भूमिहीन या लगभग भूमिहीन खेतिहर मजदूरो दस्तकारो अत्यंत छोटे जोतो से लेकर एक हेक्टेयर से कम जोतो के सीमान्त किसानो तथा एक से दो हेक्टेयर भूमि की जोत वाले छोटे किसानो में भूमि के बढ़ते विखण्डन के साथ ही भूमिहीनता बढती जा रही है | उन्हें अधिकाधिक संख्या में भूमिहीन एवं साधनहीन बनाती जा रही है यह सत्ता | 2010-2011 में देश में मौजूद औसत जोत का आकार 1.16 हेक्टेयर था देश में सभी जोतो वाले किसानो के मुकाबले एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानो की संख्या सबसे ज्यादा थी ( 67%थी ) जबकि एक से दो हेक्टेयर वाले किसान 17.9% दो से चार हेक्टेयर वाले किसान 10% 4 से 10 हेक्टेयर वाले किसान 4.2% और दस हेक्टेयर से अधिक जोत वाले किसान 0.7% थे | यह भी कहा जाता है कि एक हेक्टेयर से कम खेती अर्थात सीमांत किसानो की खेती अलाभकर खेती होती है | कृषि जोतो के पारिवारिक विभाजन एवं बढ़ते कृषि संकटो के कारण कृषि जोतो का बढ़ता विखण्डन बहुसंख्यक किसानो को अलाभकर खेती करने के लिए बाध्य करने के साथ अधिकाधिक संख्या में भूमि हीन बनाता जा रहा है | क्या इस भूमि के बढ़ते विखण्डन और बढती भूमिहीनता को रोका नही जा सकता ? क्या अलाभकर खेती को किसानो की साधारण व औसत बचत वाली खेती में बदला नही जा सकता ?
यह ऐसा सवाल है किजिसका समाधान मुख्यत: खेती पर जीवन टिकाये और विखंडित होती खेतियो के मालिक किसानो को ही सोचना होगा | फिर इस सवाल का समाधान खेतिहर मजदुर या अन्य ग्रामीण भूमिहीनों को भी सोचना होगा | इन हिस्सों के लिए इस सवाल को सोचना इसलिए जरूरी हो गया है कि अब देश - प्रदेश की सरकारे भूमिहीन या आम किसानो की खेती किसानी को बचाने व् बढाने का कोई प्रयास नही करती | उल्टे वे खेती के संकटो को बढाने उन्हें अलाभकर बनाने एवं संकटग्रस्त करने का ही काम कर रही है | वे किसानो से कृषि भूमि छीन लेने की प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रक्रियाओं को बढ़ाती जा रही है | बताने की आवश्यकता नही है कि 1950 के जमींदारी उन्मूलन कानून को लागू करने के बाद बहुतेरे जोतदार किसानो को जमीनों का मालिकाना देने तथा भूमिहीनों में सार्वजनिक भूमि एवं सीलिंग से निकली जमीन के थोड़े बहुत आवटन से उन्हें भी जमीन का एक छोटा सा टुकडा दिए जाने की प्रक्रिया चलाई गयी थी | इसके अलावा आधुनिक कृषि की योजनाओं एवं सरकारी सहायताओ छुटो अधिकारों के साथ जोतदार किसानो में खेती किसानी को प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया भी चलाई गयी थी | यह प्रक्रिया 1952-53 से खासकर 1960 से लेकर 1985 - 90 तक चलती रही | पर 1990 के बाद से उस प्रक्रिया को सभी सरकारों द्वारा उलटाया जाता रहा | 1991 से लागू की गयी आर्थिक नीतियों के जरिये उद्योग वाणिज्य व्यापार के धनाढ्य देशी - विदेशी मालिको को अधिकाधिक छूटे देने के साथ ही आम किसानो के आवश्यक हितो को भी घटाने का प्रक्रिया को बढाया गया | इसी प्रक्रिया के अंतर्गत गैर कृषि भूमि के साथ - साथ कृषि भूमि को भी विशिष्ठ आर्थिक जों विशिष्ठ निवेश जों आदि के नाम पर अधिग्रहण किये जाने की प्रक्रिया बढाई गयी | इसके अलावा औद्योगिक मालो - सामानों के व्यापार बाजार के विस्तार हेतु 4-6-8- या फिर उससे भी अधिक लेंन की सडको के निर्माण हेतु कृषि भूमि अधिग्रहण करने के सिलसिले को लगातार चलाया जा रहा है | स्वाभाविक है कि अब सरकारे सीमान्त एवं छोटे किसानो को तथा भूमिहीनों मजदूरो दस्तकारो को जमीन देने कृषि भूमि मालिको बनाने का काम नही कर सकती | वे तो उन पर बढ़ते कृषि समस्याओं संकटो का दबाव डालकर कृषि व कृषि को छोड़ने के लिए मजबूर
करती जा रही है | फिर सरकारों द्वारा तथा निजी क्षेत्रो के मालिको द्वारा किये जा रहे कृषि भूमि अधिग्रहण को शहरीकरण औद्योगिकीकरण एवं बाजारीकरण हेतु निरंतर बढ़ावा दिया जा रहा है | इस भूमि अधिग्रहण का किसानो द्वारा सालो - साल से किये जाते रहे विरोध के फलस्वरूप अब सरकारों द्वारा किसानो को मुंहमांगा दाम देकर जमीन ले लेने की नई रणनीति अपनाई गयी है | हालाकि यह बात निश्चित है कि जमीन के बदले मिल रहा अधिकाधिक रुपया किसानो एवं उनके सन्ततियो को जिवोकोपार्जन का पुश्त दर पुश्त स्थायी संसाधन या रोजगार मुहैया नही कर पायेगा | उनका धन बैंक या बाजार के रास्ते उद्योग व्यापार के धनाढ्य मालिको के पास ही वापस चला जाएगा |
इन परिस्थितियों में भूमि देकर अधिकाधिक पैसा पाने की आशा लगाये किसानो से तो फिलहाल कुछ भी कहना निर्थक है | पर खेती किसानी में लगे समस्याग्रस्त किसानो से उनकी अन्य समस्याओं के साथ पारिवारिक विभाजन से कृषि भूमि के लगातार विखंडित होने की समस्या पर चर्चा जरुर की जा सकती है यह चर्चा अत्यंत छोटे भूमिहीनों खेतिहर मजदूरो एवं दस्तकारो आदि से कृषि भूमि का मालिकाना बचाने और जोत का रकबा बढाने के सन्दर्भ में जरुर की जा सकती है | यह उन्ही की अनिवार्य आवश्यकता से जुदा मुद्दा है | यह काम किसानो से उनकी जमीन लेने की निति एवं प्रक्रिया अपनाई हुई सरकारे और उसमे आने वाली राजनितिक पार्टिया नही कर सकती |1955 से 1970 के दौर में सरकारों ने आधे आधुरे मन से सहकारी खेती के नाम पर इसकी कुछ शुरुआत भी की थी |सहकारिता व सामूहिकता को किसानो में लगातार बढ़ावा देने का कम एकदम नही किया गया | फिर आधुनिक खेती में श्रम एवं लगत का हिसाब करना तथा जोत के आकार के अनुपात में उत्पादन का बटवारा कर्न्ना कटती मुश्किल नही है | यह सहकारी या सामूहिक खेती किसानो की स्वेच्छिक पहल पर पहले एक या दो फसल के लिए फिर बाद में सभी फसलो के लिए आगे बढ़ाया जा सकता है | इसके अलवा वर्तमान युग में और वर्तमान व्यवस्था में किसानो के पास अपनी खेती बचाने और कोई रास्ता नही है | फिर सामूहिक खेती का ऐसा प्रयास ही उन्हें भावी समाज व्यवस्था का रास्ता भी दिखाएगा | उसके लिए उन्हें प्रेरित करना होगा |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-08-2018) को "पड़ गये झूले पुराने नीम के उस पेड़ पर" (चर्चा अंक-3056) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन यारी को ईमान मानने वाले यार को नमन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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