बगाल की संस्कृति का आगमन आजमगढ़ तक --------------
परानापुर में काली बाड़ी में होती है पारम्परिक तरीके से पूजा
ओकार स्वरूप की अविभाज्य ऊर्जा '' प्रकृति '' के रूप में '' शक्ति ' की उपासना वैदिक काल से प्रचलित रही है | किन्तु '' नव दुर्गा '' रूपायन '' सप्तशती '' मूर्ति स्थापना एवं सामूहिक पूजा -- विसर्जन बाद के यूग की देंन है | अवतारवाद के धारणा के साथ त्रिदेव ( ब्रम्हा , विष्णु , महेश ) तथा बहुदेव ( ग्राम देवता ) कुल देवता आदि की परिकल्पना एवं मान्यताए आई किन्तु शक्ति स्वरूपा दुर्गा सभी परिकल्पनाओं में उपस्थित थी | यही समस्त ब्रह्माण्ड के परिचालन की अजस्र स्रोत है | किन्तु बंगाल की धरती इस उपासना पद्दति की केन्द्र -- बिंदु है | प्राचीन गणराज्य में भी बंगाल का '' काली मन्दिर '' लोगो की आस्था का केन्द्र रहा है | कहते है कि आधुनिक '' कोलकाता '' का मध्य एवं उत्तरकाल में नाम '' कलिका -- स्थान '' -- '' कलिकाथा '' कलिकाता बनता -- बिगड़ता रहा है जो काली माँ के आधार पर अवस्थित है | स्वास्थ्य , संगीत , कला मंच , व्यापार के माध्यम से बगाली बन्धुओ ने इसे न केवल उत्तर प्रदेश, बिहार बल्कि देश के सुदूर प्रान्तों और अंचलो तक ले गये | बंग विभाजन एवं बागलादेश के उदय ने भी बगाल मूल के लोगो का पूरे बड़े फलक पर वितरण किया | फलत: बंग - बन्धुओ के साथ '' दुर्गापूजा '' भी समूचे विश्व में प्रतिष्ठित हुआ | बंगाल में देवी पूजन परम्परा का मूल 19 वी शताब्दी में प्राप्त होता है | जब विधर्मियो के आक्रमण से धार्मिक आन्दोलन का समय था | बालकवि दीपक एक स्मृतिकार थे उन्होंने संस्कृत श्लोकों एवं बंगभाषी पद्दति में दुर्गापूजा का विधान बनाया | इसे अन्य स्मृतिकारो ने सुधारा | व्यवस्थित सुधार रघुनन्दन भट्टाचार्य ने 1757 ई में एक भव्य आयोजन के साथ किया | इसी वर्ष प्लासी युद्ध के पश्चात श्याम -- बाजार के राजवंशी राजा नवकृष्ण बहादुर ने दुर्गापूजा का भव्य आयोजन किया और लार्ड क्लाइव को आमंत्रित किया | इसी बीच 11 वी शताब्दी में लिपिबद्ध , दुर्गाचरण पद्धति को वाचस्पति मिश्र ने विस्तार से लिखा और दस प्रहरणी ( दस अस्त्रों से प्रहार करने वाली ) देवी का रूपायन किया तो सर्व प्रथम ताहिरपुर के महाराज वंश नारायण ने साढ़े आठ लाख रुपया खर्च कर 1783 में उत्तर भारत में दुर्गापूजा का भव्य आयोजन किया था | उत्तर भारत में बंगीय दुर्गापूजा की शुरुआत 1773 ई में काशी में आनन्द मोहन मित्रा के द्वारा किया गया | इसके ठीक तीन वर्ष बाद गोरखपुर की दुर्गाबाड़ी में वैसा ही भव्य आयोजन की शुरुआत हुई | दिल्ली में सार्वजनिक पूजा 1910 में शुरू की गयी -- धीरे --धीरे इसी क्रम में प्रयाग , लखनऊ , कानपुर आदि बड़े महानगरो से होते हुए यह सिलसिला 1956 में आजमगढ़ पहुचा | 1956 में यहाँ तैनात कुछ बंग बन्धुओ जो अधिकारी व डाक्टर और अन्य पेशो से जुड़े लोग थे उन्होंने तय किया कि यहाँ भी दुर्गापूजा होना चाहिए | इसी कर्म में श्री श्याम लाल अग्रवाल के स्टैन्डर्ड मेडिकल हाल के उपर बने मकान में उपस्थित हुए गणमान्य बंग बन्धु और शहर के सम्भ्रांत लोगो ने मिलकर बंग सोसायटी की नीव रखी | उस नीव रखने में डा नवजीवन बनर्जी , राजेन्द्र नाथ दत्ता ( रेलवे स्टेशन मास्टर ) डा एस के मुखर्जी ( तत्कालीन हेल्थ अफसर ) आजमगढ़ ई बी दास ( तत्कालीन एस डी ओ हाइडिल ) डा पी के अग्रवाल ( एम् ओ सीतापुर आँख का अस्पताल ) डा एस के साहा - डा चित्तपद विश्वास , डा एस के सेन डा श्रीमोन्तो सिन्हा श्यामलाल अग्रवाल , के साथ विद्युत् -- विभाग से जुड़े श्री हिरण्य सेन गुप्ता , श्री बी मुखर्जी , विशटूपद दास , श्री निशिकांत राय , डी के दता और प्रख्यात इतिहासकार डा शांति स्वरूप वर्मा व एडवोकेट भगवान स्वरूप वर्मा ने इस बंग सोसायटी के माध्यम से आजमगढ़ को एक ऐसा मंच दिया जो आजमगढ़ को एक संस्कृति और परम्परा प्रदान करती है | 1956 सर्व प्रथम '' आदि शक्ति '' का पूजा का केन्द्र बना हाइडिल का कैम्पस | माँ आदि शक्ति का आव्ह्वान षष्टी के दिन विधिवत संस्कारों से पूरा क्या गया और सप्तमी के दिन इन परिवारों से जुड़े लोगो ने एक नये युग का सूत्रपात शास्त्रीय संगीत , कत्थक नृत्य , उप शास्त्रीय संगीत के माध्यम से महा अष्टमी के दिन बंग सोसायटी के शानदार मंचीय अभिनय कलाकारों ने पहला नाट्य मंचन '' शाहजँहा '' से किया | इसमें शाहजहाँ का मुख्य किरदार निभाया मिस्टर वी के दत्ता और अन्य किरदारों में डा एस के साहा , डा पी के अग्रवाल एन के राय बी मुखर्जी हिरण्य सेन गुप्ता शिशिर विश्वास ने इसका निर्देशन डा एस के साहा ने किया था | नवमी के दिन हिन्दी नाटक का मंचन हुआ पता करने के बाद भी उस नाटक का नाम नही मालुम हो सका | 1957 में बंग सोसायटी का दूसरा पड़ाव बना नर्सरी स्कूल का प्रागण -- 1957 द्वारा कलाभवन में जिले के बाढ़ पीडितो के आश्रय के लिए निर्माण कुसुम संगीत विद्यालय की स्थापना श्रीमती कुसुम कटारा द्वारा की गई थी जो जनपद के तत्कालीन जिलाधिकारी श्री बीरेन्द्र कटारा की पत्नी थीं। इस कलाभवन के साथ कुछ विशेषताए भी जुडी है इस कलाभवन के रंगमंच को प्रख्यात सिने कलाकार पृथ्वीराज कपूर ने डिजाइन किया था और इसके पुस्तकालय में महा पंडित राहुल साकृत्यायन ने बौद्ध काल की मुर्तिया और प्राचीन काल की अमूल्य पांडुलिपिया सौपी थी जो आज नदारत है अगर वो पांडुलिपिया होती तो आजमगढ़ पर शोध करने वाले लोगो के काम आती | इसके साथ ही एक रंग आन्दोलन की शुरुआत भी श्री कटारा जी ने किया इस कला भवन में पुस्तकालय के साथ ही अपनी पत्नी कुसुम जी के नाम से एक संगीत विद्यालय की स्थापना की | इस संगीत विद्यालय में 1959 में मिस्टर जैन जो एक शानदार कत्थक नर्तक थे उन्होंने इस जनपद को अपना अमूल्य योगदान दिया और यहाँ उन्होंने कत्थक नृत्य की शिक्षा शुरू की | कलाभवन के निर्माण के बाद से ही बंग सोसायटी का आदि शक्ति ( दुर्गापूजा ) का आयोजन इस प्रागण में होता चला आ रहा है | इसी दौरान आजमगढ़ बंग सोसायटी को 1964 में एक बेहतरीन कलाकार मिला '' गरीब फार्मिसी '' के संचालक डा रामपद चक्रवर्ती जी वो मात्र यहाँ तीन वर्ष ही रहे उनके बाद उनके भांजे डा गोराचांद बनर्जी ने बंग सोसायटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की बागडोर संभाली डा गोराचांद बनर्जी ने बंग सोसायटी के मंच को एक ऊंचाई प्रदान की अपने बेजोड़ निर्देशकीय क्षमता से बंगला भाष्य के नाटको के साथ हिन्दी नाटको का और बंगाल की जात्रा का सफल निर्देशन किया इसके साथ ही उन नाटको में नूतन प्रयोग भी किये | इसी वर्ष इस मंच को जिले के रंग -- क्षेत्र में दो होनहार नगीने मिले | श्री दीनदयाल सिंह जो पी डब्लू डी में जूनियर इंजिनियर थे और शमशुल हुदा खान जो बाद के दिनों में '' डैडी " के नाम से मशहूर हुए | 70 के दशक में बंग सोसायटी को उस समय की नई पीढ़ी ने गति के साथ नई ऊर्जा प्रदान की डा पवित्र जीवन बनर्जी , डा जमाल , बृज मोहन , श्रीमती मंजू दत्ता , नमिता दता , सविता दता ,मीना दता ,श्रीमती मीना साहा ,श्रीमती स्वरूप इन सारे लोगो ने अपने मंचीय अभिनय से इस बंग सोसायटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों को नई उर्जा प्रदान की उसी दशक में बंग सोसायटी में और निखार आया अब इसमें अपनी सक्रियता को इन लोगो ने बढाया डा दीपक साहा , अचिन कुमार दता डा सुभाष सिन्हा , प्रेम मजुमदार ,धिरेश्वर चटर्जी , गोपेश्वर बनर्जी डा तपन कुमार विश्वास आर बी भट्टाचार्य , नरेन भट्टाचार्य चंडी जीवन बनर्जी मधुलिका साहा , मधुछ्न्दा साहा , शिखा साहा , सुनीता सिन्हा श्रीमती जयश्री साहा ने बंग सोसायटी के मंच को नई दिशा प्रदान की 80 के दशक में इसमें जुड़े सुनील कुमार दत्ता , डा सौमित्र जीवन बनर्जी , उत्पल कुमार दत्ता , सुधीर कुमार दत्ता अधीर कुमार दत्ता , उत्तम दत्ता , रुद्राणी दत्ता , रीना दत्ता , पीयूष चक्रवर्ती बंग सोसायटी में 80 के दशक में बंग सोसायटी के रंगमंच पर नये प्रयोग की शुरुआत हुई सुनील दत्ता ने बादल सरकार के नूतन प्रयोग थर्ड थियेटर और शाशंक बहुगुणा के मनोशारीरिक थियेटर की समावेश करते हुए नाटको में नये प्रयोग किये बाबू देर डाल कुकुर , सेम साईट , डकैत कौन , विशुरेर बीये , मिस्टर जासूस , आमी मोदोंन बोलछी, पिनकुशन , काफी हाउस में इन्तजार , जनता पागल हो गई, हमे हमारा अधिकार दो के साथ ही दर्जनों नाटको का निर्देशन किया इसके साथ ही अभिनय भी किया | 90 के दशक में पीयूष चक्रवर्ती और सुमित दास ने लाईट साउंड का नया प्रयोग किया इसमें प्रकृति के संरक्षण को '' उपकारी वृक्ष और निरकुश मानव , लाल कमल नील कमल , महिषासुर मर्दनी संगीत की खोज में लाईट और साउंड की बेजोड़ प्रयोग करके उसके साथ ही बंग परिवार के बच्चो को भी मंचीय कलाकार बनाया कुमारी लिपि दत्ता , प्रकृति दता , श्रुति दत्ता , डोली मजुमदार , नन्दनी दास , मिष्टी दास , रेशम दास , बोनी दास ,शुभांकर दत्ता , समीर दत्ता , समरेश दत्ता , सुष्मिता दत्ता जैसे बाल कलाकारों ने अपने गीत संगीत नृत्य और अपने अभिनय से इस बंग सोसायटी के रंग मंच को नई दिशा देने का काम किया और आज भी बंग सोसायटी अपनी उसी पुरातन आदि शक्ति ( दुर्गा पूजा ) के परम्पराओं का निर्वहन करती चली आ रही है | वर्तमान समय में परानापुर में काली बाड़ी निर्मित हो चूका है गत बीते 5 वर्षो से वहा पर इस परम्परा का निर्वहन हो रहा है |
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
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