सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर हमला दरअसल कहा से
अनेकता के साथ एकता
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मुख्यत भा ज पा एवं अन्य हिंदूवादी सगठनों द्वारा
उठाया जाता रहा है | वे इसे देश को मातश्भूमि की देवी के रूप में स्वीकार करने ,
भारत माँ की जय जयकार करने देश की प्राचीन धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं को
राष्ट्रीयता की पहचान के रूप में अपनाने विदेशी धर्म व संस्कृति को ( उदाहरण – इस्लाम व इसाई धर्म को ) इस
राष्ट्र के लिए विजातीय मानने आदि के रूप में प्रस्तुत करते है | सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद की अवधारणा के प्रस्तुतकर्ताओ द्वारा इसे मुख्यत: इस्लाम धर्मावलम्बी आक्रमणकारियों
द्वारा हिन्दू धर्म व समाज की संस्कृति को पहुचाई गयी क्षति और उसके पुनरुथान के
रूप में प्रस्तुत करते आ रहे है |
विदेशी आक्रमणकारियों और विजातीय धर्मावलम्बियों द्वारा मध्य युग में किये
जाते रहे धार्मिक सांस्कृतिक हमलो से इसी देश में नही बल्कि अन्य देशो में भी की गयी
धार्मिक सामाजिक सांस्कृतिक क्षतियो से इनकार नही किया जा सकता | लेकिन यह काम
केवल विदेशी धर्मावलम्बियों द्वारा ही नही बल्कि देश की सीमा के भीतर भी भिन्न –भिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा
किया जाता रहा है | उदाहरण – इस देश में हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्मानुयायियो के आपसी संघर्षो
में भी एक दुसरे को धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूप से क्षति पहुचाई जाती रही है |
फिर इस सन्दर्भ में मुख्य सवाल तो यह है कि क्या आधुनिक काल के मध्य युग के
विभिन्न धर्मावलम्बियों का वह प्रभाव प्रभुत्व बचा रह पाया है ?या वर्तमान युग में
उन सभी के प्रभाव व प्रभुत्व को घटाने तथा उन सभी प्राचीन एवं मध्ययुगीन संस्कृति
को निरंतर क्षति पहुचाने वाली कोई अन्य शक्ति ही सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति बन गयी
है |
इस सच्चाई से इनकार नही किया जा सकता की ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन
और कम्पनी व्यापार एवं राज की स्थापना के बाद यहाँ पर प्राचीन एवं मध्य युग से रह
रहे सभी धर्मावलम्बियों द्वारा अंग्रेजी धर्म व संस्कृति के बढ़ते प्रभाव प्रभुत्व
के खतरे को महसूस किया जाने लगा था | 1857 के विद्रोह में हिन्दुओ मुसलमानों द्वारा इस खतरे के चलते
भी राजनितिक एकजुटता स्थापित हुई थी | विडम्बना यह है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के
पैरोकार मध्ययुग के सांस्कृतिक खंडहरों को तो देख लेते है उसकी चर्चा और उसका
प्रचार भी करते है | लेकिन आधुनिक युग की व्यापारवादी बाजारवादी संस्कृति के बढ़ते
फैलाव व हमले को अपनी चर्चा का मुद्दा नही बनाते है | या फिर उस पर बहुत ही कम
चर्चा करते है |
लेकिन वर्तमान दौर की बाजारवादी संस्कृति के प्रति बेरुखी या उदासीनता से तो
इस राष्ट्र की प्राचीन संस्कृति या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बचे रह पाने की कोई
गुंजाइश ही नही बचती | इसलिए यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और उसकी पक्षधरता इस
राष्ट्र में हिन्दुओ –
मुसलमानों के बीच धार्मिक – साम्प्रदायिक विरोध को बढ़ाने का हथकंडा तो बन सकता है मगर
वह राष्ट्र पर होने वाले सांस्कृतिक हमले को रोक नही सकता | अमेरिका इंग्लैण्ड
जैसे विजातीय धर्म व संस्कृति वाले राष्ट्रों के निरंतर बढ़ते रहे आर्थिक राजनितिक
सम्बन्धो , प्रभावों के चलते इस देश की संस्कृति व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का बचाव
कदापि नही कर सकता | अब जहाँ तक इस राष्ट्र व समाज के ही अभिन्न हिस्से के रूप में
मौजूद इस्लाम या इसाई धर्मावलम्बियों की बात है , तो मध्य युग में हिन्दू धर्म – संस्कृति की क्षति के लिए उन
धर्मावलम्बियों की आज की पीढ़ी को कही से भी जिम्मेदार नही ठराया जा सकता | मगर
उनके द्वारा मध्ययुगीन सधर्मी शासको का पक्ष पोषण करना भी न्याय संगत नही है |
उसकी जगह उनके द्वारा भी मध्य युग के आम चलन के अनुसार मुस्लिम शासको द्वारा यहाँ के हिन्दुओ
के साथ किये गये धार्मिक उत्पीडन को स्वीकारना उचित भी है न्याय संगत भी इसी तरह से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अंतर्गत
इस राष्ट्र को अपनी मातृभूमि मानने इसके साथ अपनापन रखने की बात तो एकदम ठीक है |
इसकी भौतिक एवं भावनात्मक आवश्यकता से इनकार भी नही किया जा सकता | लेकिन इसकी
सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भारत माता की जय या वन्देमातरम के नारे या ऐसे नारों का
दबाव डालना उचित नही माना जा सकता | ऐसे दबावों से लोगो में राष्ट्र व राष्ट्रीय
संस्कृति के प्रति प्रेम की भावना नही पैदा की जा सकती |
उसकी जगह पर स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में प्रचलित हुए और सर्वमान्य बने ‘’ जय हिन्द ‘’ जैसे अभिवादन को
स्वीकारने में शायद ही कोई एतराज करे | किसी के राष्ट्रिय प्रेम को शब्दों के
जरिये नापना ही गलत है | न तो इन शब्दों को न बोलने वालो को राष्ट्र विरोधी कहा जा
सकता है और न ही इन्हें बोलने वाले सभी लोगो को राष्ट्रवादी , राष्ट्रप्रेमी माना जा
सकता है | यही बात राष्ट्र की प्राचीन
सामजिक मान्यताओं उदाहरण – गाय , गंगा से जुडी मान्यताओं के बारे में भी कही जा सकती
है | 1947
से प्रचलित
‘अनेकता में एकता ‘ की अवधारणा को ही अपनाते हुए
विभिन्न धार्मिक सामजिक समुदायों के बीच मौजूद अंतर्विरोध को आपसी सहमती के साथ
घटाने का प्रयास किया जाये तो बेहतर हो सकता है भारतीय समाज | लेकिन विदेशी राष्ट्रों
के साथ परनिर्भरता पूर्ण जुड़ाव को तथा देश में हर तरह की विदेशी घुसपैठ को बढावा
देते हुए अनेकता के साथ एकता को तथा देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत नही
किया जा सकता | क्योकि आर्थिक सम्बन्धो एवं प्रक्रियाओं के साथ आपसी विखंडन की
कूटनीति एवं विदेशी भोगवादी संस्कृति का आना निश्चित है | वैसे आधुनिक काल में यह
विदेशी सांस्कृतिक हमला ब्रिटिश राज के दौरान शुरू हो गया था | पर 1947 से पहले साम्राजय्वाद
विरोधी राष्ट्रवाद की प्रचंड लहरों ने उसे बढने से रोक दिया था | लेकिन अब खासकर 1991 के बाद तेजी से एवं
खुलेआम बढाये जाते रहे वैश्वीकरण से , भोगवादी नग्न अर्द्धनग्न संस्कृति को बढावा
देते रहे विकसित पश्चिमी देशो के साथ बढ़ते आर्थिक , कुटनीतिक सांस्कृतिक सम्बन्धो
से राष्ट्र की संस्कृति पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर भारी खतरा खड़ा हो गया है | इस
खतरे को इस्लाम व दुसरे धर्मावलम्बियों के मध्य युगीन धार्मिक , सांस्कृतिक
कारवाइयो के विरोध के जरिये नही रोका जा सकता है | उसके लिए आधुनिक युग के साम्राज्यवादी विरोधी राष्ट्रवाद का पुनर्जागरण
किया जाना आवश्यक है | साम्राजयवादी देशो से बढ़ते आर्थिक सांस्कृतिक सम्बन्धो पर
रोक लगाना आवश्यक है | साथ ही धार्मिक सामाजिक विख्न्दन की अंतर्राष्ट्रीय एवं
सत्ता स्वार्थी कूटनीत के विरोध में देश की अनेकता के साथ एकता की सांस्कृतिक
भावना को पुन: जागृत करना जरूरी है |
सुनील दत्ता –
स्वतंत्र पत्रकार –
समीक्षक
बहुत खूब
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