Wednesday, August 1, 2018

अतीत के झरोखे से आजमगढ़ -

अतीत के झरोखे से आजमगढ़ -

चकलेदारो का शासन - विकास का नया दौर
मुगलकाल के गिरते हुए राज्य में चकलेदारी की नई प्रथा शुरू हुई जो पहले से प्रचलित कृषि कार्य में ''कूत'' 'अधिया ' प्रथा पर आधारित थी | कूत में रबी और खरीब की फसल में उभय पक्ष की सहमती से अन्न का निश्चित कोटा तय कर देता ''अधिया '' में नफा - नुक्सान का ख्याल करते हुए आधा - आधा बाट होती थी , यह आज भी प्रचलित है || इसी का व्यापारिक शासकीय विकसित रूप ठेका था | अवध के नवाब ने 1771 ई० में इसे आजमगढ़ में लागू कर दिया | ये चकलेदार नियुक्त अफसर होते थे जिनके जिम्मे सीमांकित क्षेत्र की मालगुजारी वसूल करने का अधिकार था An Officer who charge to collect revenirt in landed property
यह शासन की एक यूनिट होती थी जिसके नियम - कानून के अंतर्गत राजस्व वसूल होता था | राजस्व की नियत राशि से अतिरिक्त उपलब्द्धि दान बरामद या अन्य स्रोतों से प्राप्त को प्रजा के विकास में खर्च करने का उन्हें अधिकार था | सामान्य स्थित में शाही फ़ौज का इस्तेमाल नही स्वीकृत था सुरक्षा व्यवस्था उन्हें स्वंय करनी पड़ती थी , एक प्रकार से ये चकलेदार ''छोटे राजा '' कहे जाते थे |
आजमगढ़ में 1777 ई० से 1801 तक 24 वर्षो में 14 चकलेदारो ने शासन किया ये सभी प्राय फैजाबाद - अकबरपुर के रईस जमींदार और अवध के शुभचिंतक थे | इनमे से केवल दो चकलेदार आताबेग राजा भवानी प्रसाद के समय शान्ति व्यवस्था ठीक रही , शेष सभी के शासन में खोट रही और वे झिडकी सहित हटाए गये |
पहले चकलेदार मिर्जा आताबेग खा काबुली थे तारीखे विन्द्वल में में मोहम्मद रजी चौधरी ने लिखा है -- '' कुछ दिनों बाद नवाब अवधिया के वजीर एलीच खा ने इस इलाके
को जहाँ यार खा से छिनकर नवाबी में शामिल कर लिया था यह आजमगढ़ अवधिया हुकूमत का एक चकला बन गया और नवाब की तरफ से एक ''आमिल '' रहने लगा | नवाब आशिफुद्दौला के जमाने में मिर्जा आताबेग खा काबुली ''आमिल'' थे | लखनऊ और जौनपुर के बीच में तब जौनपुर सूबे की सीमा पूरब में बक्सर के करीब तक थी आजमगढ़ इलाका पड़ता था इसलिए आजमगढ़ के ''आमिल'' इसकी हिफाजत करते थे | इन चकलेदारो ने अपने निवास के लिए किले के पश्चिम
की तरफ भूमि का चुनाव किया ( जो चकला मुहल्ले के रूप में आज बिख्यात है | यहाँ से पश्चिमी हिस्से की देखरेख और वसूली की जाती थी |पूरबी हिस्से की चकलेदारी की यूनिट अमिला में रहती थी |
जिस समय 1717 ई० में आताबेग काबुली की नियुक्ति हुई आजमगढ़ का जनमानस अप्रसन्न था | आजम शाह द्दितीय ने जिस गंगा जमुनी परिवेश की रचना की थी उसके नब्बे प्रतिशत लोग उनके पक्ष में थे | जहाँयार खा ने उस परम्परा को अपने स्वभाव के नाते कमजोर किया लेकिन राज्य के प्रति जनता का मोह बरकरार था | बिन्द्वल के इतिहास के ही मुताबिक़ जहाँ यार खा के बेटे नादिर खा को जो आमिलो के बरसरे पैकार साथी समर्थक था डेढ़ सौ माहवार की पेंशन और 12 गाँव की जमींदारी देकर किले में अमनो कायम किया | ये राजा की पदवी सहित जमींदार हो गये | यह एक प्रकार से राजघरानो की अवमानना थी | लेकिन आता बेग बहुत समझदार थे | उन्होंने पुरे राज्य का दौरा किया सभा और पंचायते की | अपनी और राज्य की मजबूरियों को बताया कि मालगुजारी ही एक मात्र आमदनी है जिससे शासन का खर्च चलता है इसके लिए उन्होंने आमदनी बढाने के लिए व्यापार पर जोर दिया और बाहर के व्यापारियों को बहुत सारी सुविधाए देने का एलान किया | इससे बहुत से मारवाड़ी खत्री और अग्रवाल लोग पश्चिम से यहाँ व्यापार हेतु आ गये और बस गये | चकलेदारो के पहले आजमगढ़ मुश्किल कस्बाई स्वरूप के रूप में अंकुरित हो रहा था | व्यापारिक संचेतना ग्राम आधारित थी - आवागमन के साधन के कारण | भूमि की भौगोलिक रचना जलवायु और साधन के परिप्रेक्ष्य में यहाँ मुख्य व्यापार अन्न ,गुड और हस्त निर्मित कपडे का था | रानी की सराय में सुतली - गुड सरायमीर में चमडा तथा कपडे का कारोबार फूलपुर पुर्वनाम खुरासो में लोहा बर्तन, पान और लाल मिर्च तथा गोठा दोहरीघाट में लकड़ी के व्यापार की प्रमुखता थी | तत्कालीन परिवेश में दूर न जाकर
निकटवर्ती सीमा क्षेत्रो में ही छोटी - छोटी बाजारे लगती | इन्हें अस्थायी स्थानीय बाजार कहना ज्यादा उचित होगा आज भी वह परम्परा कायम है |
इनके लगने का दिन सप्ताह में निश्चित रहता था | यह परम्परा आज भी बरकरार है जिले की प्राय: सभी तहसीलों में इस प्रकार के स्थानीय बाजारों को देखा जा सकता है | इन बाजारों में दुकानों की तुलना में श्रष्ट और कम दरो पर कृषि गृहस्ती की अस्थायी दुकाने लगती लेकिन 18वी शाताब्दी के अंतिम दौर में कुछ अंतरजिला बाजार भी थे | दक्षिण में लालगंज इसे लाल खा बलूच ने बसाया था पश्चिम में फूलपुर - सरायमीर उत्तर में दोहरी - बधाल्ग्न्ज पूरब में मऊ और पश्चिमोत्तर में टांडा - बिडहर बड़ी बाजारे थी | इस प्रकार के बाजारों में दूसरे जिले पड़ोसी आकर खरीद फरोख्त करते थे | सिक्को का प्रचलन था अवश्य साठ प्रतिशत व्यापर अदल - बदल प्रणाली से होता | ग्रामीण जनता तो बहुतायात से अन्न गुड सुतली तम्बाकू इत्यादि अदल - बदल करते | अनाज देकर वस्तुओ की खरीद बहुत प्रचलित थी भारतीय इतिआहास संकलन समिति उत्तर प्रदेश 1982 की स्मारिका में बिडहर का इतिहास लिखते हुए स्व रामऋषि त्रिपाठी ने पश्चिमोत्तर बाजार के विषय में लिखा है ''यह स्थान बिडहर घाघरा के उस पार और इस पार के व्यापर संचालन का प्रमुख केंद्र रहा है यहाँ व्यापारियों का मेला सा लगता था गोरखपुर देवरिया बस्ती गोंडा तथा बहराइच के भू भाग फैजाबाद आजमगढ़ सुल्तानपुर और प्रतापगढ़ के भू क्षेत्रो से जुड़े हुए थे | यहाँ से होकर इलाहाबाद का सीधा रास्ता था | 1857 में जो उथल पुथल हुई उसमे ये सारे बाजार नष्ट हो गये | व्यापारिक क्षेत्र में तौल को लेकर समस्या खड़ी हो गयी थी जिनसे जूझने में चकलेदार आता बेग बहुत ही उलझन में थे | नाजिम फतह अली के जमाने में माल गुजारी में अन्न वसूली में गाजीपुर सेर की चलन चलाई गयी डयौढा या बड़का सेर कहा जाता था | यहाँ तौल के लिए चालीस सेर का एक मन होता , लेकिन गाजीपुरी सेर का एक मन तब होता जब प्रचलित सेर का डयौढा अर्थात डेढ़ मन होता | नाजिम अली के कारिंदे जबरन इसी तौल से मालगुजारी लेते | जब बिडहर का व्यापारी एक मन तिलहन तौलकर गोरखपुर के व्यापरी एक मन तम्बाकू माँगता तो वह प्रचलित मन से देता |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
सन्दर्भ - आजमगढ़ का इतिहास - राम प्रकाश शुक्ल निर्मोही
सन्दर्भ - विस्मृत पन्नो में आजमगढ़ - हरिलाल शाह

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