किसानो का दर्द
बीते दो दशको में 3 लाख 21 हजार 428 किसान आत्महत्या कर चुके है |
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अक्तूबर के अम्र उजाला में भाजपा सांसद वरुण गांधी का लेख ‘’कर्ज में डूबे किसानो का दर्द ‘ शीर्षक के साथ प्रकाशित लेख कुछ तथ्यों को जरुर उजागर करता
है | उन्होंने अपने लेख में ग्रामीण कर्ज के बारे में पंजाब विश्व विद्यालय के तीन
साल पुराने अध्ययन को प्रस्तुत किया है | उसमे पंजाब के बड़े किसानो पर ( 10 हेक्टेयर या 25 एकड़ से ज्यादा जोत वाले
बड़े किसानो पर ) कर्ज उनकी आय का 0.26% है | जबकि माध्यम दर्जे के ( 4 से 10 ) हेक्टेयर की जोत वाला
) किसानो पर कर्ज उनकी आय का 0.34% है | लेकिन छोटे दर्जे के ( 1-2 हेक्टेयर जोत वाले किसानो पर तथा सीमांत किसानो एक हेक्टेयर से कम जोत के किसानो पर कर्ज का
बोझ कही ज्यादा है | वह उनकी आय का 1.42% 0.94% है ! इन पर कर्ज और ब्याज का बोझ और ज्यादा इसलिए भी है कि
इनके कर्ज का आधे से अधिक हिस्सा गैर बैंकिंग क्षेत्र अर्थात प्राइवेट महाजनों और
माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों आदि से लिया गया है |
कर्ज के इसी बोझ का नतीजा किसानो की आत्महत्याओं के रूप में आता है | प्रकाशित
लेख में किसानो की आत्महत्या के बारे में यह सूचना भी दी है कि बीते दो दशको में 3 लाख 21 हजार 428 किसान आत्महत्या कर चुके
है | आत्महत्या और कर्ज के बोझ के कारणों पर चर्चा करते हुए उन्होंने सीमित सिचाई
सुविधा बारिश पर निर्भरता बाढ़ क्षेत्र एवं उपज में वृद्दि के वावजूद कृषि आयात में
बढ़ोत्तरी खाद्यान्नो की कीमत में किसान के लागत की तुलना में गिरावट कृषि के
आवश्यक संसधानो का साधारण किसानो की पहुचं के बहार होने आदि को बताया है | बढती
लागत के सन्दर्भ में उन्होंने उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं तथा आधुनिक बीज की ऊँची
कीमत को भी प्रमुखता से उठाया है |
इसके अलावा सांसद वरुण गांधी ने पहले की और अब की सरकारी नीति के अंतर को
बताते हुए भी लिखा है कि – ‘’ भारतीय कृषि नीति शुरू से खाद व बीज पे सब्सिडी देकर लागत
कम करने तथा उत्पादन एवं समर्थन मूल्य के जरिये न्यूनतम आय की गारंटी प्रदान करने
की नीति थी | लेकिन वह नीति धीरे – धीरे करके अपनी उपयोगिता खो चुकी है | सब्सिडी घटाने या
खत्म किये जाने के साथ देश का कृषि संसधान धीरे धीरे नियंत्रण मुक्त होता जा रहा
है |
बजट घटा कर कम करने के प्रयासों में
सिचाई बाढ़ नियंत्रण के उपायों और ज्यादा उपज देने वाली फसलो पर किया जाता रहा
सरकारी निवेश प्रभावित हुआ है |
कृषि क्षेत्र को बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है , जिसके लिए वह अभी तैयार नही है | ऐसे में किसानो के लिए अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल होता जा रहा है |
कृषि क्षेत्र को बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है , जिसके लिए वह अभी तैयार नही है | ऐसे में किसानो के लिए अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल होता जा रहा है |
लेख के अंतिम हिस्से में उन्होंने किसानो की मुश्किलों को कम करने के प्रयासों
को गिनाया है | उदाहरण – उन्होंने कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक द्वारा ट्यूबवेळ – सिचाई , कृषि मशीनीकरण और सहायक
गतिविधियों की विशेष मदद दिए जाने की , 1990 के बाद से कई बार कृषि ऋण माफ़ी दिए जाने की ग्रामीण
सरचनात्मक विकास को तेज किये जाने की 1999 से किसान क्रेडिट कार्ड शुरू किये जाने अदि की चर्चा किया
है | छोटे व सीमान्त किसानो के लिए कृषि उपकरणों खाद और कीटनाशको की समस्याओं के
समाधान के लिए कृषि उपकरणों खाद और कीटनाशको की खरीद पर ज्यादा सब्सिडी देने का
सुझाव दिया है | इसके अलावा मनरेगा का दायरा बढ़ाकर सीमान्त किसानो के खेत की जुताई
के भुगतान के जरिये भी उनकी कृषि लागत को घटाने का सुझाव दिया है |
भाजपा सांसद की राय अन्य कृषि विशेषज्ञोव प्रचार माध्यमी विद्वानों से इस माने
में भिन्न एवं समर्थन योग्य है कि उन्होंने अपने लेख में बढती कृषि लागत सरकारी
निवेश व सब्सिडी को भी किसानो के बढ़ते कर्ज व दर्द के प्रमुख कारण के रूप में पेश
किया है |
साथ ही उन्होंने अपने सुझाव में कृषि लागत मूल्य को घटाने का भी सुझाव
प्रमुखता से उठाया है | लेकिन अपने लेख में उन्होंने यह बात नही उठाया कि उनके
सुझावों के विपरीत कृषि के लागत को लगातार बढाने तथा बजट घाटा कम करने के नाम पर
कृषि सब्सिडी को सभी सरकारों द्वारा घटाने का काम क्यों किया जाता रहा है ? साथ ही
कृषि में सरकारी निवेश को भी लगातार क्यों घटाया जाता रहा है ?
उन्होंने खुद कहा कि कृषि क्षेत्र को सरकारी सहायता के साथ सरकारी नियंत्रण
द्वारा संचालित करने की जगह उसे बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है |
सवाल है कि कृषि नीति को किसानो को न्यूनतम आय की गारंटी देने वाली नीति को क्यों
छोड़ दिया गया ?
वरुण गांधी ने इसका जबाब एक लाइन में लिखा है कि ‘ यह नीति धीरे – धीरे अपनी उपयोगिता खो चुकी है ‘| इस जबाब को तो कोई माने मतलब
नही है | क्योकि वह कृषि नीति अपनी उपयोगिता अपने आप कैसे खो सकती है ? क्या अब
कृषि से न्यूनतम आय की गारंटी की कोई जरूरत किसानो को नही रह गयी है ? अगर उस
गारंटी की जरूरत है तो किसानो के लिए खासकर छोटे व सीमान्त किसानो को खेती एवं
जीवन की गारंटी के लिए न्यूनतम तथा उससे थोड़ी बेहतर आय की गारंटी की आवश्यकता जरुर
है | इसे पूर्ववर्ती सरकारे भी कबुलती रही है | फिर वर्तमान सरकार का एक प्रमुख
एजेंडा किसानो की आय को दोगुना करने के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है | तब
आखिर वह कौन है ? , जिसने अब किसानो की न्यूनतम आय की गारंटी वाली नीतियों की
उपयोगिता को समाप्त करके उसमे बदलाव किया है ?
लेखक ने इस सवाल को उठाने से परहेज किया है | उन्होंने 1990 –95 से आती रही सभी सरकारों
द्वारा कृषि नीति में किये गये परिवर्तन की कोई चर्चा ही नही किया है | जबकि उन्ही
नीतियों एवं डंकल प्रस्ताव के जरिये खेती की लागत में वृद्धि के साथ सरकारी निवेश
एवं सब्सिडी में कटौती की जाती रही है | कृषि क्षेत्र व किसानो को बाजार के सहारे
छोड़ा जाता रहा है | कृषि उत्पादों के खासकर खाद्यान्नो में मामले में देश को
आत्मनिर्भर बनाने के घोषित उद्देश्य को अघोषित रूप में उपेक्षित किया गया है |
आधुनिक बीजो को सरकारों द्वारा सस्ती दर पर मुहैया कराने की जगह उसका सर्वेसर्वा
अधिकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं राष्ट्रीय स्तर की बीज कम्पनियों को दिया जाता
रहा है | सार्वजनिक सिचाई की नीति को किसानो के अपने निजी संसधान से सिचाई की नीति
के जरिये बदला जाता रहा है | सरकारी मूल्य और बाजार पर सरकारी नियंत्रण के साथ
कृषि उत्पादों की खरीद की जगह किसानो को अपने उत्पादों को बाजार में गिरते भाव पर
बेचने के लिए बाध्य किया जाता रहा है | न्यूनतम सरकारी मूल्य को भी गेहूँ , चावल ,
गन्ने की भी न्यूनतम खरीद के रूप में निरंतर निष्प्रभावी किया जाता रहा है |
अन्य रूपों में देश के किसानो का संकट पिछले 20– 25 सालो से तेजी से बढ़ता रहा है | यह संकट देश व विदेश की
धनाढ्य कम्पनियों के उदारवादी व निजिवादी छुटो अधिकारों को खुलेआम बढ़ावा देने वाली
नीतियों के परिणाम स्वरूप बाधा है | फिर 1995 में डंकल प्रस्ताव के जरिये कृषि क्षेत्र को वैश्विक
व्यापार संगठन के अंतर्गत लाने और उसके निर्देशों को लागू करते जाने के बाद और
ज्यादा समस्या बढ़ी है | 1995 से किसानो की बढती आत्महत्याए उपरोक्त आर्थिक नीतियों एवं
डंकल प्रस्ताव के परिणामो को ही परिलक्षित करती है | इन्ही नीतियों के फलस्वरूप
जहां कृषि लागत के साधनों मशीनों मालो को बनाने वाली तथा कृषि उत्पादों के
इस्तेमाल से बाजारी उत्पादों को बनाने में लगीधनाढ्य कम्पनियों कृषि क्षेत्र से
अधिकाधिक लाभ कमाती रही है | वही आम किसान संकट ग्रस्त होते रहे है | इसीलिए कोई
कर्ज माफ़ी या बीमा सुरक्षा अथवा कोई राहतकारी उपाय किसानो को स्थायी राहत देने में
सफल नही हुई | वे कर्ज में डूबे किसानो के दर्द का निवारण कदापि नही कर सकते | क्योकि
ये राहतकारी उपाय बीज खाद दवा कृषि उपकरण आदि की देशी विदेशी कम्पनियों को कृषि
एवं किसान के शोषण से दोहन से अधिकाधिक लाभ कमाने पर रोक नही लगा सकते | कृषि
उत्पादों के आयात निर्यात से लेकर देश के कृषि बाजार पर धनाढ्य कम्पनियों को अपना
नियंत्रण बढाने से रोक नही सकते | फलस्वरूप किसानो को उनके उत्पादों की उचित या
लागत के अनुरूप समुचित मूल्य भाव भी नही
दिला सकते | किसानो को बढ़ते घाटे बढ़ते कर्ज और बढती आत्महत्याओं से छुटकारा भी नही
दिला सकते |
सुनील दत्ता – स्वतंत्र
पत्रकार – समीक्षक
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