Friday, November 17, 2017

कुपोषण और उसकी कुंजी 17-11-2017


कुपोषण और उसकी कुंजी

भूख के विरुद्ध भात के लिए --- रात के विरुद्ध प्रात के लिए



16 अक्तूबर के हिंदी दैनिक ‘हिन्दुस्तान ‘ में जाने माने कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का 'देश में बढ़ते कुपोषण' पर लेख प्रकाशित हुआ है | कुपोषण की कुंजी शीर्षक के साथ प्रकाशित लेख के नीचे लेखक ने निष्कर्ष के रूप में लिखा है , ‘ गरीबी , भूख और कुपोषण से लड़ाई तब तक नही जीती जा सकती , जब तक कृषि पर पर्याप्त ध्यान नही दिया जाता ‘|

अपने लेख में उन्होंने भूख के शिकार लोगो के बारे में यह तथ्य प्रस्तुत किया है कि संयुकत राष्ट्र एवं खाद्द सगठन की सूचनाओं के अनुसार पिछले 15 वर्षो में पहली बार भूख का आंकडा बढ़ा है | भारत में भी भूख से पीडितो की बढती संख्या का परिलक्षण वैश्विक भूख सूचकांक में भारत के तीन पायदान नीचे खिसकने के रूप में शामिल हो गया है | एक वर्ष पहले 119 देशो के भूख सूचकांक में भारत 97 वे नम्बर पर था , जबकि इस वर्ष के सूचकांक में भारत नीचे खिसक कर 100 वे नम्बर पर पहुच गया है | लेखक ने भूख से लड़ने के मामले में भारत की शर्मनाक तस्वीर के बारे में लिखा है कि पाकिस्तान को छोड़कर दक्षिण एशिया के तमाम देशो का प्रदर्शन भारत से अच्छा रहा है | सूचकांक में भारत के 100 वे और पाकिस्तान के 106 वे पायदान से कही उपर चीन 29 वे नेपाल 72 वे म्यामार 77 वे श्रीलंका 84 वे और बांग्लादेश 88 वे पायदान पर है | 12 साल पहले 2006 में जब यह पहली बार यह सूची बनी थी , तब भी भारत 97 वे पायदान पर था | जाहिर है कि12 साल के बाद भी हम वही खड़े है और पिछले एक साल में हम नीचे खिसक कर 100 वे पायदान पर आ गये है | ... इन 12 सालो में देश का सकल घरेलू उत्पादन औसतन 8% से ज्यादा बढा है फिर भी देश में भूख की समस्या बढ़ी है | ,... देश के 21% से अधिक बच्चे कुपोषित है | राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत के खान – पान में भी गिरावट आ गयी है | 40 साल पहले की तुलना में अब खाद्यानो में प्रोटीन व अन्य घटकों में कमी आ गयी है |
सही है कि भूख से लड़ना एक जटिल एवं चुनौतीपूर्ण काम है , मगर यह असम्भव भी नही है | गरीबी - भूख और कुपोषण पर पर्याप्त ध्यान नही दिया जाता | क्योकि भारतीय अर्थशास्त्री नीति निर्माता और नौकरशाह बाजार के सुधारों के लिए प्रतिबद्ध है | कृषि व सामाजिक क्षेत्र में निवेश को जानबूझ कर कम करते जा रहे है | अगर हम चाहते है कि 2022 तक देश में कोई भूखा न रहे तो हमे कृषि में सार्वजनिक निवेश को बढावा देकर खेती –बाड़ी को फिर से ज़िंदा करना होगा |

उनके लेख के उपरोक्त उद्धरण में आप देख सकते है कि लेखक ने देश में बढती भुखमरी की तस्वीर पेश करने के साथ उसके लिए देश के नीति निर्माताओं अर्थशास्त्रियो और नौकरशाहों को जिम्मेदार ठहराया है | उनका बाजार के सुधार के लिए प्रतिबद्ध बताने के साथ उसे कृषि व सामाजिक क्षेत्र में जानबूझ कर सरकारी निवेश कम करने खेती किसानी को बेजान करने तथा भुखमरी व कुपोषण को बढाने का कारण बताया है | सवाल है कि अगर वे जानबूझ कर यह काम कर रहे है जैसा की वे कर भी रहे है तो वे उसे छोड़ेंगे क्यों ? फिर उससे ज्यादा अहम् सवाल यह है कि नीति निर्माताओं नौकरशाहों द्वारा कुपोषण व भुखमरी को उपेक्षित करने या बढावा देने के लिए किन नीतियों को लागू किया जाता रहा है ? उनके गुण चरित्र क्या है ? और वे नीतिया राष्ट्र समाज को बहुसंख्यक हिस्से में भूख एवं कुपोषण को बढ़ा क्यो और कैसे रहे है ?

इन प्रश्नों का समुचित उत्तर जाने बिना बढ़ते भूख एवं भुखमरी की समस्या का समाधान प्रस्तुत करना सम्भव नही है |

विडम्बना यह है कि जन समस्याओं पर खासकर कृषि समस्याओं पर प्रचार माध्यमो में लिखने वाले देविंदर शर्मा जी जैसे लेखक भी इन प्रश्नों को नजरअंदाज कर के अपना सुझाव प्रस्तुत करते रहते है | इस लेख में भी शर्मा जी ने ऐसा ही सुझाव दिया है | उन्होंने इस लेख में भी प्रस्तुत सवालों से कतराते हुए सुझाव प्रस्तुत कर दिया है कि ‘ गरीबी , भूख और कुपोषण से लड़ाई नही जीती जा सकती जब तक की कृषि पर पर्याप्त ध्यान नही दिया जाता |’ कृषि पर सामजिक निवेश को बढाकर खेती बाड़ी को पुन: ज़िंदा नही किया जाता |’

इस बात से लेखक अनभिज्ञ नही हो सकते की पिछले 20 – 25 सालो से देश में लागू होती रही अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों एवं प्रस्तावों के परिणाम स्वरूप ही कृषि विकास पर अपर्याप्त या आवश्यकता से बहुत कम ध्यान दिया जाता रहा है | कृषि तथा कुटीर एवं लघु उद्योग के साथ जनसाधारण की शिक्षा , स्वास्थ जैसी आवश्यक सेवाओं में सार्वजनिक निवेश को निरंतर घटाया जाता रहा है | यह काम किसी एक पार्टी की सरकार द्वारा नही बल्कि केंद्र व प्रान्तों की सत्ता सरकार में बैठने वाली सभी पार्टियों द्वारा किया जाता रहा है | फिर देविन्द्र शर्मा जैसे जनहित तथा कृषि व किसान हित के चिंतको , विचारको द्वारा भी इन नीतियों का विरोध नही किया जाता रहा | यही स्थिति नामी – गिरामी किसान संगठनो की भी रही है | इस विरोध के अभाव में भी कृषि व किसान विरोधी अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय नीतियों प्रस्तावों को केंद्र व प्रान्तों की सभी सरकारों द्वारा चरण दर चरण आगे बढाया जाता रहा | कृषि क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाले मालो – सामानों , मशीनों के उत्पादों के बिक्री बाजार से जुडी औद्योगिक एवं व्यापारिक कम्पनियों की कृषि क्षेत्र में घुसपैठ व लूट को बढ़ाया जाता रहा | साथ ही किसानो के छूटो व अधिकारों को काटा - घटाया भी जाता रहा | सरकारी निवेश को घटाते जाने के साथ राष्ट्र में खाद्यानो का भी विदेशी आयात का यहाँ तातक की गेहूं का भी आयात बढ़ाया जाता रहा | खाद्यान्नो के गिरते राष्ट्रीय उत्पादन – उसके बढ़ते निर्यात और फिर उसकी कमी को प्रचारित करके बढ़ाया जा रहा आयात देश में कुपोषण और भुखमरी को दूर नही होने देगा | वर्तमान दौर की वैश्विक नीतियों के ये परिलक्षण व परिणाम अपरिहार्य है | आम किसान इन परिणामो को भले ही न जानता हो , लेकिन हमारे विद्वान् बुद्धिजीवियों लेखको को इस बात की बखूबी जानकारी है | इसके वावजूद वे इसे अपनी चर्चा तक में जगह नही देते है | वे इन नीतियों को लागू करने वाले राजनितिज्ञो , नौकरशाहों को इन नीतियों के विपरीत सरकारी निवेश का सुझाव देते रहते है | इसे ठीक नही माना जा सकता | इसे किसी संज्ञान व्यक्ति का ईमानदारी भरा सुझाव नही माना जा सकता | यह सुझाव केवल तभी वास्तविक एवं ईमानदारी भरा हो सकता है , जब कोई लेखक देश के जनसाधारण श्रमजीवी हिस्से को भूख और कुपोषण के तथ्यों एवं उनके कारणों और कारको के बारे में बताने के साथ ही उन्हें इस बात के लिए भी सचेत करे ककि देश की सभी सत्ताधारी पार्टियों एवं नौकरशाहों अब इन नीतियों को बदलने वाले नही है | कृषि में सार्वजनिक निवेश बढाने वाले तथा खाद्यान्न उत्पादन में देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले नही है | देश के जनसाधारण में बढती बेरोजगारी मंहगाई को , कुपोषण व भुखमरी को दूर करने वाले नही है |
इस सच्चाई को देखते समझते हुए अपनी व्यापक बुनियादी समस्याओं , संकटो के लिए आगे आना आवश्यक हो गया है आम आदमी को | बढ़ते कुपोषण व भुखमरी के विरुद्ध कम से कम इन नीतियों का विरोध करना अनिवार्य हो गया है | जनहित की मांगो के साथ इन नीतियों का संगठित विरोध अपरिहार्य हो गया है | वैश्विक नीतियों के विरोध के साथ वैश्विक साम्राज्यी लूट के सम्बन्धो को तोड़ना भी अपरिहार्य हो चला है |

सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – समीक्षक आभार – चर्चा आजकल से

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-11-2017) को "नागफनी के फूल" (चर्चा अंक 2791) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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