ननदों के बाद पिछले शुद्र ( नव ) ननदों के साथ मैंने राजनीति में साझा किया और सारे क्षत्रिय राजाओं का उच्छेद कर डाला | परन्तु मेरा यह सौभाग्य बहुत दिनों न चल सका | शुद्र के भावी उत्कर्ष के भय से अंग ने अंग पर प्रहार किया और चाणक्य -- रक्षित चन्द्रगुप्त ने ननदों का सर्वनाश कर डाला | मैंने फिर अवकाश पा और आवश्यकता देख शुद्र के विरुद्ध अपने अर्थशास्त्र में अनन्त विधान बनाये | मौर्यों का शासन शीघ्र मेरे मंत्रित्व के बाद ब्राह्मण विरोधी और सर्वथा क्षत्रिय - बौद्ध समर्थक हो उठा था | अशोक ने तो यज्ञो पर अनेक प्रतिबन्ध भी लगा दिए | फिर तो मेरे लिए षड्यंत्र के सिवा और कोई अपनी रक्षा का साधन ही नही दिख पडा मेरे भाग्य से अशोक के वंशधर दुर्बल हुए , और विदेशी आक्रमणों की रक्षा न कर सके | जब देमित्रियस न बाख्त्री से आकर मगध के हृदय पाटलिपुत्र पर प्रहार किया , तब मौर्य राजा ने राजगिरी की पहाडियों में शरण ली , और जब ब्राह्मण खारवेल ने उड़ीसा से बढ़कर मगध पर आक्रमण किया , तब न तो ग्रीक रह गये , न मौर्य | पर मौर्य फिर लौटे अब तक मेरी शक्ति भीतर - ही - भीतर दृढ होती जा रही थी और प्रजा की रक्षा न कर सकने का आरोप मैं बराबर मौर्य राजा पर लगाता गया | फिर मैंने राजा के विरुद्ध 'प्रतिज्ञा दौर्बल्य का नारा बुलंद किया और अपने पौरोहित्य पद से उचक कर मगध का राजदंड शीघ्र ही अपने हाथ में ले लिया | पुष्यपित्र के रूप में मैंने खुले आम वृहद्रथ की हत्या कर मगध का साम्राज्य स्वायत्त कर लिया | तब मेरी रक्षा महर्षि पंतजलि कर रहे थे | अब मैंने बौद्धों पर प्रतिबन्ध लगाये | श्रमणों की तो जान पर ही आ बनी | ब्राह्मण के यज्ञादि और संस्कृत भाषा का पुनरुद्धार किया | स्वंय दो - दो अश्वमेध किये और ग्रीकराज बौद्ध मिनान्दर को मार कर ग्रीको को सिन्धु के पार निकल दिया | तब तक भारत में मेरे तीन साम्राज्य प्रतिष्ठित हो चुके थे -- दक्षिण में सातवाहनो का , पूर्व में खारवेल का , मध्यदेश में शुंगो का , और शुंगो के बाद काँ
काण्डवायन और और फिर सातवाहन | सभी ब्राह्मण | इस बीच मैंने मनुस्मृति की रचना की | ब्राह्मण को भूसुर कहा और राजा को देवोत्तर संज्ञा से विभूषित किया , कयोकी इस समय राजा स्वंय मैं था | यदि कभी राजा क्षत्रिय भी हुआ , तो मुझे उससे आपत्ति न थी , कयोकी मुझे राज - लोभ इतना न था जितना शासन और विधान - लोभ | जब तक राजा कानून का उद्गम न था , जब तक उसकी दंडनीति और दाय आदि पर मेरे सिद्धांतो की मुहर थी , तब तक मुझे इसकी परवाह न थी की राजा कौन होता है | राजा मैं बार बार केवल शक्ति - तुला के दंड को यथावत सम करने के निमित्त बना करता था | हाँ , इसी समय शक आम्लाट के आक्रमण हुए , जिसने मेरे वर्णधर्म पर प्रबल आघात किया | सारा देश लहुलुहान हो गया | अनीति सर्वत्र उग्र रूप धारण करने लगी | सध्योज्त शिशुओ का वर्ण स्थिर करना कठिन हो गया | ब्राह्मण के आचरण शुद्र हो गये और शुद्र ब्राह्मण के | फिर जब शान्ति हुई शक मेरे प्रभाव में आकर आज्ञाकारी हो गये , तब मैंने अपनी लेखनी फिर धारण की और विधानों का पुन: सृजन किया | मैंने सूत्रों के अनेक ग्रन्थ की रचना की यद्दपि उनका आरम्भ सदियों पहले मैंने शुरू कर दिया था | मैंने मनुष्यों को संस्कारों से जकड़ दिया | संस्कार उसके पूर्व जन्म के पूर्व से और मरण के पश्चात तक उसके सर हो गये |
शको , कुषाणों आदि के आगमन से निश्चय ही मेरी व्यवस्था को बड़ी हानि हुई | यद्दपि शक सर्वथा हिन्दू हो गये , मेरी भाषा तक उन्होंने अपना ली , फिर भी मुझे उन्हें अपनी व्यवस्था में सम्मलित कर विशेष संतोष न हुआ | मैं उन्हें उनके विजित प्रान्तों से निकाल बाहर करने की तदवीर सोचने लगा | नागो से अति प्राचीन काल से मेरा सदभाव था | अब उनमे से कुछ पद्द्याव्ती के पास आ बसे थे और झांसी के आसपास उन्होंने अपने अपनी शक्ति केन्द्रित की थी | मैंने शीघ्र ही उनमे प्राण फूंके और उन्हें धर्मातुर बना डाला | वे शिव के तो इतने पुजारी बन गये कि शालिग्राम सदा उनकी पीठ पर बना रहता जिससे उनकी संज्ञा तक भारशिव - नाग हो गयी | परन्तु उन पर भरोसा होते हुए भी मैंने उन्हें उस क्षेत्र में अकेला न छोड़ा |
उनके दक्षिणी - पश्चिमी पड़ोस में ही मैंने अपने ब्राह्मण - वाकाटक - कुल की स्थापना की , जो शुंगो का इतिहास फिर से दुहरा दे ; पर उसकी आवश्यकता न पड़ी | भारशिव - नाग पर्याप्त स्वामिभक्त निकले | उन्होंने मेरी व्यवस्था को सर्वथा निजी समझा और विदेशियों पर निरंतर अपने हमले जारी रखे | प्रत्येक हमले और जीत के बाद उन्होंने काशी में गंगा तट पर एक अश्वमेध किया | जब इन्ही अश्वमेधो की परम्परा दस की हो गयी , तब काशी के उस घाट का नाम दशाश्वमेध पडा | काशी मेरी नही थी , न शिव ही मेरे थे | दोनों अनाथो के थे , परन्तु किस प्रकार मैंने दोनों को अपना बनाया , यह प्राचीन कथा है | उसका वर्णन यहाँ विषयांतर होगा | नागो , वाकाटाको ने कुषाणों का अन्त कर दिया | डर यह था कि दोनों विदेशी राजकुल कहीं मिल न जाए |
अब मध्य - देश में एक नयी शक्ति का उदय हुआ , जो सर्वथा मेरे अनुकूल थी | वास्तव में विदेशी आक्रमण छोड़ ऐसी कोई राजनितिक शक्ति न थी , जो मेरी अनुमति और आशीर्वाद के बिना प्रतिष्ठित हो सकती हो | नागो की बढती हुई कीर्ति भी मेरी आँखों में खटकी | यद्दपि वाकाटक उनके उपर सबल प्रतिबन्ध थे , फिर भी मैंने अपनी व्यवस्था को एक नया रूप दे अपनी राजनीति सशक्त की | ब्राह्मणों और क्षत्रियो का परस्पर विवाह मुझे प्राचीनकाल से ही सम्मत न था
और बार - बार मैंने उसका विरोध किया था ; पर अब आवश्यकतावश स्वंय मैंने उसकी व्यवस्था दी | नागो और वाकाटक के पुत्र ने व्याहा प्रवरसेन वही , जो पुराणों का प्रवीर है और जिसने ब्राह्मण - परम्परा के अनुरूप अनेक अश्वमेध , वाजपेय , वृहस्पति आदि यज्ञ किये | यह कोई साधारण बात न थी , और मैंने वाकाटाको के अभिलेखों में इसका जो बार बार उल्लेख्य कराया , वह इसलिए नही कि यह सुन्दर व्यवस्था थी , वरन इसलिए कि इसे बार बार पढ़ कर लोग इस सम्बन्ध को स्वाभाविक समझने लगे | विदेशियों के विरोध में इसकी आवश्यकता थी और मैंने समाज को राजनीति के उपर नही रखा | सिकन्दर के समय जब प्राचीन काल से मालव और क्षद्र्क गण - राज्य में वैर चला आता था , तब मैंने क्या किया ? देश की राजनितिक आवश्यकता के अनुसार दोनों के हजारो तरुण तुरुणीयो को मैंने विवाह सम्बन्ध में बाँध दिया और इस प्रकार नागो वाकाटको का सम्बन्ध संपादित किया | वाकतको से एक और सम्बन्ध भी करना था -- मगध में उठती हुई उस गुप्त शक्ति का जिसका हवाला मैंने अभी अभी दिया है |
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
आभार 'खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर -
लेखक - भगवत शरण उपाध्याय
साभार चित्र गूगल से
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