Wednesday, November 21, 2018

सवाल वोटो का ?

सवाल वोटो का ?



समाज केवल अधिकाधिक सम्पन्न एवं साधनहीन बनते वर्गो में ही नही बटा है , बल्कि वह चुनावी वोट लेकर शासन सत्ता पर चढने वाले राजनेताओं पार्टियों तथा उन्हें वोट देकर शासन सत्ता पर पहुचने वाले बहुसंख्यक जनता में भी बटा हुआ है | वोट लेने वाले राजनेताओं पार्टियों के साथ उनके नजदीकी पार्टी कार्यकर्ताओं एवं समर्थको की जमात भी शामिल रहती है | इनके अलावा समाज का धनाढ्य एवं उच्च हिस्सा भी अपने धनाढ्यवर्गीय स्वार्थो की पूर्ति के लिए सभी सत्ताधारी पार्टियों , नेताओं के साथ घनिष्ट सम्बन्ध बनाये रखता है | सभी प्रमुख पार्टियों को राजनितिक एवं चुनावी चंदे के साथ उनका आमतौर पर समर्थन करता रहता है | बताने की जरूरत नही है कि चुनावी वोट लेने वाले राजनेताओं , उनके करीबी समर्थको तथा धनाढ्य वर्गो की ताकत शासन सत्ता और उसके जुड़े बहुसंख्यक जनसाधारण इन सम्बन्धो से बाहर रहते है | इनकी ताकत तो चुनावी वोट तक ही सीमित रहती है | इसके अलावा उनकी ताकत अपने व्यापक हितो के लिए जाने वाले आंदोलनों संघर्षो में ही व्यक्त होती है | जहां तक जनसाधारण के वास्तविक चुनावी ताकत का सम्बन्ध है , तो उसका वास्तविक परीलक्षण इस या उस पार्टी की सरकार बदलने के रूप में तो तब तक नही हो सकता , जब तक बहुमत जनसाधारण अपने व्यापाक एवं बुनियादी हितो के प्रति सजग सचेत नही होता | वर्तमान समाज के राज एवं शासन व्यवस्था के बारे में तथा उसके अंतर्गत बढ़ते विभिन्न समस्याओं के प्रति मोटे तौर पर सजग सचेत होकर मतदान नही करता | वर्तमान समय में तो बहुसंख्यक मतदाता की स्थिति इस अपेक्षित आवश्यकता एकदम विपरीत है |
साथ ही उसके हितो की विरोधी भी है | उदाहरण - सभी धर्म , जाति,क्षेत्र की सबसे बड़ी संख्या में मौजूद किसानो के हितो की अनदेखी सभी पार्टियों की केन्द्रीय व प्रान्तीय सरकारों द्वारा की जाती रही है | डंकल प्रस्ताव को सभी पार्टियों द्वारा लागू किये जाने के साथ किसानो की समस्याओं , संकटों को खुलेआम और तेजी के साथ बढाया जाता है | इसके वावजूद किसान समुदाय इन सभी पार्टियों के नेताओं के विरोध में मतदान करने की जगह धर्म - सम्प्रदाय - जाति-क्षेत्र के नाम पर विखण्डित होकर इन पार्टियों के पक्ष में मतदान करता रहा है || इस तरह बड़ी संख्या में मजदूरो की पहले से भी ज्यादा बढती साधनहीनता विपन्नता के लिए सभी पार्टियों की सरकार द्वारा लागू की जाती रही वैश्वीकरणनीतियों को लेकर प्रमुख पार्टियों के विरोध में मतदान करने की जगह व्यापक मजदुर वर्ग भी धर्म , जाति,क्षेत्र आदि के रूप में विखण्डित होकर वोट देता है | यही स्थिति बहुसंख्यक बुनकरों दस्तकारो दुकानदारों तथा पढ़े लिखे बेरोजगार नौजवानों से लेकर कलर्क , अध्यापक , वकील , डाक्टर इन्जीनियर जैसे मानसिक श्रमजीवी समाज की भी है | वस्तुत: चुनावी वोट के प्रति व्यवहार में इस समय शिक्षित एवं अशिक्षित जनसमुदाय में कोई भेद नही रह गया है |हालाकि जनसमुदाय के सभी सामजिक हिस्सों की बहुसंख्यक समस्याग्रस्त जनसमुदाय में अपने कमाओ , पेशो की स्तिथियों तथा जीवन की अन्य बुनियादी समस्याओं को लेकर असंतोष आक्रोश मौजूद है , पर वह अंसतोष आक्रोश लगातार बढती जनसमस्याओ के लिए जिम्मेवार नीतियों पार्टियों एवं नेताओं के विरोध की जगह विभिन्न पार्टियों नेताओं धर्मवादी जातिवादी क्षेत्रवादी समर्थन के वोट में बदल जाता है लेकिन क्यो? कयोकी पिछले 30 - 40 सालो से राजनितिक पार्टियों , नेताओं प्रचार तंत्र बौद्धिक हिस्सों द्वारा बहुसंख्यक श्रमजीवी जनसमुदाय से धर्म , जाति , क्षेत्र के आधार पर चुनावी समर्थन एवं वोट लेकर विभिन्न पार्टियों की या उसके गठबंधन की सरकार बनाने का काम लगातार किया जा रहा है | उसको लगातार बढ़ावा दिया जाता रहा है फिर इसी के साथ श्रमजीवी जनसमुदाय को अपनी जीविकोपार्जन एवं जीवन की बुनियादी एवं व्यापक समस्याओं के विरोध में एकजुट एवं आंदोलित होने से रोकने का भी काम किया गया है | उनके बढ़ते आक्रोश असंतोष को धर्म , जाति क्षेत्र आदि के साम्प्रदायिक आधार पर बाटा- तोड़ा जा रहा है इन्ही प्रचारों और अपने भीतर बैठे धर्म , जाति , क्षेत्र आदि के सदियों पुराने लगावो , विरोधो के फलस्वरूप समस्याग्रस्त जनसमुदाय अपनी बढती समस्याओं के लिए जिम्मेवार प्रमुख नीतियों और उसे लागू करने वाले नेताओं पार्टियों के विरुद्ध मतदान करने की जगह उनके समर्थन में तथा अपने श्रमजीवी वर्ग हितो के विरुद्ध मतदान करता रहा है | नतीजे के रूप में जनसाधारण श्रमजीवी वर्ग के चुनावी वोट की ताकत अधिकाधिक एकजुट होने की जगह विखंडित होती चली गयी और हो भी रही है |


चित्र - साभार गूगल से

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