे अग्नि को भेट कर दिए |
और रही – सही
कसर पूरी कर दी –
क्रांतिकारी ग्रंथी भाई भगवानसिंह के निष्कासन ने | ज्ञानी भगवान सिंह अमृतसर जिले
के वाडिग ग्राम के रहने वाले थे | उपदेशक
कालिज , गुजरांवाला में शिक्षा प्राप्त कर वे वहा अध्यापक भी रहे | वे किसानो के
हितो के आंदोलनों से जुड़े | ‘ पगड़ी सम्भाल जट्टा ‘’ आन्दोलन के प्रसिद्द नायक अमर शहीद भगतसिंह के चाचा अजित
सिंह की गिरफ्तारी और देश निकाले के बाद वे भी हांगकांग चले गये | वहा गुरुद्वारे
में तीन साल ग्रंथी रहे | वे एक सफल वक्ता थे लोकप्रिय थे | उनके प्रवचन में भीड़
रहती थी | सिख धर्म और दर्शन के विशेषज्ञ
होने के साथ – साथ
वे देशभक्ति से ओत –
प्रोत थे | उनके क्रांतिकारी भाषण के कारण उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया | अंत
में अप्रैल 1913 में
वे कनाडा आ गये और वैनकुअर गुरुद्वारे के ग्रंथी बन गये |
ज्ञानी भगवान सिंह ने अपने
क्रांतिकारी भाषणों से गुरुद्वारे को राष्ट्रीय आन्दोलन का मजबूत गढ़ बना दिया |
लोगो के आक्रोश को और बल मिला | क्नादिओयन सरकार ने उनके कनाडा – प्रवेश को अवैध घोषित करते हुए
उन्हें गिरफ्तार कर लिया | जमानत पर छूटकर वे मुकदमा लड़ रहे थे | किन्तु मुकदमे के
फैसला होने से पहले ही 18नवम्बर 1913 की रात को उन्हें सोते हुए गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी
मुश्क बांधकर एक जापानी जहाज में चढा दिया | जापान जाकर वे टोकियो में हिंदी /
उर्दू और इस्लाम धर्म / दर्शन के प्रोफ़ेसर बरकत उल्लाह के पास रहे |
इस प्रकार जहा न्यूयार्क में आयरिश राष्ट्रवादियो से प्रभावित भारतीयों ने
अपनी संस्था बनाकर स्वदेशी लोगो में राष्ट्रीयता की भावनाए जगानी शुरू की थी , वही
न्यूयार्क से वैनकुअर गये संत तेजासिंह ने यह घोषणा की उनका मिशन गुरु नानक ने स्वपन में दर्शन देकर
निर्धारित किया है , सिख सिपाहियों को आवाहन किया कि वे ब्रिटिश सम्राट को धरती पर
प्रभु का प्रतिनिधि न माने और उनकी वफादारी उसके प्रति नही देश के प्रति होनी
चाहिए | भारत से आये छात्रो में तो देशभक्ति की भावना भारत में ही पैदा हुई थी |
1907 में
भारत से निष्काषित रामनाथ पूरी ने उर्दू
भाषा में ‘
सर्कुलर – ए – आजादी ‘ निकालना शुरू कर दिया | उसके
माध्यम से राष्ट्रचेतना को जगाने के साथ भारतीयों को बन्दुक आदि शस्त्रों में प्रशिक्ष्ण
देने , जापानी जुडो आदि का अभ्यास कराने और भारत के प्रति अमरीका में हमदर्दी पैदा
करने की प्रेरणा दी |
बंगाल में चल रही स्वदेशी की लहर को समर्थन दिया | सियेटल में विश्व विद्यालय
के छात्र तारकनाथ दास , जिसे अपने विचारों के कारण ब्रिटिश सरकार के दबाव में
अप्रवास विभाग में दुभाषिये की नौकरी से हटाया गया था ने पहले वैनकुअर( कनाडा ) से
फिर सियेटन ( वाशिगटन राज्य , अमरीका ) से ‘फ्री हिनुस्तान ‘ नाम का मासिक पत्र निकला – क्रान्ति के लिए राजनितिक चेतना जगाने के लिए | उसके प्रथम
पृष्ठ पर सबसे उपर छपा था --- हरबर्ट स्पैन्सर का वाक्य ,’’ ‘’ अन्याय का विरोध करना
प्रभु के आदेश का पालन करना है |’’ उधर भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश से आये गुरुदित्त कुमार जो
कलकत्ता में उर्दू पढ़ाने के समय बंगाली क्रान्तिकारियो के सम्पर्क में आये थे , ‘ स्वदेश सेवक ‘ नाम से पंजाबी पत्र निकालने लगे
| उसमे भारत के लिए ‘पूर्ण
स्वराज ‘ की आवाज उठाई गयी थी |
विदेशियों द्वारा लूटमार को समाप्त करके स्वदेशी भावना , व्यापार का विकास करने की
प्रेरणा दी | ब्रिटेन में राष्ट्रीय भावनाओं को बढाने के लिए श्याम जी कृष्ण वर्मा
के द्वारा ‘
इंडिया हाउस ‘ की
स्थापना से प्रेरणा लेकर जी डी कुमार ने ‘स्वदेश सेवक होम’ बनाया | श्याम जी कृष्ण वर्मा के पत्र ‘ इन्डियन सोशियोलोजिस्ट ‘ की तरह था तारकनाथ दास का फ्री
हिन्दोस्तान ‘ | 1909 में हिन्दुस्तान एसोसियेशन
भी बनाई गयी थी , जी डी कुमार उसका मंत्री था जी डी कुमार हरनाम सिंह साहरी भारतीय
श्रमिको के साथ छोटी – छोटी
टोलियों में यहा – वहा
जाते जहा श्रमिक काम करते थे |
‘
स्वदेश सेवक ‘
द्वारा भारतीय विशेषत: सिख सैनिको को क्रान्ति का संदेश दिया जाता था | भारत में
बड़ी संख्या में भेजे जाने से अंग्रेजी सरकार की आँखों में काटा बन गया यह पत्र और 1911 में इसके भारत – प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया
गया | सिएटल आने पर कुमार और दास ने ‘यूनाइटेड इंडिया हाउस ‘कि स्थापना की | इस प्रकार धीरे धीरे वैनकुअर और अमरीका के
प्रशांत महासागरीय राज्यों में भारतीयों ने सगठन बनाने शुरू किये – एकता और भारत की स्वतंत्रता को
समर्पित | १९१२ में पोर्टलैंड ( ओरोगन राज्य ) में ‘ हिन्दुस्तान एसोसियशन आफ दी पैसेफिक कोस्ट ‘ बनाई गयी | बाबा सोहन सिंह भकना
प्रधान , जी डी कुमार मंत्री और पंडित काशीराम इसके कोषाध्यक्ष चुने गये |साथ ही
यह तय किया गया इस संस्था का ‘ दी इंडिया ‘ नाम का एक पत्र साप्ताहिक उर्दू में निकलेगा , जिसका सम्पादन
जी डी कुमार करेंगे |
इस संस्था का उद्देश्य भारत में स्वदेशी भाषाओं के पत्र मंगाकर प्रसारित करना
, भारत से छात्रो को बुलाकर उन्हें शिक्षा दिलाकर देश सेवा में जीवन समर्पित करने
की प्रेरणा देना , राष्ट्रीय हितो पर विचार करने के लिए साप्ताहिक बैठके करना था |
सर्दियों में इस संस्था की एक शाखा एस्टोरिया में स्थापित की गयी | इसके अधिकारी
थे – भाई केसर सिंह प्रधान ,
मुंशी करीम बख्श मंत्री और मुंशीराम कोषाध्यक्ष |
असोसिएशन की चार मीटिंग ही हुई थी कि जी डी कुमार बीमार हो गये , उन्हें
अस्पताल में भरती कराना पडा | साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ होने से पहले रुक गया | इसी बीच लाला ठाकुरदास , जो देश निकाला की
सजा काट रहे क्रांतिकारी थे , पोर्टलैंड आ गये | उससे पहले वे पेरिस में मैडम कामा
तथा एस आर राणा के साथ काम कर रहे थे | जब उन्हें बताया गया कि संस्था 1907 के पंजाब किसान आन्दोलन
के नेता भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह का विचार कर रही थी , तो उन्होंने सुझाव दिया
कि लाला
हरदयाल को बुलाया जाए , जो उस समय अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में ही थे | 1912 की शरद ऋतू में लाला
हरदयाल को सेन्टजान ( पोर्टलैंड के निकट ) आने का निमंत्रण दिया गया | उन्होंने यह
स्वीकार भी कर लिया |
प्रस्तुती --- सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक
क्रमश:
आभार आजादी या मौत --- वेद प्रकाश ‘वटुक “
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