Monday, November 27, 2017

क्रांतिवीर - मौलाना बरकत – उल्लाह भोपाली 27-11-17

क्रांतिवीर - मौलाना बरकत – उल्लाह भोपाली


''कोई भी देश , जिसके नागरिक मौलाना बरकत उल्लाह जैसे हो बहुत दिनों तक गुलाम नही रह सकता |''


‘’मैंने जीवन भर निष्ठापूर्वक अपने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है | मेरा सौभाग्य है की मेरे जीवन राष्ट्र की सेवा में बीता है | और इस जीवन को विदा कहते हुए मुझे एक ही बात का दुःख है कि मेरे प्रयत्न सफल न हो सके | किन्तु मुझे पूरा भरोसा है कि मेरे देश के करोड़ो बहादुर देशवासी , जो ऊर्जा और निष्ठा - विश्वास से परिपूर्ण है , कूच कर रहे है और हमारा देश स्वतंत्र होकर रहेगा | मैं पूरी आस्था के साथ अपने प्रिय देश का भाग्य उनके हाथो में सौप रहा हूँ |’’

और इन शब्दों के साथ विश्वभर में भारत की आजादी कि अलख जगाते हुए उस क्रांतिवीर ने , जिसे उसके देशवासी क्रान्ति का पितामह कहते थे , कैलिफोर्निया की धरती पर प्राण त्याग दिए | सितम्बर 1927 में साठ वर्ष की आयु में | एक समय गदर पार्टी के उपप्रधान रहे विद्वान् देशभक्त मौलाना बरकत उल्लाह की समाधि आज भी कैलिफोर्निया राज्य की राजधानी सैक्रामैंटो के प्रमुख कब्रिस्तान में अपने होने की गवाही दे रहा है |

मृत्यु के समय मौलाना बरकत – उल्लाह ने यह इच्छा जताई थी कि जब देश स्वतंत्र हो जाएगा , तो उनके पार्थिव शरीर को पुन: भारत की पावन भूमि में दफनाया जाए | कहना ना होगा उनकी यह अंतिम इच्छा देश की आजादी के सात दशको से अधिक बीत जाने के बाद भी पूरी नही हो पाई |
मृत्यु से एक दिन पहले ही मैरिवल , कैलिफोर्निया की एक सभा में भाषण करते हुए उन्होंने शोक जताया था कि वे अपने लोगो से तेरह वर्षो से अलग रहे थे |’’ आज जैसे ही मैं अपने चारो और देखता हूँ , तो अपने 1914 के सहकर्मियों को नही देख पा रहा हूँ | कहाँ है वे ? मानव स्वतंत्रता के देवदूत ? बलिदान हो गये या काल कोठरी में अकेले बंद है ? जरुर ऐसे ही होंगे – उन्होंने देशप्रेम का अपराध जो किया है | मैं शायद बचा हूँ अपने देशवासियों की भयावह यातना को कुछ काल और देखने के लिए | मेरे देशवासियों , उन वीरो का हम पर बहुत बड़ा ऋण है | क्या हम चुका पायेंगे ?”’
बीसवी शताब्दी के पहले ढाई दशको में मौलाना बरकत उल्लाह का सम्बन्ध उन सभी प्रवासी भारतीयों संस्थाओं से रहा , जो भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न रहे ‘’गदर पार्टी ‘’ बर्लिन इन्डियन कमेटी ‘ श्याम जी कृष्ण जी वर्मा का इंग्लैण्ड में स्थापित ‘इण्डिया हाउस ‘’ मैडम कामा की पेरिस स्थित संस्था और दक्षिण पूर्वी एशिया रूस आदि – सभी से इस आत्म – निर्वासित देशभक्त का पैतीस वर्षो के प्रवास में सम्पर्क रहा | मुस्लिम – बहुल राष्ट्रों में भारत के प्रति सहानुभूति प्रकट करवाने में तो वे शायद अकेले भारतीय थे |
1867 के आस – पास भोपाल के एक कच्चे घर में उनका जन्म हुआ | वहाँ 1857 के विप्लव के बाद उनके माता पिता उत्तर प्रदेश से आकर बस गये थे | आरम्भिक शिक्षा घर में परम्परागत इस्लामिक पद्धति से हुई | मौलाना को दस वर्ष की आयु में पूरी कुरआन याद हो गयी थी | उन्हें उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा भी दी गयी | पर मौलाना की रूचि अंग्रेजी व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने में थी | भोपाल में कोई सुविधा उसकी न थी | हाँ इसी बीच उनका सम्पर्क सैयद ज्लालुद्धीन अफगानी से हुआ , जो भारत में ब्रिटिश शासन के कट्टर विरोधी थे |
1883 की जनवरी की एक रात को मौलाना बिना किसी को बताये घर से गायब हो गये | अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे जबलपुर गये और वहाँ से असंतुष्ट होकर मुंबई | वहाँ एक हाई स्कूल में प्रवेश पाकर अगले चार वर्षो तक रहे |
इस बात से प्रेरित होकर ही एक अंग्रेज ने इस्लाम कबूल कर लिया है , वे इंग्लैण्ड चले गये | वहाँ उन्होंने अरबी फारसी पढाना शुरू किया , उन भारतीयों को जो इन्डियन सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे थे | साथ ही उन्होंने अंग्रेजी भाषा और साहित्य का गहन अध्ययन किया और वे इतने पारंगत हो गये की ‘ लन्दन टाइम्स ‘ में लेख लिखने लगे | इसके फलस्वरूप उन्हें लिवरपूल के मुस्लिम ईस्टीटयूट में अरबी पढ़ाने के लिए निमंत्रण मिला | उसी संस्थान की दो पत्रिकाओं में – क्रीसैनट ‘ और ''‘इस्लामिक वर्ल्ड ''‘ में लिखना प्रारम्भ किया , जहां उन्होंने एक और सार्वभौमिक इस्लाम की कल्पना को जन्म दिया और दूसरे भारत की स्वतंत्रता को अपने जीवन का केंद्र बनाया | उन्होंने भारतीय मुसलमानों को कांग्रेस का सदस्य बनने का आग्रह किया – ब्रिटिश साम्राज्वाद से लड़ने के लिए | मुस्लिम राष्ट्रों से भारत की आजादी में सहायक होने को कहा | अपने भाषणों में वे ब्रिटेन की ‘’फूट डालो और राज करो ‘'' की नीति की भर्त्सना करने लगे | ब्रिटेन द्वारा भारत के शोषण का कच्चा चिठ्ठा खोलने लगे | उन्हें ब्रिटेन में रहकर इस बात का तीव्र आभास हुआ कि भारत के लिए आर्थिक प्रगति करने के लिए स्वतंत्र होने की बात अनिवार्य है | और जब ब्रिटिश सरकार ने मौलाना की गतिविधियों पर नजर रखने लगी तो मौलाना को अमरीका से निमंत्रण मिला – अमरीका में जैसे मौलाना को पहली बार ताज़ी हंवा में साँस लेने का अनुभव हुआ | वहाँ उन्होंने जमकर भारत की स्वतंत्रता विषयक लेख लिखने लगे | उन्होंने 1904 के मुंबई कांग्रेस अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने वाले मौलाना हसरत मोहानी की पत्रिका ‘ ''उर्दू – ए-मोअल्ला ''‘ में लेख लिखे |

मौलाना के लेखो को अंतरराष्ट्रीय प्रशस्ति मिली | उन्हें इस्ताम्बुल जाने का निमत्रण मिला | डेढ़ साल वहाँ रहकर वे जापान गये | वहाँ के प्रमुख पत्रों में लिखने के परिणाम स्वरूप उन्हें सम्राट ने टोकियो विश्व विद्यालय में उर्दू का प्रोफ़ेसर बना दिया ( उसी आधार पर हाल ही में जापान में हिंदी –शिक्षण की शताब्दी मनाई थी ) वहाँ जमने के बाद उन्होंने ‘''इस्लामिक फ्रेटरनिटी ‘’ पत्र निकाला | साथ ही साथ वहाँ बसे प्रवासी भारतीयों को संगठित करना शुरू किया | उससे ब्रिटेन की नीद हराम होनी शरू हो गयी , तो अंग्रेजो ने दबाव डालकर सम्राट द्वारा शालीनता से जापान छोड़ने की बात कहलवाई |
1922 में वे फ़्रांस आ गये | ''‘एल इन्कलाब'' ‘ के सम्पादक बने | पर यहाँ भी ब्रिटेन ने दबाव देना शुरू किया | उन्हें देश छोड़ना पडा |
वे दुबारा अमरीका गये | वहाँ तभी ‘गदर पार्टी ‘’ की स्थापना हुई थी | वे उसमे शामिल हो गये | वे पार्टी के उपप्रधान चुने गये और उर्दू ‘गदर’ के सम्पादक बनाये गये | वहाँ जब ब्रिटिश साम्राज्य के गुर्गो ने प्रवासियों को हिन्दू - सिख मुसलमान के नाम से भिड़ाना चाहा , तो मौलाना बरकत - उल्लाह , भाई भगवान सिंह और रामचन्द्र ने उनका षड्यंत्र नही पनपने दिया | प्रथम युद्ध की घोषणा के बाद जब प्रवासी भारतीय स्वदेश आने शुरू हो गये – भारत की आजादी का बिगुल बजाने – तो इन्ही तीनो नेताओं ने उनके जहाजो के डैक पर खड़ा होकर जोशीले भाषण देकर उन्हें विदा किया |
इस बात का एहसास होने पर कि भारत के स्वतंत्र संग्राम में मित्र राष्ट्र की सहायता बहुत जरूरी है , मौलाना को कई बार विभिन्न देशो में भेजा गया | वे टर्की गये जर्मनी गये | जर्मनी में बर्लिन कमेटी शिद्दत से जर्मन सरकार से बात कर रही थी और भारतीय युद्धबंदियो को ब्रिटेन के विरोध में लड़ने के लिए संगठित कर रही थी | इन योजनाओं में मौलाना की भूमिका अहम् थी | इंडो – जर्मन – मिशन के तहत मौलाना अनेक देशो में गये | इन्ही यात्राओं के मध्य अफगानिस्तान में 29 अक्तूबर , 1915 को प्रवास ( निष्कासन) में भारतीय राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ जिसमे राजा महेंद्र प्रताप सिंह राष्ट्रपति और बरकत उल्लाह प्रधानमन्त्री बनाये गये | उस राष्ट्रीय सरकार ने विभिन्न देशो में अपने प्रतिनिधि मंडल भेजे | 1919 में मौलाना इसी सरकार के प्रधानमन्त्री की हैसियत से सोवियत यूनियन गये | लेनिन से मिले | लेनिन मौलाना और उनके विश्व सम्बन्धी राजनीतिक विश्लेष्ण से बहुत प्रभावित हुए | वे चाहते थे कि मौलाना सोवियत यूनियन में रहे | पर अन्य देश – विशेषत अरब राष्ट्र उनसे परामर्श चाहते थे | खिलाफत आन्दोलन में उनकी प्रमुख भूमिका रही |
उन्होंने तक ''‘ऐल- इसलाह ‘’ नाम का पत्र निकाला पेरिस में | मुसोलीन सहित अनेक राष्ट्र नेताओं से वे मिले | ‘गदर पार्टी “ के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने ब्रसल्स ( वैल्जियम ) में साम्राज्य वाद – विरोधी सम्मेलन में भाग लिया | वहाँ उनकी भेंट जवाहरलाल नेहरु से हुई | नेहरु ने उनकी निष्ठा और बौद्धिक चेतना से बहुत प्रभावित हुए | उन्होंने कहा , ''कोई भी देश , जिसके नागरिक मौलाना बरकत उल्लाह जैसे हो बहुत दिनों तक गुलाम नही रह सकता |''
यही समय था , जब गदर पार्टी ने अपने वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने के लिए उन्हें कैलिफोर्निया बुलाया | उत्साह भरी भीडो को न्यूयार्क , शिकागो डिट्रोयट आदि नगरो में सम्बोधित करके वे कैलिफोर्निया पहुचे | वहाँ उनका स्वागत घर लौटे हुए नायक की भाँती हुआ | किन्तु शोक , वहीँ अपने अंतिम भाषण के साथ उन्होंने प्राण त्याग दिए |
भारतीत स्वतंत्रता और अमरीका में भारतीय अधिकारों की प्रबल समर्थक एग्नेस स्मेडले ने कहा , ‘’ उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के सपने में कभी भी अपना विश्वास नही खोया और अंतिम क्षण तक वे अपनी देशसेवा की सौगंध के प्रति निष्ठ रहे | एक पल के लिए भी वे अपने ध्येय और चुने मार्ग से विचलित नही हुए |''

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक --- आभार आजादी या मौत पुस्तक से

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